हम सब जानते है कि 6 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल जारी रहा था. वह आपातकाल तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर उस समय के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा की थी. वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल कहा जाता है. आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई. इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया. प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया. विपक्षी नेताओं और तथाकथित भ्रष्ट अधिकारियों को जेल में डाल दिया गया.
उस समय के विपक्षी राजनीतिक दलों के अग्रणीय जयप्रकाश नारायण ने इसे ”भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि” कहा था. उस समय आकाशवाणी से प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा था कि जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही थी. आपातकाल के इस दौर में देखा ये गया था कि कांग्रेस के अलावा सारे के सारे राजनीतिक दल ही नहीं, कांग्रेस के अन्दर के राजनेता भी इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए ( कुछ पहले से भी थे) किंतु आम जनता की जीवनचर्या पर उस आपातकाल का कोई दुस्प्रभाव नहीं पड़ा था. हां, प्रशासन में जो कामचोर और भ्रष्ट अधिकारी थे, वो उस आपातकाल के खिलाफ जरूर हो गए थे. मेहनतकशों और ईमानदार जनता को उस आपातकाल से ज्यादातर कोई आपत्ति नहीं थी. क्योंकि उस आपातकाल में जनता की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के तमाम सरकारी/गैरसरकारी रास्ते खुले हुए थे. इस सत्य का यहां उल्लेख करना इसलिए जरूरी जान पड़ा क्योंकि भाजपा बार-बार उस आपातकाल का मसला उठाकर जनता के हितों साधने की आड़ में राजनीतिक षड़यंत्र गढ़ने में अग्रणीय रही है… आज भी है.
इंदिरा गांधी के द्वारा आपातकाल का याद आना बेशक स्वभाविक है. क्योंकि 9 नवम्बर 2016 वह दिन था जिस दिन मोदी सरकार के आदेश पर एनडीटीवी इण्डिया चैनल को एक दिन के लिए बंद किया जाना था ताकि मीडिया को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा‘ और ‘जिम्मेदार पत्रकारिता‘ का पाठ पढ़ाया जा सके. लेकिन इस अघोषित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगाने जैसा ही निर्णय थी. यह निर्णय मीडिया पर आपातकाल जैसा ही सीधा प्रहार था. इस पर भाजपा सरकार को समूचे देश के विरोध का सामना करना पड़ा और इस विरोध के चलते सरकार को एनडीटीवी इण्डिया चैनल को एक दिन के लिए बंद किए जाने के निर्णय से पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा. इसके पहले कि जनता इस प्रकरण के बाद राहत की सांसें ले पाती, मोदी जी द्वारा इंदिरा गांधी की तर्ज पर गरीबी मिटाने, आर्थिक भ्रष्टचार मिटाने, काले धन पर अंकुश लगाने के बहाने 8 नवम्बर की मध्य रात्रि से 500 और 1000 के नोट गैरकानूनी घोषित कर दिये गये. एक ही झटके में सरकार ने 14 लाख करोड़ रुपये यानि प्रचलन में मौजूद कुल भारतीय मुद्रा के 86 प्रतिशत को रद्दी कागज में बदल दिया. क्या इसे अघोषित ‘आर्थिक आपातकाल” की संज्ञा से नहीं नवाजा जाना चाहिए?
इस घोषणा के बाद, देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने स्पष्ट किया है कि नए नोट छापने की प्रक्रिया बीते छह माह से चल रही थी. मैसूर के टकसाल में नये नोट छप रहे थे और इस ऐलान से पहले ही नई करेंसी बैंकों में पहुंचा दी गई थी. यहां यह सवाल उठता कि यदि जेटली के इस बयान को सही मान लिया जाए तो वित्त मंत्री/ भारत सरकार यह स्पष्ट करे कि नए नोटों पर रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर अर्जित पटेल के हस्ताक्षर कैसे और क्यों प्रिंटिड हैं जबकि उन्होंने तो सितंबर 2016 के प्रथम सप्ताह में रिजर्व बैंक के गवर्नर का कार्यभार संभाला था.
इस नोटबंदी का फरमान जारी करते समय कहा गया कि इस नोटबन्दी से कालाधन ही नष्ट होगा. किंतु जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे हैं, उससे ऐसा लगने लगा है कि मोदी सरकार ने यह फैसले काला धन बाहर आ पाएगा कि नहीं यह तो अभी कहा नहीं जा सकता किंतु इस आदेश से देश के किसानों, मजदूरों और आम गृहिणियों की जो दुर्दशा हो रही है, वैसी आर्थिक मामलों को लेकर शायद ही आजाद भारत में कभी हुई हो. किसान ने हाल ही में धान की फसल बेची है. उसका भुगतान नकदी में ही होता है, ताकि घर का अन्य खर्च चलाया जा सके. यही हाल आम गृहिणी का होगा, जिसे उसके पति ने 500 या 1000 रुपए के नोटों के तौर पर घर खर्च दिया है. एकदम बैंक भी बंद और एटीएम भी. गृहिणियों को घर भी चलाना है, घर में राशन लाना है, तो वह ऐसी स्थिति में क्या करे? मजदूर की दिहाड़ी का भुगतान भी ठेकेदार ने पुरानी मुद्रा में किया है. वह नोट बदलवाने बैंक जाएगा या रोटी के लिए दिहाड़ी पर…? इन बुनियादी सवालों पर मोदी सरकार ने विमर्श किया होगा, ऐसा नहीं लगता… लेकिन जो फैसला सामने आया है, उससे इन वर्गों की चिन्ता ही बढ़ी है. छोटे बाजार, कारोबार. व्यापारी, खुदरा दुकानदार और उनके ग्राहक भी नकदी में लेन-देन करते आए हैं. ऐसे कारोबारी अपनी आमदनी कितनी घोषित करते हैं या कितना कर-चोरी करते हैं, इसकी जांच तो सरकारी एजेंसियों से भी कराई जा सकती थी, किंतु ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने अमीर और गरीब यानी कि दोनों को एक ही तराजू से तोलने का फैसला ले डाला. लगता है इस पर सरकार द्वारा कोई विचार ही नहीं किया गया.
दुकानदार न तो क्रेडिट और डेबिट कार्ड स्वीकार करते हैं और न ही चेक, यदि ये मान भी लिया जाए कि दुकानदार क्रेडिट और डेबिट कार्ड आदि स्वीकार करते हैं तो शहरी इलाकों की सारी जनता तक के पास क्रेडिट और डेबिट कार्ड आदि नहीं है, ऐसे में देश की दूरस्त ग्रामीण इलाकों की साधारण जनता, दैनिक मजदूरी करने वाले लोगों और किसानों के बारे में क्रेडिट और डेबिट कार्ड की उपलब्धता के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. ग्राहक के हाथ में नकदी है नहीं… न बैंक नकदी मुहैया कराने की हालत में आ पाए हैं, तब इस ग्रामीण जनता का क्या होगा?
खबर है बैंकों की लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े होने वाले लोगों में से कम से कम 60/70 लोगों की मौत हो चुकी है… इसका जिम्मेदार कौन होगा? जिन घरों में लड़के-लड़कियों की शादियां होने वाली थीं/हैं… उनको खून के आंसू बहाने पड़ रहे हैं. आरबीआई ने अपने नोटीफिकेसन में शादी वाले घरों द्वारा अपना पैसा ही निकालने के लिए इतनी अव्यावहारिक शर्तें लगा दी है कि जो 7 फेरों से भी ज्यादा हैं. यदि यहां सरकार से ये पूछ लिया जाय कि क्या राजनीतिक दलों द्वार चुनाव-खर्च का भुगतान चैक के द्वारा ही किया जाता है, को क्या यह जायज न होगा?
मोदी जी की नोटबन्दी की घोषणा के पीछे की सच्चाई स्पष्ट है कि उन्होंने अपने इस मास्टर स्ट्रॉक से देश में बढ़ रही मंहगाई, सामाजिक और धार्मिक अराजकता, विदेशों से कालाधन न ला पाना और ऐसे ही अन्य वायदे जिनको मोदी सरकार पूरा करने में असमर्थ ही रही है, उन मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिया गया एक अमानवीय निर्णय है. यानी अब, मोदी राज के दो साल बीतने के बाद विदेशी बैंकों में जमा धन की चर्चा को घरेलू जमाखोरी की ओर मोड़ दिया गया है. कहने की जरूरत नहीं कि नोटबंदी के निर्णय लेने से पूर्व कोई गृहकार्य किया ही नहीं गया. नोट बन्द ही करने थे… तो ठीक किंतु उनके साइज में परिवर्तन के पीछे कौन सी तुगलकी सोच रही होगी कि देश में लगे तमाम एटीएम बेकार हो गए. क्या इसे एटीएम घोटाले के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए?… अब देश में लगे तमाम एटीएम नए सिरे से मरम्मत की जद में आ गए हैं. इनकी मरम्मत में कितने धन का अपव्यय होगा, क्या वह किसी पूर्वनियोजित घोटाले का हिस्सा नहीं? कमाल तो ये है कि अब सरकार देश की आम जनता और राजनीतिक विरोधियों के सवालों के उत्तर न देकर, प्रश्नों के उत्तर नए-नए सवाल ही उछाल रही है… उत्तर नहीं दे पा रही है. समझ से परे है कि यदि देश का प्रधानमंत्री ही राज्यसभा या लोकसभा की बैठकों में भाग लेने से बचेगा तो बाकी को क्या कहें?
ज्ञात हो कि प्रधानमंत्री नोटबंदी के अपने फैसले पर अडिग हैं. फिर जनता की राय जानने का क्या औचित्य है? मोदी जी ने 22 नवंबर को केवल अपनी ही पार्टी के सांसदों को इस मामले के मद्देनजर सक्रिय होने को कहा. क्या यह लोकतंत्र की अवमानना नहीं? क्यूं न सर्वदलीय बैठक बुलाई जानी चाहिए थी? मोदी जी को याद रखना चाहिए था कि नोटबन्दी का मामला किसी एक विशेष राजनीतिक दल का कार्यक्रम या चुनावी घोषणा नहीं है.
नोटबन्दी की घोषणा के बाद सरकार दिल्ली में बैठकर दिन प्रति दिन कुछ न कुछ नई सुविधाओं और आयकर के तहत डराने वाली अनेक घोषणाएं तो कर रही है किन्तु जमीन पर सुविधाओं के जमीनी असार होता दिखाई नहीं दे रहा. हां! आयकर विभाग द्वारा की जाने वाली प्रस्तावित जांचों से जरूर घबरा रही है. मोदी जी के इस निर्णय पर जब विपक्ष ने हल्ला बोला तो सरकार द्वारा उनकी आवाज को दबाने के प्रयास में जुट गए. अब यह भी संभव है कि भाजपा के समर्थक नोटबंदी के समर्थन में ट्वीटर पर मोदी की प्रशंसा के लम्बे-लम्बे कसीदे गढ़ दे… लेकिन मोदी को सोचना चाहिए कि इस प्रकार की जादूगरी से क्या होने वाला है. मुझे तो आभास होता है कि इंदिरा गांधी के आपातकालीन समय में हुई जबरन “नसबन्दी” ने उनका तख्ता हिला दिया था. कहीं मोदी का अचानक “नोटबन्दी” का निर्णय उनके लिए भी भारी न पड़ जाय. ऐसा इसलिए कि भाजपा के भ्रामक दावों की असलियत पूरी तरह खुलती जा रही है. दूसरे, आम लोगों पर थोपी गई आर्थिक अराजकता और मुश्किलों में डालने वाली असंवेदनशीलनता सरकार के खिलाफ जनता को गोलबन्द करने का काम करेगी.
लेखक तेजपाल सिंह तेज को हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार और साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इनका संपर्क सूत्र tejpaltej@gmail.com है.
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