क्या आपने महात्मा ज्योतिबा फुले को पढ़ा है? तथागत ने दुनिया को जो संदेश दिया, क्या आप उसके बारे में जानते हैं? बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर ने जो लिखा क्या आप उससे वाकिफ हैं? मान्यवर कांशीराम सहित तमाम बहुजन नायकों ने बहुजन समाज को जो समझाने की कोशिश की क्या आप उसे समझ पाए हैं? अगर नहीं तो इनलोगों को पढ़ना और समझना शुरू करिए, क्योंकि अगर आप सच में अन्याय, अत्याचार और भेदभाव का प्रतिकार करना चाहते हैं तो इनको पढ़ना और समझना बहुत जरूरी है.
आज अचानक से बहुजन नायकों को पढ़ने-समझने की बात करने की भी एक वजह है. वजह बिहार के मुज्जफरपुर जिले के केंद्रीय विद्यालय का वह बच्चा है, जिसको पीटे जाने का विडियो पिछले दिनों वायरल हुआ था. फिर उस छात्र ने यह बताया कि एक कुख्यात बाप की बिगड़ी संतानें उस बच्चे को इसलिए मार रहे थे क्योंकि वह दलित था और पढ़ने में अव्वल था. उस बच्चे का विडियो गुजरात के उना पीड़ितों से किसी भी मायने में कम विभत्स नहीं था. उस बच्चे को जिस बेरहमी से मारा जा रहा था वह कई सवाल खड़ा करता है. मार खाने वाला और मारने वाला दोनों हमउम्र थे. फिर हमारे समाज का बच्चा उसका प्रतिकार क्यों नहीं कर पा रहा था. आखिरकार हमारे बच्चे इतने कमजोर क्यों नजर आते हैं?
मेरा मानना है कि सबकुछ आत्मविश्वास की बात है. हमें लगता है कि वो हमें मार सकते हैं और हमारी नियति में बस मार खाना है. आए दिन दलितों पर होने वाले उत्पीड़न इसी बात को बयां करते हैं. और हर बार दलित समाज हाथ जोड़े, हाथ बांधे न्याय की गुहार लगाता दिखता है. आखिर हमारा समाज पलट कर जवाब देना कब सिखेगा? हम बस मंचों से गरजते रहते हैं कि हम 85 फीसदी हैं और वो 15 फीसदी हैं. फिर 85 फीसदी वाले आखिर पंद्रह फीसदी वालों के शोषण के शिकार क्यों हो रहे हैं? राजनैतिक तौर पर तो यह नारा ठीक लगता है लेकिन जमीन पर यह सच्चाई से कोसो दूर दिखने लगा है. वर्तमान समय में एक बात यह भी समझने की है कि क्या हम सचमुच 85 फीसदी हैं? क्योंकि सरकारी आंकड़ों में 22 फीसदी (दलित-आदिवासी) समुदाय के साथ ज्यादातर अत्याचार इसी 85 फीसदी के भीतर के लोग भी कर रहे हैं.
अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अब इस बात को स्वीकार करने का समय आ गया है कि 85 फीसदी के भीतर की कई कथित दबंग जातियां दलितों और आदिवासियों से कोई सहानुभूति नहीं रखती, बल्कि वो 15 फीसदी के साथ मिलकर दलितों की शोषक बनने की राह पर है. पिछले दिनों ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जब ये जातियां ब्राह्मणों से ज्यादा ब्राह्मणवादी और ठाकुरों से ज्यादा शोषणकारी साबित हुई हैं. इनका जातीय अहम दलितों और आदिवासियों को देखकर फुंफकार मारता रहता है. हम बहुजन की बात करते रहते हैं लेकिन सामने वाला न खुद को बहुजन समझता है और न ही बहुजन महापुरुषों से कोई नाता रखना चाहता है. वह तो खुद को उस ‘श्रेष्ठ’ श्रेणी का मानने लगा है जिन्होंने गणेश की सर्जरी की थी और जो मां की पेट के बजाए किसी पुरुष के मुंह और भुजाओं से पैदा हुए थे. हालांकि उस व्यवस्था में भी उन्हें पैरों में ही जगह मिली है लेकिन वो शायद पैरों में ही खुश हैं.
सोचने का विषय यह है कि आखिर दलितों का अत्याचार कब थमेगा? अन्य जातियां दलितों पर हावी क्यों हो जाती हैं और इससे निपटा कैसे जा सकता है? तो इन ज्यादतियों से निपटने का हथियार सिर्फ और सिर्फ बहुजन नायकों को जानने और समझने में छुपा है. क्योंकि मेरा साफ मानना है कि बाबासाहेब को पढ़ने, ज्योतिबा फुले को जानने और मान्यवर कांशीराम सहित तमाम बहुजन नायकों को समझने के बाद आप इस अन्याय से लड़ने के लिए खड़े हो जाते हैं. आपमें अत्याचार का प्रतिकार करने की ताकत आ जाती है. आपको धम्म की राह के बारे में पता चलता है. बहुजन नायकों के बारे में जानना आपके अंदर आत्मविश्वास जगाता है और यही आत्मविश्वास आपको जीवन में आगे ले जाता है. आज जरूरत इस बात की है कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही बहुजन नायकों के बारे में बताएं और जब वो सातवीं-आठवीं में चले जाएं तो उन्हें बहुजन नायकों के जीवन के बारे में पढ़ने की प्रेरणा दें. दलित समाज के लोग अगर गुलामी की बेड़ियों को तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं तो उनके लिए डॉ. अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले और कबीर की विचारधारा को अपनाना होगा. उन्हें धम्म की राह पर चलना होगा.
विगत 17 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय अशोक दास अंबेडकरवादी पत्रकारिता का प्रमुख चेहरा हैं। उन्होंने साल 2012 में ‘दलित दस्तक मीडिया संस्थान’ की नींव रखी। वह दलित दस्तक के फाउंडर और संपादक हैं, जो कि मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यू-ट्यूब के जरिये वंचितों की आवाज को मजबूती देती है। उनके काम को भारत सहित अमेरिका, कनाडा, स्वीडन और दुबई में सराहा जा चुका है। वंचित समाज को केंद्र में रखकर पत्रकारिता करने वाले अशोक दास की पत्रकारिता के बारे में देश-विदेश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं, जिनमें DW (जर्मनी) सहित The Asahi Shimbun (जापान), The Mainichi Newspapers (जापान), The Week (भारत) और हिन्दुस्तान टाईम्स (भारत), फारवर्ड प्रेस (भारत) आदि मीडिया संस्थानों में फीचर प्रकाशित हो चुके हैं।
अशोक दास दुनिया भर में प्रतिष्ठित अमेरिका के हार्वर्ड युनिवर्सिटी में साल 2020 में व्याख्यान दे चुके हैं। उन्हें खोजी पत्रकारिता (Investigative Journalism) के सबसे बड़े संगठन Global Investigative Journalism Network की ओर से 2023 में स्वीडन, गोथनबर्ग में आयोजित कांफ्रेंस के लिए फेलोशिप मिल चुकी है। वह साल 2023 में कनाडा में आयोजित इंटरनेशनल कांफ्रेंस में भी विशेष आमंत्रित अतिथि के तौर पर शामिल हो चुके हैं। दुबई के अंबेडकरवादी संगठन भी उन्हें दुबई में आमंत्रित कर चुके हैं। 14 अक्टूबर 2023 को अमेरिका के वाशिंगटन डीसी के पास मैरीलैंड में बाबासाहेब की आदमकद प्रतिमा का अनावरण अंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर नाम के संगठन द्वारा किया गया, इस आयोजन में भारत से एकमात्र अशोक दास को ही इसकी कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया था। इस तरह अशोक, दलित दस्तक के काम को दुनिया भर में ले जाने में कामयाब रहे हैं। ‘आउटलुक’ मैगजीन अशोक दास का नाम वंचितों के लिए काम करने वाले भारत के 50 दलितों की सूची में शामिल कर चुकी है।
उन्हें प्रभाष जोशी पत्रकारिता सम्मान से नवाजा जा चुका है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रकाशित पहले पत्र ‘मूकनायक’ के 100 वर्ष पूरा होने पर अशोक दास और दलित दस्तक ने दिल्ली में एक भव्य़ कार्यक्रम आयोजित कर जहां डॉ. आंबेडकर को एक पत्रकार के रूप में याद किया। इससे अंबेडकरवादी पत्रकारिता को नई धार मिली।
अशोक दास एक लेखक भी हैं। उन्होंने 50 बहुजन नायक सहित उन्होंने तीन पुस्तकें लिखी है और दो पुस्तकों का संपादक किया है। ‘दास पब्लिकेशन’ नाम से वह प्रकाशन संस्थान भी चलाते हैं।
साल 2006 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), दिल्ली से पत्रकारिता में डिप्लोमा लेने के बाद और दलित दस्तक की स्थापना से पहले अशोक दास लोकमत, अमर-उजाला, देशोन्नति और भड़ास4मीडिया जैसे प्रिंट और डिजिटल संस्थानों में आठ सालों तक काम कर चुके हैं। इस दौरान वह भारत की राजनीति, राजनीतिक दल और भारतीय संसद की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। अशोक दास का उद्देश वंचित समाज के लिए एक दैनिक समाचार पत्र और 24 घंटे का एक न्यूज चैनल स्थापित करने का है।