जन्म- 5 जुलाई, 1958, स्थान- इंदरगढ़ी,गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- एम.ए (दर्शन शास्त्र, हिन्दी, इतिहास) पी.एचडी – हिन्दी साहित्य
चर्चित रचनाएं- छप्पर (उपन्यास), गूंगा नहीं था मैं (कविता संग्रह), नो बार, कामरेड का घर, लाठी,पगड़ी, मजदूर खाता (सभी कहानी), द चमार्स (अनुवाद हिन्दी में), दलित साहित्य वार्षिकी (संपादक)
वर्तमान में कार्यरत- निदेशक, केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय,भारत सरकार, नई दिल्ली।
पता- बी-634, डीडीए फ्लैट्स, इस्ट ऑफ लोनी रोड, दिल्ली- 110093
ई-मेल- jpkardam@gmail.com
हिन्दी साहित्य जगत में जयप्रकाश कर्दम एक जाना पहचाना नाम हैं. इन्होंने कविताएं लिखी हैं, कहानियां लिखी हैं. इनकी रचनाएं तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही है. उनका दखल स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों में भी है, जहां उनकी लिखी कविताएं और कहानियां पढ़ाई जा रही हैं. उनके साहित्यिक जीवन पर दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने उनसे बात की।
लेखन की तरफ आपका झुकाव कब हुआ?
– लेखन की ओर मैं 1976 में आकर्षित हुआ. तब पिताजी की मृत्यु हुई थी. उस दौरान मेरे मन में भविष्य के प्रति आशंका, अनिश्चय और दुख का मिश्रण था. तब मैं बहुत चीजें पढ़ता था. किसी व्यक्ति की दुख, वेदना आदि बातें मुझे बहुत आकर्षित करती थी. पहले कुछ छंदों से शुरुआत की, फिर कहानियां लिखी. 1976 में ही मैंने गांवों में परिवारों के बीच होने वाले बंटवारे की पृष्ठभूमि पर एक कहानी लिखी थी. वह गाजियाबाद से निकलने वाली एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. पहली बार कुछ छपने को लेकर एक खुशी और आत्मविश्वास जागा कि मैं भी लिख सकता हूं. तब साहित्य की ओर मेरा झुकाव बढ़ता चला गया. मैं पढ़ता चला गया और लिखता चला गया.
आपने दलित साहित्य को क्यों चुना?
– मैं दलित साहित्य लिखूंगा ऐसा सोच कर मैं लेखन में नहीं आया. 1977-79 के बीच मैंने पत्रकारिता की. उस दौरान मैंने तमाम विषयों पर लिखा, लेकिन बाद में मैं सामाजिक विषयों पर केंद्रित हो गया. इसी बीच 1980 में मैंने भारतीय दलित साहित्य अकादमी के एक सम्मेलन में हिस्सा लगा, तब मुझे समझ आया कि दलित साहित्य जैसी भी कोई चीज होती है. इसी दौरान 1983 में मेरी एक किताब आई, ‘वर्तमान दलित आंदोलन’ उसके बाद दलित साहित्य की दिशा में आगे बढ़ने लगा.
तब से काफी वक्त बीच चुका है। इस बीच आप ठोस क्या लिख पाए हैं?
– एक लेखक के तौर पर मैं इसे परिभाषित नहीं कर सकता. यह पाठक और आलोचक तय करते हैं. लेकिन हां, मेरा एक उपन्यास ‘छप्पर’ 1994 में प्रकाशित हुआ और समीक्षकों और आलोचकों द्वारा उसे हिन्दी दलित साहित्य का पहला उपन्यास माना जाता है. यह उपन्यास उस दौर में आया जब दलित साहित्य स्थापित हो रहा था. मेरा पहला कविता संग्रह ‘गूंगा नहीं था मैं’ 1997 में आया. इस कविता संग्रह ने भी मुझे एक पहचान दी. मेरी एक कहानी ‘नो बार’ भी काफी चर्चित रही थी. मैंने ‘कामरेड का घर’ लिखा, यह दोनों कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. छप्पर और नो बार तमाम विश्वविद्यालयों में भी पढ़ाया जा रहा है. इसके अलावा लाठी, पगड़ी और मजदूर खाता कहानी भी काफी चर्चित रही. ये कहानियां जीवन के यथार्थ पर आधारित है.
साहित्य और दलित साहित्य, इन दोनों के बीच का फर्क क्या है?
– साधारणतः जो भी चीजें लिखी जाती हैं उसे हम साहित्य मानते हैं. लेकिन साहित्य का एक बड़ा क्षेत्र है जिसमें दलितों का सवाल नहीं रहता है. जबकि जो साहित्य दलित समाज की समस्याओं पर, उनकी संवेदनाओं पर, उनके प्रश्नों और संघर्ष को अभिव्यक्त करता है, वो साहित्य दलित साहित्य है.
प्रेमचंद दलितों के बारे में लिखने के बावजूद साहित्यकार रहते हैं लेकिन दलित समाज का कोई व्यक्ति जब साहित्य में अपनी भागेदारी निभाता है तो उस पर दलित साहित्यकार का ठप्पा लग जाता है, ऐसा क्यों?
– मैं तो यह मानता हूं कि मैं साहित्यकार हूं और मैं साहित्य लिख रहा हूं. लेकिन यदि मुझे दलित साहित्यकार के नाम से पहचान मिलती है तो यह मेरे लिए गौरव की बात है. मुझे इस बात की खुशी है कि मैं उस वर्ग की समस्याओं को, उसके प्रश्नों को साहित्य के माध्यम से उठाने की कोशिश कर रहा हूं; जिसे बड़े-बड़े साहित्यकारों ने उपेक्षित रखा. लेकिन मेरा यह भी मानना है कि एक साहित्यकार साहित्यकार ही होता है. दलित साहित्यकार के प्रति स्वस्थ भाव नहीं रखने वाले लोग दलित समाज के लेखकों को दलित साहित्यकार कह कर उसे एक सीमा में बांधने की कोशिश करते हैं.
जैसा कि आपने बताया कि पिताजी की मृत्यु के बाद आपका साहित्य में रुझान हुआ. तब आपकी उम्र भी बहुत कम थी. आप संघर्ष के उस दौर को कैसे याद करते हैं?
– दिक्कतें तो बहुत थी. घर में खाने को नहीं था. हमारे पास जमीन नहीं थी. तब मैं 11वीं में था. पिताजी ने एक बड़ी बहन की शादी कर दी थी बाकी के बचे छह भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ा था. तब मेरे लिए पढ़ाई की बजाय परिवार को पालने की बड़ी जिम्मेदारी थी. मैं कॉलेज ना जाकर के पांच रुपये रोज पर मजदूरी करने जाता था. मजदूरी से वापस आकर रात को साथियों से पूछकर पढ़ता था. और जब मजदूरी नहीं मिलती थी तो मैं स्कूल चला जाता था. अजीब वक्त था. लगता था कि मैं अंधेरे कुएं में हूं. छटपटा रहा हूं और बाहर निकलने के लिए हाथ-पांव मार रहा हूं. मेरे पिताजी तांगा चलाते थे. जब वो बीमार रहने लगे तो स्कूल से आकर मैं तांगा चलाने भी जाता था. उस दौर में ढ़ेर सारे छोटे-मोटे काम करने पड़े. तो बहुत मुश्किल दौर था.
उस दौर से निकलने की प्रेरणा कैसे मिली?
– उस दौर में एक अच्छी बात भी हुई जिसने मेरे जीवन को काफी प्रभावित किया. एक बार मैंने लगातार पांच दिन काम किया था तो मुझे मजदूरी के 30 रुपये मिले थे. जब मैं गाजियाबाद से अपने गांव (कौन सा गांव.. मिसलगढ़ी गांव) जा रहा था तो रास्ते में रशियन किताबों का एक स्टॉल लगा था. वहां मुझे मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा मिली. उस आत्मकथा को पढ़ने के बाद मुझे यह प्रेरणा मिली कि मैक्सिम गोर्की सिर्फ तीसरी तक पढ़ा था. उसके मां-बाप बचपन में ही गुजर गए थे. वह भी फुटपाथों पर रहा था. इसके बावजूद इस मुश्किल दौर से निकल कर वह विश्वविख्यात हो गया. तब मुझे लगा कि मेरी स्थिति तो उससे काफी अच्छी है और जब मैक्सिम गोर्की इतनी मुश्किलों के बावजूद इतना बड़ा लेखक बन सकता है तो मैं भी कुछ कर सकता हूं. उस किताब ने मुझे प्रेरणा दी.
उस मुश्किल दौर से निकल कर जयप्रकाश कर्दम बनने के सफर को आप किस तरह देखते हैं?
– एक वक्त ऐसा था जब मेरे पास बीएससी में एडमिशन लेने के लिए 140 रुपये नहीं थे. इस वजह से मेरा एक साल बरबाद भी हो गया. लेकिन उसी दौरान सेल टैक्स, गाजियाबाद में मेरी नौकरी लग गई. उससे एक रास्ता खुला. तब मैं दिन में नौकरी करता था और रात को पढ़ाई. मैंने दिमाग में एक बात बैठा ली थी कि मेरे पास कुछ भी नहीं है लेकिन सबके बराबर 24 घंटे हैं. मैंने अपने एक-एक मिनट का इस्तेमाल किया. कुछ दिनों बाद इलाहाबाद में विजया बैंक में नौकरी मिल गई. वहां मैंने देखा कि सभी बच्चे पीसीएस की तैयारी कर रहे हैं, तो मैंने भी तैयारी की. यूपीएससी से सहायक निदेशक की वेकैंसी आई तो मैंने उस परीक्षा को पास कर लिया. इस दौरान मैंने कभी भी लेखन नहीं छोड़ा. इस दिशा में लगातार सक्रिय रहा. भारत सरकार के गृह मंत्रालय के तहत राजभाषा विभाग है, वर्तमान में मैं उसके केंद्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान में निदेशक के पद पर हूं.
हाल ही में घटित तमाम घटनाओं को लेकर दलित समाज के भीतर एक आक्रोश दिख रहा है, इसमें साहित्य की कितनी भूमिका रही है?
– साहित्य अन्याय का प्रतिकार करने की प्रेरणा देता है. यह संघर्ष करने की प्रेरणा देता है. इस दौर में साहित्य ने युवाओं को यह ताकत दी कि आपकी जो जायज मांगें हैं, जो अधिकार हैं, उन अधिकारों को प्राप्त करने के लिए आप रुके नहीं. न ही किसी के भरोसे बैठे रहें. अपनी आवाज खुद उठाएं और जहां तक उसे पहुंचा सकते हैं, पहुंचाए.
दलित साहित्य का भविष्य कैसा है, क्या यह सही दिशा में जा रहा है?
– मुझे इसका भविष्य उज्जवल दिखाई दे रहा है. फिलहाल इस समाज की सामाजिक स्थिति बदलने की संभावना दिखाई नहीं देती है. समाज रहेगा, समाज की समस्याएं रहेंगी तो उन समस्याओं की अभिव्यक्ति भी होगी. वर्तमान में तमाम पृष्ठभूमि से निकल कर लेखक आ रहे हैं, उनके विचारों में विविधता होगी मुझे लगता है कि यह साहित्य को समृद्ध करेगी.
अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.