रिजर्वेशन नहीं, दलितों को चाहिए एजुकेशन- कांचा इल्लैया

लेकिन चिंतन और विचार के क्षेत्र में दलित चिंतकों ने तमाम अवरोधों के बावजूद अपना एक खास मुकाम हासिल किया है. मेरे विचार से डॉ. बी. आर. आंबेडकर इन दोनों धाराओं के बीच की कड़ी थे. वे बहुत प्रतिभाशाली चिंतक तो थे ही, इसके साथ ही राजनीति के माध्यम से उन्होंने छुआछूत के खिलाफ बड़ा आंदोलन भी खड़ा किया. वे भारी उपेक्षा के भी शिकार हुए. लेकिन तमाम अवरोधों के बावजूद वे आम लोगों द्वारा चुने जाने के बाद भारत की संसद में पहुंचे और फिर देश के संविधान की रचना की. लेकिन स्थिति यह है कि कुछ समय पहले जयपुर फेस्टिवल में जहां एक लाख लोगों ने हिस्सा लिया वहां दलितों की उपस्थिति महज दशमलव पांच पर्सेंट ही रही. दलितों ने यहां उपन्यास या कहानी लेखन के माध्यम से अपने बौद्धिक विचार को कोई खास अभिव्यक्ति नहीं दी. यह स्थिति ठीक नहीं है. इसलिए साहित्य और लेखन के क्षेत्र में बहुत कुछ करने की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि डॉ. आंबेडकर जिस वैचारिक जगह पर खड़े थे, वहां फि लहाल कोई भी दलित चिंतक नजर नहीं आता.

विकास की इस धीमी गति की आखिर क्या वजह हो सकती है?

-सबसे बड़ी बाधा तो अंग्रेजी शिक्षा के अभाव की है. यह आज भी दलितों के ख्वाबों से बहुत दूर है और दलित चिंतक इसके लिए गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं. इस समस्या का समाधान यह है कि अब दलित बच्चों को आर्ट्स की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करना होगा. हमारे एजुकेशन का फोकस पैसा कमाने पर ज्यादा है. इसलिए आईएएस, मेडिकल और इंजीनियरिंग की तरफ भागमभाग चल रही है. अगर दलितों को आंबेडकर, नेहरू और गांधी की तरह वैचारिक धरातल हासिल करना है तो उन्हें लिबरल आर्ट की तरफ फोकस करना होगा.

दलितों के लिए तैयार किए गए कई लक्ष्य आज भी अधूरे हैं. इसके कारण क्या हैं?

-आप मायावती का ही उदाहरण लीजिए. वह पांच साल तक यूपी की सीएम रहीं. उन्होंने बिना किसी अवरोध के अपनी सरकार का टर्म पूरा किया. लेकिन इस छोटे से वक्त में बहुत कुछ कर पाना संभव नहीं था. और फिर उनकी राजनैतिक प्राथमिकताओं में ढेर सारी समस्याएं हैं. दलित समाज शैक्षणिक समानता चाहता है. अपने बच्चों के लिए दूसरों की तरह नर्सरी से लेकर 12वीं तक की पढ़ाई में एकरूपता जैसी स्थिति चाहता है. देखिए, न तो प्रॉपर्टी, न नौकरी और और न ही धन वास्तविक समानता ला सकता है. इस लक्ष्य की प्राप्ति केवल और केवल शिक्षा से हो सकती है. लेकिन मायावती इसके लिए गंभीर नहीं हैं. जहां तक कांग्रेस की बात है यह पार्टी दलितों पर बहुत हद तक निर्भर है. मीरा कुमार, सुशील कुमार शिंदे जैसी शख्सियत अहम पदों पर हैं. यदि ऊंची जाति के बच्चे अंग्रेजी में महारत हासिल कर रहे हैं तो दलितों को भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहिए. हम इसी तरह के वातावरण और अवसर की मांग कर रहे हैं. अगर ऐसा होता है तो 30 साल के बाद आरक्षण खत्म कर दीजिए और निष्पक्ष प्रतियोगिता होने दीजिए. दलित बच्चे कहीं पीछे नजर नहीं आएंगे. देखिए, मेरे पैरंटस अशिक्षित चरवाहे थे. लेकिन शिक्षा का कमाल देखिए कि आज मैं कहां हूं. अंग्रेजी बोलता और लिखता हूं. पूरी दुनिया में जाता हूं और उनसे संवाद करता हूं. यह सारा परिवर्तन शिक्षा की बदौलत है. दलित नेताओं को शिक्षा की इस महत्ता को समझना होगा.

क्या आप आरक्षण को आगे जारी रखने के सिद्धांत को सपोर्ट करते हैं?

– दलितों का मुख्य एजेंडा रिजर्वेशन नहीं है. समानता लाने का मेरा रास्ता एजुकेशन से होकर गुजरता है. अगरमहज 10 पर्सेंट दलित बच्चे भी अंग्रेजी शिक्षा हासिल करें तो बौद्धिक जगत की तस्वीर पूरी तरह से बदल जाएगी. यह देश पूरी तरह से बदल जाएगा. मुझे उम्मीद एजुकेशन से है, आरक्षण से नहीं. और मैं अंग्रेजी शिक्षा पर जोर देता हूं.

साभारः नवभारत टाइम्स

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.