अर्थशास्त्र में मांग और पूर्ति की एक समान्य सी बात बताई जाती है. यदि मांग ज्यादा है तो कीमत भी ज्यादा होगी. यदि कीमत सस्ती होगी, तो आपूर्ति भी काम होगी. अर्थशास्त्र के इस नियम में भले ही बहुसंख्य धंधे फीट बैठते हों, लेकिन खेती-किसानी में यह बात थोड़ी-सी पटरी से उतर जाती है. मांग देखकर यदि किसान किसी अनाज की बुआई करता है और उस वर्ष उसका उत्पादन ज्यादा होता है, तो उस लागत से बहुत ज्यादा इतना भी धन प्राप्त नहीं हो पाता है कि वह कुछ रुपए अपने पास अगली बुआई के खर्च के लिए बचा सके. पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार के किसान हितैषी होने के तमाम दावों के बाद भी अन्नादाता किसानों की परिवारों में के घर वह बरकत नहीं है, जो धन्नासेठों के यहां होती है.
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा किसानों के आर्थिक स्थिति आंकलन सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2013 के दौरान किसान परिवारों पर कर्ज के आंकड़े एकत्र किये गये और उस दिन देश के हर किसान परिवार पर औसतन लगभग 47 हजार रुपए कर्ज होने का अनुमान लगाया गया है. इस ऋण में संस्थागत संस्थानों तथा सेठ-साहूकारों से लिए गए कर्ज भी शामिल हैं. सर्वेक्षण के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र के लगभग 52 प्रतिशत किसान परिवारों के कर्ज के बोझ में दबे होने का अनुमान है. कम जोत के किसान परिवार पर कम कर्ज का भार है, जबकि बड़े किसान परिवारों पर अधिक कर्ज है. कम जमीन वाले 41.9 प्रतिशत किसानों पर कर्ज हैं, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन वाले 78.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार पर औसतन 31,100 रुपए का ऋण है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन जोतने वाले किसान परिवार लगभग 2,90,300 रुपए के कर्जदार हैं. एक हैक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने संस्थागत संस्थानों अर्थात सरकार, सहकारिता समितियों और बैंकों से 15 प्रतिशत कर्ज लिया है, जबकि 10 हैक्टेयर से अधिक जमीन रखने वाले किसानों ने इन संस्थानों से 79 प्रतिशत कर्ज लिया है.
राष्ट्रीय स्तर पर किसानों ने 60 प्रतिशत ऋण संस्थागत संस्थानों से लिया है. बैंकों ने 42.9 प्रतिशत ऋण दिया है, जबकि सहकारिता समितियों ने 14.8 प्रतिशत तथा सरकार ने 2.1 प्रतिशत ऋण दिया हुआ है. गैर-संस्थागत संस्थानों या सेठ-साहूकारों ने 25.8 प्रतिशत कर्ज किसानों को दिया है. वर्ष 2013 में किए गए सर्वेक्षण में देश में 9 करोड़ 2 लाख किसान परिवार होने का अनुमान लगाया गया है. लगभग 69 प्रतिशत कृषक परिवारों के पास एक हैक्टेयर से कम जमीन है. केवल 0.4 प्रतिशत किसान परिवारों के पास 10 हैक्टेयर या इससे अधिक जमीन है. राष्ट्रीय स्तर पर 0.1 प्रतिशत किसान परिवार भूमिहीन पाए गए, जबकि 6.7 प्रतिशत परिवारों के पास केवल मकान की ही जमीन थी. यानि कुल 92.6 प्रतिशत किसान परिवारों के पास मकान के अलावा कुछ जमीनें हैं. यह तो रही आंकड़ों की बात.
जमीनी हकीकत तो यह है कि छोटे जोत के किसानों को बैंक कर्ज देने से कतराते हैं. यही किसान मोटे ब्याज दर पर सेठ साहूकारों से कर्ज लेकर केसी-किसानी शुरू करते हैं. परिवार के सदस्यों की जरूरतों को काट कर कर्ज भी उतार देते हैं. छोटे किसानों को बैंक कम ब्याज पर कर्ज दे दे तो थोड़ी बहुत खुशियां इनके घरों में भी अठ्खेलियां कर लेती. किसानों के लिए जो योजनाएं और सुविधाएं हैं, वह आसानी से पहुंच नहीं पाती हैं. सरकार यदि बोनस की घोषणा कर भी दे तो उसे लेने-देने की प्रक्रिया में इतनी कठिनाई होती है कि किसान निराश हो जाता है. वहीं इस प्रकियाओं में दलालों की चांदी होती है. छोटे जोत के किसान बिचौलियों के हाथों फंस कर सस्ते में अपनी फसल बेच देते हैं. इससे मुश्किल से ही अपने घर परिवार लायक खर्च जुटा पाते हैं. किसानों की मेहनत पर मालामाल कर्जदेने वाला साहूकार और अनाज खरीदने-बेचने वाले बिचौलिये होते हैं.
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