बेटी को घोड़ी पर बैठाकर विदा करने वाले दलित पिता को मिल रही हैं धमकियां

0
जालोर. राजस्थान के जालोर जिले के कोतवाली थाना क्षेत्र के मांडवला गांव में एक दलित की  बेटी की शादी पर बंदोली निकालने (गांव में घूमाना) व घोड़ी पर तोरण मारने की रस्म निभाने पर कुछ लोगों ने उसे धमकाना शुरू कर दिया है. इतना ही नहीं लोगों ने फोन और सोशल मीडिया पर अपमान जनक कमेंट्स भी कर रहे हैं, वहीं दलित की छोटी बेटी को उठाने की भी धमकी दी जा रही है. ऐसे में पीड़ित ने मंगलवार को पुलिस अधीक्षक से मिलकर आरोपितों के खिलाफ कार्रवाई कर न्याय दिलाने की गुहार लगाई है. इसके बाद पुलिस अधीक्षक के आदेश पर कोतवाली थाना पुलिस ने प्रकरण दर्ज कर अनुसंधान शुरू किया है. कोतवाली थाना प्रभारी चम्पाराम ने बताया कि मांडवला निवासी भगवानाराम मांडवला ने रिपोर्ट दी कि 25 नवंबर को मेरी बेटी की शादी के दौरान बंदोली एवं तोरण की रस्म घोड़ी पर बैठाकर पूरी की गई थी. इसके बाद शादी की इस रस्म के फोटो सोशल मीडिया पर आने के बाद कुछ अज्ञात लोगों की ओर से लगातार उन्हें जातिसूचक गालियों से अपमानित करने के साथ-साथ जान से मारने की धमकियां भी दे रहे हैं. वहीं वाट्सएप पर लिखित व ऑडियो रिकॉर्ड भी भेजकर धमकाया जा रहा है. पुलिस ने रिपोर्ट पर प्रकरण कर अनुसंधान किया. भगवानाराम मांडवला ने बताया कि शादी से पहले वह कितने ही घोड़ी वालों के पास गए लेकिन जाति पता चलने पर उन्होंने घोड़ी देने से मना कर दिया. बाद में एक मुस्लिम मित्र ने उस घोड़ी दे दी जिसके बाद लड़की की शादी बिना किसी व्यवधान के हो गया. लेकिन मैंने शादी के बाद जब बेटी की फोटों सोशल मीडिया पर शेयर की तो असामाजिक तत्वों द्वारा मुझे धमकियां दी गई. लोग अब वट्सएप से ऑडियो क्लिपिंग के माध्यम से भी मुझ पर जातिगत टिप्पणियां कर रहे हैं और मुझे और मेरे बेटे का अपहरण कर जान से मारने की धमकी दे रहे हैं. भगवानाराम ने कुछ साथियों से राय लेकर जालोर जिला के पुलिस अधीक्षक को शिकायत की. जिसके बाद पुलिस ने आईपीसी की धारा 506 और एससी/एसटी एक्ट 3(1)(2) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है. लेकिन आरोपी अभी तक उनको धमकियां दे रहे हैं. इन धमकियों और पुलिस की कामचोरी से परेशान होकर भगवानाराम ने राजस्थान के राज्यपाल, मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को शिकायत पत्र लिखा है.

शोषित वर्ग का नया उभार: नया नेतृत्व नये औजार

देश का इतिहास गवाह है कि आज के दलित, आदिवासी, अतिपिछड़े, स्त्रियां और अन्य वंचित समुदाय का सदियों से व्यवस्था निर्माणकर्ताओं द्वारा शोषण किया गया. उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा गया. हमारे यहां एक वर्ग विशेष का वर्चस्व रहा जिसे सामंतवाद कहा गया. इसका उद्देश्य यही था कि एक बड़े वर्ग को संशाधनों से वंचित रखा जाए. उन्हें सशक्त न बनने दिया जाए. वर्चस्वशाली वर्ग उनकी कमजोरी का लाभ उठाकर सत्ता में रहा और एक बड़े तबके का निरन्तर दमन, शोषण, उत्पीड़न करता रहा. उन्हें गुलाम बनाकर उनकी सेवाएं लेता रहा. यह वर्ग मनुस्मृति जैसे ग्रंथों से संचालित था. मनुवादी व्यवस्था की प्रणाली कुछ इस तरह रखी कि इसमें ब्राह्मण पथ प्रदर्शक रहा. राजपूत वर्ग शासन करता रहा और वैश्य व्यापार में लिप्त रहा. एक बड़ा वर्ग जिसे उन्होंने शूद्र और अछूत कहा, इन्हें अपना गुलाम बनाकर रखा. और अमानवीयता की हद तक उनका शोषण, उत्पीड़न करते रहे. उनकी महिलाओं से बलात्कार करते रहे और यह सब कुछ ब्राह्मण वर्ग की सुनियोजित साजिश के तहत होता रहा. उन्होंने इसे शिक्षा से दूर रखा. और उस पर पुनर्जन्म तथा भगवान का भय दिखाकर सदियों तक शासन करते रहे. इतिहास बताता है कि शोषण, गुलामी और अन्याय की यह परंपरा सिर्फ भारत में हो ऐसा भी नहीं था. पूरे विश्व में वर्चस्वशाली वर्ग रंगभेद, नस्लवाद और जातिवाद के नाम पर बर्बरता करता रहा. समय बदलता रहा. इस अमानवीयता के विरूद्ध आवाजें उठती रहीं. साथ ही साथ इन आवाजों का दमन भी होता रहा. पर जैसे-जैसे लोगों को यह पता चलता गया कि आपसी एकता में शक्ति है. लोग संगठित होकर संघर्ष करने लगे और यथास्थिति के विेरूद्ध विद्रोह करने लगे. क्रान्ति होने लगी. फ्रांस की क्रांति. रूस की क्रांति. नस्लवाद के खिलाफ विश्व पटल पर मार्टिन लूथर किंग जैसे नेतृत्व उभरे तो जातिवाद के खिलाफ बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर. इससे पहले मानवता के हित में अन्य अनेक सामाजिक लोगों ने अपने-अपने स्तर पर सामाजिक कार्य किए. वे चाहे गौतमबुद्ध हों. कबीर हों. रैदास हों. ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले हों. ये नाम तो कुछ उदाहरण मात्र हैं. पर असल में सामाजिक परिवर्तन में संतों की बड़ी संख्या है जो इस अमानवीय व्यवस्था का अपने- अपने स्तर पर विरोध करते रहे. अनेक संघर्षों के बाद, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बाबा साहेब द्वारा संविधान का निर्माण हुआ. देश के संविधान ने लोकतांत्रिक प्रणाली की व्यवस्था दी जिसके माध्यम से जिसे शोषित/पीड़ित/वंचित जनता कहा जाता था. उसके शासक का प्रादुर्भाव हुआ. लोकतंत्र की सब से सरल परिभाषा अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने समय में दी. उन्होने कहा ‘जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए’ नाम दिया. आज देश की आजादी के सत्तर साल बाद इन्हीं दलितों, आदिवासियों, अतिपिछड़ों, वंचितों का जो नया नेतृत्व उभरा है- वह काबिले गौर है. आज बदलाव की जो मानवतावादी बुलंद इमारत निर्माणाधीन है उसमें अपने-अपने समय के विभिन्न क्षेत्रों के अनेकानेक संतो, समाज सुधारकों, मानवतावादियों, क्रांतिकारियों ने नींव की ईंट बनाकर एक मजबूत बुनियाद दी है. उसी मजबूत नींव के आधार पर आज मानवतावादी ईमारत का निर्माण हो रहा है. बाबा साहेब ने जब मनुस्मृति जलाई तब से यह संदेश गया कि मनुवाद ही वंचित वर्ग के शोषण का आधार है. बाद में संविधान के निर्माण से इस वर्ग को ज्ञात हुआ कि यदि संविधान का क्रियान्वयन ईमानदारी से किया जाए तो यही उनके उद्धार का आधार है. लोगों को चेतनाशील और जागरूक बनाने के लिए उनका शिक्षित होना जरूरी था. जिस मनुस्मृति ने शूद्रों और अछूतों को शिक्षा से वंचित रखा था. उन्हें अनपढ़ और अज्ञानी बनाए रखने की साजिश कर रखी थी. महात्मा फुले और ज्योतिबा फुले जैसे लोगों ने उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया और सबके लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए. हालांकि उन्हें इसके लिए अनेक संघर्षों और यातनाओं से गुजरना पड़ा. उसके बाद बाबासाहेब ने भी लोगों को ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ के मूलमंत्र दिए. इसी का असर है कि सदियों से शिक्षा से वंचित दलित, आदिवासी, पिछड़े, वंचित, स्त्रियां शिक्षा ग्रहण करने लगे. जागरूक होने लगे और कहने लगे-‘हर जोर-जुर्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है.’ बाबासाहेब ने जब शिक्षा को शेरनी का दूध कहा और राजनीति को ‘मास्टर की’ तो इन समुदायों पर बहुत प्रभाव पड़ा. मान्यवर कांशीराम जी ने डीएस फोर, बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी का गठन कर बाबा साहेब के संघर्ष को आगे बढ़ाया. इनसे प्रेरणा लेकर कई दलित नेतृत्व उभरे. उनमें से कुछ भाजपा की गोद में जा बैठे जैसे उदित राज, राम विलास पासवान, रामदास अठावले आदि. मायावती अभी भी बसपा का नेतृत्व कर रही हैं. उदित राज की जस्टिस पार्टी, तो रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, वामन मेश्राम ‘बहुजन मुक्ति दल’ के माध्यम से तो फूल सिंह बरैया ‘बहुजन संघर्ष दल’ के नाम से इस कारवां को आगे बढ़ा रहे हैं. बाबासाहेब की विचारधारा को लेकर और उनके नाम से भी कई राजनीतिक दलों का गठन हुआ है और वे स्थानीय स्तर पर इस ‘मास्टर की’ को प्राप्त करने की जद्दोजहद में लगे हैं. हालांकि यह मास्टर की भी इतनी आसानी से नहीं मिलने वाली क्योंकि कारपोरेट जगत ने इसे हथियार लिया है. फिर भी यदि दलितों, आदिवासियों, वंचितों, पिछड़ों, स्त्रियों में जनजागरूकता है, चेतना है, एकता की भावना है तो वे अपने वोट के माध्यम से इसे प्राप्त कर सकते हैं. यह मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं. सुखद है कि इन शोषित/पीड़ित/वंचित लोगों में से कुछ शिक्षित होकर संगठन बनाकर अपने-अपने लोगों को जागरूक करने लगे हैं. यूं तो ऐसे छोटे-बड़े अनेक संगठन है. पर कुछ तो वास्तव में बहुत ही उल्लेखनीय भूमिका निभा रहे हैं. उदाहरण के लिए ‘भारतीय समाज निर्माण संघ’, ‘भारतीय समन्वय संगठन’ (लक्ष्य) आदि को लिया जा सकता है. ये संगठन जमीनी स्तर पर लोगों को जागरूक करने में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं. इसके अलावा दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य, बहुजन साहित्य भी अपने-अपने समुदायों को जागरूक कर रहे हैं. क्योंकि वंचित वर्ग आज शिक्षित हो रहा है. साहित्य तक उनकी पहुंच हो गई है. इसलिए इन समुदायों के विद्वान लेखकों द्वारा लिखी गई पुस्तकें उन तक पहुंच रही है. उन्हें जागरूक कर रही हैं. इसके अलावा दलित, आदिवासी, अतिपिछड़े, वंचित, स्त्रियों की अनेक पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है जो अपने पाठकों को जागरूक कर रही हैं. इस तरह की अनेक पत्रिकाएं और कुछ समाचार पत्र हैं जो निरन्तर इन्हें जागरूक कर रहे हैं. कुछ पत्रिकाओं के नाम उदाहरण स्वरूप दिए जा सकते हैं जैसे ‘दलित दस्तक’, ‘सम्यक भारत’, ‘दलित अस्मिता’, ‘दलित आदिवासी संवाद’, ‘महिला अधिकार अभियान’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘हाशिए की आवाज’, ‘स्त्रीकाल’ आदि. इसके अलावा ‘शिल्पकार टाइम्स’, ‘मूल निवासी टाइम्स’ जैसे अनेक समाचार पत्र भी जनजागरूकता में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. वंचित वर्गों में अनेक ऐसे लेखक-लेखिकाएं हैं जो अपने पाठकों को जागरूक करने में महती भूमिका अदा कर रहे हैं. आज दलितों, आदिवासियों, अतिपिछड़ों, वंचित और स्त्रियों को सामाजिक न्याय, राजनीतिक संदेश के साथ-साथ आर्थिक विकास की भी बहुत जरूरत है. ऐसे में इन लोगों के आंदोलन आर्थिक समानता के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आज इन समुदायों को एक ओर जहां समानता, स्वतंत्रता और न्याय की जरूरत है वहीं आर्थिक विकास, आर्थिक समृद्धि भी अहम है. दलितों की डिक्की जैसी संस्थाओं ने यह साबित कर दिया है कि दलित भी करोड़पति बन सकते हैं. चन्द्रभान प्रसाद और एच.एल. दुसाध डाइवर्सिटी यानी विविधता की मांग कर रहे हैं, जिससे कि सरकारी संस्थानों में दलितों, आदिवासियो, अतिपिछड़ों, वंचितों और स्त्रियों को भी अपना हिस्सा मिल सके. डिक्की दलित उद्यमियों को भी प्रोत्साहित कर रहा है. वंचित वर्ग का नया नेतृत्व इतना सशक्त हो चुका है कि यदि आपने बराबरी का दुर्ग-द्वार इनके लिए नहीं खोला तो वो इसे तोड़ देगा. इसलिए शोषित वर्ग के नये नेतृत्व को गंभीरता से लेने की जरूरत है. क्योंकि ये नया नेतृत्व उच्च शिक्षित है. जागरूक है. चेतना संपन्न है. परिपक्व है. तर्कशील व वैज्ञानिक सोच वाला है. अपने अधिकारों के प्रति सजग है. लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता है. संविधान का अनुयायी है. इसे मूर्ख नहीं बनाया जा सकता. इसे भगवान और पुनर्जन्म का भय दिखाकर डराया नहीं जा सकता है. ये आपके सारे शास्त्रों, धर्मग्रंथों, महाभारत, रामायण, पुराणों की बखिया उधेड़ सकता है. राजा महिषासुर, राजा बाली, शम्बूक, एकलव्य के साथ अन्याय, छल-कपट और साजिश करने वाले तुम्हारे देवी-देवताओं, द्रोणाचार्याें और मर्यादा पुरुषोत्तमों की पोल खोल सकता है. ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ के क्रान्तिकारी आंदोलन को बढ़ते देखकर अंग्रेजों को ये बात दो सौ सालों के शासन में समझ आ गई थी कि भारतवासियों पर अब और शासन नहीं किया जा सकता. वो हमें यहां से भगाएं इससे पहले समझदारी इसी में है कि हम स्वयं ही उन्हें सत्ता सौंप कर चले जाएं. उन्होने ऐसा ही किया.   आज के बदलते माहौल में वर्चस्वशाली सामंतवादी ताकतों को चाहिए कि जातिवादी, भेदभावकारी भावनाओं को, गुलाम बनाए रखने वाली मानसिकता को त्याग कर मानवतावादी बनें. क्योंकि जिस तरह शोषित वर्ग के युवाओं का वर्चस्व बढ़ रहा है. उसे देखते हुए अब और इन्हें दबाकर नहीं रखा जा सकता. जो बात अंग्रेजों को दो सौ सालों में समझ आ गई थी. इन ताकतों को पांच हजार साल में भी समझ नहीं आ रही है. वर्तमान हालात ऐसे हैं कि शोषितों/वंचितों को उनके अधिकार देने में ही समझदारी है नहीं तो वे छीनने की स्थिति में आ चुके हैं. वे आपके दुर्ग-द्वारा पर दस्तक दे रहे हैं. हमारी भी समझदारी इसी में है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर करें. सभी इन्सानों को समान समझें. समता को अपनाएं. सबको गरिमा के साथ जीने दें. मालिक और गुलाम वाली मानसिकता को त्याग दें. भाईचारे और बंधुत्व की भावना अपनाएं. हम शोषितों/वंचितों को अपने शोषण से मुक्त करें और उनके साथ इंसानियत से पेश आएं ताकि उन्हें सामाजिक न्याय मिले. वे आर्थिक प्रगति करें. जब सभी समुदाय आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे. सशक्त होंगे. भेदभाव रहित होंगे. शोषण मुक्त होंगे. तभी देश मजबूत होगा. तरक्की करेगा और दुनिया में अपना मुकम्मल स्थान बनाएंगा. लेखक से इस पर rajvalmiki71@gmail.com संपर्क  किया जा सकता है.

ट्रिपल तलाक के निशाने पर हिन्‍दू कोड बिल

पिछले कई महीनों से किसी न किसी बहाने ट्रिपल तलाक का मुद्दा सुर्खियों में है. कभी इस मुद्दे को किसी मंत्री के द्वारा उठाया जाता तो कभी किसी कट्टरवादी संगठन के नेता द्वारा. हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाकायदा यह टिप्पणी की है कि ट्रिपल तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए क्रूरता है और असंवैधानिक है. क्या है ट्रिपल तलाक? मुस्लिम परिवार विधि में ये कानून है कि पति, पत्नी  की रजामंदी के बिना कभी भी, तीन बार तलाक बोल कर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है. आईये जाने की इलाहाबाद कोर्ट ने क्या कहा? हाईकोर्ट ने कहा कि तीन तलाक क्रूरता है. यह मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन है. – कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान से ऊपर नहीं हो सकता. यहां तक कि कोर्ट भी संविधान से ऊपर नहीं हो सकता. कुरान में तीन तलाक को अच्छा नहीं माना गया है. उसमें कहा गया है कि जब सुलह के सभी रास्ते बंद हो जाएं, तभी तलाक दिया जा सकता है. ऐसे में, तीन तलाक को सही नहीं माना जा सकता. यह महिला के साथ भेदभाव है, जिसे रोकने की गारंटी संविधान में दी गई है. कोर्ट ने कहा, पंथ निरपेक्ष देश में संविधान के तहत सामाजिक बदलाव लाए जाते हैं. मुस्लिम औरतों को पुराने रीति-रिवाज़ों और सामाजिक निजी कानून के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. क्या था मामला – इलाहाबाद हाईकोर्ट में तलाक के दो अलग-मामलों में याचिका लगाई गई थी. पहला केस बुलंदशहर का था. इसमें एक 53 साल के शख्स ने अपनी बीवी को तलाक देकर 23 साल की युवती से शादी कर ली थी. पहली बीवी से दो बच्चे थे. नवविवाहित जोड़े ने कोर्ट में याचिका लगाकर प्रोटेक्शन मांगा था. कोर्ट ने उनकी पिटीशन यह कहते हुए खारिज कर दी कि 23 साल की युवती से शादी करने के लिए 2 बच्चों की मां को तलाक देना सही नहीं माना जा सकता है. – दूसरे मामले में उमर बी नाम की एक महिला ने अपने प्रेमी से शादी कर ली थी. उमर का दावा था कि दुबई में रहने वाले उसके पति ने फोन पर उसे तलाक दे दिया. हालांकि, कोर्ट में उमर के पहले पति ने तलाक देने की बाद से इनकार किया. उसका कहना था कि उमर ने अपने प्रेमी से निकाह करने के लिए यह झूठ बोला है. संविधान का नजरिया यह बात तो तय है की संविधान किसी धर्म या परंपरा की आड़ में भेदभाव या शोषण की इजाजत नही देता. इससे पहले भी कई ऐसे रीति-रिवाज में रोक लगाई गई जो गैरकानूनी थे जैसे सति प्रथा, कन्या वध प्रथा आदि. पुरूषवादी दुनिया में ट्रिपल तलाक का असल या कहे छिपा मकसद है नई, जवान, मनपसंद औरत से जिस्मानी ताल्लुकात बनाने की समाजिक अजादी पाना. यह परेशानी किसी एक मजहब की नही है लगभग हर मजहब इस परेशानी से बावास्ता है. हिन्दुओ में शादी जन्म जन्मांतर का रिश्ता है इसलिए कई पत्नियां रखने का रिवाज है. पुराणों में बहु विवाह के हजारों प्रमाण मौजूद है. आज के दौर में भी कई ऐसे मंत्री नेता अभिनेता उद्योगपति है जो एक अधिक महिलाओं से संबंध बनाये हुये है. तो आम लोगों की बात करना बेईमानी होगी. सब कुछ होते हुये ये पुरूषवादी समाज एक औरत को कोई छूट और सुविधा देने के लिए तैयार नहीं है. एक पति के होते हुये कई पति रखने की परंपरा पर, मर्दवादी समाज कभी सोच भी नहीं सकता. भारत में हिन्दू कोड बिल पास होने के बाद बहु विवाह प्रथा में कमी आई. इसमें पत्नी को सम्पत्ति में अधिकार मिला. बराबरी का हक मिला. दूसरी ओर आईपीसी की धारा 125 के तहत भरण पोषण का अधिकार मिला. जिसका कड़ाई से पालन किये जाने की वजह से पुरूष पर तलाक देने से पहले हजार बार सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है. लेकिन मुस्लिम पारिवारिक कानून में भरण पोषण की सुविधा नहीं है. इस पर मशहूर शाहबानो केस में सु‍प्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया. क्या है शाह बानो केस ? इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानो ने 1932 में मोहम्मद खान से शादी की. लेकिन 14 साल बाद मोहम्मद खान ने दूसरी शादी की और 43 साल बाद उसने शाह बानो को तलाक दे दिया था. पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और पति के खिलाफ गुजारे भत्ते का केस जीत भी लिया. सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बाद भी शाहबानो को पति से हर्जाना नहीं मिल सका. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया. इस विरोध के बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया. इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था. इसके बाद से ट्रिपल तलाक का सिलसिला और तेज हो गया. कई बार एसएमएस, ईमेल, फोन और चिट्ठी पर भी बीबीयों को तलाक देने के मामले सामने आये. कई महिलायें सड़क पर आ गई. क्योंकि ट्रिपल तलाक देने के बाद पति पर पत्‍नी का कोई दायित्व नहीं रह जाता. इसके विरोध में कई संगठनो ने मोर्चा खोला. ये सारे लोग और संगठन ट्रिपल तलाक का विरोध तो कर रहे है. लेकिन धारा 125 भरण पोषण मुस्लिम पत्नी को संपत्ति के अधिकार को फिर से लागू करवाने की बात कोई नहीं कर रहा है. हिन्‍दू कट्टरवादी संगठनो द्वारा इस मुद्दे को बार-बार उठाया जाता है. इसका ये कारण नहीं है की वे मुस्लिम जमात या उनकी महिलाओं की पैरोकार है. इनके द्वारा तीन मुद्दे उठाये जाते है 1. मुस्लिम धर्म में ट्रिपल तलाक बंद हो 2. मुस्लिम धर्म में कई बीबियां रखने की प्रथा है बंद हो 3 .यूनिफाईड सिविल कोड की स्‍थापना हो दरअसल इस मुद्दे को जोरो से उठाने का असल मकसद यह है की वे हिन्‍दू धर्म में प्रदत्‍त महिलाओं के संवैधानिक अधिकार को खत्‍म करना चाहते है. उनका असली निशाना हिन्‍दू कोड बिल है. क्‍योकि वे उक्‍त तीनों मुद्दो को उठाकर एक विवाद का माहोल बनाना चाहते हैं. ये विवाद इतना बढ़ेगा की अंत में नौबत यहां तक आयेगी की या तो यूनिफाईड सिविल कोड की स्‍थापना की जाय या फिर हिन्‍दू कोड बिल को खत्‍म किया जाय. जाने हिन्‍दू कोड बिल में क्‍या है? हिन्‍दू विधि में महिलाओं के क्‍या अधिकार हैं उसे इन बिन्‍दुओं में समझा जा सकता है- 1. संपत्ति का अधिकार- हिन्‍दू कोड बिल में हिन्‍दू मां, बहन, पत्‍नी एवं दादी को अचल संपत्ति में पुरूष रिश्‍तेदारों के बराबर अधिकार है. 2. पत्‍नी को भरण पोषण- हिन्‍दू पत्नी को तलाक या परित्‍यक्‍ता होने पर पति की अचल संपत्ति एवं आजीवन मासिक भरण पोषण का अधिकार है, उनके बच्‍चों को भी यह अधिकार है. 3. बहुविवाह पर रोक- हिन्‍दू विधि में एक पत्‍नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना या रखैल रखना एक दंडनीय अपराध है. आज सामंतवादी ताकातें महिलाओं के इन अधिकारो से प‍रेशान हैं. वे अपनी महिलाओं को पैर की जूती समझते है, उन्‍हे कोई अधिकार नहीं देना चाहते है. इसलिए आज उनकी जागरूक महिलाऐं अपने इन अधिकारो के तहत उन्‍हें कोर्ट में घसीट रही है. बहने जमीन में हिस्‍सा मांग रही है, दहेज प्रताड़ना से त्रस्‍त पत्‍नी भरण पोषण और संपत्ति में अधिकार मांग रही है. पालन पोषण नहीं हाने पर मां भरण पोषण का अधिकार मांग रही है. एक से ज्‍यादा पत्‍नी रखने पर जेल जाना पड रहा है. इससे ये सामंतवादी लोग प‍रेशान है. वे आज भी महिलाओं को ढोर गवांर शूद्र पशु नारी ये है ताड़न के अधिकारी समझते है. यहां पर सावधानी इस बात की बरतनी है की मुस्लिम महिलओं के हितो की रक्षा हो साथ में हिन्‍दू महिलाओं को मिले अधिकारों का भी हनन न हो. क्‍योकि भविष्‍य में ये हो सकता है कि दोनो ओर के कट्टरपंथी लोग प्रगतिशलता का नकाब पहन कर एक हो जायेगे और भारत की महिलाओं को फिर से सातवीं शताब्‍दी की ओर ढकेल देंगे. अफगानिस्‍तान इसका नयाब उदारहण है. बहर हाल इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की पहल स्‍वागत योग्‍य है. संजीव खुदशाह बहुचर्चित दलित लेखक हैं. इनसे sanjeevkhudshah@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

बिहारः सवर्णों ने उजाड़ दिए दलितों के घर

0
दरभंगा। बिहार के दरभंगा जिले के कोर्थ गांव में सवर्णों ने दलितों पर अत्याचार किया. सरकार द्वारा दलितों को दी गई जमीन पर गांव के सवर्ण अपने सगे-संबंधी और गुर्गों के साथ दलितों के घर पर हमला कर दिया. पहले तो उनकी जमकर पिटाई की सामान लूट लिए और कुछ घरों को उजाड़ दिया, तो कुछ घरों को आग के हवाले कर दिया. एक दलित वृद्ध दंपत्ति ने जब इसका विरोध किया तो सवर्णों ने दोनों पति-पत्नी को ना सिर्फ हाथ-पांव बांध कर घर को पूरी तरह उजाड़ दिया बल्कि मुंह में मल-मूत्र भी जबरन डाल दिया गया. सवर्णों का घंटों तक दलितों पर कहर चलता रहा. इसकी सूचना थाने को मिलते ही भारी संख्या में पुलिस पहुंच गयी. हलांकि पुलिस के आते ही सभी हमलावर फरार हो गए. तकरीबन एक दर्जन लोग घायल हो गये. चार दलितों की हालत गंभीर है जिसे दरभंगा अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया गया है. इलाके में तनाव जारी है. मामला घनश्यामपुर थाना क्षेत्र के कोर्थ गांव का है, जहां सरकार के अधिकारी सीओ और थाना पुलिस गांव के ही कई दलित लोगों को भूदान के अंतर्गत मिली जमीन पर 19/11/2016 को अलग-अलग जगहों पर भू-दखल कराया गया था, जिसके बाद दलित परिवार वहां अपनी झोपड़ी बना कर रहने लगे. सवर्णों को यह बात नागवार गुजरी और दो दिन बाद ही सवर्णों ने कानून को ठेंगा दिखाते हुए दलितों के घरों पर एक साथ हमला कर ना सिर्फ लूट-पाट मचाई बल्कि जमकर मारपीट भी की. बीते मंगलवार की सुबह 10 दलितों की झोपड़ी उजाड़ने व मारपीट कर जख्मी कर देने मामले में राजेन्द्र पासवान के बयान पर गांव के जटाशंकर झा, राम कुमार झा, नरेन्द्र झा, आदित्य कुमार झा, रामानंद झा, विजय कुमार झा, दिनेश झा सहित 23 लोगों के विरूद्ध प्राथमिकी संख्या 192/016 दर्ज की गई है. ज्यादातर घरों को आग के हवाले कर दिया. घटना के बाद घायलों को दरभंगा अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती करवाया गया. वहीं आरोपी पुलिस की दबिश के कारण गांव छोड़ फरार है. बिरौल एसडीओ मो. शफीक व एसडीपीओ सुरेश कुमार ने गांव का जायजा लिया है. इस क्रम में थानाध्यक्ष को आरोपियों की जल्द गिरफ्तारी के लिए छापामारी तेज करने का आदेश दिया हैय एसडीओ ने बताया कि गांव के दलितों को पूरी सुरक्षा प्रदान की गई है. उन्होंने स्थिति को पूरी तरह सामान्य बताया है. बताया जाता है कि पूरे फसाद की जड़ वो जमीन है, जिसपर भूदान यज्ञ कमेटी से पर्चाधारी दलित व पूर्व से जमीन पर काबिज भूस्वामी के बीच विवाद चल रहा है. बताया जाता है कि दलितों के बीच भूदान की जमीन बांट दी गई थी. लेकिन, जमीन पर पर्चाधारियों को कब्जा नहीं मिल पाया था. इस बीच दस दलित परिवारों को प्रशासन की ओर से जमीन पर कब्जा दिलाया गया था. इसके बाद से जमींदार कब्जाधारियों को सबक सिखाना चाहते थे. इसको लेकर मंगलवार को सवर्णों ने दलितों की झोपड़ियों पर हमला कर आग लगा दी. साथ ही विरोध करने आए दलितों की जमकर पिटाई कर दी.

कालेधन पर लगाम के नाम पर मुद्रा परिवर्तन कितना सही?

आज सुबह घरों में काम करने वाली एक महिला ने बताया की 500 और 1000 रूपए के नोट बंद हो गये है. वो काफी परेशान लग रही थी, उसने आगे बताया की इस रविवार उसकी बी सी खुली थी जिसके 12000 रूपए (500 और 1000 नोट में) उसे मिले है. लेकिन आज ही मुहल्‍ले के किराना दुकान वाले ने 500 नोट के बदले किराना देने से इनकार कर दिया, वो बच्‍चे के दूध के लिए भटक रही थी. मैं इस खबर से हतप्रद हो गया सहसा मुझे यकीन नही हुआ लेकिन न्यूज़पेपर की हेड लाईन से उसके बातों पर यकीन हो गया. मैने कहा की तुम बैंक में पैसे बदल सकती हो बहुत आसान है. तो उसने बताया की उसका बैंक में एकाउंट ही नहीं है. दरअसल यह समस्‍या लगभग हर मध्‍यम, निम्‍न मध्‍यम परिवार की है.  500 एवं 1000 रूपये के नोट 9 नवंबर 2016 की बीती रात से अवैध (बंद) कर दिये गये है. उनकी जगह 500 तथा 2000 के नये नोट जारी किये गये है. इसके पीछे आरबीआई का तर्क है जो आज के अधिकृत विज्ञापन में विस्‍तृत रूप से सामने आया है. वे इस प्रकार हैः- 1. काले धन पर लगाम, 2. भ्रष्‍टाचार पर लगाम 3. जाली नोट पर रोक 4. आतंकवाद का वित्‍तपोषण पर नकेल आदि. सरकार के इस फैसले पर चारों ओर से प्रतिक्रिया आ रही है. कुछ इसे साहसी कदम बता रहे है तो कूछ लोग केवल सनसनी पैदा करने वाला कदम बता रहे है. कुछ लोग डॉ. अम्बेडकर के हवाले से भी इस तर्क का समर्थन कर रहे है. डॉ. अम्बेडकर ने नहीं कहा की 10 वर्ष में नोट बदलने से भ्रष्‍टाचार में कमी आयेगी हालांकि प्रख्‍यात अर्थशास्‍त्री एवं आरबीआई के जनक डॉं. अम्बेडकर के हवाले से ये खबर फैलाई जा रही है की वे प्रति 10 वर्ष में नोट बदले जाने के पक्ष में है. उनके निम्‍न उदाहरण जो उनकी प्रसिद्ध किताब (रूपए की समस्‍या) Problem of Rupee से लिया गया हैः- “And as the Government chose to have legal-tender notes, the Legislature in its turn insisted on their being of higher denomination. At first it adhered to notes of Rs. 20 as the lowest denomination, though it later on yielded to bring it down to 10, which was the lowest limit it could tolerate in 1861. Not till ten years after that, did the legislature consent to the issue of Rs. 5 notes, and that, too, only when the Government had promised to give extra legal facilities for their encashment. ” यह उद्धहरण इस किताब में सर रिचर्ड टेम्‍पल के हवाले से लिया गया है इसका हिन्‍दी अनुवाद इस प्रकार है. “सर्व प्रथम विधान मण्‍डल ने कम से कम मूल्‍य वर्ग के रूपए में 20 रूपए के नोट को जारी करने का बल दिया. परंतु बाद में वह इस मूल्‍य वर्ग को घटाकर दस रूपये के नोटों पर सहमत हो गए. इसके बाद  भी विधानमण्‍डल ने 5 रूपये के नोटों के जारी किये जाने की अनुमति नही दी. यह अनुमति तभी दी गई जब सरकार ने उनके भुनाने के लिए अतिरिक्‍त सुविधाएं देने का वचन दिया.” वाल्‍यूम 12,  पृष्‍ठ 57,  रूपये की समस्‍या उद्धव और समाधान. बाबासाहेब डां अंबेडकर सम्‍पूर्ण वाडमय गौरतलब है कि इस संदर्भ को डॉं. अम्बेडकर के नाम पर समाचारपत्र-पत्रिकाओं सोशल मीडिया में प्रसारित किया जा रहा है. ऐसा करने के पीछे क्‍या मकसद है. ये एक षड्यंत्र है या अज्ञानता यह एक जांच का विषय है. जबकि उक्‍त उदाहरण को ध्‍यान से पढ़ेंगे तो आप पायेंगे की इसमें कुछ और बात लिखी गई, 10 वर्ष में मुद्रा बदले जाने संबंध में यहां कोई बात नहीं की गई है. यहां यह बताना जरूरी है की सरकार ने एक अच्‍छे मकसद से मुद्रा परिवर्तन का कदम उठाया है लेकिन नाम न बताने की शर्त पर एक व्‍यवसायी बताते हे कि विगत 5-6 दिनों से भारी मात्रा में कुछ धनिको द्वारा बैंक में धन जमा कराया जा रहा था. आशंका है की सरकार के इस निर्णय की भनक कुछ धनकुबेरो को लग गई थी. क्‍या काले धन पर लगाम लगेगा? जैसा की आरबीआई ने कालाधन, जाली नोट, आतंकवाद पर रोक लगाने की बात कही है. चूंकि बड़े नोट बंद नहीं हुये हैं इसलिए इन समस्‍याओं पर क्षणिक असर तो पड़ेगा लेकिन बाद में समस्‍या जस की तस रहेगी. क्‍योंकि काले धन का कैश ट्रांजेक्‍सन आसान होता है. आईये जाने की कालाधन कहां जमा है किन पर कार्यवाई की जरूरत हैः- 1) भूमि पति- कालाधन का सबसे आसान निवेश है जमीन खरीदी. भारत में भूमि सीलिंग एक्‍ट लागू है यानि कोई भी व्‍यकित 10 एकड़ से ज्‍यादा सिंचित भूमि नहीं रख सकता. लेकिन इस नियम को या तो सीथील कर दिया गया या इसकी धज्‍जीयां उड़ा दी गई. आज एक ओर एक व्‍यक्ति के पास सर छिपाने को न छत है न जमीन, तो दूसरी तरफ एक-एक व्‍यक्ति के पास 100 से 1000 एकड़ भूमि के मालिकों की संख्‍या लगातार बढ़ती जा रही है. आजादी के बाद कालेधन का सबसे ज्‍यादा निवेश भूमि में हुआ है. अत: सीलिंग अधिनियम को और मजबूत बनाने की जरूरत है साथ ही जरूरत है उसे कड़ाई से लागू करवाने की. 2) स्‍वर्ण खरीदी- डॉं. अम्बेडकर अपनी किताब रूपये की समस्‍या में बताते है की सोवियत रूस समेत कुछ विकसित देश में स्‍वर्ण की खरीदी की सीमा बांधी गई है. भारत में काला धन निवेश की दूसरी सबसे पसंदीदा जगह स्‍वर्ण खरीदी है. अत: स्‍वर्ण खरीदी पर अंकुश लगाया जाना चाहिए और घरों में जमा सोना का घोषणा पत्र लिया जाना चाहिए. 3) राजनीतिक पार्टियों को चंदा- चूंकि राजनीति पार्टी को दिया जाने वाला चंदा आरटीआई के अंतर्गत नहीं आता इसलिए यहां निवेश अत्‍यंत अच्‍छा माना जाता है बड़े ओद्यौगिक घराने वे इसके सहारे संविधान में संशोधन अपने व्‍यवसायिक लाभ को बढ़ाने के लिए करते रहे हैं. 4) धार्मिक स्‍थल को दिया जाने वाला धन- भारत एक धार्मिक देश है लोग अपनी आत्‍म संतुष्टि के लिए चंदा देते है. वहीं दूसरी तरफ, गुप्‍त धन के रूप में काला धन भी खूब दिया जाता है. उसी प्रकार काला धन को सफेद बानने का गोरखधंधा भी किया जाता है. पिछले दिनों ऐसा ही मामला सामने आया. एक संत कालेधन को सफेद करने की कोशिश वाला मामला मीडिया की सुर्खियों में था. 5)शेयर एवं महंगी चल संपत्ति- इसके बाद कालाधन का निवेश शेयर बाजार तथा महंगी चल सम्‍पत्ति में किया जा रहा है. यदि वास्‍तव में कालेधन, आतंकवाद जाली और नोट में अंकुश लगाना है तो इन 5 बिन्‍दुओ पर गौर करना आवश्‍यक है. क्‍योंकि कालाधन की खपत की गुंजाइश जिस देश में ज्‍यादा होगी वहां भ्रष्‍टाचार, आतंकवाद और जाली नोट का बजार फलेगा फूलेगा. अत: सबसे पहले आज़ादी के बाद काला धन जमा कररने वाले लोगों पर कड़ी कार्यवाई की जानी चाहिए. मुद्रा बदलने की प्रक्रिया को काला धन पर प्रहार के रूप में देखा जाना उचित नहीं है क्‍योकि 1946 और 1978 में भी इस प्रकार मुद्रा की वापसी या परिवर्तन हुआ था. किन्‍तु कालाधन पर कितना अं‍कुश लगा ये बात किसी से छि‍पी नहीं है. बहरहाल सरकार के फैसले का स्‍वागत है. देखना है कि इन पांच बिन्‍दुओ पर कठोर कदम कब उठाया जायेगा या मुद्रा (वापसी) परिवर्तन ग़रीबों की परेशानी का सबब बनकर रह जायेगा. For such extra facilities, and measures adopted to materialise them, Cf. the interesting speech of the Hon. Sir Richard Temple on the Paper Currency Bill dated January 13, 1871, S.L.C.P., Vol. X, pp. 22-25 संजीव खुदशाह बहुचर्चित दलित लेखक हैं. इनसे sanjeevkhudshah@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

अम्बेडकर जुलूस के दौरान छात्रों में टकराव, पथराव और बमबाजी

0
इलाहाबाद। डॉ. भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस पर देर शाम कैंडल मार्च के दौरान छात्रों के दो गुट आपस में भिड़ गए. जुलूस में शामिल छात्र ईश्वर डिग्री कॉलेज से लल्ला चुंगी, छात्रसंघ भवन होते हुए पीसीबी हॉस्टल के सामने नारेबाजी करते जा रहे थे तभी दूसरे गुट के छात्रों ने हॉस्टल से बाहर आकर विरोध किया. छात्रों में मारपीट के बाद पथराव होने लगा. भगदड़ मच गई. एक गुट भारी पड़ा तो दूसरे गुट को भागना पड़ा. जुलूस निकाल रहे छात्रों ने मारपीट के बाद लल्ला चुंगी पर पथराव और फायरिंग कर दुकानें बंद करा दीं. भारी झड़प की सूचना पर कई थानों की फोर्स के साथ एसएसपी और सिटी एसपी भी वहां पहुंच गए. विश्वविद्यालय के आसपास नाकेबंदी कर दी गई. झड़प में दो छात्र हो गए हैं. डॉ. भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण दिवस की शाम को पंत और अंबेडकर छात्रावास समेत कई हॉस्टलों के छात्रों ने वॉयस ऑफ इंडिया के बैनर तले ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज से कैंडल मार्च निकाला. छात्र ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज, प्रयाग स्टेशन, लल्ला चुंगी, केपीयूसी हॉस्टल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ भवन होते हुए लक्ष्मी टॉकीज चौराहे की तरफ जा रहे थे. उन्हें विधि संकाय स्थित अंबेडकर प्रतिमा तक जाना था. छात्रों का हुजूम नारेबाजी करते हुए पीसीबी हॉस्टल के सामने पहुंचा तो कुछ छात्रों ने हॉस्टल से बाहर आकर नारेबाजी का विरोध किया. इस पर छात्रों के बीच झड़प होने लगी. मारपीट होने लगी तो हॉस्टल से बड़ी संख्या में छात्र बाहर आ गए. मारपीट के साथ ही पथराव होने लगा. बम धमाके भी हुए. अफरातफरी मच गई. पथराव में कई गाड़ियों के शीशे टूट गए. सड़क पर भगदड़ मच गई. दुकानों के शटर गिर गए. खबर पाकर कर्नलगंज थाने की फोर्स पहुंची तो हॉस्टल के छात्र अंदर घुस गए. कुछ देर में एसएसपी शलभ माथुर, एसपी सिटी विपिन टाडा, सीओ कर्नलगंज दुर्गा प्रसाद तिवारी, सीओ आलोक मिश्र, समेत कई थानों की फोर्स पहुंच गई. पुलिस फोर्स ने लाठियां पटक उपद्रवी छात्रों को खदेड़ा. छात्रों के दो गुटों के बीच तनाव को देखते हुए लल्ला चुंगी, बैंक रोड, केपीयूसी, जीएन झा, लक्ष्मी टॉकीज के पास भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया. पथराव में घायल विधि छात्र वीरेंद्र कुमार और मृत्युंजय कुमार अस्पताल भर्ती है. इसके अलावा छह छात्र मामूली रूप से जख्मी हुए.

बाबासाहेब के परिनिर्वाण दिवस पर दलितों की बस्ती पर सैकड़ों लोगों ने किया हमला

0
सातारा। महाराष्ट्र के सातारा जिले के अंतर्गत आने वाले चिंचनेर गांव में लगभग 200 लोगों ने दलित बस्ती पर हमला कर दिया. इस हमले में लोगों ने दलितों के 40 घरों को तबाह कर दिया. लोगों ने घरों में तोड़-फोड़ की और बस्ती में खड़ी मोटर साइकिल-कारों पर भी पथराव किया. दलित बस्ती पर ये हमला बाबासाहेब के परिनिर्वाण दिवस पर हुआ. लोगों ने दलितों के घरो में तोड़-फोड़ कर दी और 25 से 30 मोटर साइकिल-गाड़ियों को भी आग के हवाले कर दिया. गांव में अचानक हुए इस हमले से दंगे जैसे हालात है. पूरा माहौल तनावग्रस्त हो गया है. पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ पुलिस फोर्स तैनात की गयी. घटना को गंभीरता से लेते हुए पुलिस अधिक्षक संदीप पाटिल भी तैनात रहे. इस संदर्भ में 25 संदिग्ध गुनाहगारों को गिरफ्तार किया गया है. गांव के दलित व्यक्ति ने बताया कि बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण पर इस घटना का होना बहुत गंभीर है. बाबासाहेब ने दलितों के उत्थान के लिए जीवन समर्पित किया था. लेकिन उन्हीं के परिनिर्वाण दिवस पर इस तरह की घटना होना चिंता की बात है. गौरतलब है कि लगभग एक महीने पहले नासिक में भी इसी तरीके से दलित बस्तियों पर हमले हुए थे. इस संबंध में हाइकोर्ट में एट्रोसिटी एक्ट के अंतर्गत केस लड़ा जा रहा है. एक महीने में यह दूसरी बड़ी घटना है.

कूड़ा बीनने वाले बच्चों का भविष्य संवार रहे हैं दलित छात्र

0
कानपुर। कूड़ा बीनकर दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में जो बच्चे दिनभर सड़कों पर मारे-मारे फिरते थे, आज वे हिंदी, अंग्रेजी और गणित की पढ़ाई कर रहे हैं. कभी अक्षर ज्ञान इन बच्चों के लिए एक सपना था. उत्तर प्रदेश वस्त्र प्रौधोगिकी संस्थान (यूपीटीटीआई) के दलित छात्रों ने कानपुर की गली-गली बनी झुग्गी झोपड़ियों में जाकर इन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया. ईदगाह के समीप कूड़े की बोरियों से भरी एक गली में ये छात्र स्कूल चला रहे हैं. इस स्कूल में सौ से अधिक बच्चे यहां शिक्षा ग्रहण कर अपना भविष्य संवार रहे हैं. यूपीटीटीआई के दलित छात्रों ने लगभग दो साल पहले इन बच्चों को पढ़ाने का सिलसिला शुरू किया था. तब उनके पास न तो कमरा था और न ही संसाधन. जब वे झुग्गी झोपड़ी में जाकर इन बच्चों के माता-पिता से मिलकर उन्हें पढ़ाने के लिए कहते तो उनका जवाब ना होता था. धीरे-धीरे छह बच्चों के साथ इंस्टीट्यूट के उन्मूलन समूह के छात्रों ने इस स्कूल की शुरूआत की. इसके बाद दूसरे बच्चों के माता-पिता भी अपने बच्चों को भेजने लगे. बच्चों को पढ़ाने के लिए जगह का इंतजाम एएनडी डिग्री कॉलेज की काजल के सहयोग से हुआ. यूपीटीटीआई के टेक्सटाइल केमिस्ट्री के छात्र आशीष कुमार ने बताया कि वर्तमान समय में यहां पर 15 छात्र, छात्राएं इन बच्चों को अपना समय निकालकर पढ़ा रहे हैं. रोजाना दोपहर में दो से साढ़े चार बजे तक उन्हें पढ़ाया जाता है. यूपीटीटीआई के छात्र निर्भय सिंह खरवार ने बताया कि लगभग दो साल पहले इस स्कूल की नींव पड़ी थी. शुरूआत में बहुत परेशानी हुई. कई माता-पिता अपने बच्चों को यहां नहीं भेजते थे. घर-घर जाकर उन्हें जब शिक्षा का महत्व बताया गया तब उन्होंने अपने बच्चों को भेजना शुरू किया.

सरकार ने कानून में बदलाव किए बिना की नोटबंदी, अब करेगी संशोधन

मोदी सरकार 9 नवंबर से पहले छपे 500 और 1,000 के नोटों की वैधता को समाप्त करने के लिए संभवत: भारतीय रिजर्व बैंक कानून में संशोधन करेगी. आगामी बजट में इसका उल्लेख किया जाएगा. सूत्रों ने कहा कि नोटबंदी की प्रक्रिया के तहत 500 और 1000 के नोट को अवैध करार देने के लिए कानून की जरूरत होगी. इसे 31 मार्च से पहले प्रभावी किया जाएगा. सूत्रों ने बताया कि 1978 में करेंसी का प्रतिबंधित किया गया था. उस समय नोटों को अवैध करने का कानून पहले आ गया था.

इस बार सरकार ने रिजर्व बैंक कानून की धारा- 26 (2) के तहत कार्रवाई की है. रिजर्व बैंक कानून की धारा 26:2: के तहत केंद्र सरकार रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड की सिफारिश पर भारत के राजपत्र में अधिसूचना के जरिये अधिसूचित में वर्णित तारीख से किसी भी श्रृंखला और मूल्य के बैंक नोटों को कानूनी तौर पर बंद कर सकती है. बैंकिंग प्रणाली में जो राशि नहीं आएगी उसके बारे में पूछे जाने पर सूत्रों ने कहा कि इससे रिजर्व बैंक के मुनाफे में इजाफा होगा और ऐसे में केंद्रीय बैंक सरकार को ऊंचे लाभांश या विशेष लाभांश के रूप में अतिरिक्त भुगतान करने की स्थिति में होगा.

बैंकों को अभी तक 15.5 लाख करोड़ रुपए के बंद नोटों की तुलना में 12 लाख करोड़ रुपए की जमा मिली है. सरकार का अनुमान है कि बैंकिंग प्रणाली में करीब 13 लाख करोड़ रुपए वापस लौटेंगे. रिजर्व बैंक द्वारा 500, 1000 के नोट को बंद करने की वजह से ऊंचा लाभांश रिजर्व बैंक कानून में संशोधन के बिना मान्य नहीं होगा. रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने पिछले सप्ताह कहा था कि इससे केंद्रीय बैंक के खाते पर मौजूदा कानून के तहत किसी तरह का स्वत: प्रभाव नहीं होगा. रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के बाद बैंक शाखाओं तथा एटीएम के जरिये जनता को 4.27 लाख करोड़ रूपए के नए नोट जारी किए हैं. बता दें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 रुपए के पुराने नोट बंद करने का ऐलान आठ नवंबर को किया था.

-लेखक पत्रकार हैं.

भारतीय धर्मगुरूओं का खतरनाक मिशन!

भारत में सामाजिक राजनीतिक बदलाव को रोकने के लिये सबसे कारगर हथियार की तरह जिस उपकरण को सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया है वो है भारत का धर्म और अध्यात्म. भारत का धर्म और इसका पलायनवादी अध्यात्म भारत की सबसे बड़ी कमजोरी रहा है लेकिन दुर्भाग्य ये कि इसे ही भारत की केंद्रीय संपदा के रूप में प्रचारित किया जाता है. ये हजारों साल से चला आ रहा षड्यंत्र है और जब तक भारत अकेला था, तब तक ये षड्यंत्र सफल भी होता रहा. लेकिन जैसे ही व्यापार, राजनीति और सामरिक समीकरणों में अन्य सभ्यताओं और मुल्कों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई वैसे ही इस षड्यंत्र की पोल खुल गयी और भारत हर सदी में किसी न किसी का गुलाम होता गया. पौराणिक कहानियों में हम जिस भारत या समाज को पाते हैं वो कभी जमीन पर रहा ही नहीं. असल में भारत का पुराण और मिथकशास्त्र भारतीय आध्यात्मिक षड्यंत्र का स्वाभाविक परिणाम हैं, जिसने इतिहास बोध, न्याय बोध और सभ्यता बोध को पनपने ही नहीं दिया. अध्यात्म पढ़े लिखे वर्ग को बांझ बनाता है और मिथक या पुराण गरीब अनपढ़ वर्ग की गर्दन कसता है, और इस खेल का नियंत्रण ब्राह्मणवाद के हाथ में उनके शास्त्रों के और व्याख्याओं के जरिये होता है. ये तरीका हर दौर में आजमाया गया है और कामयाब रहा है. क्षत्रियों को परशुराम के द्वारा से और वैश्यों को सत्यनारायण के द्वारा काबू किया गया और शूद्रों को पुनर्जन्म से कसा गया. ऐसे हर दौर में भारत के भीतर ही भीतर चार वर्णों की व्यवस्था में एक वर्ण का आधिपत्य बनाये रखने में ये सबसे सफल रणनीति रही है. जब क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों और जनजातीय समाजों को काबू में रखना था तब तक ये आध्यात्मिक पौराणिक षड्यंत्र बहुत सफल रहा. जब तक “काबू किये जाने योग्य” जनसंख्या भारतीय ढंग के आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म में भरोसा करती रही और इन चीजों से डरती रही तब तक ये व्यवस्था बेहतरीन ढंग से चलती रही. यहां तक सफल रही कि धर्म की रक्षा को ही जीवन और विकास की गारंटी मान लिया गया. वर्ण और आश्रम का पालन ही धर्म बन गया। और धर्मो रक्षति रक्षते जैसी उक्तियां और अहम ब्राह्मणवाद जैसे निहायती षड्यंत्रपूर्ण और तर्कविरोधी वक्तव्य इसी दौर में उभरे और छा गए, इनका प्रकोप अभी भी बना हुआ है. भारतीय धर्मभीरु जनसंख्या को काबू करने में मिली यह सफलता ज्यादा देर टिक न सकी. जब यवनों, अफग़ानों, तुर्कों, मुगलों, ब्रिटिशों का प्रवेश हुआ तो उन्हें भारतीय ढंग के धार्मिक भयों की कोई चिंता नहीं थी वे एक तुलनात्मक रूप से सभ्य और संगठित समाज से आये थे और इसी कारण उन्होंने भारत को तुरंत गुलाम बना लिया और भारत के धर्मभीरु और उनके वेदांती आका समझ ही न सके कि ये क्या हो गया? वेदांती आका तो फिर भी इस गुलामी में अपनी सत्ता बहुत ढंग से बचाकर रख सके लेकिन क्षत्रियों, राजपूतों, वैश्यों, शूद्रों को बहुत अपमान और पीड़ा से गुजरना पड़ा. इस एक हजार साल से लंबी गुलामी में वेदांती पुरोहित वर्ग ने गुलाम बनाने वाली कौमों से भी समझौते कर लिए और गुलाम हुई भारतीय धर्मभीरु जनता पर धार्मिक अंधविश्वासों, मिथकों, पुराणों और जाति व्यवस्था का शिकंजा और अधिक कस दिया ये आजकल और तेज हो गया है. मुसलमानों की हुकूमत में ब्राह्मणी आधिपत्य को बहुत व्यवस्थित चुनौती नहीं मिली लेकिन ब्रिटिश आधिपत्य में ब्रिटशों ने शिक्षा, भाषा, धर्म आदि में सीधा हस्तक्षेप शुरू कर दिया इससे ब्राह्मणवाद तिलमिला उठा और यूरोपीय पुनर्जागरण के ही तत्वों से प्रभावित होकर छुटपुट सुधार और बदलाव भी करने लगा. तब तक चूंकि आधुनिकता, विज्ञानवाद और औद्योगीकरण की हवा बन चुकी थी जिसका अंग्रेजी शिक्षा द्वारा लाभ उठाकर भारतीय मध्यमवर्ग समाज बदलाव के लिए तैयार होने लगा. लेकिन आजादी के काफी पहले विश्वयुद्धों और आर्थिकमन्दियों के परिणाम में ये तय हो चुका था कि ब्रिटिश सत्ता ज्यादा देर भारत को गुलाम नहीं रख सकेगी तब भारतीय वेदान्तियों ने अपनी सनातन कला को फिर से चमकाना शुरू किया. जिन शास्त्रों कर्मकांडों रहस्यवादी शिक्षाओं ने इस मुल्क को गरीब गुलाम और बुजदिल बनाया था उन्ही शास्त्रों, धर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को फिर से प्रचारित करने का काम शुरू हो गया. यूरोपीय सभ्यता में रचे बसे थियोसोफिकल सोसाइटी, अरबिंदो घोष, विवेकानन्द, राममोहन रॉय, केशब चन्द्र, देबेन्द्रनाथ और अन्य अनेक लोगों ने ईसाई धर्म की नकल में एक नया धर्म बुना जो सामाजिक सुधार और ईसाई मिशनरी सेवा से प्रेरित था. यह नियो वेदांत या नियो हिंदूइस्म है जिसे हम आज देख रहे हैं. विवेकानन्द ने तो आयरलैंड की एक प्रशिक्षित कैथोलिक नन को बाकायदा ऐसा धर्म और मिशनरी काम सिखाने के लिए भारत बुलाया था. उन्हें भगिनी निवेदिता कहा जाता है. आजादी के बाद, देश के विभाजन के बाद वेदांती हिंदूवादी सत्ता को अपनी सुरक्षा की चिंता बराबर बनी रही. इसी दौर में धीरे धीरे ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण उभरा और बाद में शिखर पर पहुंचा. 50, 60, से लेकर 90 के दशक तक भारतीय पोंगा पंडितों ने इस नियों हिंदुइज्म को पश्चिमी मापदण्डों के अनुरूप और विज्ञान के अनुरूप ढालने का व्यवस्थित ढंग से काम किया लेकिन इस जाति व्यवस्था ने उनकी फांसी लगा दी. वे जितना ही महान बनने की कोशिश करते उतना ही भारत की गरीबी गंदगी और सामाजिक छुआछूत के सवाल उनसे टकराने लगते. ऐसे में हिन्दू धर्म को ईसाई मिशनरी समाजसेवा प्रधान धर्म की फोटोकॉपी में बदल देने का जो प्रोजेक्ट हाथ में लिया वह असफल होने लगा. हालांकि तब तक स्वतंत्र भारत में वर्ण व्यवस्था के शिखर पर बैठे लोगों ने फिर से सत्ता कायम कर ली और वे देख सके कि ईसाई धर्म की सभ्यता और समाज सेवा भारत में फैल गयी तो उनकी सत्ता को शुद्र, आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों की टक्कर मिलने लगेगी. अंबेडकर, फुले, पेरियार ने तब तक यह हकीकत में करके दिखा भी दिया था. ऐसे में बड़ा संकट पैदा हुआ, नेहरू के सुधारों ने जिस समता और सबलीकरण की इबारत लिखी वह कुछ हद तक ही लेकिन सही दिशा में सफल रही और पिछड़ी जातियों और स्त्रियों में विराट शक्ति पैदा हुई. इन “पापयोनियों” की शक्ति बढ़ते देख पोंगा पंडितों को बड़ी चिंता हुई. अब ऐसे धर्म की जरूरत थी जो आभासी जगत में शुद्ध बुद्ध होने और सबके समान होने की बात करे और सामाजिक बदलाव को भी एकदम असंभव कर दे. मतलब आश्रम की दीवार के अंदर भाईचारा, प्रेम, सहभोज और फ्री सेक्स तक दे सके लेकिन आश्रम की दीवार के ठीक बाहर जाति और लिंग का विभाजन तुरन्त शुरू हो जाए. अब यह काम कैसे हो और कौन करे? यह काम अरबिंदो, विवेकानन्द, ओशो, आसाराम बापू जैसे लोगों ने किया. अध्यात्म और परलोक का ऐसा जाल बुना गया जिसमें कहा गया कि समाज कैसा भी सड़ता रहे तुम ज्ञान ध्यान और मोक्ष में लगे रहो. अद्वैत का प्रचार हुआ कि कण कण में ब्रह्म है, “तत्वमसि” तुम वही ब्रह्म हो, सब पंचतत्व के पुतले हैं कोई भेद नहीं. साथ ही जाति, वर्ण और लिंग के भेद और दान इत्यादी भी चलता रहा. बाद में शहरी जीवन में जाति और लिंग के भेदभाव ने शहरी मध्यम वर्ग को और अधिक डरा दिया. पहले ही भारतीयों में आपस में सहयोग, संबंध और प्रेम नहीं था ऊपर से शहरी जीवन की असुरक्षाओं ने मध्यम वर्ग को और डरा दिया. युवा वर्ग यूरोपीय सभ्यता, मुक्त मित्रता और मुक्त प्रेम के वातावरण से मोहित हो ही चुका था और भारतीय बाबाओं ने इसी सम्मोहन और प्यास को आटा बनाकर धर्म के कांटे पर लगाकर तीन पीढ़ियों का शिकार किया. जो मैत्री, प्रेम, सहकार, सहभोज, सुरक्षा और अपनापन समाज में युवाओं को नहीं मिलता वह आश्रमों में परोसा जाने लगा. कामकाजी वर्ग भी इस “आसान और आभासी” इंसानियत से प्रभावित होने लगा और इन बाबाओं योगियों ने बड़ी कुशलता से आध्यात्मिक पलायनवाद में शहरी कामकाजी युवावर्ग को फंसा लिया, इसी युवावर्ग में सामाजिक बदलाव की ललक उठती है, उसे नियों वेदान्तिक अध्यात्म में फंसाकर बांझ बना दिया. अब मजा ये कि उस धर्म और अध्यात्म के ठीक समानांतर धर्म और कॉरपोरेट का नया समीकरण बन गया जिसने राजनीति को अपने ढंग से चलाना शुरू किया. अद्वैत और छुआछूत की समानांतर पटरियों पर ब्राह्मणवाद की ट्रेन फिर चलने लगे और राजनीति और कॉरपोरेट का ईंधन उन्हें तेजी से धार्मिक राष्ट्रवाद की तरफ खींचने लगा. भारतीय बाबा कारपोरेट और राजनेता अपने काम में सफल रहे. इस काम में उन्हें सबसे बड़ी चुनौती कबीर, गोरख और बुद्ध से मिली. लेकिन उसका इलाज भी ढूंढ लिया गया. बुद्ध को विष्णु, कबीर को वैष्णव और गोरख को शिवअवतार बनाकर खत्म कर दिया और उनकी शिक्षाओं को वेदान्तिक शिक्षा की तरह पुनर्जन्म और सनातन आत्मा में लपेटकर पेश कर दिया गया. अब कोई समस्या नहीं रही. अब इसके बाद का भारत आपके सामने है. अभी जितने बाबा योगी और गुरु हैं उन्हें और उनकी शिक्षाओं को कॉर्पोरेट और राजनीति के साथ मिलाकर इस नजर से देखिये, तब आप समझ सकेंगे कि भारतीय धर्मगुरु कितने खतरनाक मिशन में किस योजना से लगे हुए हैं. और इन गुरुओं में सबसे प्रभावशाली गुरु रहे हैं ओशो उन्होंने इस पतन में चार चांद लगा दिया. आज के पोंगा पंडितों की पूरी फौज के भीष्म पितामह वे ही हैं. आज (11 दिसंबर) ओशो रजनीश का जन्मदिन है. आज उन पर गहराई से विचार करें और सोचें कि इन बाबाओं, नेताओं और उद्योगपतियों के षड्यंत्रों से भारत की जनता को कैसे बाहर निकाला जाए.

मोदी का जयापुर गांवः चिराग तले अंधेरा

बनने को तो ये कहानी हजारों सालों से हाशिए पर पड़े दलित समाज के उत्थान का पैमाना बन सकती थी लेकिन एक कोशिश भर बन कर रह गई. और ये कोशिश भी ऐसी है जो बेइंतहा दिखावटी है. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इक्कीसवीं शताब्दी के सोलहवें साल में जिस जयापुर गांव की चर्चा दिल्ली की मीडिया में एक आदर्श गांव की तरह हुई, उसी गांव में रहने वाले मुसहर समाज का एक भी बच्चा पढ़ाई के लिए स्कूल नहीं जाता? 14 परिवार वाले उसी मुसहर समाज के लोगों के पास सालाना कुछ महीनों के लिए ईंट पाथने के अलावा कोई काम नहीं है? लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट ने पिछले पांच साल में देश में बेरोजगारी के उच्चतम स्तर तक पहुंचने का जिक्र किया है लेकिन क्या आप जानना चाहेंगे कि जयापुर गांव के मुसहर परिवारों की बेरोजगारी दशकों पुरानी है ? दुर्भाग्य ये है कि इसका कोई अंत होता नहीं दिखता. ये कहानी उसी जयापुर गांव की है जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दो साल पहले ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ के तहत गोद लिया था. प्रधानमंत्री के गोद लेने के बाद गांव में 2 बैंक खुले, एटीएम लगे, सोलर प्लांट लगा, बस स्टैंड पर लोगों को बैठने के लिए शेड बनवाया गया. सफलता के इन सूचकांकों का जिक्र हर जगह हुआ. होना भी चाहिए. जिस एक काम का जिक्र मीडिया में कम हुआ है वो है मुसहर परिवारों के रहने के लिए एक कमरे वाले पक्के मकानों का निर्माण. बरसात में जिन लोगों को रिसती हुई झोपड़ियों में रहने की मजबूरी हो उनके लिए ये मकान किसी जन्नत से कम नहीं. पर ठहरिए, इस जन्नत की हकीकत जितनी खूबसूरत मालूम होती है, उतनी है नहीं.  इस जन्नत के दूसरे हिस्से में अंधेरा है. जयापुर  गांव से थोड़ा हटकर के एक कोने में बसे इस नए-नवेले सोसाइटी नुमा टोले में आप जैसे ही दाखिल होते हैं, आपका सामना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बनी एक स्मारिका से होता है. इस पर लिखा गया है – मोदी जी का अटल नगर. धान के  खेतों के बीच बसाए गए ‘मोदी जी के अटल नगर’ में कांग्रेस से बीजेपी में आए राव बिरेन्द्र चौधरी का नाम भी खुदा हुआ है. गेट के अंदर बाएं हाथ पर करीने से गमले रखे गए हैं. कुछ गमलों में फूल भी खिले हैं. रात को छोड़कर आप किसी भी वक्त जाइए यहां पेड़ पर बच्चों को खेलते हुए पाएंगे. दीवार पर स्वच्छता अभियान समेत पढ़ाई के लिए प्रेरित करने वाला एक नारा भी टीपा गया है – स्वच्छ भारत, सुंदर भारत. बेटी हो या बेटा दोनों को पढ़ाना है. इस नारे की मंशा कितनी भी अच्छी हो लेकिन इसकी हकीकत ठीक नहीं. 14 मुसहर परिवारों का कोई भी बच्चा पढ़ने न जाए और सरकार अपने काम का ढोल पीटने में लगी रहे. यह किसी त्रासदी से कम है क्या? मुसहर टोले की तहकीकात से एक बात साफ तौर से समझ में आती है. वो ये कि यहां एक कमरे वाले मकानों को ऐसे तैयार किया गया है जिसमें जगह कम लगे, खर्चा कम से कम हो और प्रचार ज्यादा से ज्यादा मिले. दो समानांतर दीवारों के बीच छोटी-छोटी प्लॉटिंग करके एक कमरा, किचेन और बाथरूम के 14 सेट निकाले गए हैं. हर फ्लैट के बाहर नीले रंग में पुता गेट लगाया गया है. गेट के बाहर दीवार पर मकान नंबर भी लिखा है. एक नजर में यहां मौजूद हर चीज ‘अच्छे दिनों ’ की याद दिलाती है. पर, क्या सचमुच ऐसा है ? इसका जवाब मिलता है उन तस्वीरों में जो इन घरों के अंदर का हाल बयां करती हैं. बाकी जो कसर रह जाती है उसे सोनू की उदासीनता पूरी कर देती है. सोनू बताते हैं, ‘यहां करीब 14 परिवार हैं. और हर परिवार में औसतन तीन आदमी हैं.’ यानि कुल मिलाकर करीब 42 लोगों के लिए 10 x 12 के 14 कमरे प्रधानमंत्री मोदी की ओर से ‘सांसद ग्राम योजना’ के तहत बनाए गए हैं. जाहिर है एक खाली कमरा जिसमें खिड़की के अलावा कुछ भी नहीं है तीन लोगों की रिहाईश के लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए लोगों ने रसोईघर को अपना स्टोर रूम बना लिया है. लोगों का कहना है ‘खाना जैसे तैसे बनता है. गैस का कनेक्शन सरपंच रामनारायण पटेल के वादे के बावजूद अभी तक नहीं मिला है.’ मजे की बात ये है कि इन मकानों में कई के पास पंखा भी है लेकिन लाइट नहीं. क्यों? इसका जो जवाब हमें मिला वो भारत में सदियों से मौजूद उस सड़ी-गली जातिवादी व्यवस्था की ओर इशारा करता है जो समाज के हर तबके में मौजूद है. यहां ब्राहमण बनिया से, बनिया यादव से और यादव मुसहर से पूरी ईमानदारी से नफरत करता है. सोनू के मुताबिक, ‘परधानी के झगड़े में फंसकर मुसहर टोले में लाइट नहीं आ सकी. तार खींचा गया था लेकिन यादवों ने तोड़ दिया.’ शायद उन्हें शक था कि मुसहरों ने उन्हें वोट नहीं दिया. अंधेरा दूर करने के लिए सोनू समेत अन्य लोगों ने पीछे वाली मेनलाइन से तार जोड़कर अपने घर को रोशन किया है. घर के अंदर बेशक लाइट नहीं है लेकिन घर के बाहरी हिस्से को जगमग करने की व्यवस्था पूरी है. घर के सामने का हिस्सा रोशन रहे इसके लिए ‘मोदी जी के अटल नगर’ में 8 सोलर पैनल लगाए गए हैं. 2 पैनल यूनियन बैंक की तरफ से लगाए गए हैं जबकि बाकी 6 एक दूसरी कंपनी की ओर से. ये शुभ काम कंपनियों ने कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी फंड के तहत किया है. एक सवाल यहां जरूर बनता है कि कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी फंड के तहत कंपनियों ने काम कराने की दरियादिली सिर्फ पीएम मोदी के चुनाव क्षेत्र में ही क्यों दिखाई? जाहिर सी बात है इसका जवाब सोनू के पास नहीं है. ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे अभियानों का असर दिल्ली में दिखता है. ये दावे सरकारी दफ्तरों से निकलकर तथाकथित अखबारों और चैनलों तक आसानी से पहुंच जाते हैं लेकिन जमीन पर हाल उतने खराब हैं जिसका अंदाजा न तो सरकार को है और न ही उनके कारिंदों को. सोनू को ऐसे किसी भी सरकारी अभियान से आजतक प्रेरणा नहीं मिली है. पढ़ाई के नाम पर उनके चेहरे पर चस्पा उदासीनता का स्थायी भाव थोड़ा और गहरा हो जाता है. वो कहते हैं, ‘ पहले स्कूल दूर था इसलिए नहीं गए. अब तो टाइम निकल गया. कोई ध्यान ही नहीं देता. मेरी तो बेटी है जो अभी छोटी है.’ ऐसा कहकर मुमकिन है सोनू अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहता हो लेकिन सवाल तो ये है कि क्या सोनू की बेटी को पढ़ाना ‘ सासंद आदर्श ग्राम योजना’ का हिस्सा नहीं ? सोनू जैसे इस देश के हजारों मुसहर परिवारों को शिक्षित करने का जिम्मा कौन उठाएगा ? लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. एनएफआई मीडिया फेलोशिप अवार्डी हैं।

यूपीः बसपा निकालेगी दलित-मुस्लिम एकता रथ यात्रा

0
कानपुर। भाजपा के परिवर्तन रथ, सपा के समाजवादी विकास रथ के जवाब में अब बसपा का दलित-मुस्लिम एकता रथ विधानसभा क्षेत्रों में घूमेगा. जनवरी के पहले हफ्ते में आर्यनगर विधानसभा क्षेत्र में जनसभा का आयोजन किया जाएगा. पार्टी के कोआर्डिनेटर यहीं से रथ का शुभारंभ करेंगे. यह रथ सीसामऊ, कैंट, गोविंदनगर, कल्याणपुर विधानसभा क्षेत्र के साथ ही कानपुर मंडल की अन्य विधानसभा क्षेत्रों में भी घूमेगा. इसमें दलित और मुस्लिम साहित्य होगा, जो लोगों में वितरित किया जाएगा. बहुजन समाज पार्टी जीत के लिए सोशल इंजीनियरिंग का सहारा तो ले रही है, वहीं पार्टी का पूरा फोकस दलित और मुस्लिम मतदाताओं पर है. तीन तलाक के मुद्दे पर पार्टी नेतृत्व केंद्र सरकार के विरुद्ध मुखर है. मुस्लिम मतदाताओं को पार्टी से जोड़ने के लिए बसपा की ओर से विशेष प्रयास किए जा रहे हैं. रथ पर पार्टी प्रमुख मायावती और संस्थापक कांशीराम, डॉ. भीमराव अंबेडकर के चित्र के साथ ही दलित और मुस्लिम समाज के महापुरुषों के चित्र भी होंगे. मुस्लिम समाज के प्रतिष्ठित लोग रथ पर चलेंगे और मुस्लिम बस्तियों में जाकर सभाएं करेंगे. जबकि दलित समाज के नेता दलित बस्तियों में सम्मेलन करेंगे. आर्यनगर के प्रत्याशी अब्दुल हसीब को रथ के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई है. 25 दिसंबर तक रथ बनकर तैयार हो जाएगा और जनवरी के पहले हफ्ते से इसका संचालन पूरे मंडल में होगा.

बाबासाहेब अम्बेडकर: एक सच्चे राष्ट्रवादी

यह समाज के लिए ही नहीं बल्कि राष्ट्र के लिए भी गर्व की बात है कि बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक प्रबुद्ध विचारक, न्याय के पक्षधर और स्पष्टवादी व्यक्ति थे. प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई प्रेरणा-सूत्र होता है. बाबासाहेब ने कबीर, फुले और महात्मा बुद्ध को अपना आदर्श माना था. बाबासाहेब को शोषण-उत्पीड़न व अन्याय के विरोध, समता, बन्धुता और भाई-चारे जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना की प्रेरणा कबीर, फुले और महात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन से प्राप्त की थी. बाबासाहेब वर्ण और जाति को भारतीय समाज का कोढ़ मानते थे क्योंकि गुलामी, पिछड़ेपन और गरीबी की खास वजह यही वर्ण और जाति-प्रथा ही है. दलित-शोषित लोगों की उन्नति के मार्ग में छूत-अछूत का भूत ही सबसे बड़ा रोड़ा रहा है. सो यह अति आवश्यक है कि समाज में व्याप्त जाति-पांति के भूत को भगाया जाए. इस बारे में बाबासाहेब स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आप जिस भी रास्ते से बचकर निकलना चाहें तो जातियता का दानव आपका मार्ग रोक लेगा और उसका वध किए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते. जातिय समस्या का उन्मूलन किए बिना न तो राजनीतिक सुधार ही लाए जा सकते हैं और न ही आर्थिक क्रांति ही. आपको जानकर हैरत होगी कि गांधीजी के विचार बाबासाहेब की इस सोच के बिल्कुल विपरीत थे. गांधीजी वर्ण व्यवस्था को बरकरार रखते हुए छुआछात के निवारण के पक्ष में थे, जो किसी भी तरह संभव ही नहीं है. इसलिए बाबासाहेब और गांधी के बीच गहरे वैचारिक मतभेद हो गए थे. इसके चलते पूना पैक्ट के दौरान बाबासाहेब ने यहां तक कह डाला कि यदि अछूतों के लिए अलग चुनाव की मांग करने से मुझे देशद्रोही कहा गया तो उस समाजिक व्यवस्था को ही देशद्रोही क्यों न माना जाए जिसने अछूतों को सदियों से स्वराज्य का कभी अनुभव ही नहीं होने दिया. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने अपने सामाजिक चिंतन के आधार पर हिन्दू-धर्म को जातिगत उत्पीड़न की जड़ पाया. अछूतोद्धार आंदोलन की निराशाजनक प्रगति के चलते बाबासाहेब ने जातिगत उन्मूलन के लिए धर्म बदलने को एक मजबूत विकल्प के रूप में स्वीकार किया और सन 1935 में येवला कांफ्रेंस में बाबासाहेब ने घोषणा कर दी कि मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे वश की बात नहीं थी किंतु मैं हिन्दू  रहकर मरूंगा नहीं, यह मेरे वश की बात है. धर्म बदलने के निष्कर्ष पर बाबासाहेब अचानक नहीं बल्कि एक लम्बे विचार-मंथन, हालातों के गंभीर चिंतन और लम्बे अनुभव के आधार पर पहुंचे थे. बाबासाहेब मानते थे कि धर्म व्यक्ति के लिए है, व्यक्ति धर्म के लिए नहीं. वे मानते थे कि धर्म का आधार बुद्धि होना चाहिए और धर्म समता, स्वतंत्रता और बन्धुता का भाव मानव व मानवता के कल्याण का साधन होना चाहिए किंतु हिन्दू-धर्म इस कसौटी पर खरा उतरने में पूरी तरह असफल रहा है. इसलिए उन्होंने 14 अक्तूबर 1956 को अपने दस लाख से भी ज्यादा अनुयायियों के साथ बौद्ध धम्म को अपनाकर जाति व वर्ण की बेड़ियों को तोड़ने का क्रांतिकारी कदम उठाया. बाबासाहेब ने कहा था कि मैं बौद्ध धम्म को इसलिए पसंद करता हूं क्योंकि बौद्ध धम्म में प्रज्ञा अर्थात अन्धविश्वास तथा दुष्ट प्रवृति के स्थान पर बुद्धि का प्रयोग, दूसरे करुणा अर्थात प्रेम और तीसरे समता अर्थात समानता और स्वतंत्रता का भाव समाहित है. मनुष्य इन्ही तीन सिद्धांतों/बातों को ही एक शुभ आनंदित जीवन के लिए चाहता है. बाबासाहेब का मानना था कि बौद्ध धम्म भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है और इससे न तो समाज को और न ही देश को किसी प्रकार का नुकसान होगा. वर्ण और जाति से व्यक्ति की मुक्ति होगी. बाबासाहेब लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे और मानते थे कि लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था और प्रणाली है जिससे समाज में सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव किया जा सकता है. लेकिन उनका यह भी मानना था कि यदि लोकतंत्र की बागडोर पूंजीपतियों के हाथों में जाती है तो गरीब और निरीह लोगों को गुलामी में जीना-मरना पड़ेगा. इसलिए बाबासाहेब एक ऐसी सरकार की जरूरत समझते थे जो एक समुदाय को दूसरे समुदाय के शोषण से बचाए और देश में आंतरिक दंगों, हिंसा तथा अव्यवस्था पर काबू रख सके. बाबासाहेब की इस मान्यता के चलते कुछ लोग बाबासाहेब को लोकतंत्र विरोधी होने का राग अलापते रहते हैं. ऐसे लोगों को ज्ञात होना चाहिए कि जब अंग्रेजों ने जाते समय बाबासाहेब के सामने भारत का “अछूतिस्तान” के नाम पर एक और विभाजन करने का प्रस्ताव रखा तो अम्बेडकर इसका जोरदार विरोध करके भारत के एक और विभाजन को रोक देते हैं. कहना जरूरी है कि जहां बाबासाहेब एक तरफ सत्ता प्राप्ति को सब तालों की चाबी की संज्ञा दे रहे थे, वहीं निरंकुश सत्ता पर अंकुश लगाने के पक्षधर थे. उनका कहना था, “अपनी शक्ति को केवल राजनीतिक और सामाजिक सवालों को हल करने में मत लगाइए. आर्थिक सवालों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, इसके बिना कोई दूरगामी परिणाम नहीं निकलने वाले.” इस प्रकार बाबासाहेब ने सामाजिक और राजनीतिक  मुद्दों पर ही गंभीरता से विचार करते हुए दलित समाज से साथ मजदूरो से जुड़े  आर्थिक मुद्दो की अनदेखी नहीं की. आज की तारीख में कहा जा सकता है कि बाबा साहेब और मार्क्स की नीतियों में कोई खास अंतर नजर नहीं आता. किंतु यह सत्य है कि बाबा साहेव पूंजीपतियों के साथ-साथ ब्राह्मणवादियों को भी आर्थिक समानता का विरोधी मानते हैं. प्रसंगवश …गांधी जी का चिंतन दलित-हित के उनके तमाम कदम एक दिखावा ही सिद्ध हुए. दरअसल, गांधी जी महज एक विचार थे, व्यवहार नहीं. गांधी जी का दलित-हित में देखा गया प्रत्येक सपना कभी पूरा न होने वाला सपना ही था. यद्यपि गांधी, अम्बेडकर और लोहिया अपने समय में तीनों ही वर्तमान भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों के लिए प्रासंगिक कहे जा सकते हैं. तीनों ही भारतीय सामाजिक इतिहास के बारे में सोचते थे और समाज को बदलना चाहते थे. लेकिन गांधी जी की दाल में काला था. उल्लेखनीय है कि गांधी जी दलित वर्ग के पक्ष केवल और केवल इसलिए बयानबाजी करते रहे ताकि दलित वर्ग कांग्रेस का वोटर बना रहे. यह सत्य इसी बात से जाना जा सकता है कि जब अम्बेडकर ने दलित जातियों के पृथक निर्वाचन की मांग की थी, तब गांधीजी ने यह कहकर अम्बेडकर के प्रस्ताव को खारिज करा दिया था कि दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग मेरे लिए अधिक निष्ठुर प्रहार सिद्ध होगा. यहां यह जान लेना अति आवश्यक है कि किसी भी देश का संविधान किसी भी प्रजातंत्र देश का सबसे उपयुक्त दस्तावेज होता है. बाबासाहेब स्वयं संविधान के निर्माता रहे हैं. संविधान में तमाम मानव हितों के प्रावधानों के चलते यदि  लोकतंत्र खतरे में पड़ता है तो बाबासाहेब इसे संविधान की नहीं, अपितु इसके लागू करने वालों की असफलता मानते हैं, न कि संविधान की. इसीलिए वे चाहते थे कि संविधान का कार्यांवयन सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों और स्वार्थों से ऊपर उठकर किया जाना चाहिए. बाबासाहेब मानते थे कि नारी के पतन का असली कारण हिन्दू-धर्म है. मनु जो ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कर्णधार रहे हैं, उसने ही ऐसे नियमों का प्रतिपादन किया, जिससे नारी की स्वतंत्रता तथा उसके सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की अनदेखी हुई है. नारी को पुरुष की दासी बनाकर रख दिया गया. बाबा साहेब का मानना था कि भारतीय समाज में नारी की भी वही अवस्था है तो गरीब निरीह दलितो की. इसलिए उन्होनें कहा कि मैं समाज में नारी की प्रगति की हालत पर दलित समाज की प्रगति के जैसा ही पैमाना रखता हूं. इतना ही उन्होंने महिला संगठनों की आवश्यकता भी जाहिर की. इसके लिए उन्होंने महिलाओं की शिक्षा व उनमें भविष्य के प्रति जागरुकता जगाने के साथ-साथ बाल-विवाह का जमकर विरोध किया. बाबासाहेब का हिन्दू-कोड बिल को लेकर मंत्रीमंडल से त्यागपत्र भी नारियों के विषय में नारियों की प्रगति के प्रति उनका संकल्प ही झलकता है. और आज जो संसद् में महिला आरक्षण की आग धधक रही है, वो बाबासाहेब की आवाज की ही गूंज है. बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर शिक्षा व ज्ञान को खास मानते हुए जब ये कहते हैं कि आदमी महज रोटी पर ही जीवित नहीं रह सकता. उसे विचारों की खुराक भी चाहिए क्योंकि उसके पास दिमाग भी है. बाबासाहेब दलित नौजवानों को अपने स्वाभिमान और अस्मिता की रक्षा के लिए बार-बार याद दिलाते थे कि जब कभी अवसर मिले तो यह सिद्ध करने का प्रयास करें कि वे बुद्धिमानी और योग्यता में किसी से रत्ती भी कम नहीं हैं. हमको चाहिए कि निजी लाभ की ओर ध्यान न देकर अपने समाज को प्रत्येक प्रकार से लाभ ही नहीं, स्वतंत्र, बलशाली और ख्यातिप्राप्त बनाने का प्रयास करें कि वे बुद्धिमानी और योग्यता में किसी से कम नहीं हैं. मनुष्य को चाहिए कि वह हर पल समाज की प्रगति का मार्ग तलाशे. इस बात के लिए बाबासाहेब इतिहास और साहित्य को जरूरी समझते थे. वह इसलिए  कि इतिहास लम्बे समय तक जिन्दा रहता है और ऊर्जा प्रदान करता है. इसलिए बाबासाहेब कहते थे कि लोगों को इतिहास भूलने का आग्रह करना गलत है. जो लोग इतिहास भूल जाते है, वे नए इतिहास का निर्माण ही नहीं कर सकते. आज का साहित्य इसी बात को आगे बढ़ाने का काम कर रहा है. हां! कल का दलित साहित्य, अब अम्बेडकरवादी साहित्य हो गया है जो मानवतावादी साहित्य के रूप में बाबासाहेब की विचारधारा को आगे बढ़ाने मे एक अहम भूमिका अदा कर रहा है. इसने तमाम दीवारें तोड़ दी हैं. दलित साहित्य जाति संबोधक है किंतु अम्बेडकरवादी साहित्य एक विचार को उद्घाटित करता है. यही होना भी चाहिए क्योंकि बाबासाहेब किसी एक वर्ग के नहीं. अपितु समग्र समाज के अगुआ थे. कुछ कुबुद्धि राजनीतिज्ञ बाबासाहेब को देशद्रोह का आवरण पहनाने में पीछे नहीं हैं. ये वे लोग हैं जो भारत में व्याप्त जाति-प्रथा के समर्थक हैं. जबकि बाबासाहेब में राष्ट्र-प्रेम कूट-क़ूट कर भरा था. चाहे अछूतों के पक्ष में मंदिर प्रवेश का मामला हो, या तालाब के पानी का, धर्म परिवर्तन का या पूना पैक्ट से जुड़ा कम्युमनल एवार्ड का, बाबासाहेब ने कभी भी राष्ट्रहित की अनदेखी नहीं की.यह अलग बात है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बाबासाहेब ने अछूत समस्या पर गुमराह करने वालों से तर्क-वितर्क करने में कठोर रुख अपनाया. बाबासाहेब के राष्ट्रप्रेम को कुछ ऐसे समझा जा सकता है. बाबासाहेब कहते हैं कि मुझे अच्छा नहीं लगता कि जब  कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिन्दू या मुसलमान. किंतु मुझे यह मंजूर नहीं. धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की होड़ में यकीन के रहते हुए आदमी के प्रति निष्ठा पनप ही नहीं सकती. मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत में भी भारतीय रहें. भारतीय के अलावा और कुछ नहीं. भारत के मामले में बाबासाहेब का मानना था कि भारत जैसा देश जहां सत्ता, साधन और संपत्ति एक छोटी कौम की बपोती है, जिसने कपट नीति से अधिकार हथियाएं, ऐसे देश में राजनीतिक  क्रांति से पहले सामाजिक क्रांति का होना जरूरी है. यह जानना जरूरी है कि बाबा साहेब के जमाने में संचार-तंत्र इतना व्यापक नहीं था जितना आज है. सो बाबासाहेब हाथ के लिखे खतों से ही ज्यदातर काम चलाते थे. उनके पत्रों से पता चलता है कि वे अपने परिवार, समाज और उसके विभिन्न समुदायों तथा देश की छोटी-बड़ी सभी प्रकार की समस्याओं को लेकर कितने चिंतित रहते थे. इसलिए वे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से ज्यादा अपने समाज और समुदाय को लेकर ज्यादा गंभीर रहते थे. यह जानकर हैरत होगी कि लोकमान्य तिलक डॉ. अम्बेडकर के जितने विरोधी थे, तिलक के बेटे श्रीधर पंत बलवंत तिलक उतने ही डॉ. अम्बेडकर के पक्के प्रशंसक थे. खेद की बात ये है कि आज तक भारत में किसी भी विद्यालय में बाबासाहेब अम्बेडकर के नाम से कोई Chair  स्थापित नहीं की गई है, जबकि कोलंबिया यूनिवर्सिटी में , जहाँ बाबासाहेब अम्बेडकर ने शिक्षा प्राप्त की थी, अम्बेडकर Chair की स्थापना की जा चुकी है. भारत में किसी भी विद्यालय में बाबासाहेब अम्बेडकर के नाम से कोई Chair  स्थापित न करना दुर्भावना नहीं तो और क्या है? क्या ऐसी भावनाएं अन्ना हजारे को नहीं सालती? क्या जाति-वाद अन्ना को नजर नहीं आता? नजर तो आता होगा किंतु चर्चा में बने रहने के लिए बेशक एक अलग मार्ग ही चाहिए, सो अन्ना ने किया. जीत भी गए. अच्छा हुआ. अन्ना हजारे भुखमरी के खिलाफ मुहीम छेड़ें तो जानें. इतना ही नहीं निचले स्तर पर हो रहे भ्रटाचार जैसे पुलिसिया तंत्र और जिला स्तर पर हो रहे भ्रटाचार को रोकने के लिए कौन सा अन्ना आएगा? सड़क ऊंची हो गई. दरवाजा ऊंचा करना है तो पुलिस को दक्षिणा दो. क्या जन लोकपाल बिल इसे रोक पाएगा? ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला, जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा. बस! आत्म-संतुष्टि की बात है, सो सरकार को भी मिल गई और अन्ना को भी. अब आपस में छींटा-कसी के दौर की बहुत संभावना है. वो होना ही है. कांग्रेस भाजपा पर और भाजपा कांग्रेस पर पत्थर उछालेगी ही. सत्ता की लड़ाई जो ठहरी. अंत में, मैं कहना चाहूंगा कि बाबासाहेब ने कहा था कि किसी भी संविधान की सफलता या असफलता संविधान की अपनी नहीं होती अपितु उसे लागू करने वालों की नीयत पर निर्भर होती है. बाबासाहेब का मानना था कि बुद्धिमान व्यक्ति भला हो सकता है, लेकिन साथ ही वह दुष्ट भी हो सकता है. बाबासाहेब का यह भी मानना था कि सभी समता, स्वतंत्रता व भ्रातत्व के भाव के आधार पर प्रगति व खुशहाली के अवसर प्राप्त कर सकें, यही बाबासाहेब का मानवतावाद है जिसके लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे. यहां यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि बाबासाहेब अम्बेडकर एक सच्चे राष्ट्रवादी थे. उन्होंने जो भी मुद्दे छुए वो सब ऐसे रहे थे कि यदि उनका सही मायने में अनुपालन हो जाता तो आज का भारत खून के आंसू न बहाता. लेखक तेजपाल सिंह तेज को हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार और साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इनका संपर्क सूत्र tejpaltej@gmail.com है.

डॉ. अम्‍बेडकर का जीवन दर्शन

जिन लोगों ने नवभारत की तकदीर लिखी, उन लोगों में डॉ. अम्‍बेडकर खास सख्‍शियत हैं. उन्‍होंने अपने कार्य से समाज, अर्थ और राजनीति ही नहीं बल्कि धर्म के क्षेत्र में भी अद्वितीय स्‍थापनाएं दी. आज बाबासाहेब डॉ. अम्‍बेडकर एक प्रमुख प्रेरक शक्ति हैं, जिनसे ऊर्जा लेकर लाखों लोगों के जीवन में क्रांति आई है और उनका जीवन सुखमय हो गया है. स्‍वतंत्रता, समानता और बंधुत्‍व (भाईचारा) को उनके आंदोलन का केन्‍द्रीय तत्‍व माना जाता है. यही वे तत्व हैं जिन्‍होंने फ्रांस में क्रांति को जन्‍म दिया था, कतिपय अमेरिका की क्रांति में भी यदि प्रमुख नहीं तो एक महत्‍वपूर्ण भूमिका इन तत्त्‍वों की रही थी. डॉ. अम्‍बेडकर अपने भाषणों और लेखों में फ्रांस की क्रांति का खूब उदाहरण देते थे. इसलिए यह मान लिया गया है कि ये तीन प्रेरक तत्‍व डॉ. अम्‍बेडकर ने फ्रांस की क्रांति से लिये हैं. लेकिन ऐसी सूचना को मान लेना गलत होगा. क्‍योंकि 3 अक्‍तूबर 1954 को बाबासाहेब ने आकाशवाणी दिल्‍ली से जारी अपने पांच मिनट्स के वक्‍तव्‍य में कहा था, ‘मेरा जीवन सम्‍बन्‍धी दर्शन तीन शब्‍दों में समाहित है- स्‍वतंत्रता, समानता और बंधुत्‍व (भाईचारा) लेकिन किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि मैंने अपने जीवन-दर्शन को फ्रांस की क्रांति से लिया है. मैंने वैसा नहीं किया है, इस बात को मैं बड़े यकीन के साथ कहता हूं. मेरे दर्शन की बुनियाद राजनीति में नहीं है, बल्कि धर्म में है. मैंने अपने आदर्श तथागत बुद्ध की शिक्षा से इस दर्शन को अपनाया है.” बाबासाहेब डॉ. अम्‍बेडकर अपने जीवन दर्शन में स्‍वतंत्रता को कट्टरता के साथ नहीं अपनाते हैं, वे मानते हैं कि असीमित स्‍वतंत्रता समानता को नुकसान पहुंचाती है. इसलिए वे स्‍वतंत्रता का बेहद व्‍यावहारिक पक्ष ही मान्‍य करते हैं. समानता के मूल्‍य को भी उन्‍होंने कट्टरता से मुक्‍त करके स्‍वीकार किया है. जब हम सभी लोगों को एक समान समानता प्रदान करते हैं, तब हमारी आंखें खुली होनी चाहिए. अनेक अवसरों पर समानता स्‍वतंत्रता को भारी हानि पहुंचाती है. हमें देखना यह है कि एक पेड़ पर चढ़ने के लिए यदि बं‍दर, घोड़ा, हाथी, कच्‍छुआ आदि को समानता का अधिकार देते हुए प्रतियोगिता में शामिल किया जाता है तो यह वास्‍तविक समानता नहीं होगी. स्‍वतंत्रता से समानता के अतिक्रमण के खतरे को वे समझते थे, इसलिए डॉ. अम्‍बेडकर इन्‍हें कानूनी रूप से स्‍वीकार करते थे. इतना होने पर भी उन्‍होंने नहीं माना कि स्‍वतंत्रता के द्वारा समानता के अतिक्रमण और समानता के द्वारा स्‍वतंत्रता के अतिक्रमण से कोई कानून बचाव कर पाएगा. इसलिए समाज को बंधुत्व ही बचा पाएगा, ऐसा उनका मानना था. बिना बंधुभाव के (भाईचारा) समाज अतिक्रमण के खतरों से मुक्‍त नहीं हो सकता. इसलिए उनके दर्शन में इन तीन मूल्‍यों को विशेष योगदान था. इन तीन मूल्‍यों के अतिरिक्‍त डॉ. अम्‍बेडकर ने अपने जीवन पर तीन बातों को विशेष रूप से अपनाया था. अम्‍बेडकरवादियों को इन्‍हें जानना जरूरी है. ये तीन बातें बाबासाहेब ने 28 अक्‍तूबर 1954 को मुम्‍बई के पुरन्‍दरे स्‍टेडियम में कही थी जो 6 नवम्‍बर 1954 को साप्‍ताहिक ‘जनता’ में प्रकाशित हुई थी. ये तीन मूल्‍यवान चीजें हैं, पहली- शिक्षा, दूसरी- आत्‍मसम्‍मान और तीसरी- शील. डॉ. अम्‍बेडकर ने कहा कि ‘ब्राह्मणों ने आज तक हम लोगों को पढ़ने नहीं दिया. धर्म के कानून हमारे रास्‍ते में पत्‍थर की तरह आड़े आ गए और हमें ज्ञान से, पढ़ने-लिखने से दूर रखा गया. हमारे लोग पत्‍थर को ही शिक्षा मानते थे. इसलिए हमारी धार्मिक मान्‍यताएं अपवित्र हुई है. बाबासाहेब को पढ़ने का इतना शौक था कि दिल्‍ली निवास पर उनकी निजी लाईब्रेरी में 20 हजार से अधिक पुस्‍तकें थी. जब वे दिल्‍ली में थे तब वे अक्‍सर ठाकूर एण्‍ड कंपनी से किताबें खरीदते थे, जिनके हजार रुपये के बिल बाबासाहेब की ओर रुके रहते थे. एक दो बार ऐसा भी हुआ कि पुस्‍तकों के उधार को वे चुकता नहीं कर पाए. लेकिन पुस्‍तकें लेने के लिए वे अपनी गाड़ी तक दुकान के सामने लगा देते थे. शिक्षा के प्रति उनके प्रेम को उनकी इस बात से भी जाना जा सकता है, वे कहते हैं- जिस प्रकार मनुष्‍य को जीने के लिए भोजन की जरूरत होती है, उसी प्रकार ज्ञान की भी जरूरत होती है. शिक्षा के बिना कोई भी आदमी कुछ नहीं कर सकता है. डॉ. अम्‍बेडकर ने दूसरी महत्‍वपूर्ण चीज़ ‘आत्‍म-सम्‍मान को माना है. उनका आत्‍म-सम्‍मान, किसी के आगे हाथ फैलाने से रोकता है. लेकिन उनके आत्‍म-सम्‍मान के भाव में निजित्‍व नहीं है, उसमें गहरी सामाजिकता है. वे अपने समय में अर्थशास्‍त्र की उतनी ऊंची डिग्री लिये हुए थे. उतनी ऊंची डिग्री उस समय पूरे भारत में किसी के पास नहीं थी. जब वे भारत आये तो डॉ. परांजये ने एक‍ महाविद्यालय में अर्थशास्‍त्र का प्रोफेसर नियुक्‍त करना चाहा. डॉ. अम्‍बेडकर से तेरह लेक्‍चर देने के लिए कहा गया लेकिन उन्‍होंने केवल चार लेक्‍चर देना ही स्‍वीकार किया. ऐसा क्‍यों किया गया? ऐसा इसलिए किया गया कि वास्‍तव में वे नौकरी नहीं करना चाहते थे. वे अपने लोगों के लिए काम करना चाहते थे. असल कारण था कि आजीविका के लिए वे किसी पर निर्भर नहीं होना चाहते थे. इसलिए आत्‍म-सम्‍मान के साथ समाज के लिए काम के लिए उन्‍होंने नौकरी करनी पड़ी थी. बाबासाहेब कहते हैं- ””मैंने किसी के भी सामने हाथ नहीं फैलाया कि आप मुझे कोई पद दीजिए. हां, दूसरों के लिए कुछ किया होगा, लेकिन स्‍वयं के लिए मैंने एक अंगुल भर चिट्ठी भी लिखी हो तो कोई बताए.”” डॉ. अम्‍बेडकर को कई बार जज की नौकरी का ऑफर मिला. वे एक बार कौंसिलर बने, वे मंत्री भी रहे लेकिन अपने आत्‍म-सम्‍मान को छोड़ वे अवसरवादी नहीं बने. वे किसी भी रूप में दीनता के भाव को स्‍वीकार नहीं करते हैं. एक बार उन्‍होंने कहा- ””मेरा स्‍वाभिमान इतना गहरा है कि मैं ईश्‍वर को भी अपने से छोटा मानता हूं.”” तीसरी महत्‍वपूर्ण चीज डॉ. अम्‍बेडकर के जीवन में ”शील” था. बाबासाहेब ने किसी के साथ दगाबाजी नहीं की और न ही कभी धोखा दिया. वे अपने विचार और आचरण में ईमानदार बने रहे. वे कई बार यूरोप गए, यूरोप में शराब और सिगरेट का आम प्रचलन है, लेकिन उन्‍होंने कभी भी इन निरर्थक चीज़ों का सेवन नहीं किया. डॉ. अम्‍बेडकर का जीवन दर्शन तीन मूल्‍य स्‍वतंत्रता, समानता और सहभाव तथा तीन बातें शिक्षा, स्‍वाभिमान और शील में देखा जा सकता है जो उन्‍होंने अपने जीवन में अपनाया. यहां एक और अति महत्‍वपूर्ण बात पर ध्‍यान देना जरूरी है, जिसपर ध्‍यान दिये बिना बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्‍बेडकर के जीवन दर्शन की बात अधूरी रह जायेगी. बाबासाहेब कहते हैं- ””आज भारत का आदमी दो अलग-अलग ध्‍येयवाद से नियन्त्रित है. संविधान की प्रस्‍तावना में समाया ध्‍येयवाद और धर्म में समाया ध्‍येयवाद. …अपने जीवन दर्शन पर मेरा पूरा भरोसा है, इसलिए आज जो बहुसंख्‍य भारतीय लोगों का जो राजकीय ध्‍येयवाद है, वह सभी का सामाजिक ध्‍येयवाद हो, इस बात की मुझे उम्‍मीद है.”” ध्‍येयवाद किसी व्‍यक्ति के जीवन का चरम लक्ष्‍य होता है, जिससे किसी व्‍यक्ति के जीवन की दिशा तय होती है. अम्‍बेडकरवादी होने का मतलब डा. अम्‍बेडकर के ध्‍येयवाद को अपनाना और उसे हासिल करना है. इसलिए आज के दलित आंदोलन के सामने संविधान की प्रस्‍तावना में दिए सामाजिक ध्‍येयवाद के लिए काम करने के सिवाय कोई दूसरा काम नहीं है. इसलिए अब ब्राह्मणों को कोसना छोड़कर बाबासाहेब के इशारे पर संविधान में दिये ध्‍येयवाद को प्राप्‍त करने के लिए एक-निष्‍ठ संघर्ष करना जरूरी है.

उच्च जाति के व्यक्ति ने किया दलित महिला से रेप, पति को भी किया घायल

0
बांदा। यूपी के बांदा जि‍ले में एक दलित महिला के साथ हैवानियत का मामला सामने आया है. पानी भरने गई इस महिला को घर में खींच उच्च जाति के व्यक्ति ने रेप किया. विरोध कर रही महिला के प्राइवेट पार्ट में कील डाल दी. इससे वह बेहोश हो गई. वहां छुड़ाने पहुंचे महिला के पति और उसके जेठ को फरसे से घायल कर दिया. महिला को मेडिकल चेकअप के बाद जिला अस्पताल ले जाया गया है. बांदा जि‍ले में बीते सोमवार को दलित महि‍ला अपने 8 साल के बेटे के साथ गांव के ही हैंडपंप पर पानी भरने गई थी. आरोप है कि हैंडपंप से सटे घर में रहने वाले उच्च जाति के एक व्यक्ति ने महिला को जबरन अपने घर में खींच लिया. इसके बाद उससे रेप किया. महि‍ला ने जब वि‍रोध कि‍या तो उसके प्राइवेट पार्ट में लोहे की कील डाल दी. साथ ही उसके सिर पर हमला किया. इससे वह बेहोश हो गई. महिला के साथ पानी भरने आया उसका बेटा भागकर घर पहुंचा. उसने घरवालों को घटना की जानकारी दी. घर से महि‍ला के पति और जेठ जब घटनास्‍थल पर पहुंचे तो आरोपी ने उन पर फरसे से हमला कर दिया. इससे दोनों लहूलुहान हो गए. घटना के बाद पीड़ित परिवार गांव वालों की मदद से थाने पहुंची और घटना की सूचना दी. आरोप है कि पुलिस ने कार्रवाई की बजाय सादे कागजों में उनसे दस्तखत करा लिया और उन्हें अस्पताल भेज दिया. बांदा के एसपी श्रीपति मिश्रा का कहना है कि मामला उनकी संज्ञान में आया है. आरोपी के खिलाफ मारपीट का मुकदमा बबेरू थाने में दर्ज किया गया है. पीड़ि‍त महिला की तहरीर बबेरू थाना भेज दी गई है जिस पर धाराओं में तब्दीली करने और पीड़िता का मेडिकल चेकअप के निर्देश दिए गए हैं.

नोटबंदी बनाम वोटों की गोलबंदी

उत्तर प्रदेश में 2017 में होने वाला विधानसभा का आम चुनाव श्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 8 नवम्बर-2016 को सम्पूर्ण देश को आर्थिक आपातकाल के दावानल में झोंक दिया. जिसमें बैंक के बाहर अपना ही पैसा प्राप्त करने के लिए लाइनों में लगे लगभग 74 लोगों की जान जा चुकी है. जो उरी में हुए आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों से चार गुणा से भी ज्यादा हैं. जिन्हें सम्पूर्ण विपक्ष की पूरजोर मांग के बावजूद शहीद मानकर सरकार ने श्रद्धांजलि देने से साफ मना कर दिया. इससे समझा जा सकता है कि देश की आम जनता के दु:ख दर्द से मोदी सरकार का कोई सरोकार नहीं, वह मरती हो तो मरने दो. मायावती जो उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी है तथा राज्यसभा की सदस्य हैं, इस समय देश में विपक्ष की सबसे कद्दावर नेता होकर उभरी है. उन्होंने राज्यसभा में कहा कि मोदी सरकार ने देश पर आर्थिक आपात काल थोप दिया है …देश की जनता पर ही सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया है. बाद में सभी पार्टियों के नेताओं ने उनके ही बयान को दोहराया. मोदी सरकार की पूरी कोशिश है कि वह यह साबित कर पाए कि समूचा विपक्ष उनका विरोध इसलिए कर रहा है कि उसके पास काला धन है? उनके नोटबंदी कार्यक्रम से सपा, बसपा का यह काला धन बेकार हो जाएगा और उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा ही नहीं होगा. सारा विपक्ष यह कह रहा है कि देश की जनता जानती है कि सबसे ज्यादा काला धन देश में किस दल के पास है. लेकिन उसने उसे पहले ही ठिकाने लगा दिया है. इसके लिए विपक्षी दल पश्चिमी बंगाल भाजपा द्वारा 7 नवंबर को बैंक में जमा कराए गए एक करोड़ रूपए को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जब भी किसी देश में नोटबंदी होती है, तो कभी भी पूरी मुद्रा वापस नहीं आती है. उसका बीस से पच्चीस प्रतिशत हिस्सा वापस नहीं आता है. 500-1000 के जो नोट चलन में हैं, उनका 20 प्रतिशत 8 लाख करोड़ बैठता है. जिसका घोटाला करके सरकार अपने कुछ सहयोगी पूंजीपतियों के ऋण माफ़ कर देना चाहती है. जिसे वे 2017 के यूपी के चुनाव तथा 2019 के लोकसभा चुनाव में पुनः निवेश कर देंगे. सरकार द्वारा अपने चहेते उधोगपतियों के बड़े-बड़े ऋण माफ करने के कारण बैंकों के खजाने खाली हो गए थे, उन्हें भरने के लिए नोटबंदी का उपक्रम किया गया, जिसके कारण बैंकों के पास इतनी मुद्रा इक्कट्ठी हो जाएगी, जिससे बड़े-बड़े उधोगपतियों को सरकार ब्याज रहित या बहुत ही कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध करवा देगी इस पूरे घटनाक्रम से साबित होता है कि भाजपा की कथनी और करनी में भारी अंतर है. जैसा कि कहा जाता है कि भाजपा में सामूहिक नेतृत्व है और निर्णय सामूहिक रूप से लिए जाते हैं. यह निर्णय प्रधानमंत्री ने अकेले ही लिया है और उसकी घोषणा भी उन्होंने अकेले ही की है. जो देश को अधिनायकवाद (तानाशाही) की ओर ले जाने वाला कदम है. लोग कह रहे हैं कि उन्होंने सरकार और पार्टी दोनों को हाइजैक कर लिया है. आपातकाल की तारीफ जिस तरह आम जनता कर रही थी, नोटबंदी की तारीफ भी लोग उसी तरह कर रहे हैं. आपातकाल में जनता जिस तरह परेशान थी, नोटबंदी से भी आम जनता उसी तरह परेशान है. जिस तरह भारत की जनता ने आपातकाल के विरोध में वोट दिया था और कांग्रेस हार गई थी. क्या नोटबंदी के विरोध में भी जनता उसी तरह वोट देगी? यह कहना अभी जल्दबाजी होगी. इसके लिए फरवरी 2017 तक प्रतीक्षा करनी होगी और 2019 तो अभी दूर है. लेखक से इस पर drnsingh27@gmail.com संपर्क किया जा सकता है.

परिनिर्वाण दिवस विशेषः आज भी अधूरे हैं बाबासाहेब की मृत्यु से जुड़े सवाल

डॉ. भीमराव अम्बेडकर आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनको मानने और जानने वालों की तादाद बहुत तेजी से बढ़ रही है. आज हालात ये है कि लोग गांधी और अम्बेडकर की तुलना ही नहीं करते बल्कि यह जानने की कोशिश भी करते हैं कि अपने वक्त में किसने देश के बड़े तबके को ज्यादा प्रभावित किया. लेकिन यह सामने आते-आते काफी वक्त लग गया. अम्बेडकर से जुड़े तथ्य तब सामने आने शुरू हुए जब बहुजन समाज ने अपने महान उद्धारकर्ता के जीवन को खंगालना शुरू किया. वहीं गांधी के बारे में किताबों से लेकर पत्र- पत्रिकाओं तक में उनके बचपन से लेकर जवानी, आंदोलन से लेकर देश की आजादी और फिर आखिरी सांस तक के हर पहलू पर द्विज कलमकारों ने खूब कलम भांजा. लेकिन डॉ. अम्बेडकर के बारे में सरकार को ही बहुत कम जानकारी है तो भला आम आदमी इसे क्या समझेगा और जानेगा. क्योंकि हकीकत यह है कि आजादी के बाद से अब तक (जनता दल की सरकार को छोड़ दें तो) इस देश की सरकारों ने डॉ. अम्बेडकर के बारे में न तो खुद जानना चाहा और न ही लोगों को बताने की कोशिश की. बल्कि इस महान हस्ती को लेकर सरकारों ने एक चुप्पी साध रखी है जो अब तक कायम है. जब सरकार गांधी और नेहरू को ही महापुरुष मानकर शोध करवाती रही है तो यह समझा जा सकता है कि देश का इतिहास कैसा होगा. कई मौकों पर डॉ. अम्बेडकर को लेकर सरकार का दोहरा रवैया सामने आता रहा है. डॉ. भीमराव अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिल्ली में हुआ था. दिल्ली तब भी देश की राजधानी थी और आज भी है. इसके बाद भी अम्बेडकर के परिनिर्वाण पर उन्हें दिल्ली में नहीं दिल्ली से दूर मुम्बई में अंतिम संस्कार के लिए भेजा गया. नेहरू से बड़ा चेहरा उस समय कोई नहीं था. नेहरू ही प्रधानमंत्री थे. कहा जाता है कि जो कुछ हुआ वो नेहरू के निर्देशों पर ही हुआ. कहा जाता है कि डॉ. अम्बेडकर के परिनिर्वाण के बाद नेहरू तब तक 26 अलीपुर रोड पर मौजूद रहें; जब तक उनके शव को विशेष विमान से मुंबई नहीं भेज दिया गया. ये वो दौर था जब नेहरू की इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं डोलता था. लेकिन किसी भी साहित्यकार, पत्रकार या कहानीकार ने इस मुद्दे पर रोशनी डालने की जहमत नहीं उठाई कि देश के संविधान को लिखने वाले और एक बड़े तबके के रहनुमा के साथ परिनिर्वाण के बाद हुए नाइंसाफी पर चार लाइनें हक़ीक़त की भी लिख दी जाए. सरकार के पास तो कोई आंकड़ा है ही नहीं. ऐसा माना जाता है कि गांधी और कथित तौर पर गांधी परिवार यानी नेहरू परिवार के लोगों की समाधि दिल्ली में होने की वजह से प्रधानमंत्री और कांग्रेस के ही बड़े नेताओं ने अम्बेडकर के परिनिर्वाण के बाद उनके शव को अंतिम संस्कार के लिए दिल्ली की बजाय मुम्बई रवाना कर दिया गया. बाबासाहेब को लेकर उनके अनुयायियों में जो पागलपन है, अम्बेडकरवादियो का कारवां जिस गति से बढ़ रहा है, उसको सामने रख कर फर्ज करिए कि डॉ. अम्बेडकर का अंतिम संस्कार दिल्ली में हुआ होता तो देश की राजधानी में 6 दिसंबर का नजारा कैसा होता? आज के वक्त में नागपुर की दीक्षा भूमि और मुंबई में बाबासाहेब के अंतिम संस्कार की जगह उठा ‘जय भीम’ का घोष दबकर रह जाता है. लेकिन जय भीम करते देश भर के लोग जब राजनीतिक सत्ता के केंद्र राजधानी दिल्ली में इसकी हुंकार भरते तो सत्ता के शिखर के डगमगाने का खतरा था. कांग्रेस के रणनीतिकारों को इसका अंदेशा पहले से ही था. कांग्रेस को उस समय डर था कि दिल्ली में संविधान निर्माता की समाधि बनने से गांधी और नेहरू परिवार के स्मारकों की रौनक और चमक फीकी पड़ जाएगी. अम्बेडकर दिल्ली में मौजूद रहकर देश की सत्ता को हमेशा चुनौती देते रहेंगे. बहुजन समाज अपने इस पुरोधा को पूजेगा, न किसी अन्य नायक को. अम्बेडकर के व्यक्तित्व और उनके योगदान को लेकर डरी कांग्रेस सरकार (केंद्र सरकार) को यह फैसला करना पड़ा कि डॉ. अम्बेडकर को राजधानी से दूर रखा जाए. ये कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि जिस डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने लोगों के अधिकार और कर्तव्य को सरकारी दस्तावेजों में दर्ज किया उसी अम्बेडकर के अधिकार के लिए समाज के लोगों ने हाथ खड़े कर दिए. डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु को लेकर एक कयास यह भी लगाया जाता रहा है कि उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी, बल्कि उनकी हत्या की साजिश रची गई थी. साल 2012 में इसी संदर्भ में एक आरटीआई डाली गई थी. इसमें डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु का कारण पूछा गया था. लेकिन इस सवाल पर सरकार द्वारा दिया गया जवाब आश्चर्य में डालने वाला था. इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा दिए गए जवाब में कहा गया कि सरकार के पास संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की मौत से जुड़ी कोई जानकारी नहीं है. आरटीआई एक्ट के तहत दायर आवेदन के जवाब में केंद्र के दो मंत्रालयों और अम्बेडकर प्रतिष्ठान ने अपने पास डॉ. अम्बेडकर की मौत से जुड़ी कोई भी जानकारी होने से इनकार किया. एक मंत्रालय के जन सूचना अधिकारी ने यह भी कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि मांगी गई सूचना किस विभाग से संबद्ध है. आरटीआई कार्यकर्ता आरएच बंसल ने राष्ट्रपति सचिवालय में आवेदन कर पूछा था कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मौत कैसे और किस स्थान पर हुई थी? उन्होंने यह भी पूछा था कि क्या मृत्यु उपरांत उनका पोस्टमॉर्टम कराया गया था? पोस्टमॉर्टम कराए जाने की स्थिति में उन्होंने रिपोर्ट की एक प्रति मांगी थी. आवेदन में यह भी पूछा गया था कि संविधान निर्माता की मृत्यु प्राकृतिक थी या फिर हत्या? उनकी मौत किस तारीख को हुई थी? क्या किसी आयोग या समिति ने उनकी मौत की जांच की थी? राष्ट्रपति सचिवालय ने यह आवेदन गृह मंत्रालय के पास भेज दिया जिस पर गृह मंत्रालय द्वारा आवेदक को दी गई सूचना में कहा गया कि डॉ. अम्बेडकर की मृत्यु और संबंधित पहलुओं के बारे में मांगी गई जानकारियां मंत्रालय के किसी भी विभाग, प्रभाग और इकाई में उपलब्ध नहीं हैं. यहां तक की सरकार को यह भी पता नहीं है कि डॉ. अम्बेडकर की मौत कैसे हुई और किस बीमारी की वजह से हुई? क्या उनकी हत्या की साजिश की गई, इसके बारे में भी सरकार कोई ठोस जवाब नहीं दे सकी है. महिला लेखिकाओं में अग्रणी, मराठी और हिन्दी दलित साहित्य की वरिष्ठ साहित्यकार एवं अनुपम कृति ‘जीवन हमारा’ की लेखिका दिवंगत बेबी ताई कांबले ने एक जगह लिखा था कि जब वो बच्ची थी तब डॉ. अम्बेडकर उनके गांव फलटण आए थे. तब उन्होंने उनके भाषणों को सुना था. अपने आखिरी वक्त तक उनको बाबासाहेब द्वारा बोले गए एक-एक शब्द याद रहे. बेबी ताई कांबले ने लिखा था, ‘मैंने उनके भाषण को सुना था, वो कह रहे थे “शिक्षित बनो!! अगर तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो तुम खाना कम खाओ पर पढ़ाई को किसी भी कीमत पर मत छोडो. जब तक तुम शिक्षित नहीं होते तुम प्रगति नहीं कर सकते. हिन्दू धर्म ने दलितों को अज्ञानता के अंधेरे में धकेल रखा है जहां चार वर्णों का भेद है, लेकिन शिक्षा के माध्यम से तुम उन्नति कर सकते हो.’ इसी भाषण ने बेबी ताई कांबले का जीवन बदल दिया था और तमाम कष्टों को झेलते हुए भी उन्होंने डॉ. अम्बेडकर द्वारा कही बातों का अनुसरण करते हुए अपने जीवन में एक मकाम हासिल किया. शुरुआती अनदेखी के बाद डॉ. अम्बेडकर के बढ़ते प्रभाव के बीच बाद के वक्त में द्विज साहित्यकार डॉ. अम्बेडकर को नजरअंदाज नहीं कर सकें. हिन्दी के जाने माने लेखक और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा हैं कि अम्बेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा, बल्कि शूद्र के आधार पर देखा. शूद्र के नज़रिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा. इसी अर्थ में डॉ. अम्बेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है. अम्बेडकर के नजरिए की पहली विशेषता है कि वे वर्णव्यवस्था को नस्लभेद के पैमाने से नहीं देखते. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि अम्बेडकर की चिंतन-प्रक्रिया स्थिर या जड़ नहीं थी, वे लगातार अपने विचारों का विकास करते रहे. विचारों की विकासशील प्रक्रिया के दौरान ही हमें उस विकासशील सत्य के भी दर्शन होंगे जो वे बताना चाहते थे. डॉ. अम्बेडकर के विचारों को निरंतरता या गतिशीलता के आधार पर पढ़ना चाहिए. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने जिस 26 अलीपुर रोड पर स्थित अपने आवास पर आखिरी सांस ली, उसकी याद को भी सरकारें मिटाने पर तुली है. तमाम वादों और दावों के बावजूद इसे विकसित नहीं किया गया है. यहां तक की वहां से गुजरने वाले तमाम लोगों तक को नहीं पता कि वह भारत देश के जिस लोकतंत्र पर गुमान करते हैं, उसे अमलीजामा पहनाने वाले शख्स ने इसी घर में दम तोड़ा था. भाजपा की केंद्र सरकार ने तो पिछले दिनों उस पूरी इमारत को ही यह कहते हुए मिट्टी में मिला दिया कि इस पर एक भव्य इमारत बनाई जाएगी और बाबासाहेब की यादों को संजोया जाएगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या उस बनावटी इमारत में लोगों को बाबासाहेब के कदमों की अनुभूति मिल पाएगी? शायद नहीं, हालांकि इसमें भी एक साजिश देखी जा रही है और जब तक यह इमारत बन नहीं जाती संघ समर्थित सरकार की मंशा पर सबको संदेह रहेगा. ऐसा नहीं है कि बाबासाहेब के नाम और पार्टी के झंडे को लेकर राजनीति कर रहे नेताओं को इसकी जानकारी नहीं है. बावजूद इसके अब तक वो बाबासाहेब के ‘मान’ को बढ़ाने के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं. हर कोई बाबासाहेब को उनके परिनिर्वाण दिवस 6 दिसंबर और जयंती 14 अप्रैल पर याद करता है और अपनी जिम्मेदारी निभा लेता है, लेकिन अब वक्त बाबासाहेब के सम्मान के लिए लड़ने का है. ​ – ​लेखक​ वरिष्ठ पत्रकार हैं.

नोटबंदीः बिना एनेस्थीसिया ही कर दिया ऑपरेशन

हम सब जानते है कि 6 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल जारी रहा था. वह आपातकाल तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर उस समय के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा की थी. वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल कहा जाता है. आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई. इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंध  लगा दिया गया. प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया. विपक्षी नेताओं और तथाकथित भ्रष्ट अधिकारियों को जेल में डाल दिया गया. उस समय के विपक्षी राजनीतिक दलों के अग्रणीय जयप्रकाश नारायण ने इसे ”भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि” कहा था. उस समय आकाशवाणी से प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था कि जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी. आपातकाल के इस दौर में देखा ये गया था कि कांग्रेस के अलावा सारे के सारे राजनीतिक दल ही नहीं, कांग्रेस के अन्दर के राजनेता भी इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए ( कुछ पहले से भी थे) किंतु आम जनता की जीवनचर्या पर उस आपातकाल का कोई दुस्प्रभाव नहीं पड़ा था. हां, प्रशासन में जो कामचोर और भ्रष्ट अधिकारी थे, वो उस आपातकाल के खिलाफ जरूर हो गए थे. मेहनतकशों और ईमानदार जनता को उस आपातकाल से ज्यादातर कोई आपत्ति नहीं थी. क्योंकि उस आपातकाल में जनता की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के तमाम सरकारी/गैरसरकारी रास्ते खुले हुए थे. इस सत्य का यहां उल्लेख करना इसलिए जरूरी जान पड़ा क्योंकि भाजपा बार-बार उस आपातकाल का मसला उठाकर जनता के हितों साधने की आड़ में राजनीतिक षड़यंत्र गढ़ने में अग्रणीय रही है… आज भी है. इंदिरा गांधी के द्वारा आपातकाल का याद आना बेशक स्वभाविक है. क्योंकि  9 नवम्बर 2016 वह दिन था जिस दिन मोदी सरकार के आदेश पर एनडीटीवी इण्डिया चैनल को एक दिन के लिए बंद किया जाना था ताकि मीडिया को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा‘ और ‘जिम्मेदार पत्रकारिता‘ का पाठ पढ़ाया जा सके. लेकिन इस अघोषित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने जैसा ही निर्णय थी. यह निर्णय मीडिया पर आपातकाल जैसा ही सीधा प्रहार था. इस पर भाजपा सरकार को समूचे देश के विरोध का सामना करना पड़ा और इस विरोध के चलते सरकार को एनडीटीवी इण्डिया चैनल को एक दिन के लिए बंद किए जाने के निर्णय से पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा. इसके पहले कि जनता इस प्रकरण के बाद राहत की सांसें ले पाती, मोदी जी द्वारा इंदिरा गांधी की तर्ज पर गरीबी मिटाने, आर्थिक भ्रष्टचार मिटाने, काले धन पर अंकुश लगाने के बहाने 8 नवम्बर की मध्य रात्रि से 500 और 1000 के नोट गैरकानूनी घोषित कर दिये गये. एक ही झटके में सरकार ने 14 लाख करोड़ रुपये यानि प्रचलन में मौजूद कुल भारतीय मुद्रा के 86 प्रतिशत को रद्दी कागज में बदल दिया. क्या इसे अघोषित ‘आर्थिक आपातकाल”  की संज्ञा से नहीं नवाजा जाना चाहिए? इस घोषणा के बाद, देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्पष्ट किया है कि नए नोट छापने की प्रक्रिया बीते छह माह से चल रही थी. मैसूर के टकसाल में नये नोट छप रहे थे और इस ऐलान से पहले ही नई करेंसी बैंकों में पहुंचा दी गई थी. यहां यह सवाल उठता कि यदि जेटली के इस बयान को सही मान लिया जाए तो वित्त मंत्री/ भारत सरकार यह स्पष्ट करे कि नए नोटों पर रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर अर्जित पटेल के हस्ताक्षर कैसे और क्यों प्रिंटिड हैं जबकि उन्होंने तो सितंबर 2016 के प्रथम सप्ताह में रिजर्व बैंक के गवर्नर का कार्यभार संभाला था. इस नोटबंदी का फरमान जारी करते समय कहा गया कि इस नोटबन्दी से कालाधन ही नष्ट होगा. किंतु जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, उससे ऐसा लगने लगा है कि मोदी सरकार ने यह फैसले काला धन बाहर आ पाएगा कि नहीं यह तो अभी कहा नहीं जा सकता किंतु इस आदेश से देश के किसानों, मजदूरों और आम गृहिणियों की जो दुर्दशा हो रही है, वैसी आर्थिक मामलों को लेकर शायद ही आजाद भारत में कभी हुई हो. किसान ने हाल ही में धान की फसल बेची है. उसका भुगतान नकदी में ही होता है, ताकि घर का अन्य खर्च चलाया जा सके. यही हाल आम गृहिणी का होगा, जिसे उसके पति ने 500 या 1000 रुपए के नोटों के तौर पर घर खर्च दिया है. एकदम बैंक भी बंद और एटीएम भी. गृहिणियों को घर भी चलाना है, घर में राशन लाना है, तो वह ऐसी स्थिति में क्या करे? मजदूर की दिहाड़ी का भुगतान भी ठेकेदार ने पुरानी मुद्रा में किया है. वह नोट बदलवाने बैंक जाएगा या रोटी के लिए दिहाड़ी पर…? इन बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार ने विमर्श किया होगा, ऐसा नहीं लगता… लेकिन जो फैसला सामने आया है, उससे इन वर्गों की चिन्ता ही बढ़ी है. छोटे बाजार, कारोबार. व्यापारी, खुदरा दुकानदार और उनके ग्राहक भी नकदी में लेन-देन करते आए हैं. ऐसे कारोबारी अपनी आमदनी कितनी घोषित करते हैं या कितना कर-चोरी करते हैं, इसकी जांच तो सरकारी एजेंसियों से भी कराई जा सकती थी, किंतु ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने अमीर और गरीब यानी कि दोनों को एक ही तराजू से तोलने का फैसला ले डाला. लगता है इस पर सरकार द्वारा कोई विचार ही नहीं किया गया. दुकानदार न तो क्रेडिट और डेबिट कार्ड स्वीकार करते हैं और न ही चेक, यदि ये मान भी लिया जाए कि दुकानदार क्रेडिट और डेबिट कार्ड आदि स्वीकार करते हैं तो शहरी इलाकों की सारी जनता तक के पास क्रेडिट और डेबिट कार्ड आदि नहीं है, ऐसे में देश की दूरस्त ग्रामीण इलाकों की साधारण जनता, दैनिक मजदूरी करने वाले लोगों और किसानों के बारे में क्रेडिट और डेबिट कार्ड की उपलब्धता के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. ग्राहक के हाथ में नकदी है नहीं… न बैंक नकदी मुहैया कराने की हालत में आ पाए हैं, तब इस ग्रामीण जनता का क्या होगा? खबर है बैंकों की लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े होने वाले लोगों में से कम से कम 60/70 लोगों की मौत हो चुकी है… इसका जिम्मेदार कौन होगा? जिन घरों में लड़के-लड़कियों की शादियां होने वाली थीं/हैं… उनको खून के आंसू बहाने पड़ रहे हैं. आरबीआई ने अपने नोटीफिकेसन में शादी वाले घरों द्वारा अपना पैसा ही निकालने के लिए इतनी अव्यावहारिक शर्तें लगा दी है कि जो 7 फेरों से भी ज्यादा हैं. यदि यहां सरकार से ये पूछ लिया जाय कि क्या राजनीतिक दलों द्वार चुनाव-खर्च का भुगतान चैक के द्वारा ही किया जाता है, को क्या यह जायज न होगा? मोदी जी की नोटबन्दी की घोषणा के पीछे की सच्चाई स्पष्ट है कि उन्होंने अपने इस मास्टर स्ट्रॉक से देश में बढ़ रही मंहगाई, सामाजिक और धार्मिक अराजकता, विदेशों से कालाधन न ला पाना और ऐसे ही अन्य वायदे जिनको मोदी सरकार पूरा करने में असमर्थ ही रही है, उन मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिया गया एक अमानवीय निर्णय है. यानी अब, मोदी राज के दो साल बीतने के बाद विदेशी बैंकों में जमा धन की चर्चा को घरेलू जमाखोरी की ओर मोड़ दिया गया है. कहने की जरूरत नहीं कि नोटबंदी के निर्णय लेने से पूर्व कोई गृहकार्य किया ही नहीं गया. नोट बन्द ही करने थे… तो ठीक किंतु उनके साइज में परिवर्तन के पीछे कौन सी तुगलकी सोच रही होगी कि देश में लगे तमाम एटीएम बेकार हो गए. क्या इसे एटीएम घोटाले के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए?… अब देश में लगे तमाम एटीएम नए सिरे से मरम्मत की जद में आ गए हैं. इनकी मरम्मत में कितने धन का अपव्यय होगा, क्या वह किसी पूर्वनियोजित घोटाले का हिस्सा नहीं? कमाल तो ये है कि अब सरकार देश की आम जनता और राजनीतिक विरोधियों के सवालों के उत्तर न देकर, प्रश्नों के उत्तर नए-नए सवाल ही उछाल रही है… उत्तर नहीं दे पा रही है. समझ से परे है कि यदि देश का प्रधानमंत्री ही राज्यसभा या लोकसभा की बैठकों में भाग लेने से बचेगा तो बाकी को क्या कहें? ज्ञात हो कि प्रधानमंत्री नोटबंदी के अपने फैसले पर अडिग हैं. फिर जनता की राय जानने का क्या औचित्य है? मोदी जी ने 22 नवंबर को केवल अपनी ही पार्टी के सांसदों को इस मामले के मद्देनजर सक्रिय होने को कहा. क्या यह लोकतंत्र की अवमानना नहीं? क्यूं न सर्वदलीय बैठक बुलाई जानी चाहिए थी? मोदी जी को याद रखना चाहिए था कि नोटबन्दी का मामला किसी एक विशेष राजनीतिक दल का कार्यक्रम या चुनावी घोषणा नहीं है. नोटबन्दी की घोषणा के बाद सरकार दिल्ली में बैठकर दिन प्रति दिन कुछ न कुछ नई सुविधाओं और आयकर के तहत डराने वाली अनेक घोषणाएं तो कर रही है किन्तु जमीन पर सुविधाओं के जमीनी असार होता दिखाई नहीं दे रहा. हां! आयकर विभाग द्वारा की जाने वाली प्रस्तावित जांचों से जरूर घबरा रही है. मोदी जी के इस निर्णय पर जब विपक्ष ने हल्ला बोला तो सरकार द्वारा उनकी आवाज को दबाने के प्रयास में जुट गए. अब यह भी संभव है कि भाजपा के समर्थक नोटबंदी के समर्थन में ट्वीटर पर मोदी की प्रशंसा के लम्बे-लम्बे कसीदे गढ़ दे… लेकिन मोदी को सोचना चाहिए कि इस प्रकार की जादूगरी से क्या होने वाला है. मुझे तो आभास होता है कि इंदिरा गांधी के आपातकालीन समय में हुई जबरन “नसबन्दी” ने उनका तख्ता हिला दिया था.  कहीं मोदी का अचानक “नोटबन्दी” का निर्णय उनके लिए भी भारी न पड़ जाय. ऐसा इसलिए कि भाजपा के भ्रामक दावों की असलियत पूरी तरह खुलती जा रही है. दूसरे, आम लोगों पर थोपी गई आर्थिक अराजकता और मुश्किलों में डालने वाली असंवेदनशीलनता सरकार के खिलाफ जनता को गोलबन्द  करने का काम करेगी. लेखक तेजपाल सिंह तेज को हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार और साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इनका संपर्क सूत्र tejpaltej@gmail.com है.

प्रबुद्ध भारत बनाने के लिए करना होगा जाति का नाश

क्या आप जानते है? इक्कीसवीं सदी आपके लिए दासता की बेड़ियां निर्मित कर रही हैं.  क्योंकि… राजतन्त्रः किसी भी समाज को गुलाम अर्थात दास बनाता है. और पूंजीवाद राजतन्त्र का पोषाक होता है. गणतन्त्रः समाज को स्वतन्त्र रखता है और पूंजीवाद गणतन्त्र का शोषक होता है. बीसवीं सदी के मध्य में ही बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बहुजन समाज को, हजारों साल से चली आ रही मानवता विनाशक नीति ‘‘राजतन्त्र’’ के दल-दल से दलितों को निकाल कर, तथागतबुद्ध की सरण में ले जाकर ‘‘जियो और जीने दो’’ की नीति के तहत स्वतन्त्रत जीने का अवसर दिया. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने दलितों और वंचितों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. बाबासाहेब ने विदेशों में शिक्षा ग्रहण करके बड़ी लगन मेहनत से दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान देकर भारत को गौरवान्वित किया. भारत का संविधान बनना 10,000 साल की सभ्यता में सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना है. बाबासाहेब ने देश दुनिया के साथ-साथ अपना सारा जीवन उन लोगों को उठाने के लिए लगाया जो इस देश में गरीब, मजबूर, सर्वहारा, शोषित, गुलाम तथा दलित थे. जिनका समाज में मान-सम्मान नहीं होता था. जिन्होंने अपने ही देश में अपना अस्तित्व खो दिया, अपनी पहचान खो दी और अपने ही देश में गुलाम हो गए. लेकिन बहुजन समाज के दिखावटी बौद्ध, बौद्धाचार्य, नेता, अधिकारी, कर्मचारी तथा समाजिक संस्थायें गणतन्त्र (बुद्ध-अम्बेडकर) की चादर ओड़कर पूंजीवादियों की चमचागिरी करने में लगे हुए है. क्योंकि राजतन्त्र अर्थात ‘‘ब्राह्मणवाद’’ और गणतन्त्र अर्थात बुद्ध-अम्बेडकरवाद के माध्यम से यही नेता-धर्म-गुरू अर्थात अधिकारीगण तथा यह समाजसुधार के ठेकेदार व सामाजिक संस्थाएं, मंचों पर ब्रह्मणवाद का विरोध और बुद्ध-अम्बेडकर वाद के प्रशंसक बन कर हमको धोखा दे रहे हैं. परन्तु स्वयं ब्राह्मणवाद व्यवस्था को छोड़ते नहीं है. राजतन्त्र के चार मूल स्तम्भ-साम, दाम, दण्ड, भेद किसी को भी समझाकर, लालच देकर, दण्डित कर, विभाजित कर कायिक-वाचिक-मानसिक स्तर पर भ्रमित करना. उर्पयुक्त चारों नीतियों से सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, न्यायिक स्तर पर गुलामी का जीवन जीने को मजबूर कर देना. गणतन्त्र के चार मूल स्तम्भ- समता- किसी (जाति-वर्ग-स्त्री-पुरूष-रंग-भेद) से भी कायिक वाचिक मानसिक स्तर पर समानता का व्यवहार करना. स्वतन्त्रता- किसी को भी कायिक-वाचिक-मानसिक तौर पर आजादी से जीवन यापन करने देना. किसी प्रकार बंधन, भेदभाव, अन्याय, अत्याचार से मुक्त होकर जीने देना. बन्धुता- किसी को भी कायिक-वाचिक-मानसिक स्तर पर भाई-चारे का व्यवहार करना, क्योंकि देश के अन्दर हर धर्म, हर जाति के अन्दर भाई चारा ही समता मूलक आदर्श समाज बनाएगा. और देश समृद्धिशाली एवं प्रबुद्ध भारत बनेगा. न्याय- भारत के दार्शनिक एवं विचारक बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि दुनियां में न्याय कैसा होना चाहिए? जो न्याय अदालत, सुप्रीम व हाईकोर्ट में होता है वो न्याय नहीं है. ऐसी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और राजकीय व्यवस्था का निर्माण करना जहां पर असमानता और भेदभाव न हो, ऐसा न्याय होना चाहिए. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने लोकतान्त्रिक भारत का संविधान बनाया. बाबासाहेब ने 25 नवंबर 1949 को कहा कि जाति देश विरोधी भी है. जब तक भारत में जाति रहेगी तब तक भारत एक राष्ट्र नहीं बन सकता है जबकि लोग गांधी को राष्ट्र पिता कहते हैं. इसलिए बाबासाहेब ने संदेश दिया अगर भारत को सही मायने में राष्ट्र बनाना है तो भारत को बन्धुता की जरूरत है. बाबासाहेब ने प्रखरता से बोला कि हमारा संविधान समता, स्वतन्त्रता, बन्धुता, न्याय की बात करता है लेकिन हमारा समाज इन सिद्धांतों को नकारता है. उन्होंने कहा कि हमारा संविधान इस देश के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता की बात करता है लेकिन वास्तविकता में भारतीय समाज उसका पालन नहीं कर रहा है. हमारी सामाजिक व्यवस्था इन सिद्धान्तों को नकारती है क्यों? जाति के वजह से. भारत को मजबूत राष्ट्र और प्रबुद्ध भारत बनाना है तो भारत में जाति बीज का समूल नाश करने के लिए बुद्ध धम्म दीक्षा लेकर अपने पूर्वजों के धम्म में वापस आना पड़ेगा. तभी जाति, धर्म और मानसिक गुलामी से मुक्त होकर दलित भारत में मान-सम्मान, सुख-शांति का जीवनयापन कर सकेंगे और बाबासाहेब के बौद्धमय भारत बनाने का सपना साकार होगा. बुद्ध दुनिया के पहले महामानव दार्शनिक एवं धम्म आविष्कारक हैं, जिन्होंने महिलाओं को पुरूषों के बराबर दर्जा दिया. ऐसी मानवतावादी, वैज्ञानिक, शील, समाधि, प्रज्ञा, मैत्री, शान्ति का बुद्ध धम्म दुनिया के लगभग 130 देशों मे फैल चुका है. जबकि भारत तथागत बुद्ध-डॉ.अम्बेडकर की जन्मभूमि होने के बावजूद भी और बुद्ध-अम्बेडकर वाद से कोसों दूर है. लेखक रिटायर्ड अधिशासी अभियन्ता हैं.

बहुजन नायकों को पढ़ने से मिलेगी लड़ने की शक्ति

क्या आपने महात्मा ज्योतिबा फुले को पढ़ा है? तथागत ने दुनिया को जो संदेश दिया, क्या आप उसके बारे में जानते हैं? बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने जो लिखा क्या आप उससे वाकिफ हैं? मान्यवर कांशीराम सहित तमाम बहुजन नायकों ने बहुजन समाज को जो समझाने की कोशिश की क्या आप उसे समझ पाए हैं? अगर नहीं तो इनलोगों को पढ़ना और समझना शुरू करिए, क्योंकि अगर आप सच में अन्याय, अत्याचार और भेदभाव का प्रतिकार करना चाहते हैं तो इनको पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है. आज अचानक से बहुजन नायकों को पढ़ने-समझने की बात करने की भी एक वजह है. वजह बिहार के मुज्जफरपुर जिले के केंद्रीय विद्यालय का वह बच्चा है, जिसको पीटे जाने का विडियो पिछले दिनों वायरल हुआ था. फिर उस छात्र ने यह बताया कि एक कुख्यात बाप की बिगड़ी संतानें उस बच्चे को इसलिए मार रहे थे क्योंकि वह दलित था और पढ़ने में अव्वल था. उस बच्चे का विडियो गुजरात के उना पीड़ितों से किसी भी मायने में कम विभत्स नहीं था. उस बच्चे को जिस बेरहमी से मारा जा रहा था वह कई सवाल खड़ा करता है. मार खाने वाला और मारने वाला दोनों हमउम्र थे. फिर हमारे समाज का बच्चा उसका प्रतिकार क्यों नहीं कर पा रहा था. आखिरकार हमारे बच्चे इतने कमजोर क्यों नजर आते हैं? मेरा मानना है कि सबकुछ आत्मविश्वास की बात है. हमें लगता है कि वो हमें मार सकते हैं और हमारी नियति में बस मार खाना है. आए दिन दलितों पर होने वाले उत्पीड़न इसी बात को बयां करते हैं. और हर बार दलित समाज हाथ जोड़े, हाथ बांधे न्याय की गुहार लगाता दिखता है. आखिर हमारा समाज पलट कर जवाब देना कब सिखेगा?  हम बस मंचों से गरजते रहते हैं कि हम 85 फीसदी हैं और वो 15 फीसदी हैं. फिर 85 फीसदी वाले आखिर पंद्रह फीसदी वालों के शोषण के शिकार क्यों हो रहे हैं?  राजनैतिक तौर पर तो यह नारा ठीक लगता है लेकिन जमीन पर यह सच्चाई से कोसो दूर दिखने लगा है. वर्तमान समय में एक बात यह भी समझने की है कि क्या हम सचमुच 85 फीसदी हैं? क्योंकि सरकारी आंकड़ों में 22 फीसदी (दलित-आदिवासी) समुदाय के साथ ज्यादातर अत्याचार इसी 85 फीसदी के भीतर के लोग भी कर रहे हैं. अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अब इस बात को स्वीकार करने का समय आ गया है कि 85 फीसदी के भीतर की कई कथित दबंग जातियां दलितों और आदिवासियों से कोई सहानुभूति नहीं रखती, बल्कि वो 15 फीसदी के साथ मिलकर दलितों की शोषक बनने की राह पर है. पिछले दिनों ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जब ये जातियां ब्राह्मणों से ज्यादा ब्राह्मणवादी और ठाकुरों से ज्यादा शोषणकारी साबित हुई हैं. इनका जातीय अहम दलितों और आदिवासियों को देखकर फुंफकार मारता रहता है. हम बहुजन की बात करते रहते हैं लेकिन सामने वाला न खुद को बहुजन समझता है और न ही बहुजन महापुरुषों से कोई नाता रखना चाहता है. वह तो खुद को उस ‘श्रेष्ठ’ श्रेणी का मानने लगा है जिन्होंने गणेश की सर्जरी की थी और जो मां की पेट के बजाए किसी पुरुष के मुंह और भुजाओं से पैदा हुए थे. हालांकि उस व्यवस्था में भी उन्हें पैरों में ही जगह मिली है लेकिन वो शायद पैरों में ही खुश हैं. सोचने का विषय यह है कि आखिर दलितों का अत्याचार कब थमेगा? अन्य जातियां दलितों पर हावी क्यों हो जाती हैं और इससे निपटा कैसे जा सकता है? तो इन ज्यादतियों से निपटने का हथियार सिर्फ और सिर्फ बहुजन नायकों को जानने और समझने में छुपा है. क्योंकि मेरा साफ मानना है कि बाबासाहेब को पढ़ने, ज्योतिबा फुले को जानने और मान्यवर कांशीराम सहित तमाम बहुजन नायकों को समझने के बाद आप इस अन्याय से लड़ने के लिए खड़े हो जाते हैं. आपमें अत्याचार का प्रतिकार करने की ताकत आ जाती है. आपको धम्म की राह के बारे में पता चलता है. बहुजन नायकों के बारे में जानना आपके अंदर आत्मविश्वास जगाता है और यही आत्मविश्वास आपको जीवन में आगे ले जाता है. आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही बहुजन नायकों के बारे में बताएं और जब वो सातवीं-आठवीं में चले जाएं तो उन्हें बहुजन नायकों के जीवन के बारे में पढ़ने की प्रेरणा दें. दलित समाज के लोग अगर गुलामी की बेड़ियों को तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं तो उनके लिए डॉ. अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले और कबीर की विचारधारा को अपनाना होगा. उन्हें धम्म की राह पर चलना होगा.