सबकी लड़ाई बसपा सेः यूपी चुनाव को लेकर प्रो. विवेक कुमार का विश्लेषण

हाल ही में शिक्षा कार्य के लिये मुझे गोरखपुर जाना पड़ा. गोरखपुर के लिये सीधी फ्लाइट रद्द होने के कारण मुझे वाया लखनऊ होकर गोरखपुर जाना पड़ा. लखनऊ एयरपोर्ट पर टैक्सी पकड़ कर मैं जब लखनऊ में दोस्तों से मिलने जा रहा था तो अनजान टैक्सी ड्राइवर जिसकी उम्र तकरीबन 30-35 साल रही होगी, से पूछा कि उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में किसकी सरकार बनेगी. टैक्सी ड्राइवर ने बिना झिझक, बिना कोई परवाह किये कि मैं किस विचारधारा का हूं-तपाक से कहा कि भाई साहब सरकार तो अबकी मायावती की ही बनेगी. उसने बीएसपी की जगह सीधे मायावती का नाम लिया था. मैंने पूछा बीएसपी की सरकार क्यों बनेगी? तो उसने उत्तर दिया क्योंकि मायावती इ गुन्डन का बहुत सही इलाज करती है. मैंने फिर पूछा भाजपा क्यों नहीं आयेगी? तो उसने कहा कि भाजपा और मोदी ने अभी कुछ नहीं किया है. उल्टे महंगाई और बढ़ा दी है. इसलिये उत्तर प्रदेश में तो सरकार बीएसपी की ही बनेगी. लखनऊ से मैं गोरखपुर बाई रोड गया. अबकी बार मेरी टैक्सी का ड्राइवर बुजुर्ग व्यक्ति था. कोई 50-55 की उम्र का. मैंने थोड़ी देर में अपना वही प्रश्न दागा- भई अबकी उत्तर प्रदेश चुनाव में किसकी सरकार बनेगी. मुझे आश्चर्य हुआ कि फिर से मुझे उत्तर मिला कि मायावती का. गोरखपुर पहुंच कर छात्रों, शिक्षकों एवं नौकरी पैशा लोगों से यही सवाल दोहराने पर फिर वही उत्तर आया जो दोनों टैक्सी वालों ने दिया था. यहां इस लेख में इन तथ्यों का जिक्र करने का केवल इतना मकसद है कि बच्चा, बूढ़ा, नौजवान, औरत हो या आदमी सब यही कह रहे हैं कि  अबकी बार मायावती सरकार. गोरखपुर से लौटकर लखनऊ में चर्चा के दौरान उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के विधान सभा चुनाव के बारे में जो जानकारी मिली उसे यहां साझा करना आवश्यक है. सबसे पहले यहां यह बात उभर कर सामने आयी की सब की लड़ाई बसपा से है. सपा, भाजपा, कांग्रेस, आरएलडी, उवैसी हो या रामदास अठावले की आरपीआई सभी बीएसपी या मायावती को निशाना बना रहे हैं. पर आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी विपक्षी दल खुले में या प्रत्यक्ष रूप से जनता के सामने बीएसपी को अपना मुख्य प्रतिद्वंदी या ‘दुश्मन नंबर एक’ मानने को तैयार नहीं है. विशेषकर भाजपा और सपा. केंद्र में भी अपनी सरकार बनाने के दो साल बाद भाजपा आज उत्तर प्रदेश में भी अपनी सरकार बनाने का दिवा स्वपन देख रही है. एक रणनीति और डर के तहत भाजपा खुद को बसपा के साथ लड़ाई में नहीं दिखाना चाह रही है. इसके लिये उसने सपा को अपना पहला विपक्ष बताना शुरू कर दिया है. भाजपा यह बताने की कोशिश कर रही है कि उत्तर प्रदेश में उसकी लड़ाई तो सपा से है, बसपा से नहीं. यहां तक कि उसके लीडर बसपा का नाम लेने से कतराते हैं. भाजपा और उसके नेताओं की साजिश बसपा को तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में में प्रचारित करने की है. वैसे यह स्थिति भाजपा को सूट भी करती है क्योंकि भाजपा सपा की एंटी-इनकम्बेसी का लाभ उठाने की फिराक में है. भाजपा की रणनीति यह दिख रही है कि भाजपा एवं सपा अपने सांप्रदायिक एजेंडे से एक दूसरे से लड़ते हुए दिखेंगे तो दोनों को लाभ होगा और बसपा पीछे छूट जायेगी. हालांकि भाजपा के इस दावे को अगर दोनों टैक्सी ड्राइवर और उत्तर प्रदेश की जनता की कसौटी पर कसेंगे तो उसकी हवा अपने आप निकल जाती है. 12 जून को इलाहाबाद में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में यह बात खुल कर सामने आ गयी थी कि भाजपा, बसपा की अनदेखी का कतई नाटक नहीं कर सकती. उसे बसपा का संज्ञान लेना ही होगा. लेकिन भाजपा के पास बसपा पर कोई प्रत्यक्ष राजनैतिक हमला करने का मुद्दा नही है. इसलिये उसके अध्यक्ष ने एक नया जुमला गढ़ा है. यह जुमला है- भाजपा सपा-बसपा की जुगलबंदी को खत्म करेगी. परंतु भाजपा के किसी भी लीडर ने सपा-बसपा की जुगलबंदी क्या है इसको परिभाषित नहीं किया. लेकिन इस जुमले से एक बात अवश्य स्थापित हो गयी है कि भाजपा एवं उसका शीर्ष नेतृत्व चाह कर भी बसपा को तीसरे नंबर पर नहीं धकेल पाये और उन्हें बसपा को अपना मुख्य विपक्षी मानना पड़ा. यह बसपा एवं मायावती की जीत है. इसका मतलब यह हुआ कि भाजपा भी अब मान रही है कि उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में उसकी असली लड़ाई बसपा से होगी. इस स्थापना के बाद सपा खुद ब खुद तीसरे नंबर पर पहुंच गयी है. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के निशाने पर हमेशा बसपा रहती है और सपा एवं उसका शीर्ष नेतृत्व बसपा को अपनी राजनीति का विपक्षी नंबर वन मानता है फिर भी सपा प्रत्यक्ष रूप से यह मानने से परहेज कर रही है क्योंकि अगर सपा बसपा को आम जनता के सामने विपक्षी नंबर वन मान लेगी तो इससे बसपा को ही लाभ मिलेगा और बसपा नंबर एक पार्टी बन जायेगी. जन सामान्य की सोच में कहीं बसपा नंबर एक पोजीशन में न आ जाये, ऐसी स्थिति से बचने के लिये सपा बसपा को मुख्य विपक्षी दल मानने से इंकार करती रहती है. यद्धपि उसका एक-एक कदम तथा राजनैतिक पैतरा बीएसपी के एवं दलित विरोधी होता है. इसको कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है. सपा ने सबसे पहले डॉ. अम्बेडकर गोमती ग्रीन पार्क का नाम बदलकर जनेश्वर मिश्रा पार्क कर दिया. सत्ता में आते ही सपा सरकार ने मान्यवर कांशीराम के नाम पर उर्दू-फारसी विश्वविद्यालय का नाम बदल दिया. सवाल उठता है कि आखिर इसकी क्या आवश्कता थी? बाबा साहेब के नाम पर किसी स्थल का नाम बदलने की यह अपने आप में पहली घटना है. यह बाबा साहेब का अपमान है. फिर भी दलित समाज के नेता सपा से जाकर चुनाव लड़ते हैं. सपा ने जो सबसे बड़ा दलित विरोधी कार्य किया वह प्रोमोशन में आरक्षण के खिलाफ था. उच्चतम सरकार ने जब प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगाई तो सपा सरकार उसके खिलाफ अपील में नहीं गयी. अगर सपा सरकार अपील में गयी होती तो प्रमोशन में आरक्षण बना रहता. इतना ही नहीं जो दलित प्रमोशन में आरक्षण की वजह से पदोन्नत हुए थे उनको बड़ी बेदर्दी से रिवर्ट कर लज्जित किया गया. इसी कड़ी में जब मायावती ने प्रमोशन में आरक्षण हेतु संविधान संशोधन बिल राज्यसभा से पारित करके लोकसभा पटल पर रखवाया तब उस बिल को मुलायम सिंह की अगुवाई में दलित सांसद से फड़वा दिया गया. सपा की दलित विरोधी एवं दमनकारी राजनीति की पराकाष्ठा तब और भी उजागर होती है, जब हम देखते हैं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा में सपा कोटे से चुन कर आये 58 आरक्षित वर्ग का एक भी विधायक दलितों की दुर्गती पर एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. क्या सपा के नेताओं ने इन 58 दलित विधायकों को डरा रखा है कि अगर दलितों के पक्ष में, प्रमोशन में आरक्षण के पक्ष में और बाबा साहेब के अनादर के एवं उत्तर प्रदेश में दलितों पर बढ़ते अत्याचारों के विरोध में बोलोगे तो तुम्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जायेगा. कुछ ऐसा ही हाल भाजपा से चुने गये आरक्षित वर्ग के सांसदों का है. वे सब के सब दलित मुद्दों पर मूक बने बैठे हैं. इसलिये बहुजन समाज की जनता को समझना होगा कि सपा और भाजपा की मुख्य लड़ाई बसपा है. कांग्रेस भी बीएसपी को अपना प्रमुख विपक्षी मानती है यद्यपि उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में उसकी अपनी कोई बड़ी हैसियत नहीं है. कांग्रेस के नेताओं का यह मानना रहा है कि बीएसपी की वजह से ही उनकी राजनीति उत्तर प्रदेश में हाशिये पर चली गयी है. अगर बीएसपी ने दलितों एवं अल्पसंख्यकों को कांग्रेस से नहीं छीना होता तो कांग्रेस हाशिये पर नहीं जाती. आज कांग्रेस इसीलिये दलित एवं अल्पसंख्यकों को रिझाने में लगी है. इसी प्रायोजन के तहत उसने गुलाम नबी आजाद को प्रभारी बनाकर भेजा है. लेकिन उसके बावजूद बसपा उसकी मदद करती रहती है. शायद कहीं न कहीं बसपा एवं बहनजी को मान्यवर कांशीराम की कही हुई बात याद आती है. मान्यवर कांशीराम कहते थे कि किसी भी एक पार्टी को बहुत बलशाली नहीं होने दो नहीं तो वह आपकी राजनीति के लिए हानिकारक होगा. शायद इसलिए बसपा ने कांग्रेस की सरकार उत्तराखण्ड में बचाई. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं हरियाणा आदि राज्यों से कांग्रेस के राज्यसभा के सांसदो को जिताने में मदद की ताकि कांग्रेस की स्थिति राज्यसभा में ठीक-ठाक बनी रहे. कांग्रेस बसपा को उत्तर प्रदेश में कितनी चुनौती दे पायेगी यह तो समय बतायेगा. लेकिन नैतिकता तो यही कहती है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा की भी मदद करे. कांग्रेस के अलावा रामदास अठावले एवं प्रकाश अम्बेडकर की आरपीआई के धड़े भी उत्तर प्रदेश में सक्रिय होकर बसपा के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं. इसी कड़ी में एमक्यूएम, पीस पार्टी भी बसपा पर अपना निशाना साध रही है. बहुजन मुक्ति मोर्चा एवं आम्बेडकर समाज पार्टी भी दलित लीडरो की अगुवाई में बसपा को दुश्मन नंबर एक प्रोजेक्ट कर उसको विलेन घोषित कर रहे हैं. इतना ही नहीं, कहा जा रहा है कि कुछ राजनैतिक दलों ने कुछ बौद्ध भिक्षुओ को बौद्ध धर्म यात्रा के बहाने बसपा एवं बसपा प्रमुख पर प्रहार करने के लिए भेजा है. इसमें सबसे अग्रणी भूमिका कभी किसी आयोग के सदस्य रह चुके भन्ते धम्माविर्यों निभा रहे हैं. अब बहुजन समाज के सदस्यों को इन सभी की चाल को समझना पड़ेगा, वे किस प्रकार से बसपा के खिलाफ एवं मायावती जी के खिलाफ अनरगल प्रचार को काउंटर कर पाएंगे इसकी रूपरेखा उन्हें जल्द ही बनानी पड़ेगी. उन्हें बहुजन समाज के लोगों को बताता पड़ेगा कि अम्बेडकरवाद का सच्चा सिपाही कौन है. अगर राजनीति में सामाजिक न्याय को जिंदा रखना है तो बसपा के हाथों को मजबूत करना ही होगा फिर चाहे सारी राजनैतिक पार्टियां ही दुश्मन क्यों न हो जाये. बसपा को अभी अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना बाकी है. उत्तर प्रदेश में यद्यपि अल्पसंख्यक समाज सपा-भाजपा की जुगलबंदी से उत्पन्न साम्प्रदायिक वातावरण से परेशान एवं भयभीत है और वह सपा से नाराज भी है, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह बसपा की ओर पूरी तरह मुड़ गया है. अल्पसंख्यक को अपनी ओर पूरी तरह मोड़ने के लिए बसपा एवं उसके नेताओं को पूरा दम लगाना होगा. बसपा को बताना पड़ेगा कि  अल्पसंख्यकों का भविष्य बसपा के साथ ही क्यों सुरक्षित है. बसपा को अल्पसंख्यकों को समझाना पड़ेगा कि वह कांग्रेस एवं सपा से किस तरह से भिन्न है. उसको अपनी धर्मनिरपक्षेता के प्रति प्रतिबद्धता साबित करनी होगी. विशेष परिस्थिति में जब मीडिया एवं बुद्धिजीवी उसकी धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ झूठा प्रचार करते रहे हैं. लखनऊ से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबारों में लगातार अन्य राजनैतिक दलों एवं अल्पसंख्यकों के रिश्तों को लेकर पक्ष में लेख छप रहे हैं, पर बसपा वहां से नदारद है. अतः बसपा के नेतृत्व को जन सामान्य एवं विशेषकर अल्पसंख्यकों को यह बताना पड़ेगा कि वह धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ कैसे मजबूती से खड़ी है. उदाहरण के लिए जब उत्तराखंड की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार पर साम्प्रदायिक ताकतों ने राष्ट्रपति शासन लगाया तब बसपा नेता मायावती ने कांग्रेस की सरकार को बचाकर साम्प्रदायिक ताकतों को मुंहतोड़ जवाब दिया. पर मीडिया या अन्य किसी माध्यम से बसपा ने इसका प्रचार नहीं किया. इसी कड़ी में हाल ही में उत्तर प्रदेश में सम्पन्न हुए राज्यसभा के चुनावों में कांग्रेस के प्रत्याशी के जीतने की कोई उम्मीद नहीं थी. ऐसे में बसपा ने अपने कोटे के सरप्लस वोटों को उसके उम्मीदवार को स्थानान्तरित कर उसे जीता दिया. इससे हुआ यह कि भाजपा समर्थित उम्मीदवार की हार हुई. पर कांग्रेस के नेतृत्व ने इस सभी तथ्यों को कहीं भी प्रचारित नहीं किया. अल्पसंख्यकों में भी पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों पर बसपा को अधिक ध्यान देना होगा. पहले बसपा में अल्पसंख्यक समाज के कई नामचीन नेता हुआ करते थे जो बसपा की राजनीति को पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों तक पहुंचाते थे. परन्तु आज बसपा में पिछड़ी जाति के अल्पसंख्यकों का कोई कद्दावर नेता सामने नहीं दिखाई दे रहा है, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में. ऐसे में बसपा की ओर वह कैसे मुखातिब होगा. अतः बसपा को अल्पसंख्यकों को अपनी ओर मजबूती से लाने के लिए तथा उनमें अपने लिए विश्वास जगाने के लिए पूरी तरह प्रयास करने होंगे. उसे धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता साबित करनी होगी, उसे अपने खिलाफ चल रहे नाकारात्मक प्रचार पर अंकुश लगाना होगा, विशेषकर उर्दू प्रेस, मदरसों एवं मस्जिदों में होने वाले दुष्प्रचारों को काउंटर करने के लिेए प्रयास करने होंगे. एक समय में बसपा ने अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अपील छपवाई थी. उस अपील का शीर्षक था, अल्पसंख्यक समाज सोचे समझे और फिर वोट करे. इस अपील में बसपा की लीडरशिप को समझाना पड़ेगा कि उसके समय साम्प्रदायिक संघर्षों पर कैसे रोक लग जाती है. कानून व्यवस्था कायम रहने से अल्पसंख्यकों को कैसे फायदा होता है आदि अन्य बातें का जिक्र इस अपील में था. ऐसे प्रयास करने से अल्पसंख्यक समाज का रुझान बसपा की तरफ और भी मजबूत होगा. बसपा सभी सर्वेक्षणों में आगे क्यों विचारणीय प्रश्न यह है कि आखिर बसपा उत्तर प्रदेश में सभी राजनैतिक दलों से क्यों आगे है? यह बढ़त नकारात्मक नहीं है. अर्थात यह बढ़त केवल इस कारण नहीं है कि सपा सरकार में गुण्डा राज है और कानून एवं अभिशासन की हालत पतली है. मथुरा काण्ड ने इसको और भी हवा दी है. जिस सरकार के राज में डी.एस.पी. एवं एस.पी. मार दिये जाय, पुलिस थानों पर हमले हों और साम्प्रदायिक दंगों का खतरा हमेशा बना रहे, वहां उस सरकार पर कौन भरोसा करेगा. इससे भी सबसे ऊपर जहां, जिस राज्य के मुख्यमंत्री को उसी पार्टी के वरिष्ठ नेता कुछ न समझे, आई.ए.एस एवं आई.पी.एस आंख दिखाये ऐसे मुख्यमंत्री के राज में कानून-व्यवस्था कैसे दुरुस्त रहेगी. इन सबका फायदा तो बसपा को अवश्य मिलेगा परन्तु बसपा के पास लोगों का समर्थन सकारात्मक कारणों से ज्यादा हो रहा है. उसका सबसे बड़ा कारण है बसपा प्रमुख मायावती का कद. उत्तर प्रदेश में नेतृत्व की बात करें तो फिलहाल विपक्ष के पास बसपा प्रमुख मायावती के कद का कोई नेता मौजूद नहीं है. कई विपक्षी दल केवल विकास का नारा दे रहे हैं, लेकिन उनकी विचारधारा से सामाजिक न्याय नदारद हैं. परन्तु बसपा सामाजिक न्याय के साथ विकास के लिए जानी जाती है. अगर अम्बेडकर ग्राम योजना से ग्रामीण बहुजनों को सामाजिक न्याय मिलता है तो कांशीराम शहरी विकास योजना से शहरी बहुजनों/गरीबों/सर्वजनों को न्याय मिलता है. दूसरी ओर 165 किलोमीटर लम्बी एक्सप्रेस वे, 3 विश्वविद्यालयों एवं 4 मेडिकल कॉलेजों का निर्माण, नवीन जमीन अधिग्रहण योजना तथा ग्रेटर नोएडा का निर्माण आदि विकास की योजनाएं थी, जिसका प्रचार कहीं नहीं हुआ पर आज सभी इस विकास को याद कर रहे हैं. लॉ एंड आर्डर में तो बसपा शासन का कोई सानी नहीं है. बसपा प्रमुख मायावती जी ने अपने शासन काल के दौरान यह साबित किया है कि बसपा का शासन कानून का राज, विकास एवं सामाजिक न्याय का अद्भुत संगम है.

ओबीसी आरक्षण और शिक्षा क्षेत्र में भागीदारी का सवाल

jnu2014 में केन्द्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद भारत में सवर्णवादी ताकतें एकबार फिर पुरजोर तरीके से मुखर व आक्रमक हैं. जाहिर है कि समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़ा- पसमांदा जमात के खिलाफ तमाम तरह के हथकंडे रचे जा रहे हैं ताकि इनके प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को कुंद व खारिज किया जा सके. बहुजन समाज के सवाल को जिस प्रतीकात्मक तरीके से बीजेपी ने हल करने की कोशिश की है, वह उनके शातिराना छद्म को उजागर करता है. रोहित वेमुला के ‘आत्महत्या’ से उभरे बहुजन जनाक्रोश को दबाने के लिये जेएनयू को केन्द्र बनाकर एक सवर्ण कन्हैया को जबरन मुद्दा बना दिया गया जो वामपंथी ब्राह्मणों और दक्षिणपंथी ब्राह्मणों की एक दूसरे के खिलाफ प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष सामाजिक- राजनीतिक प्रतिक्रियात्मक ताकतों के रूप में खड़ा करने की कोशिश प्रतीत होती है. ऐसा इसलिये भी संभव हुआ कि इन दोनों ही पक्षों की खासी दिलचस्पी कांग्रेस को विमर्श से बाहर रखकर कमजोर करने में थी और साथ ही बहुजन जनाक्रोश को दफन करने में थी. यह अलग बात है कि कांग्रेस भी बहुजनों के भागीदारी से जुड़े सवाल पर कभी खास मुखर नहीं रही बल्कि दब्बू बनी रही है ताकि बहुजन सिर्फ पिछलग्गू बने रहें. इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दलित समर्थक या फिर अम्बेदकरवादी घोषित करने की पुरजोर कोशिश करना, ये कई बातें हैं जो दलितों के मनुवाद- ब्राह्मणवाद विरोधी रूख को बड़े ही सामाजिक- मनोवैज्ञानिक तरीके से कुंद कर प्रगतिशीलता व राष्ट्रवाद के नाम पर सवर्णों के साथ समाहित करने का प्रयास दिखता है. उसी तरह दलित बनाम पिछड़ा बनाम आदिवासी और बहुजन बनाम मुसलमान जैसे द्वंद्व पैदा करने के प्रयासों में बीजेपी- संघ सक्रिय दिखाई देती है. हालांकि दलित बनाम पिछड़ा का द्वंद जितना सामाजिक है उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक है जिसकी मूल धुरी व पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश की जमीन पर ज्यादा दिखलाई देता है. वैसे हाल ही के बिहार विधानसभा चुनाव (2015) में दलित- पिछड़ों की सामाजिक गोलबंदी सवर्णों के खिलाफ स्पष्ट देखने को मिला जो इस अवधारणा के अपवाद को प्रस्तुत करते हैं. लेकिन दलितों और पिछड़ों में मुखरता के उभरते स्वर के बीच आदिवासी समाज अपने मुद्दों को लेकर बहुत अलग- थलग पड़ता दिखाई देता है. इसी तरह पसमांदा स्वर भी काफी दबा हुआ और गुमशुदा सा दिखाई पड़ता है जो बहुजन विमर्श में एक बड़ी चिंता का कारण है. कुल मिलाकर सवर्ण तंत्रों के द्वारा यह प्रयास लगातार किया जा रहा है कि एक समेकित बहुजन वैचारिक गोलबंदी मुद्दों को लेकर भी कतई न हो पाये और कम- से- कम शिक्षा केन्द्रों से इनके अधिकार व भागीदारी को तो जरूर ही खारिज कर दिया जाय. इनदिनों बीजेपी- संघ के कारण मनुवादी- ब्राह्मणवादी ताकतें आरक्षण के सवाल पर बहुत मुखर व आक्रमक दिखाई दे रही है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा खामियाजा बहुजन समाज को ही भुगतना पड़ेगा. केन्द्र की बीजेपी सरकार अपने संघ के कार्यकर्ताओं को देशभर के महत्वपूर्ण शोध व शिक्षण संस्थानों एवं राष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं में काबिज करने के अभियान में लगी है. कला, साहित्य, इतिहास से जुड़ी संस्थायें हो या प्रसार भारती, डीडी-न्यूज, एआईआर जैसे पब्लिक ब्रोडकास्टर से लेकर एनबीटी, एनसीईआरटी, सीबीएसई, कॉलेज- विश्वविद्यालय में हो रही तमाम नियुक्तियां, यह चर्चा आम है कि ये सब आरएसएस के निर्देश पर की जा रही हैं. इसी कड़ी में एफटीआईआई का निदेशक सी-ग्रेड की फिल्मों के कलाकार गजेन्द्र चौहान व निफ्ट का निदेशक क्रिकेटर चेतन चौहान को बनाना किसी मजाक से कम नहीं है. बहुजन समूह के बच्चों के लिये आज की तारीख में देश के सर्वोत्कृष्ट शिक्षा केन्द्रों में छात्र या शिक्षक के तौर पर प्रवेश असंभव होता जा रहा है और जो संभव बना लेते हैं उनका सामाजिक- मनोवैज्ञानिक दबाव के बीच सम्मानजनक तौर पर संस्थान में टिक जाना चुनौतीपूर्ण कार्य है. एससी- एसटी को मिले संवैधानिक संरक्षण के कारण तमाम अप्रत्यक्ष व मनोवैज्ञानिक दबाव के बावजूद उनके खिलाफ खुलकर बोलने से लोग हिचकते हैं पर ऐसा नहीं है कि उनके खिलाफ साजिशें कम हैं जिनसे वे अपने- अपने तौर पर जूझ रहे हैं. वहीं ओबीसी को लेकर हथकंडे खुले तौर पर अपनाये जा रहे हैं जिसकी एक बानगी है दिल्ली विश्वविद्यालय; जहां पर ओबीसी के लिये एडमिशन में आरक्षण लागू होने के बावजूद इस तबके को हतोत्साहित करने का प्रयास जारी है. अभी हाल ही में विश्वविद्यालय ने एक सर्कुलर जारी किया है जिसके तहत छात्रों को एडमिशन के वक्त ओबीसी के क्रिमी-लेयर सर्टिफिकेट के साथ- साथ ही माता-पिता के आय प्रमाण पत्र भी दिखाना होगा. अब प्रशासन में बैठे लोगों को कौन समझाये कि आय प्रमाण पत्र के आधार पर ही क्रिमी-लेयर का सर्टिफिकेट दिया जाता है. दिलचस्प है कि राष्ट्रीय राजधानी में मौजूद दिल्ली विश्वविद्यालय इस तरह का बड़ा निर्णय ओबीसी जाति के छात्रों को प्रताड़ित करने की मानसिकता से लेती है. अब इस मामले से अलग अभी हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के कार्यरत कॉलेज शिक्षकों के शिक्षण कार्य के घंटे में इजाफा करने वाला एक सर्कुलर जारी किया गया जिसका एक बड़ा खामियाजा विश्वविद्यालय में एड-हॉक पर पढ़ाने वाले तकरीबन 5000 शिक्षकों को भुगतना था. इस सर्कुलर के बाद विश्वविद्यालय में हड़कंप की स्थिति उत्पन्न हो गई जिसके बाद लगातार प्रदर्शन का दौर जारी था. एड-हॉक व्यवस्था के तहत शिक्षकों की नियुक्ति परमानेंट पदों के एवज में चार महीने के लिये की जाती है. इस चार महीने के बाद एक दिन का सर्विस ब्रेक कर फिर उनको काम पर जारी रखा जाता है. आश्चर्य ये है कि हजारों की संख्या में शिक्षक 5- 10- 15 सालों से भी एड-हॉकिज्म के तहत काम कर रहे हैं. चूंकि इन एड-हॉक पदों पर नियुक्ति परमानेंट/स्थायी पदों के एवज में होती है तो आरक्षण प्रक्रिया का सामान्य तौर पर अनुपालन होता है. उस स्थिति में इन शिक्षकों में कम- से- कम 2500 एससी- एसटी- ओबीसी समाज के तो जाहिर तौर पर होने चाहिये, जिसका आंकड़ा बहुजन हित में सामने लाने की जरूरत है. अब इस पूरे सर्कुलर की आड़ में जहां वैश्वीकरण के बाद अमेरिकी पैटर्न पर शिक्षा के निजीकरण व व्यावसायिक रि-मॉडलिंग करने खतरे के तौर पर देख सकते हैं वहीं बहुजन समाज के प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल को भी खत्म करने के खतरे का इशारा देख सकते हैं. दिलचस्प है इन पदों पर अगर स्थायी नियुक्ति होती है तो एससी- एसटी- ओबीसी के लिये उच्च शिक्षा में बड़ी भागीदारी का रास्ता प्रशस्त होगा. सरकार की बहुजनों के खिलाफ साजिश का एक नमूना 2014 में डीयू के कुलपति दिनेश सिंह का बीए के 3 साल के कोर्स को अचानक 4 साल बना देना था जिसे काफी विरोध के बाद वापस लेना पड़ा. कपिल सिब्बल से स्मृति इरानी तक भारत की शिक्षा को अंदरूनी तौर पर कमजोर कर अमेरिकी उच्च शिक्षा के लिये प्रोडक्ट तैयार करने में लगे हैं. लिहाजा सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवालों के प्रति शिक्षा तंत्रों में बैठे सवर्ण मठाधीश बिल्कुल उदासीन व बेरूखे नजर आते हैं. यही कांग्रेस हो या बीजेपी दोनों ही सरकार की नीति है जिसको तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी भी समर्थन करते नजर आते हैं. डीयू के कुलपति रहते समय दिनेश सिंह पर जातिवादी मानसिकता से भी काम करने के आरोप लगाये जाते रहे हैं जिसमें अपने चहेतों को विभिन्न पदों पर स्थापित करने से लेकर 2013 के आसपास कोर्ट में हलफनामा देकर एससी- एसटी- ओबीसी के बैक-लॉग पदों के मामले को पूरी तरह दफन करने एवं आरक्षित पदों पर नियुक्तियों में जानबूझ कर कोताही बरतने का मामला भी शामिल है. इसी बीच यह खबर आती है कि एससी- एसटी को दी जाने वाली राजीव गाँधी फेलोशिप अब सिर्फ एससी को दी जायगी और एसटी के लिये यह स्कॉलरशिप शातिर तरीके से खत्म कर दिया गया है. हर साल 667 एमफिल और पीएचडी स्कॉलर्स को यह फेलोशिप दी जाती थी. आश्चर्यजनक तौर पर सरकार की ओर से फंड की कमी का बहाना बनाया जा रहा है लेकिन इन सबका भुक्तभोगी भारत का सबसे शोषित व संघर्षशील आदिवासी तबका क्यों बने! अगर आदिवासी समाज के शिक्षा के लिये उपयोगी धन की कमी का रोना इस आजाद देश में है तो मौजूदा नरेन्द्र मोदी सरकार के लिये यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है. लेकिन जो मसला सबसे बड़ा बवंडर बनकर आया वह यूजीसी के द्वारा देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को 3 जून, 2016 को भेजी गई चिट्ठी थी जिसमें स्पष्ट किया गया कि ओबीसी को सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति में 27 फीसदी आरक्षण दिया जायगा और एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर के पद पर ओबीसी को आरक्षण की सुविधा नहीं दी जायगी. हालांकि इसी पत्र में यह कहा गया कि एससी- एसटी को असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर–तीनों पदों पर आरक्षण मान्य होगा. इस पत्र ने देश में बड़ी सुर्खिया बटोरी और ओबीसी समाज के छात्रों- शिक्षकों- बुद्धिजीवियों के बीच एक आक्रोश की स्थिति उत्पन्न की. इस मामले में भी ओबीसी समाज की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई तो देखकर लगा कि इसी बहाने कही दलित बनाम ओबीसी की लड़ाई जो राजनीतिक क्षेत्र में मौजूद है इसे ज्ञान क्षेत्र या शिक्षा केन्द्रों में कराने की मनोवैज्ञानिक कोशिश तो नहीं है. खैर इस मामले की गंभीरता इसी बात से समझ सकते हैं कि आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर केन्द्र सरकार को इस सर्कुलर को वापस लेने की मांग कर दी और ओबीसी के लिये एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पदों पर भी नियुक्ति में आरक्षण बहाल करने को कहा. उधर यूनाइटेड ओबीसी फोरम ने इस मुद्दे पर मानव संसाधन मंत्रालय पर प्रदर्शन की घोषणा कर दी. इसी बीच 7 जून, 2016 को यूजीसी ने ओबीसी छात्रों- शिक्षकों- नेताओं के दबाव में आकर एक नया सर्कुलर निकाला जिसमें 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन को वापस लेने की बात करते हुये ओबीसी आरक्षण के इस मसले पर पूर्व की स्थिति को ही स्वीकार करने की बात कही. लेकिन इसके साथ ही ‘इसकी टोपी उसके सर’ की तर्ज पर केन्द्र सरकार ने मामले में कांग्रेस पर ठीकरा फोड़ने का इंतजाम भी कर लिया ताकि ओबीसी आरक्षण का मामला उलझ भी जायें और बीजेपी की नाक किसी संभावित जिम्मेदारी से बच भी जाये. 24 जनवरी, 2007 को जो विश्वविद्यालयों में ओबीसी आरक्षण से संबंधित पहला नोटिफिकेशन जारी हुआ था उसमें भी सिर्फ लेक्चरर (असिस्टेंट प्रोफेसर) के स्तर पर ही 27% आरक्षण की बात थी लेकिन जब 3 जून, 2016 के नोटिफिकेशन में 2007 के इसी पत्र संख्या का हवाला देते हुये यह बात भी अलग से जोड़ दिया गया कि ओबीसी आरक्षण सिर्फ असिस्टेंट प्रोफेसर पद के लिये होगा और एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर नियुक्तियों में आरक्षण लागू नहीं होगा. लेकिन ऐसा करके केन्द्र सरकार ने ओबीसी को अबतक जिन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीनों स्तरों पर आरक्षण मिल रहा था, वहां पर भी वीटो लगा दिया. पहले से ही उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व नगण्य था और इस आरक्षण व्यवस्था के कारण उसपर भी आफत आ गयी थी. इस मसले पर ओबीसी नेताओं में शरद यादव, अली अनवर, तेजस्वी यादव ने केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने में सहयोगी भूमिका निभाई है. उधर सरकार में शामिल अनुप्रिया पटेल एवं उपेन्द्र कुशवाहा ने भी अपनी चिंता का इजहार करते हुये ओबीसी आरक्षण के पक्ष में अपनी बात रखी है. दिलचस्प है कि इन विवादों के बीच कई ऐसे उदाहरण हैं जब ओबीसी के लिये एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर आरक्षण सहित वैकेंसी निकाली गई. केन्द्रीय विश्वविद्यालय- उड़ीसा ने 2012 में अंग्रेजी एवं पर्यावरण विज्ञान विषय में प्रोफेसर के एक-एक पद और समाजशास्त्र विषय में एसोसिएट प्रोफेसर के एक पद के लिये ओबीसी आरक्षित पद की अधिसूचना जारी की. फिर 2015 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय- केरल ने हिन्दी विषय में ओबीसी के एक-एक पद एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद के लिये निकाला. इसी साल 2015 में ही सिक्किम विश्वविद्यालय ने विभिन्न विषयों में ओबीसी के 7 प्रोफेसर एवं 11 एसोसिएट प्रोफेसर पद की वैकेंसी निकाली. लेकिन दिलचस्प यह है कि भारत सरकार के मानव संसाधन विभाग की ओर से 9 जून, 2008 को सभी आईआईटी डॉयरेक्टर के नाम एक पत्र जारी किया जाता है जिसमें कई बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं. पहला, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों सहित सभी विषयों में असिस्टेंट प्रोफेसर और लेक्चरर पद पर एससी- एसटी- ओबीसी को संविधान प्रदत्त आरक्षण दिया जाएगा. दूसरा, असिस्टेंट प्रोफेसर/लेक्चरर पद पर योग्य उम्मीदवार न मिलने की स्थिति में एससी- एसटी- ओबीसी के लिये आरक्षित पद गैर- आरक्षित कर दिये जाएंगे. तीसरा, साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं होगा. लेकिन इसी पत्र में सबसे दिलचस्प एक चौथी बात है कि साइंस एवं टेक्नोलॉजी विषय से इतर मानविकी (Humanities), समाज विज्ञान (Social Science) और मैनेजमेंट (Management) जैसे विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर एवं प्रोफेसर पद पर एससी (15%)- एसटी (7.5%)- ओबीसी (27%) आरक्षण पूर्णरूपेण लागू होगा. 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के द्वारा मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा के बाद 1993 में केन्द्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी के प्रयासों से जब मंडल कमीशन के तहत 27% ओबीसी आरक्षण नौकरियों में लागू की गई तो सभी स्तरों पर सीधी नियुक्तियों में इसे लागू किया गया. केन्द्र सरकार के पर्सनल, पब्लिक ग्रिवांसेज एवं पेंशन मंत्रालय के पर्सनल एवं ट्रेनिंग विभाग के द्वारा दिनांक- 8 सितम्बर, 1993 के पत्र संख्या- 36012/22/93-Estt.(SCT) के तहत जारी अधिसूचना के पैरा- 2(a) में स्पष्ट लिखा है कि- “27 % of the vacancies in civil posts and services under the Govt. of India, to be filled through direct recruitment, shall be reserved for the Other Backward Classes (OBC).” जाहिर है कि एसएससी से लेकर स्टेट पीएससी और यूपीएससी तक जितनी भी वैकेंसी आई तो उसमें उसी वक्त से आरक्षण लागू कर दिया गया. 2006 में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और शिक्षण दोनों में ओबीसी आरक्षण की प्रक्रिया शुरू की तो सवर्ण समाज के प्रतिरोध के कारण मामला कोर्ट में चला गया, जिसपर सुप्रीम कोर्ट से फैसला होकर 2008 में आया. इसके तहत ओबीसी का 27 फीसदी आरक्षण एडमिशन में तमाम केन्द्रीय स्तर के शिक्षण संस्थानों में लागू करने की घोषणा हुई लेकिन इस शर्त के साथ की जेनरल के लिये उतनी ही सीटें सभी संस्थानों व कोर्सों में बढ़ा दी जाएगी. लेकिन तमाम उठापटक और इसे लागू न करने की कोशिशों के बावजूद दिल्ली विश्वविद्यालय सहित तमाम केन्द्रीय संस्थानों में इस ओबीसी आरक्षण को 2011 से लागू कर दिया गया. आज जो कुछ भी ओबीसी के मुखर स्वर राजनीति से इतर बौद्धिक- वैचारिक धरातल पर सुनाई देते हैं, ये इसी 27% आरक्षण के फलस्वरूप राष्ट्रीय शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकल रहे आवाम की गूंज है. यह कोई मामूली बात नहीं की विगत दिनों जेएनयू जैसे तथाकथित प्रगतिशील वामपंथी मुखौटे के खिलाफ ओबीसी यूनाइटेड फोरम के बैनर तले छात्रों के संगठन ने इस विश्वविद्यालय के इतिहास में लगातार संघर्ष कर अपने पक्ष में मांगे मानने पर प्रशासन को बाध्य कर दिया. इस संगठन के दबाव में जो मांगे मानी गई वह किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय स्तर के शिक्षण संस्थान के इतिहास में खास है. पहला, एकेडमिक काउंसिल ने तय किया कि ओबीसी छात्रों को आगामी सत्र से प्रवेश परीक्षा के दोनों स्तरों पर 10% रिलेक्शेशन दिया जाएगा. दूसरा, आगामी सत्र से ओबीसी को हॉस्टल एलॉटमेंट में 27% आरक्षण दिया जाएगा. तीसरा, आगामी सत्र से एससी- एसटी- ओबीसी आरक्षण को डॉयरेक्ट पीएचडी में लागू किया जाएगा और आरक्षित सीट को जनरल नहीं किया जायगा. इसके अलावा अन्य बातों के लिये कमिटि गठन एवं विशेष अवसर की बात पर गंभीरता से विचार करने पर सहमति बनी. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा सत्र में तकरीबन 70-75 छात्रों को डॉयरेक्ट पीएचडी में लिया गया जिसमें दो-तीन छोड़कर सारे सवर्ण थे, इस बात को लेकर बहुजन छात्रों में खासा आक्रोश था. अब जब एसोसियेट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर ओबीसी आरक्षण नहीं देने की बात सामने आई है तो ये सारे छात्र देशभर में गोलबंदी कर बड़ी मुहिम को अंजाम देने की तैयारी में लगे हैं. आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत प्राप्त सूचना (संख्या- RTI/ UGC/4-6) से पता चलता है कि कुल मिलाकर देशभर के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी के सवाल खारिज कर साजिशन कुंद कर दिये जा रहे हैं. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में एससी के 25 प्रोफेसर, एसटी के 11 प्रोफेसर और ओबीसी समाज के सिर्फ 4 प्रोफेसर हैं जबकि उच्च जाति के 2523 प्रोफेसर हैं. इसी प्रकार एसोसिएट प्रोफेसर (रीडर) के स्तर पर एससी के 79, एसटी के 10 और ओबीसी के 4 लोग हैं जबकि उच्च जाति के 2819 लोग एसोसिएट प्रोफेसर हैं. असिस्टेंट प्रोफेसर (लेक्चरर) के पद एससी के 422, एसटी के 211 और ओबीसी के 233 लोग हैं जबकि 1461 असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इसी प्रकार प्रगतिशील वामपंथी कहे जाने वाले संस्थान जेएनयू भी घोर सवर्णवादी नजर आता है जब एक दिसम्बर, 2015 में प्राप्त आरटीआई सूचना में जेएनयू के सभी विभागों के कुल शिक्षकों का आंकड़ा मालूम पड़ता है. जेएनयू के कुल 470 शिक्षकों में 426 उच्च जाति, 28 एससी, 14 एसटी और सिर्फ 2 ओबीसी जाति के हैं जो जेनरल कैटेगरी में कंपीट कर नौकरी में आये हैं. अब ओबीसी के खाली पदों का लेखा- जोखा लेने की एक कोशिश में स्थिति बहुत ही गंभीर नजर आने लगती है. उपलब्ध कराये गये एक अनुमानित आंकड़े के तहत असम विश्वविद्यालय में 32 पद, विश्वभारती विश्वविद्यालय में 50 पद, पांडिचेरी विश्वविद्यालय में 34, तेजपुर विश्वविद्यालय में 33, हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय में 45, गुरू घासीदास विश्वविद्यालय में 44 पद ओबीसी आरक्षित होते हुए भी खाली हैं और इन्हें जानबूझ कर भरा नहीं जा रहा है. सवाल ओबीसी का है, सवाल एससी- एसटी का भी है लेकिन निशाने पर बारी- बारी से सब हैं. लिहाजा एक बड़ा सवाल समस्त बहुजन समाज के सामाजिक वजूद का है. बहुजन राजनीतिक नेताओं के आपसी द्वंद्व से इतर एक वैचारिक- बौद्धिक गोलबंदी की जरूरत है ताकि 85 फीसदी आवाम के सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व व भागीदारी का सपना हकीकत में तब्दील हो सके. ज्योतिबा फूले और सावित्री बाई फूले ने बहुजनों के बीच शिक्षा की अलख जगाई जिसको छत्रपति शाहूजी महाराज ने विस्तार देने का काम किया जिनकी प्रेरणा से बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर ने देश- विदेश में अर्जित शिक्षा की बुनियाद पर तमाम बड़ी उपलब्धियां हासिल की. अम्बेडकर जी ने भले ही यह कहा कि – “राजनीति का मार्ग ही वह सबसे बड़ी कुंजी है जो समाज के सभी क्षेत्रों के द्वार खोलती है” लेकिन उन्होंने ‘संघर्ष करने’ से पहले ’संगठित होने’ और उससे भी पहले ‘शिक्षित होने’ का संदेश दिया है. जाहिर है कि वे जानते थे कि संख्या बल की बुनियाद पर एक दिन बहुजन समाज के दलित- आदिवासी- पिछड़े अगर सत्ता केन्द्रों तक पहुंच भी गए तो शिक्षा पर आधारित वैचारिकता- बौद्धिकता के बिना ये न तो एजेंडा सेट कर पाएंगे और न ही समाज परिवर्त्तन का सपना पूरा कर पाएंगे. अत: संविधान निर्माता बाबा साहब ने जिस “स्वर्ग पर धावा” की परिकल्पना की थी वह संसद में पहुंचने से भी ज्यादा देश के समस्त ज्ञान व शिक्षा केन्द्रों पर बहुजनों की संख्यानुपातिक भागीदारी एवं कब्जा करने से जुड़ा है. यह उपर्युक्त बात किसी को भी अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन हाल के दिनों में बीजेपी- आरएसएस के द्वारा जिस तरह से देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर कब्जा करने और ज्ञान क्षेत्र में दलित- आदिवासी- पिछड़ों के लिये प्रतिनिधित्व व भागीदारी के सवाल को जबरन खारिज करने में लगे हैं तो यह स्वाभाविक तौर पर स्वीकार्य लगती है. भारतीय समाज की जितनी भी त्रासदी है उसका संबंध मूलत: सामाजिक न्याय और भागीदारी के वैचारिक सवाल से ही है. वैसे अतीत काल से ही इन सवालों पर आत्म-सम्मान, न्याय, हक-हकूक को लेकर निजी और सामूहिक संघर्ष जारी है. भारत में आजादी के बाद लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद अब तक चले आ रहे तमाम वाद- संवाद- विवाद के मूल संदर्भ सिर्फ दो ही हैं. एक, सामाजिक न्याय और भागीदारी के सवाल को येन- केन- प्रकारेण दरकिनार कर 15 फीसदी सवर्णवादी लोगों की यथास्थितिवाद को बनाये रखने का हरसंभव प्रयास करना और दूसरा, दलित- आदिवासी- पिछड़ा यानि बहुजन जमात का वैचारिक जनप्रतिरोध जो 85 फीसदी आवाम के सभी क्षेत्रों में उचित न्याय व समुचित भागीदारी सुनिश्चित कराने के लिये संघर्ष करना. फिलहाल संघर्ष जारी है और यह देखने की बात होगी की देश का एससी- एसटी- ओबीसी- पसमांदा समाज शिक्षण क्षेत्रों पर धावा बोल दावा कर लेने के सपने कब और कैसे पूरा करता हैं. जाहिर है कि बहुजन समाज के लिये ज्ञान की तलाश में शिक्षा केन्द्रों में भागीदारी की लड़ाई सबसे अहम एवं अव्वल है.

एक नये ढसाल की जरुरत

आज ‘दलित पैंथर’ का स्थापना दिवस है. आज से प्रायः साढ़े चार दशक पूर्व,1972 में 9 जुलाई को नामदेव लक्ष्मण ढसाल और उनके लेखक साथियों ने मिलकर इसकी स्थापना की थी. इस संगठन ने डॉ.आंबेडकर के बाद मान अपमान से बोधशून्य आकांक्षाहीन दलित समुदाय को नए सिरे से जगाया. इससे जुड़े प्रगतिशील विचारधारा के दलित युवकों ने तथाकथित आंबेडकरवादी नेताओं की स्वार्थपरक नीतियों तथा दोहरे चरित्र से निराश हो चुके दलित समुदाय में जोश भर दिया, जिसके फलस्वरूप दलितों को अपनी ताकत का अहसास हुआ और उनमे ईंट का जवाब पत्थर से देने की मानसिकता पैदा हुई. इसकी स्थापना के एक महीने बाद ही 15 अगस्त 1972 को राजा ढाले ने ‘साधना’के विशेषांक में ‘काला स्वतंत्रता दिवस’ लेख लिखकर तथा ढसाल ने यह घोषणा कर कि यदि विधान परिषद या संसद सामान्य लोगों की समस्यायों को हल नहीं करेगी तो पैंथर उन्हें जलाकर राख कर देंगे, शासक दलों में हडकंप मचा दिया. दलित पैंथर के निर्माण के पृष्ठ में अमेरिका के उस ब्लैक पैंथर आन्दोलन से मिली प्रेरणा थी जो अश्वेतों को उनके मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक अधिकारों को दिलाने के लिए 1966 से ही संघर्षरत था. इस आन्दोलन का नामदेव ढसाल और राजा ढाले जैसे जैसे क्रांतिकारी युवकों पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज़ पर दलित मुक्ति के प्रति संकल्पित अपने संगठन का नाम ‘दलित पैंथर’ रख दिया. जहाँ तक विचारधारा का सवाल है पैंथरों ने डॉ.आंबेडकर की विचारधारा को न सिर्फ अपनाया बल्कि उसे विकसित किया तथा उसी को अपने घोषणापत्र में प्रकाशित किया,जिसके अनुसार संगठन का निर्माण हुआ. उसके घोषणापत्र में कहा गया,’दलित पैंथर आरपीआई के नेतृत्व की सौदेबाजी के खिलाफ एक विद्रोह है. अनुसूचित जातियां,जनजातियां,भूमिहीन श्रमिक, गरीब किसान हमारे मित्र हैं…वे सब लोग जो राजनीतिक और आर्थिक शोषण के शिकार हैं,वे सभी हमारे मित्र हैं. जमींदार,पूंजीपति,साहूकार और उनके एजेंट तथा सरकार जो शोषण के समर्थक तत्वों का समर्थन करती है, वे पैंथरों के दुश्मन हैं’. उसमें यह भी कहा गया,’हम आर्थिक ,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में नियंत्रणकर्ता की हैसियत का प्राधान्य चाहते है…हम ब्राह्मणों के मध्य नहीं रहना चाहते.हम पूरे भारत पर शासन के पक्षधर हैं. मात्र ह्रदय परिवर्तन अथवा उदार शिक्षा अन्याय और शोषण को समाप्त नहीं कर सकते. हम क्रान्तिशील जनता को जागृत करेंगे और उन्हें संगठित करेंगे ताकि परिवर्तन हो सके. हमें विश्वास है कि जनसमूह में संघर्ष द्वारा क्रांति की ज्वाला जरुर जलेगी. क्योंकि हम जानते हैं कि कोई भी समाज-व्यवस्था मात्र रियायतों की मांग,चुनाव और सत्याग्रह के जरिये नहीं बदली जा सकती. हमारी सामाजिक क्रांति का विद्रोही विचार हमारे लोगों के दिलों में उत्पन्न होगा तथा तुरंत ही वह गर्म लोहे की भांति अस्तित्व में आयेगा.अंत में हमारा संघर्ष दासत्व की जंजीरों को तोड़ डालेगा.’ दलित पैंथर के घोषणापत्र ने जहां जागरूक दलितों और प्रगतिशील आम युवा पीढ़ी में हलचल पैदा की,वहीँ समाजवादी,साम्यवादी,प्रगतिशील लेखकों-विचारकों को झकझोर दिया.किन्तु तमाम खूबियों के बावजूद यह अपना घोषित लक्ष्य पाने में विफल रहा.’दलित पैंथर आन्दोलन’ पुस्तक के लेखक अजय कुमार के शब्दों में-‘यह आन्दोलन देश में दलित नेताओं और गैर-दलित नेताओं द्वारा अनुसूचित जाति के उद्धार के लिए चलाये गए अन्दोलनों से बिलकुल हट कर है तथा अपनी एक अमिट छाप छोड़ता है. दलित पैंथर आन्दोलन के प्रतिनिधियों ने पैंथरों की भांति ही काम किया तथा सरकार को अपनी मांगे मनवाने के लिए पूर्णतः तो नहीं लेकिन सर झुकाने को मजबूर जरुर कर दिया.परन्तु आंदोलनकारियों के आपसी मतभेदों के कारण यह संगठन अपने चरम बिंदु तक नहीं पहुँच सका. जो चिंगारी के रूप में भड़का वह जंगल में फैलनेवाली आग का रूप धारण नहीं कर सका क्योंकि इसके अंदर संगठनात्मक,संरचनात्मक, वित्त सम्बन्धी, सामंजस्य सम्बन्धी तथा विचारधारा विरोधी कमियां थी. यदि यह आन्दोलन इन सभी विरोधों को समाप्त करके एकल विचारधारा पर चलता तो शायद एक ऐसा आन्दोलन बन जाता कि भारतवर्ष से छुआछूत, अलगाव, अमीर-गरीब, नीच-उच्च, नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र का वैरभाव मिट जाता.’ यह सही है कि यह संगठन अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुँच सका,तथापि इसकी उपलब्धियां गर्व करने लायक रहीं.बकौल चर्चित मराठी दलित चिन्तक डॉ.आनंद तेलतुम्बडे,’इसने देश में स्थापित व्यवस्था की बुनियादों को हिला कर रख दिया और संक्षेप में यह दर्शाया कि सताए हुए आदमी का आक्रोश क्या हो सकता है. इसने दलित राजनीति को एक मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की जोकि पहले बुरी तरह छूटी हुई थी. अपने घोषणापत्र पर अमल करते हुए दलित पैंथरों ने दलित आन्दोलन के लिए राजनैतिक मुकाम की खातिर परिवर्तनकामी अर्थों में नई जमीन तोड़ी. उन्होंने दलितों को सर्वहारा परिवर्तनकामी वेग की पहचान प्रदान की और उनके संघर्षों को पूरी दुनिया के अन्य दमित लोगों के संघर्षों से जोड़ दिया.’ बहरहाल कोई चाहे तो दलित पैंथर की इन उपलब्धियों को ख़ारिज भी कर सकता है, किन्तु दलित साहित्य के विस्तार में इसकी उपलब्धियों को नज़रअंदाज़ करना किसी के लिए भी संभव नहीं है. दलित पैंथर आन्दोलन और दलित साहित्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसकी स्थापना करनेवाले नेता पहले से ही दलित साहित्य से जुड़े हुए थे. दलित पैंथर की स्थापना के बाद उनका साहित्य शिखर पर पहुँच गया और देखते ही देखते मराठी साहित्य के बराबर स्तर प्राप्त कर लिया. परवर्तीकाल में डॉ.आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित मराठी दलित साहित्य ,हिंदी पट्टी सहित अन्य इलाकों को भी अपने आगोश में ले लिया. बहरहाल जिन दिनों नामदेव ढसाल और उनके साथियों ने दलित पैंथर की स्थापना की, उन दिनों देश में विषमता की आज जैसी चौड़ी खाई नहीं थी.देश अपनी स्वाधीनता की रजत जयंती ही मनाया था और यह उम्मीद कहीं बची हुई थी कि देश के कर्णधार निकट भविष्य में उस आर्थिक और सामाजिक असमानता से पार पा लेंगे, जिसके खात्मे का आह्वान संविधान निर्माता ने 25 नवम्बर,1949 को किया था.लेकिन आज आजादी के प्रायः सात दशक बाद विषमता पहले से कई गुना बढ़ गयी है और भारत इस मामले में विश्व चैम्पियन बन गया है. भारत में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी का आलम यह है कि परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न और और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त अल्पसंख्यक तबके का जहां शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, धार्मिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा है, वहीं परम्परागत रूप से तमाम क्षेत्रों से ही वंचित बहुसंख्यक तबका, जिसकी आबादी 85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों पर आज भी जीवन निर्वाह करने के लिए विवश है. ऐसी गैर-बराबरी विश्व में कहीं और नहीं है. किसी भी डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत रूप से सुविधासंपन्न तथा वंचित तबकों के मध्य आर्थिक-राजनीतिक–सांस्कृतिक इत्यादि क्षेत्रों में अवसरों के बंटवारे में भारत जैसी असमानता नहीं है. इस असमानता ने देश को ‘अतुल्य’ और ‘बहुजन’-भारत में बांटकर रख दिया है. चमकते अतुल्य भारत में जहां तेज़ी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीँ जो 84 करोड़ लोग 20 रूपये रोजाना पर गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हैं,वे मुख्यतः बहुजन भारत के लोग हैं. उद्योग-व्यापार, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र से लगभग पूरी तरह बहिष्कृत बहुजनों के लिए रोजगार के नाम पर अवसर मुख्यतः असंगठित क्षेत्र में है,जहाँ न प्राविडेंट फंड, वार्षिक छुट्टी व चिकित्सा की सुविधा है और न ही रोजगार की सुरक्षा. इस मामले में 2015 के अक्तूबर में क्रेडिट सुइसे नामक एजेंसी ने वैश्विक धन बंटवारे पर जो अपनी छठवीं रिपोर्ट प्रस्तुत की है वह काबिले गौर है. रिपोर्ट बताती है कि सामाजिक-आर्थिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद भारत में तेजी से आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ रही है. रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच जो कुल राष्ट्रीय धन पैदा हुआ उसका 81 प्रतिशत टॉप की दस प्रतिशत आबादी के पास गया. जाहिर है शेष निचली 90 प्रतिशत जनता के हिस्से में 19 प्रतिशत धन गया. 19 प्रतिशत धन की मालिक 90 प्रतिशत आबादी में भी नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के 4.1 प्रतिशत धन है. इस रिपोर्ट पर राय देते हुए एक अखबार ने लिखा-‘गैर-बराबरी अक्सर समाज में उथल-पुथल की वजह बनती है.सरकारी और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण पुनर्वितरण कैसे हो,यह सवाल अब प्राथमिक महत्व का हो गया है.’इस बीच रोहित वेमुला की सांस्थानिक, प्रोफ़ेसर और एसोसियेट प्रोफ़ेसर के पदों पर ओबीसी आरक्षण का खात्मा सहित एसटी छात्रों के राजीव गांधी फेलोशिप पर रोक जैसी अन्य कई घटनाएं यह स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि हजारों साल से शिक्षालयों से बहिष्कृत रहे समुदायों को उच्च शिक्षा से दूर रखने का सुनियोजित प्रयास हो रहा है. यह सब हालात देखकर बहुजनों में वह सामाजिक असंतोष चरम पर पहुँच गया है, जो क्रांति को जन्म देता रहा है. विषमताजनित इसी उग्र सामाजिक असंतोष के चलते अमेरिका में ब्लैक पैंथर वजूद में आया, जिसके आंदोलनों के परिणामस्वरूप कालान्तर में अश्वेतों को अमेरिका के संपदा-संसाधनों सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों,फिल्म-मीडिया सहित हार्वर्ड और नासा जैसे हाई-प्रोफाइल शिक्षण संस्थानों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी मिली.क्रांतिकारी आन्दोलन के लिए आज भारत जैसे हालात कहीं नहीं है.किन्तु सब कुछ देखकर बहुजन समाज के नेता आँखे मूंदे हुए हैं. 70 के दशक में दलित नेतृत्व की यही अकर्मण्यता देख कर नामदेव ढसाल और उनके साथी दलित पैंथर की स्थापना के लिए आगे बढे थे. क्या वर्तमान भारत के बहुजन समाज का कोई छात्र, गुरुजन या लेखक भी नामदेव ढसाल की ऐतिहासिक भूमिका में अवतरित होगा? (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

…और बहनजी की बात सुन सब रो पड़े

रविवार 10 जुलाई को लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी. इस दौरान कुछ ऐसा हुआ कि सब रो पड़े. असल में ठीक एक दिन पहले ही 9 जुलाई को बसपा प्रमुख मायावती के छोटे भाई टीटू (सुभाष जी) की मौत हो गई थी. वह लंबे समय से बीमार थे. जिसके बाद 9 जुलाई की शाम को दिल्ली के मेट्रो अस्पताल में उनका निधन हो गया. बावजूद इसके मायावती जी ने 10 जुलाई को लखनऊ में आयोजित कार्यक्रम को रद्द नहीं किया. लखनऊ में जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो वहां मौजूद सारे पदाधिकारियों की सहानुभूति भरी निगाह बहन जी की ओर थी. लेकिन मायावती के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. वह अपने तेवर के मुताबिक उत्तर प्रदेश के चुनाव की समीक्षा में व्यस्त थीं. वह हर पदाधिकारी और को-आर्डिनेटर से उनके क्षेत्र का हाल पूछती रहीं. उन्हें काम करने को लेकर चेताती रहीं. चुनाव की तैयारियों में जुटे रहने और समाज के बीच काम करने को कहती रहीं. और जब उन्होंने सबसे बात कर ली तो आखिरकार भाई की मौत का दर्द उनकी जुबान और आंखों में भी छलक आया. बैठक का अंत मार्मिक हो गया. उन्होंने जो कहा उसने उस बैठक में मौजूद सभी लोगों की आंखें नम कर दी. सारी समीक्षा करने के बाद उन्होंने आखिर में कहा, आप सबको मालूम ही होगा कि मेरे छोटे भाई टीटू की मौत हो गई है. उसकी लाश घर पर रखी है. इसकी जानकारी मुझे मिल गई थी, लेकिन मैंने आप सभी को बैठक के लिए बुला रखा था और मेरे लिए पार्टी और मिशन पहले है, परिवार बाद में. मेरे आदर्श बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के बेटे की जब मौत हुई थी तो उन्हें पूना पैक्ट के लिए जाना था और वह पूना पैक्ट में गए. मेरे सामने भी चुनौती थी, लेकिन मेरा मिशन और बाबासाहेब का सपना मेरे लिए ज्यादा अहम था.

अन्नदाता की मेहनत से कौन मालामाल

अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है. यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी. यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी. अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है. मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके. पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है. इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं. सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है. कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है. कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है. राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है. बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है. गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है. वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है. लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है. केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है. राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी. यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं. यह तो रही आंकड़ों की बात. जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं. यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं. परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं. छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती. किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं. सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है. वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है. छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं. इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं. किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं. -संजय स्वदेश-संपर्क-9691578252- email : sanjayinmedia@gmail.com

दलित भी खत्म करें अपनी जाति प्रथा

आदमी कम शिक्षित हो या ज्यादा शिक्षित, गरीब हो या अमीर, उसे लगता है कि जाति से बाहर निकला, तो आफत आ जाएगी. व्यवहार में, जाति तोड़ने का एक ही मौका आता है  विवाह का. शायद इसीलिए डॉ. अंबेडकर को अंतर-जातीय विवाहों से बहुत उम्मीद थी. भारत के सवर्ण समाज में कुछ सामाजिक सुधार अरसे से बकाया हैं. वे शिक्षित हैं, संपन्न हैं, और कुछ हद तक आधुनिक भी. चाहें तो भारतीय समाज में क्रांति ला सकते हैं. सब प्रकार की कूपमंडूकताओं को अलविदा कह सकते हैं. लेकिन वे ही जाति प्रथा से सब से ज्यादा बंधे हुए हैं. ‘जाति चली जाएगी, लोग क्या कहेंगे, मैं ही क्यों नक्कू बनूं’ की भावना ने उनके हाथ-पैर को निष्क्रिय कर रखा है. वे पहल करना भूल गए हैं. वे भारत पर गर्व करना चाहते हैं, पर कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते, जिससे भारत पर गर्व करने की स्थितियां बनें. इक्का-दुक्का प्रयास जरूर होते रहते हैं, लेकिन वे बिजली की कौंध की तरह हैं, जिससे अंधेरे की वास्तविकता और ज्यादा नजर आती है. सच तो यह है कि सवर्ण समाज पढ़त-लिखत में आगे है, किंतु परिवर्तनशीलता में सब से पीछे. शिक्षा और जीवन के बीच दूरी को मिटा कर ही यूरोपीय जातियां आगे बढ़ सकी हैं. लेकिन भारत का सवर्ण समाज जैसे-जैसे आधुनिक हो रहा है, इस दूरी को और बढ़ाता जा रहा है. आधुनिकता और प्रगतिशीलता के बीच की दूरी को जब तक कम नहीं किया जाता, भारत में किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन संभव नहीं है. माना जाता है कि मंडल कमीशन ने 90 के दशक में भारत को झकझोर दिया था. यह एक तरह की क्रांति थी, जिससे भारतीय समाज ने अपने आप से बहस करना सीखा. उन दिनों जो बहस शुरू हुई थी, उसकी प्रतिध्वनियां आज भी सुनी जा सकती हैं. लेकिन जैसे भारत की आजादी एक असमाप्त परियोजना है, वैसे ही मंडल क्रांति का संदेश भी बहुत दूर तक नहीं जा पाया है. मंडल आयोग का तीर ज्यादातर गलत निशानों पर लगा है. सच कहा जाए तो इस समय देश के दलित समुदाय में ही सबसे ज्यादा सुगबुगी है. रोहित वेमुला की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि एक भी दलित के साथ नाइंसाफी हुई, तो यह राष्ट्रीय घटना बन सकती है. यही समुदाय जाति, रोजगार, आत्मसम्मान, सामाजिक समानता आदि को ले कर रोज नई-नई बहसें खड़ी कर रहा है. इसलिए आज के भारत में किसी समुदाय से सब से ज्यादा आधुनिकता और प्रगतिशीलता की उम्मीद की जा सकती है, तो वे दलित ही हैं. जब हम दलितों की बात करते हैं, तो उन्हें एक समुदाय के रूप में देखते हैं. वह एक समुदाय है भी. लेकिन भारत के हर समुदाय की तरह इसमें भी ऊपर-नीचे कई स्तर हैं. हर स्तर अपने को विशिष्ट मानता है, सिवाय भंगी के, जो दलित जाति प्रथा के सबसे निचले पायदान पर खड़ा है. हिंदी में कुछ दिनों पहले चमार बनाम भंगी की बहस चली थी. जब साहित्य में संवेदना का हाल यह है, तो समाज में कितना बुरा होगा. इसे हम उपनिवेश के भीतर उपनिवेश का मामला कह सकते हैं. मेरा निवेदन है कि सवर्ण बनाम दलित में जो उपनिवेशवाद अंतर्निहित है, वैसा ही उपनिवेशवाद दलितों के भीतर मौजूद है. इसे कौन तोड़ेगा? जाहिर है, सवर्णो को इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है. यह दलित समाज का आंतरिक मामला है. दलितों के प्रवक्ताओं का ज्यादा समय सवर्णो के नुक्स निकालने और उन्हें कोसने में खर्च होता है. मेरा प्रस्ताव है कि इसमें से कुछ समय बचा कर दलित एकता का निर्माण करने में लगाना चाहिए. यह जिस तरह बनिये की शादी ब्राह्मण से होने में अड़ंगे आते हैं, उसी तरह लड़की पासी हो और लड़का चमार, तो शादी होना मुश्किल हो जाता है. दलित समाज को अपनी आंतरिक ऊर्जा से यह बैरियर क्यों नहीं तोड़ देना चाहिए? इस प्रस्ताव की तह में एक तरह का आदर्शवाद है. आदर्शवाद यह है कि पीड़ित की संस्कृति को पीड़क की संस्कृति से बेहतर होना चाहिए. यह इस प्राचीन समझदारी का आधुनिक अनुवाद है कि बुराई से बुराई नहीं मिटती, वह अच्छाई से मिटती है. इसमें एक सैन्यवाद भी है. शत्रु को पराजित करने के लिए अपनी सेना को ऐक्यबद्ध और मजबूत करना चाहिए. अपने भीतर का जातिवाद समाप्त कर दलित अपने को शक्तिशाली और सवर्ण समाज को कमजोर ही करेंगे. जब दलितवाद का सूर्य उगेगा, उसके सामने ब्राह्मणवाद के तारे अपने आप अस्त हो जाएंगे. कुछ लोग कहेंगे, यह दलितों को बांटने का एक और नुस्खा है. यह दलितों के बीच काम करने वालों या दलित विचारकों और कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि वे अपने समाज के भीतरी अंर्तद्वंद को ज्यादा से ज्यादा रचनात्मक बनाएं. ये अंर्तद्वंद वास्तव में हैं नहीं, सिर्फ  दिखाई पड़ते हैं. प्रयास में गंभीरता और ईमानदारी हो, तो ये थोड़े ही समय में उड़न छू हो जाएंगे. इससे दलित समाज की स्वतंत्रता का विस्तार होगा और उसकी शक्ति भी बढ़ेगी. पांचों उंगलियां मिल कर मुट्ठी का रूप ले लें, तो इस ताकत के सामने कौन ठहर पाएगा? मई के समय लाइव से साभार

धार्मिक ग्रंथों में स्त्री अंर्तविरोध

स्त्री जो एक जननी है, मगर ये अतिश्योक्ति ही है कि इसके जन्म पर अमूमन खुशियां नहीं मनाई जाती. हम कहते तो हैं कि बेटे बेटियां एक समान हैं, मगर फिर भी ज्यादातर घरों में उनके जन्म पर भेदभाव होता है. एक बेटी को तो कई घरों में खुशी खुशी स्वीकार भी कर लेते हैं, मगर जैसे ही दूसरी बेटी होती है, ज्यादातर की खुशियां काफूर हो जाती है. जबकि ये बात दूसरे बेटे के जन्म पर नहीं होती है. ये शायद इसलिए भी होता है कि हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी बेटे और बेटियों के जन्म पर विरोधाभाष है. और भारतीय संस्कृति में धार्मिक ग्रंथ लोगों के विचारों में गहरे तक पैठी हुई है. अगर हम धार्मिक ग्रंथों का संदर्भ लें तो इस बात की पुष्टि होती है. अथर्व संहिता में कहा गया है कि हमारे यहां पुत्र का जन्म हो और कन्या का जन्म किसी और के घर हो. जो नीचे लिखे श्लोक में वर्णित है. “प्रतापतिरनुमतिः सिनीवाल्यपीक्लृपत स्वेषूयमन्यत्र दधत्पुमांसमुदधादह ” यहां तक की इस ग्रंथ में पुत्र के बाद भी पुत्र की ही कामना की गई है कन्या की नहीं. “पूमांस पुत्रं जनयतं पुमाननु जायताम भवासि पुत्राणां माता जातानां जयनाश्चयान्” तैतिरीय संहिता में कहा गया है कि पुत्र का जन्म होने पर पिता आनंद पूर्वक माता के पास लेटे हुए नवजात शिशु को हाथों में उठा लेता था, किन्तु यदि कन्या जन्म होती थी तो वह स्नेह नहीं दिखाता था और उसे लेटे देता था. ऐतरेय ब्राह्मण में तो कन्या की उत्पत्ति को स्पष्ट शोक का कारण माना गया है. यथा “कृपणं हि दुहिता, ज्योतिहिं पुत्रः” अर्थात कन्या के जन्म से मनुष्य कृपण (गरीब/छोटा) होता है जबकि पुत्र ज्योति होता है. मतलब स्पष्ट है कि पुत्री के जन्म का न पूर्व में स्वागत होता था और न ही आज के समय में होता है. मगर फिर भी बेटियां अपने आत्मिक तेज और कर्म से धीरे धीरे अपने घरवालों की चहेती बन ही जाती है. इन ग्रंथों का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि बहुत सी कुप्रथाएं उस काल में नहीं थी. जैसे सती प्रथा, बाल विवाह प्रथा इसके अलावा विधवा विवाह का भी प्रचलन था. मगर इन सारी अच्छाईयों के बावजूद स्त्रियों को पूर्ण सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी. मनुस्मृति में आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख मिलता है. इनमें कुछ विवाह तो स्त्रियों को समुचित सत्कार देते हैं मगर कुछ विवाह में उनकी स्थिति नरकीय ही बनी रहेगी. जैसे- ब्राह्म विवाह में वस्त्र और गहनों से सजी कन्या का विवाह वैदिक रीति से सुयोग्य वर के साथ रचाया जाता था. देव विवाह में कन्या ऋषि को उपहार रूप में दी जाती थी. तीसरा है आर्ष विवाह. इसमें वर पक्ष से दो गाय लेकर कन्या का पिता कन्यादान करता था. प्रजापत्य विवाह में बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद से स्त्री पुरुष गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे. गंधर्व विवाह यानी प्रेम विवाह का प्रचलन तब भी था, जिसमें स्त्री-पुरुष आपसी सहमति से विवाह करते थे. छठवा है असुर विवाह, जिसमें वर पक्ष से धन लेकर कन्या उन्हें दे दी जाती थी. जबकि राक्षस विवाह में कन्या से विवाह के लिए कईयों के बीच युद्ध होता था जिसमें हत्याएं तक होती थी और जितने वाले वर को कन्या मिलती थी. आठवां है पैशाच्य विवाह. इसमें नशे, निद्रा या रोग की स्थिति में कन्या का बलात्कार कर लेने के बाद विवाह का प्रस्ताव दिया जाता था. इन आठ प्रकार के विवाहों में ब्राह्म विवाह, प्रजापत्य विवाह और गंधर्व विवाह को छोड़कर बाकी पांचों प्रकार के विवाह में स्त्री की इच्छा और उसके मान-सम्मान की कोई बात ही नहीं होती थी. किसी विवाह में उसे उपहार स्वरूप दे देते थे. जैसे वो कोई जीवित आत्मा नहीं निर्जीव वस्तु हो. तो किसी में उसकी कीमत महज दो गाय जितनी होती थी. किसी में धन लेकर उसे बेच दिया जाता, तो किसी में उसे युद्ध द्वारा जीता जाता. तो कहीं उसके सम्मान को तार-तार कर उसे विवाह का प्रस्ताव दिया जाता. ऐसे में स्त्री की अपनी इच्छा कहां हुई. उसे तो बस वैसे चलना है, जैसे किसी ने कहीं लिख दिया या फिर नियम बना दिया. ये अंतर्विरोध ही तो है कि एक तरफ ये ग्रंथ उनके आगे बढ़ने की बात बताते हैं तो उन्हें मूक पशु के सापेक्ष प्रेषित करते हैं. यही नहीं अगर आप विवाह से संतुष्ट नहीं है और आपसी रिश्ते में कड़वाहट भी है फिर भी आप उसे तोड़ नहीं सकते. क्योंकि अगर आप वैसा करेंगे तो आपको यज्ञ करने का अधिकार नहीं होगा. मनुस्मृति के (8/371) श्लोक में विवाह विच्छेद करने वाली स्त्री को जन समूह के सामने कुत्तों से कटवाने का विधान है. मगर पुरुषों के लिए तो ऐसा कोई विधान नहीं. उन्हें तो बस यज्ञ करने नहीं दिया जाता, यही बहुत बड़ी बात थी. इसकी वजह से धर्मभीरू लोग इससे बचते थे. तब से काफी वक्त बीत जाने के बाद आज मनुस्मृति और इस जैसे तमाम ग्रंथों की बात घोषित रूप से तो नहीं की जाती है लेकिन देश के तमाम हिस्सों में स्त्रियां आज भी उन नियमों को भोगने के लिए अभिशप्त हैं. लेखिका शिक्षिका हैं. स्त्री मुद्दों पर लिखती हैं. संपर्क- raipuja16@gmail.com

बहुजन केंद्र और सर्वजन परिधी

पिछले दिनों अखबारों और सवर्ण मीडिया में बहुजन समाज पार्टी को लेकर एक बार फिर गलतफहमी का प्रचार किया जा रहा है. ये बताने की कोशिश की जा रही है कि बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मण समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ेगी. आने वाले समय में ब्राह्मणवादी एवं मनुवादी मीडिया इस बात को और बढ़ा चढ़ा कर पेश करेगा. इसलिए बहुजन समाज को बहुजन समाज पार्टी की विचारधारा एवं गठबंधन पर अपनी समझ को धार देनी होगी. हमें सोचना चाहिए कि मीडिया किस आधार पर यह कह रहा है कि बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मण एवं दलित समीकरण पर ही भरोसा दिखा रही है. उसके उत्तर के रूप में हाल ही में संपन्न राज्यसभा के लिए होने वाले चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) द्वारा नामित नेताओं को आधार बनाया जा रहा है. डॉ. अशोक सिद्धार्थ (अनुसूचित जाति) एवं सतीश चंद्र मिश्रा (ब्राह्मण) को राज्यसभा में प्रत्याशी बनाए जाने का उदाहरण दिया जा रहा है. यद्यपि बहुजन समाज पार्टी की तरफ से ऐसी कोई भी दलील राज्यसभा में अपने प्रत्याशियों के नामांकन के बाद नहीं दी गई. इसमें बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने एक बार भी कहीं नहीं कहा है कि वह उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावों में ब्राह्मण और दलित समीकरण पर चुनाव लड़ेगी. बहुजन समाज पार्टी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में साफ कहा गया है कि बसपा सर्वजन समाज के आधार पर चुनाव लड़ेगी और इस बात को उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधान परिषद (एमएलसी) में पार्टी के कोटे से नामित विधायकों के नामों को आधार बनाया. बसपा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में साफ कहा गया है कि बहुजन समाज पार्टी द्वारा दो अनुसूचित जाति एवं एक पिछड़ा यानि ओबीसी उम्मीदवार को परिषद में नामित किया जा रहा है. और इससे पहले नसीमुद्दीन सिद्दीकी तथा ठाकुर जयवीर सिंह को विधान परिषद में नामित किया जा चुका है. बहुजन प्लस सर्वजन उपरोक्त तथ्यों से यह बात स्थापित होती है कि बहुजन समाज पार्टी की केंद्रीय विचारधारा अभी भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग एवं कनवर्टेड मायनॉरिटीज पर आधारित है, जिसे मान्यवर कांशीराम 85 प्रतिशत कहा करते थे और उनको बहुजन का नाम दिया था. इस कोर बहुजन विचारधारा के अंदर बहन मायावती ने समाज की अन्य जातियों को जोड़कर और उसमें भी विशेष कर सवर्ण समाज में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों और जातीय दुराग्रह से परे लोगों को जोड़कर सर्वजन का नारा दिया है. इसके तहत उन्होंने कुछ सवर्ण समाज के लोगों को जैसे सतीश चंद्र मिश्रा एवं ठाकुर जयवीर सिंह आदि को राज्यसभा एवं विधान परिषद में नामित किया है. इसलिए बहुजन समाज को विश्वास होना चाहिए कि बहुजन समाज पार्टी ने ऐसी कोई भी घोषणा नहीं कि है, जिससे कि यह बात स्थापित हो कि बहुजन समाज पार्टी आने वाले विधानसभा के 2017 चुनाव में सिर्फ दलित औऱ ब्राह्मण समीकरण पर ही चुनाव लड़ेंगे. बल्कि उनके कृतत्व एवं नेताओं की सक्रियता को देखते हुए जिसमें मुख्य रूप से बहन मायावती, अशोक सिद्धार्थ, सुखदेव राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्या, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, आर. के चौधरी और रामअचल राजभर सहित बहुजन समाज के अनेक लोग हैं, जो बसपा की बहुजन विचारधारा को परिलक्षित करते हैं. इस विचारधारा के प्रसार के लिए बहुजन समाज पार्टी में सवर्ण समाज के नेताओं को जोड़ना शुरू किया गया था. जिसमें सबसे पहले रामबीर उपाध्याय और बाद में सतीश चंद्र मिश्रा एवं नकुल दूबे आदि का पदार्पण हुआ. भगवान बुद्ध के प्रति बसपा का समर्पण इसके बाद हाल ही में बहुजन विचारधारा की एक झलक तब देखने में सामने आई जब बहुजन समाज पार्टी द्वारा बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा भारत के सभी नागरिकों को बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बधाई दी गई. पार्टी द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि किस प्रकार बहुजन समाज पार्टी की चार सरकारों में भगवान बुद्ध एवं उनसे जुड़ी हुई स्मृतियों को उत्तर प्रदेश में स्थापित किया गया है. सर्व प्रथम प्रदेश में भगवान बुद्ध से जुड़े हुए स्थानों का एक कॉरीडोर विकसित किया गया, जिसके तहत भारत एवं भारत के बाहर से आने वाले सैलानियों को इन स्थानों के प्रति आकर्षित किया जा सके और इससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिले. इसी संदर्भ में ग्रेटर नोएडा का नाम बदलकर गौतम बुद्ध नगर रखा गया और गौतम बुद्ध नगर में ही गौतम बुद्धा युनिवर्सिटी (जीबीयू) की स्थापना की गई. साथ ही विश्वविद्यालय के सीडर के तौर पर पंचशील इंटरमीडिएट विद्यालय की स्थापना की गई. इसी के साथ ही साथ लखनऊ में वीआईपी रोड पर अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान, बुद्ध परिवर्तन स्थल एवं अनेक उद्यानों की भी स्थापना की गई. साथ ही साथ चार अन्य नगरों के नाम भी एवं एक नाम भगवान बुद्ध की माता महामाया के नाम पर रखा गया. इसी कड़ी में उद्यानों एवं स्मृति स्थलों के भवनों की बनावट बौधकालीन कला (आर्किटेक्चर) पर आधारित है. उपरोक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि एक तरफ बहुजन समाज पार्टी समाजों के प्रतिनिधित्व के आधार पर बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती है तथा अध्यात्मिक स्तर पर बुद्ध, रैदास एवं कबीर से प्रेरणा लेती है एवं अपने समाज के अनेक विचारकों एवं समाज सुधारकों यथा ज्योतिबा फुले, नरायणा गुरू, शाहूजी महाराज, माता सावित्रीबाई फुले एवं बाबासाहेब के बताए हुए मार्ग पर बहुजन विचारधारा का अनुसरण करती है. पर प्रजातांत्रिक राजनीति का अनुसरण करते हुए बसपा ने बहुत पहले एक नारा दिया था, ‘जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागेदारी’ और इसलिए प्रजातंत्र में सभी समाजों के नागरिकों का उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व ही प्रजातंत्र की स्थापना को आगे बढ़ाता है. और शायद इसीलिए बहुजन समाज पार्टी ने सर्वजन का नारा दिया. इसके तहत उन्होंने बहुजन समाज से अलग सवर्ण समाज को भी अपनी राजनीति में शामिल कर प्रतिनिधित्व देना शुरू किया है. परंतु ब्राह्मणवादी एवं मनुवादी मीडिया बहुजन समाज पार्टी की मूल विचारधारा को नजरअंदाज (ब्लैक आउट) करते हुए केवल दलित एवं ब्राह्मण गठजोड़ का राग अलापता है. यद्यपि उसको यह कहना चाहिए कि बहुजन समाज पार्टी की विचारधारा बहुजन प्लस सर्वण समाज की है. इसलिए बहुजन समाज के सभी सदस्यों को मनुवादी मीडिया के इस अनर्गल प्रचार से बचना चाहिए.  सांप्रदायिकता की चुनौती उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों को देखते हुए बहुजन समाज के समक्ष अनेक चुनौतियां है. पहली चुनौती तो ‘मनुवादी’ मीडिया द्वारा बसपा के खिलाफ फैलायी जाने वाली गलतफहमी/दुष्प्रचार से सावधान रहना है. इसी कड़ी में बहुजन समाज की दूसरी सबसे गंभीर चुनौती होगी कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश राज्य में संप्रदायिक संघर्षों से कैसे प्रदेश एवं बहुजन समाज को सुरक्षित रखा जाए, क्योंकि संप्रदायिक संघर्षों से सबसे ज्यादा नुकसान बहुजन समाज के भाईचारे को होता है. क्योंकि समाज धर्मों के आधार पर बंट जाता है. और बहुजन समाज का भाईचारा संप्रदायिकता में बदल जाता है. इसलिए बहुजन समाज के भाई-बहनों को अपने आस-पास होने वाले संप्रदायिक संघर्षों को जिस तरह से भी हो उसे टालना चाहिए. बहुजन समाज द्वारा सांप्रदायिक संघर्षों को टालना इसलिए भी आवश्यक है कि अनेक संप्रदायिक संघर्षों में यह देखा गया है कि इन संघर्षों में सबसे ज्यादा जान माल का नुकसान दलित, पिछड़ों और अक्लियत समाज का होता है और उनके बीच का भाईचारा खत्म हो जाता है. इसलिए बहुजन समाज को सांप्रदायिक संघर्षों को बढ़ाने वाली विचारधारा को चिन्हित करना होगा, उनके नेताओं के कार्यक्रमों को भी समझना होगा जिससे की बहुजन समाज में भाईचारा बढ़े और सांप्रदायिक तनाव दूर हो सके. भ्रष्टाचार के खिलाफ दुष्प्रचार बहुजन समाज की एक अन्य चुनौती होगी कि किस प्रकार बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ भ्रष्टाचार के झूठे प्रचार के बहकावे में ना आएं. आज के इस भ्रामक इलेक्ट्रानिक मीडिया के हमले में सच्चाई और झूठ का पता लगा पाना आसान नहीं है. और जैसा कि सभी जानते हैं कि मीडिया घरानों को पूंजीपतियों ने अब खरीद लिया है. इसी कारण भारतीय राजनीति में राजनैतिक दलों का तथा पूंजीपतियों का एक नया गठजोड़ सामने आया है. इस गठजोड़ में सत्ताधारी सरकारें विपक्षियों पर तथा कमजोर प्रांतीय दलों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगातार लगाती हैं. इन आरोपों को इस प्रकार प्रायोजित किया जाता है कि बड़े से बड़ा राजनैतिक दल भी उनको चुनौती नहीं दे पाता. यहां तक की कई मजबूत राष्ट्रीय राजनैतिक दल जिनकी कई राज्यों में सरकारें चल रही होती हैं, साथ ही साथ कई टेलिविजन न्यूज चैनलों और अखबारों में उनका दखल होता है; वे अपने ऊपर लगे आरोपों से अपने आप को बचा नहीं पाते और उनकी साफ-सुथरी छवि धूमिल हो जाती है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में अगस्ता हैलिकॉप्टर डील में देखने को मिला. जिसके अंदर इटली की एक अदालत में सुनाई गई सजा के आधार पर राज्यसभा के अंदर सोनिया गांधी, अहमद पटेल एवं ए.के एंटोनी पर आरोप लगाए गए जिसको बाद में सत्ता दल प्रमाणित भी नहीं कर पाया. परंतु आरोप तो लग गए और कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी उन आरोपों को अपने ऊपर से हटा नहीं पाई और असम और केरल के चुनाव में उसे भारी हार का सामना करना पड़ा. इसलिए बहुजन समाज को समझना चाहिए कि राजनैतिक दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना राजनैतिक प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गया है. इस राजनैतिक दांव पेच से किसी भी दल और उसके शीर्ष नेता पर झूठा आरोप लगा कर उसके प्रति नकारात्मक माहौल बनाया जा सकता है और उसकी तेज तर्रार छवि को खंडित किया जा सकता है. इस संदर्भ में यहां पर बहुजन समाज पार्टी एवं उसके शीर्ष नेतृत्व को आने वाले समय में इस राजनैतिक रणनीति का सामना करना पर सकता है. इसलिए बहुजन समाज के लोगों को इस गंदी राजनीति के विषय में अभी से सजग रहना होगा, क्योंकि विपक्ष बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ और उसके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप पुनः प्रचारित करेगा. सीबीआई तथा इन्कम टैक्स आदि संस्थाओं से भी नोटिसों को भिजवाएगा लेकिन बहुजन समाज को यह समझना चाहिए कि जो भी सरकार सत्ता में होती है उसके पास पुलिस, सीबीआई, लोकल इंटेलिजेंस, इंकम टैक्स तथा इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट सभी कुछ की सुविधाएं होती है. तो ऐसी स्थिति में वो बहुजन समाज पार्टी पर हमेशा आरोप ही क्यों लगाता रहता है, उसको तुरंत आरोपों के समकक्ष त्वरित कार्रवाई करते हुए दोषियों को सजा सुना देनी चाहिए, जिससे की दूध का दूध और पानी का पानी हो जाए. अगर भ्रष्टाचार के आरोपों में त्वरित कार्रवाई नहीं होती है तो बहुजन समाज को यह समझ लेना चाहिए कि दाल में कुछ काला है और विरोधी सत्ताधारी और मीडिया केवल और केवल बहुजन समाज पार्टी और उसके शीर्ष नेतृत्व की छवि को खंडित करने के लिए ऐसा कर रहा है, जिससे की मतदाताओं को बहकाया जा सके.

राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया का आरंभ था संविधान निर्माण

bheemसंविधान लागू होने के 65 वर्ष बाद पिछले दिनों संसद में पहली बार संविधान दिवस पर बहस देखने को मिला. इसके माध्यम से राष्ट्रनिर्माण में बोधिसत्व भारतरत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के योगदान पर चर्चा हुई. यह अपने आप मे एक ऐतिहासिक क्षण था जब इतने वर्षों बाद बाबासाहेब की पैनी दृष्टि एवं बौद्धिक विरासत के माध्यम से संविधान में निहित राष्ट्र निर्माण के मूल तत्वों पर विस्तार से चर्चा हुई. इस चर्चा से सदन के माध्यम से पूरे राष्ट्र में संविधान के प्रति नई चेतना का प्रसार होने की दिशा में बेहतर काम होने की संभावना बढ़ गई है. इस चर्चा से बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर की अपेक्षानुसार संवैधानिक नैतिकता का भी पुनः प्रसार एवं प्रचार किया जा सकता है. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के संविधान निर्माण में योगदान को हम कई भूमिकाओं के माध्यम से समझ सकते हैं. पहला योगदान संविधान सभा के सामान्य परन्तु सजग एवं सकारात्मक आलोचक की भूमिका में समझा जा सकता है. दूसरा योगदान संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में. संविधान निर्माण में बाबासाहेब के योगदान की गणना निम्न आधार पर की जा सकती है. 1) समय, भौतिक एवं बौद्धिक ज्ञान का योगदान 2) विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों की आलोचना को दूर कर उन्हें संतुष्ट करने में योगदान 3) भिन्न मतों एवं भ्रान्तियों को दूर करने में योगदान 4) संविधान कि वर्तमान समय में प्रासंगिकता का उत्तर 5) संविधान के माध्यम से राष्ट्र एवं प्रजातन्त्र के निर्माण हेतु कुछ मूल तत्वों का चिन्हांकन सर्वप्रथम हम अगर बाबासाहेब अम्बेडकर के संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में योगदान की चर्चा करें तो हमें उनके जीवन के इस काल के विषय में तमाम जानकारियां मिलती है. बाबासाहेब पहली बार बंगाल (सामान्य) सीट से चुनकर संविधान सभा में पहुंचे थे. सभी जानते हैं कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर, 1946 को मिली और उसकी कार्यवाही 11 बजे आरंभ हुई. 11 दिसंबर को राजेन्द्र प्रसाद को नियमित चेयरमैन चुना गया और 13 दिसंबर 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के निर्माण हेतु उद्देश्य एवं लक्ष्यों का मसौदा सदन में बहस के लिए रखा. इस मसौदे पर पहली बार बाबासाहेब अम्बेडकर ने सदन में 17 नवंबर 1946 को अपना वक्तव्य दिया. यहां यह बताना समीचीन होगा कि बाबासाहेब का मानना था कि सदन में वकत्वय के लिए तैयारी अतिआवश्यक है. उन्होंने सभापति से यह कहा कि आपने अचानक मेरा नाम लेकर असमंजस में डाल दिया है क्योंकि मैं इस मसौदे पर बोलने के लिए अभी तैयार नहीं हूं और उस पर भी आपने मुझे केवल दस मिनट का समय दिया है जिससे मेरी कठिनाई और बढ़ गई है. इसके बाद भी बाबासाहेब ने संविधान सभा के अनुशासित सिपाही के तौर पर अपनी बौद्धिक क्षमता एवं अकादमिक साहस का परिचय देते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू के रखे गये मसौदे पर आलोचनात्मक वक्तव्य रखा. यह एक निर्भिक वक्तव्य था. बाबासाहेब ने इस मसौदे को 450 वर्ष पुराना बताया और कहा कि मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू जो कि प्रतिष्ठित समाजवादी हैं, से उम्मीद करता हूं कि वे इससे और भी आगे जाकर कुछ बातों को रखेंगे. बाबासाहेब ने कहा, यद्यपि यह मसौदा कुछ अधिकारों की बात तो करता है परंतु किसी प्रकार के उपचार (रेमिडिज) की बात नहीं करता. यहां तक की किसी व्यक्ति की जान, स्वतंत्रता एवं संपत्ति विधि की उचित प्रक्रिया से नहीं ली जा सकती, का भी जिक्र इस मसौदे में नहीं है. ऐसी स्थिति में क्या सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय संभव है? इसलिए मैं इस मसौदे से निराश हूं. यद्यपि मैं मसौदा प्रेषित करने वाले व्यक्ति की सत्यनिष्ठा से भलीभांति परिचित हूं. बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण हेतु संविधान सभा के सामान्य सदस्य के रूप में दूसरा योगदान कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच उपजे विवाद के निपटान हेतु सुझाव के रूप में दिखाई देता है. संविधान सभा के आरम्भ में उन्होंने बहस के दौरान मुस्लिम लीग के नेताओं के उपस्थित नहीं रहने को गंभीरता से उठाया. उन्होंने उनकी अनुपस्थिति पर खेद जताते हुए आग्रह किया कि संविधान निर्माण की इस बहस में उनका शामिल होना अतिआवश्यक है, नहीं तो संविधान पर पूरी बहस अर्थहीन होगी. बाबासाहेब ने मुस्लिम लीग के संविधान सभा में नहीं शामिल होने की वजह कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के बीच के विवाद को बताया. परंतु उन्होंने संविधान सभा में अपील की कि संविधान का निर्माण इतना महत्वपूर्ण मुद्दा है कि कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग को इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. उन्होंने जोर देकर कहा कि ”जब राष्ट्रों के भविष्य का निर्णय हो रहा हो तो व्यक्तियों, नेताओं एवं दलों की प्रतिष्ठा का कोई अर्थ नहीं होता.” इसलिये दोनों ही दलों के नेताओं को यह विवाद सुलझा कर संविधान सभा में शामिल होना चाहिए. इसी संदर्भ में बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को समझाया कि हिन्दु-मुसलमानों के मध्य विवाद का निवारण हिंसा से नहीं हो सकता. यह एकदम गलत सोच है. बाबासाहेब ने कांग्रेस के नेताओं को यह बताया कि मुस्लिम लीग को उनकी इच्छा के विरुद्ध पारित संविधान में हिंसा एवं जबरदस्ती नहीं शामिल कराया जा सकता. अतः अगर मुस्लिम लीग को संविधान सभा में लाना है तो उन्हें सह्रदय से ही लाना होगा क्योंकि बाबासाहेब का मानना था कि “सत्ता एवं वैद्य सत्ता शांति, प्यार से ही खरीदे जा सकते हैं.” इसलिए मुस्लिम लीग को प्यार से ही हम संविधान सभा में ला सकते हैं. बाबासाहेब ने इस परिपेक्ष्य में यह विश्वास जताया कि यद्यपि हम भिन्न हैं फिर भी अगर हम कुछ दिन साथ चलें तो हम एकता के सूत्र में अवश्य बंध कर एक सशक्त राष्ट्र बना सकते हैं. और जल्द ही मुस्लिम लीग के नेताओं को यह समझ में आ जायेगा कि एक अखण्ड भारत उनके लिये भी श्रेयकर है. वैसे तो डॉ. अम्बेडकर का आधुनिक भारत के निर्माण में कई योगदान है, परंतु उनमें से संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारत के प्रजातांत्रिक संविधान का निर्माण सबसे मौलिक एवं महत्वपूर्ण है. प्रश्न उठता है कि हम बाबासाहेब को संविधान निर्माता किन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं. सर्वप्रथम इन तथ्यों का प्रमाण हमें 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के समक्ष दिये गये बाबासाहेब के उदबोधन से मिलता हैं. इस दिन बाबासाहेब ने संविधान की फाइनल प्रति तात्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को सौंपी थी. संविधान सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने अनेक तथ्यों का उद्घाटन किया, जिससे यह प्रमाणित होता है कि वास्तविकता में बाबासाहेब अम्बेडकर ही भारतीय संविधान के पिता हैं. इन तथ्यों को वैसे संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने भी सराहा. इस लेख में हम उसी का आधार बनाकर यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि बाबासाहेब संविधान निर्माता हैं और संविधान निर्माण के माध्यम से उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया. संविधान सभा की अंतिम बैठक में 26 नवंबर, 1949 को बोलते हुए बाबासाहेब ने बताया कि संविधान सभा पहली बार कब मिली और उस सभा ने कुल कितने दिनों तक काम किया जिसके वह खुद गवाह थे. उन्होंने बताया कि संविधान सभा पहली बार 9 दिसंबर 1946 को मिली और उसने लगातार दो वर्ष, 11 महीने एवं सत्रह दिनों तक काम किया. इस सभा ने ही संविधान प्रारूप समिति का गठन 2 अगस्त, 1947 को किया, जिसने डॉ. अम्बेडकर को अपना अध्यक्ष चुना. बाबासाहेब ने इस समिति द्वारा किये गये काम का भी उल्लेख किया. उन्होंने बताया कि इस समिति ने लगातार एक सौ इकतालीस (141) दिनों तक काम किया और संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया जिसमें 395 अनुच्छेद एवं 8 सूचियां थी. यह शायद विश्व का सबसे विस्तृत संविधान है. इस क्रम में बाबासाहेब ने एक अन्य तथ्य का खुलासा किया कि संविधान का मसौदा तैयार करते समय 7 हजार 635 संशोधन प्राप्त किये गये. इनमें से 5 हजार 162 संशोधनों को दरकिनार करते हुए दो हजार चार सौ तिहतर (2473) संशोधनों को विधायिका में बहस के बाद संविधान में समायोजित किया गया. अब आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि संविधान को बनाने में बाबासाहेब ने कितना मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक योगदान दिया. बाबासाहेब द्वारा संविधान निर्माण हेतु दिये गये बौद्धिक योगदान का प्रमाण हमें उनके द्वारा विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों द्वारा संविधान की संरचना के संबंध में उठाये गये प्रश्नों के उत्तरों से भी मिलता है. कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधियों ने संविधान में संसदीय प्रणाली को लेकर प्रश्न उठाया. वे चाहते थे कि संविधान में भविष्य में ‘सर्वहारा की सत्ता’ के आधार पर सरकार बनाने के प्रावधान को निहित किया जाय. दूसरी ओर समाजवादियों का आरोप था कि संपत्ति का बिना मुआवजा दिये राष्ट्रीयकरण का प्रावधान संविधान में नहीं है. साथ ही साथ वे मूलभूत अधिकारों को असीमित चाहते थे. बाबासाहेब ने मशहूर संविधानविद एम. एल जैकर को उद्धृत करते हुए कहा कि किसी भी देश का संविधान उस वर्तमान पीढ़ी की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है. अतः जो भी प्रावधान भारतीय संविधान में समायोजित किये गये हैं वे सभी उस पीढ़ी की अकांक्षाओं के अनुरूप हैं. जो लोग इससे सहमत नहीं हैं उनको बस 2/3 (दो तिहाई) बहुमत की सरकार बनाकर इसे बदल देने का कार्य करना रहेगा. परन्तु अगर वे अपने बलबूते पर 2/3 बहुमत नहीं ला सकते तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि वर्तमान जनता उनके विचारों से सहमत नहीं है. और जो लोग 2/3 लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते वो कैसे पूरे राष्ट्र के लिए बोल सकते हैं. इसके बाद बाबासाहेब ने उन आलोचकों को उत्तर दिया जिनका मानना था कि संविधान का अत्याधिक केंद्रीयकरण हो गया है. अर्थात संविधान ने केंद्र को ज्यादा शक्ति दे दी है. इस पर बाबासाहेब ने संविधान सभा को बताया कि संघीय प्रणाली का सार है कि विधायिका एवं कार्यपालिका की सत्ता का केंद्र एवं राज्य के मध्य बंटवारा. हमारे संविधान के आधार पर केंद्र एवं राज्य दोनों बराबर हैं. इसका तात्पर्य यह हुआ कि राज्य अपनी विधायिका एवं कार्यपालिका के अधिकार के लिए किसी भी तरह केंद्र पर आश्रित नहीं है. अतः उन्होंने संविधान सभा को समझाया कि ऐसा संविधान केंद्रीकृत कैसे हो सकता है. हां, ये बात और है कि असामान्य समय में केंद्र के पास कुछ अधिक अधिकारों का प्रावधान संविधान में अवश्य किया गया है जो तर्कसंगत है. संविधान एवं संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न संविधान सभा में बाबासाहेब अम्बेडकर ने भारतीय समाज में संवैधानिक नैतिकता के अभाव का प्रश्न भी उठाया, और संवैधानिक नैतिकता के अभाव में बाबासाहेब ने अभिशासन के सूक्ष्म से सूक्ष्म मानदण्डों के विवरण को संविधान में शामिल करने का निर्णय लिया. संवैधानिक मूल्यों से बाबासाहेब का तात्पर्य था, सत्ताधारी वर्ग द्वारा संवैधानिक मूल्यों का अनुपालन सुनिश्चित करना. उनका मानना था कि संवैधानिक नैतिकता के प्रसार हेतु सत्ताधारी वर्ग के रोजाना के आचरण में संवैधानिक मूल्य परिलक्षित होने चाहिए. जब वे लोगों से मिलते हैं, जब वे भाषण देते हैं या फिर जब वे विपक्ष में बैठते हैं तब उनके आचरण में संविधान के प्रति आदर झलकना चाहिए. परंतु उन्होंने कहा, वर्तमान समय में ऐसा लगता नहीं है. इसलिए अभिशासन के मानदण्डों को भविष्य की कार्यपालिका के भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता. आने वाला अभिशासन कैसा होगा यह कहा नहीं जा सकता. वे संविधान में निहित मूल्यों कि उपेक्षा करेंगे या उनको उसकी भावना के अनुरूप लागू करेंगे अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता. अतः अगर संविधान मोटा हो भी गया तो क्या हुआ; हमें भविष्य में संवैधानिक नैतिकता की स्थापना के लिए यह कदम उठाना ही होगा. क्या संविधान समय की कसौटी पर खड़ा उतरेगा? बाबासाहेब ने उन सदस्यों की आशंका का निदान किया जो यह प्रश्न उठा रहे थे कि क्या संविधान भविष्य के लिए सही रह पाएगा?. इसमें समय की मार झेलने की ताकत है या नहीं? क्या यह समय की कसौटी पर खड़ा उतर पाएगा, आदि-आदि. शायद बाबासाहेब वर्तमान के प्रश्नों का भी उत्तर दे रहे थे. जैसे आज भी अनेक संगठन एवं राजनेता संविधान पर कटाक्ष करते हुए इसकी समीक्षा की मांग करते हैं. बाबासाहेब ने संविधान सभा को आश्वस्त किया कि किसी भी संविधान की व्यवहारिकता उस संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती. संविधान केवल राज्य की संस्थाएं जैसे- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को ही स्थापित करता है. पर राज्य की संस्थाओं की व्यवहारिकता उन व्यक्तियों एवं राजनैतिक दलों पर निर्भर करेगी जिसे वे निर्मित करेंगे. कौन जानता है कि भारत के लोग एवं राजनैतिक दल किस तरह का व्यवहार करेंगे. क्या वे संवैधानिक रास्ता अपनाएंगे? या फिर क्रांतिकारी रास्ता अपनाएंगे? इसलिए बिना जनता एवं राजनैतिक दलों की प्रकृति का संज्ञान लिये संविधान का मूल्यांकन व्यर्थ है. संविधान एवं प्रजातंत्र की चुनौतीः समता एवं बंधुत्व की स्थापना बाबासाहेब संवैधानिक मूल्यों के आधार पर भारतीय राष्ट्र के निर्माण में भविष्य की चुनौतियों को हमारे लिए रेखांकित कर गये. उनका मानना था कि भविष्य में समानता एवं भाईचारे की स्थापना, प्रसार एवं विकास सबसे बड़ी चुनौती होगी. संविधान की पूर्ण प्रति को राष्ट्रपति को सौपते हुए उन्होंने बताया कि “26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभाषी जिन्दगी में प्रवेश करने जा रहे हैं. हमारे राजनैतिक जीवन में समानता होगी परंतु आर्थिक जीवन में असमानता.” राजनीति में हमने एक व्यक्ति-एक वोट, एक वोट एक मूल्य के सिद्धान्त को स्वीकृत किया है, परंतु अपने सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अपनी सामाजिक संरचना की बनावट की वजह से हम एक व्यक्ति-एक मूल्य के सिद्धान्त को नकारते रहेंगे. अगर हम बहुत दिनों तक इसको नकारते रहें तो हमारा राजनैतिक प्रजातंत्र खतरे में पड़ सकता है. अतः सशक्त राष्ट्र की स्थापना के लिए बाबासाहेब अम्बेडकर राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक तीनों ही समानताओं की स्थापना चाहते थे. वे समानता के साथ-साथ एक सशक्त राष्ट्र के लिए भाईचारे के सिद्धान्त की स्थापना भी अनिवार्य मानते थे. सवाल यह है कि आखिर बंधुत्व से उनका क्या तात्पर्य था? बंधुत्व के सिद्धान्त से उनका तात्पर्य था, एक समान भ्रातृत्व, एकता एवं सामाजिक जीवन में एकता एवं ऐक्यभाव. बाबासाहेब ने आगाह किया कि बंधुत्व को समाज में स्थापित करना अत्यंत कठिन कार्य है. उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया कि यद्यपि वहां जातियां नहीं है, फिर भी वहां बंधुत्व और भाईचारा स्थापित करना बहुत कठित था. परंतु हमारे यहां जातियां भी हैं. जातियां अलगाव एवं वैमनस्य फैलाती हैं. ऐसे में भाईचारा कैसे स्थापित हो सकता है? लेकिन भाईचारे के अभाव में समता एवं स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है. भाईचारा तभी संभव है जब हम राष्ट्र बन जाएं. अतः बाबासाहेब का मानना था कि एक सशक्त राष्ट्र के लिए समता एवं भाईचारे दोनों की महती आवश्यकता है. बाबासाहेब के प्रयास की सराहना इस प्रकार बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने बौद्धिक एवं ज्ञान के कौशल के बल पर संविधान सभा में विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधियों को संतुष्ट ही नहीं किया अपितु उस समस्या का समाधान भी बताया जिसको लेकर वे चिन्तित थे. बाबासाहेब के ज्ञान, परिश्रम एवं भावनात्मक आदि योगदान की पराकाष्ठा का बयान महान संविधानविद एवं संविधान प्रारूप समिति के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी ने इन शब्दों में किया जिसका उल्लेख यहां समिचिन लगता है. टी.टी. कृष्णमाचारी ने तत्कालीन राष्ट्रपति को बताया, “आपके द्वारा नामित (संविधान प्रारूप समितियों) सात सदस्यों में एक सदस्य ने सदन से अपना त्यागपत्र दे दिया. एक की मृत्यु हो गयी और उसकी जगह कोई दूसरा नियुक्त नहीं हुआ. एक अमेरिका में थे और वो अपना योगदान नहीं दे पाएं. दो व्यक्ति दिल्ली से दूर थे और स्वास्थ्य के कारण समिति में शामिल नहीं हो पाएं. इसलिए सात में से 5 व्यक्ति ने प्रारूप समिति में अपना योगदान दिया ही नहीं. ऐसे में संविधान प्रारूप समिति का पूरा काम डॉ. अम्बेकर के कंधों पर पड़ गया जिसे उन्होंने भलि भांति निभाया.” इसी कड़ी में फ्रैन्क एन्थोनी ने बाबासाहेब के योगदान को कुछ इस तरह सराहा. “इस विशालकाय एवं क्लिस्ट दस्तावेज के उत्पादन में अन्तर्निहित कार्य के आयतन एवं एकाग्रता की तीव्रता की वास्तविकता का कोई अनुमान भी लगा पाएगा, ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता.” वहीं, संविधान सभा के एक अन्य सदस्य जसवार रॉय कपूर ने कहा कि मैं कुछ वर्षों तक डॉ. अम्बेडकर से नाराज था क्योंकि वे गांधीजी को उनके आमरण अनशन पर मिलने दो दिन देर से आयें. परन्तु संविधान को पूरा कर उन्होंने एक सच्चे देश भक्त की भूमिका निभायी है. उन्होंने संविधान सभा में संविधान की राह में उठे हर गतिरोध को अपने सुझावों से दूर किया. आज मैं उनमें सच्चा देशभक्त देखता हूं. अन्त में तत्कालीन संविधान सभा के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद ने कहा कि प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर का मैं विशेष रूप से धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूंगा जिन्होंने अपनी खराब सेहत के बावजूद संविधान निर्माण का कार्य किया. उन्हें प्रारूप समिति में रखने एवं उसका अध्यक्ष बनाने से ज्यादा उचित निर्णय हो ही नहीं सकता था.” धर्मग्रंथ और संविधान में अंतर संसद में संविधान पर बहस के दौरान बार बार अनेक सांसदों ने यहां तक की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री एवं सरकार के अन्य वरिष्ठ सांसदों ने संविधान की तुलना धर्मग्रंथ से कर डाली. किसी ने उसे बाइबल कहा तो किसी ने कुरान तो किसी ने उसे गीता कह डाला. यहां यह ध्यान देना होगा कि धर्मग्रंथ आस्था से बनते हैं जिनमें कोई भी परिवर्तन संभव ही नहीं है. परंतु संविधान तार्किक एवं वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर समायोजित अनेक समाजों के अनुभवों का निचोड़ है. जिसमें समयानुकुल जनता की अकांक्षाओं के वशीभूत परिवर्तन किए जा सकते हैं. इसीलिए बाबासाहेब अंबेडकर का मानना था कि किसी भी देश का संविधान उस समय की जनता की चित्तवृति एवं अकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है.

नहीं चाहिए एक और ‘एकलव्य’

rohitपिछले साल आपने आईआईटी मद्रास की एक दलित छात्र संस्था ‘अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल’ का नाम सुना होगा. इस संस्था ने जब मोदी सरकार की श्रम नीतियों की आलोचना की, बीफ बैन पर स्टैंड लिया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय में शिकायत कर दी. आरएसएस की पत्रिका ने इसे हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी बताया था. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने डीन को फोन कर दिया और इस संगठन की मान्यता रद्द कर दी गई. हालांकि इस मामले पर देश भर में छात्रों और अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थन में आंदोलन चलने के बाद इस संगठन की मान्यता बहाल कर दी गई. लेकिन जब दक्षिण के ही एक और यूनिवर्सिटी हैदराबाद सेंट्रल विश्वविद्यालय में पांच दलित छात्रों द्वारा एवीबीपी के एक छात्र नेता के साथ कथित तौर पर मारपीट का मामला सामने आया तो मामला लगातार बिगड़ता चला गया. विश्वविद्यालय के कुलपति अप्पा राव ने इन पाचों छात्रों को निलंबित कर दिया. यहां तक कि उनके विश्वविद्यालय के हॉस्टल, मैस, प्रशासनिक भवन और कॉमन एरिया तक में इनके घुसने पर रोक लगा दी गई. इसके बाद सभी पांचों छात्र विश्वविद्यालय के फैसले के विरोध स्वरूप खुले आसमान के नीचे रह रहे थे. इस बीच किसी ने यह नहीं सोचा था कि मामला इतना बढ़ जाएगा कि इनमें से एक छात्र को आत्महत्या जैसा कदम उठाना पड़ेगा. रोहित वेमुला ने 17 जनवरी को देर रात हॉस्टल के एक कमरे में जाकर खुदकुशी कर ली. 25 साल के रोहित गुंटुर ज़िले के रहने वाले थे. वे विज्ञान तकनीक और सोशल स्टडीज़ में पिछले दो साल से पीएचडी कर रहे थे. इस घटना ने हैदराबाद सेंट्रल युनिवर्सिटी सहित देश भर के विश्वविद्यालय और वहां दलित/बहुजन छात्रों के साथ हो रहे भेदभाव के मामले को सामने लाकर रख दिया है. शोधार्थी रोहित वेमुला की आत्महत्या की खबर से पूरा देश सन्न है. देश परेशान है कि दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग से आये छात्रों को एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी इस तरह का जातिगत उत्पीड़न झेलना पड़ता है कि उन्हें अपना जीवन समाप्त करने जैसा मुश्किल फैसला लेना पड़ता है. यह और भी शर्मनाक है कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय जिस हैदराबाद शहर में स्थित है, वहां से दो-दो राज्यों तेलंगाना व आंध्र प्रदेश की सरकारें अपना कामकाज़ चलाती हैं. रोहित की मौत के बाद हर ओर हल्ला है, लेकिन जब रोहित और उनके चार अन्य साथियों को तमाम संगठनों के समर्थन की जरूरत थी तब आखिर चुप्पी क्यों पसरी रही. यह चुप्पी खतरनाक है. क्योंकि आखिर तब कोई छात्र, शोधार्थी और शिक्षक समाज के लिए क्यों लड़ेगा? हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय का दलित छात्र संगठन अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन, जब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले के दंगों पर बनी फिल्म “मुजफ्फरनगर अभी बाक़ी है” को दिखाये जाने को लेकर प्रतिबद्ध थी, तो भी हैदराबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों और हैदराबाद शहर के मुस्लिम संगठनों ने उनका कोई साथ नहीं दिया. अभी जो राजनीतिक दल रोहित के समर्थन में शोर मचा रहे हैं, जब रोहित और उनके साथी खुले आसमान के नीचे सोए थे, तो आखिर वो कहां थे? जबकि इसके उलट एवीबीपी के छात्र नेता द्वारा सांसद एवं केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय से कथित मारपीट की शिकायत करने भर से ही बंडारू दत्तात्रेय ने स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखने में देर नहीं लगाई. और अपने छात्र संघ के साथ कथित मारपीट और अपने एक मंत्री की चिट्ठी को मंत्रालय ने भी गंभीरता से लेते हुए विश्वविद्यालय से जवाब तलब कर लिया. दत्तात्रेय की 17 अगस्त की चिट्ठी के बाद स्मृति इरानी के मंत्रलाय ने विश्वविद्यालय को छह हफ्ते में पांच पांच पत्र लिखे थे कि दत्तात्रेय की वीवीआईपी शिकायत पर क्या हो रहा है? जवाब नहीं मिलने पर मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने सीधे वाइस चांसलर अप्पा राव को पत्र लिखा. छात्र आरोप लगा रहे हैं कि इन्हीं पत्रों ने विश्वविद्यालय पर कार्रवाई करने का दबाव डाला. नजीता इन छात्रों को युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया. रोहित और उनके साथी लगातार खुले आसमान के नीचे सोते रहे, लेकिन तब ना तो उनसे मिलने राहुल गांधी गए और न ही किसी अन्य नेता ने ट्वीट और प्रेस क्रांफेंस किया. हद तो यह है कि इस दौरान कोई भी दलित/ आदिवासी/ बहुजन/ मूलनिवासी और अल्पसंख्यक संगठन रोहित और उनके साथियों के समर्थन में सामने नहीं आया. विश्वविद्यालाय के जिन 10 प्रोफेसरों ने स्मृति ईरानी के प्रेस कांफ्रेंस के विरोध में प्रशासनिक पदों से इस्तीफा दिया है, अगर उन्होंने रोहित और उनके साथियों के निलंबर और युनिवर्सिटी कैंपस में प्रवेश प्रतिबंधित किए जाने के वक्त इस्तीफा दिया होता तो शायद रोहित जिंदा होता. यह दोनों मामले ऐसे हैं जिनके बारे में यदि भावनाओं के आक्रोश में कहा जाए कि दलित-आदिवासियों को उनकी विचारधारा के लिए लड़ रहे लोगों की समस्याओं से कोई लेना-देना है ही नहीं. क्योंकि हम जिस समाज के लिए लड़ रहे हैं क्या वह हमारा साथ दे रहा है? जैसेकि जब कोई सेना युद्ध के मैदान में होती है तो सैनिकों को कवर फायर देने का कार्य दूसरे सैनिक करते हैं और फ्रंट में लड़ाई कोई दूसरा सैनिक लड़ता है. लेकिन हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन के बहादुर छात्रों के साथ ऐसा नहीं था. वे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहे थे. उनको हैदराबाद शहर से किसी भी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक व सांस्कृतिक संगठनों का समर्थन नहीं मिल रहा था. ऊपर से विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निष्कासन किया गया और स्कॉलरशिप रोक दी गयी थी, इसके बाबजूद अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन और रोहित वेमुला और उनके साथी निरंतर लड़ रहे थे. लेकिन इनको अकेला देखकर इनके विरोधियों का हौंसला बढ़ता गया, जिसके बाद अम्बेडकर स्टूडेंटस एसोसिएशन को जातिवादी, देश विरोधी तत्वों का संगठन बताकर जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं, केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, मानव संसाधन मंत्रालय की मंत्री श्रीमती स्मृति जुबेन ईरानी और हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रशासन ने इन पर अपना शिकंजा कसना शुरू किया, तब यह छात्र चारों तरफ से घिर गए थे. लेकिन रोहित वेमुला और उसके साथियों ने झुकना या गांव वापस जाना स्वीकार करने की बजाय लड़ना मंज़ूर किया. यह पांच लड़के 10 दिनों से अपने हॉस्टल से बाहर सड़क पर रह रहे थे और रोहित और उसके चार अन्य साथी छात्रों ने फेसबुक पर पहले ही दिन हॉस्टल से निकलते हुये बाबा साहेब की तस्वीर हाथ में पकड़े लिखा था कि हमें अब हॉस्टल से निकाल दिया गया है और यह सड़क ही हमारा आसरा है. इन पांचों छात्रों के सड़क पर आ जाने के बावजूद हैदराबाद शहर के किसी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग के संगठनों ने उनकी कोई सुध नहीं ली. यह और भी ज्यादा शर्मनाक है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में भगवा छात्र संगठनों के अलावा रोहित और उनके साथियों की विचारधारा से सहमति रखने वाले संगठन भी होंगे, लेकिन उन्होंने भी रोहित और उसके इन साथियों की कोई सुध नहीं ली. सबसे ज्यादा शर्मनाक और हैरान करने वाली बात यह रही कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक प्रोफेसरों और कर्मचारियो का कोई तो संगठन होगा, उसने भी इनकी कोई सुध नहीं ली और इनको न्याय दिलाने में कोई पहल नहीं की? सवाल उठता है कि आखिर गांव, देहात, कस्बों और छोटे शहरों से आये दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थी किसकी तरफ न्याय दिलवाने के लिए देखेंगे? जब विश्वविद्यालय के दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम प्रोफ़ेसर और कर्मचारियों ने चुप्पी साध रखी थी तो फिर रोहित और उनके साथी सचमुच में बहादुरी के प्रतीक हैं. बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर कहते थे कि “जुल्म करने वाले से जुल्म सहने वाला ज्यादा बड़ा गुनहगार है”. इस तरह से देखा जाये तो रोहित वेमुला और उनके साथी सच में बहादुरी का प्रतीक हैं. लेकिन इस मामले में सिखों के दसवें गुरू गोविंद सिंह भी याद आते हैं जो कहते थे कि “चिड़यन ते मैं बाज़ लड़ाऊं, सवा लाख ते एक लड़ाऊं, तब गोविंद सिंह नाम काहूं”. रोहित वेमुला को जब मरना ही था, तो लड़ते हुये बहादुरों की तरह मरते; जो एक सबक होता हैदराबाद विश्वविद्यालय के जातिवादियों और फासीवादियों के लिये. इसके अलावा यह सबक होता हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रशासन के लिये भी, तब फिर कोई कुलपति, कोई कार्य परिषद्, कोई प्रॉक्टर, कोई वार्डेन, कोई अनुशासन समिति का सदस्य और जो भी अन्य अधिकारी हैं, उनकी भविष्य में किसी भी गरीब व वंचित वर्ग के छात्र को हॉस्टल से निकालने की हिमाक़त नहीं होती और तब रोहित वेमुला और उसके साथी समाज के सच्चे हीरो होते. क्योंकि आज के स्वकेन्द्रित, समझौतावादी, रीढ़विहीन और घुटना टेक जमाने में अम्बेडकरवादी साथी बहुत ही बड़ी मेहनत और कुर्बानियों से तैयार होते हैं. आखिर हर कोई अम्बेडकरवादी नहीं होता है. ‘जय भीम’ बोलना और बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की तस्वीर लगाना बहुत बड़े साहस और हिम्मत का काम होता है. क्योंकि डॉ. भीमराव अम्बेडकर ही आज बहुजन समाज की सबसे बड़ी प्रेरणा और संबल हैं. रोहित वेमुला के आत्महत्या ने हमारे देश, समाज और विशेषकर दलित समाज का बहुत बड़ा नुकसान किया है. क्योंकि अट्ठाइस साल का पीएचडी शोधार्थी रोहित एक वैज्ञानिक लेखक बनना चाहता था, उसने अपने आत्महत्या पत्र में स्वयं लिखा है कि “मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था. विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह. लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूं. रोहित ने आत्महत्या से पहले भी एक प्रथम पत्र 18 दिसंबर, 2015 को कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले को लिखा था कि “जिसमें उनकी भेदभाव भरी प्रणाली के खिलाफ तंज कसते हुए लिखा था कि “जब दलित छात्रों का एडमिशन हो रहा हो तब ही सभी छात्रों को दस मिलीग्राम सोडियम अज़ाइड दे दिया जाए. इस चेतावनी के साथ कि जब भी उनको अम्बेडकर को पढ़ने का मन करे या वे अम्बेडकर जैसा महसूस करें तो ये खा लें. सभी दलित छात्रों के कमरे में एक अच्छी रस्सी की व्यवस्था कराएं और इसमें आपके साथी मुख्य वार्डन की मदद ले लें. हम पीएच.डी के छात्र इस स्टेज को पार कर चुके हैं और दलितों के स्वाभिमान आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं, जिसे आप बदल नहीं सकते. हमारे पास इसे छोड़ने का कोई आसान रास्ता भी नहीं है. इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि हमारे जैसे छात्रों के लिए यूथेनेसिया की सुविधा उपलब्ध कराएं”. रोहित की यह चिट्ठी कुलपति अप्पा राव की दलित छात्रों के खिलाफ द्वेष की ओर भी इंगित करता है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले का दलित विरोधी और जातिवादी रवैया बहुत पुराना रहा है. वर्ष 2002 में इन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय का चीफ़ वार्डेन  रहते हुए 10 दलित छात्रों को विश्वविद्यालय से निकलवा दिया था और उन दलित लड़कों का मामला इतना पुख्ता बनाया था कि वे लड़के बाद में हैदराबाद उच्च न्यायालय से भी अपनी वापसी नहीं करा पाये थे और उनकी विश्वविद्यालय में वापसी की याचिका खारिज कर दी गई थी. रोहित और उनके साथियों के मामले में भी अप्पा राव का रवैया वही रहा. रोहित इस दुनिया से विदा लेते हुए भी अपराधबोध में दिखे. उसने अपने आखिरी पत्र में लिखा, “अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन परिवार, आप सब को निराश करने के लिए माफ़ी. आप सबने मुझे बहुत प्यार किया. सबको भविष्य के लिए शुभकामना. आख़िरी बार जय भीम!” रोहित आगे लिखते हैं, “मैं औपचारिकताएं लिखना भूल गया. ख़ुद को मारने के मेरे इस कृत्य के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है. किसी ने मुझे ऐसा करने के लिए भड़काया नहीं, न तो अपने कृत्य से और न ही अपने शब्दों से. ये मेरा फ़ैसला है और मैं इसके लिए ज़िम्मेदार हूं. मेरे जाने के बाद मेरे दोस्तों और दुश्मनों को परेशान न किया जाए”.” साथियों से माफी मांगने की बात शायद इसलिए थी, क्योंकि रोहित ने अपने साथियों के साथ मिलकर समाज को सुधारने का प्रण लिया होगा. लेकिन यहां यह सवाल भी पैदा होता है कि आखिर रोहित वेमुला ने अपने अंतिम पत्र में किसी को दोषी क्यों नहीं बताया है? तब फिर सड़क पर इतने दिनों से रोहित और उसके साथी क्या कर रहे थे? जब कोई दोषी ही नहीं तब फिर आत्महत्या का वरण क्यों? कहीं रोहित को किसी ने साजिशन मार तो नहीं डाला. क्या यह हस्तलिखित पत्र उसने ही लिखा है या फिर कोई दबाब डालकर लिखवाया गया है, क्योंकि पत्र में एक स्थान पर बहुत काटा-पीटी की गई है और मरने वाले व्यक्ति के पास इतना समय होता नहीं है. हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. अप्पाराव पिंदिले ने रोहित की आत्महत्या पर आश्चर्य व्यक्त किया है. आखिर कुलपति को समझ में नहीं आ रहा कि उनके एक जे.आर.एफ. प्राप्त शोधार्थी ने आत्महत्या क्यों की है? इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह कि कुलपति प्रो. पिंदिले के इस आश्चर्य में कोई अपराधबोध जैसी बात नहीं है, और उन्हें लग ही नहीं रहा है कि इस आत्महत्या में उनकी जिम्मेदारी भी तय हो सकती है. आश्चर्य उस छात्र नेता ने भी व्यक्त किया है, जिसने रोहित और उनके साथियों पर मारपीट का आरोप लगाया था. रोहित वेमुला के एकाकीपन ने समाज को झकझोर दिया है. जो शोधार्थी अट्ठाईस वर्ष का जे.आर.एफ. प्राप्त पी.एच.डी. कर रहा नौजवान हो और वह हैदराबाद विश्वविद्यालय की अम्बेडकर स्टूडेंटसस एसोसिएशन का सक्रिय कार्यकर्ता हो, जो सभी मामलों की गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता हो. और तो और जो अपने पांच साथियों के साथ न्याय मांगने सड़क पर बैठा हो, वह इतना एकाकी कैसे हो सकता है? इसमें हम सबकी बहुत बड़ी गलती है. और सबसे ज्यादा गलती हैदराबाद शहर के सभी दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठनों की है. क्योंकि जब अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ इन लोगों का विवाद होता है, तो ए.बी.वी.पी. के लड़के एक केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय के पास पहुंच जाते हैं और फिर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री श्रीमती ईरानी अपने अधिकारियों से हैदराबाद विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखवाती हैं. लेकिन यह दलित छात्र हैदराबाद के किस दलित, आदिवासी, पिछड़ा और अल्पसंख्यक व मुस्लिम सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक संगठन के पास गए और हैदराबाद के किस संगठन ने इनकी सुनी? किस नेता, विधायक, सांसद और मंत्री ने इन दलित छात्रों के लिए पत्र लिखा? सैकड़ों की संख्या में तो गली-मोहल्ले-जिला-नगर-महानगर के नेता, सदस्य, अध्यक्ष, विधायक, सांसद और वंचित समुदाय से जीतकर आते हैं? हैदराबाद तो दो-दो राज्यों की राजधानी है, वहां तो सैकड़ों की संख्या में इन वर्गों के आई.ए.एस., आई.पी.एस., पी.सी.एस. और न जाने कितने बड़े अधिकारी रहते हैं, क्या वे सब अंधे-गूंगे और बहरे थे? हैदराबाद के किस एन.जी.ओ., पत्रकार, रंगकर्मी, बुद्धिजीवी, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संगठन के नेता व कार्यकर्ता ने इन दलित छात्रों की सुनी? और आखिर क्यों नहीं सुनी? दलित/पिछड़ा/अल्पसंख्यक समाज के लोगों का यह बहुत ही दोहरा चरित्र है कि उनके समाज के लोग छात्रों, शोधार्थियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सरकारी व गैर सरकारी अधिकारियों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ जोखिम भरे माहौल में कार्य करने वाले हर व्यक्ति से यह उम्मीद तो करते हैं कि “इस वर्ग को उनके लिए ‘कुछ’ करना चाहिए. उसे पे बैक टू सोसाइटी का फ़ार्मूला अपना चाहिये”. लेकिन यही बहुसंख्यक समाज खुद अपनी जिम्मेदारी निभाता है क्या? क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता के साथ कोई अन्याय हुआ हो, तो सौ-पचास की संख्या में सामाजिक लोगों ने उस कार्यालय में पहुंचकर अपना विरोध दर्ज़ कराया हो? हां भीड़ नुमा यह लोग झुण्ड के झुण्ड धर्म के नाम पर, राजनीतिक दल के नाम पर और अन्य सामाजिक कार्यों के लिए चन्दा (आर्थिक सहयोग) मांगने जरूर आ जायेंगे. अगर चन्दा नहीं दिया तो अमुक-अमुक छात्र, शोधार्थी, लेखक, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता इन तथाकथित लोगों को गद्दार नज़र आने लगता है. आज तक यह बहुसंख्यक समाज यह नहीं समझ पाया है कि कोई छात्र, शोधार्थी, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता अपने शहर से सैकड़ों किलोमीटर दूर आकर आपके अनजान शहर में रहता है, नौकरी करता है, बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर के मिशन पर चलता हुआ अपने दफ़्तर में रोज़ जोखिम लेता है, प्रताड़ित होता है और हमारा यह बहुसंख्यक समाज न तो उन लोगों को कोई सामाजिक सुरक्षा देता है, न ही उनकी कभी कोई सुध लेता है. हां सारी जिम्मेदारी उस शिक्षित वर्ग के कर्तव्य को बताता हुआ, अपने शहर में पड़ा सोता रहता है. कौन उसके समाज का नया व्यक्ति उनके शहर में आया है, यह उसको पता नहीं है? कौन हमारे लिए लड़ रहा है? कौन हमारे लोगों को परेशान कर रहा है और कौन परेशान हो रहा है, यह उसको पता नहीं है? हां, अगर वो कभी दलित/पिछड़े समाज के किसी अधिकारी, कर्मचारी के पास काम लेकर जाएं और वह इंकार कर दें तो वह समाज का होने का हवाला देकर उनको कोसने से बाज नहीं आते. लेकिन जो काम पूरे हैदराबाद शहर के लोग मिलकर नहीं कर पाएं रोहित वेमुला ने वह अकेले कर दिखाया. रोहित की शहादत के बाद मचे सियासी वबंडर को इस देश की सत्ता संभाल नहीं पाई और उसे मजबूरी में रोहित के चार अन्य साथियों का निलंबन वापस लेना पड़ा. रोहित ने अपनी जिंदगी देकर चार अन्य जिंदगियों को संवार दिया. साथ ही चुपचाप दलित/वंचित/शोषित तबके के लिए एक संदेश छोड़कर चले गए. लेकिन अगर रोहित और उनके साथियों के निलंबन के बाद अन्य लोग सामने आए होते तो आज रोहित जिंदा होता और अपने साथियों के साथ निलंबन वापस लिए जाने का जश्न मना रहा होता. -लेखक महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन के प्रभारी निदेशक हैं. सम्पर्कः 09326055256, ईमेल-surjeetdu@gmail.com

प्रेमचंद घोर दलित विरोधी थे- मुद्राराक्षस

चर्चित और विद्वान साहित्यकार मुद्राराक्षस जी का विगत 13 जून, 2016 को परिनिर्वाण हो गया. एक लेखक, एक चिंतक, एक विचारक जिंदगी भर अपने असूलों और समाज को विचारवान बनाने के लिए लड़ता है. उन्हें श्रद्धांजलि देने का सबसे सही रास्ता उसके विचारों को साझा करना है. दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने 16 अक्टूबर, 2011 को लखनऊ में मुद्राराक्षस जी का इंटरव्यू लिया था. उसका संपादित अंश पेश है.. सन् 77 के वक्त जब इमरजेंसी लगी थी तो इसे चुनौती देने का माद्दा बहुत कमलोगों में था. राजनीतिक तौर पर जयप्रकाश सहित कई लोग इसे चुनौती दे रहे थे तो सांस्कृति तौर पर भी इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिल रही थी.मुद्राराक्षस वो शख्स थे जिन्होंने नाटक के जरिए तानाशाह सरकार पर जोरदारकटाक्ष किया था. उनका नाटक आला अफसरतब की जबरिया सरकार को कुछ ऐसा चुभा की इसे देखने के लिए कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह पहुंचे. उनका लेखन कई सवाल खड़े कर चुका है. कई लोगों को चुभता भी है. विरोध भी होता है लेकिन इन सब से बेपरवाह 60 से ज्यादा रचनाएं रच चुके मुद्राराक्षस अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कह देने के लिए भी जाने जाते हैं. धर्मवीर उनको पसंद नहीं तो फट से कह देते हैं कि वह आदमी कुंठित है.दलितों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर नामवर सिंह, प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ, वामपंथ, किसी को नहीं बख्शते. आपके बचपन का दौर कैसा था, आप उसे कैसे याद करते हैं?  गांव में जन्म हुआ (21 जून 1933, बेहटा). यह लखनऊ से करीब 24 किमी है. अब तो वो गांव शहर में ही शामिल हो गया है. वहां जन्म हुआ और चौथी तक वहीं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. उसके बाद पिता लखनऊ आ गए तब से फिर यहां रहते गए. बाकी की शिक्षा लखनऊ में हुई. यूनिवर्सिटी में हुई. और लिखना भी लगभग 1950 में शुरू हुआ. निराला, महादेवी और पंत वगैरह को पढ़ने से लिखने की प्रेरणा मिली. 1951 से लिखना शुरू किया. 1955 में लखनऊ से कलकत्ता चला गया. कलकत्ता से मैगजीन निकलती थी ज्ञानोदय’. अब तो वो नया ज्ञानोदयहो गया है. तो यहीं 55 में सहायक संपादक हो गया. 58 तक उसमें रहा. 58 में इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन करने लगा. यह एक साल चला. 60 में दिल्ली आ गया. 76तक दिल्ली में ही रहा. दिल्ली का जीवन जरा अगल किस्म का जीवन था. 62 में मैं आकाशवाणी में चला गया. 76 में इमरजेंसी के दौरान मुझे वहां से छोड़ना पड़ा. क्योंकि तब वहां काम कर पाना मुश्किल था. नाटकों के उस दौर में आपका एक नाटक आला अफसरकाफी चर्चित और विवादास्पद रहा था. हुआ क्या था? – ‘आला अफसरअसल में गोगोल (रुसी नाटककार) के एक नाटक इंस्पेक्टर जनरलका भारतीयकरण था. शहर में एक बड़ा अधिकारी है और उसके यहां जांच के लिए कोई आने वाला है. जांच के लिए जो आता है, उसको ये बड़े आदर के साथ लाते हैं. हालांकि वह जांच के लिए नहीं आया था घूमने आया था. तो शासन और आम आदमी के बीच रिश्ता क्या है, ये उसका केंद्र है. तो जाहिर से उसमें विवाद होना था. शायद इंदिरा जी ने उसे देखने की इच्छा जताई थी? –  नहीं, उन्होंने नहीं की थी बल्कि मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह ने जरूर देखने की इच्छा जताई थी और उन्होंने देखा भी. अब ये पता नहीं चल सका कि उनको कैसा लगा. उस वक्त सामने बात हुई नहीं. ताली तो उन्होंने बजाई लेकिन उनका विचार पता नहीं चल सका. आपने मीडिया को भी करीब से देखा है. समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा करने का मीडिया का जो चरित्र है, उसको आप कैसे देखते हैं?देखिए मीडिया हमेशा एक तो सांप्रदायिक रहा है. यानि मुस्लिम संस्कृति के विरुद्ध. दूसरे, मीडिया में, खासतौर पर आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन में करीब 70 फीसदी बड़े आर्टिस्ट दलित थे. लेकिन उन्हीं की हालत सबसे ज्यादा खराब थी. कितनी भी कोशिश कर लिजिए उनको पहचान नहीं मिलती थी. इसी मीडिया ने पिछले दिनों नोएडा में मायावती द्वारा दलित प्रेरणा स्थल बनाने की तीखी आलोचना की थी. लखनऊ में भी अंबेडकर पार्क बनाने के दौरान बहुत विरोध हुआ था. आपका क्या मानना है, क्या ऐसे पार्क और मूर्तियां बनना सही है?ये तो सही है. बिल्कुल सही है. इससे एक स्थाई छाप तो पड़ेगी उस समूची जाति की, कि इतना बड़ा काम इनके पक्ष में हुआ. हालांकि उस काम को किसी सवर्ण ने प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखा. हर वक्त आलोचना ही होती रही. गांधी की लाखों मूर्तियां इस देश में होंगी और स्मारक होंगे. उस पर तो कोई आक्षेप कभी किसी ने नहीं लगाया कि गांधी की मूर्तियां इतनी क्यों बन रही हैं. अब गांधी से बड़े स्मारक बन रहे हैं तो उन्हें चिढ़ हो रही है. जब तक गांधी जी के सामानांतर मूर्तियां लगती थी तब तक दिक्कत नहीं थी. दिक्कत ये हुई कि उससे बड़े स्मारक बन गए हैं और अब गांधी की उतनी बड़ी मूर्तियां बनाने वाला कोई है नहीं, तो जाहिर है लोगों को कष्ट तो होना ही था इस निर्माण कार्य से. आप सोचिए कि आप सुभाष बाबू के नाम पर कितने स्मारक बना लेते हैं. अब सुभाष कोई सही आदमी तो थे नहीं, जर्मनी का जो हिटलर है, उसके साथ काम कर रहे थे. कभी उन्होंने अपने जीवन में एक शब्द नहीं कहा कि हिटलर अत्याचारी है. मेरा ख्याल है कि करीब 70 लाख लोगों को मरवाया उसने. तो सुभाष बाबू कभी उसकेबारे में तो बोले नहीं. उनकी मूर्तियां लगी हुई है. अच्छा है कि अब वो सब मूर्तियां छोटी हो गई हैं. मैं तो बहुत खुश हूं. जैसे बुद्ध का है. बुद्ध के जो स्मारक हैं, उसके बराबर कोई नहीं पहुंच सकता. राम का कोई स्मारक उतना बड़ा नहीं बन सकता. यह संभव ही नहीं है. तो जाहिर है कि यह स्थिति कुछ लोगों को थोड़ा आतंकित करती है. उत्तर प्रदेश में बड़ा काम हो गया. आपने बुद्ध की बात की अभी. दलितों के विकास में, उनके आगे बढ़ने में बौद्ध धर्म का कितना महत्व है?बहुत बड़ा महत्व है भाई. वो साधारण नहीं है. बुद्ध ने जातिवाद तोड़ा. जो भी जातिवाद तोड़ेगा और सफलता पूर्वक तोड़ेगा वह बड़ा तो होगा ही. इस देश में बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान पहुंचा. यानि अगर यह बाहर न गया होता. यानि तिब्बत, चाइना, जापान आदि जगहों पर बौद्ध संस्कृति न फैली होती तो दिक्कत होती. अब यूपी की महत्ता भी उन जैसी होने लगी है.  शूद्र जाति के लोग दलित आंदोलन से उतनी शिद्दत से नहीं जुड़ पाएं, उसकी क्या वजह है?दलितों ने भी शूद्रों के बहुत नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. बामसेफ जरूर उदार संगठन है. बसपा है तो वह जबरदस्त काम करती है. लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनाती है कि शूद्र उसके साथ आ जाएं. इसकी कमी है. ओबीसी में से कुछ लोग राजसत्ता में आ गए. जैसे यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार आएं. अब नीतीश कुमार तो कुर्मी है. हैं तो ओबीसी लेकिन ओबीसी जैसा काम नहीं करते हैं. काम वही ब्राह्मणों जैसी करते हैं. वही स्थिति मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की है. बल्कि वो तो खतरनाक ढ़ंग से हिंदुत्व के साथ हो गए हैं. कहते हैं कि हम तो कृष्ण के वंशज हैं. उससे भी ज्यादा हास्यास्पद है कि आप जो हिन्दु धर्म के तीज-त्यौहार है उसे उतने उत्साह से क्यों मनाते हैं. यह तो ब्राह्मणों का है. जो ओबीसी सत्ता में पहुंचा वो शिद्दत से सवर्ण हिन्दू बन गया. आप वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन इसने दलित सवालों को मुखरता से क्यों नहीं उठाया?बिल्कुल सही कह रहे हैं. कभी नहीं उठाया. बहुत खराब स्थिति है. हाल में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि दलित प्रश्न और स्त्री प्रश्न क्या होता है, क्यों उठाते हैं लेखक लोग? तो अब इस मानसिकता को क्या कहेंगे? शुरू से आज तक दलित प्रश्न पर और स्त्री प्रश्न पर भी वामपंथ ने कोई सीधा काम कभी नहीं किया. इसमें वो जो 500 पन्नों का बनता है घोषणा पत्र, उसमें पांच हजार मुद्दे होते हैं. उसी में एक छोटा सा प्रश्न दलित मुद्दा होता है. यह बेकार है. तो वामपंथ कभी करेगा ही नहीं. मैं टोकता हूं, “लेकिन आज जब दलित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने लगे हैं तो कुछ वामपंथी धरे जाति के प्रश्न को उठाने लगा है. मुद्राराक्षस पहले के ही भाव में कहते हैं- यह बिल्कुल धोखाधड़ी है. कोई रिश्ता ही नहीं है. प्रेमचंद से अब तक प्रगतिशील लेखक संघ कितनी प्रगति कर पाया है?देखिए, इस मामले में तो प्रेमचंद भी पिछड़े हुए थे. वो कोई दलित पक्षधऱ नहीं थे. उन्होंने ऐसी दो-एक कहानियां जरूर लिखी जिसमें दलित पात्र है. लेकिन वो कहानियां ही विवाद का विषय है. और प्रेमचंद्र कठोरता के साथ गांधी के समर्थक थे. जिस मुद्दे पर पूना पैक्ट हुआ, यह प्रेमचंद्र के ही शब्द हैं कि दलित हमारे पैर हैं और अगर पैर ही कट गए तो हम कैसे जीवित रहेंगे.” (तल्खी के साथ कहते हैं) पैर ही क्यों हैं भाई. आप हमें पूरे शरीर का हिस्सा क्यों नहीं मानते. क्योंकि हर हालत में आप हमें नीचे ही देखते हैं. तो प्रेमचंद घोर दलित विरोधी हैं. जब भी दलित विमर्श की बात आती है तो अक्सर विवाद उठता है कि दलितों की बात सिर्फ दलित ही कर सकते हैं, तो दूसरी आवाज आती है कि सिर्फ दलित ही क्यों, गैर दलित भी कर सकते हैं. आपका क्या मानना है?  – ये अजीब है. एक बात बताइए, ये जो हिन्दी का लेखक है जो ऐसी बातें करता है, उससे कहिए कि वो इंडोनेशिया के बारे में क्यों नहीं लिखता, जापान के बारे में क्यों नहीं लिखता. वहां भी तो किसान हैं, वहां भी तो औरते हैं-आदमी हैं. आप उनके बारे में तो कहानी नहीं लिखते हैं, क्योंकि वो एलियन है. अब सवाल यह उठता है कि आप दलित के बारे में क्यों लिखना चाहते हैं. (व्यंग्य के लहजे में कहते हैं) अगर आप दलित के बारे में कहानियां नहीं लिखेंगे तो क्या हो जाएगा, क्या आप बीमार हो जाएंगे. आखिर क्यों लिखना चाहते हैं. आपके पास आपकी पूरी दुनिया है, उसके बारे में लिखते रहें. ये तो अजब बात है कि दलित पर भी हम ही लिखेंगे. मैं टोकता हूं, ‘कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये जो स्पेस है, उसे गैर दलित हड़पना चाहते हैं.मुद्राराक्षस सहमति जताते हुए कहते हैं, बिल्कुल यही बात है. ये एक बड़ा क्षेत्र है. तो वो सोचते हैं कि उधर भी जमें रहो, इधर भी टांग अड़ाए रहो. नाचने-गाने का जो काम है वह दलितों-शूद्रों से जुड़ा रहा है. सांस्कृतिक इतिहास में इसका क्या महत्व है?जो बेहतर गायक या नर्तक है इस वक्त वो सारे शूद्र जाति के हैं. ब्राह्मणों ने कुछ कोशिश जरूर की हमला करने की, कि वो ज्यादा बड़े हैं, लेकिन हो नहीं पाया. बनारस के शहनाइ वादक बिस्मिल्लां खां तो अति दलित जाति के थे. अब वो इनकी बराबरी तो कर नहीं पाते. जब मैं ब्राडकास्टिंग में था तो वहां आर्चाय बृहस्पति नाम के एक एडवाइजर आ गए. वो इस बात पर अमादा थे कि दुनिया का सबसे बड़ा संगीतकार पंडित ओमकार नाथ ठाकुर को मानो. हमलोगों ने काफी हल्ला-गुल्ला भी किया. लेकिन अपने जीते जी उस आदमी ने कुमार गंधर्व को कभी ब्राडकास्टिंग में आने नहीं दिया. क्योंकि कुमार गंधर्व ओबीसी थे. लेकिन कुछ लोग अपने को पंडित लिखने लगे. जैसे वो जो बांसुरीवादक हरि प्रसाद चौरसिया हैं, अपने को पंडित भी लिखने लगें. लेकिन हैं तो चौरसिया हीं. तो कुछ संगीतकारों में भी यह हो गया कि वो अपने को ब्राह्मण दिखाएं. नर्तक अच्छन महाराज, शंभू महाराज, लच्छू महाराज इनकी जो भी संतान हैं दिल्ली में, वो सारे पंडित लिखते हैं अपने को. जबकि ये लोग पंडित हैं नहीं, सब दलित हैं. तो क्या कर सकते हैं.

जीवन जीने की कला सिखाता है बौद्ध धर्म- आनंद श्रीकृष्ण

आप कहां के रहने वाले, शिक्षा-दीक्षा कहां हुई? यूपी में एक जिला है सीतापुर, वहीं का रहने वाला हूं. प्राइमरी शिक्षा यहीं सरकारी स्कूल में हुई. एमसएसी एग्रीकल्चर कालेज कानपुर से किया. फिर दिल्ली यूनिवर्सिटी से एलएलबी किया और अभी इंडियन लॉ स्कूल, दिल्ली से एलएलएम कर रहा हूं. अभी भी स्टूडेंट हूं. राजस्व सेवा में आने के इतने सालों के बाद भी पढ़ाई जारी रखने का जज्बा कैसे बना रहा? ये बाबा साहब की प्रेरणा है. बाबा साहब कहा करते थे कि हमें अंतिम सांस तक विद्यार्थी बने रहना चाहिए. सीखने की लालसा कम नहीं होनी चाहिए. नौकरी करना तो जीवन यापनकरने का साधन है, लेकिन ज्ञान अर्जित करना तो आदमी के स्वभाव में है. शौक है, पढ़ाई में मन लगा रहता है. भारतीय राजस्व में कब आएं, कहां-कहां रहें? राजस्व सेवा में आने के पहले दो साल तक बैक में प्रोबेसनरी अधिकारी था. 84-86 तक. उसके बाद राजस्व सेवा में आया, नागपुर, बड़ोदा, अहमदाबाद, मुंबई आदि शहरों में रहा. दिल्ली में रेलवे मंत्रालय में डिप्टेशन पर रहा और अब वापस राजस्व सेवा में हूं. ‘धम्म‘’ कब अपनाया, उसको अपनाने की वजह क्या रही? मेरे ऊपर बाबा साहब का बहुत असर रह और अभी भी है. मैं उनको अपना मोटिवेटर भी मानता हूं. आईकॉन तो वो पूरे समाज हैं. जब मैं बाबा साहब की जीवनी पढ़ रहा था तो उसमें जिक्र आता है कि उन्होंने बौद्ध धर्म को क्यों अंगीकार किया. तो इसमे यह आया कि बौद्ध धर्म पूर्णतः एक वैज्ञानिक धर्म है. इसमें कहीं भी अंधविश्वास की जगह नहीं है. भगवान बुद्ध ने वही सिखाया जो उन्होंने खुद अपने अनुभवों की कसौटी पर कसा. वही किया जो कहा, और वही कहा जो किया. भगवान बुद्ध को ‘ यथाकारी तथावादी- यथावादी तथाकारी’ कहा जाता है. तो जब मैंने भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के बारे में पढ़ना शुरू किया. तो सब विचार करने के बाद में बाबा साहब का जो तर्क पढ़ा कि बौद्ध धर्म पूर्णतः भारतीय है. यहीं पैदा हुआ, यहीं फला-फूला. यहीं से दुनिया में फैला. आज जब दुनिया भारत की ओर आदर से देखती है वो बौद्ध धर्म के कारण है. आज आधी दुनिया जो भारत को अपना गुरु मानती है, वह बौद्ध धर्म के कारण है. चाहे वो चीन हो, जापान हो, चाहे वियतनाम हो, कोरिया हो, भूटान हो, वहां के लोग भारत की ओर आदर की दृष्टि से देखते हैं तो भगवान बुद्ध के कारण. फिर मैंने तमाम धर्मों का अध्ययन भी किया तो मैने पाया कि बौद्ध धर्म है जो पूर्णतः वैज्ञानिक है. जो भी आदमी जीवन में सुख और शांति चाहता है उसे शील, समाधि और प्रज्ञा के मार्ग पर चलना पड़ेगा. ये सब सोच कर मैं बौद्ध धर्म की ओर झुका और वैसे यह कह लिजिए कि परिवार का भी एक प्रभाव था. हालांकि मेरे मां-बाप खुद को बौद्ध नहीं कहते थे लेकिन उनके जीवन-यापन का जो तरीका था वो बौद्ध धर्म की शिक्षाओं के जैसा ही था. तो मुझे लगता है कि हमारे पूर्वज भी बौद्ध ही रहे होंगे. भगवान बुद्ध की शिक्षाएं जीवन जीने की कला सिखाती है और सच पूछा जाए तो भगवान बुद्ध ने कोई संप्रदाय तो खड़ा नहीं किया था. क्योंकि उनकी शिक्षाएं सबके लिए थी. इसलिए ही भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को सार्वजनीन कहा जाता है, सार्वजनिक कहा जाता है (सबके लिए) और सार्वकालिक कहा जाता है क्योंकि यह जितना भगवान बुद्ध के समय प्रासंगिक थी, उतनी ही आज है. उतना ही आगे भी रहेंगी. तो इन सब चीजों ने मुझे बहुत प्रभावित किया. इसको देखकर मुझे लगा कि यही वह मार्ग है, जिसपर चलकर जीवन को सुखमय और शांति से जिया जा सकता है. बौद्ध धर्म के ऊपर आपकी चार किताबें आ चुकी हैं, इनको लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? प्रेरणा तो यह रही कि सबसे पहले 1997 में मैं बिपस्सना के एक शिविर में गया, नागपुर में. उसमें अनुभव के स्तर पर बौद्ध धर्म को जानने का मौका मिला. मुझे यह इतना अच्छा लगा कि बाद में भी छुट्टी लेकर मैं चार बार इस शिविर में गया. फिर मेरे पूरे परिवार ने इसमें हिस्सा लिया और इससे पूरा परिवार धर्म के रास्ते पर आया. बिपस्सना से लौटने के बाद मैने उसके अनुभवों को ‘बिपस्ना फॉर हैप्पी लाइफ’ शीर्षक से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा. इसे काफी सराहा गया. तमाम प्रतिक्रियाएं आईं. लोगों ने कहा आपको लिखना चाहिए. उसी वक्त जब मैं लोगों से मिलता था तो मैं महसूस करता था कि लोगों को भगवान बुद्ध के बारे में आस्था तो बहुत है लेकिन जो चीजें जीवन में उतारनी चाहिए उसके बारे में पता नहीं है. साथ ही कोई ऐसी किताब नहीं थी जो उनको सारी बातों को एक जगह मुहैया करा सके. एक आम आदमी, जो अपने जीवन-यापन मे व्यस्त है और उसके पास इतना वक्त नहीं है कि वह ‘त्रिपिटिक’ पढ़ सके या फिर धर्म की गहराईयों में गोता लगा सके, उसे क्या दिया जाए कि वह अपने रोजमर्रा के काम को करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार सके. मुझे कम शब्दों में और जनभाषा में एक पुस्तक का अभाव दिखा. यह सोचते हुए मैने एक संक्षिप्त रुप में भगवान बुद्ध के संक्षिप्त जीवन, उनकी दिनचर्या, आम बौद्ध उपासक के बारे में कि उसे क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए. वह कैसे अपना जीवन जिए और त्यौहार आदि को कैसे मनाएं तो इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए यह किताब लिखी. ‘भगवान बुद्धः धम्म सार व धम्म चर्या’ नाम से यह किताब 2002 में आई थी. यह इतनी चर्चित हुई कि फिर इसका अनुवाद गुजराती, तेलुगू, तमिल और मराठी में हुआ. अभी कुछ दोस्तों ने इसका पंजाबी अनुवाद किया है. यह छपने जा रहा है. उड़िया भाषा में अनुवाद हो रहा है. श्रीलंका से प्रस्ताव आया है कि वह अपने यहां भी इसका अनुवाद करना चाहते हैं. इसी के अंग्रेजी संस्करण की मांग नेपाल, जापान आदि कई जगहों पर है. किताब लिखने के दौरान आप कहां-कहां गए. लेखन का यह क्रम कितने दिनों तक चला? मैं ज्यादातर जगहों पर गया. बोधगया गया, श्रावस्ती गया, सारनाथ, कुशीनगर, अजंता-एलोरा, अमरावती आदि कई जगहों पर गया. लुम्बिनी नहीं जा पाया जहां भगवान बुद्ध की जन्मस्थली है. तो एक दोस्त को भेजा, जो फोटो लेकर आएं. जापान भी गया हूं. यूरोप, अमेरिका कई जगहों पर गया और जानकारियां लेता रहा. इस दौरान तमाम लोगों से मिलता रहा. खासकर बौद्ध भिक्खुओं से मिलना और उनसे परामर्श करना चलता रहा. मेरी प्राथमिकता कम शब्दों में और जनभाषा में अधिक से अधिक जानकारी देने की थी ताकि लोग इसे जीवन में उतार सके. इसमें तकरीबन ढ़ाई साल लगे. इस्लाम और ईसाई धर्म ने बौद्ध धर्म को कितना नुकसान पहुंचाया. क्योंकि गुप्तकाल के दौरान बौद्ध धर्म यूनान, अफगानिस्तान और कई अरब देशों में फैल गया था लेकिन अब वो वहां नहीं है.? ऐसा है कि ईसाई धर्म और इस्लाम तो बाद में आएं. सबसे बड़ा जो नुकसान हुआ वह तब हुआ. जब पुष्यमित्र सुंग ने सम्राट ब्रहद्रथ, (सम्राट अशोक के पोते) जो अंतिम बुद्धिस्ट राजाथे कि हत्या कर दी. इसके पीछे कहानी यह है कि पुष्यमित्र सुंग, सुंग वंश का था. वह भारतीय तो था नहीं. वह एक अच्छा सैनिक था. बौद्ध धर्म के दुश्मनों ने उसको इस बात के लिए तैयार किया कि अगर वो ब्रहद्रथ कि हत्या कर दे तो वह लोग उसे राजा बना देंगे. एक षड्यंत्र के तहत उसे सेनापति के पद तक पहुंचाया गया और एक दिन ब्रहद्रथ जब सलामी ले रहे थे तो उसने उनकी हत्या कर दी. वह राजा बन गया. फिर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए उसने अश्वमेध यज्ञ किया. हालांकि इसमे ज्यादा लोग शरीक नहीं हुए. तब इनलोगों ने बौद्ध धर्म के आचार्यों और विद्वानों की चुन-चुन कर हत्या कर दी. अब जब बौद्ध धर्म को सिखाने वाले नहीं रहे तो यह कालांतर में फैलता कैसे? हालांकि कुछ लोग जान बचाकर भागने मेंकामयाब रहे और वो तिब्बत, जापान और चीन आदि जगहों पर चले गए. एक और चाल चली गई. जन मानस में भगवान बुद्ध इतना व्याप्त थे कि अगर उनके खिलाफ कुछ भी कहा जाता तो लोग विद्रोह कर देते. इससे निपटने के लिए एक चाल के तहत भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित कर दिया गया. साथ ही उनके बारे में झूठा प्रचार किया गया कि वो लोगों को सही शिक्षा नहीं देते थे. यहां तक कहा गया कि कोई बौद्ध विद्वान रास्ते में दिख जाए तो सामने से हट जाना चाहिए. कभी भी बौद्ध विद्वान को अपने घर में नहीं बुलाना चाहिए. तो इस तरह की कई कहानियां गढ़ी गईं, भ्रांतियां फैलाई गई. जबकि वास्तव में बुद्ध बहुत व्याप्त थे. हर आदमी में बुद्ध के गुण मौजूद हैं और कोई भी बुद्ध बन सकता है. यहां एक और विरोधाभाष दिखता है कि भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार तो घोषित कर दिया गया लेकिन आप देख लिजिए कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर अरुणाचल तक किसी भी मंदिर में बुद्ध की मूर्ति नहीं लगाई गई. अगर ईमानदारी से भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया होता तो हर मंदिर में उनकी मूर्ति होती. तो वास्तव मे यह बौद्ध धर्म को अपने में सोखने की चाल थी. दूसरा, ऐसे शास्त्रों की रचना की गई जो बुद्ध के विरोध में थे. इसमे यह लिखा गया कि मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक गुरु कृपा और भगवान की कृपा ना हो. इससे लोगों में यह बात फैलने लगी कि हमारा मोक्ष तब तक नहीं होगा जब तक कि कोई तथास्तु न कह दे. उनको यह सरल मार्ग लगा जिसमें उन्हें खुद कुछ नहीं करना होता था. जैसे बुद्ध कहते थे कि व्याभिचार, नशा, हिंसा आदि न करो, झूठ न बोलों. लेकिन नए ग्रंथों में लिखा गया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. अगर भगवान कृपा कर देगा तो सब माफ हो जाएगा. ऐसी कहांनिया और ऐसी कविताएं लिखी गई कि जिसमें कहा गया कि किसी ने सारी जिंदगी पाप किया और भगवान की कृपा से वह तर गया. तो लोगों को यह लगने लगा कि यह सरल मार्ग है. दिन भर चाहे जो भी करो, शाम को भगवान का नाम ले लो तो सब माफ है. ऐसे में वो क्यों शील, समाधि और प्रज्ञा का मार्ग अपनाएं, जो लंबा भी है और जरा कठिन भी. आपने कहा कि हर आदमी में ‘बुद्ध’ के अंकुर मौजूद हैं, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि बुद्ध धर्म से ज्यादा एक थ्योरी है? थ्योरी भी है और प्रैक्टिकल भी है. आप यह कह सकते हैं कि बुद्ध की जो शिक्षाएं हैं वो जीवन जीने की कला सिखाती है. वह कहते हैं कि एक सीधा सा रास्ता है. इस रास्ते पर जो भी चलेगा वह वहां पहुंचेगा, जहां मैं पहुंचा हूं. इसको ऐसे देखिए कि भगवान बुद्ध के पास उनके दर्शन करने हर रोज एक व्यक्ति आता था. भगवान बुद्ध ने उससे पूछा कि तुम रोज क्यों आते हो. व्यक्ति ने कहा कि भगवान आपके दर्शन करने से मुझे लाभ मिलता है. तो भगवान बुद्ध ने उससे कहा कि मेरे दर्शन करने से तुम्हे कोई लाभ नहीं होगा. तुम धम्म के रास्ते पर चलो क्योंकि जो धम्म को देखता है वह बुद्ध को देखता है. भगवान बुद्ध के जीवन की एक और घटना है. वह श्रावस्ती में रुके हुए थे. एक नवयुवक रोज वहां आता था. एक दिन वह जल्दी आ गया. उसने उनसे अकेले में बात करनी चाही. भगवान बुद्ध ने पूछा कि बोलो बेटा. उसने कहा कि भगवन मुझे कुछ शंकाएं हैं. मैं देखता हूं कि यहां जो लोग रोज आपका प्रवचन सुनने आते हैं वह तीन तरह के लोग हैं. एक तो आपके जैसे हैं जो पूर्ण तरीके से मुक्त हो गए हैं और उनके अंदर कोई विकार नहीं है. वो बुद्धत्व तक पहुंच गए हैं. दूसरे वो लोग हैं जो बुद्धत्व तक तो नहीं पहुंचे हैं लेकिन उनमें काफी गुण आ गए हैं. उनके अंदर का अध्यात्म झलकता है. लेकिन काफी लोग ऐसे भी हैं, जिनमें से मैं भी एक हूं, जो आपकी बातें तो सुनते हैं लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है. फिर उसने कहा कि भगवन आप तो महाकारुणिक हैं, तथागत हैं, आप सब पर एक साथ कृपा करके ‘तथास्तु’ कह कर सबको एक साथ क्यों नहीं तार देते हैं. भगवान बुद्ध मुस्कुराएं. उनकी एक अनूठी शैली थी कि प्रश्न पूछने वाली मनःस्थिति जानकर जवाब देने के पहले प्रतिप्रश्न करते थे. उन्होंने युवक से पूछा कि तुम कहां के रहने वाले हो. उसने उत्तर दिया कि श्रावस्ती का. बुद्ध ने कहा कि लेकिन तुम्हारी बातें और नैन-नक्श से तो तुम कहीं और के रहने वाले लगते हो. युवक ने कहा कि आप ठीक कह रहे हैं. वाकई में मैं मगध का रहने वाला हूं और यहां व्यापार करने के लिए बस गया हूं. भगवान बुद्ध- फिर तो श्रावस्ती से मगध जाने वाले तमाम लोग तुमसे रास्ता पूछा करते होंगे. तुम उन्हें बताते हो या नहीं बताते. युवक- बताता हूं भगवन. भगवान बुद्ध- तो क्या सभी मगध पहुंच जाते हैं? युवक ने कहा, भगवन मैने तो सिर्फ रास्ता बताया है. लेकिन जब तक वो जाएंगे नहीं, तब तक पहुंचेंगे कैसे. फिर भगवान बुद्ध ने कहा कि मैं तथागत हूं, इस बुद्धत्व के रास्ते पर चला हूं इसलिए जो लोग मेरे पास आते हैं मैं केवल उन्हें रास्ता बता सकता हूं कि यह बुद्धत्व तक पहुंचने का रास्ता है. इस पर चलोगे तो बुद्धत्व तक पहुंचेगें. तो ऐसे ही जो लोग इस रास्ते पर चले ही न, वह कैसे पहुंचेगा. तो आपने जो थ्योरी की बात करी तो वह भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब तक आप थ्योरी जानेंगे नहीं, उसपर चलेंगे कैसे. जैसे भगवान बुद्ध ने कहा कि हिंसा मत करो. तो जब आप अपने भीतर उतरेंगे तो देख पाएंगे कि हिंसा तब तक नहीं हो सकती है जब तक आपका क्रोध नहीं जागे. ऐसे ही आप तब तक चोरी नहीं कर सकते जब तक आपके अंदर लालच न आएं. भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध भिक्खुओं में मतभेद के कारण दो टुकड़े हो गए. क्या इससे भी धम्म के प्रचार-प्रसार पर कोई फर्क पड़ा क्या? प्रचार-प्रसार में थोड़ा फर्क यह पड़ा कि भगवान बुद्ध यह कहते थे कि हर आदमी अपना स्वयं मालिक है और उसे स्वयं से ही निर्वाण प्राप्त करना होता हैं. जो लोग भगवान बुद्ध की असली शिक्षा को मानने वाले थे, उनको ‘थेरवादी’ कहा गया, इनको ‘हिनयानी’ भी कहते हैं लेकिन कुछ लोगों का मानना था कि ध्यान के साथ में पूजा-अर्चना भी जरूरी है तो जिन लोगों ने भगवान की मूर्ति लगाकर पूजा-अर्चना करना शुरू कर दिया उन्हें ‘महायान’ कहा गया. तिब्बत और चीन में महायान फैला. लेकिन मैं इसे क्षति इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि बाद में इसमें ‘तंत्रयान’ भी जुड़ गया, इसमें तंत्र-मंत्र जुड़ गए. लेकिन इस तीनों में जो फर्क है वह ऊपरी है. क्योंकि तीनो बुद्ध को अपना गुरु मानते हैं. तीनों शील,समाधि और प्रज्ञा को मानते हैं. तीनों चार आर्य सत्यों को मानते हैं. तीनों आर्य आसांगिक मार्ग को मानते हैं. धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों में क्या ईसाई और बौद्ध धर्म को लेकर कोई ऊहा-पोह की स्थिति रहती है? जो पढ़े लिखे हैं, उनमें कोई ऊहापोह नहीं है. क्योंकि बाबा साहेब ने ईसाई धर्म का अध्ययन किया. इस्लाम का अध्ययन किया, सिक्ख धर्म का भी अध्ययन किया. उन्होंने 1936 में घोषणा कर दी थी कि मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ तो यह मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन मैं हिंदू धर्म में मरुंगा नहीं यह मेरे बस की बात है. मगर धर्म परिवर्तन किया 1956 में. तो 20 साल तक उन्होंने धर्मों के बारे में बहुत गहन अध्ययन किया और बाबा साहेब इस नतीजे पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म भारत में ही जन्मा, भारत में ही पनपा और यहीं फैला तो अगर हम ईसाई बनेंगे तो हमारे सर येरुशलम की ओर झुकेंगे. अगर हम इस्लाम कबूल हैं तो हमारे सर मक्का-मदिना की ओर झुकेंगे जबकि अगर हम बौद्ध धर्म में जाएंगे तो वह पूरी तरीके से भारतीय है और भारतीय संस्कृति में ही पैदा हुआ है और जो हमारे पूर्वज हैं वो बौद्ध थे. एक समय सम्राट अशोक के शासनकाल में तो पूरा भारत ही बौद्ध था. तो बाबा साहेब यह मानते थे कि बौद्ध धर्म अपनाने का मतलब है कि हम अपने पुराने धर्म में ही वापस जा रहे हैं, किसी नए धर्म में नहीं जा रहे हैं. तो जो भी डा. अंबेडकर के अनुयायी हैं उनकी पहली पसंद बौद्ध धर्म ही होगी. लेकिन जैसा आपने कहा कि सम्राट अशोक के समय में पूरा भारत बौद्ध था (आनंद जी मुझे टोकते हैं, पूरा तो नहीं लेकिन ज्यादातर हिस्सा) लेकिन सवाल उठता है कि फिर बौद्ध धर्म अचानक इतना सिमट क्यों गया और हिंदुज्म इतना हावी कैसे हो गया. इसको कैसे साबित करेंगे. क्योंकि यह सवाल तमाम जगहों पर उठते हैं? ये सवाल उठते तो हैं लेकिन आप देखिए कि ब्रहद्रथ के वक्त में कत्लेआम हुआ. बौद्ध भिक्खुओं को चुन-चुन कर मारा गया. फिर बाद में कई ऐसे ग्रंथ लिखे गए जिसमें भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहा गया. कई ऐसे गंथ्रों की रचना की गई जो सीधे बौद्ध धर्म के खिलाफ जाते थे. ऐसे में जब बौद्ध धर्म के प्रचारक नहीं रहे तो कालांतर में भौतिक स्तर पर वह धीरे-धीरे कम हुआ लेकिन बौद्ध धर्म की जो स्पिरिट थी, वह कभी भी भारत से लुप्त नहीं हुई. तो बुद्ध के जो तत्व थे, वैदिक धर्म ने उसे कई रूपों में अपने अंदर सोख लिया. जैसे यज्ञों के दौरान हिंसा बंद हो गई. दूसरा कारण यह रहा कि जो बौद्ध धर्म के प्रचारक होते थे वो एक विशेष पोशाक में रहते थे. जब मुस्लिम शासकों के हमले हुए तो उन्हें गुमराह किया गया कि बौद्ध प्रचारक सेना के लोग हैं. अलाउद्दीन खिलजी और बख्तियार खिलजी के वक्त में उनको चुन-चुन कर मारा गया. नालंदा विश्वविद्यालय को आग लगा दी गई. बौद्ध मानकों को लेकर भ्रांतिया फैलाई गई जैसे कहा गया कि पीपल के पेड़ के पास भी मत जाओ क्योंकि उस पर राक्षस रहता है. जबकि सत्य यह है कि यह बोद्धिवृक्ष है. उसका मान इसलिए है कि क्योंकि बुद्ध ने उसके नीचे ज्ञान पाया था. बौद्ध धर्म दलितों के धर्म के रूप में प्रचलित होता जा रहा है, यह स्थिति कितनी विचित्र है? यह स्थिति सही नहीं है. मैं तो कहूंगा कि जो भगवान बुद्ध के विरोधी हैं वो ऐसी कहानियां गढ़ रहे हैं. क्योंकि देखिए भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारनाथ में जाकर जिन पांच लोगों को दीक्षा दी उनमें कोई दलित नहीं था. पांच में से तीन ब्राह्मण थे. उसके बाद भगवान बुद्ध ने यश और उसके जिन 54 साथियों को दीक्षा दिया वह सभी व्यपारी थें. उरुवेला काश्यप और उसके 500 शिष्य, गया काश्यप और उसके 300 शिष्य औऱ नदी काश्यप और उसके 200 शिष्य और फिर ऐसे ही अनेक शिष्यों को दीक्षा दिया वो सब वैदिक धर्म को मानने वाले थे. राजा बिंबसार क्षत्रिय था. उसके बाद शाक्यों को दिया था. सम्राट अशोक जिसने बौद्ध धर्म को अपने समय में राजधर्म बनाया और श्रीलंका सहित कई देशों में फैलाया वह भी क्षत्रिय थे. अभी की बात करें तो महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, जिन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में इतना कुछ लिखा और खुद भिक्षु बने, वो ब्राह्मण थे. डीडी कौशांबी ब्राह्मण थे. अभी बिपस्सना के माध्यम से भगवान बुद्ध की शिक्षाएं पूरी दुनिया में फैला रहे हैं परमपूज्य सत्यनारायण गोयनका जी, वो दलित तो नहीं है. फिर जी टीवी के जो मालिक हैं सुभाष चंद्रा वो भी बिपस्सना साधक हैं. वो दलित नहीं हैं. बाबा साहेब ने 1956 में इसे जिस तरह फैलाया या यह कह सकते हैं कि इसे पुनर्जीवन दिया और इसमे जान डाली. तो इसको आधार बनाकर कुछ वेस्टेड इंट्रेस्ट वाले कह रहे हैं कि यह दलितों का धर्म है लेकिन भगवान बुद्ध कि शिक्षा सार्वजनिन है, सार्वकालिक है, सबके लिए है. आप कभी बिपस्सना शिविर में जाकर देखिए उसमें अमेरिका, जापान सहित कई देशों के लोग आते हैं. उसमें क्रिश्चियन पादरी और मौलवी भी आते हैं, ब्राह्मण भी आते हैं. तो यह जो कहानियां फैलाई जाती है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है वह झूठी कहानियां हैं. यह जरूर है कि बाबा साहेब अंबेडकर का और ओशो का जो कंक्लूजन (conclusion) है वह यह है कि आज के जो भी दलित हैं वो पूर्व के बौद्ध हैं और इसलिए उन्हें बौद्ध धर्म में वापस जाना चाहिए. जापान में तो दलित नहीं है. श्रीलंका में थाईलैंड और वर्मा तीनों में जहां बौद्ध धर्म राजधर्म है, वहां भी दलित नहीं है. आज अमेरिका और यूरोप में जहां बौद्ध धर्म बहुत तेजी से फैलने वाला धर्म है, वहां तो दलित नहीं है तो यह सब गलत प्रचार है कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म है. वर्तमान में भारत में बौद्ध धर्म के सामने किस तरह की चुनौतियां है? बौद्ध धर्म की जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह है भिक्खुओं की कमीं, उनका ना होना. दूसरी यह है कि कोई धर्म तभी फैलता है, जब उसके प्रचारक हों. आज बौद्ध धर्म के पास प्रचारकों की कमी है. गृहस्थों मे ऐसे प्रचारक बहुत कम हैं जिनको पूरी तरह संस्कार आते हों. बौद्धाचार्य भी संख्या में कम है. क्योंकि आम आदमी को जीवन में जन्मदिन, शादी-ब्याह जैसे कई संस्कार करने होते हैं तो संस्कार करवाने वाले लोग हमारे पास नहीं है. यह सबसे बड़ी चुनौती है कि हम कैसे बौद्धाचार्य या फिर ऐसे लोग तैयार करें जो विनय, शील और संपदा में कायदे से दीक्षित हों और उनको सारे संस्कार आते हों. दूसरी चुनौती यह है कि लोग बौद्ध धर्म में आ तो गए हैं लेकिन पुराने रीति-रिवाज को छोड़ नहीं पाएं है. इससे अधकचरे वाली स्थिति है कि इधर भी हैं औऱ उधर भी. तीसरी चुनौती यह है कि बौद्ध धर्म और भगवान बुद्ध के उपदेशों का तब तक फायदा नहीं होगा, जब तक आप उसे जीवन में ना उतारें. बौद्ध धर्म अपना लेने के बाद भी यह देखने में आता है कि लोग उपजाति जैसी बातों को छोड़ नहीं पाएं हैं. शादी-ब्याह के मामलों में यह दिखता भी है. तब लोग अपनी उपजाति (जो पूर्व धर्म में थी) का ही वर ढूढ़ते हैं? वो गलत है. ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह बौद्ध धर्म के बुनियादी दीक्षा के ही खिलाफ है. जब आप बौद्ध बन गए तो जाति या उपजाति का मतलब ही नहीं बचता, आप सिर्फ बौद्ध हैं. ऐसा शायद लोग इस वजह से करते हैं कि शिड्यूल क़ॉस्ट से धर्म परिवर्तन करने वालों को आरक्षण का लाभ मिलता रहता है. सच यह भी है कि ईसाई धर्म में जाति का कोई चलन नहीं है, इस्लाम में जाति नहीं है. विदेशो में ऐसा ही है लेकिन भारत में इन धर्मों में भी जाति है. तो इस बारे में भारत में एक विशेष स्थिति है कि समाज में जाति इतने गहरे तक पैठी है. एक संत ने भारत के बारे में कहा भी है कि ‘पात-पात में जात है, डाल-डाल में जात.’ कहावत है जात न पूछो साधु की, लेकिन यहां तो साधु-संतों की भी जाति पूछी जाती है. लेकिन यह गलत है. मैं लोगों से अपील करूंगा कि एक बार जब आप बौद्ध धर्म में आ गए हैं तो जाति के रोग को वहीं छोड़ दीजिए जहां से आएं हैं. ग्रेटर नोएडा में स्थित गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में ‘बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन’ नाम से एक पाठ्यक्रम की शुरुआत की गई है. बौद्ध धर्म के दर्शन को समझने के लिए यह कितना मददगार होगा? मुझे लगता है बहुत मददगार होगा. क्योंकि भारतीय संविधान का जो आर्टिकल 51 (सी) है उसके मुताबिक सभी की एक फंडामेंटल ड्यूटी बनती है कि Development a scientific temper के लिए काम करें. और भगवान बुद्ध की सारी शिक्षाएं ही वैज्ञानिक हैं. तो उस सेंटर ये यह होगा कि वहां पर एक फोकस्ड (focused) रिसर्च होगी कि पूर्व में क्या-क्या कारण रहे जिससे बौद्ध धर्म का इतना नुकसान हुआ. जो इतना साहित्य था जैसे सम्राट अशोक के समय में 84 हजार बौद्ध स्तूप थे, तो 84 हजार बौद्ध स्तूप कैसे नष्ट हुए. यह किसने नष्ट किया. जो पूरा त्रिपिटिक था वह कैसे जला, भगवान बुद्ध ने जो बात बार-बार कहा कि यह मेरा अंतिम जन्म है और मेरा कोई पुनर्जन्म नहीं होगा तो फिर किस तरह भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार घोषित किया गया. कैसे तमाम ग्रंथों में उनके बारे में अनाप-शनाप लिखा गया. भ्रांतियां फैलाई गई. तो यह सेंटर होने से तमाम बातें सामनें आएंगी ऐसा मेरा मानना है. इस पाठ्यक्रम के बारे में आप क्या सुझाव देंगे? देखिए, जब सुझाव मांगा जाएगा तो मैं देखूंगा कि कैसे क्या करना है लेकिन अभी कुछ कहना ठीक नहीं होगा. खासकर मीडिया के माध्यम से कुछ भी कहना उचित नहीं है. आपके भविष्य की क्या योजनाएं हैं? अभी तो मैं डा. अंबेडकर पर एक किताब लिख रहा हूं. साथ में तमाम समाचार पत्रों में कोई न कोई आर्टिकल लिखते ही रहता हूं. ऑल इंडिया रेडियो में बीच-बीच में जाकर बोलता रहता हूं. तो नौकरी में पूरा वक्त देते हुए शनिवार और रविवार को जो छुट्टियां होती हैं, उनमें जो भी वक्त बचता है. उसमें सामाजिक विषयों के बारे में लिखता रहता हूं. मैं बाबा साहेब पर जो किताब लिख रहा हूं उसका विषय यह है कि आज के वक्त में बाबा साहेब की क्या प्रासंगिकता है और उनके जीवन-दर्शन को अपने अंदर उतारकर लोग कैसे आगे बढ़ सकते हैं. आज भी गांवों और पिछड़े इलाकों में लोगों को बाबा साहेब के जीवन के बारे में बहुत कम मालूम है. जैसे बाबा साहब क्या सोचते थे, उनका सपना क्या था, उनका जीवन-दर्शन क्या था, औरों से क्या अपेक्षा करते थे, इसके बारे में लोगों को कम जानकारी है. इसी के बारे में लिख रहा हूं. दलित संतों को लेकर तमाम तरह कि किवदंतियां गढ़ी गई हैं, जिनमें उन्हें आखिरकार ब्राह्मण साबित करने की कोशिश की गई है. तो मुख्य धारा में उनका जो इतिहास बताया जाता है, वह कितना सच है? संत रविदास के बारे में ओशो रजनीश की एक किताब भी है और एक कैसेट भी है जिसमें उन्होंने संत रविदास की महानता का जिक्र किया है. इसमे बताया गया है कि वह इतने महान थे कि मीरा बाई, झाली बाई (राजस्थान की राजकुमारी) सहित कितनी राजकुमारियों एवं राजकुमारों ने संत रविदास को अपना गुरु माना. मीरा ने साफ कहा है कि रविदास के रूप में मुझे मेरा गुरु मिल गया. तो वह ऐसा तभी कह सकती हैं जब उन्हें संत रविदास में ज्ञान और ध्यान की कोई अलख दिखी होरविदास ने शास्त्रार्थ में काशी के पंडितों को कई बार परास्त किया. इस तरह की कहानियां सिर्फ इस सत्य को झुठलाने के लिए गढ़ा जाता है कि दलित जाति का कोई व्यक्ति कोई संत भी इतना महान हो सकता है. अध्यात्म की इतनी ऊंचाईयों को छू सकता है. आपकी बात सही है. काफी लोगों ने कहानियां गढ़ी है. जो लोग ऐसी कहानियां गढ़ते हैं, वह उनकी हीनता को दिखाता है. सच्चाई मानने की बजाए वो कहानियां गढ़ देते हैं कि वो पूर्व जन्म के ब्राह्मण थे. ये सब अनुसंधान करने वालों के लिए ज्वलंत और महत्वपूर्ण प्रश्न है. वर्तमान में भारत और विश्वस्तर पर बौद्ध धर्म की स्थिति क्या है और भविष्य में इसकी क्या संभावनाएं हैं? मुझे बौद्ध धर्म का भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई देता है. यह भूमंडलीकरण का दौर है. कम्यूनिकेशन और इंफारमेशन टेक्नोलॉजी में जो तेजी आई है उसकी वजह से पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन कर रह गई है. आप दिल्ली में नास्ता करके लंदन में डिनर कर सकते हैं. संभावना उज्जवल है. ग्रंथ इंटरनेट पर हैं. ज्यों-ज्यों ग्लोबलाइजेशन बढ़ेगा, गरीब-अमीर की खाई बढ़ेगी. राबर्ट मर्टन (socialist) का कहना है कि हर कोई आगे बढ़ना चाहता है. नहीं पहुंचने पर वह frustrated हो जाता है. जब-जब ऐसा होगा शांति की तलाश बढ़ेगी. तो ज्यों-ज्यों भूमंडलीकरण बढ़ेगा, लोग बुद्ध की तरफ खिचेंगे. पश्चिम में यही हो रहा है. प्रसिद्ध निर्देशक रिचर्ड गेरे, प्रोड्यूसर टीना टर्नर और फुबालर राबर्ट वैगियों बौद्ध धर्म की ओर आ चुके हैं. सर आपने इतना अधिक वक्त दिया. आपका धन्यवाद धन्यवाद अशोक जी।।
इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए एवं आनंद श्रीकृष्ण से संपर्क करने के लिए आप उन्हें anand622009@hotmail.com पर मेल कर सकते हैं. दलित मत से संपर्क करने के लिए आप 09711666056 पर फोन कर सकते हैं या फिर ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

पत्रिका का पांचवा वर्ष

ddजून का  अंक ‘दलित दस्तक’ का पांचवे वर्ष का पहला अंक है. सुनने में कितना शानदार लगता है ना. आंखों के सामने 27 जून, 2012 की वह तारीख घूम जाती है जिस दिन आधी-अधूरी समझ के साथ हमने यह मैगजीन शुरू की थी. पारिवारिक और पत्रकारिता के कई मित्रों की उपस्थिति में और बहुजन समाज के दर्जन भर बुद्धीजीवियों के बीच हमने नीले कागज में लिपटी पत्रिका को सबके सामने पेश किया था. तब से सबसे बड़ी चुनौती पत्रिका की निरंतरता को बनाए रखना था और कई उतार चढ़ाव के बीच हमने इसे बनाए रखा. आज जब बीते 48 महीनों को सोचता हूं तो रोमांच सा होता है. दलित दस्तक ने व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत कुछ दिया है. सम्मान, पहचान और संघर्ष करने का जज्बा मुझे इसी पत्रिका से मिला. इसने मुझे हर शहर में मित्र दिया है. यह पांच वर्षों की उपलब्धि है कि कम ही सही लेकिन दलित दस्तक हर शहर में पहुंची है. हमने इसे देश के दर्जनों विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरी में पहुंचाया है. इसे देश के संसद में पहुंचाया है. पत्रिका जहां गई है उसकी चर्चा हुई है. इस दौरान तमाम शहरों में तमाम लोग पत्रिका को सहयोग के लिए सामने आए हैं. जयपुर, देहरादून, नागपुर, नासिक, पटना, लखनऊ, गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा, जौनपुर, चंडीगढ़ समेत उत्तर प्रदेश और देश के तमाम शहरों में रहने वाले लोगों ने बहुत सहारा और सराहना दी है. सबका नाम लेना संभव नहीं है लेकिन इसी बहाने मैं आपलोगों का सार्वजनिक धन्यवाद करता चलूं यह भी जरूरी है. आपकी सराहना हमारा हौंसला है. आपका साथ ही हमारी ताकत है. दलित दस्तक को शुरुआत में भी आर्थिक दिक्कत थी जो अब भी कमोबेश बनी हुई है. विचारधारा से समझौता किए बिना दलित मुद्दों पर मैगजीन निकालना आसान नहीं है. क्योंकि तब ना तो विज्ञापन ही मिलता है और न ही आर्थिक मदद. पत्रिका को हम पैसों से नहीं बल्कि हौंसलों से चला रहे है. जिद्द और जुनून से चला रहे हैं. जिस दिन हमने पत्रिका शुरू की थी, उस दिन भी हमारे पास जिद्द और जुनून ही था. हमने आज भी वो जिद्द और जुनून बरकरार रखा है. बल्कि जिद्द तो बढ़ गई है. हां, कुछ अम्बेडकरवादी साथी इस दौरान जरुर साथ चले जिन्होंने काफी सहयोग किया. एक धन्यवाद उनको भी. हिन्दी पट्टी में तो पत्रिका ने अपने कदम जमा लिए हैं, अब जरूरत इसे अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित करने की है. अगर कोई साथ आता है तो पत्रिका को गुजराती, मराठी और पंजाबी भाषा में प्रकाशित करने की भी योजना है. दलित दस्तक के प्रचारकों की भी इस सफर में अहम भूमिका रही है. अगर पत्रिका समय पर पाठकों तक पहुंच पाती है तो इसमें आपकी भी बहुत बड़ी भूमिका है. आखिर में एक धन्यवाद प्रो. विवेक सर को. अब तक के सफर में कई लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से साथ चलें लेकिन विवेक कुमार सर इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं, जो तमाम व्यस्तताओं के बावजूद पहले दिन से लेकर आज तक पत्रिका के साथ खड़े हैं. पांचवे वर्ष के आगाज पर सभी पाठकों, प्रचारकों, शुभचिंतकों और साथियों को बहुत-बहुत बधाई. आगे का रास्ता कठिन है लेकिन जैसे अब तक चले हैं, आगे भी चलते जाना है.

बाबासाहेब से मेरा संवाद साकारात्मक संवाद है- श्योराज सिंह ‘बेचैन’

नाम: श्योराज सिंह ‘बेचैन’ जन्मः  5 जनवरी, 1960 जन्म स्थान: गांव नंदरौली, तहसील- गुन्नौर, जिला- बदायुं चर्चित रचनाएं:   क्रोंच हूं मैं (कविता संग्रह) हिन्दी अकादमी द्वारा प्रकाशित नई फसल (कविता संग्रह) दलित क्रांति का साहित्य मेरा बचनप मेरे कंधों पर (आत्मकथा) भरोसे की बहन (कहानी संग्रह) फूलन की बारहमासी (लोक मल्हार) हिन्दी दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव (शोध पत्र) श्योराज सिंह ‘बेचैन’ परिचय के मोहताज नहीं हैं. जिन लोगों की दलित साहित्य में थोड़ी भी रुचि है, वो इस नाम और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान से वाकिफ हैं. श्योराज सिंह ने लेखन के तमाम आयाम में जोरदार दस्तक दी है. उन्होंने पत्रकारिता की है, अखबारों में स्तंभ लिखते रहते हैं, कहानियां लिखी हैं साथ ही उनकी पहचान एक कवि के रूप में भी है. उनकी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ से उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. कई बार अपने विचारों को लेकर वह दलित समाज के बुद्धिजीवियों के बीच आलोचना के शिकार भी हुए. विगत 19 अप्रैल को राष्ट्रपति ने रचनात्मक साहित्य में उनके योगदान के लिए उनको सम्मानित किया है. इस पुरस्कार के केंद्र में श्योराज सिंह जी की आत्मकथा रही. आक्सफोर्ड उनकी आत्मकथा के अंशों को प्रकाशित करने की तैयारी में है. उनके साहित्यिक गतिविधियों और विवादों पर दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे बातचीत की.  सर सबसे पहले तो राष्ट्रपति सम्मान के लिए बधाई – धन्यवाद अशोक जी.  आपने अपने लेखन के केंद्र में दलित समाज को ही क्यों रखा? – बाकी चीजों के बारे में लिखने वाले बहुत लोग हैं. आमतौर पर किसी एक समस्या पर लिखने वाले पचासों लोग मिल जाएंगे लेकिन जब दलित मुद्दों की बात आती है तो लेखकों की गिनती सिमट जाती है. इसलिए मैंने इस विषय को चुना. आपका छात्र जीवन कैसा रहा ? – मुझे कभी भी किसी स्कूल का विधिवत छात्र होने का मौका नहीं मिला. मैं तो एक बाल मजदूर और अनाथ बच्चा था. जीवन चलाने के लिए मैं तमाम रिश्तेदारों के यहां भटकता रहा. मैंने सब्जी बेची, अंडा बेचा, ईट भट्ठा पर काम किया, अखबार डाला, बूट पॉलिश किया. पेट भरने के लिए बहुत काम किया. मैं उस दौर से गुजरा हूं, जिसमें कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि उनका बच्चा पढ़ सकता है. मैंने अपनी आत्मकथा में उन बातों का विस्तार से जिक्र किया है. सबसे पहले मैंने गलियों में घूम घूम कर नींबू बेचना शुरू किया. आवाज लगाया करता था कि, रस के भरे रसीले नींबू दस के दो पंद्रह के दो, हंस के लो भाई हंस के लो इस तरह कविता भी कहना सीखने लगा और साथ ही दो वक्त की रोटी भी कमाने लगा. अलग-अलग वक्त पर कई लोगों ने मदद की. मैं जितना पढ़ पाया हूं और जो कर पाया हूं, जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो सब सपना जैसा लगता है. लेकिन जब आप विधिवत छात्र रहे ही नहीं तो फिर इतना कैसे पढ़ पाएं? – पढ़ाई से एक लगाव था. जितना भी पढ़ पाता था, उसको दोहराया करता था. किताबें नहीं थी, लेकिन बसों के पीछे, दीवालों पर जो भी लिखा होता उसे पढ़ता रहता था. रद्दी अखबार खूब पढ़ता था. कुछ पैसे मिलते तो किताबें खरीद कर उसे पढ़ता था. पढ़ाई के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना घटी. मेरे गांव में श्रमदान से एक स्कूल बन रहा था. उसमें मैं भी अपनी बस्ती के एक-दो लोगों के साथ गया था. मैं ईट दे रहा था. ईट देने के दौरान मैं खुद की बनाई कविताएं गाता जा रहा था. एक अध्यापक कुंवर बहादुर उसको सुन रहे थे. उन्होंने पूछा कि जो गा रहे हो वह किसकी कविता है. मैंने कहा कि मैंने खुद बनाई है. उन्होंने और गाने सुने. वह मुझे हेडमास्टर के पास ले गए. वह सज्जन व्यक्ति थे. उन्होंने मेरा टेस्ट लिया और मुझे दाखिला दिलाने को कहा. लेकिन मेरे सामने पेट की समस्या थी. क्योंकि मैं मेहनत करता था, फिर खाता था. तो बात वहीं खत्म हो गई क्योंकि वो मुझे स्कूल में तो दाखिला देने को तैयार थे लेकिन मेरी रोटी और कपड़ों का जुगाड़ कौन करता? उसी दौरान मैं प्रेमपाल सिंह यादव नाम के शिक्षक से टकराया. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि वो मुझे पढ़ाएंगे बदले में मुझे उनके घर रहना होगा और घर का काम करना होगा और वो बदले में खाने और कपड़े का इंतजाम करेंगे. मेरा पढ़ने का मन था तो मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. हालांकि प्रेमपाल सिंह ने भी हमें धोखा दिया और एक साल तक सिर्फ घर का काम ही कराते रहे. फिर भी तमाम दिक्कतों के बीच मैं स्कूल में खुद की कोशिश से पढ़ता रहा. दसवीं के बाद मैं कुछ दिनों के लिए दिल्ली आ गया. लेकिन फिर गांव लौट जाना पड़ा. मैं गांव में कॉलेज में प्रिंसिपल से मिला. तब राम निवास शर्मा ‘अधीर’ प्रिंसिपल थे. तब तक गांव में मेरे संघर्ष और कविता कहने की बात फैल चुकी थी. वो अच्छे से पेश आएं लेकिन एडमिशन खत्म हो चुका था और क्लास चलते एक महीने से ऊपर हो चुका था. असमर्थता जाहिर करते हुए उन्होंने मेरे सामने शर्त रखी. 15 अगस्त को स्कूल में 11वीं और 12वीं के बच्चों के बीच वाद-विवाद प्रतियोगिता होनी थी. उन्होंने कहा कि अगर मैंने उसे जीत लिया तो वो मेरा दाखिला करेंगे. यह स्कूल के नियम में भी था कि प्रतिभाशाली बच्चों को मौका मिलना चाहिए. मैंने वह चैलेंज स्वीकार किया. घर आकर तैयारी करने लगा. मैं थोड़ा परेशान था. हमारे बाबा जो कि नेत्रहीन थे, उन्होंने पूछा कि क्या हुआ. मैंने उन्हें शर्त बताई. तो उन्होंने कहा कि बेटा हम गरीब आदमी हैं. अगर पैसे की बात होती तो हम हार जाते. लेकिन यहां मेहनत की बात है और मेहनत में हम पीछे नहीं हैं. जहां तक बोलने वाली बात है तो बोलता तो तू है ही. उन्होंने बहुत हौंसला बढ़ाया. मैं सबसे ज्यादा नंबर लेकर आया तो इस तरह मेरा दाखिला हो गया. वहां से 12वीं कर के ग्रेजुएशन करने चंदौसी आ गया. उसके बाद बी.एड किया. फिर एम.ए किया. पीएच.डी किया. बीएड करने की वजह से दिल्ली में मुझे शिक्षक की नौकरी मिल गई. जेएनयू में मैंने तीन बार इंट्रेंस पास किया लेकिन मुझे इंटरव्यू में नहीं बुलाया गया. वहां पहले बहुत भेदभाव होता था. हालांकि मैंने बाद में वीरेन डंगवाल जी के गाइडेंस में पीएचडी की और बाद में नेट भी कर लिया. साहित्य के क्षेत्र में आपकी पहचान कब बननी शुरू हुई? – उस दौरान हिन्दी साहित्य में जो चल रहा था, मैंने उसकी आलोचना शुरू की. ‘हंस’ पत्रिका आलोचना को जगह देती थी. तो रचना के साथ-साथ आलोचना का काम भी मैंने किया. मैं दलित साहित्य को स्थापित करने की बहस में उतर गया. अखबारों में भी लगातार लिखने के कारण मुझे पहचान मिली. बाबासाहेब की पत्रकारिता पर मैंने पीएचडी की. टॉपिक था ‘हिन्दी दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव’. इस किताब को लिम्का बुक रिकार्ड में जगह मिली. क्योंकि यह अपने आप तरह का पहला काम था. सन् 2000 में महू में बाबासाहेब स्मारक समिति ने भी मुझे इसके लिए सम्मानित किया. जिन लोगों ने दलित साहित्य एवं पत्रकारिता को स्थापित किया, उसमें आप किनका योगदान मानते हैं? – स्थापना, आधुनिक चेतना और चर्चा की जो बात आई उसमें हम ओमप्रकाश वाल्मीकी को महत्व देंगे. हंस जैसी पत्रिका में लगातार जगह मिलना और रचनात्मक साहित्य की दिशा में उनका काफी काम रहा. थोड़ा इतिहास में जाने पर आप पाएंगे कि स्वामी अछूतानंद ने भी इसकी जमीन तैयार कर दी थी. रैदास और कबीर की परंपरा तो है ही. चिंतन में नैमिशराय जी और जयप्रकाश कर्दम जी का नाम लिया जा सकता है. दलित साहित्य को लेकर आज क्या बदलाव आया है? क्या लोग उदार हो गए हैं या फिर साहित्यकारों ने ऐसा काम किया है जिसे इग्नोर करना मुश्किल है? – कई मोर्चे पर काम हुआ है. कई लोग तो इसलिए आए क्योंकि दुनिया के स्तर पर अब साहित्य में अश्वेतों और तमाम उपेक्षितों की बात हो रही है. कुछ गैरदलित यह सोचकर आएं कि हम दलित साहित्य का नेतृत्व करेंगे और दलितों के बारे में लिख देंगे. लेकिन इसमें यह समस्या आई कि दलित अधिकार की बात करने लगा. गैरदलित बहुत अच्छा लिख सकता है लेकिन वह हमारा भोगा, हमारा अनुभव नहीं लिख सकता. आप अछूत नहीं हैं तो अस्पृश्यता की पीड़ा को आप कैसे महसूस करेंगे. साहित्य में अपने योगदान को आप कैसे देखते हैं? – मैंने कुछ क्षेत्र का चुनाव किया जहां काम करना जरूरी था. मैंने रिसर्च के क्षेत्र को चुना, मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र को चुना और मैंने शिक्षा को भी चुना. आप यह देखेंगे कि 1990 से पहले किसी भी विश्वविद्यालय में हिन्दी के किसी भी लेखक पर कोई काम नहीं हुआ था. मैंने जब पत्रकारिता का काम किया, उसी समय दलित कहानी, दलित कविता और दलित उपन्यासों की बात विश्वविद्यालयों में उठानी शुरू कर दी. आज हर विश्वविद्यालय में दलित साहित्य पर रिसर्च हो रहे हैं. इसका असर पाठ्यक्रम पर पड़ा. आज हर युनिवर्सिटी दलित साहित्य को पाठ्यक्रम में पढ़ाती है. ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस मेरी आत्मकथा का अंग्रेजी वर्जन ‘My Childhood upon My Shoulder’ प्रकाशित कर रही है. वहां अंडर ग्रेजुएट के बच्चों को टेक्सट बुक में यह पढ़ाया जाएगा. यह भी एक बड़ा योगदान है. आपकी तमाम किताबें सामान्य प्रकाशनों से प्रकाशित हुई है. आज दलित समाज के प्रकाशक भी हैं. तो उनमें और सामान्य प्रकाशकों में पुस्तकों के चयन आदि में क्या फर्क है? –  देखिए, दो-तीन बाते हैं. यह सच है कि तमाम प्रकाशक किताबों को महंगा छापते हैं जो तमाम लोगों की खरीदने की क्षमता से बाहर होता है. सामान्य प्रकाशकों के पास अभ्यस्त प्रूफ रीडर हैं. वो किताबों का प्रोमोशन भी करते हैं. उनके सामने चुनौती होती है तो वो किताबों की क्वालीटी पर भी ध्यान देते हैं. जो हमारे प्रकाशक हैं वहां दिक्कत यह है कि उनमें मोह होता है कि हमने जो लिखा है वह बहुत अच्छा लिखा है. संपादन की बहुत दिक्कत है. काबिल एडिटर बहुत कम हैं. दूसरा यह भी है कि साहित्य को हमारे प्रकाशक कम ही छाप रहे हैं. तीसरी बात यह कि इनकी पहुंच बहुत कम है. वो लाइब्रेरी में नहीं पहुंचा पाते हैं. किताबों पर चर्चा नहीं करा पाते हैं. कईयों को लगता है कि वह महत्वपूर्ण है और बाकी दूसरा महत्वपूर्ण नहीं है. अच्छा हो कि एक टीम बने और वह तय करे. उस टीम के बाहर का आदमी तय करे कि कौन सी रचना बेहतर है और कौन सी नहीं. क्या आपको ये सब ठीक होने की संभावना दिखती है? – बिल्कुल दिखती है. ऐसा तमाम जगहों पर होता है. मराठी में भी ऐसा हुआ है. यह भी एक आंदोलन है. ऐसा नहीं होने का नुकसान यह है कि बड़ा प्रकाशक भले ही आपको पैसे दे देगा लेकिन आपकी रचना को लाइब्रेरी में कैद करवा देगा. आपने जिनके लिए लिखा है वहां तक आप नहीं पहुंच पाएंगे. पाठकों के बीच पढ़ाई की रुचि पैदा करना भी आंदोलन का हिस्सा है. आप का बचपन जितना मुश्किल रहा, उसके बाद आज खुद को इस मुकाम पर देख कर कैसा लगता है? – सब सपना सरीखा लगता है. बचपन में अगर मैं गांव से नहीं निकला होता. दिल्ली नहीं आया होता तो शायद यह सब संभव नहीं होता. दुनिया को देखकर हम दुनिया के जैसे बनते हैं. जब मैं दिल्ली आया तब मैंने देखा कि मेरी उम्र के बच्चे कितने अच्छे कपड़े पहनते हैं, वो स्कूल जा रहे हैं. उसी को देखकर मेरे अंदर भी ख्याल आया कि मुझे मुक्त होना है. स्वतंत्रता हासिल करनी है. बाबासाहेब का आपकी जिंदगी में क्या महत्व है?  बाबासाहेब से तो मेरा संबंध हर कदम पर है. मैंने अपनी पीएचडी बाबासाहेब की पत्रकारिता पर की. जब मैं कॉलेज में नौकरी करने गया तो सबसे पहले मुझे अम्बेडकर कॉलेज मिला. 1990 में जब बाबासाहेब की जयंती का शताब्दी वर्ष मनाया गया तो मैं बहुत उत्साह में आ गया. मैंने तब ढ़ेर सारी कविताएं लिखी थी. बाबासाहेब ने मराठी में जो पत्रकारिता का काम किया है, उसका अनुवाद किया. मैंने मराठी सीखी. इसके बाद मैंने मूकनायक में बाबासाहेब द्वारा लिखे गए लेखों का हिन्दी अनुवाद किया था.  कई मुद्दों को लेकर आपकी आलोचना होती है. क्या आप कभी विचलीत होते हैं? – देखिए आलोचना कोई बुरी बात नहीं है. सार्वजनिक जीवन में आलोचना होती है. लेकिन यहां यह देखने वाली बात है कि क्या जिस चीज को लेकर आलोचना हो रही है, वह सही है या नहीं. क्या आलोचना करने वाला व्यक्ति आलोचना करने के योग्य है? जैसे मैं कई बिंदुओं पर बाबासाहेब से असहमत हूं. कई बार हम यह सोचने लगते हैं कि उन्होंने ब्राह्मण स्त्री से शादी क्यों कर ली. हमें लगता है कि इससे दलित समाज के लोग बाबासाहेब से दूर हो गए. अब उसको लेकर कई लोग मुझ पर अम्बेडकर विरोधी होने का आरोप लगाते हैं. अम्बेडकर विरोधी होकर के दलित समाज का कोई भी बुद्धीजीवी दो कदम भी नहीं चल सकता. लेकिन हां, बातों की समीक्षा करने का अधिकार तो है. बाबासाहेब से मेरा संवाद साकारात्मक संवाद है. जो उनका सम्मान करते हुए है और यह हमेशा होता रहेगा.

दलित साहित्य संघर्ष करने की प्रेरणा देता हैः जयप्रकाश कर्दम

जन्म- 5 जुलाई, 1958, स्थान- इंदरगढ़ी,गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) शिक्षा- एम.ए (दर्शन शास्त्र, हिन्दी, इतिहास) पी.एचडी – हिन्दी साहित्य चर्चित रचनाएं- छप्पर (उपन्यास),  गूंगा नहीं था मैं (कविता संग्रह), नो बार, कामरेड का घर, लाठी,पगड़ी, मजदूर खाता (सभी कहानी), द चमार्स (अनुवाद हिन्दी में), दलित साहित्य वार्षिकी (संपादक) वर्तमान में कार्यरत- निदेशक, केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय,भारत सरकार, नई दिल्ली। पता- बी-634, डीडीए फ्लैट्स, इस्ट ऑफ लोनी रोड, दिल्ली- 110093 ई-मेल- jpkardam@gmail.com हिन्दी साहित्य जगत में जयप्रकाश कर्दम एक जाना पहचाना नाम हैं. इन्होंने कविताएं लिखी हैं, कहानियां लिखी हैं. इनकी रचनाएं तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही है. उनका दखल स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों में भी है, जहां उनकी लिखी कविताएं और कहानियां पढ़ाई जा रही हैं. उनके साहित्यिक जीवन पर दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे बात की। लेखन की तरफ आपका झुकाव कब हुआ? – लेखन की ओर मैं 1976 में आकर्षित हुआ. तब पिताजी की मृत्यु हुई थी. उस दौरान मेरे मन में भविष्य के प्रति आशंका, अनिश्चय और दुख का मिश्रण था. तब मैं बहुत चीजें पढ़ता था. किसी व्यक्ति की दुख, वेदना आदि बातें मुझे बहुत आकर्षित करती थी. पहले कुछ छंदों से शुरुआत की, फिर कहानियां लिखी. 1976 में ही मैंने गांवों में परिवारों के बीच होने वाले बंटवारे की पृष्ठभूमि पर एक कहानी लिखी थी. वह गाजियाबाद से निकलने वाली एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. पहली बार कुछ छपने को लेकर एक खुशी और आत्मविश्वास जागा कि मैं भी लिख सकता हूं. तब साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता चला गया. मैं पढ़ता चला गया और लिखता चला गया. आपने दलित साहित्य को क्यों चुना? – मैं दलित साहित्य लिखूंगा ऐसा सोच कर मैं लेखन में नहीं आया. 1977-79 के बीच मैंने पत्रकारिता की. उस दौरान मैंने तमाम विषयों पर लिखा, लेकिन बाद में मैं सामाजिक विषयों पर केंद्रित हो गया. इसी बीच 1980 में मैंने भारतीय दलित साहित्य अकादमी के एक सम्मेलन में हिस्सा लगा, तब मुझे समझ आया कि दलित साहित्य जैसी भी कोई चीज होती है. इसी दौरान 1983 में मेरी एक किताब आई, ‘वर्तमान दलित आंदोलन’ उसके बाद दलित साहित्य की दिशा में आगे बढ़ने लगा. तब से काफी वक्त बीच चुका है। इस बीच आप ठोस क्या लिख पाए हैं? – एक लेखक के तौर पर मैं इसे परिभाषित नहीं कर सकता. यह पाठक और आलोचक तय करते हैं. लेकिन हां, मेरा एक उपन्यास ‘छप्पर’ 1994 में प्रकाशित हुआ और समीक्षकों और आलोचकों द्वारा उसे हिन्दी दलित साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है. यह उपन्यास उस दौर में आया जब दलित साहित्य स्थापित हो रहा था. मेरा पहला कविता संग्रह ‘गूंगा नहीं था मैं’ 1997 में आया. इस कविता संग्रह ने भी मुझे एक पहचान दी. मेरी एक कहानी ‘नो बार’ भी काफी चर्चित रही थी. मैंने ‘कामरेड का घर’ लिखा, यह दोनों कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. छप्पर और नो बार तमाम विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाया जा रहा है. इसके अलावा लाठी, पगड़ी और मजदूर खाता कहानी भी काफी चर्चित रही. ये कहानियां जीवन के यथार्थ पर आधारित है. साहित्य और दलित साहित्य, इन दोनों के बीच का फर्क क्या है? – साधारणतः जो भी चीजें लिखी जाती हैं उसे हम साहित्य मानते हैं. लेकिन साहित्य का एक बड़ा क्षेत्र है जिसमें दलितों का सवाल नहीं रहता है. जबकि जो साहित्य दलित समाज की समस्याओं पर, उनकी संवेदनाओं पर, उनके प्रश्नों और संघर्ष को अभिव्यक्त करता है, वो साहित्य दलित साहित्य है. प्रेमचंद दलितों के बारे में लिखने के बावजूद साहित्यकार रहते हैं लेकिन दलित समाज का कोई व्यक्ति जब साहित्य में अपनी भागेदारी निभाता है तो उस पर दलित साहित्यकार का ठप्पा लग जाता है, ऐसा क्यों? – मैं तो यह मानता हूं कि मैं साहित्यकार हूं और मैं साहित्य लिख रहा हूं. लेकिन यदि मुझे दलित साहित्यकार के नाम से पहचान मिलती है तो यह मेरे लिए गौरव की बात है. मुझे इस बात की खुशी है कि मैं उस वर्ग की समस्याओं को, उसके प्रश्नों को साहित्य के माध्यम से उठाने की कोशिश कर रहा हूं; जिसे बड़े-बड़े साहित्यकारों ने उपेक्षित रखा. लेकिन मेरा यह भी मानना है कि एक साहित्यकार साहित्यकार ही होता है. दलित साहित्यकार के प्रति स्वस्थ भाव नहीं रखने वाले लोग दलित समाज के लेखकों को दलित साहित्यकार कह कर उसे एक सीमा में बांधने की कोशिश करते हैं. जैसा कि आपने बताया कि पिताजी की मृत्यु के बाद आपका साहित्य में रुझान हुआ. तब आपकी उम्र भी बहुत कम थी. आप संघर्ष के उस दौर को कैसे याद करते हैं? – दिक्कतें तो बहुत थी. घर में खाने को नहीं था. हमारे पास जमीन नहीं थी. तब मैं 11वीं में था. पिताजी ने एक बड़ी बहन की शादी कर दी थी बाकी के बचे छह भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ा था. तब मेरे लिए पढ़ाई की बजाय परिवार को पालने की बड़ी जिम्मेदारी थी. मैं कॉलेज ना जाकर के पांच रुपये रोज पर मजदूरी करने जाता था. मजदूरी से वापस आकर रात को साथियों से पूछकर पढ़ता था. और जब मजदूरी नहीं मिलती थी तो मैं स्कूल चला जाता था. अजीब वक्त था. लगता था कि मैं अंधेरे कुएं में हूं. छटपटा रहा हूं और बाहर निकलने के लिए हाथ-पांव मार रहा हूं. मेरे पिताजी तांगा चलाते थे. जब वो बीमार रहने लगे तो स्कूल से आकर मैं तांगा चलाने भी जाता था. उस दौर में ढ़ेर सारे छोटे-मोटे काम करने पड़े. तो बहुत मुश्किल दौर था. उस दौर से निकलने की प्रेरणा कैसे मिली? – उस दौर में एक अच्छी बात भी हुई जिसने मेरे जीवन को काफी प्रभावित किया. एक बार मैंने लगातार पांच दिन काम किया था तो मुझे मजदूरी के 30 रुपये मिले थे. जब मैं गाजियाबाद से अपने गांव (कौन सा गांव.. मिसलगढ़ी गांव) जा रहा था तो रास्ते में रशियन किताबों का एक स्टॉल लगा था. वहां मुझे मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा मिली. उस आत्मकथा को पढ़ने के बाद मुझे यह प्रेरणा मिली कि मैक्सिम गोर्की सिर्फ तीसरी तक पढ़ा था. उसके मां-बाप बचपन में ही गुजर गए थे. वह भी फुटपाथों पर रहा था. इसके बावजूद इस मुश्किल दौर से निकल कर वह विश्वविख्यात हो गया. तब मुझे लगा कि मेरी स्थिति तो उससे काफी अच्छी है और जब मैक्सिम गोर्की इतनी मुश्किलों के बावजूद इतना बड़ा लेखक बन सकता है तो मैं भी कुछ कर सकता हूं. उस किताब ने मुझे प्रेरणा दी. उस मुश्किल दौर से निकल कर जयप्रकाश कर्दम बनने के सफर को आप किस तरह देखते हैं? – एक वक्त ऐसा था जब मेरे पास बीएससी में एडमिशन लेने के लिए 140 रुपये नहीं थे. इस वजह से मेरा एक साल बरबाद भी हो गया. लेकिन उसी दौरान सेल टैक्स, गाजियाबाद में मेरी नौकरी लग गई. उससे एक रास्ता खुला. तब मैं दिन में नौकरी करता था और रात को पढ़ाई. मैंने दिमाग में एक बात बैठा ली थी कि मेरे पास कुछ भी नहीं है लेकिन सबके बराबर 24 घंटे हैं. मैंने अपने एक-एक मिनट का इस्तेमाल किया. कुछ दिनों बाद इलाहाबाद में विजया बैंक में नौकरी मिल गई. वहां मैंने देखा कि सभी बच्चे पीसीएस की तैयारी कर रहे हैं, तो मैंने भी तैयारी की. यूपीएससी से सहायक निदेशक की वेकैंसी आई तो मैंने उस परीक्षा को पास कर लिया. इस दौरान मैंने कभी भी लेखन नहीं छोड़ा. इस दिशा में लगातार सक्रिय रहा. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के तहत राजभाषा विभाग है, वर्तमान में मैं उसके केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान में निदेशक के पद पर हूं. हाल ही में घटित तमाम घटनाओं को लेकर दलित समाज के भीतर एक आक्रोश दिख रहा है, इसमें साहित्य की कितनी भूमिका रही है? – साहित्य अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा देता है. यह संघर्ष करने की प्रेरणा देता है. इस दौर में साहित्य ने युवाओं को यह ताकत दी कि आपकी जो जायज मांगें हैं, जो अधिकार हैं, उन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए आप रुके नहीं. न ही किसी के भरोसे बैठे रहें. अपनी आवाज खुद उठाएं और जहां तक उसे पहुंचा सकते हैं, पहुंचाए. दलित साहित्य का भविष्य कैसा है, क्या यह सही दिशा में जा रहा है? – मुझे इसका भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है. फिलहाल इस समाज की सामाजिक स्थिति बदलने की संभावना दिखाई नहीं देती है. समाज रहेगा, समाज की समस्याएं रहेंगी तो उन समस्याओं की अभिव्यक्ति भी होगी. वर्तमान में तमाम पृष्ठभूमि से निकल कर लेखक आ रहे हैं, उनके विचारों में विविधता होगी मुझे लगता है कि यह साहित्य को समृद्ध करेगी.

राजनीति फेल्योर लोगों का जमावड़ा है – संजय पासवान

राजनीति में आने के पहले के अपने जीवन के बारे में बताइए। – राजनीति में स्टूडेंट लाइफ में ही आ गए थे. थैंक्स टू सीपीआईएमएल मूवमेंट. पटना साइंस कालेज में पढ़ने के दौरान ही हम उनके स्टूडेंट विंग में शामिल हो गए थे. उन दिनों से ही पॉलिटिक्स में आने के प्रति इच्छा जगी. लेकिन बाद के दिनों में लगा कि अगर हाऊस की राजनीति करनी है, पार्लियामेंट में जाना है तो शायद सीपीआईएमएल के माध्यम से वहां जाना संभव नहीं है. तब मैने मेनस्ट्रीम पार्टी में जाने का मन बनाया. तभी शादी भी करनी थी लेकिन दिक्कत यह थी कि कोई बाप नेता को अपनी बेटी नहीं देता है. शादी करने के लिए नौकरी जरूरी थी. तो 1986 में मैं इलाहाबाद बैंक में पीओ हो गया. जुलाई 86 में मैंने नौकरी ज्वाइन की और इसी साल दिसंबर में शादी कर ली. आप यह कह सकते हैं कि मैनें शादी करने के लिए नौकरी की. बाद में 1996 में मैने बैंक पीओ की नौकरी छोड़ दी और पटना यूनिवर्सिटी में लेक्चरार हो गया. यहां यह सुविधा रहती है कि आप लंबी छुट्टी पर जा सकते हैं. अभी तो हम फुल टाइम पॉलिटिक्स में हैं. शुरुआत में धक्के खाने के बाद अब राजनीतिक जीवन में सेटल हो गए हैं. पिता इंजीनियर थे तो अपने बचपन में मैंने बहुत अभाव नहीं देखा. लेकिन स्वभाव से हमने वंचनाओं को समझा. बाद के दिनों में जब पब्लिक लाइफ में आ गए तो बहुत कुछ सीखने और जानने का मौका मिला. यानि आपका राजनीति में आना संयोग नहीं रहा, बल्कि आप पूरी प्लानिंग के साथ आए। – बिल्कुल सही सवाल किया आपने. हमने अनुभव किया है कि हमलोगों की पीढ़ी तक नब्बे तक दलित समाज के जो लोग राजनीति में आते थे, वह लाए गए होते थे. चूकि सीट रिजर्व थी तो उस समय के विकसित समाज के लोग दलितों को जबरिया राजनीति में लाते थे. किसी को ब्राह्मण लेकर आता था तो किसी को राजपूत. और ये लोग आने के बाद उनकी तिमारदारी करते थे. असली शासक वही लोग होते थे. रामाविलास पासवान भी अगर राजनीति में आए तो अपने कंविक्शन से नहीं आए, बल्कि उनको नौकरी नहीं मिली इसलिए आएं. बल्कि वह कुछ लोगों द्वारा लाए गए थे. मेरे मन में ये बात पहले से ही रही कि आखिर हमारे लोग कब खुद से आएंगे और पॉलिटिक्स को अपना करियर मानेंगे. मैं मानता हूं कि अपनी रुचि और अपने कंविक्शन से राजनीति में आने वाली जो पीढ़ी है, जिसमें 10-20 लोग आएं. उसमें मैं संजय पासवान भी शामिल हूं. मैं अच्छी-खासी नौकरी को छोड़कर इसमें आया और मुझे संतुष्टी है कि मेरा राजनीति में आने का फैसला सही था. सारे लोग स्वीकार भी कर रहे हैं और स्वीकार से ज्यादा अंगीकार कर रहे हैं. राजनीति शुरू करने के लिए आपने भाजपा को ही क्यों चुना ? – 1985-86 की बात है. उस वक्त कांग्रेस पार्टी अपने चरम पर थी. केंद्र की राजनीति में उसका पूरा बहुमत था. बिहार विधानसभा सहित देश के अधिकांश राज्यों में उसी का शासन था. जब मुझे भी मेनस्ट्रीम की राजनीति करनी थी तो लोगों ने कहा कि कांग्रेस में जाओ तभी एमएलए, एमपी हो सकते हो. मैने कांग्रेस में आना-जाना शुरू किया तो देखा कि वहां बहुत लंबी लाइन लगी हुई है. ऐसे में हमलोगों को मौका मिलते-मिलते दो-तीन दशक गुजर जाएगा. वहां पर बहुत ज्यादा चापलूसी भी थी जो मुझे पसंद नहीं आई. तब गैर कांग्रेसी दल के नाम पर लोकदल था. तमाम सोशलिस्ट पार्टियां थी. वहां भी दलित समाज की भीड़ थी. हम ऐसी पार्टी में जाना चाहते थे जहां हमारी पूछ हो और हमारी स्वीकृति हो. उन दिनों (85-86) में भाजपा; बिहार में एक छोटी सी उभरती हुई पार्टी थी. वहां बात शुरू हुई तो लगा कि लोग यहां हमें स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. तो भाजपा में जाने की वजह यह थी कि वहां एक स्पेस था. चूंकि मैं राजनीति में अपनी इच्छा से जा रहा था इसलिए मेरे लिए यह अहम था कि मैं वहां जाऊं जहां मैं अपने मन की बात कर सकू. तो आप कह सकते हैं कि भाजपा में जाने की वजह वहां स्पेस का होना था. मुझे बिहार भाजपा में स्पेस और सम्मान मिला भी. दलितों को समाज में सबसे नीचे रखा गया है. जाहिर है इसके लिए हिंदुवादी व्यवस्था जिम्मेदार है. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है, ऐसे में भाजपा में रह कर दलित हित की बात करना कितना संभव है ? – देखिए…. हिंदुइज्म की बात जो भाजपा के लोग या बाकी लोग करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट ने जो हिंदुइज्म की परिभाषा दिया कि यह जीवन पद्धति है. मेरी उससे सहमति है. पार्टी की बात है तो भाजपा को जमींदारों और कुछ वणिक समाज के लोगों ने शुरू किया था. तब व्यापार में नॉन हिन्दु मसलन, पारसी, जैन और मुसलमान ज्यादा थे. ये सब कांग्रेस के साथ थे. तो हिन्दु व्यापारियों ने कहा कि हमारी भी एक पार्टी होनी चाहिए. उस समय हिन्दुइज्म को लेकर चलने की बात एक पॉलिटिकल टूल था. तब भाजपा को लोग ब्राह्मण-बनिए की पार्टी कहते थे. आज डेमोक्रेसी ने बीजेपी को भी डेमोक्रेटाइस कर दिया है. भाजपा पहले से विस्तृत हुई है. आज यहां जैन भी है, बुद्धिस्ट भी हैं, हमलोग भी हैं. आज की भाजपा का हिन्दुइज्म संपूर्ण हिन्दू समाज है. अब लोग उतना बड़ा दिल कर के चल रहे हैं. आज अगर लोग नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर रहे हैं तो इसी कारण से क्योंकि एक गरीब का बच्चा, एक तेली समाज के लड़के को अगर पीएम के रूप में लाने की बात हो रही है तो यह बड़ी बात है. आपने ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिया. लेकिन जो देश का इतिहास है, उसमें गैर ब्राह्मणों को प्रधानमंत्री का पद मिलना काफी मुश्किल है. इतिहास गवाह है कि बाबू जगजीवन राम जी सिर्फ अपनी जाति के कारण पीएम नहीं बन पाएं. यह भी कहा जाता है कि जो आडवाणी भाजपा को इतना आगे लेकर आएं, वह भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएं. क्योंकि देश की ब्राह्मणवादी ताकतें वाजपेयी जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. ऐसे में क्या मोदी प्रधानमंत्री बन पाएंगे ? – देखिए देश में जो है, राज-समाज. यानि राज से समाज प्रभावित होता है और समाज से राज प्रभावित होता है. राजनीति के लोगों ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस देश का पीएम गैर ब्राह्मण हो सकता है. कांग्रेस ने गैरब्राह्मण डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया. अब चूकि राज स्वीकार कर रहा है और समाज उसे स्वीकार करने के लिए बैठा हुआ है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसमें कहीं चाल-वाल है. और आपने जो अटल बिहारी वाजपेयी की बात कही तो वाजपेयी से ज्यादा समाज को कौन समझता था. मुझे वो घटना याद है, जब एक दलित नेता ने वाजपेयी जी को ‘जय श्रीराम’ कहा तो वाजपेयी जी ने उससे कहा कि अरे भाई मैने तो तुमको भेजा है ‘जय भीम’ करने के लिए, तू क्यों जय श्रीराम कर रहा है? तुम जय भीम बोलो तब दलित समाज तुमसे और भाजपा से जुड़ेगा. आप समझ सकते हैं कि उनका दिल कितना बड़ा था. अगर कोई अपना दिल बड़ा नहीं करेगा तो इस देश में शासन करना बड़ा मुश्किल है. तो केवल ब्राह्मण होना ही नहीं बल्कि सुयोग्य और काबिल होना भी अटल जी के पीएम बनने में महत्वपूर्ण मापदंड रहा है. नरेंद्र मोदी के मामले में भी यह बात साबित होती है. राजनीतिक दलों में ये जो सेल (मोर्चा) की परंपरा है, जैसे अनुसूचित जाति सेल एवं अन्य सेल. क्या वह तुष्टीकरण नहीं है? – मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं. यह बिल्कुल तुष्टीकरण है और लोगों को समायोजित करने का तरीका है. चाहे यह कांग्रेस करे, हम करें या अन्य पार्टियां करे. पार्टी के मुख्य ढांचे में ही विभिन्न जातियों को रखकर काम किया जा सकता है लेकिन सेल के माध्यम से लोगों को अकोमोटेड किया जाता है ताकि कई लोग हिस्सेदार-भागीदार बने रहे. और लोग इससे खुश भी होते हैं. और जब लोग खुश हैं तो ऐसे किसी बदलाव का स्वागत करना चाहिए. पार्टी के राष्ट्रीय मंचों पर अनुसूचित जाति के अध्यक्षों की भागीदारी महज 14 अप्रैल तक ही सिमट कर क्यों रह जाती है. – पार्टी के मोर्चा या सेल में उन्हीं लोगों को एडजस्ट किया जाता है जिनको पार्टी मानती है कि ये एवरेज (औसत) लोग हैं. जैसे मैं भी अपनी पार्टी की नजर में एक एवरेज व्यक्ति हूं. ऐसे में पार्टी इनको मुख्यधारा में नहीं रख के मोर्चा (सेल) में रख देती है. हम ये मानते हैं कि औसत किस्म के लोगों को सेल, मंच में एडजस्ट किया जाता है इसलिए औसत काम दिखाई देता है. इसलिए वो लोग खास मंचों पर दिखाई पड़ते हैं. जिस दिन मोर्चे में कुछ जीनियस लोग आने शुरू हो जाएंगे तो पार्टी में कुछ काम अच्छे होंगे. हमारे बंगारू लक्ष्मण जी पहले मोर्चा के अध्यक्ष थे फिर वो राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए. उनकी योग्यता और क्षमता को देखकर पार्टी ने उनको आगे बढ़ाया. आपने बंगारू लक्ष्मण जी का नाम लिया. एक बात यह भी चर्चा में रही थी कि वो जिस तरह कैमरा के सामने आए, फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, उसमें पार्टी के ही कुछ लोगों का हाथ था? – नहीं.. नहीं…। ये महज दुरसंयोग था. पार्टी ने ही उनको अध्यक्ष बनाया, अगर पार्टी चाहती तो उनको अध्यक्ष नहीं बनाती. यह बंगारू लक्ष्मण का दुर्भाग्य था कि ऐसी स्थिति बन गई. बतौर अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष पार्टी से दलित समाज को जोड़ने के लिए आपकी क्या रणनीति है, आप कैसे काम करेंगे? – पार्टी के दस प्रतिशत वोट को बढ़ाने का लक्ष्य है. हमने आते ही कहा कि अनुसूचित जाति मोर्चा दलितों के रूप में चार प्रतिशत वोट बढ़ाने की जिम्मेवारी लेता है. इस कारण से मैने अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों से कहा कि इसके लिए मुझे आजादी देनी होगी. उस चार प्रतिशत वोट के लिए हम प्रयास कर रहे हैं. मैने चार प्रमुख दलित व्यक्तित्व (आईकान) की तस्वीर को प्रमुखता से अपनी बैठकों में, अपने कार्यालयों में लगाया है. हमने अपने (मोर्चे के) जिला कार्यालयों से भी कहा है कि वह चार लोगों को अपना आईकान माने. डॉ. अंबेडकर के बाद नंबर दो में बाबूजगजीवन राम, नंबर तीन में के. आर नारायणन और फिर नंबर चार कांशीराम जी. इन चारों में कोई भी ओरिजनली बीजेपी से नहीं है. इसको लेकर थोड़ी कंट्रोवर्सी हुई लेकिन हमने कहा कि हमारा समाज इन चारों को जानता है और इनको एक राजनेता से बड़ा दर्जा देता है. इन चारों को हमने पार्टी में स्वीकार कराया. पार्टी के बड़े नेताओं ने इस थ्योरी को स्वीकार किया. इन चारों के नाम पर हम चारों दिशाओं में चार यात्राएं प्लॉन कर रहे हैं. हमलोगों ने मुख्य रूप से चार समूह को आईडेंटिफाई किया. एक दलित महिला, दलित बुद्धिजीवी, दलित श्रमजीवी और दलित उद्यमी. हम इन चार वर्गो में विशेष रूप से काम कर रहे हैं. इनसे संवाद कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इन चार वर्गों में काम करने से हम कामयाब होंगे. कांग्रेस मुक्त समाज बनाने के लिए जो चार कंधा चाहिए वो चार कंधा हम देंगे. इस चार प्रतिशत वोट की बदौलत हम कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर के भाजपा को सत्ता में लाएंगे. आपने चार समूहों की बात की. इसमें आपने दलित उद्यमियों का भी नाम लिया. दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की को आप कैसे देखते हैं? – मोर्चा का अध्यक्ष बनने के बाद तुरंत ही मैने भाजपा के मंच से डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले का अभिनंदन किया. इस दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद, हो सकता है उनके अपने विचार किसी अन्य पार्टी के साथ हो लेकिन उनका संबंध शुरू से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से रहा है. उनको हमारी शुभेच्छा है कि वो और आगे बढ़ें. उन्होंने समाज को एक नया आयाम दिया है कि दलित भी पूंजीपति और उद्यमी हो सकता है. दलित उद्यमी संवाद के माध्यम से हम उन्हीं की बात को भाजपा के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं. संवाद के जरिए हम बुद्धिजीवी, स्त्रियों, श्रमजीवी और उद्यमी के साथ मिलकर चार प्रतिशत वोट बढ़ाने के काम में लगे हैं. मोर्चे का अध्यक्ष बनने के बाद आपने दलित दस्तावेज जारी किया. इसके पीछे क्या उद्देश्य था? – दलित दस्तावेज में मेरी सोच है. और यह सोच भाजपा की भी हो, ऐसा अभी नहीं है. इसलिए हमने इसे राष्ट्रवादी अंबेडकरवादी महासभा के जरिए प्रकाशित किया है. मैं खुद इस संगठन का संयोजक हूं. हम प्रयास करेंगे कि दलित दस्तावेज की सोच भाजपा की भी हो जाए. मैं इस प्रयास में लगा हुआ हूं. ये हमारी योजना है. फिलहाल यह ड्राफ्ट की शक्ल में है. आने वाले छह दिसंबर को हम इसे और ज्यादा एक्सपेंड करने वाले हैं. तब हम फाइनल दस्तावेज पास करेंगे. हमारा प्रयास है कि इस बात पर संघ परिवार और भाजपा परिवार दोनों सहमत हो. हमारी यह भी कोशिश रहेगी कि इसके अंश भाजपा के मेनिफेस्टो (घोषणा पत्र) में जुड़े. यानि क्या हम संजय पासवान को ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में देखें जो भाजपा में रहते हुए भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं? – ये आपने सही कहा लेकिन यह भी है कि अपने अनुसार पार्टी को चलाना कहीं न कहीं मनमाना पन भी है. कुछ लोग ऐसा इल्जाम लगाते भी हैं कि संजय पासवान मनमौजी किस्म का आदमी है. लेकिन मैं चाहता हूं कि भाजपा के फ्रेम वर्क में रह कर के, देश हित को ध्यान में रख कर के दलित हित भी हो, देश हित भी हो, दल हित भी हो और स्वहित भी हो, मैं ऐसा प्रयास कर रहा हूं. भाजपा के लोग बहुत बातें समझते हैं ऐसा भी नहीं है. जैसे मैने कहा कि अगर हम गरीबों की बात करें तो सबसे ज्यादा दलितों का कल्याण होगा. अगर हम करप्शन की बात करेंगे तो भी सबसे ज्यादा दलितों का हित होगा क्योंकि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित यही तबका है. यानि जितना करप्शन खत्म होगा, गरीबी खत्म होगी, उतना ही शिड्यूल कॉस्ट लाभान्वित होगा. हमने पार्टी के लोगों से कहा कि इन मुद्दों पर हमारा एससी मोर्चा बैनर लेकर आगे रहेगा क्योंकि यह मुद्दा हमारे समाज से जुड़ा हुआ है. मैं सरकारी क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ हूं. हमारी पार्टी भले ही इसके पक्ष में रहे. हम दलितों को इस बात की लड़ाई लड़नी चाहिए कि सरकारी क्षेत्र का निजीकरण अविलंब बंद हो. इस बात को लेकर मैं पार्टी में भी लड़ने वाला हूं कि हम विनिवेशीकरण नहीं करेंगे. क्योंकि सरकार के हाथ में चीजें रहेंगी तो अपने आप आरक्षण का लाभ मिल जाएगा. इसलिए इसकी बजाय की निजी क्षेत्र में आरक्षण हो, मैं इस बात की मांग करता हूं कि निजी क्षेत्र का अस्तित्व ही खत्म हो. निजी क्षेत्र ने इस देश का नुकसान किया है; आगे और करेगा. इसलिए यह अविलंब बंद होना चाहिए. पहली बार ऐसा हुआ जब किसी पार्टी के दफ्तर में किसी अन्य पार्टी से जुड़े लोगों की तस्वीर लगी. इस पर पार्टी के लोगों का रिएक्शन क्या था ? – पार्टी के जो टॉप टेन लीडर हैं, उनमें से किसी ने भी आपत्ति नहीं की. लेकिन बीच के जो टॉप 20 लीडर्स थे, उनलोगों को दिक्कत थी. कई लोगों ने इस बारे में मुझसे आपत्ति भी दर्ज कराई. बाद में जब मैनें टॉप लीडर्स से बात किया तो सबकी सहमति थी. मैने लोगों से कहा भी कि मुझे आजादी चाहिए. मैने कहा कि अगर आप चाहते हैं कि दलित भाजपा में आएं तो मुझे आजादी देनी होगी. मैं राजनाथ सिंह जी और नरेंद्र मोदी जी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे आजादी दिया. और एक बयान, जिसे आडवाणी जी ने दिया था, मुझे उससे भी ताकत मिली. आडवाणी जी ने लोहिया की चर्चा की थी. उन्होंने कहा कि लोहिया रामायण मेला लगाते थे और ऐसे लोहिया को हमें याद करना चाहिए. चाहे किसी पार्टी के हों पर जो लोग हमारे हित की बात करते रहे हैं और अब इस दुनिया में नहीं हैं उनको हम मानेंगे. इसमें पार्टी के टॉप लीडर की मुझे न सिर्फ सहमति मिली बल्कि उन्होंने मेरे हिम्मत को बढ़ाया. भाजपा के अलावा आप किन-किन पार्टियों में रहे? – मैं भाजपा छोड़ने के बाद कई पार्टियों में गया. मैं लालू जी के साथ राजद में रहा, रामविलास पासवान जी के साथ गया, कांग्रेस में भी रहा. सबको नजदीक से देखने के बाद मुझे लगा कि भाजपा में गंदगी तो थी लेकिन दूसरी जगहों पर ज्यादा गंदगी है. अंतत्वोगत्वा फिर से भाजपा में लौट आया. भाजपा का दलित समाज से तालमेल कैसे हो, हमलोग इसको करने में लगे हुए हैं. दल में भी दलित की बात हो और दलित में भी दल की बात हो, इस प्रयास में लगे हुए हैं. अनुसूचित जाति मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मैं पार्टी को अपना पूरा समय दे रहा हूं. फिलहाल मैने युनिवर्सिटी छोड़ रखी है और पूरा समय इस कोशिश में लगा रहा हूं कि भाजपा में कैसे दलित का प्रवेश हो, और दलितों में कैसे भाजपा का प्रवेश हो. इन दोनों काम में लगा हुआ हूं. जैसा कि आपने बताया कि आप तमाम दलों में रहे हैं. हर पार्टी की अपनी अलग-अलग विचारधारा है. तो विचारधारा को लेकर आपमें द्वंद नहीं है? – द्वंद था. तभी मैं तमाम दलों में गया था. मैंने शुरुआत की माले जैसी पार्टी से जो बिल्कुल दलितवादी पार्टी है, जनवादी पार्टी है, गरीबवादी पार्टी है. तो मन में ऐसा ही भाव था. मेरी जो तड़प थी; मैं उसी की तलाश में गया था. मैं भाजपा से सांसद हो गया था. मिनिस्टर हो गया था. बहुत आभारी हूं भाजपा का. लेकिन जो जनवादी विचारधारा थी वो मैं तलाश रहा था कि कोई ऐसी पार्टी मिले जिसमें आंतरिक लोकतंत्र हो, गरीबों के प्रति बनावटी नहीं असली सहानुभूति हो. भाव में दांव नहीं छिपा हो. लेकिन तमाम पार्टियां दांव वाली लगी. लेकिन थोड़ा-बहुत दांव कम लगा तो भाजपा में लगा. क्योंकि भाजपा में शिड्यूल कॉस्ट के लोग कम हैं. लेकिन जो लोग थे, मुझे लगा कि वहां भावपूर्ण बात है. मैंने देखा कि संघ परिवार में हिन्दू दलितों के लिए अगाध प्रेम है. यह मुझे बहुत अच्छा लगा. इन सब वजहों से ही मैं भाजपा में दुबारा आया. अब मैं प्रयास कर रहा हूं कि दलितों का हिस्सा और दलितों की भागीदारी भाजपा में सत्ता की जगहों पर हो. आप बिहार से आते हैं. आप सांसद बनें, मिनिस्टर बनें लेकिन बिहार की राजनीति में ज्यादा सफल नहीं हो पाएं, तो इसका मलाल तो रहा होगा. इसकी क्या वजह थी ? – आपने सही कहा. मेरे भाजपा छोड़ने की भी वजह यही थी. इसमें दो-तीन बातें हैं. 2002 में मेरा बिहार प्रदेश का अध्यक्ष बनना तय हो गया था. लेकिन मेरी किसी गलती कि वजह से वह मेरे हाथ से निकल गया. मुझे इस बात से बहुत कष्ट हुआ. क्योंकि इसके लिए मैं भाजपा सरकार में मंत्री पद छोड़ने को तैयार था. इसमें विफल होने के बाद मेरे मन में टीस सी बैठ गई. बात आगे बढ़ती गई और मैने तभी पार्टी छोड़ दिया. मोटा-मोटी कहें तो सांसद होने के नाते प्रदेश की राजनीति में स्पेस कम मिलता है. उस समय मैं पार्टी का राष्ट्रीय मंत्री भी था. राष्ट्रीय मंत्री होने के नाते मैं उड़िसा और अरुणाचल प्रदेश का प्रभारी था. इस वजह से उधर ही ज्यादा घूमना होता था और बिहार जाने का मौका कम मिलता था. बहुत चाहने के बावजूद मैं बिहार की राजनीति में धुरी नहीं बन सका. लेकिन इस बार मैं प्रयास कर रहा हूं कि मैं बिहार की राजनीति की धुरी बन सकू. मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद मैं आधा वक्त बिहार को और आधा वक्त शेष देश को देना चाह रहा हूं. 11 अप्रैल 2004 को आप पर हमला हुआ था, वह राजनीतिक हमला था या फिर उसके सामाजिक कारण थे. – वह बिल्कुल चुनावी हमला था. विधानसभा चुनाव के दौरान एक व्यक्ति टिकट चाह रहे थे. वह बड़े आपराधिक किस्म के थे. मैनें उनका टिकट काट दिया था. उस खुन्नस में उन्होंने मुझपर हमले करवाए थे लेकिन भगवान ने हमको बचा लिया. मैं उनलोगों का आभारी हूं जिन्होंने मुझे बचाया और हमलावरों को खदेड़ दिया. मैं नवादा के उन तमाम लोगों का आभारी हूं जिन्होंने न सिर्फ मुझे सांसद बनाया बल्कि मेरी जान भी बचाई. हालांकि हमले करने वाले भी नवादा के ही लोग थे. आप मानव संसाधन विकास मंत्री भी रहे. इस दौरान वो कौन से निर्णय थे जिसे आप खास मानते हैं. – देखिए मिनिस्टर ऑफ स्टेट का कोई मतलब नहीं होता है. असल में यह कुछ लोगों का समायोजन करने के लिए होता है. मैं खुलेआम कहता हूं. लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि हमारे वक्त में ही सर्वशिक्षा अभियान शुरू हुआ और मैं इसका इंचार्ज मिनिस्टर था. माननीय जोशी जी ने मुझे जो काम दे रखा था वह था प्राइमरी एजुकेशन एंड लिट्रेसी. इसी में सर्वशिक्षा अभियान था. तो मुझे इसे शुरू करने का गर्व है. इसके अलावे मैं कम्युनिकेशन में भी डेढ़ साल तक मिनिस्टर था. बिहार की राजधानी पटना में मोबाइल रामविलास जी ने दिया था लेकिन शेष बिहार में मोबाइल ले जाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह दिवंगत प्रमोद महाजन और संजय पासवान को जाता है. यह मेरे काल में हुआ था. डायन कह कर सबसे ज्यादा दलित महिलाएं प्रताड़ित होती हैं. अंधविश्वास ने भी सबसे ज्यादा दलितों का ही नुकसान किया है. इसके बावजूद आपने मंत्री रहते तंत्र-मंत्र की वकालत की थी. अपने उस कदम को आप कितना सही मानते हैं. – तंत्र-मंत्र और आस्था को अंधविश्वास समझने से मुझे आपत्ति है. ये अलग है. अंधविश्वास सुपरसिसन है, आस्था ट्रस्ट (विश्वास) है. इसमें बहुत कम का फर्क है. ऐसा समझिए की एक पतली सी लाइन है दोनों के बीच में. हम ये मानते हैं कि उसमें जो साइंस है, जो सेंस है हमें उसको तराशना चाहिए. जैसे हम जिस जाति से आते हैं उसमें लोग आग पर चलते हैं. मैं खुद उन दिनों आग पर चला और मुझे कुछ हुआ नहीं. चाहे जो भी कारण रहा हो. हमारा अतिउत्साह रहा हो, या फिर टेक्नीक और टेक्टीस रहा हो. और अगर कुछ टेक्नीक और टेक्टीस है तो मुझे लगता है कि हमें उसको जानना चाहिए. आप उसको फोक विजडम (लोक परंपरा का ज्ञान) कह लें. जैसे आज फोक सांग की बात हो रही है तो अगर कुछ फोक प्रैक्टिसेस हैं तो उसको देखना चाहिए. आज डिस्कवरी और हिस्ट्री जैसे चैनल इसी चीज के पीछे लगे हुए हैं. हमारी जाति के कुछ लोग वैद्यगिरी भी करते थे, हालांकि वह आफिसियली वैद्य नहीं थे लेकिन उनकी दवाओं से लोग ठीक होते थे. तो इन सब विधाओं में जो सेंस छिपा है मैं उसकी बात करता था. मैं डायन प्रथा का संरक्षण कर रहा था ऐसी बात नहीं है. जब तोता वाला पंडित सड़कों पर तोता लेकर बैठता है या फिर बसहा बैल लेकर घूमता है तो लोग उसको हाथ दिखाते हैं, समाज उसे कबूल करता है तो फिर अगर हमारा भगत या फिर ओझा लोगों के ऊपर हाथ फेरता है तो उस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए. आज रामदेव, आसाराम यही कर रहे हैं. शहरों के इन संत महात्माओं की तो पूछ है लेकिन गांवों में जो दलित समाज का संत-महात्मा है, उसको लोग अंधविश्वास कहते हैं. मेरी आपत्ति और लड़ाई इसी बात से थी. शहरों के बाबा लोग तो भगवान है लेकिन गांवों में ऐसे काम करने वाले दलित समाज के लोगों का उत्पीड़न होता है. चाइना में बियरफुड (बगैर डिग्री वाले, परंपरागत) डॉक्टर हैं, बियरफुड इंजीनियर हैं. ऐसे ही इंडिया में जो बियरफुड का सिस्टम रहा है तो उनलोगों को भी सम्मान देना चाहिए. आदिवासी समाज की ऐसी ही बातों को बचाया (Preserve) जा रहा है लेकिन दलित समाज के ऐसे काम Preserve नहीं हो पा रहे हैं. आज भी हमारे यहां तो दलित समाज के एक विशेष वर्ग की महिलाएं हैं, बच्चा पैदा करवाने की तकनीक उनसे अच्छा कौन जानता है? जब आज हॉस्पीटल में सीधे बच्चे का पेट फाड़ कर निकाल दिया जाता है लेकिन हमारी ये महिलाएं गर्भवती महिलाओं को कोई नुकसान पहुंचाए बिना अपने हाथ से बच्चा निकालती थीं. ये हमारी तकनीक थी. हम उसे भूलते जा रहे हैं. उस तकनीक को आधुनिक बनाने की जरूरत है. मैने इस चीज के लिए लड़ने का प्रयास किया था. मैंने बस कुछ ऐसे ज्ञानी लोगों को सम्मानित किया था लेकिन अखबार ने इस बात की दूसरी ही चर्चा कर दी और विवाद हो गया. यह मेरा प्रतिरोध था. मेरी तलाश फोक विजडम को लेकर थी जो आज भी जारी है. आप बिहार से आते हैं. बाबू जगजीवन राम जी भी बिहार से आते थे. आप उनसे कितना प्रभावित हैं. – शुरुआत में हमारा झुकाव मार्क्स, लेनिन और माओ की तरफ था. इन सबको जानने के बाद मैने डॉ. अंबेडकर को जाना. मैने डॉक्टर अंबेडकर, पेरियार, फुले को पढ़ा. उसके बाद बाब जगजीवन राम के बारे में जाने. तो इस तरह से स्टेज था. इन दिनों हम अपना पूरा ध्यान चार लोगों पर यानि डॉ. अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम, के.आर नारायणन साहेब और कांशीराम जी पर केंद्रित कर रहे हैं. मेरा मानना है कि के.आर नारायण साहब से सफल व्यक्ति कोई हो ही नहीं सकता है. समाज से मिलजुल कर और पार्टी से तालमेल बिठाते हुए उन्होंने हर पद को हासिल किया. वह रिपोर्टर रहे, अंबेसडर रहें, वाइस चांसलर रहे, सांसद बनें, राज्यमंत्री बने, उपराष्ट्रपति बनें और राष्ट्रपति बनें. वह लगभग ग्यारह पदों को पार करते हुए राष्ट्रपति पद तक पहुंचे. मैं उन्हें प्रणाम करता हूं. मैं प्रार्थना करता हूं कि भगवान उनका कुछ अंश दलित समाज को दे दे. डॉ. अंबेडकर जिन्होंने देश का संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण काम किया. बाबू जगजीवन राम जो कभी चुनाव नहीं हारे. इस दुनिया में यह एक रिकार्ड है क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो चुनाव लड़ता हो और हारा नहीं हो. लेकिन बाबूजगजीवन राम अपवाद रहें. हमें उन पर गर्व है. इसी तरह कांशीराम जी ने उस समाज को सत्ता तक पहुंचाया जिसका व्यक्ति मुखिया तक बनने के बारे में नहीं सोचता था. उन्होंने साइकिल की यात्रा कर के हाथी चुनाव चिन्ह लेकर के इस देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी पसंद का सीएम बना दिया. हम उनको पूजते हैं. इसलिए ये जो चारो व्यक्ति हैं. वो हमारे लिए चार पुरुषार्थ है. समाज में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो कहते हैं ये चारो हमारे लिए ऐसे ही हैं. एक धर्म के प्रतीक हैं, एक काम के, एक अर्थ के जबकि एक मोक्ष के प्रतीक हैं. इन चारों को हम प्रणाम करते हैं. बाबासाहेब और बाबूजी के सिद्धांतों को आप कैसे देखते हैं. – दोनों लोग समकालीन थे. बाबासाहेब का एप्रोच एक्सक्लूसिव था. बाबूजी का अप्रोच इनक्लूसिव था. यानि बड़ी पार्टी, बड़ा समाज इन सब से जुड़ कर रहो. बाबासाहेब का सोचना दूसरा था. दोनों अपनी लाइन पे ठीक थे. रास्ते अलग थे लेकिन दोनों का लक्ष्य दलित समाज और गरीबों का उत्थान और कल्याण ही था. भविष्य की आपकी क्या योजना है ? – आज देश में ओबीसी पीएम की बात चल रही है. यह भी एक स्टेज है. कल को हम सबके प्रयास से दलित भी इस देश का पीएम बने ऐसी कल्पना है. चूंकि अब चीजें शिफ्ट हो रही हैं. फारवर्ड समाज से इतर आज ओबीसी समाज के व्यक्ति के पीएम बनने की चर्चा चल रही है. उसके बाद से दलित समाज की बारी है. क्योंकि देश में फरवर्ड के बाद ओबीसी आता है. उसके बाद दलित समाज की बारी होती है. आपने उत्तर प्रदेश में देखा कि कैसे पहले मुलायम सिंह बनें फिर मायावती बनीं. हम उस दिन की कल्पना कर रहे हैं कि हमलोगों के जीते जी इस देश का पीएम दलित हो जाए. हम इसमे कुछ सहयोग कर सकें. तो यही मेरा सपना है. उद्योग और राजनीति इन दो चीजों में हमारा दलित समाज पिछड़ा हुआ है. आपके मुताबिक दिक्कतें कहां पर है. यह स्थिति कैसे ठीक हो सकती है.  – देखिए… दलित समाज एक तो साधन विहीन रहा है. गरीब रहा है. लेकिन हम शिल्पकार रहे हैं. हम स्किलफुट रहे हैं. हम कारीगर रहे हैं. हम कारोबारी नहीं रहे हैं. कारोबार का अलग सरोकार होता है जबकि कारीगर का अलग. हमलोग इंटरप्रेन्योर रहे हैं लेकिन बिजनेस मैन नहीं रहे हैं. तो हमारी ये जो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर्स बनने की यात्रा है वह बहुत लंबी रही है. हमारे लोगों के लिए फैसिलिटी भी है, सुविधाएं भी हैं, लोन भी है, सब्सिडी भी है लेकिन हम मूलतः इंटरप्रेन्योर हैं. तो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर बनना, इंटरप्रेन्योर से डिस्ट्रीब्यूटर बनना, बिजनेस क्लास का बनना एक स्टेज है. यह तुरंत नहीं होने वाला है. आप देखिए कि जो डिक्की ने शुरू किया है हम उसको सैल्यूट करते हैं. जो काम राजनेताओं ने नहीं किया उसे डिक्की ने शुरू किया. तो यह लंबा प्रयास है. झटके में नहीं होने वाला है. जब तक लोगों में उद्यमिता का भाव नहीं पैदा होगा, हमलोगों में इंटरप्रेन्योरशिप स्पिरिट नहीं पैदा होगी तब तक नहीं होगा. आज सबसे बड़ा चमार बाटा है, सबसे बड़ा लोहार टाटा है. हमारी चमारी छूट गई. हमारी लोहारी छूट गई. तो हम लोहार से टाटा बनना चाह रहे हैं. चमार से बाटा बनना चाह रहे हैं. हमें उस प्रक्रिया से गुजरना होगा. हमारा जो उपलब्ध रिसोर्स है, उसे मार्डनाइज करना होगा. उसको स्टैंडर्ड करना होगा. यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. स्टेज टू स्टेज आगे बढ़ना होगा. अभी हम सबसे बड़ा उद्योग नौकरी को ही मानते हैं. इससे निकलना होगा. हां, मुझे इस बात का गर्व है कि हमलोग हुनरमंद जातियां है. मुझे यकीन है कि अगर हम बाटा का काम करेंगे तो सबसे बेहतर कर सकेंगे. ये तो उद्योग की बात हो गई. राजनीति में क्या बदलने की जरूरत है ? –  कुछ लोग पालिटिक्स में As a Mission आते हैं. पॉलिटिक्स में चाहे जिस जाति के लोग आ रहे हैं, उनमें एक समानता है. बिजनेस में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्ट में आ गए. खेती में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. नौकरी नहीं मिली या निकाला गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. तो पॉलिटिक्स ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो फेल्योर हैं. यह फेल्ड इंडिविजुअल का ग्रुप है. हम चाहते हैं कि पॉलिटिक्स मे दलित समाज से ऐसे लोग आवें जो अपने-अपने फिल्ड का एक्सपर्ट हो. वहां कुछ कर के दिखा चुका हो. कोई जर्नलिस्ट है, कोई वकील है, कोई इंजीनियर है चाहे चार्टर अकाउंटेंट है. ऐसे लोग पॉलिटिक्स में आए. अपने फिल्ड में सफल लोग आएं न की फेल हुए लोग. वह तभी पॉलिटिक्स में आकर अपने समाज का कल्याण कर सकता है. अभी रिजर्वेशन का मुद्दा गरमाया हुआ है. पटना से लेकर लखनऊ फिर दिल्ली तक में हंगामा हो रहा है. इस मुद्दे पर आप क्या सोचते हैं.  – देखिए… आरक्षण का लाभ लेते साठ साल हुए. अभी जो समय है उसमें कुछ जगहों पर चौथी पीढ़ी तक आरक्षण का लाभ ले रही है. हालांकि मैं दूसरी पीढ़ी का हूं क्योंकि मेरे पिता इंजीनियर थे. मेरा बेटा तीसरी पीढ़ी का है. मैं देख रहा हूं कि चौथी पीढ़ी तक आरक्षण ले रहे हैं. आरक्षण को अब हमलोगों को रि-विजिट करना चाहिए. आरक्षण दलितों के उत्थान का, उनके इंपावरमेंट का एक कंपोनेंट (घटक) है. आरक्षण से हमें निश्चित तौर पर आगे बढ़ने में मदद मिली है. लेकिन हमलोग आरक्षण को ही सबकुछ मानकर बैठे हुए हैं. हमें यहां यह देखना होगा कि जब आरक्षण नहीं था तब तो डॉ. अंबेडकर पैदा होते हैं, बाबू जगजीवन राम पैदा होते हैं, कांशीराम पैदा होते हैं लेकिन आज जब आरक्षण हो गया है तो कोई उनके आस-पास भी नहीं है. आज चापलूस पैदा हो रहा है. आज लोभी पैदा हो रहा है. आज केवल भोगी पैदा हो रहा है, जो केवल महंगे-महंगे शौक पाले हुए है. मैं आपके माध्यम से यह कहना चाहूंगा कि जो लोग आर्थिक रूप से सबल हो गए हैं, वह आरक्षण छोड़े. क्योंकि हम में जो गरीब लोग हैं अब आरक्षण उनको मिलना चाहिए. जो स्वेच्छा से आरक्षण का लाभ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं उनमें क्रीमिलेयर लग जाना चाहिए. उनकी बजाय आरक्षण समाज के गरीबों को मिले. नहीं तो यह भी एक किस्म का अन्याय ही होगा. इसलिए मेरा मानना है कि आरक्षण के संबंध में हम दलित समाज के लोगों के बीच एक विमर्श की आवश्यकता है. मैं चाहूंगा कि ‘दलित दस्तक’ के माध्यम से इस पर नई बहस छिड़े. कि आरक्षण कब तक, किस सीमा तक, किनके लिए. इस पर बहस हो. विमर्श हो. दलित विमर्श में यह विषय जुड़ना चाहिए. तभी हम दलित समाज के गरीब लोगों के प्रति न्याय कर पाएंगे. राजनैतिक तौर पर और व्यक्तिगत तौर पर किन घटनाओं ने आपके जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया.  – मेरे विद्यार्थी जीवन में मेरा एक बहुत खास दोस्त था. वह सवर्ण समाज का था. एक और दोस्त भी था. वह भी सवर्ण समाज का था. इसमें से एक की घड़ी चोरी हो गई. मैने बताया कि किसने चुराया होगा क्योंकि वह अक्सर इस तरह की हड़कतें करता रहता था. चुराने वाला भी सवर्ण था. जिसने घड़ी चोरी की थी उसने एक दिन रात में घड़ी को मेरे कमरे में रख दिया. जो मेरा खास दोस्त था उसको उसने मेरा रुम चेक करने के लिए कहा. मैने कहा कि चेक कर लो. और घड़ी मेरे रूम में निकल गया. आप उस वक्त की कल्पना कर सकते हैं. यह तब कि बात है जब मैं पटना साइंस कॉलेज से बीएससी कर रहा था. खैर… मैने कहा कि जब मैनें चुराया ही है तो तुम यह घड़ी क्यों लोगे मैं तुम्हें नई घड़ी खरीद दूंगा. उस घटना ने मुझे प्रभावित किया. मुझे तब लगा कि इस देश में जातिवाद क्या है. जो जिस लेवल पर है, उसी तरह से जातिवाद झेल रहा है. मेरे जीवन की जो दूसरी घटना है वह राजनीतिक जीवन की है. जब मैं मंत्री बना तब के.आर. नारायणन साहब राष्ट्रपति थे. मुझे उन्हीं के द्वारा शपथ लेना था. जब मैं शपथ लेने गया तो अटल बिहारी वाजपेयी साहब के ओएसडी सुधीर कुलकर्णी मेरे पास आएं और पूछा कि संजय जी आपको पता है कि आपको कौन सा मंत्रालय मिल रहा है? मैंने कहा कि हां पता है. हम दलितो को दो ही मंत्रालय मिलता है. लेबर या वेलफेयर. मुझे भी उसी में से कोई मिलेगा. मेरी यह बात उनको कचोट गई. उन्होंने कहा कि आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं. तब तक यह सही है कि मुझे लेबर मिलना तय था. तभी सुधीर कुलकर्णी अंदर गए और बताया कि संजय तो बड़ा दुखी होकर बोल रहे हैं कि हमें तय है लेबर या वेलफेयर मिलना. वह लौट कर आएं और मुझसे पूछा कि क्या चाहिए. मैनें  भी छूटते ही कहा कि कम्यूनिकेशन देंगे आप? और इस तरह मुझे कम्यूनिकेशन मिल गया और मैं प्रमोद महाजन जी के साथ आ गया. यह सब उसी वक्त राष्ट्रपति भवन में ही चेंज हुआ. तो यह उनकी उदारता थी. तो चीजें बदल रही है. मुझे लगता है कि अब हमलोगों को दलित के दायरे से बाहर निकल कर दलित, देश, धर्म, धरती यानि डी-4 की बात करें. मैं इसके लिए कमिटेड हूं. रामविलास पासवान भी दलित हित की बात करते हैं, आप भी करते हैं, मायावती जी भी करती हैं. यानि दलित समाज का हर नेता दलित हित की बात को आगे रखता है. लेकिन सार्वजनिक या फिर निजी मंचों पर ये लोग खुलकर साथ नहीं दिखते हैं. – ये मल्टीपार्टी डेमोक्रेसी है और ऐसे में पॉलिटिकली एक होना मुश्किल है. हां; सोशल इश्यू पर आप एक हो सकते हैं. (मैं टोकता हूं कि राजनीतिक नहीं व्यक्तिगत तौर पर साथ नहीं दिखते) मैं मानता हूं कि बहन मायावती हों या रामविलास पासवान हों, इन दोनों का समाज हित में काफी योगदान रहा है और है. हमलोग उनको बहुत तव्वजो देते हैं. और वो लोग अपनी-अपनी पार्टियों में हैं, इसलिए बड़ी पार्टियां हमलोगों को पूछती भी है. अगर उनलोगों का अस्तित्व खत्म हो जाए (हंसते हुए) तो कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां आज के वक्त में हमें पूछेगी भी नहीं. इसलिए उनलोगों का अस्तित्व में बने रहना जरूरी है. रही बात एका की तो अपने इश्यू पे लोग होते हैं लेकिन अपने-अपने ढ़ंग से होते हैं. हालांकि उससे भी अधिक आगे होना चाहिए. मैं इस बारे में प्रयास भी करता हूं. मैने जब अपने पार्टी कार्यालय में अन्य पार्टी नेताओं का फोटो टांगा है तो इसी भाव से टांगा है. इसकी जरूरत है कि हमलोग अपने लोगों के प्रति सहिष्णु बनें. अपने लोगों ने जो अच्छा किया है उसकी चर्चा होनी चाहिए. मैं इससे सहमत हूं कि जहां तक साथ चल सकते हैं साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. जहां से अवरोध, गतिरोध शुरू होता है उसे छोड़ दीजिए लेकिन जहां तक अवरोध या गतिरोध नहीं होता है वहां तक हमलोगों को साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. आज भी मुझे किसी भी पार्टी के नेता के यहां जाने में कोई हिचक नहीं है. लोगों से मिलना-जुलना चाहिए. अगर हम कांग्रेस के किसी मंत्री से कोई काम करा सकते हैं तो हमें करवाना चाहिए. जैसे हमलोगों की मांग है कि बीपीएल कार्ड ऑन डिमांड मिले तो इस बारे में हम शैलजी जी से मिले. उन्होंने कहा है कि शिड्यूल कॉस्ट का कोई व्यक्ति बीपीएल कार्ड मांगता है तो उसे बिना खोज-बीन के कार्ड दे देना चाहिए. इसमें मेरा भी योगदान है. मैनें शैलजा से बात की थी. उन्होंने माना. अपने समानसोची लोगों से एक संवाद की स्थिति बने रहना चाहिए. सर आपने इतना वक्त दिया, आपका बहुत धन्यवाद – धन्यवाद अशोक जी।

रिजर्वेशन नहीं, दलितों को चाहिए एजुकेशन- कांचा इल्लैया

लेकिन चिंतन और विचार के क्षेत्र में दलित चिंतकों ने तमाम अवरोधों के बावजूद अपना एक खास मुकाम हासिल किया है. मेरे विचार से डॉ. बी. आर. आंबेडकर इन दोनों धाराओं के बीच की कड़ी थे. वे बहुत प्रतिभाशाली चिंतक तो थे ही, इसके साथ ही राजनीति के माध्यम से उन्होंने छुआछूत के खिलाफ बड़ा आंदोलन भी खड़ा किया. वे भारी उपेक्षा के भी शिकार हुए. लेकिन तमाम अवरोधों के बावजूद वे आम लोगों द्वारा चुने जाने के बाद भारत की संसद में पहुंचे और फिर देश के संविधान की रचना की. लेकिन स्थिति यह है कि कुछ समय पहले जयपुर फेस्टिवल में जहां एक लाख लोगों ने हिस्सा लिया वहां दलितों की उपस्थिति महज दशमलव पांच पर्सेंट ही रही. दलितों ने यहां उपन्यास या कहानी लेखन के माध्यम से अपने बौद्धिक विचार को कोई खास अभिव्यक्ति नहीं दी. यह स्थिति ठीक नहीं है. इसलिए साहित्य और लेखन के क्षेत्र में बहुत कुछ करने की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि डॉ. आंबेडकर जिस वैचारिक जगह पर खड़े थे, वहां फि लहाल कोई भी दलित चिंतक नजर नहीं आता. विकास की इस धीमी गति की आखिर क्या वजह हो सकती है? -सबसे बड़ी बाधा तो अंग्रेजी शिक्षा के अभाव की है. यह आज भी दलितों के ख्वाबों से बहुत दूर है और दलित चिंतक इसके लिए गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं. इस समस्या का समाधान यह है कि अब दलित बच्चों को आर्ट्स की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करना होगा. हमारे एजुकेशन का फोकस पैसा कमाने पर ज्यादा है. इसलिए आईएएस, मेडिकल और इंजीनियरिंग की तरफ भागमभाग चल रही है. अगर दलितों को आंबेडकर, नेहरू और गांधी की तरह वैचारिक धरातल हासिल करना है तो उन्हें लिबरल आर्ट की तरफ फोकस करना होगा. दलितों के लिए तैयार किए गए कई लक्ष्य आज भी अधूरे हैं. इसके कारण क्या हैं? -आप मायावती का ही उदाहरण लीजिए. वह पांच साल तक यूपी की सीएम रहीं. उन्होंने बिना किसी अवरोध के अपनी सरकार का टर्म पूरा किया. लेकिन इस छोटे से वक्त में बहुत कुछ कर पाना संभव नहीं था. और फिर उनकी राजनैतिक प्राथमिकताओं में ढेर सारी समस्याएं हैं. दलित समाज शैक्षणिक समानता चाहता है. अपने बच्चों के लिए दूसरों की तरह नर्सरी से लेकर 12वीं तक की पढ़ाई में एकरूपता जैसी स्थिति चाहता है. देखिए, न तो प्रॉपर्टी, न नौकरी और और न ही धन वास्तविक समानता ला सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति केवल और केवल शिक्षा से हो सकती है. लेकिन मायावती इसके लिए गंभीर नहीं हैं. जहां तक कांग्रेस की बात है यह पार्टी दलितों पर बहुत हद तक निर्भर है. मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे जैसी शख्सियत अहम पदों पर हैं. यदि ऊंची जाति के बच्चे अंग्रेजी में महारत हासिल कर रहे हैं तो दलितों को भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए. हम इसी तरह के वातावरण और अवसर की मांग कर रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो 30 साल के बाद आरक्षण खत्म कर दीजिए और निष्पक्ष प्रतियोगिता होने दीजिए. दलित बच्चे कहीं पीछे नजर नहीं आएंगे. देखिए, मेरे पैरंटस अशिक्षित चरवाहे थे. लेकिन शिक्षा का कमाल देखिए कि आज मैं कहां हूं. अंग्रेजी बोलता और लिखता हूं. पूरी दुनिया में जाता हूं और उनसे संवाद करता हूं. यह सारा परिवर्तन शिक्षा की बदौलत है. दलित नेताओं को शिक्षा की इस महत्ता को समझना होगा. क्या आप आरक्षण को आगे जारी रखने के सिद्धांत को सपोर्ट करते हैं? – दलितों का मुख्य एजेंडा रिजर्वेशन नहीं है. समानता लाने का मेरा रास्ता एजुकेशन से होकर गुजरता है. अगरमहज 10 पर्सेंट दलित बच्चे भी अंग्रेजी शिक्षा हासिल करें तो बौद्धिक जगत की तस्वीर पूरी तरह से बदल जाएगी. यह देश पूरी तरह से बदल जाएगा. मुझे उम्मीद एजुकेशन से है, आरक्षण से नहीं. और मैं अंग्रेजी शिक्षा पर जोर देता हूं. साभारः नवभारत टाइम्स

दलित राजनीति भले ही लंगड़ी हो, उसे बढ़ाना जरूरी- प्रकाश अंबेडकर

जब भी आपका जिक्र होता है, डा. अंबेडकर की याद आती है. आपने कब महसूस किया कि आप इतनी बड़ी हस्ती के पोते हैं? बचपन से ही. पिताजी भी राजनीति में थे. बौद्ध धर्म के फैलाव के लिए ‘बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया’ जो संगठन था, वह उसके अध्यक्ष थे. धम्म शिक्षा का कार्यक्रम इसी संस्था के माध्यम से चला. घर में प्रदेश के लोगों की भीड़ लगी रहती थी. अक्सर बाबा साहब का जिक्र होता था. रैलियों में बचपन से ही शरीक होते थे. तो यह अहसास बचपन से ही होता रहा है. ‘दादाजी’ को देखा तो नहीं है लेकिन यह जानकारी थी कि उनकी क्या भूमिका है. उमर होती गई, उनके बारे में, उनका लिखा हुआ पढ़ते गए. उनके विचारों को और उन्हें अधिक जानते गए. आपका बचपन कहां बीता. शिक्षा कहां हुई? बाबा साहब ने मकान बनवाया था ‘राजगृह’ (दादर, मुंबई), बाबा साहेब की इच्छा से इसे विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल में परिवर्तित कर दिया गया तो पिताजी खार (महाराष्ट्र) में शिफ्ट हो गए. बचपन वहीं बीता. स्कूल की पढ़ाई भी यहीं से हुई. 70 के आस-पास जब कॉलेज का अपना हॉस्टल बन गया तो परिवार फिर राजगृह में आ गया. कॉलेज की शिक्षा यहीं हुई. बाबा साहब का मकान था, सो तब काफी लोग आते थे दर्शन करने को. बंबई में ही कॉलेज की डिग्री हासिल की. 75 के समय इमरजेंसी के माहौल में जो राजनीतिक लहर की शुरुआत हुई, तब पुराना नेतृत्व बुजुर्ग हो चला था. दलितों की नई पीढ़ी शिक्षा लेकर आगे आ रही थी. दलित पैंथर जैसे कई दल आएं लेकिन ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाएं. कुछ कम्युनिस्टों के बहकावे में आ गए तो कुछ सोसलिस्टों और कांग्रेस के बहकावे में आ गए. उन्होंने अपना जो वजूद बनाया था, वो खो बैठे. उस समय एक्सप्लाटेशन के बीच में नामांतर का जो आंदोलन चला (मराठा यूनिवर्सिटी का नाम बदलने को लेकर चला आंदोलन), उस आंदोलन को मराठा नेताओं, पुलिस और प्रशासन ने जिस तरह कुचला, उसने देश भर के दलितों का मनोबल तोड़ दिया. दलित समाज के लोग आंदोलन के नाम से डरने लगे. कोई नेता या फिर संगठन नहीं रहा, सब बिखड़ गए. संगठन का अखिल भारतीय ढ़ांचा ढ़ह गया. हर राज्य में नई लीडरशिप पनपी. मैं मानता हूं कि वहां से एक नई राजनीति की शुरुआत हुई. राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रिय राजनीति घुस गई. स्टेट पॉलिटिक्स पिछड़े वर्ग की राजनीति थी. आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर दलितों और पिछड़ों की समस्या एक है. वो आपस में मदद करते रहे. बाबा साहब को जितना सुधार लाना था, उन्होंने कर दिया था. बदलाव की राजनीति को बढ़ावा देना जरूरी था लेकिन राजनीतिक ताकतों ने ऐसी चालें चली कि दलित राजनीति आगे बढ़ाने की बजाए अपनी ही राजनीति में फंस गई. लोकतांत्रिक राजनीति में जनसंख्या बड़ा हथियार है. वह महाराष्ट्र में उतना नहीं है, जितना बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, पंजाब या फिर उड़िसा में है. लेकिन हम जनसंख्या के बल की लड़ाई नहीं लड़ सके. सक्रिय राजनीति में आने की कब सोची? कॉलेज के बाद ही आ गया था. वकालत और राजनीति साथ-साथ चलती थी. एक ही उद्देश्य रहा है कि स्टेट्स-को की स्थिति को तोड़ना है. 80 के बाद पहली बदलाव की राजनीति आई. वीपी सिंह और चंद्रशेखर की जो राजनीति आई, हम उसमें शामिल रहे, उसे आगे ले गए. हम यह मानते थे कि यहां जाति की राजनीति चलेगी. दलितों को अगर राजनीति मे अपनी जगह बनानी हैं तो इस राजनीति का वर्गीकरण होना सबसे जरूरी है. जैसे आदिवासियों को अपनी एक पहचान मिली है, दलितों की एक पहचान बनी है, मुस्लिम, सवर्ण और दूसरे अल्पसंख्यकों, सभी की अपनी पहचान बनी है. तब सबसे बड़ा संकट पिछड़ों के साथ था. उनकी कोई पहचान नहीं थी. जब तक उनके अंदर चेतना पैदा नहीं होती तब तक बदलाव की राजनीति नहीं बल्कि स्टेटस-को की राजनीति होती. तब वीपी सिंह, कर्पूरी ठाकुर के साथ बैठकर मंडल कमीशन को लागू करने की बात हुई. लंबे समय तक राजनीति करने के लिए सोशल विचारधारा का वोटर होना जरूरी है. जैसे भाजपा के पास धर्म की राजनीति पर वोट देने वाला वोटर है. कम्यूनिस्टों के साथ वर्कर क्लास है, वैसे ही तमाम पार्टियों के पास अपने समुदाय के वोटर हैं. हमारा मानना था कि इस देश के अंदर अपनी राजनीतिक पहचान बनानी है तो सामाजिक बदलाव की राजनीति को मानने वाले वर्ग का निर्माण करना होगा. तब मंडल कमीशन का फैसला आ चुका था. उसे लागू करने की बात हुई. अब देखिए कि पिछड़ों में अति पिछड़े और पिछड़े दो वर्ग हैं. मेरा मानना है कि आने वाले 50 सालों तक देश की राजनीति ऐसे ही चलेगी. इसमें हर वर्ग-समुदाय के नाम पर वोट देने वाला वर्ग होगा. यानि हर समुदाय की अपनी राजनीतिक पार्टी होगी. मेरा मानना है कि आने वाले एक दो चुनावो के बाद देश की राजनीति स्थिर होनी शुरू होगी. अब तक दमन की जो राजनीति थी, उसका अंत होने की शुरुआत हो चुकी है. बाबा साहेब ने देश की जो तस्वीर खिंची थी कि यहां समता हो, बंधुत्व हो, अधिकार की बात हो, अब सही मायने में देश उस पर चलना शुरू होगा. क्योंकि जब एक ग्रुप खड़ा होता है तो उसकी जो अपनी ताकत होती है, वही ताकत लोगों के साथ बातचीत करती है. यह जैसे-जैसे स्थिर होगा दलितों को देश के अंदर मान-सम्मान मिलेगा. जो सही अर्थ से जो राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी चाहिए थी, उसकी शुरुआत होगी. आपने खुद की अपनी पार्टी ‘भारतीय रिपब्लिकन पार्टी’ (भरिपा) बना रखी है, आपकी पार्टी की बात करें तो आप उसको कहां देखते है? राजनीतिक स्तर पर जहां तक जीतने की बात है, यह सही है कि हम वहां नहीं पहुंच पाए हैं. लेकिन हमने लोगों की सोच को बदला है. हमने कुछ खास चीजों पर ध्यान दिया है. जैसे मैं दो चीजों का जिक्र अक्सर करता हूं. आज शिक्षा का निजीकरण होने से दलित-आदिवासियों को काफी नुकसान हो रहा है. निजीकरण के तहत एससी-एसटी विद्यार्थियों को खुद फीस भरनी पड़ रही है. हमारा मानना है कि अगर दलित विद्यार्थी प्राइवेट इंस्टीट्यूट में भी शिक्षा ले तो उसकी फीस सरकार भरे. दूसरी बात दलितों के लिए खुद की इंडस्ट्रीज बहुत जरूरी है. क्योंकि जब तक आर्थिक सुरक्षा नहीं होगी, सामाजिक सुरक्षा के मायने नहीं हैं. हमने महाराष्ट्र सरकार पर दलितों को आर्थिक क्षेत्र में बढ़ाने के लिए विशेष योजना बनाने का दबाव डाला. सरकार को योजना बनानी पड़ी. इसके अनुसार दलितों को कोई भी व्यवसाय शुरू करने के लिए सरकार लोन देती है. दलितों को पूरे बजट का पांच फीसदी पैसा देना होता है बाकी 95 फीसदी पैसा राज्य सरकार को देना है. पिछले चार साल से यह महाराष्ट्र में लागू है. इस साल महाराष्ट्र सरकार ने इस मद में एक हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया है. मेरा मानना है कि दलितों की राजनीति को सुरक्षित बनाने के लिए बाजार पर पकड़ जरूरी है. ऐसा होने पर दलितों को देखने के आमलोगों के नजरिए में फर्क आएगा. अब हम इसी योजना को केंद्रीय स्तर पर लागू करने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं. 1950 से राजनीति में दलितों की भागीदारी हो चुकी है, अब उन्हें आर्थिक क्षेत्र में आगे बढ़ाना है. आप बाबा साहेब के पोते हैं. बाबा साहेब का इतना बड़ा कद होने के बावजूद आखिर क्या वजह है कि आपकी पार्टी महाराष्ट्र के एक खास क्षेत्र से आगे नहीं बढ़ पाई? आपको पहले यह तय करना होता है कि आप क्या करना चाहते हैं? सन् 90 में मैने ऑल इंडिया की राजनीति करनी छोड़ दी. जो पैन इंडिया की राजनीति सोचता है वह इलेक्टोरल राजनीति के बारे में सोचता है. जैसे रामविलास हों, कांशीराम हो, मायावती या फिर बूटा सिंह. इनकी जो राजनीति रही है, उन्होंने ऑल इंडिया का सोचा. इसे मैं इलेक्टोरल राजनीति मानता हूं. मैं मानता हूं अभी इसकी जरूरत नहीं है. बीच में रिजर्वेशन पर आंच आने की शुरुआत हुई. लेकिन जो भी दलित नेता मंत्रीमंडल में था, उसने अपना मुंह नहीं खोला, क्योंकि उस इलेक्टोरल राजनीति में उसको समझौता करना पड़ा. दलितों के पास शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है. बाबा साहब के बाद पहली और दूसरी पीढ़ी इसलिए शिक्षित बनी क्योंकि उसे मुफ्त में शिक्षा मिली, स्कॉलरशिप मिला. यानि उनके परिवार पर कोई जिम्मेदारी नहीं थी. निजीकरण से शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार से शिफ्ट हो गई है. इससे दलितों की शिक्षा में कमी आने लगी है. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि निजीकरण के कारण सवर्णों के बच्चे निजी स्कूलों में चले गए जबकि गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूलों में रह गए. सरकारी स्कूलों का नियंत्रण सवर्णों के हाथ में है, अब चूकि उनके बच्चे इसमें नहीं पढ़ते इसलिए उन्होंने इस पर ध्यान देना छोड़ दिया है. आज दलितों-आदिवासियों और पिछड़े वर्ग के सामने मॉडल डेवलप करना सबसे जरूरी है. जिसे कॉपी करके दूसरे राज्यों में भी लागू किया जाए. दलितों की राजनीति में सुधार हो चुका है. उसे आम लोगों में पहुंचाना जरूरी है. यह कैसे होगा, हम लोग यही मॉड्यूल खड़े कर रहे हैं. आज हमारा सबसे अधिक ध्यान दलितों में इंडस्ट्राइलेजेशन को लेकर है. हम अभी इसी पर पूरा ध्यान दे रहे हैं. आने वाले 20-30 सालों का मॉड्यूल लोगों के सामने रखना चाहते हैं. यही दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों को सामाजिक रूप से मजबूत करेगा. अभी महाराष्ट्र में 15 इंडस्ट्री शुरू हो चुकी है. आने वाले पांच साल के बाद प्रदेश में दलितों का एक इंडस्ट्रीयल वर्ग दिखाई देगा. आप अकोला (सामान्य सीट) से चुनाव लड़ते हैं. जीते भी हैं. हालांकि पिछले दो बार से वहां भाजपा के सांसद हैं. जबकि आप किसी भी सुरक्षित सीट से जीत सकते हैं, तो सामान्य सीट से चुनाव लड़ने की वजह क्या है? अगर आपको बदलाव की राजनीति करनी है तो इसकी शुरुआत सबसे पहले वह खुद से करनी होती है. मैं बदलाव की राजनीति करता हूं. मैं नेता हूं, एक पार्टी का अध्यक्ष हूं तो मेरे अंदर इतनी ताकत होनी चाहिए कि मैं जाति बंधन तोड़कर सबके वोट लूं. रिजर्व क्लास के लोगों ने अपनी सोच के आगे ‘घोड़े की टॉप’ लगा के रखा है. लोग इससे निकलेंगे तो उन्हें दुनिया दिखाई देगी. मैं चैलेंज देकर कहता हूं कि बिना पैसे के उम्मीदवार को भी जीता सकते हैं. बस उसकी छवि अच्छी होनी चाहिए. कार्यकर्ता होना चाहिए. यानि आप अगर बदलाव की राजनीति करना चाहते हैं तो एक मानक खड़ा करना होगा. आपका ‘अकोला पैटर्न’ काफी चर्चित है, क्या है यह? पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, दलित-आदिवासी और गरीब तबके को लेकर एक मोर्चा बनाया है. इसकी शुरुआत 84 में की थी. आज अकोला में इसी मोर्चे का बोलबाला है. यह महाराष्ट्र की राजनीति में एक प्रेरणा बन चुकी है. पूरे महाराष्ट्र में इस पैटर्न की चर्चा है. कुछ लोग परंपरा से अपनी सत्ता मान रहे थे, उनके सामने बिना साधन वाला व्यक्ति खड़ा होकर जीतता है और साफ-सुथरी राजनीति करता है. दलितों के बीच बाबा साहब अंबेडकर सर्वमान्य नेता थे. सारे लोग उन्हें पूजते हैं. उसके बाद ‘बाबूजी’ (जगजीवन राम) भी दलितों के बीच सर्वमान्य रहें. लेकिन इन दोनों के बात राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य दलित नेतृत्व नहीं उभर पाया, क्यों? कांग्रेस और भाजपा की जो राजनीति है, उसमें वो दलित समाज के लोगों को चढ़ाते हैं. ऐसा वह तब तक करते हैं, जब तक वो व्यक्ति खुद अपनी राजनीति नहीं करता. कांशीराम भी कांग्रेस के बलबूते नेता रहें, अपने बूते नहीं. जहां तक बाबूजी (जगजीवन राम) की बात है, नई पीढ़ी को पता नहीं है कि उनको किस तरह जलील किया गया. 1971 में जो युद्ध हुआ उसका सारा श्रेय इंदिरा गांधी को मिला, जबकि सारी प्लानिंग और व्यवस्था बाबूजी की थी. बाबूजी प्रधानमंत्री बनें, यह आमलोगों की भावना थी. किसी राजनीतिक दल का नाम नहीं लूंगा लेकिन राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें काफी जलील किया. उन्हें बदनाम करते हुए उनकी पूरी राजनीति खतम कर दी गई. उनकी मुझसे बात होती थी. अभी तक दलित एवं पिछड़े इतना सक्षम नहीं हुए हैं कि वो अपने किसी आदमी को प्रधानमंत्री बनवा सके. यहां की व्यवस्था मौका मिलते ही दलितों के राष्ट्रीय स्तर पर उभर रहे नेता की छवि खत्म करवा देती है. वो राजनीति और समाज दोनों से कट जाता है. इससे पूरी व्यवस्था का नुकसान होता है. बाबूजी बहुत अच्छे प्रशासक थे. मायावती की राजनीति को आप कैसे देखते हैं? वह स्टेट लीडरशिप बन चुकी हैं. मुलायम सिंह के साथ जब उनका गठबंधन हुआ था, तब से किसी भी तरह यूपी की सरकार बनाए रखना उनकी राजनीतिक मजबूरी है. 93-94 में मुलायम सिंह और कांशीराम को सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस के सपोर्ट की जरूरत पड़ी. बीएसपी ने इसकी भरपाई महाराष्ट्र एवं आंध्रा में हुए चुनाव में कांग्रेस को फायदा पहुंचा कर की. कांशीराम के बीमार होने के बाद मायावती के राजनीति की शुरुआत हुई. लेकिन उनका रोल यूपी में ही ज्यादा रहा. कई मौंके आएं जब अन्य राज्यों में भी उनको खुद को स्थापित करने का मौका मिला लेकिन यूपी सरकार पर असर न हो इसलिए उन्होंने मौका गंवा दिया. मेरे हिसाब से मायावती का अब राष्ट्रीय स्तर पर आना मुश्किल है. अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए मायावती को हर बार दलितों के अधिकारों के साथ समझौता करना पड़ा है. जबकि दलितों की राजनीति के अंदर वह दूसरों के साथ कंप्रोमाइज नहीं कर सकती. दलितों के अंदर जो विचारधारा को जोड़ने की बात चल रही है, वह यह है कि दलितों को अपने आप में शक्तिशाली होना चाहिए. लेकिन वह पावर आपस में शेयर होनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत पावर होनी चाहिए. ऐसी स्थिति में वो अपने आप को डेवलप नहीं कर पाएंगे. क्योंकि यहां की राजनीति ‘गिव एंड टेक’ की राजनीति है. मायावती दलितों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने का काम नहीं कर पाई हैं. यह जरूरी है. उन्हें सोचना होगा. गांधी और अंबेडकर के संबंधों को लेकर काफी कुछ कहा और लिखा गया है, आप इसे कैसे देखते हैं? दोनों विरोधी थे, यह सही है. गांधी वर्ण व्यवस्था चाहते थे, बाबा साहेब इसके खिलाफ थे. गांधी ग्राम व्यवस्था चाहते थे लेकिन बाबा साहेब इसके खिलाफ थे क्योंकि वहीं से वर्ण व्यवस्था पनपती है. गांधी जी के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता ज्यादा महत्वपूर्ण थी जबकि बाबा साहेब सामाजिक स्वतंत्रता पर जोर देते थे और इसके बाद ही राजनीतिक स्वतंत्रता के पक्ष में थे क्योंकि ब्रिटिशों के साथ शारीरिक नहीं बल्कि आंदोलन के स्तर पर संघर्ष था. बावजूद इसके देश की राजनीति में दोनों का योगदान महत्वपूर्ण है. गांधी जी भी सवर्ण नहीं थे. वह सवर्ण लीडरशिप को तोड़कर आम आदमी की लीडरशिप लाएं. बाबा साहेब दलितों को आगे ले आएं. उसी वक्त से सवर्णों की राजनीति को चुनौती देने की शुरुआत हो गई थी. कहा जाता है कि महाराष्ट्र में दलित पार्टियां 42 टुकड़ों में बंटी है, क्या वह एक हो सकते है? नहीं हो सकते. देखिए, यह समझना होता है कि आपकी लड़ने की क्षमता क्या है, यह आपको पहचानना चाहिए. क्या हासिल करना है, इसकी जानकारी होनी चाहिए. अगर आप पूरी व्यवस्था को चैलेंज करते हैं तो वो आपको तहस-नहस करके छोड़ देंगे. इसलिए आपको अपने मकसद को साफ करना जरूरी है. क्या राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व एक हो सकता है? देखिए प्रदेश की राजनीति बदल चुकी है. जैसे मैं कहता हूं कि मुझे फलां पार्टी के साथ इस राज्य में जाना है जबकि दूसरा कहता है कि उसे दूसरे के साथ जाने से लाभ होगा. आज केवल नाम के लिए नेशनल पालिटिक्स बचा है जबकि असल में अस्तित्व में स्टेट पॉलिटिक्स है. इसलिए जहां तक समझौते की राजनीति है, वहां अब दलितों की ऑल इंडिया पार्टी होनी मुश्किल है. उसमें एक बात होनी चाहिए कि लूज फेडरेशन होना चाहिए. राष्ट्रीय स्तर पर जो मुद्दे हैं उसपर सभी की सहमति हो. उसको लेकर एक साथ आंदोलन चले. लेकिन जहां तक समझौते की राजनीति है, उन्हें पूरी तरह छूट दी जाए कि वो अपने-अपने स्टेट में अपने हिसाब से काम करे. क्या जाति व्यवस्था का खात्मा संभव है? बदलाव आना शुरू हो चुका है. आज बड़े पैमाने पर अपने समाज से बाहर जाकर शादी करने की युवकों की प्रवृति बढ़ी है. देखना होगा कि आने वाले 10 सालों मे यह कितना बढ़ता है. इसको बढ़ावा देना जरूरी है. यह जाति व्यवस्था को तोड़ने का एक माध्यम है. इनके पारिवारिक जीवन प्रणाली में कोई जाति नहीं होनी चाहिए. इनको अतिरिक्त सुविधाएं मिलनी चाहिए. इनके बच्चें जब स्कूल जाएं तो सिर्फ इनका नाम लिखा जाना चाहिए, न कि जाति. आज दलितों की स्थिति को आप कैसे देखते हैं? अब दलितों में ही एक सवर्ण वर्ग की बात सामने आ रही है. मैं मानता हूं कि दलितों का एक मीडिल क्लास उभर चुका है लेकिन कमिटेड मिडिल क्लास नहीं उभरा है. वह अपनी पहचान अब भी नहीं बना सका है. वह इंविटेशन के क्लास में ही घूम रहा है. ट्रांजेक्शनल पीरियड के अंदर दलितों का मूवमेंट है. हमने सोचा कि इसमें वैचारिक योगदान दे सकते हैं, मार्गदर्शन कर सकते हैं. आपके हाथ में सत्ता आने पर आप पहला काम क्या करेगे? सबसे पहले शिक्षा में आम भावना जरूरी है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समाज में समानता के बारे में भी काम करना जरूरी है. अधिकार का बचाव करने के बारे में खुद उनके सोच पर गौर करने की जरूरत है. आने वाली पीढ़ी अगर इसको भाईचारा मानती है तो इंसानियत के नाम से एक व्यवस्था बनेगी. आज राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं होने से दलित युवा भ्रमित है. उसको नेतृत्व की कमी खलती है, उनको क्या संदेश देंगे? दलितों में आज सबसे बड़ी जरूरत लीडरशिप की है. जब तक हर राज्य में नेतृत्व खड़ा नहीं होगा, दलितों का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा. दलितों के अंदर लीडरशिप के निर्माण का मतलब मानसिक गुलामी का खात्मा है. लीडरशिप करना है तो डटकर करना होगा. आज का युवा अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है. उन्हें सोचना चाहिए कि बाबा साहेब को जो करना था, वो करके चले गए. उसे सबसे पहले पारिवारिक राजनीति का विरोध करना चाहिए. अब जिम्मेदारी उनपर है. दलित राजनीति के कोलैप्स होने का मतलब अपने अधिकार को खो देना है. वह भले ही लंगड़ी हो, छोटे पैमाने पर हो, जैसे भी हो उसे बढ़ावा देना चाहिए. दलित राजनीति में स्थिरता जरूरी है. नेतृत्व आसमान से नहीं आता. युवा पीढ़ी विद्यार्थी जीवन से ही लड़ाई की शुरुआत करे तो नेतृत्व खड़ा होगा. अगर कोई सामने आता है तो उसकी मदद करनी चाहिए. नेता बनता नहीं है, नेता बनाया जाता है. किसी भी राज्य की बात हो मैं मदद करने को तैयार हूं. आपकी भविष्य की राजनीतिक योजना क्या है? राज्यों में दलितों का संगठन खड़ा हो जाए, यही लक्ष्य है. उस पर काम कर रहा हूं. आपने इतना समय दिया, धन्यवाद धन्यवाद, ‘अशोक दास जी’
प्रकाश अंबेडकर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें उनके ई-मेल prakashambedkar@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

हम सबके डॉ. अम्बेडकर

br ambedkerमध्‍य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इंदौर से 23 किमी. की दूरी पर मुंबई-आगरा मार्ग पर महू छावनी है. इसी महू छावनी की एक बैरक में 14 अप्रैल, 1891 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्‍म हुआ था. उस समय डॉ. अम्बेडकर के पिता श्री रामजी राव ब्रिटिश सेना में सूबेदार मेजर के पद पर तैनात थे. डॉ. अम्बेडकर के सम्‍मान में मध्‍य प्रदेश सरकार ने महू का नाम बदलकर डॉ. अम्बेडकर नगर कर दिया है. यहां पर 14 अप्रैल को देश विदेश से अनेकों लोग डॉ. अम्बेडकर के प्रति आभार और श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं. डॉ. अम्बेडकर अकेले ऐसे महापुरूष हैं जिनका जन्‍म महोत्‍सव समारोह 14 अप्रैल से शुरू होकर जून तक चलता है. इस दिन की खुशी भारत के कोने-कोने में ही नहीं बल्कि अमेरिका, कनाडा, ब्रि‍टेन, फ्रांस, जापान, नेपाल, वर्मा, श्रीलंका सहित अनेक देशों में बहुत ही हर्ष और उल्‍लास से मनाया जाता है. इस वर्ष एक कार्यक्रम संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के भवन में भी आयोजित किया जा रहा है.   बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर एक महान संविधानविद्, शिक्षाविद, राष्‍ट्र भक्‍त, समाज सुधारक, दर्शन शास्‍त्री, पत्रकार, अर्थशास्‍त्री थे. इन सबसे भी अधिक वे एक आदर्श विद्यार्थी थे और आजन्‍म आदर्श विद्यार्थी बने रहे. उन्‍होंने अर्थशास्‍त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास, समाज शास्‍त्र और कानून के अलावा  चित्रकला, मूर्तिकला, तबला वादन, वाइलिन वादन, संगीत कला, पाक कला, पाली भाषा में भी दक्षता हासिल की थी. उन्‍हें अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, मराठी, हिन्दी, पाली और फारसी भाषाओं में दक्षता हासिल थी. बाबासाहेब ने अपने जीवन काल में तमाम पदों पर रहते हुए देश के हर वर्ग के लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए अनेक काम किया. उन्होंने श्रमिकों के लिए कानून बनवाया, देश के किसानों की बेहतरी के लिए प्रयास किया, महिलाओं के हक की आवाज उठाई, नौकरीपेशा लोगों के सहूलियत की बात की और उनके अधिकारों के लिए लड़कर उन्हें अधिकार भी दिलवाया. लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि डॉ. अम्बेडकर जैसे महान व्यक्तित्व द्वारा किए गए इन कामों से लोग आज भी अंजान हैं. डॉ. अम्बेडकर के जीवन के कई आयाम थे, जिन्हें हर किसी को जानने की जरूरत है. विद्यार्थियों के लिए आदर्श डॉ. अम्बेडकर उच्‍च शिक्षा ग्रहण करना चाहते थे, किंतु इसके लिए उन्‍हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा और समय-समय पर अन्‍याय का सामना करना पड़ा. जब हम उनके शिक्षा काल की ओर देखते हैं तो हमें उनकी अप्रतिम निष्‍ठा के सामने नत-मस्‍तक होना पड़ता है. बड़ौदा के शासक सयाजीराव गायकवाड द्वारा दी गई छात्रवृत्ति से उन्‍होंने एलफिन्‍स्‍टन कालेज, बंबई में बी.ए. में 3 जनवरी 1908 को प्रवेश लिया. अंग्रेजी साहित्‍य तथा फारसी भाषा उनकी बी.ए. की डिग्री के विषय थे. बी.ए. करने के बाद महाराजा सयाजीराव गायकवाड ने उन्‍हें उच्‍च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने का अवसर दिया और तीन वर्ष (15 जून, 1913 से 14 जून 1916) के लिए 11.5 पाउण्‍ड प्रतिमाह की छात्रवृत्ति स्‍वीकृत की. वे उच्‍च शिक्षा के लिए 12 जुलाई, 1913 की दोपहर में न्‍यूयार्क बंदरगाह पर उतरे. डॉ. अम्बेडकर ने कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय से एम.ए. किया और 2 जून, 1915 को अपने शोध ‘एशियन इंडियन कामर्स’ पर डिग्री प्राप्‍त की. एक वर्ष बाद जून 1916 में उनके शोध ‘नेशनल डिविडेण्‍ड फॉर इण्डिया: ए हिस्‍टोरिकल एण्‍ड एनालिटिकल स्‍टडी’ को कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय में पीएच.डी. के लिए स्‍वीकृत किया गया. 9 मई, 1916 को डॉ. ए.एन. गोल्‍डेनर्जर द्वारा जो नृवंश सेमीनार आयोजित किया गया, उसमें डॉ. अम्बेडकर ने एक विद्वान के रूप में ‘कास्‍ट्स इन इंडिया: देयर मेकेनिज्‍म, जेनिसिस एण्‍ड डेवलपमेंट’ (भारत में जातियां: उनकी व्‍यवस्‍था उद्भव और विकास) शीर्षक पत्रक पढ़ा. यह पत्रक ‘इंण्डियन एण्‍टीक्‍यूरी’, मई 1917, खण्‍ड-12 में प्रकाशित हुआ तथा उनका पीएच.डी. शोध प्रबंध नए शीर्षक ‘इवोल्‍यूशन ऑफ प्रोविन्शिलय फाइनान्‍स इन ब्रिटिश इण्डिया’ पी.एस. किंग एण्‍ड कम्‍पनी ‘लंडन ने प्रकाशित किया और इसकी प्रति कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय को भेजी गई. उसके बाद; 8 जून, 1927 को विश्‍वविद्यालय ने उन्‍हें तद्नुसार उपाधि प्राप्‍त की. इस प्रकार उन्‍होंने तीन वर्षों (जुलाई 1913 से जून 1916) में कोलम्बिया विश्‍वविद्यालय से दो उपाधियां हासिल की. महान इच्‍छाशक्ति, समर्पण और अध्‍यवसाय से उन्‍होंने यथार्थ में तीन वर्ष में अपना अध्‍ययन पूरा कर लिया. शोधार्थियों के लिए यह एक उदाहरण है जो कि विदेशों में अपनी शोध अपेक्षित समय में पूरी करना चाहते हैं. कोलंबिया विश्वविद्यालय में रहते हुए डॉ. अम्बेडकर 16 से 18 घंटे प्रतिदिन पढ़ाई करते थे. पुस्तकों से उनको खास लगाव था जो उनके जीवन के अंत तक बना रहा. एक दिन होटल में वह खाना खाने पहुंच गए. खाना खाने के लिए जब उन्होंने हाथ बढ़ाया तब उन्हें ध्यान आया कि खाने के पैसों से तो वे रास्ते में किताब खरीद लाए हैं और उनकी जेब में पैसे नहीं है. वो बगैर खाना खाए अपने कमरे पर लौट आए और दो दिनों तक भूखे रहे क्योंकि उन्होंने जो किताब खरीद ली थी उसकी कीमत उनके दो दिन के खाने के बराबर थी. उनका महीने के खर्च का बजट न बिगड़ने पाए इसलिए वे दो दिन तक भूखे ही रहकर पढ़ाई करते रहे. कोलंबिया विश्वविद्यालय के बाद डॉ. अम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई कर सन् 1921 में डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की. ग्रेज इन से कानून की पढ़ाई कर सन् 1923 में बैरिस्टर की डिग्री हासिल की. भारतवर्ष लौटने के बाद भी वे पढ़ते रहे और लिखते रहे. 6 दिसंबर 1956 को डॉ. अम्बेडकर ने अंतिम सांस ली और अंतिम सांस लेने से पहले वे अपनी कालजयी कृति ‘‘भगवान बुद्ध और उनका धम्म’’ पूरा करके गए. डॉ. अम्बेडकर ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया. उनके अनुसार शिक्षा को हर व्यक्ति की पहुंच के अंदर लाया जाना चाहिए. भारतीय रिजर्व बैंक स्थापित करने में योगदान डॉ. अम्बेडकर एक जाने माने अर्थशास्त्री थे. जून 1916 में अम्बेडकर ने पी॰ एच॰ डी॰ के लिए थीसिस प्रस्तुत की जिसका शीर्षक था ‘नेशनल डिविडेंड फॉर इंडिया; ए हिस्टोरीक एंड एनालिटिकल स्टडी’. अर्थशास्त्र में डी॰ एस॰ सी॰ के लिए मार्च 1923 में उन्होंने अपनी थीसिस ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी–इट्स ऑरिजिन एंड इट्स सोल्यूशंस’ प्रस्तुत किया. इस थीसिस को लंदन की पी एस किंग एंड कंपनी ने दिसम्बर 1923 में ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी’ के नाम से प्रकाशित किया. पुस्तक की भूमिका मशहूर अर्थशास्त्री प्रोफेसर कैनन ने लिखकर डॉ. अम्बेडकर की भूरि भूरि प्रशंसा की. इस पुस्तक में डॉ अम्बेडकर ने मुद्रा समस्या का अत्यंत विद्वतापूर्ण विवेचन किया है. डॉ. अम्बेडकर के अनुसार टकसाल बंद कर देने से मुद्रास्फीति तथा आंतरिक मूल्य असंतुलन दूर हो सकता है. उनका कहना था कि सोना मूल्य का मापदंड होना चाहिए और इसी के अनुसार मुद्रा में लचीलापन होना चाहिए. डॉ अम्बेडकर का निष्कर्ष था कि भारत को स्वर्ण विनिमय मानक की मौद्रिक नीति अपनाने से बहुत नुकसान हुआ है. उनका निष्कर्ष था कि भारत को अपनी मुद्रा विनिमय दर स्वर्ण विनिमय मानक की जगह स्वर्ण मानक अपनाना चाहिए जिस से की मुद्रा विनिमय दर में बहुत अधिक उतार चढ़ाव न हो और सट्टेबाजी को अधिक बढ़ावा न मिले. मौद्रिक नीति के विषय में उन्होंने जे. एम केन्स जैसे नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री से भी टक्कर ली जो कि स्वर्ण विनिमय मानक के पक्षधर थे. रुपए के संबंध में यह पुस्तक अब तक लिखी गयी सभी पुस्तकों से श्रेष्ठ थी. पुस्तक की समीक्षा करते हुए ‘द टाइम्स’ (लंदन) ने लिखा; ‘यह पुस्तक अति श्रेष्ठ रचना है, अंग्रेजी की शैली सुगम है. अपने विषय में उनकी सम्पूर्ण पैठ है’. द इकनोमिस्ट (लंदन) ने लिखा; ‘सुस्पष्ट और सुयोग्यतापूर्ण लिखी गयी पुस्तक है. अन्य अनेक रचनाओ में से मुद्रा समस्या का कोई अन्य पहलू निश्चित रूप में इतना पठनीय नहीं है.’ कुछ समय पश्चात रॉयल कमिशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फ़ाइनेंस जिसको हिल्टन युवा आयोग के नाम से भी जाना जाता है भारत आया. इस आयोग के हर सदस्य के पास ‘द प्रोब्लेम ऑफ द रूपी’ पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में  मौजूद थी. भारत की मुद्रा समस्या के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने हिल्टन युवा आयोग के सामने जो विचार प्रस्तुत किए वे उनकी मुद्रा समस्या के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान थे. आयोग ने अपनी रिपोर्ट सन 1926 में प्रस्तुत की. इसी रिपोर्ट के आधार पर 1 अप्रैल 1935 को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई. श्रमिक कल्याणकारी कानून और डॉ. अम्बेडकर (भविष्य निधि (PF) और रोजगार कार्यालय के जनक) 2 जुलाई 1942 को वाइसरॉय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल में डॉ. अम्बेडकर को श्रम सदस्य (वर्तमान समय में लेबर मिनिस्टर) के रूप में शामिल किया गया. मालिक मजदूरों के तमाम संघर्षों में उन्होंने मजदूरों का साथ दिया. 7 मई 1943 को उन्होंने त्रिपक्षीय श्रम सम्मेलन द्वारा संस्थापित स्थायी श्रम समिति की अध्यक्षता की और संयुक्त श्रम समितियां और रोजगार कार्यालय स्थापित करने के लिए पहल किया. आज जो हम हर जिले में रोजगार कार्यालय (इम्प्लॉइमेंट एक्स्चेंज) देख रहे हैं, वो डॉ. अम्बेडकर की ही देन है. श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के लिए उन्होंने भविष्य निधि योजना (प्रोविडेंट फ़ंड) लागू करवाया. उऩ्होंने नौकरीपेशा लोगों के लिए काम के घंटे तय करने में भी भूमिका निभाई. उनका मानना था कि एक व्यक्ति का काम करने का घंटा निश्चित रहना चाहिए. अप्रैल 1944 में डॉ. अम्बेडकर ने एक संशोधन बिल पेश किया कि निरंतर काम करने वाले मजदूरों को सवेतन अवकाश दिया जाए. डॉ. अम्बेडकर ने मजदूरों से कहा कि वे पूंजीपतियों से यह सवाल पूछें कि उन्होंने मजदूरों का रहन–सहन ऊंचा उठाने के लिए पैसा क्यों नहीं खर्च किया? डॉ. अम्बेडकर के अनुसार औद्योगिक शांति स्थापना के लिए एक समझौता व्यवस्था, श्रम-विवाद-कानून में संशोधन और न्‍यूनतम वेतन कानून आवश्‍यक थे. उन्‍होंने कहा कि औद्योगिक शांति कानून के आधार पर स्‍थापित हो सकती है, पर यह आवश्‍यक नहीं कि ताकत के बल पर ही यह संभव हो. इसके लिए त्रिपक्षीय मार्ग ही अनुकूल रहेगा. उनका कहना था कि शोषण समाप्‍त करके, श्रम कल्‍याण द्वारा और सही औद्योगिक संबंधों के जरिए ही औद्योगिक शांति स्‍थापित हो सकती है. औद्योगिक शांति के लिए यह आवश्‍यक है कि मालिक और मजदूरों के बीच के झगड़े सामाजिक न्‍याय के सिद्धांत पर सुलझाए जाएं. किसानों के हितैषी डॉ. अम्बेडकर सार्वजनिक निर्माण कार्य मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर द्वारा किया गया काम उल्‍लेखनीय हैं. इसका फायदा विशेष कर देश के किसानों को मिला.वाइसरॉय की एक्जिक्यूटिव कौंसिल में डॉ. अम्बेडकर को केंद्रीय सार्वजनिक निर्माण विभाग (सी.पी.डब्‍ल्‍यू.डी.) का मंत्री बनाया गया. इस पद पर रहते हुए डॉ. अम्बेडकर ने अगस्‍त 1945 में बंगाल और बिहार के लिए एक बहुउद्देशीय दामोदर घाटी विकास योजना प्रस्‍तुत की जो अमेरिका के तेन्‍नेसी वैली प्रोजेक्‍ट से मिलती जुलती थी. इस योजना के तहत सिंचाई के लिए पानी, जल मार्ग से यातायात, बिजली का उत्‍पादन आदि जैसे काम किए गए जिससे देश के करोड़ों लोगों को लाभ मिला. नवंबर 1945 में उन्‍होंने उड़ीसा में वहां की नदियों के विकास के लिए एक बहुउद्देशीय योजना शुरू की जो अंतत: हीराकुंड बांध के रूप में कारगर हुई. डॉ. अम्बेडकर ने हीरा कुंड बांध योजना में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई. डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि जल मार्गों का विकास कर सस्‍ते यातायात को बढ़ावा दिया जा सकता है, उनका कहना था कि बिजली का उत्‍पादन और सिंचाई योजनाओं का विकास भारत के औद्योगिकरण के लिए और आर्थिक विकास के लिए अति आवश्‍यक है. उन्होंने भारत की खनिज संपदा के विकास और उत्‍खनन के लिए एक विस्‍तृत योजना प्रस्‍तुत की और जोलोजिकल सर्वे ऑफ इं‍डिया का पुनर्गठन किया. मानव अधिकारों के संरक्षक डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि सरकार एक ऐसा संगठन है जो (1) जनता की जीवन रक्षा, स्‍वतंत्रता, सुख, भाषा और धर्म पालन के अधिकारों की रक्षा करता है, (2) दलित वर्गों को समान अवसर प्रदान करके सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करता है और (3) अपने हर नागरिक को अभाव और भय से मुक्ति प्रदान करता है. स्‍वतंत्रता-पूर्व भारत में उन्‍होंने भारतीयों की आजादी और अधिकारों की लड़ाई लड़ी. उन्‍होंने कहा कि स्‍वतंत्रता मात्र राजनैतिक नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं आध्‍यात्मिक भी होनी चाहिए. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि सरकार की सत्‍ता और व्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता में संतुलन होना चाहिए. उनका कहना था कि अच्‍छी सरकार वही है जो एक समुदाय को दूसरे समुदाय के शोषण के बचाए और देश में आंतरिक उपद्रवी, हिंसा और अव्‍यवस्‍था पर नियंत्रण करे और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को उसके मूलभूत अधिकारों का उपयोग करने में सहायता करे. महिला सशक्तिकरण में डॉ. अम्बेडकर का योगदान डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि भारत तभी सशक्‍त बन सकता है जब यहां कि महिलाएं भी सशक्त हों. 4 अगस्त, 1913 को न्यूयार्क से अपने एक मित्र को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस सिद्धांत की आलोचना कि थी कि मनुष्य को इस संसार में जन्म के आधार पर या पूर्व कर्मों के अनुसार सब कुछ प्राप्त होता है. डॉ. अम्बेडकर ने इसी पत्र में लिखा: ‘‘हमें कर्म सिद्धांत को त्याग देना चाहिए. यह गलत है कि माता-पिता बच्चे को केवल जन्म ही देते हैं, भविष्य नहीं. माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल बना सकते हैं. यदि हम इस सिद्धांत पर चलने लग पड़ें तो हम अति शीघ्र शुभ दिन देख सकते हैं और यदि हम लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की शिक्षा की ओर भी ध्यान देने लग जाएं तो हम शीघ्र प्रगति कर सकते हैं. आप अपनी पुत्री को शिक्षा देकर इसका लाभदायक परिणाम स्वयं देख सकते हैं.’’ डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि किसी भी देश की आबादी का आधा हिस्सा महिलाओं का होता है और इसलिए कोई भी देश तभी तरक्की कर सकता है जब उसकी महिलाओं को तरक्की का समान अवसर मिले. नागपुर में महिलाओं के एक अखिल भारतीय सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने कहा था, ‘मैं किसी समुदाय की प्रगति को इस पैमाने पर देखता हूं कि उसकी महिलाओं में कितनी प्रगति की है. मैं स्त्रियों के उत्थान और मुक्ति का सबसे बड़ा समर्थक रहा हूं और अपने समुदाय में स्त्रियों की स्थिति सुधारने का मैंने भरसक प्रयास किया है और मुझे इस पर गर्व है.” भारत में मनुस्मृति ग्रंथ में महिलाओं के हितों और अधिकारों की अनदेखी की गई है और महिलाओं को दबा कर रखने को कहा गया है इसी के विरोध स्वरूप डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का सार्वजनिक रूप से दहन किया. डॉ. अम्बेडकर का विश्वास था कि मनुस्मृति के प्रावधानों के चलते महिलाओं को उनका उचित अधिकार नहीं मिल सकता. व्यस्क मताधिकार के समर्थक 1928 में साइमन कमीशन के समक्ष दिए गए अपने साक्ष्य में डॉ. अम्बेडकर ने वयस्क मताधिकार की जोरदार वकालत की और कहा कि इक्कीस वर्ष के ऊपर के सभी भारतीयों को चाहे वो महिला हो या पुरुष मताधिकार का अधिकार मिलना चाहिए. वयस्क मताधिकार के विरोधियों का कहना था कि वयस्क मताधिकार के लिए जितने मानव संसाधनों की आवश्यकता है उतने लोग सरकार के पास नहीं है. इस पर डॉ. अम्बेडकर ने दलील दी कि जिस तरह जनगणना के लिए कॉलेज के शिक्षकों और विद्याथियों की सहायता ली जाती है उसी प्रकार निर्वाचन के समय उनकी सहायता ली जा सकती है और दीर्घकाल के लिए आवश्यकतानुसार भर्ती भी की जा सकती है. आज युवा देश की राजनीति में सबसे ज्यादा मायने रखता है. अगर तब डॉ. अम्बेडकर ने व्यस्क मताधिकार को लेकर जोर न दिया होता तो राजनीति में युवाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल पाना आसान नहीं होता. प्रसूति अवकाश (मैटरनिटी लीव) का अधिकार तमाम सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं में महिला कर्मचारियों के लिए मैटरनिटी लीव यानी प्रसूति अवकाश होने के कारण महिला कर्मियों को जो सहूलियत होती है, असल में यह सोच डॉ. अम्बेडकर की थी. सन् 1942 में डॉ. अम्बेडकर को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में श्रम सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया. डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए भारत के इतिहास में पहली बार प्रसूति अवकाश की व्यवस्था की. आगे चलकर जब डॉ. अम्बेडकर को संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष चुना गया तो उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में ऐसा प्रावधान रखा कि लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा और इस तरह समानता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया. इतना ही नहीं, कानून मंत्री के रूप में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया. इसका उद्देश्य अलग-अलग पंथों में बंटे हिन्दू समुदाय के लिए एक समान आचार संहिता तैयार करना था, जिसमें महिलाओं को वैवाहिक मामलों में पति से तलाक के मामले में, उत्तराधिकार के मामले में, गोद लेने के मामले में, गुजारा भत्ता के मामले में और परिवार में हिस्सेदारी के मामले में समान अधिकार मिले. महिला सशक्तीकरण के लिए हिन्दू कोड बिल में योगदान बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर प्रायः कहा करते थे कि शास्त्रों में निहित आदेशों के अनुसार शूद्रों और अछूतों के साथ-साथ सारी स्त्री जाति पर चाहे वह किसी भी वर्ण (जाति) की है, बहुत जुल्म ढ़ाया गया है. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि ‘‘मैं ‘हिन्दू कोड’ पास कराकर भारत की समस्त नारी जाति का कल्याण करना चाहता हूं. मैंने सवर्ण जाति से सम्बन्ध रखने वाली और पतियों द्वारा परित्यक्ता अनेक सवर्ण युवतियों और प्रौढ़ महिलाओं को देखा जिन्हें पतियों ने त्यागकर उनके जीवन-निर्वाह के लिए नाममात्र का चार-पांच रुपया मासिक गुजारा बांधा हुआ था. ऐसी स्त्रियां अपने जीवन के दिन अपने माता-पिता या भाई-बन्धुओं के साथ रो-रोकर व्यतीत कर रही थीं. इस स्थिति के कारण ऐसी स्त्रियों के मां-बाप भी शोक में रहते थे.’’
  • अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता दिलाने में योगदान
डॉ. अम्बेडकर हिन्दू कोड बनाकर लाखों निरीह महिलाओं को गैरजिम्मेदार और जालिम पतियों के चंगुल से छुड़ाकर उन्हें सामाजिक न्याय दिलवाना चाहते थे. उनका कहना था कि जब कोई हिन्दू पति अपनी पहली पत्नी को त्यागकर दूसरा, तीसरा या चौथा विवाह कर लेता है; तब ऐसी पहली पत्नी को अपने माता-पिता तथा भाई भतीजों के घर पर आश्रय लेना पड़ता है. वह बेचारी पत्नी इस स्थिति में भी अपने पति से न तो तलाक ले सकती थी न दूसरा विवाह कर सकती थी. हिन्दू कोड बिल के पास हो जाने पर ऐसी दुःखित और निरीह पत्नियां कानून के बलबूते पर ऐसे अत्याचारी पतियों से पीछा छुड़ा कर तलाक हासिल कर सकती थीं और जीवन-यापन के लिए किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह भी कर सकती थीं. ‘हिन्दू कोड’ की एक प्रबल विशेषता यह भी थी कि किन्हीं भी दो हिन्दू वर-वधुओं का विवाह चाहे उनका परस्पर वर्ण भेद या जाति भेद कुछ भी हो उसे वैध माना जाता है और उनसे उत्पन्न सन्तान पैतृक सम्पत्ति में वैध अधिकारी बनेगी. इस कानून के बनने से पहले परस्पर विरोधी वर्णों, जातियों उप-जातियों में हुए विवाह से उत्पन्न सन्तान पैतृक सम्पत्ति में अंश या हिस्सा प्राप्त करने के लिए वैध या जायज़ नहीं माना जाता था.
  • दत्तक बच्चों को अधिकार दिलाने में भूमिका
शताब्दियों से धर्म-ग्रन्थों में निहित आदेशों एवं प्रचलित रूढ़ियों के अनुसार दत्तक या गोद लेने की प्रथा केवल सजातीय या दोहता को ही सुविधा देती थी किन्तु हिन्दू कोड न केवल किसी भी हिन्दू बालक को दत्तक या गोद लेने का अधिकार दिलवाता था बल्कि किसी कन्या को भी गोद लिया जा सकता है और वह गोद लेने वाले माता-पिता की सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त करती है. हालांकि डॉ. अम्बेडकर की यह प्रगतिशील सोच उस समय सत्ता के केंद्र में बैठे लोगों को रास नहीं आई और उन्होंने महिला सशक्तिकरण की बात करने वाले इन कानूनों के हितैषी हिन्दू कोड बिल को पास नहीं होने दिया, इसके विरोध स्वरूप डॉ. अम्बेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. महिलाओं के अधिकारों के लिए और उनके सशक्तीकरण के लिए भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्रिमंडल से कैबिनेट मंत्री के पद से डॉ. अम्बेडकर द्वारा इस्तीफा देने की बात से यह समझा जा सकता है कि वह महिलाओं को समान अधिकार दिलाने को लेकर कितने गंभीर थे. वह कहा करते थे कि मुझे भारतीय संविधान के निर्माण से ज्यादा अधिक दिलचस्पी और खुशी हिन्दू कोड पारित करने में है. किसी राजनेता द्वारा महिलाओं के हित के लिए संघर्ष करने का ऐसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता है. लेकिन अफसोस यह है कि आज भी तमाम महिलाएं बाबासाहेब द्वारा उनके हित में किए गए कामों से आज भी अंजान हैं. बाद में सन 1955-56 में हिन्दू कोड बिल को कई टुकड़ों में जैसे हिन्दू विवाह कानून, हिन्दू उत्तराधिकार कानून, हिन्दू गोद एवं गुजारा भत्ता कानून जैसे नामों से पास किया गया. इन कानूनों को पारित करवाने में भी डॉ. अम्बेडकर ने अहम भूमिका निभाई. उन्होंने तत्कालीन कानून मंत्री श्री पाट्स्कर को हिन्दू कोड की एक-एक धारा को विस्तार से समझाकर और उसके विरोध में दी जाने वाली दलीलों के जवाब पहले से तैयार करके उनकी बहुत सहायता की. डॉ. अम्बेडकर का सपना पूरी तरह तब साकार हुआ जब सन् 2005 में हिन्दू उत्तराधिकार कानून में संशोधन करके पुत्री को भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में बराबर का अधिकार दिया गया. भारत का औद्योगिकरण और राज्‍य समाजवाद के बारे में डॉ. अम्बेडकर के विचार डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि भारत का विकास औद्योगीकरण से ही संभव है और औद्योगीकरण करने के लिए राज्य समाजवाद अनिवार्य है. इसके साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कृषि भूमि सुधार और खेती में सहकारिता को लागू किया जाना चाहिए. लोकतंत्र के बारे में डॉ. अम्बेडकर के विचार डॉ. अम्बेडकर लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे. उनका कहना था कि लोकतंत्र की आत्मा है, एक आदमी-एक मूल्य का सिद्धांत. लंदन में गोलमेज सम्मेलन के पूर्ण अधिवेशन में 20 नवम्बर 1930 को अपने भाषण में उन्होंने कहाः हमें ऐसी सरकार चाहिए जिसमें सत्ता में बैंठे व्यक्ति इस बात को समझते हों कि कब सरकार की आज्ञाकारिता समाप्त हो जाती है और प्रतिरोध आरंभ हो जाता है, फिर वे न्याय और समय की आवश्यकताओं को देखते हुए सामाजिक और आर्थिक जीवन की आचार संहिताओं में परिवर्तन करने में नहीं हिचकिचाएं. यह काम केवल वही सरकार कर सकती है जो जनता की सरकार हो, जनता के लिए हो तथा जनता द्वारा चुनी गई हो. हम महसूस करते हैं कि हमारे अतिरिक्त हमारे दुख-दर्द को कोई भी दूर नहीं कर सकता और जब तक राजनीतिक सत्ता हमारे हाथों में नहीं आती, हम भी उसे दूर नहीं कर सकते. नए संविधान का निर्माण करते समय भारत की सामाजिक व्यवस्था के कुछ ठोस तथ्यों को ध्यान में अवश्य रखा जाना चाहिए. इस बात को मानकर चलना होगा कि यहां की सामाजिक व्यवस्था उच्च वर्ग के लिए आदर और निम्न वर्ग के लिए घृणा की अन्याय-पूरक मान्यताओं पर आधारित हैं. इसलिए वर्ग और जाति पर आधारित इस व्यवस्था में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के लिए आवश्यक समता और बंधुत्व की मानवीय भावनाओं के विकास की कोई संभावना नहीं है. इस बात को भी मानना होगा कि यद्पि बुद्धीजीवी वर्ग भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण अंग है किंतु यह सभी उच्च वर्ग से आते हैं. यद्यपि वह देशहित की बात करते हैं और राजनीतिक आंदोलनों का नेतृत्व करते हैं, किंतु वे जातिगत सकीर्णताओं का परित्याग नहीं कर पातें. हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि दलित वर्गो की समस्या एक सामाजिक समस्या है और उसका समाधान राजनीति में नहीं है. डॉ. अम्बेडकर इस विचार का जोरदार विरोध करते थे. वह दलित वर्ग की समस्या को एक राजनैतिक समस्या मानते थे. उनका कहना था कि असली लोकतंत्र तभी आएगा जब बहुसंख्यक समाज देश का हुक्मरान वर्ग बने. उनका मानना था कि शोषित वंचित वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता आए बिना उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता. संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर जब भारत देश आजाद हो रहा था और भारत का संविधान लिखने की जिम्मेदारी आई तो संविधान सभा ने डॉ. अम्बेडकर को संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष चुना और डॉ. अम्बेडकर ने उस जिम्मेदारी को बहुत ही अच्छी तरह से निभाया. भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए चुनी गई लेखा समिति पर अम्बेडकर की अध्‍यक्षता में कुल सात सभासदों की संविधान समिति चुनी गई थी. लेकिन प्रत्‍यक्षतया एक सभासद की मौत हो गई थी, दूसरे सभासद अमेरिका चले गए और वहीं रह गए, तीसरे सभासद ने इस्‍तीफा दे दिया था. उन तीन जगहों को भरा नहीं गया. चौथे सभासद संस्‍था के कार्यों में लगे रहे, इसलिए उनका भी संविधान लेखन में कोई भी उपयोग नहीं था. वे सिर्फ नाम के ही सभासद थे. एक-दो सभासद दिल्‍ली से दूर थे और अस्‍वास्‍थ्‍य की वजह से वह अनुपस्थित ही रहे. इस वजह से प्रारूप समिति के अध्‍यक्ष डॉ. अम्बेडकर को अकेले ही संविधान लेखन का संपूर्ण भार अपने कंधों पर उठाना पड़ा. दिन के 18-18 घंटे वह कार्यरत रहते थे. राष्‍ट्र द्वारा सौंपा गया कार्य करने के लिए उन्‍होंने अपने प्राकृतिक स्‍वास्‍थ्‍य की भी परवाह नहीं कि और बहुत ही कष्‍ट सहा. डॉ. अम्बेडकर ने अपने विचारों को संविधान के मूलभूत अधिकारों में अनुच्छेद 17 और 23 में रखा. भारतीय संविधान की नीव लोकतंत्र पर टिकी है, इसलिए डॉ. अम्बेडकर को भारतीय संविधान के प्रधान शिल्पकार के रूप में जाना जाता है और कुछ विद्वान लेखक उनको भारतीय संविधान का पिता भी मानते हैं. डॉ. अम्बेडकर द्वारा किए गए कार्यों के लिए अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय ने सन् 1952 में उन्हें एल.एल.डी की मानद डिग्री प्रदान की. हैदराबाद स्थित उस्‍मानिया विश्‍वविद्यालय ने सन् 1953 में डॉ. अम्बेडकर को एल.एल. डी की मानद डिग्री प्रदान की. एक देशभक्त के रूप में डॉ. अम्बेडकर संविधान सभा में संविधान के गुणविशेष के बारे में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि संविधान में बुने गए तत्व विद्यमान पीढ़ी के मत हैं. संविधान कितना भी अच्छा हो यह आखिर में राज्यकर्ताओं के संविधान के इस्तेमाल करने पर ही निर्भर होगा कि वह अच्छा है या बुरा. राष्ट्र की भविष्य को सोच विचार कर उन्होंने चिंता व्यक्त की और कहा, मेरे दिल को इस बात से बड़ा दुःख होता है कि भारत को इससे पहले अपनी स्वतंत्रता गंवाने की बारी एक ही बार आई हो ऐसा नहीं है, किन्तु भारत की जनता के खुद के ही विश्वासघात से, देशद्रोह करने से ही उसे स्वतंत्रता गंवानी पड़ी. जब मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया तब राजा दाहर के सेनापति ने मुहम्मदबिन कासिम के मुनीम से रिश्वत लेकर अपने राजा की ओर से लड़ने से साफ इनकार कर दिया. मुहम्मद गोरी को हिन्दुस्तान पर हमला करने का आमंत्रण देकर पृथ्वीराज के खिलाफ लड़ने का आमंत्रण देने वाला पु़रूष जयचन्द था. उसने मुहम्मद गोरी को सोलंकी राज्य की और अपनी सहायता देने का वचन दिया था. जब शिवाजी महाराज स्वतंत्रता के लिए युद्ध कर रहे थे, तब अन्य मराठा सरदार और राजपूत, मुगल बादशाह की ओर से लड़ रहे थे. जब ब्रिटिश सिख राज्यकर्ताओं के खिलाफ लड़ रहे थे तब उनके सेनापति चुप बैठे थे. सिखों की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए उन्होंने बिलकुल प्रयास नहीं किए. ऐसे ही 1857 में भारत के बड़े भाग ने ब्रिटिशों के खिलाफ स्वतंत्रता युद्ध पुकारा, तब बहुत से लोग उसमें शामिल नहीं हुए. इस तरह डॉ. अम्बेडकर ने इस बात की ओर इशारा किया कि अगर क्षेत्रीय दलों ने अपने दल का मत राष्ट्रहित की अपेक्षा श्रेष्ठ माना, तो भारतीयों की स्वतंत्रता दूसरी बार खतरे में पड़ जायेगी और शायद वह स्थायी रूप से नष्ट हो जाएगी. अतः शरीर में खून की आखिरी बूंद होने तक आपको अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रतिज्ञा कऱनी चाहिए. सदन में डॉ. अम्बेडकर द्वारा कहे गए इस बात की सभी राजनेताओं ने जमकर सराहना की. राष्ट्रीय एकता के लिए जाति व्यवस्था के विनाश के पक्षधर डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि जब तक भारत में जाति प्रथा रहेगी, भारत मजबूत नहीं हो सकता. वे जातिप्रथा को राष्ट्र विरोधी मानते थे तथा जाति को सामाजिक जीवन में अलगाव व भेदभाव पैदा करने वाला तत्व मानते थे जो लोगों के बीच ईर्ष्या, घृणा और विद्वेष पनपाती और फैलाती है. उनका मानना था कि यदि हम पूरी वास्तविकता में एक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो हमें इन सारी कठिनाइयों पर विजय पानी ही होगी, क्योंकि बंधुता केवल तभी हकीकत बन सकती है जब हम एक राष्ट्र हो. बंधुता के बिना समानता और स्वतंत्रता रंग की पुताई वाली परतों से ज्यादा गहरी नहीं हो सकती. इसलिए डॉ. अम्बेडकर ने युवकों का आवाह्न किया कि वो अंर्तजातीय भोज और अंर्तजातीय विवाह को प्रोत्साहन दे. अम्बेडकर के बारे में अब गंभीरता से सोचने का मतलब है कि हमें अपने समाज की संरचना पर भी पूर्ण विचार करना चाहिए. हमें जाति पर पूर्ण विचार करना चाहिए और खुद से पूछना चाहिए कि आज का भारत क्या वह करने के लिए तैयार है जो डॉ. अम्बेडकर ने 1936 में करने को कहा था. उनका कहना था, “आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि अगर आपको इस व्यवस्था को तोड़ना है तो आपको वेदों व शास्त्रों को डायनामाइट से उड़ा देना चाहिए जिनमें न कोई तार्किकता है और न कोई नैतिकता. आपकों श्रुतियों और स्मृतियों के धर्म को नष्ट कर देना चाहिए.” लाहौर के जातिपात तोडक मंडल के एक सम्मेलन के लिए तैयार किया गया अध्यक्षीय भाषण; जो दिया ना जा सका उसे उन्होंने ‘अनाहिलेषन ऑंफ कास्ट’ नाम से प्रकाशित करवाया जिसमें उन्होंने इन बातों को लिखा था. उनका मानना था कि जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए उन धार्मिक अवधारणाओं को नष्ट करना जरूरी है, जिनपर जाति प्रथा आधारित है. दूसरे शब्दों में, अम्बेडकर ने सामाजिक सुधार के लिए हिन्दू समाज के पुनर्गठन और  पुनर्निर्माण को जरुरी बताया था. डॉ. अम्बेडकर की नजर में सांप्रदायिकता और राष्ट्रीयता का अर्थ डॉ. अम्बेडकर के अनुसार मानवता के इतिहास में राष्ट्रीयता एक बहुत बड़ी शक्ति रही है. यह एकत्व की भावना है, किसी विशेष वर्ग से संबंधित होना नहीं. यही राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय भावना का सार कहा जाता है. अम्बेडकर की दृष्टि में सही राष्ट्रवाद है जाति भावना का परित्याग. और जाति भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद तभी औचित्य ग्रहण कर सकता है जब मानव के बीच जाति, नस्ल और रंग का अंतर भुलाकर उसमें सामाजिक भ्रातत्व को सर्वोच्च स्थान दिया जाए. राष्ट्रवाद के संदर्भ में अल्पसंख्यक और बहुमत के विषय में डॉ अम्बेडकर कहते हैं; “अल्पमत द्वारा जब सत्ता में कुछ अधिकार मांगे जाते हैं तो वह सांप्रदायिक हो जाता है परंतु बहुमत के बल पर जब सत्ता पर एकाधिकार जमा लिया जाता है तो उसे राष्ट्रीयता कहा जाता है. डॉ. अम्बेडकर व्यक्ति कि स्वतन्त्रता चाहते थे. संविधान सभा में कुछ सदस्यों ने प्रस्तावना में “भारत के लोग” के स्थान पर “भारत राष्ट्र” लिखने कि मांग की. इस पर अम्बेडकर ने पूछा; “हजारों जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? जितनी जल्दी हम यह समझ जाएंगे कि सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अभी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही अच्छा है”. अम्बेडकर ने कहा कि शासक जातियां यह बात जानती हैं कि वर्ग सिद्धान्त, वर्ग हित और वर्ग संघर्ष उनका विनाश कर देगा इसलिए सताये हुये वर्ग का ध्यान बांटने के लिए उसे राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता का नाम लेकर बहका दिया जाए. उन्होंने कहा कि ऐसा राष्ट्रवाद नहीं होना चाहिए जो दूसरे समुदाय या राष्ट्र के प्रति निर्दयता या भय प्रकट करता हो. उन्होंने कहा कि उस समय तक राष्ट्रवाद निरर्थक है जब तक राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान न हो. उन्होंने कहा कि सवर्ण जातियां राष्ट्रवाद के नाम पर पिछड़ी जातियों को धोखा दे सकती हैं. वैज्ञानिक बौद्ध धम्म के हिमायती डॉ. अम्बेडकर डॉ. अम्बेडकर गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे. 12 मई 1956 को बीबीसी लंदन से वार्ता करते हुए डॉ. अम्बेडकर ने कहा, “मैं बुद्ध धर्म को प्राथमिकता देता हूं क्योंकि यह एक साथ संयुक्त रूप से तीन सिद्धांत प्रतिपादित करता है, जो कोई और नहीं करता. अन्य सभी धर्म ईश्वर, आत्मा या मरने के बाद के जीवन की चिंता में लिप्त है. बुद्ध धर्म प्रज्ञा की शिक्षा देता है. यह करूणा की शिक्षा देता है. यह समता की शिक्षा देता है. इस धरती पर कुशल व सुखी जीवन के लिए मनुष्य को यही चाहिए. बुद्ध धर्म की इन्हीं तीन शिक्षाओं से मुझे प्रेरणा मिली. इन्हीं शिक्षाओं से पूरी दुनिया को प्रेरित होना चाहिए. समाज को न तो ईश्वर और न आत्मा ही बचा सकती है.” बुद्ध के व्यक्तित्व की एक खासियत से वे बहुत प्रभावित थे जो है उनके कथनी और करनी में कोई भेद न होना. बुद्ध ने वही सिखाया जिस पर वे स्वयं चले. ‘यथावादी तथाकारी, यथाकारी तथावादी’. बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने 14 अक्टूबर, 1956 को लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर भारत में लुप्तप्राय हो गए बौद्ध धर्म को पुनःस्थापित किया और एक नई धम्म दीक्षा विधि द्वारा 22 प्रतिज्ञाएं दिलाकर धम्म की जड़ें मजबूत की. डॉ. अम्बेडकर कहते थे कि बुद्ध की शिक्षाओं में अंधविश्वास के लिए कोई जगह नहीं है. कालाम सुत्त में जिसको स्वतंत्र चिंतन का प्रथम घोषणा पत्र कहा जाता है, बुद्ध ने कहा कि- किसी बात को इसलिए मत मानों कि शास्त्रों में ऐसा लिखा है, या कि ऐसा बहुत पहले से हो रहा है या विद्वान और बड़े लोग ऐसा कहते हैं. हर बात को अपने अनुभव की कसौटी पर कसो और जब यह लगे कि यह बात आपके लिए व दूसरों के लिए कल्याणकारी है तभी मानो. मानसिक गुलामी से मुक्ति का मार्ग इसी में है जिसके द्वारा समतामूलक समाज, देश व लोक की गुंजाइश है. उनके दर्शन की जड़े राजनीतिक शास्त्र में नहीं बल्कि धर्म में थीं और इस दर्शन को उन्होंने अपने शास्ता भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्राप्त किया था. व्यक्तिपूजा के खिलाफ थे डॉ. अम्बेडकर अपनी 55वीं वर्षगांठ पर मद्रास के ‘जय भीम’ पत्रिका को दिए गए एक संदेश में डॉ. अम्बेडकर ने कहा- ‘व्यक्तिगत तौर पर मैं वर्षगांठ मनाना पसंद नहीं करता. भारत के नेता को पैगम्बरों के बराबर सम्मान दिया जाता है जो लोकतंत्र के लिए खराब है. मैं व्यक्तिपूजा के खिलाफ हूं. बाबाओं, देवी-देवताओं, पुनर्जन्म की अवधारणा, आत्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश करना, वशीकरण, तंत्र-मंत्र और ज्यातिष में डॉ. अम्बेडकर का बिल्कुल भी विश्वास नहीं था. उनका कहना था कि ये सब तो अंधविश्वास मात्र हैं,जो सदियों से मनुष्यों में चले आ रहे हैं, जिन्होंने कितने ही घरों का विनाश कर दिया है और जिन्हें आज भी किसी न किसी रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है. वह मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति, धर्म, जन्म और धन-दौलत की भिन्नता का विचार किए बिना एक सम्यक संबंध स्थापित करना चाहते थे और स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के तीन शब्दों में समाहित सिद्धांतों पर आधारित समाज की स्थापना करना चाहते थे. डॉ. अम्बेडकर का दर्शन स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के न्यायपूर्ण स्तम्भों पर आधारित था और इसके स्रोत थे- शिक्षा आंदोलन, संगठन, बौद्ध धम्म, संघ और लोकतंत्र में आस्था. विदेशों में डॉ. अम्बेडकर बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर द्वारा देश के हर वर्ग के लिए जितना सोचा गया, शायद ही किसी अन्य नेता ने ऐसा सोचा और किया होगा. डॉ. अम्बेडकर महज एक राजनेता नहीं थे, बल्कि वो एक समाज सुधारक और सच्चे अर्थों में गरीबों, महिलाओं, किसानों और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज थे. वह इनके दर्द को अच्छी तरह समझते थे. वह समानता के पक्षधर थे, यही वजह है कि उन्होंने हर उस वर्ग के लिए काम किया जो हाशिए पर पड़ा था; चाहे वो महिला हो, किसान हो या फिर शोषित वर्ग. उन्होंने देश के 95 फीसदी लोगों की बात की, उनके हक की आवाज उठाई और उनके अधिकारों को लिए लड़े. हालांकि वो पांच प्रतिशत लोग जो सत्ता में काबिज थे उऩ्होंने डॉ. अम्बेडकर के इन कामों की लगातार अनदेखी की और उन्हें सिर्फ एक वर्ग कह कर प्रचारित करते रहे. लेकिन डॉ. अम्बेडकर को पढ़ने और उनके द्वारा किए गए कामों को जानने के बाद यह साबित हो जाता है कि डॉ. अम्बेडकर महज किसी खास वर्ग के हितैषी नहीं बल्कि सबके हितैषी थे. अम्बेडकर सब के हैं.

देवभूमि के दलितों का दर्द

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. यहां कण-कण में भगवान के होने का दावा किया जाता है, लेकिन इसी देवभूमि की एक हकीकत ऐसी भी है, जिसे उत्तराखंड के चेहरे पर दाग और लोकतंत्र के साथ मजाक कहना ही ठीक होगा. राजधानी देहरादून से सिर्फ 84 किलोमीटर दूर जौनसार बावर का क्षेत्र है. यह क्षेत्र चकराता तहसील में आता है. दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे इलाके को ट्राइबल क्षेत्र घोषित कर दिया गया है. इस इलाके में जौनसारी परंपरा का पालन किया जाता है और सरकारी कागज में इस परंपरा को मानने वाले सभी लोगों को ट्राइबल यानि आदिवासी कहा जाता है. यानि यहां का ब्राह्मण भी ‘आदिवासी’ है और ठाकुर भी ‘आदिवासी’ है.

भारत के लोकतंत्र में यह देश का इकलौता इलाका है जहां सरकार ऊंची जाति के लोगों को ‘आदिवासी’ मानती है और उन्हें आरक्षण का हर लाभ देती है. लेकिन आदिवासी घोषित ऊंची जाति के लोगों ने दलित समाज के लोगों के हक को भी मार लिया है. ट्राइबल के सर्टिफिकेट के साथ वो रिजर्वेशन का पूरा फायदा उठाते हैं. उनका नौकरियों पर कब्जा है लेकिन दलित समाज; जिसकी आबादी 42 फीसदी है, उसे ट्राइबल का सर्टिफिकेट तक नहीं मिलता है. ट्राइबल क्षेत्र होने की वजह से उन्हें बिना इस सर्टिफिकेट के कोई लाभ नहीं मिलता है. यही नहीं इस इलाके में दलितों से बंधुवा मजदूरी तक कराई जाती है. दलितों के मंदिर में प्रवेश पर भी रोक है. दलित जब इसकी शिकायत करते हैं तो अव्वल तो उनकी शिकायत नहीं सुनी जाती है, और अगर कोई अधिकारी दलितों के दर्द से पिघल भी जाता है तो ट्राइबल होने की वजह से ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ उन पर जातीय उत्पीड़न का कोई कानून लागू नहीं होता है.

24 जून 1967 को जौनसार क्षेत्र को एक विशेष विधेयक पारित कर जनजातीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसके लिए तर्क यह दिया गया कि इस क्षेत्र की संस्कृति समान है. लेकिन जनजातीय क्षेत्र घोषित करने से ज्यादा जरूरी यहां के दलितों के हालात को सुधारना था, जिस पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. कथित देव भूमि के दलितों की बदहाली का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1976 में इस क्षेत्र में 18 हजार दलित बंधुआ मजदूर थे. वर्तमान में संख्या घटी है लेकिन हालात पूरी तरह सुधरे नहीं हैं. तुर्रा यह कि तमाम शिकायतों के बाद भी अब तक इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई है. दलितों का आरोप है कि ऊंची जाति के ट्राइबल लोग दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट जारी नहीं होने देते हैं. इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले समाजसेवी दौलत कुंवर कहते हैं, “देश भर में ऐसा नियम कहीं नहीं है कि पटवारी स्थानीय व्यक्ति हो, लेकिन जौनसार क्षेत्र का पटवारी स्थानीय व्यक्ति होता है, जो आमतौर पर ट्राइबल घोषित अपर कॉस्ट होता है. यह स्थानीय पटवारी दलितों के लिए मुश्किल खड़ी करता है. उन्हें सरकारी नियमों तक नहीं पहुंचने देता और ना ही उनका जाति प्रमाण पत्र बनने देता है. दलितों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए वह हर तरह से अड़ंगा लगाता है.” कुंवर दलितों को एसटी का प्रमाण पत्र देने में प्रशासनिक भेदभाव का आरोप लगाते हैं. अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि खुद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी. एक लंबी लड़ाई और अदालत के आदेश के बाद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट जारी किया गया. कुछ जातियों को लेकर भी यहां मामला उलझा हुआ है. कोल्टा ऐसी ही जाति है, जिसे केंद्र सरकार तो एसटी मानती है जबकि स्थानीय प्रशासन एससी.

कुंवर कहते हैं कि इस क्षेत्र में कोल्टा जाति की आबादी 32 प्रतिशत है. सन् 2004 में बसपा के तत्कालिन राज्यसभा सांसद इसम सिंह ने सदन में पूछा था कि कोल्टा जाति किस वर्ग में आता है. इस पर तत्कालिन सामाजिक न्याय मंत्री सत्यनारायण जटिया ने इसे एसटी वर्ग का बताया था, जबकि स्थानीय प्रशासन इस जाति को एससी मानता है और उसे अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट जारी करता है. कुंवर कहते हैं कि इस तरह के घालमेल से दलितों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. कोल्टा जो एसटी का दर्जा पाने की सही हकदार जाति थी, उसे एसटी में शामिल नहीं किया गया. कुंवर का आरोप है कि क्षेत्र के ठाकुर और ब्राह्मण समाज के लोग मिलकर दलितों को उनके हक से दूर रखने की साजिश रचते हैं. जाति प्रमाण पत्र का आवेदन स्वीकार करने और जारी करने वाले लोग भी इसी समाज के हैं, जो दलितों द्वारा एसटी के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने पर कई तरह की मुश्किलें खड़ी करते हैं. उनको इस बात का डर है कि एसटी का जाति प्रमाण पत्र मिलने के बाद दलित समाज के लोग आरक्षण के लाभ में उनके हिस्सेदार हो जाएंगे. एसटी का प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से यहां के दलित चाहकर भी किसी स्थानीय चुनाव या फिर एमपी एमएल के चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते. उन्हें सरकार की किसी भी सुविधा का लाभ तभी मिल सकेगा जब उनके पास एसटी का सर्टिफिकेट होगा.

हम सबके डॉ. अम्बेडकर

देव भूमि के रूप में इसकी पहचान होने के कारण देवता भी यहां राजनीति के केंद्र में है. देवताओं को आगे कर के यहां ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों के लिए कई तरह के नियम कानून बना दिए गए हैं, जो निम्न जातियों के लिए गुलामी की जंजीर साबित हो रही है. उत्तराखण्ड और हिमाचल में मंदिरों की संख्या 6 हजार से ज्यादा है. उत्तराखंड के तो कई इलाकों में घोषित तौर पर दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. अगर कोई गलती से मंदिर में चला गया तो पूरे गांव के सामने उस पर जुर्माना लगाया जाता है. जौनसार-बावर में लगभग 1500 छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जिनमें दलितों को नहीं जाने दिया जाता है. दसऊ गांव के प्रधान के पिता 75 वर्षीय केसरू ‘दलित दस्तक’ से अपने दर्द को साझा करते हुए कहते हैं कि गांव के ठाकुर उन्हें मंदिर में नहीं जाने देते. कहते हैं कि तुम छोटे लोग हो, नीच हो, इसलिए मंदिर में नहीं जा सकते. एक बार मेरा लड़का मंदिर में चला गया तो पूरे पंद्रह गांव की पंचायत में मुझसे पांच सौ रुपये का दंड लिया गया. केसरू की घटना इकलौती घटना नहीं है. एक बार गांव की ही एक बेटी ने शादी के बाद मंदिर में जाने की कोशिश की थी, उसे पूरे गांव के सामने जलील किया गया. उसके पति और पिता के साथ धक्का मुक्की की गई. पिता को चेतावनी दी गई कि आखिरकार उसने गांव की परंपरा जानने के बाद अपनी बेटी को मंदिर में जाने से क्यों नहीं रोका.

हाल ही में समाजसेवी दलित कुंवर ने अपनी पत्नी सरस्वती रावत कुंवर और अन्य लोगों के साथ मिलकर इस परंपरा को चुनौती दी. उन्होंने जौनसार के प्रतिष्ठित गबेला मंदिर में जाने के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली. अपने 200 समर्थकों के साथ कुंवर मंदिर की ओर बढ़े. इससे सतर्क गांव के ब्राह्मण और ठाकुरों ने पूरे मंदिर की नाकेबंदी कर दी. दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकने के लिए ब्राह्मण और ठाकुर समाज के ‘आदिवासी’ लोगों की महिलाएं और बच्चे तक निकल पड़े. मंदिर प्रवेश करने की कोशिश में लगे लोगों को पत्थर फेंक कर मारा गया और उन्हें मंदिर तक नहीं पहुंचने दिया. इसके बाद कुंवर और उनके साथी भूख हड़ताल पर बैठ गए. पूर्व आइएएस अधिकारी चंदर सिंह ने मामले में हस्तक्षेप किया जिससे प्रशासन हड़कत में आया और गांव में धारा 144 लगा दी गई. पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की गई फिर मीडिया में मामला उछलने पर प्रशासन ने पुलिस की मदद से कुंवर दंपत्ति और उनके साथियों को मंदिर में प्रवेश करवाया. दौलत कुंवर कहते हैं, “हमें पता है कि मंदिर में जाने से हमारा कोई भला नहीं होने वाला लेकिन हम इस पाबंदी को तोड़ना चाहते थे. हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं और कहीं भी आना जाना हमारा अधिकार है.”

देवताओं की नगरी में छूआछूत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. बल्कि यह परत दर परत कई स्तर पर मौजूद है. यहां के दलित, ट्राइबल ऊंची जाति के लोगों के घर नहीं जा सकते. और अगर ऊंची जाति के लोग किसी काम से उनके घर आते हैं तो उनका छुआ कुछ भी नहीं खाते पीते. यहां तक की ऊंची जाति के ट्राइबल द्वारा दलितों को काम के लिए बुलाने पर उन्हें उनके घर जाना पड़ता है. काम के बदले उऩ्हें दिहारी तक नहीं मिलती. बंधुआ मजदूरी की बात पर दौलत कुंवर कहते हैं कि यहां बंधुआ मजदूरी जैसा घिनौना काम करवाया जाता है. वह दावे के साथ इस क्षेत्र में तकरीबन 3000 बंधुआ मजदूर के होने की बात कहते हैं. कहते हैं कि मैंने खुद 195 बंधुआ मजदूरों को इससे मुक्ति दिलवाई है. दलित दस्तक की टीम जिस दिन इस स्टोरी को कवर करने के लिए जौनसार पहुंची थी, उस दिन भी बंधुआ मजदूरी की चपेट में फंसा एक परिवार जिलाधिकारी के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था.

अब जरा यहां के दलित समाज के बच्चों के दर्द को महसूस करिए. आमतौर पर स्कूल के लिए उन्हें हर रोज 12 से 14 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. 6वीं कक्षा में पढ़ने वाली अंजू गौना गांव की है, जबकि उसका स्कूल हाजा में है जो उसके गांव से छह किलोमीटर दूर है. यानि अंजू को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए रोज 12-14 किलोमीटर तक चलना पड़ता है, जबकि वहीं दूसरी ओर ऊंची जाति के लोगों के गांव में ही स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाएं मौजूद हैं. इस इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि जहां ऊंची जाति के लोग बिल्कुल सड़क पर बसे हैं और उनके घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद हैं तो वहीं दलित समाज के लोग पहाड़ों में मुख्य सड़क से पांच से पंद्रह किलोमीटर तक नीचे बसे हुए हैं, जहां उन्हें मुख्य सड़क से उतर पर पैदल नीचे जाना पड़ता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आज गांव-गांव में स्कूल खुल चुके हैं और लोगों के घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद है, ऐसे में पहाड़ों में दलित समाज के लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाना और रोज की जिंदगी में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

इस क्षेत्र में आप लोकतंत्र का मजाक उड़ते भी देख सकते हैं. यहां चुनाव चाहे जो जीते फैसला ‘सयाना’ का लागू होता है. सयाना वह पद है, जो पीढ़ियों से एक ही परिवार के पास है. भले ही वह अनपढ़ हो, भले ही उसकी उम्र छोटी हो और समझ शून्य हो लेकिन गांव में वही होगा, जो सयाना कहेगा. यहां तक कि चुनावों के दौरान गांवों के लोग उसी उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसके नाम पर सयाना मुहर लगाता है. इस परंपरा के जरिए कहीं न कहीं एक केंद्रीय सत्ता कायम करने की कोशिश की गई है क्योंकि लोगों का कहना है कि सयाना के ज्यादातर पदों पर ठाकुरों का कब्जा है जो सीधे इस क्षेत्र से सांसद प्रतीम सिंह से जुड़े हुए लोग हैं. इस पूरे इलाके में सन् 1952 से ही प्रीतम सिंह और उनके परिवार के लोगों का राजनीतिक वर्चस्व है. प्रीतम सिंह के परिवार के चमन सिंह चौहान यहां जिला पंचायत प्रमुख हैं, जबकि राजपाल सिंह चौहान चकराता के ब्लॉक प्रमुख हैं. प्रीतम सिंह के कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वह हरीश रावत सरकार में गृहमंत्री रहे हैं.

हालांकि इन तमाम बातों से यहां का प्रशासन आंख मूंदे बैठा है. इस बारे में जब एडीएम कालसी प्रेम लाल से बात की गई तो उन्होंने इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की घटना से साफ इंकार कर दिया. वह इस बात को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता. उप जिलाधिकारी (एडीएम) ने सरकारी नियमों का हवाला देते हुए कहा कि हमारे पास GOV है जिसमें साफ कहा गया है कि इस क्षेत्र के एससी के लोग चाहे तो एसटी का सर्टिफिकेट ले सकते हैं. लेकिन इसी कार्यालय में कुछ स्टॉफ ऐसे भी मिले जिन्होंने ऊंची जाति के ट्राइबल लोगों की आपसी मिली भगत की बात को माना. उनका कहना था कि इस क्षेत्र में सत्ता से लेकर नौकरी तक में ऊंची जातियों का वर्चस्व है. वह अपने इस वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते. उन्हें पता है कि दलितों के पास एसटी का सर्टिफिकेट हो जाने के बाद वह सत्ता और नौकरियों में भागीदार हो जाएंगे. इसलिए उनकी सारी कोशिश शुरुआती स्तर पर ही दलितों को रोक देने की होती है. एसटी का प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना इसी मिली-भगत का नतीजा है.

सामाजिक कार्यकर्ता आर.पी विशाल का कहना है कि सिस्टम में बैठे हुए सारे लोग ऊंची जाति के ट्राइबल लोग हैं. चूकि यह क्षेत्र ट्राइबल है तो सारा फायदा ट्राइबल उठा लेते हैं और एससी के लोग मुंह ताकते रह जाते हैं. जौनसार का यह सच दिल्ली को मुंह चिढ़ाने वाला है. यह देश के लोकतंत्र पर एक कालिख के समान है. देखना यह है कि दिल्ली और उत्तराखंड की सरकार इस कालिख को पोंछने की कोशिश करती है या नहीं.