पिछले कई महीनों से किसी न किसी बहाने ट्रिपल तलाक का मुद्दा सुर्खियों में है. कभी इस मुद्दे को किसी मंत्री के द्वारा उठाया जाता तो कभी किसी कट्टरवादी संगठन के नेता द्वारा. हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाकायदा यह टिप्पणी की है कि ट्रिपल तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए क्रूरता है और असंवैधानिक है.
क्या है ट्रिपल तलाक?
मुस्लिम परिवार विधि में ये कानून है कि पति, पत्नी की रजामंदी के बिना कभी भी, तीन बार तलाक बोल कर अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है.
आईये जाने की इलाहाबाद कोर्ट ने क्या कहा?
हाईकोर्ट ने कहा कि तीन तलाक क्रूरता है. यह मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन है.
– कोई भी पर्सनल लॉ बोर्ड संविधान से ऊपर नहीं हो सकता. यहां तक कि कोर्ट भी संविधान से ऊपर नहीं हो सकता. कुरान में तीन तलाक को अच्छा नहीं माना गया है. उसमें कहा गया है कि जब सुलह के सभी रास्ते बंद हो जाएं, तभी तलाक दिया जा सकता है. ऐसे में, तीन तलाक को सही नहीं माना जा सकता. यह महिला के साथ भेदभाव है, जिसे रोकने की गारंटी संविधान में दी गई है. कोर्ट ने कहा, पंथ निरपेक्ष देश में संविधान के तहत सामाजिक बदलाव लाए जाते हैं. मुस्लिम औरतों को पुराने रीति-रिवाज़ों और सामाजिक निजी कानून के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
क्या था मामला
– इलाहाबाद हाईकोर्ट में तलाक के दो अलग-मामलों में याचिका लगाई गई थी. पहला केस बुलंदशहर का था. इसमें एक 53 साल के शख्स ने अपनी बीवी को तलाक देकर 23 साल की युवती से शादी कर ली थी. पहली बीवी से दो बच्चे थे. नवविवाहित जोड़े ने कोर्ट में याचिका लगाकर प्रोटेक्शन मांगा था. कोर्ट ने उनकी पिटीशन यह कहते हुए खारिज कर दी कि 23 साल की युवती से शादी करने के लिए 2 बच्चों की मां को तलाक देना सही नहीं माना जा सकता है.
– दूसरे मामले में उमर बी नाम की एक महिला ने अपने प्रेमी से शादी कर ली थी. उमर का दावा था कि दुबई में रहने वाले उसके पति ने फोन पर उसे तलाक दे दिया. हालांकि, कोर्ट में उमर के पहले पति ने तलाक देने की बाद से इनकार किया. उसका कहना था कि उमर ने अपने प्रेमी से निकाह करने के लिए यह झूठ बोला है.
संविधान का नजरिया
यह बात तो तय है की संविधान किसी धर्म या परंपरा की आड़ में भेदभाव या शोषण की इजाजत नही देता. इससे पहले भी कई ऐसे रीति-रिवाज में रोक लगाई गई जो गैरकानूनी थे जैसे सति प्रथा, कन्या वध प्रथा आदि.
पुरूषवादी दुनिया में ट्रिपल तलाक का असल या कहे छिपा मकसद है नई, जवान, मनपसंद औरत से जिस्मानी ताल्लुकात बनाने की समाजिक अजादी पाना. यह परेशानी किसी एक मजहब की नही है लगभग हर मजहब इस परेशानी से बावास्ता है. हिन्दुओ में शादी जन्म जन्मांतर का रिश्ता है इसलिए कई पत्नियां रखने का रिवाज है. पुराणों में बहु विवाह के हजारों प्रमाण मौजूद है.
आज के दौर में भी कई ऐसे मंत्री नेता अभिनेता उद्योगपति है जो एक अधिक महिलाओं से संबंध बनाये हुये है. तो आम लोगों की बात करना बेईमानी होगी. सब कुछ होते हुये ये पुरूषवादी समाज एक औरत को कोई छूट और सुविधा देने के लिए तैयार नहीं है. एक पति के होते हुये कई पति रखने की परंपरा पर, मर्दवादी समाज कभी सोच भी नहीं सकता.
भारत में हिन्दू कोड बिल पास होने के बाद बहु विवाह प्रथा में कमी आई. इसमें पत्नी को सम्पत्ति में अधिकार मिला. बराबरी का हक मिला. दूसरी ओर आईपीसी की धारा 125 के तहत भरण पोषण का अधिकार मिला. जिसका कड़ाई से पालन किये जाने की वजह से पुरूष पर तलाक देने से पहले हजार बार सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है. लेकिन मुस्लिम पारिवारिक कानून में भरण पोषण की सुविधा नहीं है. इस पर मशहूर शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया.
क्या है शाह बानो केस ?
इंदौर की रहने वाली मुस्लिम महिला शाहबानो ने 1932 में मोहम्मद खान से शादी की. लेकिन 14 साल बाद मोहम्मद खान ने दूसरी शादी की और 43 साल बाद उसने शाह बानो को तलाक दे दिया था. पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और पति के खिलाफ गुजारे भत्ते का केस जीत भी लिया.
सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बाद भी शाहबानो को पति से हर्जाना नहीं मिल सका. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया. इस विरोध के बाद 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया. इस अधिनियम के तहत शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया था.
इसके बाद से ट्रिपल तलाक का सिलसिला और तेज हो गया. कई बार एसएमएस, ईमेल, फोन और चिट्ठी पर भी बीबीयों को तलाक देने के मामले सामने आये. कई महिलायें सड़क पर आ गई. क्योंकि ट्रिपल तलाक देने के बाद पति पर पत्नी का कोई दायित्व नहीं रह जाता. इसके विरोध में कई संगठनो ने मोर्चा खोला. ये सारे लोग और संगठन ट्रिपल तलाक का विरोध तो कर रहे है. लेकिन धारा 125 भरण पोषण मुस्लिम पत्नी को संपत्ति के अधिकार को फिर से लागू करवाने की बात कोई नहीं कर रहा है.
हिन्दू कट्टरवादी संगठनो द्वारा इस मुद्दे को बार-बार उठाया जाता है. इसका ये कारण नहीं है की वे मुस्लिम जमात या उनकी महिलाओं की पैरोकार है. इनके द्वारा तीन मुद्दे उठाये जाते है
1. मुस्लिम धर्म में ट्रिपल तलाक बंद हो
2. मुस्लिम धर्म में कई बीबियां रखने की प्रथा है बंद हो
3 .यूनिफाईड सिविल कोड की स्थापना हो
दरअसल इस मुद्दे को जोरो से उठाने का असल मकसद यह है की वे हिन्दू धर्म में प्रदत्त महिलाओं के संवैधानिक अधिकार को खत्म करना चाहते है. उनका असली निशाना हिन्दू कोड बिल है. क्योकि वे उक्त तीनों मुद्दो को उठाकर एक विवाद का माहोल बनाना चाहते हैं. ये विवाद इतना बढ़ेगा की अंत में नौबत यहां तक आयेगी की या तो यूनिफाईड सिविल कोड की स्थापना की जाय या फिर हिन्दू कोड बिल को खत्म किया जाय.
जाने हिन्दू कोड बिल में क्या है?
हिन्दू विधि में महिलाओं के क्या अधिकार हैं उसे इन बिन्दुओं में समझा जा सकता है-
1. संपत्ति का अधिकार- हिन्दू कोड बिल में हिन्दू मां, बहन, पत्नी एवं दादी को अचल संपत्ति में पुरूष रिश्तेदारों के बराबर अधिकार है.
2. पत्नी को भरण पोषण- हिन्दू पत्नी को तलाक या परित्यक्ता होने पर पति की अचल संपत्ति एवं आजीवन मासिक भरण पोषण का अधिकार है, उनके बच्चों को भी यह अधिकार है.
3. बहुविवाह पर रोक- हिन्दू विधि में एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना या रखैल रखना एक दंडनीय अपराध है.
आज सामंतवादी ताकातें महिलाओं के इन अधिकारो से परेशान हैं. वे अपनी महिलाओं को पैर की जूती समझते है, उन्हे कोई अधिकार नहीं देना चाहते है. इसलिए आज उनकी जागरूक महिलाऐं अपने इन अधिकारो के तहत उन्हें कोर्ट में घसीट रही है. बहने जमीन में हिस्सा मांग रही है, दहेज प्रताड़ना से त्रस्त पत्नी भरण पोषण और संपत्ति में अधिकार मांग रही है. पालन पोषण नहीं हाने पर मां भरण पोषण का अधिकार मांग रही है. एक से ज्यादा पत्नी रखने पर जेल जाना पड रहा है. इससे ये सामंतवादी लोग परेशान है. वे आज भी महिलाओं को ढोर गवांर शूद्र पशु नारी ये है ताड़न के अधिकारी समझते है.
यहां पर सावधानी इस बात की बरतनी है की मुस्लिम महिलओं के हितो की रक्षा हो साथ में हिन्दू महिलाओं को मिले अधिकारों का भी हनन न हो. क्योकि भविष्य में ये हो सकता है कि दोनो ओर के कट्टरपंथी लोग प्रगतिशलता का नकाब पहन कर एक हो जायेगे और भारत की महिलाओं को फिर से सातवीं शताब्दी की ओर ढकेल देंगे. अफगानिस्तान इसका नयाब उदारहण है.
बहर हाल इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की पहल स्वागत योग्य है.
संजीव खुदशाह बहुचर्चित दलित लेखक हैं. इनसे sanjeevkhudshah@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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