उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. यहां कण-कण में भगवान के होने का दावा किया जाता है, लेकिन इसी देवभूमि की एक हकीकत ऐसी भी है, जिसे उत्तराखंड के चेहरे पर दाग और लोकतंत्र के साथ मजाक कहना ही ठीक होगा. राजधानी देहरादून से सिर्फ 84 किलोमीटर दूर जौनसार बावर का क्षेत्र है. यह क्षेत्र चकराता तहसील में आता है. दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे इलाके को ट्राइबल क्षेत्र घोषित कर दिया गया है. इस इलाके में जौनसारी परंपरा का पालन किया जाता है और सरकारी कागज में इस परंपरा को मानने वाले सभी लोगों को ट्राइबल यानि आदिवासी कहा जाता है. यानि यहां का ब्राह्मण भी ‘आदिवासी’ है और ठाकुर भी ‘आदिवासी’ है.
भारत के लोकतंत्र में यह देश का इकलौता इलाका है जहां सरकार ऊंची जाति के लोगों को ‘आदिवासी’ मानती है और उन्हें आरक्षण का हर लाभ देती है. लेकिन आदिवासी घोषित ऊंची जाति के लोगों ने दलित समाज के लोगों के हक को भी मार लिया है. ट्राइबल के सर्टिफिकेट के साथ वो रिजर्वेशन का पूरा फायदा उठाते हैं. उनका नौकरियों पर कब्जा है लेकिन दलित समाज; जिसकी आबादी 42 फीसदी है, उसे ट्राइबल का सर्टिफिकेट तक नहीं मिलता है. ट्राइबल क्षेत्र होने की वजह से उन्हें बिना इस सर्टिफिकेट के कोई लाभ नहीं मिलता है. यही नहीं इस इलाके में दलितों से बंधुवा मजदूरी तक कराई जाती है. दलितों के मंदिर में प्रवेश पर भी रोक है. दलित जब इसकी शिकायत करते हैं तो अव्वल तो उनकी शिकायत नहीं सुनी जाती है, और अगर कोई अधिकारी दलितों के दर्द से पिघल भी जाता है तो ट्राइबल होने की वजह से ऊंची जाति के लोगों के खिलाफ उन पर जातीय उत्पीड़न का कोई कानून लागू नहीं होता है.
24 जून 1967 को जौनसार क्षेत्र को एक विशेष विधेयक पारित कर जनजातीय क्षेत्र घोषित कर दिया गया. इसके लिए तर्क यह दिया गया कि इस क्षेत्र की संस्कृति समान है. लेकिन जनजातीय क्षेत्र घोषित करने से ज्यादा जरूरी यहां के दलितों के हालात को सुधारना था, जिस पर सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. कथित देव भूमि के दलितों की बदहाली का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1976 में इस क्षेत्र में 18 हजार दलित बंधुआ मजदूर थे. वर्तमान में संख्या घटी है लेकिन हालात पूरी तरह सुधरे नहीं हैं. तुर्रा यह कि तमाम शिकायतों के बाद भी अब तक इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई है. दलितों का आरोप है कि ऊंची जाति के ट्राइबल लोग दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट जारी नहीं होने देते हैं. इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाले समाजसेवी दौलत कुंवर कहते हैं, “देश भर में ऐसा नियम कहीं नहीं है कि पटवारी स्थानीय व्यक्ति हो, लेकिन जौनसार क्षेत्र का पटवारी स्थानीय व्यक्ति होता है, जो आमतौर पर ट्राइबल घोषित अपर कॉस्ट होता है. यह स्थानीय पटवारी दलितों के लिए मुश्किल खड़ी करता है. उन्हें सरकारी नियमों तक नहीं पहुंचने देता और ना ही उनका जाति प्रमाण पत्र बनने देता है. दलितों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए वह हर तरह से अड़ंगा लगाता है.” कुंवर दलितों को एसटी का प्रमाण पत्र देने में प्रशासनिक भेदभाव का आरोप लगाते हैं. अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि खुद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट पाने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी. एक लंबी लड़ाई और अदालत के आदेश के बाद मुझे एसटी का सर्टिफिकेट जारी किया गया. कुछ जातियों को लेकर भी यहां मामला उलझा हुआ है. कोल्टा ऐसी ही जाति है, जिसे केंद्र सरकार तो एसटी मानती है जबकि स्थानीय प्रशासन एससी.
कुंवर कहते हैं कि इस क्षेत्र में कोल्टा जाति की आबादी 32 प्रतिशत है. सन् 2004 में बसपा के तत्कालिन राज्यसभा सांसद इसम सिंह ने सदन में पूछा था कि कोल्टा जाति किस वर्ग में आता है. इस पर तत्कालिन सामाजिक न्याय मंत्री सत्यनारायण जटिया ने इसे एसटी वर्ग का बताया था, जबकि स्थानीय प्रशासन इस जाति को एससी मानता है और उसे अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट जारी करता है. कुंवर कहते हैं कि इस तरह के घालमेल से दलितों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है. कोल्टा जो एसटी का दर्जा पाने की सही हकदार जाति थी, उसे एसटी में शामिल नहीं किया गया. कुंवर का आरोप है कि क्षेत्र के ठाकुर और ब्राह्मण समाज के लोग मिलकर दलितों को उनके हक से दूर रखने की साजिश रचते हैं. जाति प्रमाण पत्र का आवेदन स्वीकार करने और जारी करने वाले लोग भी इसी समाज के हैं, जो दलितों द्वारा एसटी के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करने पर कई तरह की मुश्किलें खड़ी करते हैं. उनको इस बात का डर है कि एसटी का जाति प्रमाण पत्र मिलने के बाद दलित समाज के लोग आरक्षण के लाभ में उनके हिस्सेदार हो जाएंगे. एसटी का प्रमाण पत्र नहीं होने की वजह से यहां के दलित चाहकर भी किसी स्थानीय चुनाव या फिर एमपी एमएल के चुनाव में हिस्सा नहीं ले सकते. उन्हें सरकार की किसी भी सुविधा का लाभ तभी मिल सकेगा जब उनके पास एसटी का सर्टिफिकेट होगा.
देव भूमि के रूप में इसकी पहचान होने के कारण देवता भी यहां राजनीति के केंद्र में है. देवताओं को आगे कर के यहां ऊंची जाति के लोगों द्वारा दलितों के लिए कई तरह के नियम कानून बना दिए गए हैं, जो निम्न जातियों के लिए गुलामी की जंजीर साबित हो रही है. उत्तराखण्ड और हिमाचल में मंदिरों की संख्या 6 हजार से ज्यादा है. उत्तराखंड के तो कई इलाकों में घोषित तौर पर दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित है. अगर कोई गलती से मंदिर में चला गया तो पूरे गांव के सामने उस पर जुर्माना लगाया जाता है. जौनसार-बावर में लगभग 1500 छोटे-बड़े मन्दिर हैं, जिनमें दलितों को नहीं जाने दिया जाता है. दसऊ गांव के प्रधान के पिता 75 वर्षीय केसरू ‘दलित दस्तक’ से अपने दर्द को साझा करते हुए कहते हैं कि गांव के ठाकुर उन्हें मंदिर में नहीं जाने देते. कहते हैं कि तुम छोटे लोग हो, नीच हो, इसलिए मंदिर में नहीं जा सकते. एक बार मेरा लड़का मंदिर में चला गया तो पूरे पंद्रह गांव की पंचायत में मुझसे पांच सौ रुपये का दंड लिया गया. केसरू की घटना इकलौती घटना नहीं है. एक बार गांव की ही एक बेटी ने शादी के बाद मंदिर में जाने की कोशिश की थी, उसे पूरे गांव के सामने जलील किया गया. उसके पति और पिता के साथ धक्का मुक्की की गई. पिता को चेतावनी दी गई कि आखिरकार उसने गांव की परंपरा जानने के बाद अपनी बेटी को मंदिर में जाने से क्यों नहीं रोका.
हाल ही में समाजसेवी दलित कुंवर ने अपनी पत्नी सरस्वती रावत कुंवर और अन्य लोगों के साथ मिलकर इस परंपरा को चुनौती दी. उन्होंने जौनसार के प्रतिष्ठित गबेला मंदिर में जाने के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली. अपने 200 समर्थकों के साथ कुंवर मंदिर की ओर बढ़े. इससे सतर्क गांव के ब्राह्मण और ठाकुरों ने पूरे मंदिर की नाकेबंदी कर दी. दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकने के लिए ब्राह्मण और ठाकुर समाज के ‘आदिवासी’ लोगों की महिलाएं और बच्चे तक निकल पड़े. मंदिर प्रवेश करने की कोशिश में लगे लोगों को पत्थर फेंक कर मारा गया और उन्हें मंदिर तक नहीं पहुंचने दिया. इसके बाद कुंवर और उनके साथी भूख हड़ताल पर बैठ गए. पूर्व आइएएस अधिकारी चंदर सिंह ने मामले में हस्तक्षेप किया जिससे प्रशासन हड़कत में आया और गांव में धारा 144 लगा दी गई. पहले तो इस मामले को दबाने की कोशिश की गई फिर मीडिया में मामला उछलने पर प्रशासन ने पुलिस की मदद से कुंवर दंपत्ति और उनके साथियों को मंदिर में प्रवेश करवाया. दौलत कुंवर कहते हैं, “हमें पता है कि मंदिर में जाने से हमारा कोई भला नहीं होने वाला लेकिन हम इस पाबंदी को तोड़ना चाहते थे. हम लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं और कहीं भी आना जाना हमारा अधिकार है.”
देवताओं की नगरी में छूआछूत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है. बल्कि यह परत दर परत कई स्तर पर मौजूद है. यहां के दलित, ट्राइबल ऊंची जाति के लोगों के घर नहीं जा सकते. और अगर ऊंची जाति के लोग किसी काम से उनके घर आते हैं तो उनका छुआ कुछ भी नहीं खाते पीते. यहां तक की ऊंची जाति के ट्राइबल द्वारा दलितों को काम के लिए बुलाने पर उन्हें उनके घर जाना पड़ता है. काम के बदले उऩ्हें दिहारी तक नहीं मिलती. बंधुआ मजदूरी की बात पर दौलत कुंवर कहते हैं कि यहां बंधुआ मजदूरी जैसा घिनौना काम करवाया जाता है. वह दावे के साथ इस क्षेत्र में तकरीबन 3000 बंधुआ मजदूर के होने की बात कहते हैं. कहते हैं कि मैंने खुद 195 बंधुआ मजदूरों को इससे मुक्ति दिलवाई है. दलित दस्तक की टीम जिस दिन इस स्टोरी को कवर करने के लिए जौनसार पहुंची थी, उस दिन भी बंधुआ मजदूरी की चपेट में फंसा एक परिवार जिलाधिकारी के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचा था.
अब जरा यहां के दलित समाज के बच्चों के दर्द को महसूस करिए. आमतौर पर स्कूल के लिए उन्हें हर रोज 12 से 14 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता है. 6वीं कक्षा में पढ़ने वाली अंजू गौना गांव की है, जबकि उसका स्कूल हाजा में है जो उसके गांव से छह किलोमीटर दूर है. यानि अंजू को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए रोज 12-14 किलोमीटर तक चलना पड़ता है, जबकि वहीं दूसरी ओर ऊंची जाति के लोगों के गांव में ही स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधाएं मौजूद हैं. इस इलाके की एक सच्चाई यह भी है कि जहां ऊंची जाति के लोग बिल्कुल सड़क पर बसे हैं और उनके घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद हैं तो वहीं दलित समाज के लोग पहाड़ों में मुख्य सड़क से पांच से पंद्रह किलोमीटर तक नीचे बसे हुए हैं, जहां उन्हें मुख्य सड़क से उतर पर पैदल नीचे जाना पड़ता है. आप कल्पना कर सकते हैं कि जब आज गांव-गांव में स्कूल खुल चुके हैं और लोगों के घरों तक गाड़ियों के पहुंचने की सुविधा मौजूद है, ऐसे में पहाड़ों में दलित समाज के लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाना और रोज की जिंदगी में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
इस क्षेत्र में आप लोकतंत्र का मजाक उड़ते भी देख सकते हैं. यहां चुनाव चाहे जो जीते फैसला ‘सयाना’ का लागू होता है. सयाना वह पद है, जो पीढ़ियों से एक ही परिवार के पास है. भले ही वह अनपढ़ हो, भले ही उसकी उम्र छोटी हो और समझ शून्य हो लेकिन गांव में वही होगा, जो सयाना कहेगा. यहां तक कि चुनावों के दौरान गांवों के लोग उसी उम्मीदवार को वोट देते हैं, जिसके नाम पर सयाना मुहर लगाता है. इस परंपरा के जरिए कहीं न कहीं एक केंद्रीय सत्ता कायम करने की कोशिश की गई है क्योंकि लोगों का कहना है कि सयाना के ज्यादातर पदों पर ठाकुरों का कब्जा है जो सीधे इस क्षेत्र से सांसद प्रतीम सिंह से जुड़े हुए लोग हैं. इस पूरे इलाके में सन् 1952 से ही प्रीतम सिंह और उनके परिवार के लोगों का राजनीतिक वर्चस्व है. प्रीतम सिंह के परिवार के चमन सिंह चौहान यहां जिला पंचायत प्रमुख हैं, जबकि राजपाल सिंह चौहान चकराता के ब्लॉक प्रमुख हैं. प्रीतम सिंह के कद का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि वह हरीश रावत सरकार में गृहमंत्री रहे हैं.
हालांकि इन तमाम बातों से यहां का प्रशासन आंख मूंदे बैठा है. इस बारे में जब एडीएम कालसी प्रेम लाल से बात की गई तो उन्होंने इस क्षेत्र में बंधुआ मजदूरी की घटना से साफ इंकार कर दिया. वह इस बात को मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि दलितों को ट्राइबल का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता. उप जिलाधिकारी (एडीएम) ने सरकारी नियमों का हवाला देते हुए कहा कि हमारे पास GOV है जिसमें साफ कहा गया है कि इस क्षेत्र के एससी के लोग चाहे तो एसटी का सर्टिफिकेट ले सकते हैं. लेकिन इसी कार्यालय में कुछ स्टॉफ ऐसे भी मिले जिन्होंने ऊंची जाति के ट्राइबल लोगों की आपसी मिली भगत की बात को माना. उनका कहना था कि इस क्षेत्र में सत्ता से लेकर नौकरी तक में ऊंची जातियों का वर्चस्व है. वह अपने इस वर्चस्व को छोड़ना नहीं चाहते. उन्हें पता है कि दलितों के पास एसटी का सर्टिफिकेट हो जाने के बाद वह सत्ता और नौकरियों में भागीदार हो जाएंगे. इसलिए उनकी सारी कोशिश शुरुआती स्तर पर ही दलितों को रोक देने की होती है. एसटी का प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना इसी मिली-भगत का नतीजा है.
सामाजिक कार्यकर्ता आर.पी विशाल का कहना है कि सिस्टम में बैठे हुए सारे लोग ऊंची जाति के ट्राइबल लोग हैं. चूकि यह क्षेत्र ट्राइबल है तो सारा फायदा ट्राइबल उठा लेते हैं और एससी के लोग मुंह ताकते रह जाते हैं. जौनसार का यह सच दिल्ली को मुंह चिढ़ाने वाला है. यह देश के लोकतंत्र पर एक कालिख के समान है. देखना यह है कि दिल्ली और उत्तराखंड की सरकार इस कालिख को पोंछने की कोशिश करती है या नहीं.
अशोक दास (अशोक कुमार) दलित-अंबेडकरवादी पत्रकारिता के प्रमुख चेहरा हैं। जब हिन्दी पट्टी में अंबेडकरवादी मूल्यों की पत्रकारिता दम तोड़ने लगी थी, अशोक ने 2012 में मासिक पत्रिका ‘दलित दस्तक’ शुरू कर सामाजिक न्याय की पत्रकारिता को नई धार दी। उनके काम को देखते हुए हार्वर्ड युनिवर्सिटी ने साल 2020 में उन्हें हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया। जहां उन्होंने Caste and Media विषय पर अपनी बात रखी। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास की पत्रकारिता को लेकर DW (Germany) सहित The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week और Hindustan Times आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
IIMC दिल्ली से 2006 में पत्रकारिता करने के बाद अशोक दास ने अपनी पत्रकारिता शुरू की। वह लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में रहे। 2010-2015 तक उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
‘दलित दस्तक’ एक मासिक पत्रिका के साथ वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल एवं प्रकाशन (दास पब्लिकेशन) है। उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
Ashok Das (Ashok Kumar) is a prominent face of Dalit-Ambedkarite journalism. When journalism based on Ambedkarite values was beginning to die down in the Hindi belt, Ashok gave a new edge to social justice journalism by starting ‘Dalit Dastak’ in 2012. Harvard University invited him as a speaker at the Harvard India Conference in the year 2020.Where he spoke on the topic of Caste and Media. India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of 50 Dalits, Remaking India in april 2021 issue. Features regarding Ashok Das’s journalism have been published in media organizations like DW (Germany), The Asahi Shimbun (Japan), The Mainichi Newspapers (Japan), The Week and Hindustan Times etc.
Ashok Das started his journalism career after doing journalism from IIMC Delhi in 2006. He worked in prestigious media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4Media and Deshonnati. From 2010-2015 he covered various ministries and the Indian Parliament. He has been awarded the Prabhash Joshi Journalism Award. On January 31, 2020, on the completion of 100 years of the first paper ‘Mooknayak’ published by Dr. Ambedkar, Ashok Das and Dalit Dastak organized a grand event in Delhi where Dr. Ambedkar was remembered as a journalist. This gave a new edge to Ambedkarite journalism in India.