बनने को तो ये कहानी हजारों सालों से हाशिए पर पड़े दलित समाज के उत्थान का पैमाना बन सकती थी लेकिन एक कोशिश भर बन कर रह गई. और ये कोशिश भी ऐसी है जो बेइंतहा दिखावटी है.
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इक्कीसवीं शताब्दी के सोलहवें साल में जिस जयापुर गांव की चर्चा दिल्ली की मीडिया में एक आदर्श गांव की तरह हुई, उसी गांव में रहने वाले मुसहर समाज का एक भी बच्चा पढ़ाई के लिए स्कूल नहीं जाता? 14 परिवार वाले उसी मुसहर समाज के लोगों के पास सालाना कुछ महीनों के लिए ईंट पाथने के अलावा कोई काम नहीं है? लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट ने पिछले पांच साल में देश में बेरोजगारी के उच्चतम स्तर तक पहुंचने का जिक्र किया है लेकिन क्या आप जानना चाहेंगे कि जयापुर गांव के मुसहर परिवारों की बेरोजगारी दशकों पुरानी है ? दुर्भाग्य ये है कि इसका कोई अंत होता नहीं दिखता.
ये कहानी उसी जयापुर गांव की है जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दो साल पहले ‘सांसद आदर्श ग्राम योजना’ के तहत गोद लिया था. प्रधानमंत्री के गोद लेने के बाद गांव में 2 बैंक खुले, एटीएम लगे, सोलर प्लांट लगा, बस स्टैंड पर लोगों को बैठने के लिए शेड बनवाया गया. सफलता के इन सूचकांकों का जिक्र हर जगह हुआ. होना भी चाहिए. जिस एक काम का जिक्र मीडिया में कम हुआ है वो है मुसहर परिवारों के रहने के लिए एक कमरे वाले पक्के मकानों का निर्माण.
बरसात में जिन लोगों को रिसती हुई झोपड़ियों में रहने की मजबूरी हो उनके लिए ये मकान किसी जन्नत से कम नहीं. पर ठहरिए, इस जन्नत की हकीकत जितनी खूबसूरत मालूम होती है, उतनी है नहीं. इस जन्नत के दूसरे हिस्से में अंधेरा है. जयापुर गांव से थोड़ा हटकर के एक कोने में बसे इस नए-नवेले सोसाइटी नुमा टोले में आप जैसे ही दाखिल होते हैं, आपका सामना पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर बनी एक स्मारिका से होता है. इस पर लिखा गया है – मोदी जी का अटल नगर. धान के खेतों के बीच बसाए गए ‘मोदी जी के अटल नगर’ में कांग्रेस से बीजेपी में आए राव बिरेन्द्र चौधरी का नाम भी खुदा हुआ है.
गेट के अंदर बाएं हाथ पर करीने से गमले रखे गए हैं. कुछ गमलों में फूल भी खिले हैं. रात को छोड़कर आप किसी भी वक्त जाइए यहां पेड़ पर बच्चों को खेलते हुए पाएंगे. दीवार पर स्वच्छता अभियान समेत पढ़ाई के लिए प्रेरित करने वाला एक नारा भी टीपा गया है – स्वच्छ भारत, सुंदर भारत. बेटी हो या बेटा दोनों को पढ़ाना है. इस नारे की मंशा कितनी भी अच्छी हो लेकिन इसकी हकीकत ठीक नहीं. 14 मुसहर परिवारों का कोई भी बच्चा पढ़ने न जाए और सरकार अपने काम का ढोल पीटने में लगी रहे. यह किसी त्रासदी से कम है क्या?
मुसहर टोले की तहकीकात से एक बात साफ तौर से समझ में आती है. वो ये कि यहां एक कमरे वाले मकानों को ऐसे तैयार किया गया है जिसमें जगह कम लगे, खर्चा कम से कम हो और प्रचार ज्यादा से ज्यादा मिले. दो समानांतर दीवारों के बीच छोटी-छोटी प्लॉटिंग करके एक कमरा, किचेन और बाथरूम के 14 सेट निकाले गए हैं. हर फ्लैट के बाहर नीले रंग में पुता गेट लगाया गया है. गेट के बाहर दीवार पर मकान नंबर भी लिखा है. एक नजर में यहां मौजूद हर चीज ‘अच्छे दिनों ’ की याद दिलाती है.
पर, क्या सचमुच ऐसा है ? इसका जवाब मिलता है उन तस्वीरों में जो इन घरों के अंदर का हाल बयां करती हैं. बाकी जो कसर रह जाती है उसे सोनू की उदासीनता पूरी कर देती है. सोनू बताते हैं, ‘यहां करीब 14 परिवार हैं. और हर परिवार में औसतन तीन आदमी हैं.’ यानि कुल मिलाकर करीब 42 लोगों के लिए 10 x 12 के 14 कमरे प्रधानमंत्री मोदी की ओर से ‘सांसद ग्राम योजना’ के तहत बनाए गए हैं. जाहिर है एक खाली कमरा जिसमें खिड़की के अलावा कुछ भी नहीं है तीन लोगों की रिहाईश के लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए लोगों ने रसोईघर को अपना स्टोर रूम बना लिया है. लोगों का कहना है ‘खाना जैसे तैसे बनता है. गैस का कनेक्शन सरपंच रामनारायण पटेल के वादे के बावजूद अभी तक नहीं मिला है.’
मजे की बात ये है कि इन मकानों में कई के पास पंखा भी है लेकिन लाइट नहीं. क्यों? इसका जो जवाब हमें मिला वो भारत में सदियों से मौजूद उस सड़ी-गली जातिवादी व्यवस्था की ओर इशारा करता है जो समाज के हर तबके में मौजूद है. यहां ब्राहमण बनिया से, बनिया यादव से और यादव मुसहर से पूरी ईमानदारी से नफरत करता है. सोनू के मुताबिक, ‘परधानी के झगड़े में फंसकर मुसहर टोले में लाइट नहीं आ सकी. तार खींचा गया था लेकिन यादवों ने तोड़ दिया.’ शायद उन्हें शक था कि मुसहरों ने उन्हें वोट नहीं दिया. अंधेरा दूर करने के लिए सोनू समेत अन्य लोगों ने पीछे वाली मेनलाइन से तार जोड़कर अपने घर को रोशन किया है.
घर के अंदर बेशक लाइट नहीं है लेकिन घर के बाहरी हिस्से को जगमग करने की व्यवस्था पूरी है. घर के सामने का हिस्सा रोशन रहे इसके लिए ‘मोदी जी के अटल नगर’ में 8 सोलर पैनल लगाए गए हैं. 2 पैनल यूनियन बैंक की तरफ से लगाए गए हैं जबकि बाकी 6 एक दूसरी कंपनी की ओर से. ये शुभ काम कंपनियों ने कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी फंड के तहत किया है.
एक सवाल यहां जरूर बनता है कि कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी फंड के तहत कंपनियों ने काम कराने की दरियादिली सिर्फ पीएम मोदी के चुनाव क्षेत्र में ही क्यों दिखाई? जाहिर सी बात है इसका जवाब सोनू के पास नहीं है. ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे अभियानों का असर दिल्ली में दिखता है. ये दावे सरकारी दफ्तरों से निकलकर तथाकथित अखबारों और चैनलों तक आसानी से पहुंच जाते हैं लेकिन जमीन पर हाल उतने खराब हैं जिसका अंदाजा न तो सरकार को है और न ही उनके कारिंदों को.
सोनू को ऐसे किसी भी सरकारी अभियान से आजतक प्रेरणा नहीं मिली है. पढ़ाई के नाम पर उनके चेहरे पर चस्पा उदासीनता का स्थायी भाव थोड़ा और गहरा हो जाता है. वो कहते हैं, ‘ पहले स्कूल दूर था इसलिए नहीं गए. अब तो टाइम निकल गया. कोई ध्यान ही नहीं देता. मेरी तो बेटी है जो अभी छोटी है.’ ऐसा कहकर मुमकिन है सोनू अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहता हो लेकिन सवाल तो ये है कि क्या सोनू की बेटी को पढ़ाना ‘ सासंद आदर्श ग्राम योजना’ का हिस्सा नहीं ? सोनू जैसे इस देश के हजारों मुसहर परिवारों को शिक्षित करने का जिम्मा कौन उठाएगा ?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. एनएफआई मीडिया फेलोशिप अवार्डी हैं।

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