राजनीति में आने के पहले के अपने जीवन के बारे में बताइए।
– राजनीति में स्टूडेंट लाइफ में ही आ गए थे. थैंक्स टू सीपीआईएमएल मूवमेंट. पटना साइंस कालेज में पढ़ने के दौरान ही हम उनके स्टूडेंट विंग में शामिल हो गए थे. उन दिनों से ही पॉलिटिक्स में आने के प्रति इच्छा जगी. लेकिन बाद के दिनों में लगा कि अगर हाऊस की राजनीति करनी है, पार्लियामेंट में जाना है तो शायद सीपीआईएमएल के माध्यम से वहां जाना संभव नहीं है. तब मैने मेनस्ट्रीम पार्टी में जाने का मन बनाया. तभी शादी भी करनी थी लेकिन दिक्कत यह थी कि कोई बाप नेता को अपनी बेटी नहीं देता है. शादी करने के लिए नौकरी जरूरी थी. तो 1986 में मैं इलाहाबाद बैंक में पीओ हो गया. जुलाई 86 में मैंने नौकरी ज्वाइन की और इसी साल दिसंबर में शादी कर ली. आप यह कह सकते हैं कि मैनें शादी करने के लिए नौकरी की. बाद में 1996 में मैने बैंक पीओ की नौकरी छोड़ दी और पटना यूनिवर्सिटी में लेक्चरार हो गया. यहां यह सुविधा रहती है कि आप लंबी छुट्टी पर जा सकते हैं. अभी तो हम फुल टाइम पॉलिटिक्स में हैं. शुरुआत में धक्के खाने के बाद अब राजनीतिक जीवन में सेटल हो गए हैं. पिता इंजीनियर थे तो अपने बचपन में मैंने बहुत अभाव नहीं देखा. लेकिन स्वभाव से हमने वंचनाओं को समझा. बाद के दिनों में जब पब्लिक लाइफ में आ गए तो बहुत कुछ सीखने और जानने का मौका मिला.
यानि आपका राजनीति में आना संयोग नहीं रहा, बल्कि आप पूरी प्लानिंग के साथ आए।
– बिल्कुल सही सवाल किया आपने. हमने अनुभव किया है कि हमलोगों की पीढ़ी तक नब्बे तक दलित समाज के जो लोग राजनीति में आते थे, वह लाए गए होते थे. चूकि सीट रिजर्व थी तो उस समय के विकसित समाज के लोग दलितों को जबरिया राजनीति में लाते थे. किसी को ब्राह्मण लेकर आता था तो किसी को राजपूत. और ये लोग आने के बाद उनकी तिमारदारी करते थे. असली शासक वही लोग होते थे. रामाविलास पासवान भी अगर राजनीति में आए तो अपने कंविक्शन से नहीं आए, बल्कि उनको नौकरी नहीं मिली इसलिए आएं. बल्कि वह कुछ लोगों द्वारा लाए गए थे. मेरे मन में ये बात पहले से ही रही कि आखिर हमारे लोग कब खुद से आएंगे और पॉलिटिक्स को अपना करियर मानेंगे. मैं मानता हूं कि अपनी रुचि और अपने कंविक्शन से राजनीति में आने वाली जो पीढ़ी है, जिसमें 10-20 लोग आएं. उसमें मैं संजय पासवान भी शामिल हूं. मैं अच्छी-खासी नौकरी को छोड़कर इसमें आया और मुझे संतुष्टी है कि मेरा राजनीति में आने का फैसला सही था. सारे लोग स्वीकार भी कर रहे हैं और स्वीकार से ज्यादा अंगीकार कर रहे हैं.
राजनीति शुरू करने के लिए आपने भाजपा को ही क्यों चुना ?
– 1985-86 की बात है. उस वक्त कांग्रेस पार्टी अपने चरम पर थी. केंद्र की राजनीति में उसका पूरा बहुमत था. बिहार विधानसभा सहित देश के अधिकांश राज्यों में उसी का शासन था. जब मुझे भी मेनस्ट्रीम की राजनीति करनी थी तो लोगों ने कहा कि कांग्रेस में जाओ तभी एमएलए, एमपी हो सकते हो. मैने कांग्रेस में आना-जाना शुरू किया तो देखा कि वहां बहुत लंबी लाइन लगी हुई है. ऐसे में हमलोगों को मौका मिलते-मिलते दो-तीन दशक गुजर जाएगा. वहां पर बहुत ज्यादा चापलूसी भी थी जो मुझे पसंद नहीं आई. तब गैर कांग्रेसी दल के नाम पर लोकदल था. तमाम सोशलिस्ट पार्टियां थी. वहां भी दलित समाज की भीड़ थी. हम ऐसी पार्टी में जाना चाहते थे जहां हमारी पूछ हो और हमारी स्वीकृति हो. उन दिनों (85-86) में भाजपा; बिहार में एक छोटी सी उभरती हुई पार्टी थी. वहां बात शुरू हुई तो लगा कि लोग यहां हमें स्वीकार करने के लिए तैयार हैं. तो भाजपा में जाने की वजह यह थी कि वहां एक स्पेस था. चूंकि मैं राजनीति में अपनी इच्छा से जा रहा था इसलिए मेरे लिए यह अहम था कि मैं वहां जाऊं जहां मैं अपने मन की बात कर सकू. तो आप कह सकते हैं कि भाजपा में जाने की वजह वहां स्पेस का होना था. मुझे बिहार भाजपा में स्पेस और सम्मान मिला भी.
दलितों को समाज में सबसे नीचे रखा गया है. जाहिर है इसके लिए हिंदुवादी व्यवस्था जिम्मेदार है. भाजपा हिंदुत्व की बात करती है, ऐसे में भाजपा में रह कर दलित हित की बात करना कितना संभव है ?
– देखिए…. हिंदुइज्म की बात जो भाजपा के लोग या बाकी लोग करते हैं तो सुप्रीम कोर्ट ने जो हिंदुइज्म की परिभाषा दिया कि यह जीवन पद्धति है. मेरी उससे सहमति है. पार्टी की बात है तो भाजपा को जमींदारों और कुछ वणिक समाज के लोगों ने शुरू किया था. तब व्यापार में नॉन हिन्दु मसलन, पारसी, जैन और मुसलमान ज्यादा थे. ये सब कांग्रेस के साथ थे. तो हिन्दु व्यापारियों ने कहा कि हमारी भी एक पार्टी होनी चाहिए. उस समय हिन्दुइज्म को लेकर चलने की बात एक पॉलिटिकल टूल था. तब भाजपा को लोग ब्राह्मण-बनिए की पार्टी कहते थे. आज डेमोक्रेसी ने बीजेपी को भी डेमोक्रेटाइस कर दिया है. भाजपा पहले से विस्तृत हुई है. आज यहां जैन भी है, बुद्धिस्ट भी हैं, हमलोग भी हैं. आज की भाजपा का हिन्दुइज्म संपूर्ण हिन्दू समाज है. अब लोग उतना बड़ा दिल कर के चल रहे हैं. आज अगर लोग नरेंद्र मोदी को स्वीकार कर रहे हैं तो इसी कारण से क्योंकि एक गरीब का बच्चा, एक तेली समाज के लड़के को अगर पीएम के रूप में लाने की बात हो रही है तो यह बड़ी बात है.
आपने ब्राह्मण और बनिया की पार्टी कही. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी का नाम लिया. लेकिन जो देश का इतिहास है, उसमें गैर ब्राह्मणों को प्रधानमंत्री का पद मिलना काफी मुश्किल है. इतिहास गवाह है कि बाबू जगजीवन राम जी सिर्फ अपनी जाति के कारण पीएम नहीं बन पाएं. यह भी कहा जाता है कि जो आडवाणी भाजपा को इतना आगे लेकर आएं, वह भी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएं. क्योंकि देश की ब्राह्मणवादी ताकतें वाजपेयी जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती थी. ऐसे में क्या मोदी प्रधानमंत्री बन पाएंगे ?
– देखिए देश में जो है, राज-समाज. यानि राज से समाज प्रभावित होता है और समाज से राज प्रभावित होता है. राजनीति के लोगों ने यह स्वीकार कर लिया है कि इस देश का पीएम गैर ब्राह्मण हो सकता है. कांग्रेस ने गैरब्राह्मण डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया. अब चूकि राज स्वीकार कर रहा है और समाज उसे स्वीकार करने के लिए बैठा हुआ है. इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसमें कहीं चाल-वाल है. और आपने जो अटल बिहारी वाजपेयी की बात कही तो वाजपेयी से ज्यादा समाज को कौन समझता था. मुझे वो घटना याद है, जब एक दलित नेता ने वाजपेयी जी को ‘जय श्रीराम’ कहा तो वाजपेयी जी ने उससे कहा कि अरे भाई मैने तो तुमको भेजा है ‘जय भीम’ करने के लिए, तू क्यों जय श्रीराम कर रहा है? तुम जय भीम बोलो तब दलित समाज तुमसे और भाजपा से जुड़ेगा. आप समझ सकते हैं कि उनका दिल कितना बड़ा था. अगर कोई अपना दिल बड़ा नहीं करेगा तो इस देश में शासन करना बड़ा मुश्किल है. तो केवल ब्राह्मण होना ही नहीं बल्कि सुयोग्य और काबिल होना भी अटल जी के पीएम बनने में महत्वपूर्ण मापदंड रहा है. नरेंद्र मोदी के मामले में भी यह बात साबित होती है.
राजनीतिक दलों में ये जो सेल (मोर्चा) की परंपरा है, जैसे अनुसूचित जाति सेल एवं अन्य सेल. क्या वह तुष्टीकरण नहीं है?
– मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं. यह बिल्कुल तुष्टीकरण है और लोगों को समायोजित करने का तरीका है. चाहे यह कांग्रेस करे, हम करें या अन्य पार्टियां करे. पार्टी के मुख्य ढांचे में ही विभिन्न जातियों को रखकर काम किया जा सकता है लेकिन सेल के माध्यम से लोगों को अकोमोटेड किया जाता है ताकि कई लोग हिस्सेदार-भागीदार बने रहे. और लोग इससे खुश भी होते हैं. और जब लोग खुश हैं तो ऐसे किसी बदलाव का स्वागत करना चाहिए.
पार्टी के राष्ट्रीय मंचों पर अनुसूचित जाति के अध्यक्षों की भागीदारी महज 14 अप्रैल तक ही सिमट कर क्यों रह जाती है.
– पार्टी के मोर्चा या सेल में उन्हीं लोगों को एडजस्ट किया जाता है जिनको पार्टी मानती है कि ये एवरेज (औसत) लोग हैं. जैसे मैं भी अपनी पार्टी की नजर में एक एवरेज व्यक्ति हूं. ऐसे में पार्टी इनको मुख्यधारा में नहीं रख के मोर्चा (सेल) में रख देती है. हम ये मानते हैं कि औसत किस्म के लोगों को सेल, मंच में एडजस्ट किया जाता है इसलिए औसत काम दिखाई देता है. इसलिए वो लोग खास मंचों पर दिखाई पड़ते हैं. जिस दिन मोर्चे में कुछ जीनियस लोग आने शुरू हो जाएंगे तो पार्टी में कुछ काम अच्छे होंगे. हमारे बंगारू लक्ष्मण जी पहले मोर्चा के अध्यक्ष थे फिर वो राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए. उनकी योग्यता और क्षमता को देखकर पार्टी ने उनको आगे बढ़ाया.
आपने बंगारू लक्ष्मण जी का नाम लिया. एक बात यह भी चर्चा में रही थी कि वो जिस तरह कैमरा के सामने आए, फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, उसमें पार्टी के ही कुछ लोगों का हाथ था?
– नहीं.. नहीं…। ये महज दुरसंयोग था. पार्टी ने ही उनको अध्यक्ष बनाया, अगर पार्टी चाहती तो उनको अध्यक्ष नहीं बनाती. यह बंगारू लक्ष्मण का दुर्भाग्य था कि ऐसी स्थिति बन गई.
बतौर अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष पार्टी से दलित समाज को जोड़ने के लिए आपकी क्या रणनीति है, आप कैसे काम करेंगे?
– पार्टी के दस प्रतिशत वोट को बढ़ाने का लक्ष्य है. हमने आते ही कहा कि अनुसूचित जाति मोर्चा दलितों के रूप में चार प्रतिशत वोट बढ़ाने की जिम्मेवारी लेता है. इस कारण से मैने अपने वरिष्ठ पदाधिकारियों से कहा कि इसके लिए मुझे आजादी देनी होगी. उस चार प्रतिशत वोट के लिए हम प्रयास कर रहे हैं. मैने चार प्रमुख दलित व्यक्तित्व (आईकान) की तस्वीर को प्रमुखता से अपनी बैठकों में, अपने कार्यालयों में लगाया है. हमने अपने (मोर्चे के) जिला कार्यालयों से भी कहा है कि वह चार लोगों को अपना आईकान माने. डॉ. अंबेडकर के बाद नंबर दो में बाबूजगजीवन राम, नंबर तीन में के. आर नारायणन और फिर नंबर चार कांशीराम जी. इन चारों में कोई भी ओरिजनली बीजेपी से नहीं है. इसको लेकर थोड़ी कंट्रोवर्सी हुई लेकिन हमने कहा कि हमारा समाज इन चारों को जानता है और इनको एक राजनेता से बड़ा दर्जा देता है. इन चारों को हमने पार्टी में स्वीकार कराया. पार्टी के बड़े नेताओं ने इस थ्योरी को स्वीकार किया. इन चारों के नाम पर हम चारों दिशाओं में चार यात्राएं प्लॉन कर रहे हैं. हमलोगों ने मुख्य रूप से चार समूह को आईडेंटिफाई किया. एक दलित महिला, दलित बुद्धिजीवी, दलित श्रमजीवी और दलित उद्यमी. हम इन चार वर्गो में विशेष रूप से काम कर रहे हैं. इनसे संवाद कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इन चार वर्गों में काम करने से हम कामयाब होंगे. कांग्रेस मुक्त समाज बनाने के लिए जो चार कंधा चाहिए वो चार कंधा हम देंगे. इस चार प्रतिशत वोट की बदौलत हम कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर के भाजपा को सत्ता में लाएंगे.
आपने चार समूहों की बात की. इसमें आपने दलित उद्यमियों का भी नाम लिया. दलित उद्यमियों के संगठन डिक्की को आप कैसे देखते हैं?
– मोर्चा का अध्यक्ष बनने के बाद तुरंत ही मैने भाजपा के मंच से डिक्की के अध्यक्ष मिलिंद कांबले का अभिनंदन किया. इस दौरान भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद, हो सकता है उनके अपने विचार किसी अन्य पार्टी के साथ हो लेकिन उनका संबंध शुरू से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से रहा है. उनको हमारी शुभेच्छा है कि वो और आगे बढ़ें. उन्होंने समाज को एक नया आयाम दिया है कि दलित भी पूंजीपति और उद्यमी हो सकता है. दलित उद्यमी संवाद के माध्यम से हम उन्हीं की बात को भाजपा के माध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं. संवाद के जरिए हम बुद्धिजीवी, स्त्रियों, श्रमजीवी और उद्यमी के साथ मिलकर चार प्रतिशत वोट बढ़ाने के काम में लगे हैं.
मोर्चे का अध्यक्ष बनने के बाद आपने दलित दस्तावेज जारी किया. इसके पीछे क्या उद्देश्य था?
– दलित दस्तावेज में मेरी सोच है. और यह सोच भाजपा की भी हो, ऐसा अभी नहीं है. इसलिए हमने इसे राष्ट्रवादी अंबेडकरवादी महासभा के जरिए प्रकाशित किया है. मैं खुद इस संगठन का संयोजक हूं. हम प्रयास करेंगे कि दलित दस्तावेज की सोच भाजपा की भी हो जाए. मैं इस प्रयास में लगा हुआ हूं. ये हमारी योजना है. फिलहाल यह ड्राफ्ट की शक्ल में है. आने वाले छह दिसंबर को हम इसे और ज्यादा एक्सपेंड करने वाले हैं. तब हम फाइनल दस्तावेज पास करेंगे. हमारा प्रयास है कि इस बात पर संघ परिवार और भाजपा परिवार दोनों सहमत हो. हमारी यह भी कोशिश रहेगी कि इसके अंश भाजपा के मेनिफेस्टो (घोषणा पत्र) में जुड़े.
यानि क्या हम संजय पासवान को ऐसे राजनीतिज्ञ के रूप में देखें जो भाजपा में रहते हुए भी अपनी शर्तों पर काम करते हैं?
– ये आपने सही कहा लेकिन यह भी है कि अपने अनुसार पार्टी को चलाना कहीं न कहीं मनमाना पन भी है. कुछ लोग ऐसा इल्जाम लगाते भी हैं कि संजय पासवान मनमौजी किस्म का आदमी है. लेकिन मैं चाहता हूं कि भाजपा के फ्रेम वर्क में रह कर के, देश हित को ध्यान में रख कर के दलित हित भी हो, देश हित भी हो, दल हित भी हो और स्वहित भी हो, मैं ऐसा प्रयास कर रहा हूं. भाजपा के लोग बहुत बातें समझते हैं ऐसा भी नहीं है. जैसे मैने कहा कि अगर हम गरीबों की बात करें तो सबसे ज्यादा दलितों का कल्याण होगा. अगर हम करप्शन की बात करेंगे तो भी सबसे ज्यादा दलितों का हित होगा क्योंकि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित यही तबका है. यानि जितना करप्शन खत्म होगा, गरीबी खत्म होगी, उतना ही शिड्यूल कॉस्ट लाभान्वित होगा. हमने पार्टी के लोगों से कहा कि इन मुद्दों पर हमारा एससी मोर्चा बैनर लेकर आगे रहेगा क्योंकि यह मुद्दा हमारे समाज से जुड़ा हुआ है. मैं सरकारी क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ हूं. हमारी पार्टी भले ही इसके पक्ष में रहे. हम दलितों को इस बात की लड़ाई लड़नी चाहिए कि सरकारी क्षेत्र का निजीकरण अविलंब बंद हो. इस बात को लेकर मैं पार्टी में भी लड़ने वाला हूं कि हम विनिवेशीकरण नहीं करेंगे. क्योंकि सरकार के हाथ में चीजें रहेंगी तो अपने आप आरक्षण का लाभ मिल जाएगा. इसलिए इसकी बजाय की निजी क्षेत्र में आरक्षण हो, मैं इस बात की मांग करता हूं कि निजी क्षेत्र का अस्तित्व ही खत्म हो. निजी क्षेत्र ने इस देश का नुकसान किया है; आगे और करेगा. इसलिए यह अविलंब बंद होना चाहिए.
पहली बार ऐसा हुआ जब किसी पार्टी के दफ्तर में किसी अन्य पार्टी से जुड़े लोगों की तस्वीर लगी. इस पर पार्टी के लोगों का रिएक्शन क्या था ?
– पार्टी के जो टॉप टेन लीडर हैं, उनमें से किसी ने भी आपत्ति नहीं की. लेकिन बीच के जो टॉप 20 लीडर्स थे, उनलोगों को दिक्कत थी. कई लोगों ने इस बारे में मुझसे आपत्ति भी दर्ज कराई. बाद में जब मैनें टॉप लीडर्स से बात किया तो सबकी सहमति थी. मैने लोगों से कहा भी कि मुझे आजादी चाहिए. मैने कहा कि अगर आप चाहते हैं कि दलित भाजपा में आएं तो मुझे आजादी देनी होगी. मैं राजनाथ सिंह जी और नरेंद्र मोदी जी का आभारी हूं कि उन्होंने मुझे आजादी दिया. और एक बयान, जिसे आडवाणी जी ने दिया था, मुझे उससे भी ताकत मिली. आडवाणी जी ने लोहिया की चर्चा की थी. उन्होंने कहा कि लोहिया रामायण मेला लगाते थे और ऐसे लोहिया को हमें याद करना चाहिए. चाहे किसी पार्टी के हों पर जो लोग हमारे हित की बात करते रहे हैं और अब इस दुनिया में नहीं हैं उनको हम मानेंगे. इसमें पार्टी के टॉप लीडर की मुझे न सिर्फ सहमति मिली बल्कि उन्होंने मेरे हिम्मत को बढ़ाया.
भाजपा के अलावा आप किन-किन पार्टियों में रहे?
– मैं भाजपा छोड़ने के बाद कई पार्टियों में गया. मैं लालू जी के साथ राजद में रहा, रामविलास पासवान जी के साथ गया, कांग्रेस में भी रहा. सबको नजदीक से देखने के बाद मुझे लगा कि भाजपा में गंदगी तो थी लेकिन दूसरी जगहों पर ज्यादा गंदगी है. अंतत्वोगत्वा फिर से भाजपा में लौट आया. भाजपा का दलित समाज से तालमेल कैसे हो, हमलोग इसको करने में लगे हुए हैं. दल में भी दलित की बात हो और दलित में भी दल की बात हो, इस प्रयास में लगे हुए हैं. अनुसूचित जाति मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते मैं पार्टी को अपना पूरा समय दे रहा हूं. फिलहाल मैने युनिवर्सिटी छोड़ रखी है और पूरा समय इस कोशिश में लगा रहा हूं कि भाजपा में कैसे दलित का प्रवेश हो, और दलितों में कैसे भाजपा का प्रवेश हो. इन दोनों काम में लगा हुआ हूं.
जैसा कि आपने बताया कि आप तमाम दलों में रहे हैं. हर पार्टी की अपनी अलग-अलग विचारधारा है. तो विचारधारा को लेकर आपमें द्वंद नहीं है?
– द्वंद था. तभी मैं तमाम दलों में गया था. मैंने शुरुआत की माले जैसी पार्टी से जो बिल्कुल दलितवादी पार्टी है, जनवादी पार्टी है, गरीबवादी पार्टी है. तो मन में ऐसा ही भाव था. मेरी जो तड़प थी; मैं उसी की तलाश में गया था. मैं भाजपा से सांसद हो गया था. मिनिस्टर हो गया था. बहुत आभारी हूं भाजपा का. लेकिन जो जनवादी विचारधारा थी वो मैं तलाश रहा था कि कोई ऐसी पार्टी मिले जिसमें आंतरिक लोकतंत्र हो, गरीबों के प्रति बनावटी नहीं असली सहानुभूति हो. भाव में दांव नहीं छिपा हो. लेकिन तमाम पार्टियां दांव वाली लगी. लेकिन थोड़ा-बहुत दांव कम लगा तो भाजपा में लगा. क्योंकि भाजपा में शिड्यूल कॉस्ट के लोग कम हैं. लेकिन जो लोग थे, मुझे लगा कि वहां भावपूर्ण बात है. मैंने देखा कि संघ परिवार में हिन्दू दलितों के लिए अगाध प्रेम है. यह मुझे बहुत अच्छा लगा. इन सब वजहों से ही मैं भाजपा में दुबारा आया. अब मैं प्रयास कर रहा हूं कि दलितों का हिस्सा और दलितों की भागीदारी भाजपा में सत्ता की जगहों पर हो.
आप बिहार से आते हैं. आप सांसद बनें, मिनिस्टर बनें लेकिन बिहार की राजनीति में ज्यादा सफल नहीं हो पाएं, तो इसका मलाल तो रहा होगा. इसकी क्या वजह थी ?
– आपने सही कहा. मेरे भाजपा छोड़ने की भी वजह यही थी. इसमें दो-तीन बातें हैं. 2002 में मेरा बिहार प्रदेश का अध्यक्ष बनना तय हो गया था. लेकिन मेरी किसी गलती कि वजह से वह मेरे हाथ से निकल गया. मुझे इस बात से बहुत कष्ट हुआ. क्योंकि इसके लिए मैं भाजपा सरकार में मंत्री पद छोड़ने को तैयार था. इसमें विफल होने के बाद मेरे मन में टीस सी बैठ गई. बात आगे बढ़ती गई और मैने तभी पार्टी छोड़ दिया. मोटा-मोटी कहें तो सांसद होने के नाते प्रदेश की राजनीति में स्पेस कम मिलता है. उस समय मैं पार्टी का राष्ट्रीय मंत्री भी था. राष्ट्रीय मंत्री होने के नाते मैं उड़िसा और अरुणाचल प्रदेश का प्रभारी था. इस वजह से उधर ही ज्यादा घूमना होता था और बिहार जाने का मौका कम मिलता था. बहुत चाहने के बावजूद मैं बिहार की राजनीति में धुरी नहीं बन सका. लेकिन इस बार मैं प्रयास कर रहा हूं कि मैं बिहार की राजनीति की धुरी बन सकू. मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के बावजूद मैं आधा वक्त बिहार को और आधा वक्त शेष देश को देना चाह रहा हूं.
11 अप्रैल 2004 को आप पर हमला हुआ था, वह राजनीतिक हमला था या फिर उसके सामाजिक कारण थे.
– वह बिल्कुल चुनावी हमला था. विधानसभा चुनाव के दौरान एक व्यक्ति टिकट चाह रहे थे. वह बड़े आपराधिक किस्म के थे. मैनें उनका टिकट काट दिया था. उस खुन्नस में उन्होंने मुझपर हमले करवाए थे लेकिन भगवान ने हमको बचा लिया. मैं उनलोगों का आभारी हूं जिन्होंने मुझे बचाया और हमलावरों को खदेड़ दिया. मैं नवादा के उन तमाम लोगों का आभारी हूं जिन्होंने न सिर्फ मुझे सांसद बनाया बल्कि मेरी जान भी बचाई. हालांकि हमले करने वाले भी नवादा के ही लोग थे.
आप मानव संसाधन विकास मंत्री भी रहे. इस दौरान वो कौन से निर्णय थे जिसे आप खास मानते हैं.
– देखिए मिनिस्टर ऑफ स्टेट का कोई मतलब नहीं होता है. असल में यह कुछ लोगों का समायोजन करने के लिए होता है. मैं खुलेआम कहता हूं. लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि हमारे वक्त में ही सर्वशिक्षा अभियान शुरू हुआ और मैं इसका इंचार्ज मिनिस्टर था. माननीय जोशी जी ने मुझे जो काम दे रखा था वह था प्राइमरी एजुकेशन एंड लिट्रेसी. इसी में सर्वशिक्षा अभियान था. तो मुझे इसे शुरू करने का गर्व है. इसके अलावे मैं कम्युनिकेशन में भी डेढ़ साल तक मिनिस्टर था. बिहार की राजधानी पटना में मोबाइल रामविलास जी ने दिया था लेकिन शेष बिहार में मोबाइल ले जाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह दिवंगत प्रमोद महाजन और संजय पासवान को जाता है. यह मेरे काल में हुआ था.
डायन कह कर सबसे ज्यादा दलित महिलाएं प्रताड़ित होती हैं. अंधविश्वास ने भी सबसे ज्यादा दलितों का ही नुकसान किया है. इसके बावजूद आपने मंत्री रहते तंत्र-मंत्र की वकालत की थी. अपने उस कदम को आप कितना सही मानते हैं.
– तंत्र-मंत्र और आस्था को अंधविश्वास समझने से मुझे आपत्ति है. ये अलग है. अंधविश्वास सुपरसिसन है, आस्था ट्रस्ट (विश्वास) है. इसमें बहुत कम का फर्क है. ऐसा समझिए की एक पतली सी लाइन है दोनों के बीच में. हम ये मानते हैं कि उसमें जो साइंस है, जो सेंस है हमें उसको तराशना चाहिए. जैसे हम जिस जाति से आते हैं उसमें लोग आग पर चलते हैं. मैं खुद उन दिनों आग पर चला और मुझे कुछ हुआ नहीं. चाहे जो भी कारण रहा हो. हमारा अतिउत्साह रहा हो, या फिर टेक्नीक और टेक्टीस रहा हो. और अगर कुछ टेक्नीक और टेक्टीस है तो मुझे लगता है कि हमें उसको जानना चाहिए. आप उसको फोक विजडम (लोक परंपरा का ज्ञान) कह लें. जैसे आज फोक सांग की बात हो रही है तो अगर कुछ फोक प्रैक्टिसेस हैं तो उसको देखना चाहिए. आज डिस्कवरी और हिस्ट्री जैसे चैनल इसी चीज के पीछे लगे हुए हैं.
हमारी जाति के कुछ लोग वैद्यगिरी भी करते थे, हालांकि वह आफिसियली वैद्य नहीं थे लेकिन उनकी दवाओं से लोग ठीक होते थे. तो इन सब विधाओं में जो सेंस छिपा है मैं उसकी बात करता था. मैं डायन प्रथा का संरक्षण कर रहा था ऐसी बात नहीं है. जब तोता वाला पंडित सड़कों पर तोता लेकर बैठता है या फिर बसहा बैल लेकर घूमता है तो लोग उसको हाथ दिखाते हैं, समाज उसे कबूल करता है तो फिर अगर हमारा भगत या फिर ओझा लोगों के ऊपर हाथ फेरता है तो उस पर आपत्ति क्यों होनी चाहिए. आज रामदेव, आसाराम यही कर रहे हैं. शहरों के इन संत महात्माओं की तो पूछ है लेकिन गांवों में जो दलित समाज का संत-महात्मा है, उसको लोग अंधविश्वास कहते हैं. मेरी आपत्ति और लड़ाई इसी बात से थी. शहरों के बाबा लोग तो भगवान है लेकिन गांवों में ऐसे काम करने वाले दलित समाज के लोगों का उत्पीड़न होता है. चाइना में बियरफुड (बगैर डिग्री वाले, परंपरागत) डॉक्टर हैं, बियरफुड इंजीनियर हैं. ऐसे ही इंडिया में जो बियरफुड का सिस्टम रहा है तो उनलोगों को भी सम्मान देना चाहिए. आदिवासी समाज की ऐसी ही बातों को बचाया (Preserve) जा रहा है लेकिन दलित समाज के ऐसे काम Preserve नहीं हो पा रहे हैं. आज भी हमारे यहां तो दलित समाज के एक विशेष वर्ग की महिलाएं हैं, बच्चा पैदा करवाने की तकनीक उनसे अच्छा कौन जानता है? जब आज हॉस्पीटल में सीधे बच्चे का पेट फाड़ कर निकाल दिया जाता है लेकिन हमारी ये महिलाएं गर्भवती महिलाओं को कोई नुकसान पहुंचाए बिना अपने हाथ से बच्चा निकालती थीं. ये हमारी तकनीक थी. हम उसे भूलते जा रहे हैं. उस तकनीक को आधुनिक बनाने की जरूरत है. मैने इस चीज के लिए लड़ने का प्रयास किया था. मैंने बस कुछ ऐसे ज्ञानी लोगों को सम्मानित किया था लेकिन अखबार ने इस बात की दूसरी ही चर्चा कर दी और विवाद हो गया. यह मेरा प्रतिरोध था. मेरी तलाश फोक विजडम को लेकर थी जो आज भी जारी है.
आप बिहार से आते हैं. बाबू जगजीवन राम जी भी बिहार से आते थे. आप उनसे कितना प्रभावित हैं.
– शुरुआत में हमारा झुकाव मार्क्स, लेनिन और माओ की तरफ था. इन सबको जानने के बाद मैने डॉ. अंबेडकर को जाना. मैने डॉक्टर अंबेडकर, पेरियार, फुले को पढ़ा. उसके बाद बाब जगजीवन राम के बारे में जाने. तो इस तरह से स्टेज था. इन दिनों हम अपना पूरा ध्यान चार लोगों पर यानि डॉ. अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम, के.आर नारायणन साहेब और कांशीराम जी पर केंद्रित कर रहे हैं. मेरा मानना है कि के.आर नारायण साहब से सफल व्यक्ति कोई हो ही नहीं सकता है. समाज से मिलजुल कर और पार्टी से तालमेल बिठाते हुए उन्होंने हर पद को हासिल किया. वह रिपोर्टर रहे, अंबेसडर रहें, वाइस चांसलर रहे, सांसद बनें, राज्यमंत्री बने, उपराष्ट्रपति बनें और राष्ट्रपति बनें. वह लगभग ग्यारह पदों को पार करते हुए राष्ट्रपति पद तक पहुंचे. मैं उन्हें प्रणाम करता हूं. मैं प्रार्थना करता हूं कि भगवान उनका कुछ अंश दलित समाज को दे दे. डॉ. अंबेडकर जिन्होंने देश का संविधान बनाने जैसा महत्वपूर्ण काम किया. बाबू जगजीवन राम जो कभी चुनाव नहीं हारे. इस दुनिया में यह एक रिकार्ड है क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो चुनाव लड़ता हो और हारा नहीं हो. लेकिन बाबूजगजीवन राम अपवाद रहें. हमें उन पर गर्व है. इसी तरह कांशीराम जी ने उस समाज को सत्ता तक पहुंचाया जिसका व्यक्ति मुखिया तक बनने के बारे में नहीं सोचता था. उन्होंने साइकिल की यात्रा कर के हाथी चुनाव चिन्ह लेकर के इस देश के सबसे बड़े राज्य में अपनी पसंद का सीएम बना दिया. हम उनको पूजते हैं. इसलिए ये जो चारो व्यक्ति हैं. वो हमारे लिए चार पुरुषार्थ है. समाज में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो कहते हैं ये चारो हमारे लिए ऐसे ही हैं. एक धर्म के प्रतीक हैं, एक काम के, एक अर्थ के जबकि एक मोक्ष के प्रतीक हैं. इन चारों को हम प्रणाम करते हैं.
बाबासाहेब और बाबूजी के सिद्धांतों को आप कैसे देखते हैं.
– दोनों लोग समकालीन थे. बाबासाहेब का एप्रोच एक्सक्लूसिव था. बाबूजी का अप्रोच इनक्लूसिव था. यानि बड़ी पार्टी, बड़ा समाज इन सब से जुड़ कर रहो. बाबासाहेब का सोचना दूसरा था. दोनों अपनी लाइन पे ठीक थे. रास्ते अलग थे लेकिन दोनों का लक्ष्य दलित समाज और गरीबों का उत्थान और कल्याण ही था.
भविष्य की आपकी क्या योजना है ?
– आज देश में ओबीसी पीएम की बात चल रही है. यह भी एक स्टेज है. कल को हम सबके प्रयास से दलित भी इस देश का पीएम बने ऐसी कल्पना है. चूंकि अब चीजें शिफ्ट हो रही हैं. फारवर्ड समाज से इतर आज ओबीसी समाज के व्यक्ति के पीएम बनने की चर्चा चल रही है. उसके बाद से दलित समाज की बारी है. क्योंकि देश में फरवर्ड के बाद ओबीसी आता है. उसके बाद दलित समाज की बारी होती है. आपने उत्तर प्रदेश में देखा कि कैसे पहले मुलायम सिंह बनें फिर मायावती बनीं. हम उस दिन की कल्पना कर रहे हैं कि हमलोगों के जीते जी इस देश का पीएम दलित हो जाए. हम इसमे कुछ सहयोग कर सकें. तो यही मेरा सपना है.
उद्योग और राजनीति इन दो चीजों में हमारा दलित समाज पिछड़ा हुआ है. आपके मुताबिक दिक्कतें कहां पर है. यह स्थिति कैसे ठीक हो सकती है.
– देखिए… दलित समाज एक तो साधन विहीन रहा है. गरीब रहा है. लेकिन हम शिल्पकार रहे हैं. हम स्किलफुट रहे हैं. हम कारीगर रहे हैं. हम कारोबारी नहीं रहे हैं. कारोबार का अलग सरोकार होता है जबकि कारीगर का अलग. हमलोग इंटरप्रेन्योर रहे हैं लेकिन बिजनेस मैन नहीं रहे हैं. तो हमारी ये जो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर्स बनने की यात्रा है वह बहुत लंबी रही है. हमारे लोगों के लिए फैसिलिटी भी है, सुविधाएं भी हैं, लोन भी है, सब्सिडी भी है लेकिन हम मूलतः इंटरप्रेन्योर हैं. तो इंटरप्रेन्योर से ट्रेडर बनना, इंटरप्रेन्योर से डिस्ट्रीब्यूटर बनना, बिजनेस क्लास का बनना एक स्टेज है. यह तुरंत नहीं होने वाला है. आप देखिए कि जो डिक्की ने शुरू किया है हम उसको सैल्यूट करते हैं. जो काम राजनेताओं ने नहीं किया उसे डिक्की ने शुरू किया. तो यह लंबा प्रयास है. झटके में नहीं होने वाला है. जब तक लोगों में उद्यमिता का भाव नहीं पैदा होगा, हमलोगों में इंटरप्रेन्योरशिप स्पिरिट नहीं पैदा होगी तब तक नहीं होगा. आज सबसे बड़ा चमार बाटा है, सबसे बड़ा लोहार टाटा है. हमारी चमारी छूट गई. हमारी लोहारी छूट गई. तो हम लोहार से टाटा बनना चाह रहे हैं. चमार से बाटा बनना चाह रहे हैं. हमें उस प्रक्रिया से गुजरना होगा. हमारा जो उपलब्ध रिसोर्स है, उसे मार्डनाइज करना होगा. उसको स्टैंडर्ड करना होगा. यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है. स्टेज टू स्टेज आगे बढ़ना होगा. अभी हम सबसे बड़ा उद्योग नौकरी को ही मानते हैं. इससे निकलना होगा. हां, मुझे इस बात का गर्व है कि हमलोग हुनरमंद जातियां है. मुझे यकीन है कि अगर हम बाटा का काम करेंगे तो सबसे बेहतर कर सकेंगे.
ये तो उद्योग की बात हो गई. राजनीति में क्या बदलने की जरूरत है ?
– कुछ लोग पालिटिक्स में As a Mission आते हैं. पॉलिटिक्स में चाहे जिस जाति के लोग आ रहे हैं, उनमें एक समानता है. बिजनेस में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्ट में आ गए. खेती में फ्लॉप हो गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. नौकरी नहीं मिली या निकाला गया तो पॉलिटिक्स में आ रहा है. तो पॉलिटिक्स ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो फेल्योर हैं. यह फेल्ड इंडिविजुअल का ग्रुप है. हम चाहते हैं कि पॉलिटिक्स मे दलित समाज से ऐसे लोग आवें जो अपने-अपने फिल्ड का एक्सपर्ट हो. वहां कुछ कर के दिखा चुका हो. कोई जर्नलिस्ट है, कोई वकील है, कोई इंजीनियर है चाहे चार्टर अकाउंटेंट है. ऐसे लोग पॉलिटिक्स में आए. अपने फिल्ड में सफल लोग आएं न की फेल हुए लोग. वह तभी पॉलिटिक्स में आकर अपने समाज का कल्याण कर सकता है.
अभी रिजर्वेशन का मुद्दा गरमाया हुआ है. पटना से लेकर लखनऊ फिर दिल्ली तक में हंगामा हो रहा है. इस मुद्दे पर आप क्या सोचते हैं.
– देखिए… आरक्षण का लाभ लेते साठ साल हुए. अभी जो समय है उसमें कुछ जगहों पर चौथी पीढ़ी तक आरक्षण का लाभ ले रही है. हालांकि मैं दूसरी पीढ़ी का हूं क्योंकि मेरे पिता इंजीनियर थे. मेरा बेटा तीसरी पीढ़ी का है. मैं देख रहा हूं कि चौथी पीढ़ी तक आरक्षण ले रहे हैं. आरक्षण को अब हमलोगों को रि-विजिट करना चाहिए. आरक्षण दलितों के उत्थान का, उनके इंपावरमेंट का एक कंपोनेंट (घटक) है. आरक्षण से हमें निश्चित तौर पर आगे बढ़ने में मदद मिली है. लेकिन हमलोग आरक्षण को ही सबकुछ मानकर बैठे हुए हैं. हमें यहां यह देखना होगा कि जब आरक्षण नहीं था तब तो डॉ. अंबेडकर पैदा होते हैं, बाबू जगजीवन राम पैदा होते हैं, कांशीराम पैदा होते हैं लेकिन आज जब आरक्षण हो गया है तो कोई उनके आस-पास भी नहीं है. आज चापलूस पैदा हो रहा है. आज लोभी पैदा हो रहा है. आज केवल भोगी पैदा हो रहा है, जो केवल महंगे-महंगे शौक पाले हुए है. मैं आपके माध्यम से यह कहना चाहूंगा कि जो लोग आर्थिक रूप से सबल हो गए हैं, वह आरक्षण छोड़े. क्योंकि हम में जो गरीब लोग हैं अब आरक्षण उनको मिलना चाहिए. जो स्वेच्छा से आरक्षण का लाभ छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं उनमें क्रीमिलेयर लग जाना चाहिए. उनकी बजाय आरक्षण समाज के गरीबों को मिले. नहीं तो यह भी एक किस्म का अन्याय ही होगा. इसलिए मेरा मानना है कि आरक्षण के संबंध में हम दलित समाज के लोगों के बीच एक विमर्श की आवश्यकता है. मैं चाहूंगा कि ‘दलित दस्तक’ के माध्यम से इस पर नई बहस छिड़े. कि आरक्षण कब तक, किस सीमा तक, किनके लिए. इस पर बहस हो. विमर्श हो. दलित विमर्श में यह विषय जुड़ना चाहिए. तभी हम दलित समाज के गरीब लोगों के प्रति न्याय कर पाएंगे.
राजनैतिक तौर पर और व्यक्तिगत तौर पर किन घटनाओं ने आपके जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया.
– मेरे विद्यार्थी जीवन में मेरा एक बहुत खास दोस्त था. वह सवर्ण समाज का था. एक और दोस्त भी था. वह भी सवर्ण समाज का था. इसमें से एक की घड़ी चोरी हो गई. मैने बताया कि किसने चुराया होगा क्योंकि वह अक्सर इस तरह की हड़कतें करता रहता था. चुराने वाला भी सवर्ण था. जिसने घड़ी चोरी की थी उसने एक दिन रात में घड़ी को मेरे कमरे में रख दिया. जो मेरा खास दोस्त था उसको उसने मेरा रुम चेक करने के लिए कहा. मैने कहा कि चेक कर लो. और घड़ी मेरे रूम में निकल गया. आप उस वक्त की कल्पना कर सकते हैं. यह तब कि बात है जब मैं पटना साइंस कॉलेज से बीएससी कर रहा था. खैर… मैने कहा कि जब मैनें चुराया ही है तो तुम यह घड़ी क्यों लोगे मैं तुम्हें नई घड़ी खरीद दूंगा. उस घटना ने मुझे प्रभावित किया. मुझे तब लगा कि इस देश में जातिवाद क्या है. जो जिस लेवल पर है, उसी तरह से जातिवाद झेल रहा है.
मेरे जीवन की जो दूसरी घटना है वह राजनीतिक जीवन की है. जब मैं मंत्री बना तब के.आर. नारायणन साहब राष्ट्रपति थे. मुझे उन्हीं के द्वारा शपथ लेना था. जब मैं शपथ लेने गया तो अटल बिहारी वाजपेयी साहब के ओएसडी सुधीर कुलकर्णी मेरे पास आएं और पूछा कि संजय जी आपको पता है कि आपको कौन सा मंत्रालय मिल रहा है? मैंने कहा कि हां पता है. हम दलितो को दो ही मंत्रालय मिलता है. लेबर या वेलफेयर. मुझे भी उसी में से कोई मिलेगा. मेरी यह बात उनको कचोट गई. उन्होंने कहा कि आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं. तब तक यह सही है कि मुझे लेबर मिलना तय था. तभी सुधीर कुलकर्णी अंदर गए और बताया कि संजय तो बड़ा दुखी होकर बोल रहे हैं कि हमें तय है लेबर या वेलफेयर मिलना. वह लौट कर आएं और मुझसे पूछा कि क्या चाहिए. मैनें भी छूटते ही कहा कि कम्यूनिकेशन देंगे आप? और इस तरह मुझे कम्यूनिकेशन मिल गया और मैं प्रमोद महाजन जी के साथ आ गया. यह सब उसी वक्त राष्ट्रपति भवन में ही चेंज हुआ. तो यह उनकी उदारता थी. तो चीजें बदल रही है. मुझे लगता है कि अब हमलोगों को दलित के दायरे से बाहर निकल कर दलित, देश, धर्म, धरती यानि डी-4 की बात करें. मैं इसके लिए कमिटेड हूं.
रामविलास पासवान भी दलित हित की बात करते हैं, आप भी करते हैं, मायावती जी भी करती हैं. यानि दलित समाज का हर नेता दलित हित की बात को आगे रखता है. लेकिन सार्वजनिक या फिर निजी मंचों पर ये लोग खुलकर साथ नहीं दिखते हैं.
– ये मल्टीपार्टी डेमोक्रेसी है और ऐसे में पॉलिटिकली एक होना मुश्किल है. हां; सोशल इश्यू पर आप एक हो सकते हैं. (मैं टोकता हूं कि राजनीतिक नहीं व्यक्तिगत तौर पर साथ नहीं दिखते) मैं मानता हूं कि बहन मायावती हों या रामविलास पासवान हों, इन दोनों का समाज हित में काफी योगदान रहा है और है. हमलोग उनको बहुत तव्वजो देते हैं. और वो लोग अपनी-अपनी पार्टियों में हैं, इसलिए बड़ी पार्टियां हमलोगों को पूछती भी है. अगर उनलोगों का अस्तित्व खत्म हो जाए (हंसते हुए) तो कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां आज के वक्त में हमें पूछेगी भी नहीं. इसलिए उनलोगों का अस्तित्व में बने रहना जरूरी है. रही बात एका की तो अपने इश्यू पे लोग होते हैं लेकिन अपने-अपने ढ़ंग से होते हैं. हालांकि उससे भी अधिक आगे होना चाहिए. मैं इस बारे में प्रयास भी करता हूं. मैने जब अपने पार्टी कार्यालय में अन्य पार्टी नेताओं का फोटो टांगा है तो इसी भाव से टांगा है. इसकी जरूरत है कि हमलोग अपने लोगों के प्रति सहिष्णु बनें. अपने लोगों ने जो अच्छा किया है उसकी चर्चा होनी चाहिए. मैं इससे सहमत हूं कि जहां तक साथ चल सकते हैं साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. जहां से अवरोध, गतिरोध शुरू होता है उसे छोड़ दीजिए लेकिन जहां तक अवरोध या गतिरोध नहीं होता है वहां तक हमलोगों को साथ चलने का प्रयास करना चाहिए. आज भी मुझे किसी भी पार्टी के नेता के यहां जाने में कोई हिचक नहीं है. लोगों से मिलना-जुलना चाहिए. अगर हम कांग्रेस के किसी मंत्री से कोई काम करा सकते हैं तो हमें करवाना चाहिए. जैसे हमलोगों की मांग है कि बीपीएल कार्ड ऑन डिमांड मिले तो इस बारे में हम शैलजी जी से मिले. उन्होंने कहा है कि शिड्यूल कॉस्ट का कोई व्यक्ति बीपीएल कार्ड मांगता है तो उसे बिना खोज-बीन के कार्ड दे देना चाहिए. इसमें मेरा भी योगदान है. मैनें शैलजा से बात की थी. उन्होंने माना. अपने समानसोची लोगों से एक संवाद की स्थिति बने रहना चाहिए.
सर आपने इतना वक्त दिया, आपका बहुत धन्यवाद
– धन्यवाद अशोक जी।
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अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.
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