छत्तीसगढ़ चुनाव में कहां खड़ी है बसपा

नई दिल्ली। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव में महागठबंधन के बाद छत्तीसगढ़ का चुनाव सबसे ज्यादा दिलचस्प हो गया है. इस चुनाव में छजकां-बसपा और सीपीआई का महागठबंधन नए सियासी समीकरण बनाने के लिए चुनावी मैदान में ताल ठोक रहा है. यह महागठबंधन राज्य में दो मुख्य विरोधी दलों भाजपा और कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकता है. इन तीनों राज्यों में जिस राजनैतिक दल पर सबकी निगाहें टिकी थी वो बहुजन समाज पार्टी है. अब जब साफ है कि बसपा छत्तीसगढ़ में महागठबंधन का सबसे अहम हिस्सा है तो सवाल उठता है कि प्रदेश के विधानसभा के चुनाव में बसपा कहाँ खड़ी है.

सूबे में राजनीतिक समीकरण बहुत तेजी के साथ बन और बिगड़ रहे हैं. कांग्रेस से बगावत कर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपनी नई राजनीतिक पार्टी छत्‍तीसगढ़ जनता कांग्रेस बनाई थी. इस विधानसभा चुनाव में अजीत जोगी ने बसपा और सीपीआई के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है. महागठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे में छजकांं को 55, बसपा को 33 और सीपीआई को 2 सीटें मिली हैं. सभी दलों ने अपने प्रत्याशियों ने नाम की घोषणा कर दी है.

चुनाव विशेषज्ञों का मानना है कि महागठबंधन सूबे में करीब 30 से 35 विधानसभा सीटों पर सीधा असर डाल सकता है. इसकी अपनी वजह भी है. सूबे में सामान्य वर्ग की 51 सीटें, अनुसूचित जनजाति के लिए 29 सीटें और अनुसूचित जाति के लिए 10 सीटें आरक्षित हैं. एसएसी और एसटी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर महागठबंधन का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है.

एक खास बात प्रदेश में बसपा प्रमुख की बढ़ती सक्रियता भी है. 04 नवंबर को प्रदेश में रैली करने के बाद मायावती 16 और 17 नवंबर को भी प्रदेश प्रवास पर रहेंगी, इस दौरान वे जांजगीर और रायपुर में पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में प्रचार करेंगी. अजीत जोगी से गठबंधन के बाद बसपा की उम्मीदें भी बढ़ी है और वह प्रदेश में तीसरी ताकत बनने को बेताब है. यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रदेश के चुनाव में महागठबंधन कितना असर दिखा पाता है. फिलहाल महागठबंधन ने भाजपा और कांग्रेस की धड़कन को तो बढ़ा ही दिया है.

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गांधी को गोद लेने वाले व्यवसायी

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पूंजीपतियों के साथ एक समस्या होती है कि वे या तो स्वयं ही अपनी प्राथमिक छवि और वृत्ति से मुक्त नहीं हो पाते. और कई बार समाज ही अनजाने में उन्हें जीवनपर्यंत उसी नज़र से देखता रह जाता है. एक प्रखर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जमनालाल बजाज का स्वतंत्र चित्रण न हो पाने की वजह शायद यही रही होगी. आज के पूंजीपतियों की मानसिकता और जीवन-चर्या को देखते हुए हमारे लिए कल्पना करना भी मुश्किल हो सकता है कि भारत में जमनालाल बजाज जैसे वैरागी पूंजीपति भी हुए हैं जिसने त्याग और ट्रस्टीशिप का ऐसा उदाहरण पेश किया कि गांधी और विनोबा जैसे लोग उनके साथ पारिवारिक सदस्य के रूप में घुल-मिल गए. युवा जमनालाल के भीतर आध्यात्मिक खोजयात्रा की छटपटाहट थी और वह किसी सच्चे कर्मयोगी गुरु की तलाश में भटक रहे थे. इस क्रम में पहले वह मदन मोहन मालवीय से मिले. कुछ समय तक वे रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ भी रहे. अन्य कई साधुओं और धर्मगुरुओं से भी वह जाकर मिले. 1906 में जब बाल गंगाधर तिलक ने अपनी मराठी पत्रिका ‘केसरी’ का हिंदी संस्करण नागपुर से निकालने के लिए इश्तहार दिया, तो युवा जमनालाल ने एक रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलनेवाले जेबखर्च से जमा किए गए सौ रुपये तिलक को जाकर दिया. जमनालाल ने लिखा है कि देशसेवा के लिए दान में दिए गए उस सौ रुपये से जो खुशी उन्हें तब मिली थी, वैसी बाद में लाखों दान करने पर भी नहीं मिली. लेकिन तिलक को भी वे अपना गुरु नहीं मान सके. इस बीच वह महात्मा गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में किए जा रहे सत्याग्रह की खबरों को पढ़ते रहे और उनसे बहुत प्रभावित होते रहे. 1915 में भारत वापस लौटने के बाद जब गांधीजी ने साबरमती में अपना आश्रम बनाया तो जमनालाल कई बार कुछ दिन वहां रहकर गांधीजी की कार्यप्रणाली और उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश करते रहे. गांधीजी में उन्हें संत रामदास के उस वचन की झलक मिली कि ‘उसी को अपना गुरु मानकर शीश नवाओ जिसकी कथनी और करनी एक हो.’ जमनालाल को अपना गुरु मिल चुका था. उन्होंने पूरी तरह से गांधीजी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया. 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के दौरान जमनालाल ने गांधीजी से अनुरोध किया कि मैं आपका ‘पांचवां बेटा’ बनना चाहता हूं और आपको अपने पिता के रूप में ‘गोद लेना’ चाहता हूं. पहले पहल तो इस अजीब प्रस्ताव को सुनकर गांधीजी को आश्चर्य हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने इसपर अपनी स्वीकृति दे दी. 16 मार्च, 1922 को एक विचाराधीन कैदी के रूप में गांधीजी ने साबरमती जेल से जमनालाल को एक चिट्ठी में लिखा था— ‘तुम पांचवें पुत्र तो बने ही हो, किन्तु मैं योग्य पिता बनने का प्रयत्न कर रहा हूं. दत्तक लेनेवाले का दायित्व कोई साधारण नहीं है. ईश्वर मेरी सहायता करे और मैं इसी जन्म में इसके योग्य बन सकूं.’ जमनालाल ने सामाजिक सुधारों की शुरुआत सबसे पहले अपने घर से ही की. असहयोग आंदोलन के दौरान जब विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार शुरू हुआ तो उन्होंने सबसे पहले अपने घर के तमाम कीमती और रेशमी वस्त्रों को बैलगाड़ी पर लदवाकर शहर के बीचोंबीच उसकी होली जलवाई. उनकी पत्नी जानकीदेवी ने भी सोने और चांदी जड़े हुए अपने वस्त्रों को आग के हवाले कर दिया और आजीवन खादी पहनने का व्रत ले लिया. अंग्रेज सरकार द्वारा अपनी ओर से दिए गए ‘राय-बहादुर’ की पदवी उन्होंने त्याग दी. बंदूक और रिवॉल्वर जमा कराते हुए उन्होंने अपनी लाइसेंस भी वापस कर दी. अदालतों का बहिष्कार करते हुए अपने सारे मुकदमें वापस ले लिए. मध्यस्थता के जरिए विवादों को निपटाने के लिए अपने साथी व्यवसायियों को मनाया. जिन वकीलों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए अपनी वकालत छोड़ दी उनके निर्वाह के लिए उन्होंने कांग्रेस को 1 लाख रुपये का अलग से दान दिया. सनातनियों के घोर विरोध के बावजूद वर्धा स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर में दलितों के प्रवेश कराने में उन्होंने विनोबा के नेतृत्व में अद्भुत सफलता हासिल की. अपने घर के प्रांगण, खेतों और बगीचों में स्थित कुओं को उन्होंने दलितों के लिए खोल दिया. असहयोग आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीखा भाषण देने और सत्याग्रहियों का नेतृत्व करने के लिए 18 जून, 1921 को जमनालाल को गिरफ़्तार कर लिया गया. उनके साथ-साथ विनोबा को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. विनोबा को तो एक ही महीने की सजा हुई, लेकिन जमनालाल को डेढ़ साल के सश्रम कारावास की कठोर सजा और 3000 रुपये का जुर्माना भी हुआ. 11 फरवरी, 1942 को अकस्मात् ही जमनालालजी का देहांत हो गया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जानकीदेवी ने स्वयं को देशसेवा में समर्पित कर दिया. विनोबा के भूदान आंदोलन में भी वह उनके साथ रहीं. जमनालाल जी ने गांधीजी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को वास्तविक जीवन में जीकर दिखाया. उन्होंने प्रसिद्ध संत तुकाराम के इस पद को अपने जीवन का सूत्र माना था- ‘जोडोनियां धन उत्तम वेव्हारें. उदास विचारें वेच करी..’ यानी धन शुद्ध साधनों से और ईमानदारी से अर्जित करो और खर्च करो दूसरों की भलाई के लिए उदारतापूर्वक और विवेकपूर्वक. आज के दौर में कम से कम भारत में ऐसे पूंजीपतियों के उदाहरण तो ढूंढने पर भी बिरले ही मिलेंगे. Read it also-झूठ की फैक्टरी का सामना झूठ की फैक्टरी खड़ी करके जीत हासिल की जा सकती है?

मनोज तिवारी और अमानतुल्ला में कौन गलत?

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‘मैंने सारी कुंडली निकाल ली है, इन्हें बताऊंगा कि पुलिस होती क्या है’ ये घमंड से भरे शब्द हैं दिल्ली से बीजेपी सांसद मनोज तिवारी के. तिवारी जी कुछ समर्थकों के साथ सिग्नेचर ब्रिज के उद्घाटन पर पहुंचे थे. उनके तेवर ऐसे थे कि उन्हीं की सरकार द्वारा संचालित दिल्ली पुलिस ने रास्ता रोक दिया. तमतमाए बिलबिलाए मनोज तिवारी ने इस दौरान पुलिसवाले को थप्पड़ भी मार दिया.

इससे पहले जब वो मंच पर चढ़े थे तो उन्हें सीएम केजरीवाल के बिगड़ैल लाड़ले अमानतुल्लाह ने धक्का मार दिया. पुलिसवाले ना होते तो तिवारी साहब एकाध हड्डी तुड़वा कर घर लौटते. हैरत इस बात पर है कि बीजेपी के मुकाबले विनम्र दिखने वाली पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल भी इस तमाशे को देखते रहे.

पार्टी और रुझान से ऊपर उठकर देखने पर अहसास होता है कि भारतीय राजनीति का चेहरा कितना बदल गया है. अब एक-दूसरे का विरोध शाब्दिक नहीं होता, पहलवानी से हो रहा है. पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता निजी खुन्नस में बदल गई हैं. ये हमारे वोटों से चुने हुए नेता हैं जिनका सार्वजनिक व्यवहार हमारे घर के शैतान बच्चों से भी ज़्यादा बचपने भरा है. इनमें से एक वो मनोज तिवारी हैं जो कला के क्षेत्र में देश ही नहीं विदेश तक में जाने जाते हैं, सांसद के तौर पर देश की राजधानी से चुने गए हैं और जिस शहर से देश चल रहा है वहां से अपनी पार्टी के मुखिया हैं, दूसरी तरफ वो अमानतुल्लाह हैं जो देश की राजधानी का प्रशासन देखने वाली पार्टी की तरफ से विधायक हैं. इससे पहले वो रामविलास पासवान की पार्टी से भी चुनाव लड़े थे.

दिल्ली के लोग इन ‘सियासी पहलवानों’ की वो फुटेज बार-बार देखें जिसमें ये अपने शारीरिक बल का शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं. कम से कम एक नागरिक होने के नाते मैं चाहूंगा कि आगामी चुनाव में इन दोनों हिंसक और जामे से बाहर नेताओं को हराकर किसी और को मौका देना चाहिए. किसी ऐसे को जिताया जाए जो कम से कम सार्वजनिक तौर पर बात करना और व्यवहार करना जानता हो. उसे लोकतंत्र में विरोध करने का सलीका सिखाना ना पड़े. जैसा बर्ताव आप अपने बच्चों से अपेक्षित नहीं रखते वैसा व्यवहार करनेवाले लोगों को भविष्य सौंप देना सिर्फ आपकी अपरिपक्वता दिखाएगा. ऐसे सारे नेताओं को झाड़ू से बुहारकर संसदों और विधानसभाओं से बाहर निकाल फेंकना चाहिए.

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हरियाणा कर्मचारी आंदोलन दशा और दिशा 

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पिछले 16 अक्टूबर से रोड़वेज कर्मचारी हड़ताल पर थे. ये हड़ताल 18 दिन रही जो एक ऐतिहासिक कर्मचारी आंदोलन रहा. 2 नवंबर कोमाननीय हरियाणा एन्ड पंजाब उच्च न्ययालयके आश्वाशन पर की 12 अक्टूबर को सरकार और कर्मचारी प्रतिनिधियों को आमने-सामने बैठाकर बातचीत के माध्यम से सही फैसला कोर्ट करेगा. इस आश्वाशन पर रोड़वेज कर्मचारी यूनियनों ने हड़ताल समाप्त कर दी. ये कर्मचारियों की जीत है या सरकार की जीत है. ये सोचने का विषय है. मुझे तो ये सरकार की जीत लग रही है. जो काम सरकार करना चाहती थी वो कोर्ट ने कर दिया.

लेकिन बहुमत कर्मचारियों ने जिस एकता और बहादुरी से लड़ने का परिचय दिया, फासीवादी सत्ता का बहादुरी से सामना किया,उसने आम जनता का दिल जीत लिया. इसलिए आंदोलन को देखे तो ये कर्मचारियों की बहुत बड़ी जीत है. जो एकता कर्मचारियों में देखने को मिली शायद ऐसा पहली बार हुआ. ये एकता भविष्य में रंग लाएगी. ]

हरियाणा में परिवहन की लाइफ लाइन हरियाणा रोड़वेज है. हड़ताल होने के कारण आम जनता जो हजारो की तादात में रोजाना सफर करती है वो खासी परेशानी में थी. हरियाणा सरकार जो तानाशाही में विश्वास रखती है. इस हड़ताल को कुचलने के लिए प्रत्येक हथकंडा अपनाया गया. सरकार और भाजपा द्वारा हड़ताल को तोड़ने के लिए झूठा प्रचार से लेकर दमनात्मक कार्यवाही की गई. हरियाणा सरकार न्यूज पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापनदेकर कर्मचारियों और इस हड़ताल को बदनाम कियागया. हरियाणा सरकार कह रही है कि कर्मचारियों की लड़ाई तनख्वा को बढ़वाने के लिए है. सरकार ने इनको मिल रही सारी सुविधाएं उस विज्ञापन में छपवाई. लेकिन रोड़वेज कर्मचारी अपनी इस हड़ताल करने की वजह सरकार द्वारा रोड़वेज के निजीकरण करने की योजना जिसके तहत हरियाणा सरकार 720 निजी बसे ला रही है.

आंदोलन की दशा

कर्मचारी यूनियन जो 3-4 यूनियनों का सांझा गठजोड़ करके मजबूती से खड़े थे. सभी सरकारी विभागों के कर्मचारी भी इनके समर्थन में 2 दिन की सामूहिक हड़ताल करके समर्थन दे चुके थे. अध्यापक 100 बस सरकारी बेड़े में अपनी तनख्वा से देने की पेशकश सरकार को कर चुके थे.सैंकड़ो कर्मचारियों को बर्खास्त किया जा चुका था तो हजारो पर मुकद्दमे दर्ज हुए थे,गिरफ्तारियां हुई थी. ये कर्मचारी आंदोलन इतिहास में एक मजबूत आंदोलन के तौर पर याद किया जाएगा.

मैं मेरे छात्र जीवन से ही कर्मचारी आंदोलन को समर्थन करता रहा हूँ. बहुत बार कर्मचारी आंदोलन में लाठियां भी खाई है. मुझे याद है 2006-07 में हरियाणा सरकार हिसार से दिल्ली व चंडीगढ़ के लिए वॉल्वो बस चला रही थी. हम रात 12 बजे ही कर्मचारियों के साथ रोड़वेज हिसार में वॉल्वो बस न चले इसके विरोध में रुक गए. सुबह 6 बजे बस चलनी थी विरोध हुआ. सरकार ने लाठी चार्ज किया. कर्मचारी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. लाठी चार्ज और वॉल्वो बस के खिलाफ पूरे हरियाणा में रोड़वेज ने चक्का जाम कर दिया. हड़ताल 2 दिन चली उसके बाद सरकार और कर्मचारी यूनियनों का समझौता हो गया. यूनियन ने ऐलान किया कि सरकार झुक गयी और हमारी सब मांगे मान ली गयी है.

लेकिन वॉल्वो बस उसके बाद भी चलती रही अब सवाल ये पैदा हुआ कि कौनसी मांग मानी ली गयी. क्योंकिविरोध और चक्का जाम तो वॉल्वो बस के खिलाफ था. लेकिन वो तो अब भी चल रही थी. मैने अलग-अलग विभागों की दर्जनों हड़तालें देखी है उनमें गया भी हूँ यूनियन नेताओं के निजीकरण के खिलाफ जोशभरे भाषण भी सुने है लेकिन फिर भी सरकारे निजीकरण करने में कामयाब रही है. लेकिन प्रत्येक आंदोनल के बाद यूनियन बोलती रही है कि सरकार झुक गयी और जीत हमारी हुई है अगर ऐसा हुआ है तो फिर निजीकरण क्यों हुआ है. जिस जीत का दावा यूनियनें करती रही आखिर वोकौनसी जीत थी, किन मुद्दों पर जीत हासिल की गई.

हरियाणा ही नही पूरे देश का प्रगतिशील बुद्विजीवी, लेखक, कलाकार, वामपन्थी आज भी इस हड़ताल को मजबूती से समर्थन कर रहा है. लेकिन क्याइन कर्मचारी यूनियनों के अवसरवादी, सुधारवादी, समझौतावादी कार्यक्रम के आधार पर निजीकरण को रोका जा सकता है?

हड़ताल के दौरान सरकार और कर्मचारियों के प्रतिनिधियों की बातचीत का वीडियो देखा. सरकार जहां निजी बसों के पक्ष में मजबूती से खड़ी दिखी तो वही कर्मचारी नेता बातचीत में सरकारी बस लाने की और इसके लिए 1 महीने का वेतन देने की बात करते हुए दिखे लेकिन साथ ही सरकार परये आरोप लगाते मिले की ये बस महंगी हैऔर इनके टेंडर बंटवारे में बहुत बड़ा घोटाला हुआ है. इन बसों के सिर्फ कुछ मालिक है.

कर्मचारियों का ये पक्ष क्या साबित करता है? यूनियन पक्ष के अनुसार अगर बस सस्ती और टेंडरबंटवारा सरकार ईमानदारी से करती तो क्या कर्मचारी यूनियन को कोई दिक्कत नही है?

इस हड़ताल को इनेलो नेता अभय चौटाला और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी समर्थन दिया है. लेकिन क्या वो ईमानदारी से समर्थन में है. जब इनेलो और कॉग्रेस की सरकार सत्ता में थी तो उस समय ये खुद भी निजीकरण कर रहे थे साथ में ही कर्मचारी आंदोलन का दमन भी कर रहे थे. दोनों विपक्षी पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को आंदोलन के पक्ष में उतारने की बजाए सिर्फ ब्यान देकर ही फसल काटने की फिराक में है.

हरियाणा में सर्व कर्मचारी संघ सी.पी.एम. समर्थित और हरियाणा कर्मचारी महासंघ सीपीआई समर्थित यूनियनें है जिनका लगभग सभी विभागों में मजबूत प्रभाव है. हरियाणा का कर्मचारी आंदोलन ही नही पूरे देश का कर्मचारी आंदोलन जहां सी.पी.एम. या सीपीआई की या दूसरी अवसरवादी यूनियनें है. जिनका कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम नही है वहाँ सब जगह बड़ी बुरी दशा है. इन कर्मचारी यूनियन में व्यक्तिवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद और अवसरवाद हावी होता है. कर्मचारी जो यूनियन का नेता बन गया वो ड्यूटी कभी करता ही नही होता.  एक रोड़वेज डिप्पु की कर्मचारी यूनियन यूनिट का प्रधान तो ऐसा था जो खुद निजी बस में हिस्सेदार था. क्या ऐसे नेता लड़ेंगे निजी बसों के खिलाफ लड़ाई.

इस पूरी लड़ाई में हरियाणा का नागरिक क्या सोचता है और वो किस तरफ खड़ा है.ये जरूर देखना चाहिए. 

जनता क्यो है खिलाफ

कर्मचारियों की ये लड़ाई रोड़वेज को बचाने की लड़ाई हैताकि रोजगार बचाया जा सके.सरकार पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकारी विभागों को निजी हाथों में सौंप कर रोजगार खत्म करना चाहती है. इसलिए कर्मचारी सरकार के खिलाफ व रोजगार के लिए लड़ रहे है.

हरियाणा की जनता कि पहली पसन्द सरकारी नौकरी है. इसके बाद भी क्या कारण है कि जनता रोड़वेज के समर्थन में मजबूती से क्यों नहीं आई. इसके विपरीत जैसे ही सरकार ने सिर्फ 3 महीने के लिए भर्ती करने के लिए बेरोजगारों को बुलाया हजारोंकी तादात में 10 वीं से लेकर एम. फील.किये हुए नौजवानोने नौकरी के लिए अप्लाई कर दिया. दूसरे विभागों के कर्मचारियों ने टिकट काटने व बस चलाने की जिम्मेदारी उठाई.

एक कर्मचारी दूसरे कर्मचारी के खिलाफ क्यों, नौजवानो द्वारा ये गद्दारी क्यों –

इसका सीधा कारण जनता व कर्मचारियों मेंवर्गीय चेतना का न होना है. कुछ साल पहले कर्मचारियों की हड़ताल का समर्थन कर रहे किसान सभा वालो पर एक गांव में हमला तक कर दिया गया था. इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार खुद कर्मचारी है या कर्मचारियों की अवसरवादी यूनियनें है. सरकारी कर्मचारी वोचाहे किसी भी विभाग से और किसी भी पोस्ट से सम्बंध रखता हो. उसका व्यवहार आम जनता के प्रति बहुत ही घटिया स्तर का हो गया है. वो अपने आपको जनता का नौकरनही मालिक समझने लगता है उसी समझ के अनुसार वो जनता से घटिया व्यवहार करता है. कर्मचारियों की तनख्वा 30 हजार से लाख रुपये तक है लेकिन फिर भी बहुमत कर्मचारी की नजर जनता की जेब पररहती है. किसी भी विभाग में बिना रुपये लिए कोई काम नही होता है. अच्छी तनख्वा और अच्छी सुविधाएं लेने के बावजूद कर्मचारी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी नही निभाताहै. सफाई कर्मचारी सफाई नही करता, बिजली कर्मचारीबिना रुपये लिए तार भी नही जोड़ता, सरकारी स्कूलों और हस्पतालों के जो हालात है वो सबके सामने ही है. बाकी विभागों के हालात भी बहुत बुरे है. अगर कर्मचारी यूनियनों का कार्यक्रम क्रांतिकारी कार्यक्रम होता तो उनके मार्फ़त सभी विभागों के कर्मचारियों को सत्ता की जन विरोधी नीतियों, उदारीकरण, भूमंडलीकरण व निजीकरण के खिलाफ वर्गीय राजनीतिक चेतना से लैस किया जा सकता था. अगर कर्मचारियों में ये चेतना आती तो जनता में भी आती और उनके व्यवहार में ये सब दिखता और जनता कभी खिलाफ नही जाती.

वर्गीय राजनीतिक चेतना न होने के कारण अवसरवाद 

वर्तमान में वर्गीय राजनीतिक चेतना न होने के कारण कर्मचारी कितना अवसरवादी है इसका अंदाजा यही से लगाया जा सकता है कि हरियाणा में कर्मचारी यूनियनों का गठन सी.पी.एम. और सीपीआई की बदौलत हुआ. आज तकजितने भी कर्मचारी आंदोलन हुए उनमे लाठी खाने से जेल जाने तक इन दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता शामिल रहे. लेकिन ये भी सच्चाई है कि कभी भी कर्मचारियों ने सी.पी.एम. और सीपीआई को वोट नही दिया. वोट देने के समय उन्ही पार्टियों को चुना जो निजीकरण करना चाहती थी. कर्मचारियों ने कभी भी अपने गांव या कालोनियों में नौजवानो, मजदूरों, किसानों और महिलाओं के जन संगठन बनाने में कभी भी साथ नही दिया. विरोध जरूर किया.

आंदोलन की दिशा क्या हो 

1. अगर ईमादारी से निजीकरण रोकना है तो सबसे पहले कर्मचारियों में क्रांतिकारी विचार से लैसकर्मचारी यूनियन बनाने की जरूरत है.जो साम्राज्यवादी नीतियों को पहचान ले और सुधारवाद, अवसरवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद और करप्शन के खिलाफ मजबूती से लड़ सके. 2. कर्मचारियों को यूनियन के मार्फ़त मेहनतकश आवाम के पक्ष में वर्गीय राजनीतिक चेतना से लैस किया जाना सबसे पहली जरूरत है. 3. कर्मचारी जिस भी जगह रहता है उस जगह अपने आस-पास जनवादी संगठनो का निर्माण करने में मद्दत करे. ताकि सरकार की जनविरोधी और निजीकरण विरोधी नीतियों के खिलाफ जनता का एक मजबूत मोर्चा बनाया जा सके. 4. जनता के साथ कर्मचारियों का व्यवहार सुधारा जाए. क्योंकि कर्मचारी की तनख्वा जनता की जेब से ही आती है. 5. कर्मचारी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी निभाये ताकि जनता को विश्वास हो सके कि कर्मचारी काम चोर नही है. 6. दुश्मन और दोस्त को पहचाना जाए.

ये लड़ाई सिर्फ निजीकरण के खिलाफ नही है, सिर्फ लड़ाई रोजगार के लिए नही है. ये लड़ाई साम्रज्यवाद की उदारीकरण,निजीकरण और भूमंडलीकरण (LPG)नीतियों के खिलाफ है जो मेहनतकश आवाम को गुलाम बनाती है. अगर आने वाले समय मे आंदोलन की सही दिशा नही पकड़ी तो सरकार को निजीकरण करने से रोकना नामुमकिनहै.

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दलित गुमराह तो नहीं है

भारत में वर्ण-व्यवस्था सदियों से चलता चला आ रहा है. कालान्तर में जातियों ने वर्ण-व्यवस्था का स्थान ले लिया; लेकिन जातियों ने वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ही अपना विकास सुनिश्चित किया. अब जातियां ही वर्ण-व्यवस्था का अस्तित्व हैं. जातियां ख़त्म हो गईं तो वर्ण-व्यवस्था टूट जाएगी.

सर्वप्रथम जातियों के अस्तित्व पर ज्योतिबा फुले ने प्रहार किया. रामा स्वामी नायकर और पेरियार ने भी जाति पर प्रहार किया. 1936 में डा.आम्बेडकर ने “जातिप्रथा उन्मूलन” पुस्तक की रचना की और ताउम्र जातिप्रथा तोड़ने की कोशिश करते रहे. जब जातिप्रथा उन्हें अभेद्य दीवार की तरह प्रतीत हुई तो वे जातिप्रथा की नींव कमजोर करने व अनुसूचित-जातियों, जनजातियों को बौद्ध-धर्म स्वीकार करने की सलाह देते हुए खुद भी 14 अक्टूवर 1956 को दीक्षा-भूमि नागपुर में लाखों अनुयाइयों के साथ बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया. इसके बाद भी वे भारत से जातिप्रथा ख़त्म किए जाने के लिए प्रयास करते रहे. उन्हें पता था कि सभी दलित जातियां बौद्ध-धर्म नहीं स्वीकार करेंगी. यदि सम्पूर्ण दलित जातियां बौद्ध-धर्म स्वीकार भी कर लें तो भी अन्य वर्णों एवं ओबीसी की जातियाँ तो अस्तित्व में रहेंगी ही. ऐसी स्थिति में भारत से जातिप्रथा ख़त्म नहीं होंगी. अतः उनका प्रयास था कि संविधान में समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की स्थापना कर दिया जाय. उनका मत था कि संवैधानिक प्रक्रिया में यदि एक व्यक्ति का एक मूल्य स्थापित हो जाय तो देर-सबेर भावी पीढियां इस प्रश्न को हल कर लेंगी. इसीलिए उन्होंने 15 मार्च 1947 को “राज्य और अल्पसंख्यक” लिखकर संविधान सभा के समक्ष अपने द्वारा लिखित संविधान को अवलोकनार्थ प्रस्तुत किया था. उसमें इन्होंने बहुत ही साफ शब्दों में लिख है कि लोकहित में लोकतंत्र को राजकीय समाजवाद की स्थापना अपने संविधान में करना ही होगा. दुर्भाग्यवश, राजकीय समाजवाद कौन कहे डा.आम्बेडकर साहब के “राज्य और अल्पसंख्यक” की कोई भी पंक्ति स्वीकार नहीं की गई. परंतु, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बाबा साहब डा.भीमराव आम्बेडकर जातिप्रथा उन्मूलन से एक अंगुल भी टस से मस हुए.

1980 के दसक में मान्यवर कांशीराम का उदय हुआ. इन्होंने कहा कि जातिप्रथा को तोडा नहीं जा सकता है बल्कि जातियों का ध्रुवीकरण करके उनके वोट के द्वारा सत्ता में आया जा सकता है. इस तरह जाति भले न टूटे, जाति भले न ख़त्म हो किन्तु जातियों को मजबूत तो किया जा सकता है. उन्होंने बसपा के द्वारा दलित जातियों को अवसरवाद सिखाया और डा.आम्बेडकर के जातिप्रथा उन्मूलन का उद्देश्य दलित जातियों के मस्तिष्क में उलट दिया.

डा.आम्बेडकर ने भातीय मार्क्सवादियों से मार्क्सवाद सीखा और उसका प्रभाव उन पर बहुत प्रभावकरी नहीं बन पड़ा, बल्कि उन्होंने यह कह दिया कि कम्युनिज्म सूअरों का दर्शन है. हलाकि, अपने इस बात के खण्डन में उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा मैं कार्लाइल से प्रभावित होने के कारण कह और लिख दिया था जबकि श्रमिकों को टोस्ट और मक्खन कौन कहे, उन्हें तो एक जून की रोटी तक नहीं नसीब है. डा.आम्बेडकर ने लिखा है कि भारत में श्रमिकों के दो दुश्मन हैं-1) ब्राह्मणवाद तथा 2) पूँजीवाद. इन व्यवस्थाओं के निदान के भी दो ही रास्ते हैं-1) बुद्धवाद तथा 2) मार्क्सवाद. मुझे बुद्ध का रास्ता अधिक श्रेष्ठकर लगा. मैंने इसे धारण कर लिया है. कालान्तर में यदि तुम्हें बुद्धवाद से समस्या का निदान न ठीक लगे, तो तुम्हें बेशक मार्क्सवाद को ही अपना लेना होगा, और तीसरा कोई भी रास्ता नहीं है.

किन्तु, डा.आम्बेडकर की एक पूर्वोक्ति को दलित भी दोहराता रहता है और मान्यवर कांशीराम साहब ने कम्युनिस्ट पार्टियों में बचे-खुचे दलितों को बसपा से जोड़ने के लिए कम्युनिस्टों को “हरी घास का हरा साँप” कहकर दलितों के मन-मस्तिष्क में मार्क्सवाद का विरोध भर दिया. दलित दो जगहों के क्रांतिकारी सिद्धांत (डा.आम्बेडकर का जातिप्रथा उन्मूलन और मार्क्स का वर्ग-संघर्ष) से महरूम हो गया.

इधर बसपा अपने स्वक्छन्दातावादी प्रकृति से मान्यवर कांशीराम के दलित सशक्तिकरण के दर्शन से भी महरूम हो गई. बसपा की नैय्या डूबती नजर आ रही है. कुछ पूर्व से ही बामसेफ के नए संस्करण के साथ मान्यवर बामन मेश्राम साहब के सूर्य रूप में उदित होने लगे हैं. मेश्राम साहब ने बामसेफ का एक अनुसांगिक राजनैतिक पार्टी बीएमपी को राजनैतिक रूप प्रदान कर दिया.

कांशीराम साहब ने बहुजन का नारा दिया था और जय भीम उनका मूल मन्त्र था. मेश्राम साहब ने बहुजन के स्थान पर मूलनिवासी शब्द को प्रचारित किया तथा “जय भीम” के स्थान पर “जय मूलनिवासी” को अभिवादन के बतौर पेश किया. इनका नारा है-बोल पचासी-मूलनिवासी”.

डा.आम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “शूद्र कौन थे” में लिखा है कि आर्य कोई प्रजाति नहीं है. आर्य एक भाषा है. यह भाषा भारत और उसके इर्द-गिर्द बोली जाती थी. इसके बोलने वालों को आर्य कहा जाने लगा. इस तरह दलित व ब्राह्मण दोनों ही आर्य हैं. बाबा साहब ने तिलक के सिद्धान्त को गलत साबित किया कि आर्य यूरेशिया व काकेशिया से भारत में आए हैं. बाबा साहब ने लिखा है कि शूद्रों की तरह ब्राह्मण भी भारत के मूलनिवासी हैं. डा.आम्बेडकर के इस सिद्धांत के विरूद्ध बामन मेश्राम साहब ने अमेरिका के साल्टलेक सिटी, उटाह विश्वविद्यालय के मानवीय आनुवंशिक एकलिस संस्थान के विद्वान बामसाद ने भारत के ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्यों के DNA का मिलान यूरेशिया के लोगों से किया जो क्रमशः 99.9, 99.88 और 99.86 प्रतिशत मिलता है. अर्थात भारत के ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य युरेशियन है. यही नहीं बामन मेश्राम साहब ने उद्घोषणा किया है कि अब हमें दूसरी आजादी की लड़ाई लड़नी पड़ेगी. जिस तरह भारत से अंग्रेजों को खदेड़कर आजादी प्राप्त की गई है, ठीक वैसे ही युरेशियन ब्राह्मणों को भारत से निष्कासित कर दलितों (उनके शब्दों में मूलनिवासियों को) को आजादी दिलाना बामसेफ और बीएमपी-मेश्राम का उद्देश्य है. क्या यहाँ यह बात अजीब और हास्यास्पद नहीं लगता है कि जो ब्राह्मण 8-10 हजार वर्षों से भारत में रह रहा हो, जिसकी न जाने कितनी पीढियां इस देश के नागरिक हैं, ज़र-जमीनें स्थाई हैं और डा.आम्बेडकर के तर्कों और सिद्धान्तों के आधार पर ब्राह्मण भारत का मूलनिवासी है-उसे खदेड़ने की बात कर रहे हैं. ओबीसी वर्ग के शासक ने 70 हजार दलितों को नौकरियों में उनके पदों से रिवर्ट कर निम्न पदों पर पुनर्स्थापित करने का ऐतिहासिक पाप किया है. यही वर्ग है जो दलितों की पिटाई में सबसे अग्रणी रहता है. उसे शूद्र मानता है और उससे शूद्र मनवाने के चक्कर में दलित उसे मूलनिवासी मानता हुआ दोस्त मानता रहता है. यह भी हास्यास्पद लगता है कि सछूत वर्ग अछूत की श्रेणी में आकर अपने को पतित जाति में क्यों शामिल करेगा?

डा,आम्बेडकर के दर्शन को मान्यवर कांशीराम ने उलट दिया. कांशीराम को सुश्री मायावती जी ने उलट दिया. और अब मेश्राम साहब में सब की ऐसी की तैसी करते हुए जातिप्रथा उन्मूलन, जाति सशक्तिकरण, जाति ध्रुवीकरण व सत्ता ग्रहण का एनकेन प्रकारेण का तरीका ही उलट दिया है और दलित जातियों को एक नए भंवरजाल में डाल दिया है.

दलित न जातिप्रथा उन्मूलन के लिए कन्विंस है, न जाति ध्रुवीकरण के लिए ही, न बौद्ध धर्म के लिए और न मूलनिवासी के दूसरी आजादी के लिए ही तैयार है. दलित ब्राह्मणों पर जातिवाद का आरोप लगता है किन्तु खुद आरक्षण के भँवर में इस तरह उलझा है कि स्वयं ही जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर सिद्ध करता रहता है कि हे ब्राह्मण देवता! मैं ही चमार हूँ, मैं ही कोरी हूँ, मैं ही पासी हूँ, मैं ही धोबी हूँ, मैं ही भंगी हूँ. ब्राह्मण कहाँ कह रहा है कि तुम चमार न रहो, कोरी न रहो, पासी न रहो. जैसा वह चाहता है सम्भ्रांत दलितों की एक लालच पूरी दलित जातियों को शूद्र-चमार बनाए रखने में मदद करती है. एक बहुत ही विचारणीय बिंदु पर मैं चर्चा को ले चल रहा हूँ. डा.आम्बेडकर ने एक हद तक मार्क्सवाद को अभिशापित किया. कांशीराम ने तो बहुत ही सजगता के साथ कम्युनिस्टों को हरी घास का हरा सांप कहा. बामन मेश्राम भी मार्क्सवाद को मूलनिवासियों के रास्ते का रोड़ा मानते हैं. और भी बहुत सारे दलित नस्लवादी संगठन हैं जो मार्क्सवाद को दलितों के हाथ का झुनझुमा मानते हैं. अब गौर करिए कि आरएसएस, बीजेपी, शिवसेना, बजरंग दल तथा अन्य अनेक अनुसांगिक संगठन मार्क्सवाद के धुर विरोधी हैं. कम्युनिस्ट ही वह वर्ग है जिससे आरएसएस व इसके अनिसंगिक संगठन डरते हैं और इन्हें दुश्मन, आतंकवादी, नक्सलवादी व माओवादी कहकर बदनाम भी करते हैं.

यहाँ मैं कम्युनिस्ट की बात कर रहा हूँ. मैं नक्सलाइट और माओवादियों की पक्षधरता की बात नहीं कर रहा हूँ और न मैं उन्हें कम्युनिस्ट ही मनाता हूँ. आप सोचिए दलित और आरएसएस में कौन सा ऐसा कॉमन तत्व है जो दोनों को कम्युनिस्ट ही दुश्मन नजर आ रहे हैं. मेरा मनना है कि मार्क्सवाद आंबेडकरवाद का दोस्त है. दलित वर्ग को मार्क्सवाद के निश्चित दोस्ती करनी चाहिए. दर्शन का पूरा हिस्सा आम्बेडकर के रास्ते का सहयोगी है. मार्क्सवाद में न भाग्य है, न भगवान है, न तंत्र-मन्त्र है, न जादू-टोना है, भूत-प्रेत का कांसेप्ट है. मार्क्सवाद का मूल मन्त्र है कि यदि सब को शिक्षा सब को काम उपलब्ध कराया जाय तथा निजी संपत्ति का उन्मूलन कर दिया जाय. खेती, ज़मीन, संसाधन, बीमा बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाय तो जातिवाद तो आधा अपने आप ख़त्म हो जाएगा. बाकी राज्य, मसीनरी, शासन, प्रशासन और मिडिया के माध्यम से अनेक संस्कृति कार्यक्रमों के द्वारा कुछ पीढ़ियों के अंतराल में जाति और धर्म को राजनीति और मानव में हस्तक्षेप का करना बंद करा सकने में सक्षम हुआ जा सकता है. लेकिन, सच यह है कि दलितों को गुमराह करने के लिए पूँजीवादी शक्तियां और आरएसएस के घुसपैठिए दलितों को वर्ग-संघर्ष से रोकते हैं. मार्क्सवाद को दलितों का दुश्मन सिद्ध कर रखे हैं.

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि आज दलित और आरएसएस दोनों मूल रूप से नस्लवाद की बात करते हैं. आरएसएस यदि हिंदुत्व को एक नस्ल मानता है तो दलित तथाकथित मूलनिवादियों को एक नस्ल मानता है. दोनों नहीं चाहते हैं कि उनकी नस्ल ख़त्म हो. हाँ, यह जरूर चाहते हैं कि हमारी नस्ल स्थापित रूप से शासन करे और अपने सिद्धांत, मान्यताएं, रीति-रिवाज, संस्कृति, पूजा-पद्धति, धर्म और ईश्वर को स्वीकार करे. दलित अंनिश्वरवादी है, लेकिन दलितों की बहुसंख्यक जातियां हिन्दू धर्म और ईश्वर को ही मानती हैं, भले ही वे बुद्ध और आम्बेडकर में विश्वास रखते हों.

मार्क्स ने पूँजी के खण्ड-3 पृष्ठ 601 पर लिखा है कि “शासक वर्ग शासित वर्ग की अग्रतम मेधाओं को आत्मसात करने में जितना अधिक समर्थ होता है, उसका शासन भी उतना ही अधिक स्थिर और घातक होता है.” भारत और दलित के परिप्रेक्ष्य में उक्त युक्ति डा.आम्बेडकर को संविधान निर्माता बनाकर, कांशीराम को दलितों का चाणक्य बनाकर, सुश्री मायावती को दलितों की देवी बनाकर तथा पुनः बामन मेश्राम को क्राँति का दूत बनाकर औपनिवेशिक सत्ता और शासक वर्ग ने दलितों के अग्रतम मेधाओं को अपने अनुसार दलितों का नेता और मशीहा साबित कराकर सिद्ध कर दिया है कि वे दलितों को वास्तविक क्राँति व् वर्ग-संघर्ष से दूर कर अधिक स्थिर और घातक शासन कर रहे हैं.

यहाँ दलितों को समझना है कि यदि ब्राहण और दलित दो राष्ट्र की तरह आमने-सामने हैं, दोनों के उद्देश्य एक दूसरे के विपरीत हैं तो दोनों के एक ही धरती पर मार्क्सवाद दुश्मन कैसे है?

दलितों के संगठन मार्क्सवाद को भारत में लागू न होने वाला संगठन मानते हैं. तर्क के लिए कहते हैं कि मार्क्स यदि भारत में पैदा हुए होते तो सर्वप्रथम वे जाति को तोड़ने की बात करते, किन्तु वे फ़्रांस में पैदा हुए, भला क्या जाने की जातिवाद क्या होता है. यहाँ दलितों का दोगलापन स्पष्ट दिखता है कि एक तरह मार्क्सवाद के बहाने तो जातिवाद को तोड़ने की बात करते हैं किन्तु जब भारतीय पृष्ठभूमि पर राजनैतिक रूप से मैदान में दलितों को देखते हैं तो एकदम नंगा नस्लवादी राजनीति का हिमायती है.

यहाँ शंका होना स्वाभाविक है कि दलितों के अग्रतम मेधाओं पर ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद अपनी तीसरी दृष्टि हमेशा लगाए रखती है. ब्राह्मणों सहित अन्य जातियों के गरीब वर्ग से दलितों की एकता तोड़ देते है तथा इन्हें आपस में जातियों और धर्मों के भेद-भाव में उलझाए रखते हैं. दलित सर्वहारा वर्ग है. क्रांतिकारी वर्ग है. इसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है, पाने के लिए संसार है. इसलिए, प्रभु वर्ग (पूँजीवाद) डरता है कि कहीं कोई असली सर्वहारा वर्ग का नेता मार्क्सवाद के सिद्धांत पर भारत में वर्गीय एकता स्थापित करते हुए क्राँति का सूत्रपात न कर दे. इसलिए दलित वर्ग को एक फॉल्स गॉड फादर देकर उसी में हमेशा फसाए रखता है तथा स्वयं सुरक्षित-निश्चिन्त स्थिर व घातक शासन करता रहता है.

आर डी आनंद

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डाइवर्सिटी डे :2018

स्वाधीनोत्तर भारत के दलित आंदोलनों के इतिहास में भोपाल सम्मलेन (12-13 जनवरी,2002) का एक अलग महत्व है,जिसमें 250 से अधिक शीर्षस्थ दलित बुद्धिजीवियों ने शिरकत किया था.उसमें दो दिनों के गहन विचार मंथन के बाद 21 सूत्रीय ‘भोपाल घोषणापत्र’ जारी हुआ था जिसमें अमेरिका की डाइवर्सिटी नीति का अनुसरण करते हुए वहां के अश्वेतों की भांति ही भारत के दलितों(एससी-एसटी)को सप्लायर,डीलर,ठेकेदार इत्यादि बनाने का सपना दिखाया गया था.किन्तु किसी को भी यकीन नहीं था कि डाइवर्सिटी नीति भारत में लागू भी हो सकती है.पर, भोपाल घोषणापत्र जारी करते समय किये गए वादे के मुताबिक, एक अंतराल के बाद 27 अगस्त 2002 को, दिग्विजय सिंह ने अपने राज्य के छात्रावासों और आश्रमों के लिए स्टेशनरी,बिजली का सामान,चादर,दरी,पलंग,टाटपट्टी ,खेलकूद का सामान इत्यादि का नौ लाख उन्नीस हज़ार का क्रय आदेश भोपाल और होशंगाबाद के एससी/एसटी के 34 उद्यमियों के मध्य वितरित कर भारत में ‘सप्लायर डाइवर्सिटी’ की शुरुवात कर दी थी.

दिग्विजय सिंह की उस छोटी सी शुरुआत से दलितों में यह विश्वास पनपा था कि यदि सरकारें चाहें तो सदियों से उद्योग-व्यापार से बहिष्कृत किये गए एससी/एसटी को उद्योगपति-व्यापारी बनाया जा सकता है.फिर क्या था ! देखते ही देखते डाइवर्सिटी लागू करवाने के लिए ढेरों संगठन वजूद में आ गए जिनमें आरके चौधरी का बीएस-4 भी था.बाद में इसी उद्देश्य से उत्तर भारत के दलित लेखकों ने 15 मार्च,2007 को ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) संगठन की स्थापना किया,जिसका संस्थापक अध्यक्ष बने लेखक एच.एल. दुसाध.

जिन दिनों बीडीएम के निर्माण के लिए लेखकों से विचार-विमर्श की प्रक्रिया चल रही थी उन्ही दिनों डॉ. संजय पासवान ने डाइवर्सिटी पर एक बड़ा सम्मलेन आयोजित करने का मन बनाया.उसके लिए दलित आंदोलनों की कई महत्त्वपूर्ण तिथियों की उपेक्षा कर उस दिन को चुना, जिस दिन मध्य प्रदेश में लागू हुई थी ‘सप्लायर डाइवर्सिटी’. 2006 के 27 अगस्त को उस सम्मलेन का आयोजन ‘वंचित प्रतिष्ठान’ और ‘एमेटी दलित सिनर्जी फोरम’ द्वारा दिल्ली के ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में हुआ जिसमें दिग्विजय सिंह और भारत में डाइवर्सिटी के सूत्रपात्री चंद्रभान प्रसाद सहित पदमश्री डॉ.जगदीश प्रसाद,प्रो.वीरभारत तलवार,पत्रकार अभय कुमार दुबे,चर्चित दलित साहित्यकार डॉ.जय प्रकाश कर्दम ,एमेटी विवि के एके चौहान और मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी जैसे जाने-माने बुद्धिजीवियों ने शिरकत किया था. उस आयोजन का नाम दिया गया था ‘डाइवर्सिटी डे’. बाद में जब 15 मार्च,2007 को बीडीएम की स्थापना हुई, बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से जुड़े लेखकों ने मध्य प्रदेश में लागू हुई सप्लायर डाइवर्सिटी से प्रेरणा लेने के लिए भविष्य में भी ‘डाइवर्सिटी डे’ मनाते रहने का निर्णय लिया.इस तरह बीडीएम के जन्मकाल से ही हर वर्ष 27 अगस्त को देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में डाइवर्सिटी डे मनाने को जो सिलसिला शुरू हुआ ,वह आजतक अटूट है.इस बीच डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन के फलस्वरूप उतर प्रदेश , बिहार ,उत्तराखंड इत्यादि में नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग-व्यापार में हिस्सेदारी का दृष्टान्त स्थापित हो चुका है.

विगत कुछ वर्षों से कुछ अत्याज्य कारणों से डाइवर्सिटी डे का आयोजन नियत तिथि पर नहीं हो पा रहा है. इस बार भी नियत तिथि पर न होकर 13वें ‘डाइवर्सिटी डे’ का आयोजन 4 नवम्बर, 2018, को नगरपालिका कम्युनिटी हॉल ,मऊ, उत्तर प्रदेश में होने जा रहा है . इस बार भी इसमें हमेशा की तरह देश के विभिन्न अंचलों के जाने-माने प्रमुख लेखक, पत्रकार और शिक्षाविद शिरकत रहे हैं. इस बार एच.एल दुसाध सहित जो हस्तियाँ शिरकत कर रही हैं, वे हैं- बुद्ध शरण हंस, डॉ.लाल रत्नाकर, महेंद्र नारायण सिंह यादव, के.नाथ, फ्रैंक हुजुर, विद्या गौतम, डॉ.राम बिलास भारती, अरसद सिराज मक्की, सत्येन्द्र पीएस,भंवर मेघवंशी( सामाजिक कार्यकर्त्ता , भीलवाड़ा,राजस्थान ), गोरख पासवान, चंद्रभूषण सिंह यादव,विद्यानंद आजाद, आरके यादव, शिवचंद राम,के.सी.भारती, डॉ. जी.सिंह कश्यप, उमेश कुमार रवि , डॉ. अमरनाथ पासवान, डॉ. राजबहादुर मौर्य,डॉ.राहुल राज, डॉ. कौलेश्वर “प्रियदर्शी”,डॉ. नानटून पासवान, अनूप श्रमिक, निर्देश सिंह,ज्ञानवती पासवान, डॉ.सीपी आर्या, राजवंशी जे.ए.आंबेडकर , मन्नु पासवान, इकबाल अंसारी,गणेष रवि,रामाश्रय बौद्ध(गढ़वा, झारखण्ड), कपिलेश प्रसाद , अरमा कुमारी.

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प्रतियोगी परीक्षा में जाति के सवाल के मायने

पिछले कुछ दिनों के भीतर प्रतियोगी परीक्षा में पूछे गए दो प्रश्नों ने जातिवाद को लेकर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है. ये सवाल जहां प्रश्नों का चुनाव करने वालों की मानसिकता पर सवाल खड़े करता है तो वहीं इन प्रश्नों को परीक्षा में पूछने की स्वीकृति देने वाले परीक्षा बोर्ड की मंशा पर भी सवाल उठाता है. दरअसल पूछे गए प्रश्न एक विशेष जाति और वर्ग को अपमानित करने वाले हैं.

जरा आप भी इन प्रश्नों को देखिए.

एक प्रश्न दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड द्वारा पूछा गया है. बोर्ड ने दिल्ली में प्राइमरी शिक्षकों की भर्ती के लिए परीक्षा आयोजित किया था. इसके प्रश्न पत्र में 200 सवाल पूछे गए थे. इसमें से हिंदी भाषा और बोध के तहत प्रश्न संख्या 75 में पूछा गया प्रश्न विवाद खड़ा करने वाला था. प्रश्न अनुसूचित जाति से संबंधित था. आप खुद देखिए- सवाल था की … कौन सामाजिक सीढ़ी में सबसे नीचे की श्रेणी में आते हैं और इनके दायित्व में तीन वर्णों की सेवा करना सम्मलित है.” तो वहीं एक अन्य प्रश्न में तो सीधे तौर पर एक दलित जाति को निशाना बनाया गया है. इसमें पर्यायवाची शब्द का सवाल पूछा गया है कि जब पंडित का पर्यायवाची पंडिताइन होता है तो चमार का क्या होगा?

प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा गया ये सवाल समाज के भीतर गहरे तक समाए जातिवाद के सच को नंगा करता है. सवाल यह भी उठता है कि जिन लोगों पर प्रश्नों को तैयार करने की जिम्मेदारी थी वो कौन लोग थे और क्या सरकार और संबंधित आयोग को उनके खिलाफ करवाई नहीं होनी चाहिए?

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गुंडा शब्द की कहानी

भाषावैज्ञानिकों ने बगैर सोचे-समझे बता दिए हैं कि बदमाश के अर्थ में गुंडा पश्तो भाषा का शब्द है. यदि गुंडा पश्तो भाषा का शब्द होता तो इसका सर्वाधिक प्रयोग शेरशाह और उनके उत्तराधिकारियों के समय में मिलता. कारण कि वे अफगान थे और पश्तो अफगानिस्तान की ही भाषा है.

उर्दू में पश्तो के भी शब्द शामिल हैं. यदि गुंडा पश्तो भाषा का शब्द होता तो वली, आबरू, हातिम, सौदा, मीर, मोमिन से लेकर गालिब और दाग तक कोई न कोई उर्दू का कवि गुंडा का इस्तेमाल जरूर करता. मगर ऐसा है नहीं.

हिंदी में 1910 से पहले बदमाश के अर्थ में गुंडा का प्रचलन नहीं था. विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी से लेकर बिहारी और भारतेंदु तक किसी ने गुंडा शब्द का प्रयोग नहीं किया. 1930 के दशक में जयशंकर प्रसाद ने गुंडा कहानी लिखी थी, जिसमें नायकत्व का भाव है.

अंग्रेजी अखबारों में गुंडा का प्रचलन 1920 के आस-पास हुआ. अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रयोग 1925 – 30 के बीच में मिलता है.

गुंडा मूलतः द्रविड़ भाषा का शब्द है, जिसकी परंपरा पुरानी है. इसमें उभार, गोलाई या नायकत्व का भाव है. गुंडा का प्रयोग दक्षिण में धड़ल्ले से मिलेगा. तीनों भाव में मिलेगा. तमिल में गुंडा एक ताकतवर नायक का अर्थ देता है जैसे गुंडराव, गुंडराज आदि. तेलुगु में भी बतौर नायक गुंडूराव मौजूद है. मराठी में गाँवगुंड ग्राम नायक का अर्थ देता है.

सही बात यह है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर के एक छोटे से गाँव नेतानार में पले – बढ़े गुंडा धुर ने 1910 में अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने और उन्हें इस कदर तंग तथा तबाह किए कि अंग्रेजी फाइलों में गुंडा का एक अर्थ बदमाश हो गया. यह गुंडा धुर की ताकत थी.

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तेजप्रताप यादव ने ऐश्वर्या को क्यों दी तलाक की अर्जी

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पटना। लालू प्रसाद यादव के परिवार से बड़ी खबर है. लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप यादव ने अपनी पत्नी ऐश्वर्या को तलाक देने का फैसला किया है. सवाल है कि लालू के बेटे और बहू में ऐसा क्या हुआ कि मामला तलाक़ तक आ पहुंचा? हम आपको बताएंगे वो बड़ी वहज लेकिन पहले जान लेते हैं और तथ्य.

तेजप्रताप की पत्नी ऐश्वर्या बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दरोगा राय की पोती हैं. दोनों की शादी पांच महीने पहले ही हुई थी. तलाक के लिए तेजप्रताप यादव ने 02 नवंबर को पटना सिविल कोर्ट में याचिका दायर कर दी है. तेज प्रताप ने याचिका में कहा है कि वह ऐश्‍वर्या के साथ नहीं रहना चाहते हैं. उन्होंने 13 (1) (1a) हिन्‍दु मैरेज एक्‍ट के तहत तलाक के लिए अर्जी दे दी है.

तेज प्रताप की अर्जी पर 29 नवंबर को सुनवाई होगी. दोनों की शादी इसी साल 12 मई को हुई थी. तलाक की अर्जी देने के बाद तेज प्रताप लालू से मिलने रांची रवाना हो गए.

तलाक की खबर आने से पहले दोनों आखिरी बार मुंबई में साथ दिखे थे. 23 मई को लालू यादव इलाज के लिए एशियन हार्ट अस्पताल मुंबई गए थे. उनके साथ बहू ऐश्वर्या और बेटे तेज प्रताप भी थे. ऐश्वर्या की तस्वीर राजद के पोस्टर पर दिखी थी. तब उनके राजनीति में आने की चर्चा हुई थी, हालांकि परिवार की तरफ से कहा गया था कि ऐश्वर्या अभी राजनीति में नहीं आ रही हैं.

अब हम आपको बताते हैं कि आखिर बात तलाक तक क्यों पहुंची?

दरअसल अचानक आए तलाक के इस फैसले के पीछे की वजह तेजप्रताप और ऐश्वर्या का आपसी मनमुटाव है. असल में पूर्व मंत्री व राजद विधायक चंद्रिका राय की बेटी ऐश्वर्या ने दिल्ली से मैनेजमेंट की पढ़ाई की है. जबकि लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप सिर्फ 12वीं पास हैं. दोनों भाइयों में जारी मनमुटाव की वजह भी ऐश्वर्या को ही माना गया था. बीच में तो ऐसा लगा था कि दोनों भाईयों की राह जुदा हो जाएगी. खबर है कि ऐसे में परिवार को बचाने के लिए तेजप्रताप ने ये बड़ा कदम उठाया है.

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IIMC ने दिलीप मंडल की किताब को रोका

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नई दिल्ली। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन काम करने वाली संस्था इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन (IIMC), जिसे पत्रकारिता ट्रेनिंग का देश का सबसे बड़ा संस्थान कहा जाता है, ने अपने सिलेबस से मेरी किताब “मीडिया का अंडरवर्ल्ड” को 2016 में हटा दिया था.

यह किताब काफी समय से वहां और और कई संस्थानों की रीडिंग्स में शामिल हैं. 2015 तक यह किताब IIMC के सिलेबस का हिस्सा रही है. इसे देश के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक राजकमल-राधाकृष्ण ने छापा है. पेड न्यूज पर भारत की यह अकेली किताब है.

इस किताब को केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार दिया है. खुद मंत्री आए थे पुरस्कार देने. इसके लिए मुझे 75,000 रुपए भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने दिए हैं. मीडिया लेखन के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा पुरस्कार है.

क्या आईआईएमसी के ऐसा करने से मेरा कोई निजी नुकसान हुआ?

नहीं, आईआईएमसी की इस हरकत के कारण लाखों लोगों को पहली बार मेरी किताब के बारे में जानकारी मिली. इसकी अमेजन और फ्लिपकार्ट पर बिक्री बढ़ गई. मेरी दूसरी किताबों को भी इसका फायदा मिला. मेरे लिए इसका मतलब रॉयल्टी के जरिए होने वाली आमदनी भी है.

अब दिल्ली यूनिवर्सिटी कांचा इलैया की किताबों को सिलेबस से हटाना चाहती हैं.

ये बेवकूफी के सिवा कुछ नहीं है. कांचा इलैया तो श्रमिक और श्रमण संस्कृति के विचारक हैं और ब्राह्मणी संस्कृति को चुनौती देते हैं. उनके विचार रोकने से और फैलेंगे.

दिलीप मंडल

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सहारनपुर में दलित-राजपूतों में फिर हुआ संघर्ष

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सहारनपुर। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में एक बार फिर से दलित और राजपूतों में संघर्ष हो गया. इस दौरान दोनों पक्षों के लोग आमने- सामने आ गए और जमकर पथराव हुआ. तनाव को देखते हुए गांव में भारी पुलिस बल तैनात किया गया है. बताया गया कि मंगलवार रात को दोनों पक्षों के लोगों में कहासुनी हो गई थी. जिसे लेकर बुधवार सुबह संघर्ष हो गया. इस दौरान दोनों पक्षों के लोगों में जमकर पथराव हुआ और दोनों पक्षों के तीन- तीन लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. उधर, सूचना मिलते ही पुलिस अधिकारियों में हड़कंप मच गया. पुलिस अधिकारियों ने तनाव को देखते हुए गांव में पुलिसफोर्स तैनात कर दी गई है. वहीं पूरे शहर में अलर्ट जारी कर दिया गया गया है.

बता दें कि बड़गांव के पास शब्बीरपुर में ही पिछले साल दलित और राजपूतों में जमकर संघर्ष हुआ था. जिसमें कई लोगों की जान भी चली गई थी.

इसके बाद सीओ देवबंद सिद्धार्थ सिंह भी पुलिस बल के साथ पहुुंचे. पुलिस ने दोनों पक्षों को शांत कराकर घायल लोगों को उपचार के लिए नानौता चिकित्सालय भिजवाया. उधर, इस संघर्ष को लेकर राजपूत पक्ष की ओर से ओमकार और दलित समाज की ओर से राहुल ने बड़गांव थाना में तहरीर दी है. इसमें दोनों पक्षों में 20 से अधिक लोगों के नाम शामिल हैं. वहीं, बड़गांव के कार्यवाहक थाना प्रभारी योगेंद्र पाल यादव की ओर से संगीन धाराओं में दोनों पक्षों के मांगेराम, सुमित, गुल्लु उर्फ सचिन, ओमकार, अरूण, विपिन, गौरव, शिवम, अनिल, रणजीत, राहुल, दीपक, कालू, सुरेश, श्याम सिंह और 150 अज्ञात आरोपियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की है.

पुलिस की लापरवाही से हुआ संघर्ष मंगलवार रात जब दोनों पक्षों में विवाद हुआ तो दोनों पक्षों की ओर से पुलिस को सूचना दी गई थी. मगर रात में पुलिस नहीं पहुंची. दोनों पक्षों के समर्थक ग्रामीणों का कहना है कि पुलिस मामले को गंभीरता से लेती तो संघर्ष के हालात न बनते.

सख्त कार्रवाई की जाएगी : सीओ सीओ देवबंद सिद्धार्थ सिंह का कहना है कि पुलिस की ओर से दोनों पक्षों के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया गया है. किसी को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जाएगी. घटना में शामिल आरोपियों को बख्शा नहीं जाएगा.

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आदिवासियों के विनाश का साक्षी है ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’

भारत के आधुनिक विकास के इतिहास में एक और काला अध्याय जुड़ने वाला है. 31 अक्टूबर 2018 को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात के नर्मदा जिले स्थित केवड़िया के साधु बेट द्वीप में स्थापित सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ का उद्घाटन करेंगे. इसके प्रतिरोध में आदिवासियों ने गुजरात बंद का आह्वान किया है और परियोजना से प्रभावित 72 गांवों के आदिवासी शोक मनायेंगे, जिसमें राज्यभर के 75,000 आदिवासी शामिल होंगे. उन्होंने घोषण किया है कि उस दिन उनके घरों में खाना नहीं पकेगा. वे ऐसा शोक तब मनाते हैं जब उनके गांव में किसी की मृत्यु हो जाती है. वे ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ के विरोध में शोक इसलिए मना रहे हैं क्योंकि यह परियोजना उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ है. गुजरात सरकार ने ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ को स्थापित करने के लिए ग्रामसभाओं के निर्णयों के विरूद्ध पुलिस और कानून का सहारा लेकर आदिवासियों की जमीन छीन ली है, उनके धार्मिक स्थलों को बर्बाद किया है और खेत, खलिहान एवं गांवों को पानी में डुबो दिया है.

यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या आदिवासी देश की एकता और अखंडता का हिस्सा नहीं हैं? यह कैसा स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ है, जिसमें आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है? क्या अमेरिका की तरह ही भारत भी आदिवासियों के लाश पर विकास की इमारत खड़ा नहीं कर रहा है? यह ठीक उसी तरह है जिस प्रकार से देशभर में ‘जनहित, प्रगति, राष्ट््रहित, विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर आदिवासियों से उनकी जमीन, जंगल और जलस्रोत छीनकर उन्हें संसाधनविहीन बना दिया गया है लेकिन उन्हें उसका हिस्सा नहीं बनाया गया. आदिवासी कबतक अपने ही देश में छले जायेंगे? क्या आदिवासियों के आंखों मे अंशू डालकर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को राष्ट््रीय एकता की बात करना शोभा देता है? यह किस तरह का राष्ट््रीय एकता और अखंडता है जिसके लिए आदिवासियों के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया गया है? ऐसे फर्जी एकता और अखंडता का विरोध क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ नरेन्द्र मोदी का ड््िरम प्रोजेक्ट है. इसकी शुरूआत 2010 में हुई थी. गुजरात सरकार ने इस कार्य को अंजाम तक पहुंचाने के लिए 7 अक्टूबर 2010 को ‘सरदार वल्लभाई पटेल राष्ट््रीय एकता ट््रस्ट’ की स्थापना की और छड़ इक्ट्ठा करने के लिए देशभर में अभियान चलाकर 5 लाख लोगों से दान के रूप में 5 हजार मेट््िरक्स टन छड़ इक्टठा किया गया. लेकिन इसे मूर्ति बनाने के बजाय दूसरों कार्यों में लगाया गया. यह लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ ही है. इसके बाद सुराज हस्ताक्षर अभियान एवं एकता मैराथन दौड़ का आयोजन किया गया. मूर्ति स्थल को पर्यटन स्थल बनाने के लिए ‘केवड़िया एरिया डेवलाॅपमेंट आॅथोरिटी’ का गठन किया गया तथा इसके लिए गुरूदेश्वर वायर-कम-कैसवेट मानव निर्मित झील परियोजना की शुरूआत की गई. इस परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ उठ खड़े हुए आदिवासियों को रास्ते से हटाने के लिए स्टेट रिजर्व पुलिस फोर्स का एक यूनिट ‘नर्मदा बटालियन’ का गठन किया गया, जो परियोजना स्थल पर कैम्प करती रही.

जब आदिवासियों को जानकारी हुई कि नर्मदा डैम के बाद फिर से उनकी जमीन ली जायेगी और डैम के लिए लिया गया जमीन को दूसरे कार्य में लगाया जायेगा तब उन्होंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया. केवड़िया, काठी, वगाड़िया, लिम्बाडीह, नवागम एवं गोरा गांव के लोगों ने 1961-62 में नर्मदा डैम के लिए उनसे ली गई 927 एकड़ जमीन को वापस देने की मांग की क्योंकि उन्हें अबतक इस जमीन का मुआवजा नहीं दिया गया है. आदिवासियों के आंदोलन को देखते हुए गुजरात सरकार ने गुरूदेश्वर को तलुका बनाने की घोषणा की और उनके अन्य मांगों को पूरा करने का वचन दिया. इस तरह से 31 अक्टूबर 2013 को गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेन्द्र मोदी ने इसका शिलान्यास किया. सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ 182 मीटर उंचा है, जो दुनिया का सबसे उंचा मूर्ति है, जो 2398 करोड़ रूपये की लागत से बना है.

इस परियोजना में आदिवासियों के कुल 72 गांव प्रभावित हुए हैं. आदिवासियों का आरोप है कि गुजरात सरकार ने ग्रामसभाओं के निर्णयों के खिलाफ जबरर्दस्ती जमीन लेने के बाद भी अपना वादा पूरा नहीं किया है. सरकार ने सिर्फ कुछ लोगों को ही जमीन का मुआवजा दिया है. गुरूदेश्वर के रमेश भाई बताते हैं कि सरकार ने आदिवासियों की जमीन ले ली और बदले में सिर्फ पैसा दिया है लेकिन पुनर्वास पैकेज के रूप में किया गया वादा – जमीन के बदले जमीन और सरकारी नौकरी अबतक किसी को नहीं मिला है. गांवों में ऐसे भी आदिवासी हैं, जिन्होंने गैर-कानूनी भूमि अधिग्रहण के विरोध में अबतक जमीन का पैसा भी नहीं लिया है. कुछ विस्थापित आदिवासियों को अपने गांवों से हटाकर बंजर जमीन में बसाया गया है इसलिए आदिवासी सवाल उठा रहे हैं कि वे बंजर जमीन में क्या करेंगे?

‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ के लिए आदिवासियों का खेत-टांड़ और घर-बारी के साथ-साथ उनके धार्मिक स्थल को भी पानी में डूबो दिया गया. नर्मदा डैम के 3.2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पहाड़ी ‘टेकड़ी’, जिसे ‘वराता बाबा टेकड़ी’ कहा जाता है आदिवासियों का देवता है, जिसे आदिवासियों से छीन लिया गया है. यह सुप्रीम कोर्ट के फैसला का खुला उल्लंघन है. ‘‘ओड़िसा माईनिंग कोरपोरेशन बनाम वन व पर्यावरण मंत्रालय एवं अन्य सी स. 180 आॅफ 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए स्पष्ट कहा है कि जिस तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 के तहत दूसरों को धार्मिक आजादी है उसी तरह आदिवासियों को भी धार्मिक आजादी का मौलिक अधिकार है. इसलिए उनके धार्मिक अधिकारों की सुरक्षा और धार्मिक स्थलों का संरक्षण किया जाना चाहिए. लेकिन केन्द्र एवं राज्य सरकारों को आदिवासियों के अधिकारों से कोई सरोकार ही नहीं है इसलिए उनके अधिकारों के साथ मजाक किया गया है. आदिवासियों के धार्मिक स्थल को छीनने के लिए क्या नरेन्द्र मोदी को उनसे माफी नहीं मांगनी चाहिए? भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर आदिवासियों को विकास विरोधी होने का तामगा पहनाया जाता है लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता भी ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ परियोजना का विरोध किया है. उन्होंने आरोप लगाया है कि ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ पेसा कानून 1996 का उल्लंघन कर गैर-कानूनी तरीके से बनाया गया है. पेसा कानून 1996 के अनुसार ग्रामसभा का निर्णय अंतिम होता है. लेकिन आदिवासियों के विरोध के बावजूद गुजरात सरकार ने इस परियोजना को आगे बढ़ाया. वगाड़िया गांव के अरविन्द तडवी कहते हैं कि नर्मदा डैम का पानी नहर के जरिये कच्छ पहुंचता है लेकिन आदिवासियों के 28 गांवों को पानी नहीं दी जाती है. यह आदिवासियों के साथ अन्याय है.

इसके अलावा देशभर के 50 पर्यावरणविदों ने भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु मंत्रालय को पत्र लिखकर ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ परियोजना का विरोध किया था. उनका आरोप है कि गुजरात सरकार ने इस परियोजना के लिए पर्यावरण स्वीकृति हासिल नहीं किया है. इस परियोजना से शूलपानेश्वर अभ्यरण्य एवं नर्मदा के निचला हिस्सा, जो इको सेनसिटिव जोन के रूप में चिन्हित है, प्रभावित होगा. यह परियोजना पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 एवं ईआईए अधिसूचना सितंबर 2006, एनजीटी एवं न्यायलयों के आदेशों का उल्लंघन है. लेकिन इन सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए भाजपा सरकार ने चुनाव में भावनात्मक फायदा उठाने के लिए कांग्रेस से उनकी विरासत और आदिवासियों से उनकी जमीन छीनकर स्टैच्यू आॅफ यूनिटी को स्थापित किया है. क्या यह शर्मनाक नहीं है?

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आदिवासियों से संबंधित कार्यक्रमों के अपने भाषणों में कई बार दोहराते हुए कहा है कि उनके रहते कोई माय का लाल नहीं है जो आदिवासियों की जमीन छीन ले. लेकिन हकीकत ठीक इसके विपरीत है. उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद नर्मदा डैम की उच्चाई बढ़ाने का निर्णय लिया, जिसे आदिवासियों की जमीन डूब गई. स्टैच्यू आॅफ यूनिटी बनाने के लिए आदिवासियों की जमीन छीनकर उन्हें मातम मनाने पर मजबूर कर दिया है. इसी तरह झारखंड के आदिवासियों की जमीन को लूटकर अडानी और वेदांता को देने की पूरजोर कोशिश की जा रही है. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी भी अपनी जमीन बचाने के लिए संघर्षरत हैं. इसलिए अब आदिवासियों को अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि चुनाव में जुमलेबाजी करने वाले नेता उनके रक्षक नहीं हो सकते हैं क्योंकि काॅरपोरेट घराना और इन नेताओं के बीच में एक बहुत मजबूत गांठजोड़ बन चुका है. यह गांठजोड़ जनहित, राष्ट््हित, विकास, आर्थिक तरक्की और राष्ट््रीय एकता के नाम पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन पर जमींदोज कर रहा है.

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दलित और महादलित वर्ग को ठगने का काम कर रही सरकार: मांझी

पटना।  बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने केंद्र सरकार और बिहार के नीतीश सरकार को आरक्षण के मुद्दे पर दलित और महादलित वर्ग के लोगों को ठगने का काम बताया है. मांझी ने कहा कि आरक्षण समाप्त करने की हिम्मत किसी में नहीं है. एक तरफ दलित महादलित वर्ग के लोगों को आरक्षण की हिमाकत करते हैं लेकिन बिहार और केंद्र सरकार को इतनी हिम्मत नहीं है कि वह निजी क्षेत्रों में भी दलित और महादलित वर्ग के लोगों को आरक्षण दे सके. आज बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने यह बातें कहीं.

उन्होंने कहा कि आरक्षण खत्म कर दे यह किसी में दम नहीं है. नीतीश कुमार के बयान पर जीतन राम मांझी ने कहा कि जो आरक्षण की बात करते हैं वो दलित महादलित को छोटा कर रहे हैं. आरक्षण के साथ जानबूझकर खिलवाड़ कर रहे हैं. भारत सरकार भी आरक्षण के साथ तोड़मोड़ कर रही है, क्योंकि नीतीश कुमार और भारत सरकार का गठबंधन है, इसलिए ऐसा कह रहे हैं.

निजी क्षेत्रों और सार्वजनिक क्षेत्रो में भी आरक्षण की बात नहीं की है. पीएम और बिहार सीएम दोनों आरक्षित वर्गों को छोड़ रहे हैं. जिस तरह से सेना के जवानों को पोस्टल बैलेट की सुविधा है उसी तरह सरकार पलायन कर चुके अतिपिछड़ा वर्ग, एससीएसटी वर्ग के लोगों को वापस उसके घर लाने की व्यवस्था करे तभी हम समझेंगे की सरकार निष्पक्ष चुनाव करा रही है.

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भारत ने वेस्टइंडीज को 224 रनों से रौंदा

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 नई दिल्ली। भारत ने वेस्टइंडीज को मुंबई में खेले गए चौथे वनडे में 224 रनों से हरा दिया. इसी के साथ भारत पांच मैचों की वनडे सीरीज में 2-1 से आगे हो गया. सीरीज का दूसरा मैच टाई रहा था. भारत के द्वारा दिए गए 378 रनों के लक्ष्य का पीछा करने उतरी वेस्टइंडीज टीम 36.2 ओवरों में 153 रनों पर ऑलआउट हो गई. जेसन होल्डर ने वेस्टइंडीज की ओर से सबसे ज्यादा नाबाद 54 रन बनाए. उनके अलावा अन्य कोई बल्लेबाज कुछ खास नहीं कर सका. भारत की ओर से खलील अहमद ने 13 रन देकर 3 और कुलदीप यादव ने 42 रन देकर 3 विकेट झटके.

रोहित शर्मा और अंबाती रायुडू के शतकों की बदौलत भारत ने 50 ओवरों में 377/5 का स्कोर बनाया. भारत की ओर से रोहित शर्मा ने सबसे ज्यादा 162 और अंबाती रायुडू ने 100 रन बनाए. वहीं धवन 38 और धोनी 23 रन बनाकर आउट हुए. केदार जाधव 16 रन बनाकर नाबाद रहे. वेस्टइंडीज की ओर से कीमो पॉल ने सबसे ज्यादा 10 ओवरों में 88 रन दे डाले. वहीं केमार रोच ने 10 ओवरों में 74 रन देकर 2 विकेट लिए.

रोहित शर्मा ने अपना 21वां शतक लगाने के साथ ही सातवीं बार 150 से ज्यादा का स्कोर वनडे में बनाया. उनके अलावा रायुडू ने तीसरा वनडे शतक लगाया.

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…जब बीजेपी के केंद्रीय मंत्री की सभा में जुटे केवल 50-60 लोग

कांकेर। चुनावी दौरे पर छत्तीसगढ़ के कांकेर विधानसभा के सरोना पहुचे केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव की सभा मे भीड़ नहीं जुटी. अब इस मामले को लेकर सफाई देने का कार्यक्रम भी शुरू हो गया है. इस विषय पर जब मंत्री जी से सवाल किया गया तो उन्होंने इलाके को गरीब तबके का बताते हुए लोगों के धान कटाई में व्यस्त होने के कारण भीड़ नहीं जुटने की बात कह दी. बता दें कि भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव और भाजपा के प्रवक्ता सचिदानंद उपासने कांकेर विधानसभा के सरोना गांव पहुचे थे जहां उनकी चुनावी सभा में आम जनता से ज्यादा तो पुलिस के जवान मौजूद थे.

सभा में महज 50 से 60 लोग ही मौजूद थे जिन्हें मंत्री जी ने बड़े जोश के साथ संबोधित करते हुए प्रदेश की भाजपा सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए एक बार फिर डॉ. रमन सिंह की सरकार बनाने की अपील की.

रामकृपाल ने कहा कि प्रदेश और केंद्र की भाजपा सरकार ने गरीब जनता के लिए तमाम योजनाएं चलाई हैं जिससे गरीब तबके के लोगों को हर तरह की सुविधा मिल सके, चावल से लेकर इलाज़ तक के लिए केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार योजनाए चला रही है जबकि 60 साल तक देश की सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ने सिर्फ जनता की खून पसीने की कमाई को लूटा है.

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भरतपुर में कांग्रेस के लिए चुनौती बनी बसपा, 15 साल से बिगाड़ रही जीत का समीकरण

भरतपुर। राजस्थान में चुनावी समर शुरू हो गया है कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही दल अपनी जीत के दावे कर रहे है. वहीं दोनों पार्टियां मतदाताओं को अपनी ओर रिझाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं. लेकिन राजस्थान का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले भरतपुर में दोनों ही दलों के जीत के समीकरण को बसपा प्रभावित कर रही है. इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि यह इलाका यूपी से सटा हुआ है, जिसका प्रभाव यहां के मतदाता पर स्पष्ट रूप से नजर आता है. क्योंकि 2003 से पहले ही वर्ष 1998 में भरतपुर जिले की 9 सीटों में से बसपा के पास 1 सीट थी.

भरतपुर सभांग की सभी सीटों पर एससी/एसटी का वर्ग बड़ा मतदाता है. दो सीट बयाना-रूपवास और वैर तो रिजर्व है अन्य सीटो पर भी चुनाव जीतने के लिए दोनों ही प्रमुख दलों को एससी वर्ग की जरूरत होती है. इसलिए पार्टी के साथ- साथ चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी पर भी यह निर्भर करता है कि वह इस वर्ग के मतदाताओ को रिझा पायेगा या नहीं? यही वजह कि एक-दो सीट को छोड़कर भरतपुर जिले में बसपा दूसरे नम्बर पर रहती है ऐसे में खतरा कांग्रेस के लिए ज्यादा है क्योंकि जिस दलित वोट को कांग्रेस अपना समझती है वही वोट बैंक पिछले 15 साल से उससे छिटक सा गया है. यही वजह है कि पिछले 15 साल से बसपा यहां कांग्रेस के जीत के समीकरण को बिगाड़ रही है. इस बात को खुद कांग्रेस के दिग्गज भी मानते है कि बसपा भरतपुर में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रही है.

आंकड़ो की बात करें तो भरतपुर जिले में वर्ष 2003 में कुल 9 सीटें थी जो परिसीमन के बाद 2008 में 7 ही रह गईं. वर्ष 2003 के नतीजों पर नजर डालें तो 9 सीटों में से भाजपा व कांग्रेस के पास 3-3 सीट ही थीं जबकि दो सीटों पर इंडियन नेशनल लोक दल के उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी. वहीं 1 सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत हासिल की. हालांकि वर्ष 2004 में डीग विधायक अरुण सिंह के निधन के बाद हुए उपचुनाव में डीग सीट से दिव्या सिंह और बाद में एक निर्दलीय विधायक भाजपा में ही शामिल हो गए. जिससे आंकड़ा 6 पर पहुंच गया था.

जबकि वर्ष 2003 में वैर, नगर और रूपवास सीट कांग्रेस के खाते में थी तो बीजेपी के पास बयाना ,कुम्हेर व कामां सीट थी. वहीं डीग व भरतपुर सीट पर इनेलो के प्रत्याशी चुनाव जीते थे. जबकि नदबई सीट पर वर्तमान में पर्यटन राज्य मंत्री कृष्णेन्द्र कौर दीपा ने निर्दलीय विधायक के रूप में चुनाव जीता जो बाद में भरतपुर विधायक विजय बंसल के साथ भाजपा में शामिल हो गई. वर्ष 2003 में नदबई ,नगर, बयाना, भरतपुर, कुम्हेर सीट पर बसपा दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. वर्ष 2008 और 2013 में भी भरतपुर, नदबई, वैर, बयाना नगर में बसपा दूसरी बड़ी पार्टी रही. जो यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस के लिए यहां खुद के अस्तित्व को बचाने के लिए पहले बसपा से निपटना होगा.

बसपा का फैक्टर

भरतपुर में बसपा के फैक्टर का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वर्ष 1998 में भरतपुर जिले की नदबई व नगर सीट से बसपा के विधायक चुने गए. इन सब सीटों पर बसपा का फैक्टर यह था कि वर्ष 2003 में पहली बार चुनाव जीतने के बाद मंत्री बनने वाले दिवंगत नेता डॉ दिगम्बर सिंह बसपा के दलवीर सिंह से महज 800 वोट से ही चुनाव जीते थे. इस चुनाव में डॉ दिगमबर सिंह को 28 हजार 960 वोट मिले थे जबकि बसपा के दलवीर सिंह को 28 हजार 128 वोट मिले थे.

जबकि कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे पशुपालन डेयरी राज्य मंत्री हरि सिंह यहां पर तीसरे नम्बर पर रहे. इसी तरह नगर सीट पर कांग्रेस के मरहूम विधायक माहिर आजाद तो वर्ष 1998 में बसपा के टिकट पर ही नगर सीट से चुनाव जीते जो बाद में 2003 में कांग्रेस में शामिल हो गए और दुबारा इसी सीट पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते. लेकिन इस बार भी बसपा के शादी खां यहां पर दूसरे नम्बर पर थे और भाजपा की अनीता सिंह तीसरे स्थान पर थी. इसी तरह नदबई में निर्दलीय कृष्णनेन्द्र कौर दीपा चुनाव जीती और बसपा दूसरे नम्बर पर और कांग्रेस के पूर्व विधायक यशवंत रामू तीसरे व भाजपा नेता डॉ जीतेन्द्र फौजदार चौथे नम्बर पर थे. अब देखना ये है कि क्या दोनों पार्टियां इस बार बसपा फैक्टर को मात देकर जीत का नया समीकरण बना पाएंगी.

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उत्तराखंड: बाबा साहब की मूर्ति से छेड़छाड़, दलित और भीम आर्मी ने किया हंगामा

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हरिद्वार। कनखल थाना अंतर्गत जियापोता में बाबा भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा को खंडित कर दिया. बाबा साहब का शरारती तत्वों ने चश्मा उतार लिया और उनकी मूर्ति पर कई खरोंच मार दिये. ये खबर जंगल में आग की तरह फैली. दलित व भीम आर्मी के युवा बड़ी तादाद में मौके पर पहुंचे. नारेबाजी और हंगामा शुरू हो गया. पुलिस-प्रशासन को सूचना लगी. अफसर मौके पर पहुंची.

तुरंत नई मूर्ति लगाने का आश्वासन दिया. इस पर हंगामा शांत हुआ. नई मूर्ति लगाने के बाद उपजिलाधिकारी व सीओ ने प्रतिमा पर फूलमालाएं चढ़ाई. कनखल थाना अंतर्गत पथरी के गांव जियापोता में रविवार की देर रात को गांव के पार्क में लगी बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा से चश्मा उतारकर उसे खंडित किया. प्रतिमा के साथ छेड़छाड़ की सूचना पर सैकड़ों दलित और भीम आर्मी के सदस्य मौके पर पहुंच गये.

ग्राम प्रधान नूतन कुमार ने पुलिस को सूचना दी. प्रशासन और पुलिस के हाथ-पांव फूल गये. एसडीएम मनीष सिंह, सीओ कनखल स्वप्निल किशोर सिंह, एसओ कनखल ओमभूषण फोर्स के साथ घटना स्थल पहुंचे और हंगामा कर रहे युवाओं को शान्त कराया. पुलिस की ओर से नाराज लोगों की एसएसपी रिद्धिम अग्रवाल से बातचीत भी कराई गई.

उपजिलाधिकारी मनीष सिंह ने तत्काल खंडित मूर्ति की जगह नई मूर्ति लगाने की बात कहकर भीड़ को शांत कराया. ग्राम प्रधान नूतन कुमार व पुलिस प्रशासन के सहयोग से तत्काल नई प्रतिमा मंगाकर उसी स्थान पर स्थापित की गई. प्रतिमा स्थापित करने के बाद उपजिलाधिकारी मनीष सिंह व सीओ ने प्रतिमा पर फूलमालाएं चढ़ाकर हंगामा खत्म कराकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई का आश्वासन दिया.

दूसरी ओर अम्बेडकर समिति के अध्यक्ष राजू ने पुलिस को अज्ञात लोगों के खिलाफ तहरीर दी है. ग्राम प्रधान नूतन कुमार ने बताया कि कुछ शरारती तत्वों ने गांव की छवि बिगाड़ने की कोशिश की है. उपजिलाधिकारी मनीष सिंह ने बताया कि प्रतिमा के साथ छेड़छाड़ हुई है. खंडित प्रतिमा को हटाकर नई प्रतिमा स्थापित कर दी गई है. अब गांव में शांति है.

चंद्रबाबू और शरद यादव से मिले केजरीवाल, मायावती को भी महागठबंधन में लाने का प्रयास

नई दिल्ली। जेएनएन. अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए जोड़तोड़ की राजनीति शुरू हो चुकी है. इसी क्रम में शनिवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू व लोकतांत्रिक जनता दल के अध्यक्ष शरद यादव से दिल्ली स्थित आंध्र प्रदेश भवन में मुलाकात की. इससे पहले चंद्रबाबू नायडू ने बसपा सुप्रीमो मायावती से भी मुलाकात की थी.

अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के दौरान तीनों नेताओं में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई. मुलाकात के बाद केजरीवाल ने ट्वीट किया कि देश की जनता और संविधान को बचाने के लिए सभी को एकजुट होने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि वर्तमान में केंद्र में बैठी भाजपा सरकार से संविधान को खतरा है.

अरविंद केजरीवाल ने कहा कि चंद्रबाबू नायडू के साथ एक अच्छी मुलाकात हुई. मुलाकात के दौरान राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा हुई. वर्तमान भाजपा सरकार से देश के संविधान को खतरा है. वहीं पार्टी सूत्रों का कहना है कि आम आदमी पार्टी महागठबंधन का हिस्सा बनने का प्रयास कर रही है.

आम आदमी पार्टी इस बार हरियाणा, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गोवा, दिल्ली-एनसीआर की करीब 100 लोकसभा सीटों पर ही चुनाव लड़ना चाहती है. इन सीटों के चयन से पहले पार्टी अन्य क्षेत्रीय दलों का समर्थन हासिल करना चाहती है.

राजग सरकार के पूर्व सहयोगी और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने विपक्षी दलों से अपील करते हुए कहा कि उनकी राजनीतिक और आदर्श संबंधी प्रतिबद्धताएं जरूर होंगी, लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिए उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ना होगा.

नई दिल्ली में शनिवार को एक प्रेस कांफ्रेंस में नायडू ने मोदी सरकार पर हमला करते हुए कहा कि लोग छला हुआ महसूस कर रहे हैं. इसलिए देशहित में विपक्षी दलों को साथ आने के लिए कोई रास्ता निकालना होगा. इससे पूर्व नायडू ने बसपा सुप्रीमो मायावती से भी मुलाकात की थी. नायडू ने आंध्र के वित्त मंत्री वाई रामकृष्णुडू और तेदेपा के कुछ सांसदों के साथ मायावती से बातचीत की थी.

बताया जा रहा है कि मुलाकात के दौरान, महागठबंधन से अलग राह पकड़ चुकीं मायावती को मनाने की कोशिश की गई. इस दौरान मायावती ने कांग्रेस के विरुद्ध नाराजगी को जताते हुए कहा कि कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलने के बजाय उनकी पार्टी को ही खत्म करने में तुली हुई है. नायडू ने उम्मीद जताई कि चुनाव के बाद कुछ बड़े दल आगे आ सकते हैं. मौजूदा समय में उन पर केंद्र सरकार का दबाव है.

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अमित शाह का बयान लोकतंत्र के लिए खतरा: मायावती

मायावती (फाइल फोटो)

लखनऊ। बीएसपी प्रमुख मायावती ने सुप्रीम कोर्ट पर अमित शाह के बयान को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया है. उन्होंने कहा कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का बयान अति निंदनीय है. न्यायालय को इस बयान को संज्ञान में लेना चाहिए. केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष के मुंह से दिए गए इस बयान से साफ है कि देश का लोकतंत्र खतरे में है.

उन्‍होंने कहा क‍ि सीबीआई, सीवीसी, ईडी, आरबीआई जैसी अहम स्वायत्तशासी संस्थाओं में जो गंभीर संकट का दौर चल रहा है, वह सरकार के अहंकार का ही दुष्परिणाम है. मायावती ने कहा कि देश संविधान से चलता है और इसी आधार पर आगे भी चलेगा. इसके बावजूद सत्ताधारी पार्टी का नेतृत्व उत्तेजक भाषणबाजी करके राजनीति की रोटियां सेकने का प्रयास बार-बार कर रहा है.

मायावती ने कहा क‍ि सबरीमाला मंदिर मामले में अमित शाह इतना भड़काऊ और असंवैधानिक भाषण देकर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हो रहे चुनावों में धर्म का इस्‍तेमाल करना चाहते हैं. सबरीमाला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यदि बीजेपी को आपत्ति भी है तो इसके लिए सड़कों पर तांडव करने, हिंसा फैलाने, केरल सरकार को बर्खास्त करने की धमकी देने जैसा गलत रवैया नहीं अपनाना चाहिए. कानूनी तौर पर अपनी बात रखनी चाहिए.

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दलित मतदाताओं को साधने का बड़ा मंच बना आंबेडकर का जन्मस्थान महू

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महू (इंदौर)। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्मस्थान महू दलित वोटों को साधने का एक बड़ा मंच बन चुका है. तीन दशकों से चुनावों को दौरान अकसर बड़े नेता महू का रुख करते रहे हैं. इनमें कांशीराम, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजीव गांधी, नरेंद्र मोदी, मायावती जैसे कई बड़े नाम शामिल हैं.

बाबा साहेब आंबेडकर भले ही जन्म के बाद कुछ ही समय महू में रहे हों, लेकिन इस शहर का नाम उनके साथ ही दलित अस्मिता का प्रतीक बन चुका है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से हर बड़ा नेता इस मंच से देशभर के दलितों तक पहुंचना चाहता है.

इसी उम्मीद में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी 30 अक्टूबर को यहां आने वाले हैं. वे सभा संबोधित करने से पहले आंबेडकर स्मारक पहुंचेंगे. कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में वे यहां पहली बार आ रहे हैं. हालांकि साढ़े तीन साल पहले भी वे यहां आ चुके हैं. विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी नजर मध्य प्रदेश के करीब 80 लाख दलित वोटों पर है. महू में ही करीब तीस हजार दलित मतदाता हैं.

इस विधानसभा चुनाव की बात करें तो इसी 22 अक्टूबर को पाटीदार नेता हार्दिक पटेल महू में थे. अपने रोड शो के बाद वे आंबेडकर स्मारक गए, वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी इसी दिन अपनी जन आशीर्वाद यात्रा के बाद आंबेडकर स्मारक पहुंचकर शीश नवाया.

यूं तो महू में चुनाव प्रचार के लिए वाजपेयी और नरसिम्हाराव जैसे नेता पहले भी आते रहे हैं लेकिन 80 के दशक के अंत में आंबेडकर मूवमेंट जोर पकड़ रहा था. इसके बाद यहां सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की ओर से आंबेडकर अनुयायी आते थे. 90 का दशक आते-आते महू शहर का नाम पूरी तरह बाबा साहेब की जन्मस्थली के रूप में जाना जाने लगा था. इसके बाद राजनेताओं के यहां आने का सिलसिला शुरू हुआ.

वर्ष 1991 के आम चुनाव के समय जब प्रदेश में भाजपा की पटवा सरकार थी, तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, कांशीराम, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, मायावती यहां आए थे. इसके बाद प्रदेश में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह सरकार के दौरान भी नेताओं के आने का सिलसिला जारी रहा.

2008 में आचार संहिता लगने से कुछ पहले लालकृष्ण आडवाणी ने आंबेडकर स्मारक का लोकार्पण किया. वहीं 2013 में आंबेडकर स्मारक में पांच प्रतिमाओं का अनावरण हुआ. इसके बाद 2 जून 2015 को राहुल गांधी और 14 अप्रैल 2016 (आंबेडकर जयंती) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और 14 अप्रैल 2018 को राष्ट्रपति डॉ. रामनाथ कोविंद भी यहां आए.

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