नाम: श्योराज सिंह ‘बेचैन’
जन्मः 5 जनवरी, 1960
जन्म स्थान: गांव नंदरौली, तहसील- गुन्नौर, जिला- बदायुं
चर्चित रचनाएं:
क्रोंच हूं मैं (कविता संग्रह) हिन्दी अकादमी द्वारा प्रकाशित
नई फसल (कविता संग्रह)
दलित क्रांति का साहित्य
मेरा बचनप मेरे कंधों पर (आत्मकथा)
भरोसे की बहन (कहानी संग्रह)
फूलन की बारहमासी (लोक मल्हार)
हिन्दी दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव (शोध पत्र)
श्योराज सिंह ‘बेचैन’ परिचय के मोहताज नहीं हैं. जिन लोगों की दलित साहित्य में थोड़ी भी रुचि है, वो इस नाम और साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान से वाकिफ हैं. श्योराज सिंह ने लेखन के तमाम आयाम में जोरदार दस्तक दी है. उन्होंने पत्रकारिता की है, अखबारों में स्तंभ लिखते रहते हैं, कहानियां लिखी हैं साथ ही उनकी पहचान एक कवि के रूप में भी है. उनकी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ से उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली. कई बार अपने विचारों को लेकर वह दलित समाज के बुद्धिजीवियों के बीच आलोचना के शिकार भी हुए. विगत 19 अप्रैल को राष्ट्रपति ने रचनात्मक साहित्य में उनके योगदान के लिए उनको सम्मानित किया है. इस पुरस्कार के केंद्र में श्योराज सिंह जी की आत्मकथा रही. आक्सफोर्ड उनकी आत्मकथा के अंशों को प्रकाशित करने की तैयारी में है. उनके साहित्यिक गतिविधियों और विवादों पर ‘दलित दस्तक’ के संपादक अशोक दास ने उनसे बातचीत की.
सर सबसे पहले तो राष्ट्रपति सम्मान के लिए बधाई
– धन्यवाद अशोक जी.
आपने अपने लेखन के केंद्र में दलित समाज को ही क्यों रखा?
– बाकी चीजों के बारे में लिखने वाले बहुत लोग हैं. आमतौर पर किसी एक समस्या पर लिखने वाले पचासों लोग मिल जाएंगे लेकिन जब दलित मुद्दों की बात आती है तो लेखकों की गिनती सिमट जाती है. इसलिए मैंने इस विषय को चुना.
आपका छात्र जीवन कैसा रहा ?
– मुझे कभी भी किसी स्कूल का विधिवत छात्र होने का मौका नहीं मिला. मैं तो एक बाल मजदूर और अनाथ बच्चा था. जीवन चलाने के लिए मैं तमाम रिश्तेदारों के यहां भटकता रहा. मैंने सब्जी बेची, अंडा बेचा, ईट भट्ठा पर काम किया, अखबार डाला, बूट पॉलिश किया. पेट भरने के लिए बहुत काम किया. मैं उस दौर से गुजरा हूं, जिसमें कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि उनका बच्चा पढ़ सकता है. मैंने अपनी आत्मकथा में उन बातों का विस्तार से जिक्र किया है. सबसे पहले मैंने गलियों में घूम घूम कर नींबू बेचना शुरू किया. आवाज लगाया करता था कि, “रस के भरे रसीले नींबू दस के दो पंद्रह के दो, हंस के लो भाई हंस के लो” इस तरह कविता भी कहना सीखने लगा और साथ ही दो वक्त की रोटी भी कमाने लगा. अलग-अलग वक्त पर कई लोगों ने मदद की. मैं जितना पढ़ पाया हूं और जो कर पाया हूं, जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो सब सपना जैसा लगता है.
लेकिन जब आप विधिवत छात्र रहे ही नहीं तो फिर इतना कैसे पढ़ पाएं?
– पढ़ाई से एक लगाव था. जितना भी पढ़ पाता था, उसको दोहराया करता था. किताबें नहीं थी, लेकिन बसों के पीछे, दीवालों पर जो भी लिखा होता उसे पढ़ता रहता था. रद्दी अखबार खूब पढ़ता था. कुछ पैसे मिलते तो किताबें खरीद कर उसे पढ़ता था. पढ़ाई के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना घटी. मेरे गांव में श्रमदान से एक स्कूल बन रहा था. उसमें मैं भी अपनी बस्ती के एक-दो लोगों के साथ गया था. मैं ईट दे रहा था. ईट देने के दौरान मैं खुद की बनाई कविताएं गाता जा रहा था. एक अध्यापक कुंवर बहादुर उसको सुन रहे थे. उन्होंने पूछा कि जो गा रहे हो वह किसकी कविता है. मैंने कहा कि मैंने खुद बनाई है. उन्होंने और गाने सुने. वह मुझे हेडमास्टर के पास ले गए. वह सज्जन व्यक्ति थे. उन्होंने मेरा टेस्ट लिया और मुझे दाखिला दिलाने को कहा. लेकिन मेरे सामने पेट की समस्या थी. क्योंकि मैं मेहनत करता था, फिर खाता था. तो बात वहीं खत्म हो गई क्योंकि वो मुझे स्कूल में तो दाखिला देने को तैयार थे लेकिन मेरी रोटी और कपड़ों का जुगाड़ कौन करता?
उसी दौरान मैं प्रेमपाल सिंह यादव नाम के शिक्षक से टकराया. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि वो मुझे पढ़ाएंगे बदले में मुझे उनके घर रहना होगा और घर का काम करना होगा और वो बदले में खाने और कपड़े का इंतजाम करेंगे. मेरा पढ़ने का मन था तो मैंने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. हालांकि प्रेमपाल सिंह ने भी हमें धोखा दिया और एक साल तक सिर्फ घर का काम ही कराते रहे. फिर भी तमाम दिक्कतों के बीच मैं स्कूल में खुद की कोशिश से पढ़ता रहा. दसवीं के बाद मैं कुछ दिनों के लिए दिल्ली आ गया. लेकिन फिर गांव लौट जाना पड़ा. मैं गांव में कॉलेज में प्रिंसिपल से मिला. तब राम निवास शर्मा ‘अधीर’ प्रिंसिपल थे. तब तक गांव में मेरे संघर्ष और कविता कहने की बात फैल चुकी थी. वो अच्छे से पेश आएं लेकिन एडमिशन खत्म हो चुका था और क्लास चलते एक महीने से ऊपर हो चुका था. असमर्थता जाहिर करते हुए उन्होंने मेरे सामने शर्त रखी. 15 अगस्त को स्कूल में 11वीं और 12वीं के बच्चों के बीच वाद-विवाद प्रतियोगिता होनी थी. उन्होंने कहा कि अगर मैंने उसे जीत लिया तो वो मेरा दाखिला करेंगे. यह स्कूल के नियम में भी था कि प्रतिभाशाली बच्चों को मौका मिलना चाहिए. मैंने वह चैलेंज स्वीकार किया. घर आकर तैयारी करने लगा.
मैं थोड़ा परेशान था. हमारे बाबा जो कि नेत्रहीन थे, उन्होंने पूछा कि क्या हुआ. मैंने उन्हें शर्त बताई. तो उन्होंने कहा कि बेटा हम गरीब आदमी हैं. अगर पैसे की बात होती तो हम हार जाते. लेकिन यहां मेहनत की बात है और मेहनत में हम पीछे नहीं हैं. जहां तक बोलने वाली बात है तो बोलता तो तू है ही. उन्होंने बहुत हौंसला बढ़ाया. मैं सबसे ज्यादा नंबर लेकर आया तो इस तरह मेरा दाखिला हो गया. वहां से 12वीं कर के ग्रेजुएशन करने चंदौसी आ गया. उसके बाद बी.एड किया. फिर एम.ए किया. पीएच.डी किया. बीएड करने की वजह से दिल्ली में मुझे शिक्षक की नौकरी मिल गई. जेएनयू में मैंने तीन बार इंट्रेंस पास किया लेकिन मुझे इंटरव्यू में नहीं बुलाया गया. वहां पहले बहुत भेदभाव होता था. हालांकि मैंने बाद में वीरेन डंगवाल जी के गाइडेंस में पीएचडी की और बाद में नेट भी कर लिया.
साहित्य के क्षेत्र में आपकी पहचान कब बननी शुरू हुई?
– उस दौरान हिन्दी साहित्य में जो चल रहा था, मैंने उसकी आलोचना शुरू की. ‘हंस’ पत्रिका आलोचना को जगह देती थी. तो रचना के साथ-साथ आलोचना का काम भी मैंने किया. मैं दलित साहित्य को स्थापित करने की बहस में उतर गया. अखबारों में भी लगातार लिखने के कारण मुझे पहचान मिली. बाबासाहेब की पत्रकारिता पर मैंने पीएचडी की. टॉपिक था ‘हिन्दी दलित पत्रकारिता पर पत्रकार अम्बेडकर का प्रभाव’. इस किताब को लिम्का बुक रिकार्ड में जगह मिली. क्योंकि यह अपने आप तरह का पहला काम था. सन् 2000 में महू में बाबासाहेब स्मारक समिति ने भी मुझे इसके लिए सम्मानित किया.
जिन लोगों ने दलित साहित्य एवं पत्रकारिता को स्थापित किया, उसमें आप किनका योगदान मानते हैं?
– स्थापना, आधुनिक चेतना और चर्चा की जो बात आई उसमें हम ओमप्रकाश वाल्मीकी को महत्व देंगे. हंस जैसी पत्रिका में लगातार जगह मिलना और रचनात्मक साहित्य की दिशा में उनका काफी काम रहा. थोड़ा इतिहास में जाने पर आप पाएंगे कि स्वामी अछूतानंद ने भी इसकी जमीन तैयार कर दी थी. रैदास और कबीर की परंपरा तो है ही. चिंतन में नैमिशराय जी और जयप्रकाश कर्दम जी का नाम लिया जा सकता है.
दलित साहित्य को लेकर आज क्या बदलाव आया है? क्या लोग उदार हो गए हैं या फिर साहित्यकारों ने ऐसा काम किया है जिसे इग्नोर करना मुश्किल है?
– कई मोर्चे पर काम हुआ है. कई लोग तो इसलिए आए क्योंकि दुनिया के स्तर पर अब साहित्य में अश्वेतों और तमाम उपेक्षितों की बात हो रही है. कुछ गैरदलित यह सोचकर आएं कि हम दलित साहित्य का नेतृत्व करेंगे और दलितों के बारे में लिख देंगे. लेकिन इसमें यह समस्या आई कि दलित अधिकार की बात करने लगा. गैरदलित बहुत अच्छा लिख सकता है लेकिन वह हमारा भोगा, हमारा अनुभव नहीं लिख सकता. आप अछूत नहीं हैं तो अस्पृश्यता की पीड़ा को आप कैसे महसूस करेंगे.
साहित्य में अपने योगदान को आप कैसे देखते हैं?
– मैंने कुछ क्षेत्र का चुनाव किया जहां काम करना जरूरी था. मैंने रिसर्च के क्षेत्र को चुना, मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र को चुना और मैंने शिक्षा को भी चुना. आप यह देखेंगे कि 1990 से पहले किसी भी विश्वविद्यालय में हिन्दी के किसी भी लेखक पर कोई काम नहीं हुआ था. मैंने जब पत्रकारिता का काम किया, उसी समय दलित कहानी, दलित कविता और दलित उपन्यासों की बात विश्वविद्यालयों में उठानी शुरू कर दी. आज हर विश्वविद्यालय में दलित साहित्य पर रिसर्च हो रहे हैं. इसका असर पाठ्यक्रम पर पड़ा. आज हर युनिवर्सिटी दलित साहित्य को पाठ्यक्रम में पढ़ाती है. ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस मेरी आत्मकथा का अंग्रेजी वर्जन ‘My Childhood upon My Shoulder’ प्रकाशित कर रही है. वहां अंडर ग्रेजुएट के बच्चों को टेक्सट बुक में यह पढ़ाया जाएगा. यह भी एक बड़ा योगदान है.
आपकी तमाम किताबें सामान्य प्रकाशनों से प्रकाशित हुई है. आज दलित समाज के प्रकाशक भी हैं. तो उनमें और सामान्य प्रकाशकों में पुस्तकों के चयन आदि में क्या फर्क है?
– देखिए, दो-तीन बाते हैं. यह सच है कि तमाम प्रकाशक किताबों को महंगा छापते हैं जो तमाम लोगों की खरीदने की क्षमता से बाहर होता है. सामान्य प्रकाशकों के पास अभ्यस्त प्रूफ रीडर हैं. वो किताबों का प्रोमोशन भी करते हैं. उनके सामने चुनौती होती है तो वो किताबों की क्वालीटी पर भी ध्यान देते हैं. जो हमारे प्रकाशक हैं वहां दिक्कत यह है कि उनमें मोह होता है कि हमने जो लिखा है वह बहुत अच्छा लिखा है. संपादन की बहुत दिक्कत है. काबिल एडिटर बहुत कम हैं. दूसरा यह भी है कि साहित्य को हमारे प्रकाशक कम ही छाप रहे हैं. तीसरी बात यह कि इनकी पहुंच बहुत कम है. वो लाइब्रेरी में नहीं पहुंचा पाते हैं. किताबों पर चर्चा नहीं करा पाते हैं. कईयों को लगता है कि वह महत्वपूर्ण है और बाकी दूसरा महत्वपूर्ण नहीं है. अच्छा हो कि एक टीम बने और वह तय करे. उस टीम के बाहर का आदमी तय करे कि कौन सी रचना बेहतर है और कौन सी नहीं.
क्या आपको ये सब ठीक होने की संभावना दिखती है?
– बिल्कुल दिखती है. ऐसा तमाम जगहों पर होता है. मराठी में भी ऐसा हुआ है. यह भी एक आंदोलन है. ऐसा नहीं होने का नुकसान यह है कि बड़ा प्रकाशक भले ही आपको पैसे दे देगा लेकिन आपकी रचना को लाइब्रेरी में कैद करवा देगा. आपने जिनके लिए लिखा है वहां तक आप नहीं पहुंच पाएंगे. पाठकों के बीच पढ़ाई की रुचि पैदा करना भी आंदोलन का हिस्सा है.
आप का बचपन जितना मुश्किल रहा, उसके बाद आज खुद को इस मुकाम पर देख कर कैसा लगता है?
– सब सपना सरीखा लगता है. बचपन में अगर मैं गांव से नहीं निकला होता. दिल्ली नहीं आया होता तो शायद यह सब संभव नहीं होता. दुनिया को देखकर हम दुनिया के जैसे बनते हैं. जब मैं दिल्ली आया तब मैंने देखा कि मेरी उम्र के बच्चे कितने अच्छे कपड़े पहनते हैं, वो स्कूल जा रहे हैं. उसी को देखकर मेरे अंदर भी ख्याल आया कि मुझे मुक्त होना है. स्वतंत्रता हासिल करनी है.
बाबासाहेब का आपकी जिंदगी में क्या महत्व है?
– बाबासाहेब से तो मेरा संबंध हर कदम पर है. मैंने अपनी पीएचडी बाबासाहेब की पत्रकारिता पर की. जब मैं कॉलेज में नौकरी करने गया तो सबसे पहले मुझे अम्बेडकर कॉलेज मिला. 1990 में जब बाबासाहेब की जयंती का शताब्दी वर्ष मनाया गया तो मैं बहुत उत्साह में आ गया. मैंने तब ढ़ेर सारी कविताएं लिखी थी. बाबासाहेब ने मराठी में जो पत्रकारिता का काम किया है, उसका अनुवाद किया. मैंने मराठी सीखी. इसके बाद मैंने मूकनायक में बाबासाहेब द्वारा लिखे गए लेखों का हिन्दी अनुवाद किया था.
कई मुद्दों को लेकर आपकी आलोचना होती है. क्या आप कभी विचलीत होते हैं?
– देखिए आलोचना कोई बुरी बात नहीं है. सार्वजनिक जीवन में आलोचना होती है. लेकिन यहां यह देखने वाली बात है कि क्या जिस चीज को लेकर आलोचना हो रही है, वह सही है या नहीं. क्या आलोचना करने वाला व्यक्ति आलोचना करने के योग्य है? जैसे मैं कई बिंदुओं पर बाबासाहेब से असहमत हूं. कई बार हम यह सोचने लगते हैं कि उन्होंने ब्राह्मण स्त्री से शादी क्यों कर ली. हमें लगता है कि इससे दलित समाज के लोग बाबासाहेब से दूर हो गए. अब उसको लेकर कई लोग मुझ पर अम्बेडकर विरोधी होने का आरोप लगाते हैं. अम्बेडकर विरोधी होकर के दलित समाज का कोई भी बुद्धीजीवी दो कदम भी नहीं चल सकता. लेकिन हां, बातों की समीक्षा करने का अधिकार तो है. बाबासाहेब से मेरा संवाद साकारात्मक संवाद है. जो उनका सम्मान करते हुए है और यह हमेशा होता रहेगा.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
