चर्चित और विद्वान साहित्यकार मुद्राराक्षस जी का विगत 13 जून, 2016 को परिनिर्वाण हो गया. एक लेखक, एक चिंतक, एक विचारक जिंदगी भर अपने असूलों और समाज को विचारवान बनाने के लिए लड़ता है. उन्हें श्रद्धांजलि देने का सबसे सही रास्ता उसके विचारों को साझा करना है. ‘दलित दस्तक’ के संपादक अशोक दास ने 16 अक्टूबर, 2011 को लखनऊ में मुद्राराक्षस जी का इंटरव्यू लिया था. उसका संपादित अंश पेश है..
सन् 77 के वक्त जब इमरजेंसी लगी थी तो इसे चुनौती देने का माद्दा बहुत कमलोगों में था. राजनीतिक तौर पर जयप्रकाश सहित कई लोग इसे चुनौती दे रहे थे तो सांस्कृति तौर पर भी इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती मिल रही थी.मुद्राराक्षस वो शख्स थे जिन्होंने नाटक के जरिए तानाशाह सरकार पर जोरदारकटाक्ष किया था. उनका नाटक ‘आला अफसर’ तब की जबरिया सरकार को कुछ ऐसा चुभा की इसे देखने के लिए कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह पहुंचे. उनका लेखन कई सवाल खड़े कर चुका है. कई लोगों को चुभता भी है. विरोध भी होता है लेकिन इन सब से बेपरवाह 60 से ज्यादा रचनाएं रच चुके मुद्राराक्षस अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कह देने के लिए भी जाने जाते हैं. धर्मवीर उनको पसंद नहीं तो फट से कह देते हैं कि ‘वह आदमी कुंठित है.’ दलितों के प्रति दृष्टिकोण को लेकर नामवर सिंह, प्रेमचंद, प्रगतिशील लेखक संघ, वामपंथ, किसी को नहीं बख्शते.
आपके बचपन का दौर कैसा था, आप उसे कैसे याद करते हैं?
– गांव में जन्म हुआ (21 जून 1933, बेहटा). यह लखनऊ से करीब 24 किमी है. अब तो वो गांव शहर में ही शामिल हो गया है. वहां जन्म हुआ और चौथी तक वहीं प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की. उसके बाद पिता लखनऊ आ गए तब से फिर यहां रहते गए. बाकी की शिक्षा लखनऊ में हुई. यूनिवर्सिटी में हुई. और लिखना भी लगभग 1950 में शुरू हुआ. निराला, महादेवी और पंत वगैरह को पढ़ने से लिखने की प्रेरणा मिली. 1951 से लिखना शुरू किया. 1955 में लखनऊ से कलकत्ता चला गया. कलकत्ता से मैगजीन निकलती थी ‘ज्ञानोदय’. अब तो वो ‘नया ज्ञानोदय’ हो गया है. तो यहीं 55 में सहायक संपादक हो गया. 58 तक उसमें रहा. 58 में इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन करने लगा. यह एक साल चला. 60 में दिल्ली आ गया. 76तक दिल्ली में ही रहा. दिल्ली का जीवन जरा अगल किस्म का जीवन था. 62 में मैं आकाशवाणी में चला गया. 76 में इमरजेंसी के दौरान मुझे वहां से छोड़ना पड़ा. क्योंकि तब वहां काम कर पाना मुश्किल था.
नाटकों के उस दौर में आपका एक नाटक ‘आला अफसर’ काफी चर्चित और विवादास्पद रहा था. हुआ क्या था?
– ‘आला अफसर’ असल में गोगोल (रुसी नाटककार) के एक नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ का भारतीयकरण था. शहर में एक बड़ा अधिकारी है और उसके यहां जांच के लिए कोई आने वाला है. जांच के लिए जो आता है, उसको ये बड़े आदर के साथ लाते हैं. हालांकि वह जांच के लिए नहीं आया था घूमने आया था. तो शासन और आम आदमी के बीच रिश्ता क्या है, ये उसका केंद्र है. तो जाहिर से उसमें विवाद होना था.
शायद इंदिरा जी ने उसे देखने की इच्छा जताई थी?
– नहीं, उन्होंने नहीं की थी बल्कि मध्यप्रदेश के अर्जुन सिंह ने जरूर देखने की इच्छा जताई थी और उन्होंने देखा भी. अब ये पता नहीं चल सका कि उनको कैसा लगा. उस वक्त सामने बात हुई नहीं. ताली तो उन्होंने बजाई लेकिन उनका विचार पता नहीं चल सका.
आपने मीडिया को भी करीब से देखा है. समाज के एक बड़े तबके की उपेक्षा करने का मीडिया का जो चरित्र है, उसको आप कैसे देखते हैं?
– देखिए मीडिया हमेशा एक तो सांप्रदायिक रहा है. यानि मुस्लिम संस्कृति के विरुद्ध. दूसरे, मीडिया में, खासतौर पर आकाशवाणी औऱ दूरदर्शन में करीब 70 फीसदी बड़े आर्टिस्ट दलित थे. लेकिन उन्हीं की हालत सबसे ज्यादा खराब थी. कितनी भी कोशिश कर लिजिए उनको पहचान नहीं मिलती थी. इसी मीडिया ने पिछले दिनों नोएडा में मायावती द्वारा दलित प्रेरणा स्थल बनाने की तीखी आलोचना की थी.
लखनऊ में भी अंबेडकर पार्क बनाने के दौरान बहुत विरोध हुआ था. आपका क्या मानना है, क्या ऐसे पार्क और मूर्तियां बनना सही है?
– ये तो सही है. बिल्कुल सही है. इससे एक स्थाई छाप तो पड़ेगी उस समूची जाति की, कि इतना बड़ा काम इनके पक्ष में हुआ. हालांकि उस काम को किसी सवर्ण ने प्रशंसा की दृष्टि से नहीं देखा. हर वक्त आलोचना ही होती रही. गांधी की लाखों मूर्तियां इस देश में होंगी और स्मारक होंगे. उस पर तो कोई आक्षेप कभी किसी ने नहीं लगाया कि गांधी की मूर्तियां इतनी क्यों बन रही हैं. अब गांधी से बड़े स्मारक बन रहे हैं तो उन्हें चिढ़ हो रही है. जब तक गांधी जी के सामानांतर मूर्तियां लगती थी तब तक दिक्कत नहीं थी. दिक्कत ये हुई कि उससे बड़े स्मारक बन गए हैं और अब गांधी की उतनी बड़ी मूर्तियां बनाने वाला कोई है नहीं, तो जाहिर है लोगों को कष्ट तो होना ही था इस निर्माण कार्य से. आप सोचिए कि आप सुभाष बाबू के नाम पर कितने स्मारक बना लेते हैं. अब सुभाष कोई सही आदमी तो थे नहीं, जर्मनी का जो हिटलर है, उसके साथ काम कर रहे थे. कभी उन्होंने अपने जीवन में एक शब्द नहीं कहा कि हिटलर अत्याचारी है. मेरा ख्याल है कि करीब 70 लाख लोगों को मरवाया उसने. तो सुभाष बाबू कभी उसकेबारे में तो बोले नहीं. उनकी मूर्तियां लगी हुई है. अच्छा है कि अब वो सब मूर्तियां छोटी हो गई हैं. मैं तो बहुत खुश हूं. जैसे बुद्ध का है. बुद्ध के जो स्मारक हैं, उसके बराबर कोई नहीं पहुंच सकता. राम का कोई स्मारक उतना बड़ा नहीं बन सकता. यह संभव ही नहीं है. तो जाहिर है कि यह स्थिति कुछ लोगों को थोड़ा आतंकित करती है. उत्तर प्रदेश में बड़ा काम हो गया.
आपने बुद्ध की बात की अभी. दलितों के विकास में, उनके आगे बढ़ने में बौद्ध धर्म का कितना महत्व है?
– बहुत बड़ा महत्व है भाई. वो साधारण नहीं है. बुद्ध ने जातिवाद तोड़ा. जो भी जातिवाद तोड़ेगा और सफलता पूर्वक तोड़ेगा वह बड़ा तो होगा ही. इस देश में बौद्ध धर्म को बहुत नुकसान पहुंचा. यानि अगर यह बाहर न गया होता. यानि तिब्बत, चाइना, जापान आदि जगहों पर बौद्ध संस्कृति न फैली होती तो दिक्कत होती. अब यूपी की महत्ता भी उन जैसी होने लगी है.
शूद्र जाति के लोग दलित आंदोलन से उतनी शिद्दत से नहीं जुड़ पाएं, उसकी क्या वजह है?
– दलितों ने भी शूद्रों के बहुत नजदीक जाने की कोशिश नहीं की. बामसेफ जरूर उदार संगठन है. बसपा है तो वह जबरदस्त काम करती है. लेकिन ऐसी स्थिति नहीं बनाती है कि शूद्र उसके साथ आ जाएं. इसकी कमी है. ओबीसी में से कुछ लोग राजसत्ता में आ गए. जैसे यूपी में मुलायम सिंह, बिहार में नीतीश कुमार आएं. अब नीतीश कुमार तो कुर्मी है. हैं तो ओबीसी लेकिन ओबीसी जैसा काम नहीं करते हैं. काम वही ब्राह्मणों जैसी करते हैं. वही स्थिति मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की है. बल्कि वो तो खतरनाक ढ़ंग से हिंदुत्व के साथ हो गए हैं. कहते हैं कि हम तो कृष्ण के वंशज हैं. उससे भी ज्यादा हास्यास्पद है कि आप जो हिन्दु धर्म के तीज-त्यौहार है उसे उतने उत्साह से क्यों मनाते हैं. यह तो ब्राह्मणों का है. जो ओबीसी सत्ता में पहुंचा वो शिद्दत से सवर्ण हिन्दू बन गया.
आप वामपंथी आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन इसने दलित सवालों को मुखरता से क्यों नहीं उठाया?
– बिल्कुल सही कह रहे हैं. कभी नहीं उठाया. बहुत खराब स्थिति है. हाल में प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि दलित प्रश्न और स्त्री प्रश्न क्या होता है, क्यों उठाते हैं लेखक लोग? तो अब इस मानसिकता को क्या कहेंगे? शुरू से आज तक दलित प्रश्न पर और स्त्री प्रश्न पर भी वामपंथ ने कोई सीधा काम कभी नहीं किया. इसमें वो जो 500 पन्नों का बनता है घोषणा पत्र, उसमें पांच हजार मुद्दे होते हैं. उसी में एक छोटा सा प्रश्न दलित मुद्दा होता है. यह बेकार है. तो वामपंथ कभी करेगा ही नहीं. मैं टोकता हूं, “लेकिन आज जब दलित आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से संपन्न होने लगे हैं तो कुछ वामपंथी धरे जाति के प्रश्न को उठाने लगा है.” मुद्राराक्षस पहले के ही भाव में कहते हैं- यह बिल्कुल धोखाधड़ी है. कोई रिश्ता ही नहीं है.
प्रेमचंद से अब तक प्रगतिशील लेखक संघ कितनी प्रगति कर पाया है?
– देखिए, इस मामले में तो प्रेमचंद भी पिछड़े हुए थे. वो कोई दलित पक्षधऱ नहीं थे. उन्होंने ऐसी दो-एक कहानियां जरूर लिखी जिसमें दलित पात्र है. लेकिन वो कहानियां ही विवाद का विषय है. और प्रेमचंद्र कठोरता के साथ गांधी के समर्थक थे. जिस मुद्दे पर पूना पैक्ट हुआ, यह प्रेमचंद्र के ही शब्द हैं कि “दलित हमारे पैर हैं और अगर पैर ही कट गए तो हम कैसे जीवित रहेंगे.” (तल्खी के साथ कहते हैं) पैर ही क्यों हैं भाई. आप हमें पूरे शरीर का हिस्सा क्यों नहीं मानते. क्योंकि हर हालत में आप हमें नीचे ही देखते हैं. तो प्रेमचंद घोर दलित विरोधी हैं.
जब भी दलित विमर्श की बात आती है तो अक्सर विवाद उठता है कि दलितों की बात सिर्फ दलित ही कर सकते हैं, तो दूसरी आवाज आती है कि सिर्फ दलित ही क्यों, गैर दलित भी कर सकते हैं. आपका क्या मानना है?
– ये अजीब है. एक बात बताइए, ये जो हिन्दी का लेखक है जो ऐसी बातें करता है, उससे कहिए कि वो इंडोनेशिया के बारे में क्यों नहीं लिखता, जापान के बारे में क्यों नहीं लिखता. वहां भी तो किसान हैं, वहां भी तो औरते हैं-आदमी हैं. आप उनके बारे में तो कहानी नहीं लिखते हैं, क्योंकि वो एलियन है. अब सवाल यह उठता है कि आप दलित के बारे में क्यों लिखना चाहते हैं. (व्यंग्य के लहजे में कहते हैं) अगर आप दलित के बारे में कहानियां नहीं लिखेंगे तो क्या हो जाएगा, क्या आप बीमार हो जाएंगे. आखिर क्यों लिखना चाहते हैं. आपके पास आपकी पूरी दुनिया है, उसके बारे में लिखते रहें. ये तो अजब बात है कि दलित पर भी हम ही लिखेंगे. मैं टोकता हूं, ‘कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये जो स्पेस है, उसे गैर दलित हड़पना चाहते हैं.’ मुद्राराक्षस सहमति जताते हुए कहते हैं, बिल्कुल यही बात है. ये एक बड़ा क्षेत्र है. तो वो सोचते हैं कि उधर भी जमें रहो, इधर भी टांग अड़ाए रहो.
नाचने-गाने का जो काम है वह दलितों-शूद्रों से जुड़ा रहा है. सांस्कृतिक इतिहास में इसका क्या महत्व है?
– जो बेहतर गायक या नर्तक है इस वक्त वो सारे शूद्र जाति के हैं. ब्राह्मणों ने कुछ कोशिश जरूर की हमला करने की, कि वो ज्यादा बड़े हैं, लेकिन हो नहीं पाया. बनारस के शहनाइ वादक बिस्मिल्लां खां तो अति दलित जाति के थे. अब वो इनकी बराबरी तो कर नहीं पाते. जब मैं ब्राडकास्टिंग में था तो वहां आर्चाय बृहस्पति नाम के एक एडवाइजर आ गए. वो इस बात पर अमादा थे कि दुनिया का सबसे बड़ा संगीतकार पंडित ओमकार नाथ ठाकुर को मानो. हमलोगों ने काफी हल्ला-गुल्ला भी किया. लेकिन अपने जीते जी उस आदमी ने कुमार गंधर्व को कभी ब्राडकास्टिंग में आने नहीं दिया. क्योंकि कुमार गंधर्व ओबीसी थे. लेकिन कुछ लोग अपने को पंडित लिखने लगे. जैसे वो जो बांसुरीवादक हरि प्रसाद चौरसिया हैं, अपने को पंडित भी लिखने लगें. लेकिन हैं तो चौरसिया हीं. तो कुछ संगीतकारों में भी यह हो गया कि वो अपने को ब्राह्मण दिखाएं. नर्तक अच्छन महाराज, शंभू महाराज, लच्छू महाराज इनकी जो भी संतान हैं दिल्ली में, वो सारे पंडित लिखते हैं अपने को. जबकि ये लोग पंडित हैं नहीं, सब दलित हैं. तो क्या कर सकते हैं.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
