सात साल पहले 2015 की यूपीएससी परीक्षा में टॉप कर चर्चा में आई चर्चित आईएएस अधिकारी टीना डाबी फिर से सुर्खियों में हैं। वजह यह है कि टीना डाबी दुबारा शादी करने जा रही हैं। टीना डाबी ने खुद अपने इंस्टाग्राम पर इसका खुलासा किया है। इससे पहले साल 2018 में टीना डाबी ने यूपीएससी परीक्षा में दूसरे रैंक पर रहे आईएएस अतहर खान से शादी की थी। हालांकि दो साल बाद 2020 में दोनों ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया था। टीना डाबी से तलाक के बाद अतहर खान जम्मू कश्मीर कैडर लेकर अपने राज्य चले गए थे।
इस बीच दो सालों तक अकेले रहने के बाद टीना डाबी की जिंदगी में एक नया शख्स आ गया है। और टीना डाबी ने उन्हें अपना फियांसे बताया है। टीना डाबी की जिंदगी में आए इस नए शख्स का नाम है- प्रदीप गवांडे।
टीना डाबी की ये तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी है, लोग उन्हें नई जिंदगी की शुरुआत के लिए शुभकामनाएं दे रहें हैं। वहीं दूसरी तरफ लोग उनके मंगेतर के बारे में जानने के लिए काफी उत्साहित हैं। तो हम आपको बताते हैं कि कौन हैं प्रदीप गवांडे।
प्रदीप गवांडे साल 2013 बैच के IAS अफसर हैं। प्रदीप फिलहाल राजस्थान आर्कियोलॉजी एण्ड म्यूजियम डिपार्टमेंट में डायरेक्टर हैं। प्रदीप का जन्म 9 दिसंबर 1980 को हुआ था और वह टीना से उम्र में 13 साल बड़े हैं। प्रदीप और टीना डाबी दोनों की यह दूसरी शादी है।
प्रदीप ने नासिक के सरकारी मेडिकल कॉलेज से MBBS किया है। बाद में उन्होंने यूपीएससी एग्जाम क्रैक कर लिया। ट्रेनिंग के बाद उन्हें राजस्थान कैडर मिला। एबीपी न्यूज की खबर के मुताबिक प्रदीप गवांडे करीब 7 महीने पहले राजस्थान कौशल एवं आजीविका विकास निगम के मुख्य प्रबंधक थे। उस वक्त रिश्वत मामले वे जांच के दायरे में थे। उन्हें एसीबी की टीम ने 5 लाख रुपए के रिश्वत मामले में गिरफ्तार किया था।
टीना डाबी सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती है और उनकी दूसरी शादी की खबर ने सोशल मीडिया पर बवाल मचा रखा है। टीना डॉबी के फालोअर्स की ओर उनकी शादी पर मिली जुली प्रतिक्रिया आ रही है। कुछ फैंस टीना डॉबी के इस फैसले का स्वागत कर रहे हैं, जबकि कई फैंस ऐसे भी हैं, जो उनके नए दूल्हे के लुक्स, उनके ज्यादा उम्र के होने और रिश्वत के मामले में नाम आने से खुश नजर नहीं आ रहे हैं।
हाल के दिनों में कांग्रेस शासित राजस्थान में दलितों के उपर अत्याचार की घटनाओं में अत्याधिक वृद्धि देखी गई है। गत 15 मार्च को ही पाली जिले में स्वास्थ्यकर्मी रहे जितेंद्र मेघवाल की हत्या उनके ही गांव के दबंगों ने केवल इसलिए कर दी थी, क्योंकि दबंगों को जितेंद्र का अच्छे से रहना-सहना पसंद नहीं था। दलितों के खिलाफ अत्याचार का मामला राजस्थान में किस कदर बढ़ रहा है, इसकी ओर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने आवाज उठाई है। उन्होंने भारत सरकार से राजस्थान में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है।
ट्वीटर पर जारी अपने संदेश में उन्होंने कहा है कि “राजस्थान कांग्रेस सरकार में दलितों व आदिवासियों पर अत्याचार की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। हाल ही में डीडवाना व धोलपुर में दलित युवतियों के साथ बलात्कार व अलवर में दलित युवक की ट्रैक्टर से कुचलकर हत्या व जोधपुर के पाली में दलित युवक की हत्या ने दलित समाज को झकझोर दिया है।”
आगे उन्होंने कहा कि “इससे यह स्पष्ट है कि राजस्थान में खासकर दलितों व आदिवासियों की सुरक्षा करने में वहां की कांग्रेसी सरकार पूरी तरह से विफल रही है। अतः यह उचित होगा कि इस सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए।”
बहरहाल, राजस्थान में दलितों के खिलाफ अत्याचार की बढ़ती घटनाओं ने यह साबित कर दिया है कि राजस्थान सरकार में सामंती ताकतों के मंसूबे कितने बढ़े हैं। इस संबंध में बसपा प्रमुख मायावती ने स्पष्ट कहा है कि यह केवल इस कारण से हो रहा है क्योंकि एक तरफ तो राजस्थान की गहलोत सरकार दलितों की रक्षा करने में नाकाम है और दूसरी तरफ वह कार्रवाई न कर सामंती ताकतों का मनोबल बढ़ा रही है।
कहते है हिम्मत और हौसला बुलंद हो तो हर मुकाम हासिल किया जा सकता है। कुछ ऐसी ही कहानी है बहुजन नौजवान सतेंद्र सिंह की। मध्य प्रदेश के ग्वालियर के सतेंद्र सिंह लोहिया ने 21वीं राष्ट्रीय पैरा तैराकी चैंपियनशिप में 100 मीटर बैक स्ट्रोक प्रतिस्पर्धा में मध्यप्रदेश के लिए रजत पदक हासिल किया। यह प्रतियोगिता बीते 24 मार्च से 27 मार्च तक आयोजित हुई, जिसमें देश के 25 राज्यों के लगभग 400 तैराकों ने भाग लिया।
रजत पदक जीत सतेंद्र सिंह लोहिया लाखों दिव्यांगो के प्रेरणास्रोत बन गए हैं। इनके संघर्ष की कहानी किसी को भी रोमांचित कर देने की क्षमता रखती है। करीब 34 वर्षीय सतेंद्र सिंह लोहिया का जन्म ग्वालियर वेसली नदी के किनारे एक गाता गाँव जिला भिंड में हुआ। बचपन में वे दोनों पैरों से बामुश्किल चल पाते थे। स्कूल ख़त्म होने के बाद घंटो तक वेसली नदी में तैरते रहते। गाँव वाले उनकी दिव्यांगता पर ताने मारते थे, लेकिन निराश होने के बजाय उन्होंने निश्चय किया कि वह दिव्यांगता को कभी अपने राह का रोड़ा नहीं बनने नहीं देंगे।
धुन के पक्के सतेंद्र ने ऐसा ही किया। सन् 2007 में डॉ. वी. के. डबास के संपर्क में आए तो उन्होंने सतेंद्र सिंह लोहिया को पैरा तैराकी के लिए प्रेरित किया। इसने सतेंद्र के जीवन को नई दिशा मिली। फिर वर्ष 2009 में कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय पैरालंपिक स्विमिंग चैंपियनशिप में पहली बार उन्होंने कांस्य पदक जीता। इस जीत ने उन्हें इतना अधिक प्रोत्साहित किया कि वह राष्ट्रीय पैरालम्पिक में एक के बाद एक 24 स्वर्ण पदक जीते। उन्होंने जून 2018 में अपनी पैरा रिले टीम के माध्यम से इंग्लिश चैनल को तैरकर पार किया।
इतना ही नहीं, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैरालंपकि तैराकी चैंपियनशिप में एक स्वर्ण पदक के साथ तीन पदक हासिल किये। उनकी बेहतरीन उपलब्धि के लिए वर्ष 2014 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उन्हें विक्रम अवार्ड से नवाज़ा। इसके अलावा वर्ष 2019 में सतेंद्र को विश्व दिव्यांगता दिवस के अवसर पर को सर्वश्रेष्ठ दिव्यांग खिलाड़ी के पुरुस्कार से उपराष्ट्रपति ने सम्मानित किया। फिर आया साल 2020 जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सतेंद्र को तेनजिंग नोर्गे राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार प्रदान किया।
बताते चलें कि यह पुरस्कार पहली बार किसी दिव्यांग पैरा तैराक खिलाडी को दिया गया। सतेंद्र सिंह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सराहा है। वर्तमान में वे इंदौर में कमर्शियल टैक्स विभाग में कार्यरत हैं।
प्रसिद्ध दलित चिंतक व लेखक कंवल भारती ने भाजपा के एससी, एसटी और ओबीसी विधायकों, सांसदों और मंत्रियों से सवाल पूछा है। उनका सवाल है कि उनके रहते जब सरकारी नौकरियों में भागीदारी खत्म की जा रही है तो वे किस काम के हैं।
दरअसल, यह सवाल कंवल भारती ने अकारण नहीं पूछा है। जिस तरीके से केंद्र और राज्य सरकारों के स्तर पर संविधा के आधार पर बहालियां की जा रही हैं तथा निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके कारण आरक्षित वर्गों का हित प्रभावित हो रहा है।
इसी के मद्देनजर कंवल भारती ने अपना आक्रोश व्यक्त किया है। अपने फेसबुक पर उन्होंने टिप्पणी की है कि “क्या भाजपा के एससी, एसटी और ओबीसी विधायकों, सांसदों और मंत्रियों की अपने समुदाय के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या वे बस अपने ही उत्थान और भोग-विलास के लिए सत्ता में आए हैं? अगर उनके रहते नौकरियों में उनकी भागीदारी खत्म की जा रही है, उन पर अत्याचार किए जा रहे हैं, उनके विकास को रोका जा रहा है, तो मतलब साफ़ है, कि उन्हें उनके समाज की बर्बादी की क़ीमत पर सत्ता-सुख दिया गया है।”
कंवल भारती ने अपनी चिंता दलितों के खिलाफ बढ़ते अत्याचार की घटनाआं को लेकर भी व्यक्त की है। बीते 15 मार्च को राजस्थान के पाली जिले में जितेंद्र मेघवाल की हत्या का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा है कि “मूंछें रखने पर किसी दलित की हत्या का क्या मतलब है? वही जो डा. आंबेडकर ने कहा था कि भारत के गाँव गणतांत्रिक नहीं हैं, वे दलितों के लिए घेटो हैं. घेटो यहूदियों को यातनाएं देने के लिए ईसाईयों ने बनाए थे. जिनमें लाखों यहूदियों को यातनाएं देकर इसलिए मार दिया गया था, क्योंकि वे ईसाईयों के साथ मिश्रित होकर रहना नहीं चाहते थे. लेकिन भारत में सवर्णों ने लाखों दलितों को इसलिए मौत के घाट उतार दिया, क्योंकि वे सवर्णों के साथ समान स्तर पर मिश्रित होकर रहना चाहते हैं. इसका क्या अर्थ है? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि दलित हिंदू नहीं हैं? राष्ट्रवादी हरामखोरों क्यों कहते हो कि हम राष्ट्रवादी बनें? क्या यही तुम्हारा राष्ट्रवाद है? क्या ऐसा ही होगा हिंदू राष्ट्र?”
हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में सेना में भर्ती का मुद्दा जोर-शोर से उठाया गया। अब एक बार फिर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख बहन मायावती ने केंद्र सरकार से इस दिशा में जल्द ही ठोस कदम उठाने की मांग की है।
बताते चलें कि वर्ष 2020 से सेना में नये रंगरूटों की भर्ती पर सरकार ने रोक लगा रखी है। इसके कारण यूपी और बिहार जैसे प्रदेशों के हजारों नौजवानों का भविष्य दांव पर लगा है। उनकी समस्या यह है कि उम्र संबंधी शर्तों के कारण वे बिना परीक्षा दिए ही अयोग्य होते जा रहे हैं।
ट्वीटर पर जारी अपने संदेश में बसपा प्रमुख ने सोमवार को यह मामला उठाया। अपने संदेश में उन्होंने कहा कि “कोरोना के कारण सेना में भर्ती रैलियों के आयोजन पर पिछले दो साल से लगी हुई रोक अभी आगे लगातार जारी रहेगी। संसद में दी गई यह जानकारी निश्चय ही देश के नौजवानों, बेरोजगार परिवारों व खासकर सेना में भर्ती का जज़्बा रखने वाले परिश्रमी युवाओं के लिए अच्छी ख़बर नहीं है।”
दरअसल, यह बात केंद्रीय रक्षा मंत्रालय के द्वारा संसद में दिये गए एक जवाब के बाद साफ हो गई है कि अभी भी केंद्र सरकार की मंशा सेना रूकी पड़ी भर्तियों को शुरू करने की नहीं है। इसके आलोक में बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि “मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इसको लेकर सैन्य अफसर भी चिन्तित हैं, क्योंकि उनके अनुसार इस आर्मी रिक्रूटमेन्ट रैलियों पर अनवरत पाबन्दी का बुरा प्रभाव सेना की तैयारियों पर नीचे तक पड़ेगा। अब जबकि कोरोना के हालात नार्मल हैं, केन्द्र सरकार दोनों पहलुओं पर यथासमय पुनर्विचार करे।”
बहरहाल, अभी भी यह मामला साफ नहीं किया जा रहा है कि भारत सरकार सेना में जवानों की भर्ती क्यों नहीं करना चाह रही है। जबकि देश के लगभग सभी सरकारी विभागों में कामकाज सामान्य तरीके से चल रहा है। यहां तक कि शादी-विवाह जैसे आयोजनों में भी संख्या संबंधी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं।
सिनेमा जगत में भी दलित-बहुजन से जुड़े विषयों को प्रमुखता से दिखाया जाने लगा है। रजनीकांत की फिल्म ‘काला’ और सुपरहिट रही फिल्म ‘जय भीम’ के बाद एक और फिल्म ने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं। आदिवासी नायकों को जबरदस्त तरीके से प्रदर्शित करनेवाली इस फिल्म का नाम है ‘आरआरआर’ और इसके निर्देशक हैं एस एस राजमौली।
इस फिल्म ने कश्मीरी ब्राह्मणों के प्रोपगेंडा पर आधारित विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को भी पीछे छोड़ दिया है। इसकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ‘आरआरआर’ ने दो दिनों में ही साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए का कारोबार किया है। यह 2डी, 3डी; दोनों रूपों में उपलब्ध है।
फिल्म के बारे में युवा सामाजिक कार्यकर्ता राजन कुमार लिखते हैं कि “इस फिल्म में जल जंगल जमीन और मावा नाटे मावा राज (हमारी जमीन पर हमारी सरकार) का नारा देने वाले और आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों तथा हैदराबाद निजाम के विरुद्ध आंदोलन छेड़ने वाले क्रांतिकारी आदिवासी योद्धा कुमराम भीम और मनयम में आदिवासियों को एकजुट कर बगावत का बिगुल फूंकने वाले मनयम के नायक अल्लूरी सीताराम राजू के दोस्ती की कहानी गढ़कर अंग्रेजी शासन से जबरदस्त संग्राम को दिखाया गया है।”
राजन के मुताबिक, “हालांकि वास्तविक रूप से दोनों दोस्त नहीं थे, लेकिन दोनों समकालीन थे, और दोनों ने आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों और हैदराबाद निजाम के विरुद्ध संग्राम किया। फिल्म की कहानी वास्तविक कहानी से पूर्णतः अलग है, लेकिन आदिवासियों के बीच जिस तरह कुमराम भीम और अल्लूरी सीताराम राजू समझे और पूजे जाते हैं, उसको ध्यान में रखकर ईश्वरीय रूप देने के लिहाज से फिल्म बनाने की कोशिश की गई है।
इस फिल्म में जबरदस्त एक्शन है, यह दर्शकों को बांधे रखती है, फिल्म की कहानी भी जबरदस्त है, हालांकि अंत में अल्लूरी सीताराम राजू को राम के रूप में लड़ते हुए दिखाया गया है, जो थोड़ा अजीब सा लगता है। एक तरह से आदिवासियों को राम से जोड़ने का प्रयास भी किया गया है।
यह फिल्म भारत में अंग्रेजी हुकूमत के सर्वोच्च अधिकारी द्वारा एक गोंड आदिवासी छोटी बच्ची को जबरन उठा लेने, उसे कैदी की तरह रखकर अपनी सेवा करवाने उसके उत्पीड़न से शुरू होती है, जो फिल्म के नायक कुमराम भीम से परिचय कराती है, जो उस छोटी बच्ची को वापस लाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से टकराता है। एक दूसरी कहानी अल्लूरी सीताराम राजू के गांव से जुड़ी है, जहां उसका पूरा परिवार मारा जाता है, और बदले की आग में जलता हुआ वह अपने गांव के लोगों के लिए अधिक से अधिक हथियार जुटाने की फिराक में अंग्रेजी सेना के सर्वोच्च रैंक तक पहुंचता है।
फिर कुमराम भीम और अल्लूरी सीताराम राजू के बीच दोस्ती और संघर्ष भी होता है, और अंत में दोनों के बीच फिर से दोस्ती और अपने लोगों के लिए मिलकर संघर्ष। जिसके बाद अंग्रेजी सत्ता को जबरदस्त मात मिलती है।
निस्संदेह यह ऐसी पहली फिल्म है जो किसी आदिवासी महानायक को इतने गौरवपूर्ण ढंग से पर्दे पर दिखाया है।”
‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ नरेन्द्र वाल्मीकि की प्रथम काव्य-संग्रह है। जिसका प्रकाशन अभी हाल ही में 2021 में हुआ है। इस काव्य-संग्रह को इन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित किया है। यह कविता संग्रह दलितों के जीवन की पीड़ाओं एवं वेदना को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इस कविता-संग्रह में जहाँ एक तरफ इन्होंने दलितों के साथ सदियों से किये गये अत्याचार एवं शोषण का वर्णन किया है, वहीं दूसरी ओर सदियों से स्थापित कुव्यवस्था एवं परम्परा के विरूद्ध आक्रोश का स्वर भी विद्यमान है। तथाकथित सवर्ण समाज मात्र अस्पृश्यता को ना अपनाकर वे दावा करते हों कि वे वर्णव्यवस्था का समर्थन नहीं करते हैं। किन्तु यह एक भ्रामक तथ्य है, जिसमें ना केवल वे उलझे हैं , बल्कि दलित भी उसी भ्रमपूर्ण विश्वास में उलझे हुए हैं। दलित और सवर्ण का एक साथ उठना-बैठना, खाना-पीना अस्पृश्यता के अंत की ओर एक अच्छी पहल हो सकती है। लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि जातिगत भेद-भाव की समाप्ति हो चुकी है। वर्तमान समय में वैचारिक असमानता का अंत करने की आवश्यकता है , जिसका अंत शिक्षित समाज भी अभी तक नहीं कर पाया है। कवि ने इस विषय को भी केन्द्र में रखकर लिखा है। इन्होंने दलितों की सदियों से पोषित मानसिकता के विरूद्ध भी लिखा है। एक तरफ भारत देश ने जहाँ आधुनिक एवं वैज्ञानिक प्रगति चरम पर है किन्तु आज भी देश के विशेष वर्ग के लोगों का सीवरों में प्रवेश करना, देश के वैज्ञानिक प्रगति पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। इस काव्य-संग्रह में नरेन्द्र वाल्मीकि ने इन विषयों पर अपने विचार प्रदान किये हैं। “ जहाँ ना पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि” – एक कवि के संदर्भ में यह कथन से हम सभी परिचित हैं। कवि के संदर्भ में यह बातें यूं ही नहीं कही गई। वाकय में एक कवि की नजर वहाँ तक पहुँचती है , जिसका अनुभव अन्य व्यक्ति को होना असम्भव है। अपनी कविता ‘खोखली बातें’ में कवि ने इस कथन को चरितार्थ किया है। इस कविता में भारत देश की यथार्थता की उस छवि को प्रकट किया है , जिससे भारत के आधुनिकता एवं विकास पर एक प्रश्नचिन्ह लग जाता है। “आधुनिकता केवैज्ञानिकता के नाम पर मंगलपर जाने वालों। अभी भी देश के नागरिक अपने उदर के ‘मंगल’ के लिए उतरते हैं गंदे नालों में”उपर्युक्त पंक्ति पढ़ने के बाद हम यह सोचने के लिये विवश हो जाते हैं कि जहाँ भारत ने मंगल तक पहुँचने में सफल हो चुका है। किन्तु हमने यह कैसी वैज्ञानिक प्रगति हासिल की है कि इस आधुनिक युग में भी हमने उन आधुनिक उपकरणों का विकास नहीं किया कि सफाईकर्मी सफाई के लिए सीवर में उतरने से बच जायें। अपने पेट के भूख की विवशता के कारण वे उन गंदे नालों में उतरने से मना भी नहीं कर सकते हैं और उनकी यही विवशता का लाभ उठाया जाता रहा है। सफाईकर्मियों की इस वाध्यता ने भारत के आधुनिकता और वैज्ञानिकता पर सवालिया निशान लगाने का कार्य किया है। कवि के हृदय की आशा और विश्वास ने भावी समाज के विकास में हमेशा से महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ‘अब और नहीं’ कविता में कवि ने अपने इसी आशा और विश्वास का संचार किया है। जहाँ कवि ने यह आशा अभिव्यक्त की है कि अगर हमने सामाजिक बुराईयों का प्रतिरोध किया तो आने वाली पीढ़ी को हम ऐसा संसार दे सकते हैं , जिसमें जाति और धर्म के नाम पर उनके साथ असमानपूर्ण भेदभाव नहीं किया जाएगा। समाज के भविष्य के प्रति आशान्वित कवि को इस बात का भान है कि समाज में वह जिस समानतापूर्ण समाज का स्वपन उसने देखा है। वह परिवर्तन लाना इतना आसान नहीं है , इसके लिए शोषित समाज को विरोधी स्वर अपना पड़ेगा। वे अमानवीय काम जा आज तक वे करते आये हैं, जिन बंधनों में वे बंधे हैं। उन्हें तोड़ने की आवश्यकता है। अत: कवि ने लिखा है – “तोड़ डालो सारे बंधन जो- बनते हैं बाधक तुम्हारी तरक्की के मार्ग में।” ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ कविता में कवि ने शोषक वर्ग को इस बात से आगाह किया है कि जहाँ हमारी हाथों में इतनी ताकत है कि हम धरती का सीना चीरकर पूरे भारत का पेट पालने का सामर्थ्य रखते हैं। तो इस बात के प्रति किसी प्रकार का संदेह नहीं किया जा सकता है कि अपने अधिकारों के लिए हमारे ये हाथ उस व्यवस्था को भी उखाड़ देंगी, जिसने तुम्हें स्थापित किया है। व्यक्ति ही नहीं, किसी भी देश, समाज, समुदाय के शिक्षा ही वह कड़ी है जो ना केवल अज्ञानता के अंधकार का अंत करती है बल्कि शोषण, अत्याचार से भी मुक्ति प्रदान करने का कार्य करती है। यही कारण है कि बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने शिक्षा को शेरनी का दूध कहा था। ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ कवि ने शिक्षा की इस ताकत की यथार्थता को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि चूंकि अब उनके हाथों में कलम की ताकत है। जिससे वे उन सड़ी-गली व्यवस्थाओं के बारे में लिखेंगे, जिनसे समाज के दो-मुंहे सच को उजागर किया जा सके। वर्णवाद राष्ट्रवाद के नाम पर उनके साथ जो अत्याचार किये गये हैं , उनकी कलम उन असहाय और विवश लोगों के दर्द और पीड़ाओं का बखान करेंगी। तत्कालीन समय में किसान की समस्या से कोई भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। कवि का हृदय भी अन्नदाताओं की पुकार को अनसूना करने से दुखी है। ‘हल ही हल है’ कविता में कवि ने लिखा है कि जीवन के लिए जितना उपयोगी जल है , हल भी हमारे लिए उतना ही उपयोगी है।यही कारण है कि ‘हल’ और ‘जल’ को एक-दूसरे के समानार्थी करते हुए कवि ने लिखा है – “हल के बिना जल किसी काम का नहीं है। ये शाश्वत सत्य अटल है….हल ही हल है।”किसी भी समाज का विकास शिक्षा के अभाव में असम्भव है। शिक्षा ना केवल अज्ञानता बल्कि संकीर्ण विचारधारा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों से भी हमें मुक्त करने का कार्य करती है। किन्तु भारतीय समाज में जाति-व्यवस्था इस तरह हावी है कि शिक्षा के सबसे ऊँचे पायदान पर विराजमान शिक्षक भी जातिगत विचारधारा से अछूता नहीं है। ‘योग्यता पर भारी जाति’ कविता में कवि ने हमारे समाज के इसी कटुपूर्ण यथार्थता को अभिव्यक्त किया है कि व्यक्ति की योग्यता का मूल्यांकन उसके ज्ञान से नहीं बल्कि उसकी जाति से किया जाता है। एक दलित आज भी इस भेद-भाव के शिकार हो रहे हैं। किन्तु एक विचारपूर्ण तथ्य है कि आधुनिक एवं वैज्ञानिक युग में समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व अगर आज भी अपना स्थान बनाये हुए हैं , तो इसके लिए केवल तथाकथित सवर्ण समाज उत्तरदायी नहीं है। कोई भी व्यक्ति तभी श्रेष्ठ है जब अन्य व्यक्ति ने स्वंय को उससे कमतर समझा हो। दलित समाज शिक्षा प्राप्त करने में सफल तो हो रही है। किन्तु यह दुखद है कि भारतीय संस्कृति के संवाहकों ने दलित समाज में जिस हीनताबोध का रोपने का कार्य किया है , उस हीनताबोध से दलितों ने अभी तक स्वंय को मुक्त नहीं किया है। अत: समाज में ऊँच-नीच के भेद-भाव के अस्तित्व को कायम रखने में दलित समाज भी उतना ही उत्तरदायी है कि जितना कि सवर्ण समाज। ‘उनका श्रेष्ठत्व’ कविता में कवि ने इस तथ्य को ही अभिव्यक्त किया है।हिन्दी साहित्य में जब से आधुनिक दलित साहित्य का उद्भव हुआ है, दलित साहित्य को नकारने का उपक्रम भी साथ-साथ ही चल रहा है। जिसके लिए दलित साहित्य पर कई तरह के आरोप लगाये जाते रहे हैं। जिनमें एक आरोप दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र पर भी लगाया गया। ‘कैसी कविता लिखेगा’ में कवि ने इसी संदर्भ में अपने विचार को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि एक विशेष जाति में मात्र जन्म लेने के कारण जिस व्यक्ति के सभी अधिकार छीन लिये गये हों, वह कदम-कदम पर अपमानित हुआ हो , तो उसके हाथ में कलम आने पर स्वभाविक है कि वह अपने भोगे हुए यथार्थ, अपमान एवं शोषण की गाथा ही लिखेगा।इस प्रकार देखें तो कवि नरेन्द्र वाल्मीकि ने अपने प्रथम काव्य संग्रह में शोषित वर्ग की सभी समस्याओं एवं पीड़ाओं का वर्णन किया है। साथ ही एक कवि के कर्तव्य का सफल निर्वहन करते हुए इन्होंने शोषित समाज में अत्याचार एवं शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए भी प्रेरित किया है। सच्चा मार्गदर्शक वही होते हैं जो अमुख को उसकी कमी से भी अवगत कराये। कवि ने यह कार्य भी सफलतापूर्वक किया है। आरम्भ से ही कवियों ने अपने सकारात्मक संदेशों के माध्यम समाज में सकारात्मक परिवर्तन लानेका महत्वपूर्ण कार्य किया है।‘अंबेडकर’ कविता में इन्होंने अंबेडकर को एक परिधि में ना बाँधने का संदेश दिया है। वे लिखते हैं- “अंबेडकर को एक परिधि में मत बांधोउड़ने दो उसे समस्त मानव जन के लिए।” किन्तु कवि को अपने विचारों के आयाम को और भी विस्तार लाने की आवश्यकता है। जिस प्रकार इन्होंने तत्कालीन घटनाओं पर अपनी पैनी नजर रखते हुए इन्होंने हाथरस, शालीन बाग, किसान-आंदोलन , एक दलित शोध छात्र की समस्याओं को अपनी कविता का विषय बनाया है। उसी प्रकार जब इन्होंने दलित स्त्री के साथ किये गये अत्याचारों का वर्णन किया है। तब वे अपने विचारों में परिवर्तन लाये। समाज के अत्याचारों एवं शोषण से पीड़ित दलित स्त्री की छवि आंकने के बजाय आवश्यक है कि दलित स्त्री के हाथों में आंदोलन की मशाल को थमाया जाय , उनके हाथों में हथियारस्वरुप संविधान हो। अब दलित कवियों के लिए यह आवश्यक है कि दलित स्त्रियों के समस्याओं को वर्तमान समय के संदर्भ में देखें। दलित रचनाकार दलित स्त्रियों के संदर्भ में कहा करते हैं कि दलित स्त्रियों का दोहरा शोषण किया जाता है। किन्तु तात्कालिक समय में देखें तो दलित स्त्रियों के शोषण का दायरा अब बढ़ चुका है। अत: कवि को शोषण के उस बढ़े हुए दायरे पर भी अपने विचार अभिप्रकट करने की आवश्यकता है। दलित स्त्रियाँ शिक्षित हैं , उनका पदार्पण अब कार्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि बड़े-बड़े स्थानों में हो चुका है। दलित मध्यवर्गीय समाज, जिन्होंने तथाकथित सवर्ण समाज का अनुसरण करना प्रारम्भ कर दिया है। जिसके कारण अब दलित समाज में भी दहेज एवं अन्य आडम्बरों ने अपनी जड़ों को जमाना प्रारम्भ कर दिया है। अब दलित कवियों को इन नये विषयों पर लिखने की आवश्यकता है। इसी प्रकार कवि ने दलितों को समाज, शिक्षा आदि क्षेत्रों में वाली समस्याओं एवं शोषण का वर्णन तो किया है। परन्तु यह काव्य-संग्रह दलितों के एक विशेष जाति के शोषण की व्यथा पर केंद्रित है। कवि को अन्य दलित जाति की समस्याओं पर भी अपने विचार प्रदान करने की आवश्यकता है। शब्दों के चयन की बात करें तो कुछ स्थानों पर कवि को सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ‘छोड़ने’ के स्थान पर कवि ने अगर ‘तजने’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया होता तो वाक्य प्रभावकारी होते। हालांकि कुछ स्थानों पर अपने गम्भीर विचारों को अभिप्रकट करने के लिए प्रभावकारी शब्दों का चयन किया है। ‘बस्स ! बहुत हो चुका’ कविता की उक्त पंक्तियाँ – “ ये खुरदुरे हाथ जो चीर सकते हैं धरती का सोना तुम्हारे लिए अब उखाड़ देंगे तुम्हारी ये व्यवस्था अपने हक अधिकारों के लिए।” उपर्युक्त पंक्ति में ‘खुरदुरे हाथ’ शोषित श्रमिक वर्ग की क्षमता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस कविता-संग्रह का शीर्षक ‘जारी रहेगा प्रतिरोध’ के अनुरुप कविताओं का चयन भी कवि ने किया है। जिन संदर्भों में विचारों के आयाम को बढ़ाने की आवश्यकता है। उन कविताओं में भी कवि ने अपने प्रतिरोध के स्वर को नहीं दबाया है , बस कुछ कविताओं में आक्रोश का अभाव है।निष्कर्षत: इस कविता संग्रह में कवि समाज की विसंगतियाँ , अंधविश्वास आदि का वर्णन करने के साथ शोषण का विरोध ,जहाँ इन्होंने एक ओर दलितों को परम्परागत कार्य करने से मना किया है , दलित समाज की वेदना एवं पीड़ा का बखान है। वहीं दूसरी ओर दलित समाज की कमियों को भी उजागर करने का कार्य किया है। केवल समाज ही नहीं राजनीति पर भी इन्होंने अपनी कलम चलायी। एक सशक्त कवि की भूमिका का निर्वहन करते हुए तात्कालीन समस्याओं पर भी दृष्टिपात किया है। किसी भी दलित रचना की सार्थकता तभी प्रमाणित होती है जब उनमें दलित चेतना हो। काव्य-संग्रह में विद्यमान कवि का आक्रोशित स्वर उनकी दलित चेतना की पुष्टि करती है। (लेखिका पीएचडी शोधार्थी व युवा साहित्य समालोचक हैं)
यह एक ऐतिहासिक तस्वीर है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चरणों में पड़े हैं। जबकि भारतीय लोकतंत्र समतामूलक मूल्यों पर आधारित है। कम से कम संविधान में तो उसे ऐसा ही बनाया गया है ताकि किसी को इस कदर झूकना नहीं पड़े।
दरअसल, भारतीय राजनीति में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। दलित, पिछड़े और तमाम वंचित समुदायों को कमोबेश हिस्सेदारी दी जा रही है। हालांकि पहले भी ऐसा ही होता था जब कांग्रेस का जमाना था। बिहार को ही उदाहरण लें तो हम पाते हैं कि कैसे कांग्रेस ने बिहार में पिछड़े, दलित और मुसलमानों को मुख्यमंत्री तक बनाया था। यह हम बेशक कह सकते हैं कि कांग्रेस ने सबसे अधिक प्रधानता सवर्णों को दी। लेकिन तमाम जातिगत दृष्टिकोणों के बावजूद कांग्रेस की नीति लोकतंत्र को मजबूत करने की रही। इमेजिन करिए कि यदि कांग्रेस ने ऐसा नहीं किया होता तो क्या होता? क्या कोई अब्दुल गफूर बिहार जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री बनता? क्या भोला पासवान शास्त्री मुख्यमंत्री बन पाते?
लेकिन देश में हाल के वर्षों में एक अलग तरह की सियासत चल रही है। इस सियासत की मंशा लोकतंत्र को पहले कमजोर और फिर इसे खत्म कर देने की है। मैं कोई भविष्यवक्ता नहीं हूं, परंतु यह मैं महसूस कर रहा हूं कि अगले पचास साल के बाद भारत में लोकतंत्र का या तो अस्तित्व ही नहीं रहेगा या फिर रहेगा भी तो केवल औपचारिक तौर पर।
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि लोकतंत्र को महत्वहीन बनाने के सारे तिकड़म आरएसएस के द्वारा किये जा रहे हैं। अब यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आरएसएस की मंशा क्या है। वह संविधान के बजाय मनु के विधान के हिसाब से देश चलाना है और सवर्णों को इस देश का शासक अनंत तक बनाए रखना है।
दरअसल, मैं चिंतित इस बात से हूं कि वे लोग, जो चुनाव में पराजित हो जाते हैं, उन्हें भी सत्ता में शामिल किया जा रहा है। अब कल की ही बात देखिए कि केशव प्रसाद मौर्य, जो सिराथु विधानसभा क्षेत्र से पराजित हो गए, उन्हें आरएसएस ने उपमुख्यमंत्री बना दिया। सामान्य तौर पर तो यह ऐसा लगता है जैसे वह केशव प्रसाद मौर्य को कैबिनेट में स्थान देकर मौर्य समुदाय को साधने की कोशिश कर रहा है। वहीं एक और उदाहरण देखिए। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह घामी को आरएसएस ने मुख्यमंत्री बना दिया, जबकि वे अपना चुनाव हार गए थे।
दरअसल, यह समझने की आवश्यकता है कि आरएसएस के तिकड़म का विस्तार कितना है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जो कि अपना चुनाव पहले हार गयी थीं, उन्होंने स्वयं को मुख्यमंत्री बना दिया। जबकि नैतिकता यह होनी चाहिए थी कि जबतक वह चुनाव न जीत जातीं, तबतक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने ही दल के किसी और सदस्य को बैठने देतीं। यदि वह ऐसा कर पातीं तो निस्संदेह लोकतंत्र के प्रति लोगों का विश्वास और बढ़ता।
तो मामला यही है कि जनादेश का अपमान किया जा रहा है। जनता को यह बताया जा रहा है कि तुम्हारे वोटों का कोई मतलब नहीं है। तुम जिसे पराजित करोगे, हम उसे सत्ता में लाएंगे। जाहिर तौर पर जब ऐसा बार-बार होगा तो इसका परिणाम यही होगा कि जनता भी एक दिन यही मान लेगी कि वोटों का कोई मतलब नहीं है। वैसे भी हमारे देश में कम मतदान एक बड़ी समस्या है। लेकिन राजनीतिक दलों के लिए इस समस्या का कोई महत्व नहीं है।
मैं तो बिहार में 2005 से देख रहा हूं। नीतीश कुमार ने आखिरी बार चुनाव वर्ष 2004 में लड़ा था। तब वे बाढ़ संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार थे। बाढ़ की जनता ने उनके खिलाफ जनादेश दिया था। लेकिन 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने। यह बहुत ही दिलचस्प है कि जनादेश को ठेंगा दिखाने के लिए उन्होंने कैसी धूर्तता की। नीतीश कुमार ने स्वयं को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया। तबसे लेकर आजतक वह यही कर रहे हैं। वे चुनाव नहीं लड़ते हैं।
वर्ष 2020 में तो आरएसएस ने जनादेश का जबरदस्त अपमान तब किया जब बिहार की जनता ने नीतीश कुमार के खिलाफ जनादेश दिया और उनके दल के विजेताओं की संख्या 43 रह गयी। निस्संदेह बिहार की जनता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नीतीश कुमार को नहीं देखना चाहती थी। लेकिन आरएसएस ने लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने के लिए नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार का गठन किया। अब इसका परिणाम क्या हुआ है, यह कल योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में नीतीश कुमार का नरेंद्र मोदी की चरणों में गिर जाने की घटना ने बता दिया है। यह पतित होने की पराकाष्ठा है।
दरअसल, सियासत में ईमानदारी का दौर खत्म किया जा चुका है। कर्पूरी ठाकुर एक उदाहरण हैं। वे बिहार में विधान परिषद को सत्ता का पिछला दरवाजा मानते थे। राज्यसभा भी एक तरह से संसद का पिछला दरवाजा ही है। कर्पूरी ठाकुर विधान परिषद को खत्म कर देना चाहते थे। वे मानते थे कि यदि किसी को सत्ता में आना है तो चुनाव लड़े। चुनाव लड़ने का मतलब जनता का आदेश हासिल करे।
खैर, अब कहां कोई कर्पूरी ठाकुर मुमकिन है। आरएसएस ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ में मट्ठा डालने का काम प्रारंभ कर दिया है। याद रखिए नैतिकता रहेगी तभी लोकतंत्र का महत्व बना रहेगा।
दलित साहित्य वर्तमान में द्विज साहित्य के समानांतर खड़ा हो गया है। जाहिर तौर पर इसके पीछे दलित साहित्यकारों की एक लंबी सूची है, जिनके सृजन से ऐसा संभव हो पाया है। इन साहित्यकारों में प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन का नाम भी अग्रणी साहित्यकारों में शुमार है। यह उनकी उपलब्धियों का ही परिणाम है कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत किया है।
प्रो. बेचैन के साथ अन्य चार प्रोफेसरों को भी पदोन्नति दी गई है। इनमें प्रो. मोहन, प्रो. पी.सी. टंडन, प्रो. कुमुद शर्मा और प्रो. सुधा सिंह शामिल हैं।
यदि बात प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन की करें तो हम पाते हैं कि हिंदी दलित साहित्य जगत में उनकी रचनाएं मील के पत्थर के समान हैं। उनकी कहानियों के केंद्र में शोषण, गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद और भेदभाव के शिकार दलितों का संघर्ष रहा है। वे नब्बे के दशक से ही अपने लेखन से शोषणकारी शक्तियों की पहचान करते हैं, जिनकी वजह से दलित सामाजिक अधिकारों से वंचित और हाशिये पर चले गये है। जैसे कि उनकी ‘भरोसे की बहन’ (2010) और ‘मेरी प्रिय कहानियां’ (2019), नामक दो महत्वपूर्ण कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। इन दोनों संग्रह की कहानियों में दलित अधिकारों और हकों के संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
दरअसल, प्रो. बेचैन ने जब लेखन शुरू किया था तब पूरा समाज बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा था। वह दौर था 1990 का। मंडल कमीशन के लागू होने के बाद आरक्षण को लेकर समाज में उथलपुथल मचा था। दलित साहित्य भी तब अंगड़ाइयां लेने लगा था। उसी दौर में प्रो. बेचैन ने पत्रकारिता के अलावा साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया। मीडिया में वंचितों की हिस्सेदारी को लेकर उनके द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं। अपनी रपट में उन्होंने मीडिया के दोहरे चरित्र व उसकी वजहों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
प्रो. बेचैन साहसी साहित्यकार रहे हैं। उनकी एक कहानी ‘शोध प्रबंध’ (हंस, जुलाई 2000) तब खासा चर्चित रही थी। यह उच्च शिक्षा में हो रहे दलित शोषण की बड़ी सघनता से पड़ताल करने वाले कहानी है। इस कहानी में जहां एक तरफ उच्च शिक्षा में शोधरत दलित छात्राओं के शोषण को सामने रखा गया है, वहीं दूसरी ओर सवर्ण प्रोफेसर के नैतिक पतन और निर्लजता की इबारत भी लिखी गई है।
बहरहाल, प्रो. बेचैन को सीनियर प्रोफेसर के रूप में पदोन्नति वास्तव में दलित साहित्य के महत्व को रेखांकित करता है। यह दलित साहित्य के हर अध्येता के लिए गर्व की बात है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार फिर सुर्खियों में हैं। वजह बहुत खास है। कुछ ऐसा जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। लेकिन सियासत के खेल निराले होते हैं। वही नीतीश कुमार जिन्होंने वर्ष 2013 में नरेद्र मोदी को अपने घर पर दावत देने का आमंत्रण वापस ले लिया था, शुक्रवार को योगी आदित्यनाथ की दूसरी ताजपोशी के दौरान नरेंद्र मोदी के चरणों में कुछ ज्यादा ही झुक गए।
सामान्य तौर पर यह लोकाचार है कि जब दो नेता मिलते हैं तो एक-दूसरे का सम्मान करते ही हैं। लेकिन नीतीश कुमार, जिन्हें उनकी पार्टी के नेतागण पीएम उम्मीदवार बताने की कोशिशें करते रहते हैं, लखनऊ के इकाना इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में हजारों की भीड़ के सामने जब नरेंद्र मोदी से मिले तो उन्होंने अपनी ही राजनीतिक मर्यादा को तोड़ दिया।
बताते चलें कि नीतीश कुमार की पहचान एक ऐसे नेता के रूप में रही है, जो राजनीतिक संबंधों को महत्व तो देते ही हैं, अपने स्वाभिमान की रक्षा भी करते हैं। जैसे कि वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जब नीतीश भाजपा से अलग हो गए थे और लालू प्रसाद की शरण में चले गए थे, तब राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में उन्होंने नरेंद्र मोदी की अवहेलना की थी। तब हुआ यह था कि न तो नरेंद्र मोदी ने और ना ही नीतीश कुमार ने एक-दूसरे का सम्मान किया था।
खैर, मौजूदा दौर भाजपा के सितारे आसमान पर हैं। मुकेश सहनी की पार्टी के तीनों विधायकों के भाजपा में चले जाने के बाद बिहार में भाजपा वैसे भी 77 विधायकों के साथ नंबर वन पार्टी बन गयी है। ऐसे में भाजपा की कृपा से नीतीश कुमार का बिहार में मुख्यमंत्री बने रहना भी एक मजबूरी हो सकती है कि योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के दौरान उन्होंने खुद को सबसे अधिक वफादार साबित करने की कोशिश की।
शुक्रवार को योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। लखनऊ के इकाना इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में 50 मंत्रियों ने भी भी शपथ ली। इनमें एक वह दयाशंकर सिंह भी हैं, जिन्होंने करीब छह साल पहले बसपा प्रमुख मायावती को अपशब्द कहे थे। इन्हें योगी आदित्यनाथ ने स्वतंत्र प्रभार मंत्री बनाया है।
हालांकि यह माना जा रहा है कि भाजपा ने 2024 में होनेवाले लोकसभा चुनाव के लिहाज से मंत्रिमंडल में लगभग हर जाति और समुदाय को प्रतिनिधित्व दिया है। वहीं ब्राह्मणों को सम्मान देते हुए ब्रजेश पाठक का कद बढ़ा दिया गया है। दिनेश शर्मा की जगह अब वे केशव प्रसाद मौर्य के साथ उममुख्यमंत्री का पद साझा करेंगे। योगी मंत्रिमंडल में कुल 16 कैबिनेट मंत्री, 14 स्वतंत्र प्रभारी और 20 राज्यमंत्री शामिल किए गए हैं। देखें पूरी सूची–
हिन्दू साम्प्रदायिकता मुसलमानों के विरूद्ध क्यों अस्तित्व में आयी ? इस प्रश्न को समझे बिना मुस्लिम साम्प्रदायिकता को ठीक से नहीं समझा जा सकता । जिन लोगों ने भारत-विभाजन की परिस्थितियों को देखा और भोगा है, वे इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि विभाजन तत्कालीन परिस्थितियों की माँग था । जहाँ तक विभाजन के दंगों की बात है, तो उनमें दोनों ही समुदाय तबाह और बरबाद हुए । किन्तु , यह विडम्बना ही है कि हिन्दू समुदाय ने इस दर्द को इस स्तर पर अनुभव किया कि मुसलमानों के प्रति कभी न खत्म होने वाली नफरत भी उसकी गहराईयों में बस गयी । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय मुसलमानों के प्रति हिन्दू समुदाय आक्रामक बनते गये । सबसे पहले उनका आर्थिक वहिष्कार हुआ । व्यापार, उद्योग, कृषि-क्षेत्रों में हिन्दुओं का कब्जा पहले से ही था, अब सरकारी नौकरियों में भी हो गया । चूंकि अधिकांश मुस्लिम प्रबुद्ध जन पाकिस्तान चले गये थे, इसलिये भारतीय मुसलमानों में उस नेतृत्व का अभाव हो गया, जो उनको संगठित करता और उनकी समस्याओं को जोरदार ढंग से उठाता । इसका लाभ न केवल कठमुल्लावाद ने, बल्कि उन मुस्लिम नेताओं ने भी उठाया, जिन्होंने मुस्लिम राजनीति के बल पर अपने निजी स्वार्थों को पूरा किया । एक ओर मुल्ला-मौलवियों ने उन्हें इस्लाम के सही समझ से दूर रखकर अज्ञानता, अन्धविश्वास और पाखण्ड सिखाया , तो दूसरी ओर इसी आधार पर मुस्लिम नेताओं ने सत्ता के लिये उनका इस्तेमाल किया और सत्ता में आने के बाद उन्होंने न मुसलमानों की आर्थिक लड़ाई लड़ी और न सामाजिक सुरक्षा के खिलाफ ही कोई ताकतवर मुहिम चलायी ।
अत: नेतृत्वहीन भारतीय मुसलमान जैसा कि प्रो. फ़करुद्दीन बेन्नूर ने लिखा है, “भीतर ही भीतर असुरक्षित तथा अकेलेपन से संत्रस्त होते जा रहे हैं । परिणामत: मुस्लिम मध्यवर्ग के सदस्य सांप्रदायिक प्रतीकों तथा संकल्पनाओं को फिर से स्वीकार करते जा रहे हैं । यह प्रवृत्ति बेहद विफलताओं में से उभरती है और यही कारण है कि आज का सुशिक्षित मध्यवर्गीय मुसलमान, आधुनिक शिक्षा-दीक्षा से विभूषित होते हुए भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है और जमातवादी सूत्रों को स्वीकार करने लगा है ।”
मुस्लिम संगठनों के मूल में भी यही प्रतिक्रिया निहित है । 1987 में जब दिल्ली की जामा मस्जिद के नायब इमाम सैयद अहमद बुखारी ने ‘ आदिम सेना’ का गठन किया, तो उनकी दलील यह थी कि – “ जब हिन्दू शिव तक पहुँच सकते हैं, तो हम आदम तक क्यों नहीं पहुँच सकते ?” सैयद बुखारी ने एक भेंटवार्ता में इसे प्रतिक्रियावादी कार्यवाही स्वंय स्वीकार किया। वह कहते हैं –
“अब आप थोड़ा पीछे की ओर देखें तो पता चलता है कि आज़ाद हिन्दुस्तान में शुरु से ही मुख्तलिफ सेनाएं बनने लगी थीं । शिव सेना, हिन्दू सेना और बजरंग दल बना । चूंकि आये दिन हो रही साम्प्रदायिक घटनाओं से मुसलमान अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे थे । और, यह भी महसूस किया जा रहा था कि ये सेनाएँ एक ही फिरके में बन रही थीं, लेकिन मुसलमानों में कोई ऐसी सेना नहीं थीं, जो इनका मुकाबला कर सके । अपनी सुरक्षा और इन सेनाओं से मुकाबला करने के लिये कुछ लोग हथियार चाहते थे । छोटे-छोटे गुटों में उनकी गतिविधियाँ तेज हो रही थीं । वे सुरक्षा के उपाय ढूंढ रहे थे । चूंकि ये सेना एक ही संप्रदाय की थीं, इसलिये हुकुमत की कोई चिंता नहीं थी, जबकि इससे देश को काफी नुकसान पहुँच रहा था । हमें अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त करना था, अन्य सेनाओं का मुकाबला करना था और हुकुमत को झकझोरना था । ऐसे में हमने सेना बनायी और कामयाब भी हुए ।”
‘आदम सेना’ के उद्देश्यों में दो उद्देश्य बहुत महत्वपूर्ण हैं , जो भारत के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष के प्रति संगठन की निष्ठा को प्रमाणित करते हैं । इनमें पहला उद्देश्य यह है कि ‘यह संगठन किसी भी कीमत पर साम्प्रदायिक पागलों की इस प्यारे देश को तोड़ने की कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा ।’ दूसरा उद्देश्य यह है कि ‘यह संगठन किसी भी किस्म की व्यक्तिगत या सामूहिक हिंसा से कोई वास्ता नहीं रखेगा । अगर संगठन का कोई भी सदस्य हिंसा करता पाया जाता है, तो संगठन से उसे फौरन हटा दिया जाएगा ।’
विश्व हिन्दू परिषद की तर्ज पर अयोध्या में विश्व मुस्लिम परिषद नामक संगठन भी 1990 में अस्तित्व में आया । विश्व हिन्दू परिषद ने मंदिर के मामले में जो राष्ट्र का वातावरण पिछले तीन वर्षों में खराब किया हुआ है और मुसलमानों के विरूद्ध अपने उत्तेजक भाषणों से जो साम्प्रादायिक दंगे भड़काने में अहम भूमिका निभायी, उसकी प्रतिक्रिया में विश्व मुस्लिम परिषद जैसे संगठन का जन्म हो ही सकता है । इस संगठन की ओर से अयोध्या में मुस्लिम क्षेत्रों में चस्पा किये गये पर्चों में (जो उर्दू में हाथ से लिखकर फोटोस्टेट कराकर चस्पा किये गये) संगठन का जो परिचय और ध्येय व्यक्त किया गया है, वह एक प्रमुख हिन्दी दैनिक के अनुसार निम्न प्रकार है-
“तवारीख गवाह है कि मुगलों के वक्त से आज तक मुसलमान हिन्दुस्तान का वफादार रहा है और हिन्दुस्तान की गैर मुस्लिम अकवास (जाति) और उनकी इबादतगाहों का मुहाफ़िज (रक्षक) रहा है । लेकिन मुसलमानों को आजादी के बाद इस वफादारी का जो सिला (इमाम) मिला, उससे हमारी मस्जिदें, मकबरें, दरगाहें और हमारी इस्लामी पहिचान , यहाँ तक कि हमारे मकानात और दुकानें वगैरह भी महफ़ूज नहीं रह गयीं । हजारों मुसलमानों का कत्लेआम हुआ । बेशक इस्लाम ने अमन का पैग़ाम दिया, लेकिन अपनी हिफ़ाजत के लिये बातिल से जंगें भी कीं । आपके शहर में एक तंजीम (संस्था) ‘ विश्व मुस्लिम परिषद’ का कयाम अमल में आ चुका है , जिसने अहद (प्रण ) किया है कि बाबरी मस्जिद को नुकसान पहुँचाने के ग़ैर पसंदाना अकदाम (अप्रिय कदम) की मुखालफत करना और मुसलमानों की पहिचान कायम रखना है । तंजीम के इस नजरिये पर अमल के लिये हमारा मुत्तहिद होना जरुरी है ।”
इस समाचार के अंत में लिखा है कि ‘विश्व मुस्लिम परिषद’ का मुखिया कौन है तथा इसका वजूद यदि है, तो कितना प्रभावकारी है , यह बातें अभी साफ नहीं हैं ।’ किन्तु यदि इस समाचार पत्र के कई माह बाद तक भी विश्व मुस्लिम परिषद नामक संगठन की गतिविधियाँ प्रकाश में नहीं आयीं, तो इससे एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि विश्व मुस्लिम परिषद का गठन ही न हुआ हो और मुसलमानों ने विश्व हिन्दू परिषद की आक्रामक कार्यवाहियों का जवाब देने के मकसद से महज़ एक प्रतिक्रिया ही व्यक्त की हो । इसके अतिरिक्त, यह निष्कर्ष निकालना भी उचित न होगा कि विश्व मुस्लिम परिषद का यह पर्चा , जो मुस्लिम क्षेत्रों में चस्पा किया गया, मुसलमानों को साम्प्रदायिक तनाव के लिये उत्तेजित करने के उद्देश्य से किसी हिन्दू संगठन का ही सुनियोजित षड्यंत्र हो ।
अभी हाल में लखनऊ में मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने एक नये संगठन ‘मुस्लिम महाज’ का गठन किया है । एक हिन्दी दैनिक में प्रकाशित समाचार में कहा गया है कि ‘मुस्लिम महाज’ ने एक प्रस्ताव द्वारा बाबरी मस्जिद की रक्षा और और उसकी वापसी की माँग केन्द्रीय सरकार से की है । दूसरे प्रस्ताव में देश के मुसलमानों से कहा गया है कि वे वोट की राजनीति से अपने को अलग कर लें । न वोट दें और न वोट माँगें । वोट की राजनीति के चलते ही भारत की मुस्लिम जनता को पिछले 46 वर्षों में बेइज़्ज़ती और साम्प्रदायिक दंगों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला, जबकि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के नाम पर स्वयंभू मुस्लिम नेताओं ने सिर्फ ऐश की है । संगठन ने सभी मुसलमान सांसदों, विधायकों और मंत्रियों से माँग की है कि ‘वह सुविधा और सत्ता का मोह छोड़कर अपने पदों का त्याग करें, अन्यथा उनका घेराव किया जाएगा ।’
कहना न होगा कि मंदिर- मस्जिद- विवाद से उत्पन्न भय और असुरक्षा की भावना ही ‘मुस्लिम महाज’ के गठन का भी मूलाधार है ।
अत: हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि मुसलमानों के प्रति हिन्दुत्व के आक्रामक तेवर, निराधार आरोप, भ्रामक दृष्टिकोण और दुष्प्रचार के फलस्वरुप मुस्लिम साम्प्रदायिकता ने जन्म लिया । यद्यपि यह प्रतिक्रियात्मक है और तुलनात्मक दृष्टि से उतनी आक्रामक और हिंसक नहीं है, जितनी हिन्दू साम्प्रदायिकता है, (क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता मुसलमानों के साथ-साथ दलित-पिछड़ी जातियों के प्रति भी आक्रामक और हिंसक है) तथापि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि साम्प्रदायिक विद्वेष स्वंय में एक ऐसा अपराध है, जो देश में अराजकता उत्पन्न करता है और राष्ट्रीय एकता को खण्डित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
– डॉ. संतोष कुमारउत्तर प्रदेश के राजभर समाज में पहचान, चेतना, वैचारिक निर्माण और राजनीतिक उभारबहुत ही नया मंथनव विमर्श है। पहचान निर्माण की पारंपरिक पंक्तियों के बाद इस समुदाय ने उन्हें स्वयं को एक शैव पंथ भारशिव के साथ जोड़ा और आगे पश्चिमी भारत के नागवंशी के दावे के साथ जुड़ गया जो बौद्ध धर्म के प्रति अधिकआमुखहै। राजभर समुदाय के बीच दो तहें दिखाई देती हैं, सबसे पहले हिंदू धर्म के भीतर शैव धर्म का पालन करते हुए, हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। दूसरे, समुदाय के बीच केवल कुछ ही बौद्ध विरासत को साझा करते हैं। राजभर समुदाय ने अपनी पहचान मोटे तौर पर उत्तर प्रदेश में हिंदू धर्म के शैव रूप से संबंधित पाईहै। औपनिवेशिक काल में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ये वे लोग थे जिन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और कई राजभर नाम इससे जुड़े हैं। लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और चुनावी राजनीति में मध्ययुगीन महाराजासुहेलदेव राजभर के वंशजहोने का दावा राजभर समुदाय के बीच अधिक प्रभावशाली और मजबूतहै। महाराजा सुहेलदेव पर बौद्धिकजगत और समाज में वाद-विवाद चल रहा है। उत्तर प्रदेश के क्षत्रिय समूहों का दावा है कि वह राजपूतथे। भर/राजभर समुदाय का कहना है कि वह राजभर थे और मध्य उत्तर प्रदेश के पासी समुदाय उन्हें पासी राजा मानते हैं।
कई औपनिवेशिक नृवंशविज्ञान अभिलेखों में, गजेटियर राजा सुहेलदेव का उल्लेख राजभर और पासी के रूप में किया गया है, जिसने इस पर विवाद को विकसित किया। अधिकांश इतिहासकारों जैसेके पी जायसवाल व एम बी राजभरका सुझाव है कि वह एक राजभर महाराजा थे।महाराजा सुहेलदेव ने 11वीं शताब्दी में महमूद गज़नवी के सेनापति सैयद सालार गाजी को मार गिराया व अगले 100 वर्षो तक भारत मेंशांति कायम की।
इतिहास के आईनेमेंराजभर
राजभर समुदाय के इतिहास पर तीन प्रमुख ऐतिहासिक व्याख्याएं मिलती हैं। सबसे पहले, ऋग्वैदिक मूल और इस समुदाय के जुड़ाव का दावा करता है। दूसरा भारत के मूल निवासियों के बारे में नागभर शिव के रूप में बात करता है और अंत में बुद्ध के काल के भार्ग वंशजों को जोड़ता है। प्रारंभिक वैदिक काल के दौरान भर समुदाय पाया गया और यह भारत नाम से मिलता जुलता था। भारशिव के साथ राजभर का जुड़ाव एक शैव पंथ और आगे नागवंशी के पश्चिमी भारत के दावे से जुड़ता है। बुद्ध के काल में, सुमासुमगिरी पूर्वी उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर में एक जगह है जहाँ एक भार्ग जाति का शासन था। आईनेअकबरी के अनुसार, “बौद्ध प्रभुत्व की अवधि के दौरान भर एक शक्तिशाली जनजाति थी।” यह जाति, जिसे राजभर, भरत, भरपटवा और भर शब्द के नाम से जाना जाता है, उत्तर भारत में गोरखपुर से लेकर मध्य भारत में सागर तक फैले देश के एक विस्तृत हिस्से में है। अन्य जनजातियाँ, जैसे कि शेउरी, चेरु, मझवार और कोल उनके साथ जुड़े स्थानों में थे; लेकिन यह मानने का एक अच्छा कारण है कि भरों की संख्या उन सभी से बहुत अधिक थी। वे अवध में बहुत शक्तिशाली थे; और वाराणसी (पहले बनारस) और इलाहाबाद, या गंगा के दोनों किनारों परस्थित क्षेत्र, लगभग सत्तर मील लंबा, लगभग उनके अधिकार में था। हालांकि, यह जोड़ना सही है कि कुछ मूर्तियां, भर को श्रेष्ठ जाति के रूप में दर्शाती हैं, और शेषबौद्ध और या जैन धर्म से जुड़ी हुई हैं।
परम्परागत कथाओं के अनुसार गोरखपुर क्षेत्र में राजभर वंश भारद्वाज क्षत्रिय परिवार से जुड़ा था और उसका पुत्र मांस-मदिरा के सेवन से निम्न दर्जे का हो गया था। उनकी संतान का नाम सुरहा था और वे सुरौली गांव में बस गए थे। सूरह में से एक ने उच्च वर्णलड़की के साथ नाजायज संबंध बनाए और उससे कानूनी तरीके से शादी करने की सोची लेकिन उसे मार दिया गया। इस घटना के बाद समाज को नीचा समझा गया और वह पतित हो गया। भर राजा ने वही किया जो उनकी स्थिति में आदिवासी हमेशा करते थे और खुद को हिंदू जाति व्यवस्था में एक तरह की मध्यस्थ जाति में कायस्थ के रूप में भर्ती कराया। दूसरी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक, उत्तर प्रदेश में 33 राजभर राजाओं की एक श्रृंखला थी। औपनिवेशिक नृवंशविज्ञान और जनगणना अभिलेखों में राजभर का अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व किया गया है और स्वतंत्रता के बाद वे नए समय और स्थान में विकसित हो रहे हैं।
राजभर जनसांख्यिकी और भौगोलिक स्थिति
जैसा कि बी सुब्बाराव कहते हैं कि “भूगोल के बिना इतिहास एक बिना फ्रेम की तस्वीर की तरह है।” यहाँ, राजभर समुदाय मध्य भारतीय क्षेत्र के बाद पश्चिमी से उत्तरी भारत की ओर है। उत्तर प्रदेश के मामले में, वे राज्य के पूर्वी भाग में पाए जाने वाले द्रविड़ मूल की जाति हैं। राजभर समुदाय विभिन्न नामों और पहचानों के माध्यम से भारत में व्यापक है। 1891 की जनगणना में, उन्हें भारद्वाज, कन्नौजिया और राजभर की मुख्य उपजातियों के तहत वर्गीकृत भर के साथ रखा गया था। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की 1891 की जनगणना में 177858 राजभर का उल्लेख है और सबसे अधिक 47608 बलिया में, 28141 वाराणसी में, 25094 आजमगढ़ में, 19094 गोरखपुर में है। 1931 की जनगणना में भारत में राजभर की जनसंख्या 527174 बताई गई है। भारत सरकार अधिनियम 1935 अनुसूची के अनुसार, उनकी उपस्थिति बिहार, उड़ीसा, बंगाल, मध्य प्रदेश और बरार में है। भारत सरकार अधिनियम 1935 में 429 जाति की अनुसूची में उनका उल्लेख अछूत श्रेणी में किया गया था।
आजादी के बाद 1955 में इस कार्यक्रम में बदलाव किया गया और उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में रखा गया। 1981 में राजभर को उत्तर प्रदेश में गैर-अधिसूचित जाति के रूप में रखा गया था और बाद में 1993 में मंडल आयोग, समाज कल्याण मंत्रालय की सिफारिश के तहत, केंद्र सरकार ने अन्य पिछड़े वर्गों की एक सूची जारी की जिसमें भर को पिछड़ा आरक्षण के लाभार्थी के रूप में उल्लेख किया गया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1997 में भर और राजभर पर्यायवाची बताते हुए एक संशोधन जारी किया। हाल ही में, उत्तर प्रदेश सरकार ने 30 जून 2019 को 17अन्य पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का आदेश जारी किया।
इतिहास में राजभर महाराजासुहेलदेवकी खोज
महाराष्ट्र स्टेट आर्काइव मुंबई से राजभर महाराजासुहेलदेव के इतिहास को खंगालने का सफर बहुत लंबा है। 1980 के दशक के दौरान, युवा राजभर लोगों के एक समूह ने एक चर्चा व अनुसंधान समूह का गठन किया जो बाद में मुंबई में भर शोध संस्थान के रूप में विकसित हुआ, मग्गुबंगलराजभरइसके प्रमुख संस्थापक सदस्य हैंजो किएम बी राजभर के नामसे प्रसिद्धहैं। एम बी राजभर पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मार्टिनगंज ब्लॉक के ग्राम फूलेश के मूल निवासी हैं।पूर्वी उत्तर प्रदेशपूर्वांचल के नाम से लोकप्रिय है।उन्होंने टी.डी. कॉलेज जौनपुर से रसायन विज्ञान में स्नातक किया और बाद में मुंबई में एक रासायनिक फर्म (मेडिसिन प्रोडक्शन) में शामिल हो गए। उनकी ऐतिहासिक शोध में बहुत रुचि है और 1982 में मुंबई, महाराष्ट्र में एक चर्चा व अनुसंधान समूह का गठन किया।
एक युवा और उत्सुक दिमाग होने के नाते एम बी राजभर ने मुंबई आर्काइव के औपनिवेशिक अभिलेखों में राजा सुहेलदेव के बारे में खोज की और उनके बारे में जानकारी प्रसारित की। लेकिन बड़ी चुनौती यह थी कि राजा सुहेलदेव की कोई भी छवि (image) पुरालेख में या भारत में किसी अन्य स्थान पर नहीं थी। उन्हें पता चला कि राजा सुहेलदेव की एक तस्वीर ब्रिटिश लाइब्रेरी लंदन में है, डायरेक्टर ऑफ स्टेट आर्काइव मुंबई के माध्यम से उन्होंने ब्रिटिश समकक्ष को सूचित किया और छवि प्राप्त की। राजा सुहेलदेव की घोड़े की सवारी और भाला और ढाल पहने हुए इस छवि ने संपूर्ण भारत समेतउत्तर प्रदेश के राजभर समुदाय और सामाजिक परिवेश में लोकप्रियता हासिल की। एम बी राजभर ने नाग भर शिव का इतिहास, भर/राजभर साम्राज्य, आदिरामायण की कथावस्तु, श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव, Bhar/Rajbhar History as told by British Historians समेतदरजनो पुस्तकेंलिखी है।युवा राजभर शोधकर्ताओके इस समूह ने उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में राजा सुहेलदेव की स्थापना की, और इसने राज्य की राजनीति में अपने राजा के प्रतीक और मूर्तियों के माध्यम से राजभर समुदाय की अधिक मुखर प्रस्तुति, चेतना और पहचान निर्माण का नेतृत्व किया। भोजपुरी गायिकाचिंता राजभर का लोकप्रिय गीत इसे सहीव्यक्त करता है…
गुंज रहा है जय सुहेलदेव नारा भारत में
चमकेगा फिर से राजभर का सिताराभारत में!
राजभर समुदाय का राजनीतिक समावेश एवंप्रतिनिधित्व
भारत मेंक्षेत्रीय दलों के उदय और जाति की प्रतिनिधि राजनीति के साथ, राजभर ने राजनीतिक आंदोलन शुरू किए और खुद को राज्य की राजनीति से जोड़ा। प्रथम राजभर विधायक दूधनाथ कांग्रेस से थे।यह पहली बार था जब उन्होंने चुनावी जीत का स्वाद चखा।मान्यवर कांशीराम ने उन्हें बहुजन समाज पार्टी में एकजुट किया और पार्टी के विभिन्न पदों पर जिम्मेदारी दी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में, राजभर बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए और सीटें जीतने में मदद की। सुखदेवराजभरउत्तरप्रदेशकी 11वींविधानसभामें 1991-1993 तकराजभरसमुदायकेपहलेसदस्यथेऔरवेआजमगढ़जिलेसेचुनेगएऔरसुश्रीमायावतीकैबिनेटमेंविधानसभाकेअध्यक्षकेरूपमेंकार्यकिया। रामआचलराजभरप्रमुखराजभरनेताओंमेंसेएकहैंऔरवह 1991 सेबहुजनसमाजपार्टीकेशुरुआतीसदस्यथेऔर 4 बार विधायकउम्मीदवारीजीती।वहराज्यपरिवहनमंत्रीथेऔरउत्तराखंडमेंबसपाप्रदेशअध्यक्षकापदसंभालाथा।औरहालहीमेंबेहतरस्थानऔरअवसरकेलिएसपामेंशामिलहोगए। कालीचरण राजभर पूर्वी यूपी के गाजीपुर जिले के एक प्रमुख राजभर नेता हैं। वह 2002 और 2007 में बसपा से राज्य विधानसभा में चुने गए थे। और बाद में वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। ओम प्रकाश राजभर बसपा के मूल कार्डर थे। उन्होंने कहा कि मैं मान्यवर कांशीराम का शिष्य था और पार्टी के लिए जमीनी स्तर पर काम किया। और अपने राजभर समुदाय के स्वतंत्र नेता बन गए बाद में 2002 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया. शकदीपराजभरपूर्वीयूपीकीराजनीतिमेंएकउभरताहुआनामहै।और 2018 मेंराज्यसभाकेसदस्यबने।ग्रामप्रधानसेअपनीराजनीतिकयात्राशुरूकीऔरसुहेलदेवभारतीयसमाजपार्टी (एसबीएसपी) औरभारतीयजनतापार्टी (बीजेपी) गठबंधनकेमाध्यमसेराज्यसभामेंचुनेगएऔरसामाजकल्याणकररहेहैं।अनिलराजभरराजभरसमुदायकेबीचएकबहुतहीजीवंतनेताहैं।उन्होंनेभाजपाकेसाथसक्रियरूपसेकामकियाऔर 2017 केराज्यविधानसभाचुनावमेंभाजपाकेतहतवाराणसीजिलेकीशिवपुरसीटसेचुनावीजीतहासिलकी।क्योंकि 20% आबादीराजभरकीहै।वहराजभरसमुदायमेंअत्यधिकसक्रियहैंऔरजनताकोलामबंदकरतेहैं।
विजय राजभर आजमगढ़ मंडलमें 2017 से भाजपा के तहत घोसी, मऊ से विधायक हैं। वह बहुत सक्रिय राजनेता हैं और महाराजा सुहेलदेव जयंती और अन्य सामुदायिक कार्यक्रमों में बहुत बड़े स्तर पर भाग लेते हैं। और राजभर समुदाय में राजनीतिक चेतना जगा रहे हैं।साथ ही अन्य राजभर नेता प्रदेश में सक्रिय हैं
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन औरओम प्रकाश राजभर
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी उत्तर प्रदेश की एक मजबूत राजनीतिक पार्टी है और पूर्वी यूपी के राजनीतिक समीकरण पर हावी है, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की स्थापना ओम प्रकाश राजभर ने 27 अक्टूबर 2002 को महाराजा सुहेलदेव पार्क वाराणसी, उत्तर प्रदेश में अपने 27 अनुयायियों के साथ की थी। पहले इसका नाम भारतीय समाज पार्टी था बाद में सुहेलदेव जोड़ा गया।उन्होंने गुलामी छोड़ो समाज जोड़ो का नारा दिया और अपने देवी-देवताओं के प्रतीक के रूप में पीले सफा (पगड़ी) और पीले झंडे को अपनाया। उन्होंने एक-दूसरे के सम्मानदेने के लिए “जय सुहेलदेव” का अभिवादन अपनाया और राजभरलोगों को सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टीको राज्य की राजनीति के केंद्र में लानेका आवाहनकिया
इससे पहले के अपने राजनीतिक सफर में ओम प्रकाश राजभर मान्यवर कांशीराम से प्रभावित थे और 1980’s में बसपा के मेहनती कार्यकर्ता के रूप में शामिल हुए थे। बाद में 1996 में, वह बसपा के जिला अध्यक्ष वाराणसी बने। वह मान्यवर कांशी राम के विचारों का पालन कर रहे थे कि “हमें अपने इतिहास को जानना चाहिए और अपने पूर्वजों का सम्मान करना चाहिए और जो समुदाय कर रहे हैं वे खुद को विकसित नहीं कर सकते हैं।” वह मान्यवर कांशी राम के लोकप्रिय नारे “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिसेदारी” से बहुत प्रभावित थे। जब सुश्री मायावती (तत्कालीनमुख्यमंत्री) ने भदोही जिले का नाम बदल दिया तो उन्हें पीड़ा हुई। भदोही जिले का नाम संत कबीर नगर रख दिया। इस जिले का नाम उस क्षेत्र के भर राज से मिला, जिसकी राजधानी भदोही थी। ओम प्रकाश राजभर उस नाम परिवर्तन के खिलाफ थे जिन्होंने बसपा के भीतर अपनी आवाज उठाई और 2001 में पार्टी छोड़ दी और आगे सोनेलाल पटेल के अपना दल (पार्टी) में शामिल हो गए। जहां उन्हें फिर से भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। अंत में, उन्होंने 2002 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया।
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टीऔर राजभर पहचान व चेतना निर्माण
अपनी स्थापना से ही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में राजभर के लिए प्रमुख संगठन बन गई। पिछले 20 वर्षों में राजभर की पहचान निर्माण और चेतना उच्च स्तर पर विकसितहो रही है। यहापहचान व चेतना निर्माण की एक मजबूत लहर है, जिसमें राजभर जनता ने महाराजा सुहेलदेव जयंती और उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरी और साथ ही ग्रामीण क्षेत्रमें उनकी प्रतिमाओं की स्थापना का जश्न मनाना शुरू कर दिया। यहां एक बात विशेषहै कि राजभर समुदाय नौकरी और मजदूरी के लिए बड़े पैमाने पर मुंबई (महाराष्ट्र) की ओर पलायन करता रहा है। इसलिए, राजभर समुदाय के पहचान और चेतना के आंदोलन को मुंबई, महाराष्ट्र से गति मिली जहां भर शोध संस्थान ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने प्रारंभिक स्तर पर महाराजा सुहेलदेव जयंती मनाने की प्रवृत्ति शुरू की और इसे बड़े पैमाने पर विकसित किया। यही प्रथा उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय, के विशेष सन्दर्भ में पूर्वांचल में शुरु हुई। उन्होंने अपने धार्मिक स्थलों और घरों में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के पीले झंडे की मेजबानी की। पहचान निर्माण और राजनीतिक दावे की इस पूरी प्रक्रिया में महाराजा सुहेलदेव राजभर की मूर्तियों की स्थापना बहुत महत्वपूर्ण घटना है।
समानांतर आचार्य शिवप्रसाद सिंह राजभर, गोपीलाल चौधरी, शिवपार्सन राय, डॉ धनेश्वर राय, सुभाष प्रसाद और बीरबल राम द्वारा गठितराष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव ट्रस्ट ने मध्य और उत्तरी भारत में राजभर समुदाय के बीच चेतना और जागृति फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। राजभर के लोग आचार्य शिवप्रसाद सिंह राजभर को राजगुरु कहते हैं। उन्होंने राजभर के इतिहास पर आधा दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं और वे समुदाय में बहुत प्रसिद्ध हैं। एम बी राजभर और उनकी टीम नेमहाराजा सुहेलदेव की मूर्ति की स्थापना के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती से मुलाकात की, लेकिन उनकी सरकार बीच में ही गिर गई। इसकेबाद, यह पहल भारतीय जनता पार्टीऔर मुख्यमंत्री श्रीराजनाथ सिंह द्वारा की गई तथा सांसद श्री लालजी टंडन के प्रयासों ने 23 मई 1999 को लालबाग लखनऊ में महाराजा सुहेलदेव की प्रतिमा की स्थापना की।हाल ही में, भारतीय जनता पार्टीने महाराजा सुहेलदेव को राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित करने का गौरव पूर्णकदम उठाया। और श्रावस्ती जिले में उनकी प्रतिमा के शिलान्यास का नेतृत्व किया। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 16फरवरी 2021 को उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में महाराजा सुहेलदेव स्मारक और चित्तौरा झील के विकास की आधारशिला रखी, जो की राजभर पहचान और चेतना का नया प्रतिमान है।
सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टीऔरराजनीतिक सफलता
इसकी स्थापना से, सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टी ने पूर्वी यूपी की राजनीति में बहुत अहम भूमिका निभाई है। 2017 के राज्य विधानसभा चुनावों में, सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टीयूपी में गेम चेंजर के रूप में उभरा। राजनीति। सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टीअध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने बीजेपी के साथ गठबंधन करने का फैसला किया। इस चुनाव पूर्व गठबंधन के माध्यम से सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टी ने चुनाव में 4 सीटें जीतीं और ओम प्रकाश राजभर ने गाजीपुर जिले की जहूराबाद सीट से विधानसभाका चुनाव जीता और 2017 में मुख्यमंत्री आदित्य नाथ योगी के मंत्रिमंडल में पिछड़ा समुदाय कल्याण और विकलांग कल्याण मंत्री बने। श्री कैलाश नाथ सोनकर ने अजगरा वाराणसी, श्री त्रिवेणी राम ने गाजीपुर के जखानिया, श्री रामानंद बौध ने पूर्वी यूपी के कुशीनगर जिले के रामकोला से चुनावों में विजयहासिल की। सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टी के तहत, राजभर के नेताओं और जनता ने आवाज उठानी शुरू कर दी, अच्छी शिक्षा, नौकरी और आर्थिक स्थिरता की मांग की और अंत में राजनीतिक प्रतिनिधित्व मांगा। सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टीने राज्य विधानसभा चुनाव 2017 में अपनी पहचान बनाई और 2019 के संसदीय चुनाव जीतने के लिए भाजपा का समर्थन किया।
ओम प्रकाश राजभर अपनीमुखर राजनीति के लिए जाने जाते हैं। वे भारतीय जनतापार्टी से विधानसभा चुनाव 2022 से बहुत पहले, गठबंधन तोड़ चुके थे।तथासुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने अपने चुनाव का विगुसल अकेले ही फूका।03 अगस्त 2021 को उनकी बैठकभाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह से हुई और उन्होनें समान शिक्षा, गरीबों को मुफ्त चिकित्सा सुविधा, घरेलू बिजली बिल में छूट, शराबबंदी और सामाजिक न्याय रिपोर्ट का कार्यान्वयनशर्त रखीऐसा ना होने परउन्होंनेसमझौता नहीं किया। तथा भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया और छोटे दलो को बीजेपी के खिलाफलामबंद कियाजिसमेएआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीनओवैसी कोसामिल किया।बाद में ओम प्रकाश राजभर ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया।सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने 18 सीटों पर ओम प्रकाश राजभर के नेत्रत्व में 2022 का चुनावमज़बूतीसे लड़ा। सुहेलदेव भारतीय समाजपार्टीप्रमुख अपने बयानों के लिए बहुत चर्चा में रहे।ओम प्रकाश राजभर ने नारा दिया कियूपी में खदेड़ाहोबे।राज्य विधानसभा चुनाव 2022 मेंपार्टी6 सीटें जीतने में सफल रही है।ओम प्रकाश राजभर ने गाजीपुर जिले की जहूराबाद सीट से तथा जाफराबाद जौनपुर से जगदीश नारायण, महादेव बस्ती से दुधराम, जखनिया गाजीपुर से बेदी, मऊ से अब्बास अंसारी, बेलथरा रोड से हंसु रामने जीत हाशिल की।
यहा एक विशेष मुद्दा है कि राजभर लोगों को जुटाने और उनकेवोटों को स्थानांतरित करने के लिए भाजपा द्वारा उतारे गए उम्मीदवार सफल नहीं हुए और राजभर नेताओं काप्रयासनिश्फलरहाऔरचुनाव मेहार मिली।राजभर समाज का ज्यादातर वोट सपा–सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी गठबंधन को पोल हुआवशेष बसपा और बीजेपी को प्राप्त हुआ।
खोज और स्थापनाकी शुरुआत सेमहाराजा सुहेलदेव का गौरवशाली इतिहास, भर शोध संस्थान,राष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव ट्रस्ट वसुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने अपने 20 वर्ष के सक्रिय राजनीति में राजभर समाज को नई चेतना जागृति और पहचान दी है। राजभर समाज आज अपने समाजिक राजनीतिक व आर्थिक अधिकारो को प्राप्तकरविकसित हो रहा है।
मीडिया में खबर है कि ओम प्रकाश राजभर ने बीजेपी गठबंधन में शामिल होने के लिए गृह मंत्री और बीजेपी नेता अमित शाह से मुलाकात की है। अत:वर्त्तमान उत्तर प्रदेश में राजभर राजनीति का भविष्य पार्टीअध्यक्ष ओम प्रकाश राजभरवसुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी नेतृत्वकेनिर्णयोपर निर्भर करेगा।
– डॉ. संतोष कुमार, सहायक प्रोफेसर इतिहास, अमिटीविश्वविद्यालय, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
मामला अंधविश्वास से जुड़ा है या फिर इसके पीछे कोई आस्था है? आखिर लोग पैरों में काला धागा क्यों बांधते हैं? क्या काला धागा दलितों की पहचान के लिए है जैसे द्विज अपनी पहचान बताने के लिए जनेऊ पहनते हैं या फिर अपने हाथ में लाल रंग का धागा बंधवाते हैं? आखिर क्या है इसके पीछे की कहानी? यही मकसद रहा दलित लेखक संघ की अध्यक्ष अनिता भारती का जब दो दिन पहले उन्होंने अपने फेसबुक पर यह सवाल पूछा कि “आजकल हर कोई अपने पैर में काला धागा बांध कर रखता है। कोई इसका कारण बता सकता है?”
जाहिर तौर पर यह एक बुनियादी सवाल है। लेकिन लोगों ने अनिता भारती के सवाल का अजीबोगरीब जवाब दिये हैं। कुछ ने तो इसे पैर में दर्द का इलाज बताया है तो किसी ने किसी की काली नजर से बचने का नुस्खा। हालांकि अनेक ऐसे भी हैं जो इसे सीधे तौर पर खारिज करते हैं और अंधविश्वास करार देते हैं। मसलन, डॉ. शशिधर मेहता इसे टोटका करार देते हैं। वहीं संतोष पटेल की नजर में यह अंधविश्वास है। वहीं सूरज बड़तिया नामक एक शख्स ने मजाकिया लहजे में कहा है – “काला धागा बांधने से अच्छे सपने आते हैं और विदेश जाने की हिम्मत आती है। मैं तो पूरे शरीर में बांधता हूँ”
यह तो अनिता भारती के उपरोक्त सवाल के जवाबों की शुरूआत मात्र है। राजेंद्र कुमार नामक एक व्यक्ति ने कहा है – “ये तो अछूतो की पहचान थी। अब फटे कपड़े काला धागा दिमाग कम की पहचान है।” वहीं जोगपाल सिंह नामक एक व्यक्ति ने थोड़ा विस्तार से लिखा है– “जब देश में मनु स्मृति लागू था तो तब शूद्र जातियों को ब्राह्मणो का आदेश था कि वे लोग पैर में काले धागे में घुंघरू डालकर ही पहनकर अपने घरों से बाहर निकलेंगे, क्योकि जब शूद्र निकलते थे तो उनके पैर में बंधे घुंघरू की आवाज सुनकर ब्राह्मण लोग अपने घरों में चले जाते थे। क्योंकि शूद्रों को उच्च जाति के लोगो के सामने निकलने की अनुमति उस काल में नही थी। आज भी शूद्र लोग मानसिक रूप से गुलाम है जो उसी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।”
बहरहाल, यह यह एक महत्वपूर्ण सवाल है कि काला धागा बांधने का मतलब क्या है? सबसे महत्वपूर्ण यह कि इसे अब फैशन कहा जाने लगा है और अंधविश्वास तो खैर वजह है ही।
बिहार में सियासी खेल अब भी जारी हैं। बोचहां विधानसभा क्षेत्र में होनेवाले उपचुनाव को लेकर पहले तो मुकेश सहनी ने एनडीए में रहते हुए भाजपा को आंख दिखाते हुए राजद के कद्दावर मंत्री रहे रमई राम की बेटी डॉ. गीता राम को अपना उम्मीदवार बना दिया। वहीं अब उनकी पार्टी के तीन विधायकों ने मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी को छोड़ दिया है और अपना समर्थन भाजपा को दे दिया है। इन तीन विधायकों में एक मिश्रीलाल यादव भी शामिल हैं।
अब सवाल उठता है कि मुकेश सहनी का क्या होगा? वजह यह कि मुकेश सहनी फिलहाल बिहार सरकार में मंत्री हैं? अब जबकि उनके विधायकों ने पाला बदल लिया है तो क्या वे मंत्री पद से इस्तीफा देंगे?
दरअसल, भाजपा मुकेश सहनी से लगातार नाराज चल रही है। उसकी यह नाराजगी तब से है जब यूपी चुनाव में मुकेश साहनी ने अपने उम्मीदवार उतारे। तब भाजपा ने इसे गठबंधन धर्म का अपमान करार दिया था। हालांकि भाजपा ने जदयू के द्वारा यूपी में अलग होकर चुनाव लड़ने के संबंध में कोई टिप्पणी नहीं की थी। इसकी वजह संभवत: यह कि मुकेश सहनी प्रारंभ से ही एनडीए के सबसे कमजोर कड़ी रहे क्योंकि वह स्वयं विधानसभा का चुनाव जीत नहीं सके थे और एनडीए ने इसके बावजूद उन्हें मंत्री पद दिया था।
अब ऐसे में भाजपा जो कि बिहार में एनडीए का सबसे बड़ा घटक दल है, उसे विश्वास था कि मुकेश सहनी भाजपा को आगे बढ़ाने में मदद करेंगे। लेकिन मुकेश सहनी की पहचान एक महत्वाकांक्षी राजनेता की रही है। वे अपने आधार मतदाताओं को हर हाल में अपने पास रखना चाहते हैं, तो ऐसे में उन्होंने चुपचाप मंत्री पद पर बने रहने की बजाय राजनीति को तवज्जो दी।
इस बीच कई बार ऐसे मौके आए जब लगा कि मुकेश सहनी राजद के साथ चले जाएंगे। लेकिन राजद ने तो उनके लिए पहले ही अपने दरवाजे बंद कर लिया था। बोचहां उपचुनाव में ही राजद ने मुकेश सहनी को बड़ा झटका देते हुए उसके उम्मीदवार अमर पासवान को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया।
बहरहाल, मुकेश सहनी का क्या होगा, यह तो आनेवाला समय ही बताएगा। परंतु, बिहार की राजनीति में जिस तरह से भाजपा अपना कद बढ़ाते जा रही है, वह नीतीश कुमार के लिए खतरे की घंटी ही है।
क्या मुसलमान अपराधी और हिंसक हैं? इसका एक ताजा उदाहरण तो यह है कि हाल में उत्तर प्रदेश में, दो राजनैतिक दलों ने 66 अपराधी राजनेताओं की सूची जारी की है, जिनमें मुस्लिम नेताओं की संख्या सिर्फ पाँच हैं। इसमें भी रामपुर के मोहम्मद आज़म खाँ का नाम सिर्फ इसलिये है कि उन्होंने अपनी एक तकरीर में भारत माँ को डायन कहा था ।
राजनीति को हम अपने विषय का प्रतिपाद्य इसलिये नहीं बना सकते कि राजनीति का अपराधीकरण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गये हैं ।
अत: सच तो यह है कि अपराधी की कोई जाति और कोई धर्म नहीं होता । अपराधी और हिंसक प्रवृत्ति के लोग हर वर्ग और हर समुदाय में मिल जायेंगे । उन्हें किसी वर्ग विशेष या धर्म विशेष से जोड़कर देखना एक ऐसा घृणित सिद्धान्त है, जो एक खतरनाक सांप्रदायिकता को जन्म देता है । हिन्दुओं का यह कहना कि मुसलमान अपराधी और हिंसक होते हैं , मुख्यत: विद्वेष की राजनीति पर आधारित है । यदि हम तथ्यों का निष्पक्ष विश्लेषण करें , तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हिन्दू दृष्टिकोण निराधार है ।
भारत में मुसलमानों की आबादी 12 प्रतिशत के करीब है और सम्पूर्ण मुस्लिम आबादी का 71.2 प्रतिशत भाग गांवों में रहता है । नगरों में उनकी आबादी सिर्फ 17.8 प्रतिशत है । मुरादाबाद और अलीगढ़ आदि कुछ शहरों में उनकी जनसंख्या 27 प्रतिशत से अधिक होने के कारण उन्हें नागरी समाज मान लिया गया है, जो ग़लत है । मुसलमानों में शिक्षा की बद्तर स्थिति है । अधिकांश मुसलमान अशिक्षित हैं,जो मजदूरी करके जीवन यापन करते हैं । एक विद्वान ने लिखा है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में मुसलमान या तो मजदूर हैं या कृषि से जुड़े छोटे-छोटे व्यवसाय में हैं । उनके व्यवसाय भी उनके हुनर से जुड़े हैं ।ये शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े और आर्थिक दृष्टि से ग़रीबी की रेखा के नीचे आते हैं । क्या ये मजदूर और दस्तकार मुसलमान हिंसक हो सकते हैं ? वह भी उस स्थिति में, जब उनके व्यवसाय हिन्दुओं पर निर्भर करते हैं ?
हिन्दू पंडितों का चिंतन इस तथ्य की सदैव उपेक्षा करता है कि हिन्दू धर्म ने वर्णव्यवस्था के अंतर्गत एक वर्ग विशेष को धन-सम्पत्ति अर्जित करने का अधिकार देकर अपराध और हिंसा को न केवल जन्म दिया है, अपितु उसको वैधानिक स्वरूप भी दिया है । वर्णव्यवस्था के उल्लंघन पर निम्न वर्ग के लोगों के लिये हिन्दू मानस का विधान ‘मनुस्मृति’, जो आज भी गांवों में हिन्दुओं के नीजी कानून के रूप में व्यवहार में है, कितने हिंसक और क्रूरतम आदेश देती है, यह नीचे दिये गये कुछ नमूमों से मालूम हो जायेगा –
“यदि अधम जाति शूद्र ऊंची जाति के कर्मों को करके धन कमाने लगे, तो राजा उसका सब धन छीन कर उसे देश से निकाल दे !”
“ बिल्ली, नेवला, चिड़िया, मेढक, कुत्त, उल्लू और कौए की हत्या में जितना पाप लगता है , उतना ही शूद्र की हत्या में होता है ।
“यदि शूद्र कठोर शब्द कहे तो, उसकी जीभ काट दें ।यदि वह ऊंची जातियों के नाम और जाति का नाम द्रोह से ले तो उसके मुंह में जलती हुई दस अंगुल की कील ठोंक दें । यदि वह अहंकार से ब्राह्मण को धर्म सिखाये, तो उसके मुंह और कान में गरम तेल डाल दें । यदि वह ऊंची जातियों के बराबर आसन पर बैठने की इच्छा करे, तो राजा उसकी कमर दाग़ कर देश से निकाल दें या उसके चूतड़ कटवा दें।”
इन्हीं हिंसक आदेशों के कारण हिन्दुओं को दलितों का उत्थान बरदाश्त नहीं है और वे निरन्न्तर उनको अपनी हिंसा से दबाते रहते हैं । क्या हिन्दुओं की भाँति मुसलमानों को दूसरे मनुष्य पर महज़ इसलिये अत्याचार करने का इस्लाम आदेश देता है कि वे उन्हीं जैसे समान अधिकार चाहते हैं ?
सितम्बर 1990 में करनैल गंज (गौण्डा) के दंगों, अक्टूबर व नवम्बर 1990 में अयोध्या में कारसेवा के बाद भड़के दंगों, नवम्बर 1991 में बनारस के मदनपुरा में हुए दंगों की रिपोर्ट पूर्ण रूप से हिन्दू-आक्रामाकता को ही प्रमाणित करती है । इन दंगों में जिस क्रूर और बर्बर तरीकों से मुसलमान बूढ़े, बच्चों और औरतों का कत्लेआम हुआ, वह अत्यंत मार्मिक, हृदयविदारक और आतंकित कर देने वाला है । वह मनुष्यता के लिये अभिशाप और हिन्दुत्व का वह रूप है, जिसके लिये हिंसक और अपराधी शब्द भी छोटे लगते हैं । उसे यदि कोई सार्थक नाम दिया जा सकता है, तो वह ‘आतंक’ के सिवा दूसरा नहीं हो सकता ।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमान अतिवादी नहीं हैं ।यह कहना भी उचित नहीं होगा कि मुसलमानों ने दंगों में हिंसक भूमिका नहीं निभायी । किन्तु, इस सच को भी स्मरण रखना होगा कि मुस्लिम-हिंसा प्रतिरक्षा के अर्थ में उत्पन्न हुई है ।
दंगे सिर्फ मुसलमानों को तबाह और बरबाद करने की साजिश होते हैं । प्रमाण इससे अधिक और क्या हो सकता है कि सभी दंगों में हिन्दुओं के सारे हमले मुसलमानों के कारोबारों पर हुए । बनारस का मदनपुरा मौहल्ला मुसलमानों का साड़ी उद्योग का प्रमुख केंद्र था और एक पत्रकार की रिपोर्ट है कि हिन्दुओं ने उस केंद्र को तबाह करने के इरादे से ही बनारस में दंगे की योजना बनायी थी ।” इस आधार पर, मुसलमान , जैसा कि असगर अली इंजीनियर का कथन है , “यह सोचने पर मजबूर करता है कि साम्प्रदायिक तत्व आर्थिक रूप से उसे कभी भी उभरने नहीं देंगें ।” वह आगे कहते हैं –
“ आज मुस्लिम समुदाय स्वंय को चारों ओर से घिरा हुआ महसूस कर रहा है । बहुसंख्यक वर्ग का छोटा सा, किन्तु सशक्त और संगठित साम्प्रदायिक वर्ग दिन-प्रतिदिन आक्रामक और हिंसक रुख अपना रहा है। उनमें मौजूद धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शक्तियाँ कमजोर पड़ रही हैं । मुसलमानों के इतिहास, रहन-सहन रीति-रिवाज और कई मामलों में धार्मिक आचरण पर भी हमले हो रहे हैं ।”
ऐसी स्थिति में , अपनी पहचान बनाये रखने अपने व्यवसायों की असुरक्षा की दृष्टि से हिन्दू आक्रामकता का सामना करना मुसलमानों की स्वभाविक नहीं, तात्कालिक आवश्यकता है । इस आवश्यकता को, उनकी चारित्रिक हिंसा कहना उन्हें बदनाम करने की ही एक खतरनाक साजिश है ।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आजमगढ़ लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया है। मंगलवार को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से मिलकर उन्होंने अपना इस्तीफा सौंप दिया। उनके अलावा उनकी पार्टी के कद्दावर नेता आजम खान ने भी रामपुर लोकसभा सीट से इस्तीफा दे दिया है। ये दोनों हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में विजयी रहे हैं। अब अखिलेश विधानसभा में करहल विधानसभा क्षेत्र और आजम खान रामपुर के विधायक के रूप में सदस्य रहेंगे। हालांकि यह तय है कि इस बार विपक्ष की कमान अखिलेश यादव के हाथों में रहेगी।
बताते चलें कि अखिलेश यादव ने विधान सभा चुनाव में करहल सीट से बीजेपी के उम्मीदवार और केंद्रीय मंत्री एसपी सिंह बघेल को 67,504 वोटों के अंतर से हराया। इस चुनाव में अखिलेश यादव को 1,48,196 वोट मिले तो वहीं एसपी सिंह बघेल ने 80,692 वोट हासिल किए।
दरअसल, पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि अखिलेश यूपी की सियासत को मझधार में छोड़ दिल्ली की सियासत करेंगे और विधानसभा में विपक्ष की कुर्सी पर अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को बिठाएंगे। सूत्र बताते हैं कि इसे लेकर पार्टी में तेज हलचल थी। पार्टी के लोगों का कहना था कि अखिलेश की लीडरशिप में सपा गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया। यह इसके बावजूद कि गठबंधन भाजपा को सत्ता में आने नहीं रोक सकी और 125 सीटों पर सिमट गयी। दल के लोगों का कहना था कि सपा प्रमुख ने सूबे की जनता में यह विश्वास जगाया है कि भाजपा राज का खात्मा किया जा सकता है।
बहरहाल, सांसद पद से अखिलेश यादव के इस्तीफे के बाद यह तो साफ हो गया है कि इस बार योगी आदित्यनाथ की सरकार को विधानसभा में मजबूत विपक्ष का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा अखिलेश के निशाने पर वर्ष 2024 में होनेवाला लोकसभा चुनाव है। उनकी यह कोशिश रहेगी कि भाजपा को यूपी में हराया जाय। यदि भाजपा यूपी में हारती है तो निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी हुकूमत के लिए मुश्किलें होंगी।
बुद्ध ने दुनिया को अपने अहिंसा और करुणा के प्रकाश से आलोकित किया था। उनकी विचारधारा को सबसे अधिक महान सम्राट असोक ने फैलाया। आज भी विश्व के कई हिस्से में सम्राट असोक के कार्यों की निशानियां मौजूद हैं। भारत भर में इसके प्रमाण असोक स्तंभों के रूप में देखने को मिल जाता है। इसके अलावा अनेक मठ और बौद्ध विहार भी हैं, जिनका निर्माण असोक ने कराया था।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि सम्राट असोक के नाम पर भी एक बौद्ध मंदिर है जो कि असोक के महान कार्यों की निशानी है? जाहिर तौर पर यह जानकारी बहुत खास है और बहुजनों के लिए गौरवशाली है।
एक ऐसे ही निशानी की बात प्रसिद्ध बौद्ध धर्म विशेषज्ञ व भाषा वैज्ञानिक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने साझा की है। उन्होंने चीन के झेजियांग प्रांत के निंग्बो में भारत के महान सम्राट असोक के मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। उनके अनुसार, यह खूबसूरत मंदिर ईसा की तीसरी सदी है।
राजेंद्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि इस मंदिर पर सम्राट असोक का नाम चीन के सम्राट लियांग वुडी ( 502-549 ई. ) ने लिखवाया था। उनके मुताबिक, लियांग वुडी को चीन का ” सम्राट असोक ” कहा जाता है।
इसके पीछे की वजह बताते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते हैं कि ऐसा इसलिए कि लियांग वुडी ने सम्राट असोक के मार्ग को अपनाया था। सम्राट असोक की तरह ही लियांग वुडी ने चीन में बौद्ध मठ बनवाए, बौद्ध संघ में शामिल हुए और बुद्धिज्म पर व्याख्यान दिए।
यहां तक कि सम्राट असोक के मार्ग पर चलते हुए लियांग वुडी ने चीन में पशु – बलि रोक दिया, मृत्युदंड खत्म किए और “बोधिसत्व राजा” कहलाए। राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार, भारत के इतिहास में सम्राट असोक पहले राजा हैं, जिनके मार्ग पर चलने के लिए दुनिया के अनेक राजा लालायित हुए, जिनमें एक नाम बर्मा के राजा धम्मचेती का भी है।
पंजाब में चुनाव के पहले कांग्रेस के जीतने का पूरा माहौल था। चरणजीत सिंह चन्नी की देश में बड़ी छवि बन गई थी। पूरे देश से आवाज आ रही थी कि कांग्रेस पंजाब में वापसी करेगी।आम आदमी पार्टी टक्कर में तो थी जरूर लेकिन 2017 के मुकाबले में नहीं, देश में एक आवाज़ गई कि गांधी परिवार में दिल है कि एक दलित को अहम सूबे का सीएम बनाया। राष्ट्रपति या राज्यपाल बनना बड़ी बात नहीं रह गई , समय अंतराल इनकी शक्तियां कम हुई हैं।
जैसे चन्नी सीएम बने सिद्धू उनसे ऐसा व्यवहार किए जैसे कि कोई जूनियर हो । यह दलितों को बर्दास्त नहीं हुआ। जब तक चन्नी संभलें तब तक कुछ क्षति हो चुकी थी। माना कि दलितों की आबादी करीब 36 % है लेकिन ये बटे हुए हैं। इनका ही वोट पड़ जाता तो भी कांग्रेस जीत जाती। सवाल बनता है दूसरी जातियां तो अपने नेता के साथ फौरन चली जाती हैं तो दलित क्यों नही? सदियों से हुकुम मानने वाले जल्दी से अपनों को नेता नहीं मानते। बहुजन आंदोलन से दलितों में विभाजन बढ़ा है और पंजाब में रामदासिया बनाम मुजहबी का फैसला बाध्य। दूसरी बात अब वो दलित नहीं रह गए की जब चाहो भेड़ की तरह पीछे लगा लो। कैप्टन अमरिन्दर सिंह के समय में दलितों के साथ न्याय नहीं हुआ था।कैप्टन अमरिन्दर सिंह मंत्रियों और विधायकों तक से नही मिलते थे । राज-काज नौकरशाही चला रही थी।
सबसे ज्यादा क्षति नवजोत सिंह सिद्धू ने किया। बाहर की आलोचना से जनता इतनी जल्दी यकीन नहीं करती लेकिन जब प्रदेश का मुखिया ही ऐसा करे तो क्यों यकीन न करें? जो भी सरकार घोषणा करती थी विपक्ष से पहले प्रदेश अध्यक्ष ही हवा निकाल देते थे।उनकी बेटी ने भी चन्नी पर प्रहार किया। इससे यह भी संदेश गया कि चन्नी दलित हैं, वे क्या करेगें? जातिवादी मानसिकता उभारने में सिद्धू के बयान सहयोगी सिद्ध हुए । सवर्ण जातियों ने सोचा कि पहले चन्नी को निपटा लो और भगवंत सिंह मान , जो जट सिख से थे उन्हें वोट दिया ।
सुनील जाखड़ जब अध्यक्ष थे तो कभी भी पार्टी ऑफिस आते नही थे। संगठन के स्तर पर स्थिति बड़ी खराब थी। दूसरे प्रदेश से आए कार्यकर्ता चुनाव लड़ा रहे थे। उम्मीदवार गलत चुने गए। बाहर से प्रचार करने गए उनका वहां के समाज से जुड़ाव नही था।जिनका वहां के समाज से लेना देना न था वो प्रचार किए और मीडिया को संबोधित किए। देखकर आश्चर्य हुआ था ।पंजाब के प्रभारी मिलते ही नही थे।दिल्ली के हजारों ऑटो – ट्रांसपोर्ट पंजाब में जाकर आप के झूठों का पर्दाफाश करना चाहते थे लेकिन पंजाब प्रदेश के नेतृत्व का सहयोग नही मिला।वे इतना ही चाहते थे कि पंजाब में किससे समन्नव स्थापित करें और कहां प्रचार करें।
बीएसपी को अच्छा वोट मिला है और प्रदेश स्तर पर वोट की क्षति इसलिए भी हो सकी कि जहां वो नही लड़ी अकाली दल को वोट दिला सके। राजनैतिक बयानबाजी तो हुई लेकिन अंबेडकरी दलित से संवाद न किया जा सका। उनको सही संदेश न दिया जा सका कि यह चुनाव संविधान, आरक्षण और बाबा साहब डॉ अंबेडकर की विरासत बचाने का है। पब्लिक मीटिंग न करके कर्मचारी-अधिकारी और आंबेडकरी दलित से आमने सामने संवाद करना चाहिए था।
चरणजीत सिंह चन्नी को हराने के लिए न केवल पार्टी के नेताओं ने प्रयास किया बल्कि बाह्य शक्तियां भी पूरा जोर लगा रहीं थी। जिस दिन से दलित को राहुल गांधी जी ने मुख्यमंत्री बनाया तो पूरा कांग्रेस निशाने पर आ गई। चन्नी की सफलता से राहुल गांधी जी का नेतृत्व मजबूत होता जो हर हाल में बीजेपी को मंजूर नही है। कुछ कांग्रेस के बड़े नेताओं को भी मंजूर नही था।कभी-कभी जनता के भोलेपन पर आश्चर्य होता है कि क्यों मोदी जी और बीजेपी राहुल गांधी पर ही बार-बार हमला करते हैं? जनता क्या देख नहीं रही है कि राहुल गांधी ही ऐसे नेता हैं जो गत 8 साल से प्रत्येक मुद्दे पर बीजेपी को घेरते हैं। बेरोजगारी, कोरोना की मार , महंगाई और आर्थिक असमानता की बात करते रहे। चीन के अतिक्रमण पर कोई और नेता नहीं बोला।विकास की समझ मोदी जी या बीजेपी के किसी नेता में राहुल गांधी के करीब भी नहीं है। इनका कोई नेता भी राहुल गांधी से दस मिनट तक संवाद नही कर सकता। इन्हे आता क्या है हिंदू -मुस्लिम , झूठ बोलना और चालाकी के अलावा। बीजेपी को परेशानी ज्यादा हुई कहीं दलित सीएम का मॉडल सफल हुआ तो पूरे देश में मांग बढ़ेगी कि इनको भी ऐसा करना चाहिए , हो सकता है बड़े राज्य जैसे उप्र में ऐसी मांग उठ जाए। इससे काग्रेस का विस्तार होना शुरू हो जाए। किसानों को नीचा दिखाना और अपने निर्णय को सही साबित करने के लिए कांग्रेस को हराना और आप को जिताने से ऐसा संदेश भेजा गया कि किसान आंदोलन से कुछ फर्क नहीं पड़ा। उप्र का चुनाव बीजेपी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था और पंजाब में हेरा-फेरी करते तो लोग शक करते, इसलिए आम आदमी पार्टी की जीत कराने में मदद किया। अरविंद केजरीवाल कह चुके हैं कि उनका खान दान संघी रहा है और वे भी हैं। कौन नहीं जानता कि अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे बीजेपी का हाथ रहा। आप के मजबूत होने से मोदी का कांग्रेस मुक्त लक्ष्य की प्राप्ति का एजेंडा छुपा हुआ है। बीजेपी आम आदमी पार्टी से कांग्रेस को कमजोर करवा रही । आम आदमी पार्टी को मीडिया के माध्यम से चर्चा करा रही है कि कांग्रेस का विकल्प आम आदमी पार्टी है। मुसलमान और दलित दोनो कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर जनाधार हैं कुछ राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश , बिहार और बंगाल छोड़कर। चन्नी को हराकर यह भी संदेश देने की कोशिश है कि दलित नैया पार नहीं लगा सकते। वास्तव यह मनोवैज्ञानिक खेल है और कांग्रेस को फिर से जोड़ने का प्रयास तेज करना चाहिए।जब बीएसपी खत्म हो रही है तो इससे अच्छा अवसर क्या हो सकता है। कुल मिलाकर चन्नी हारे नही बल्कि हराया गया।
हमारे दौर मे युवाल नोवा हरारी अपनी किताबों मे इस बात को बहुत अच्छे से समझा चुके हैं कि इंसानियत के सामने वास्तविक खतरे कौनसे होते हैं और इंसानियत उनसे बचने के लिए क्या क्या करती आई है। पिछले 70 सालों मे परमाणु हथियारों ने जो खतरा पैदा किया उसके नतीजे मे ग्लोबलाइज्ड दुनिया के राजनेताओं ने एक नए ढंग की राजनीति, कूटनीति और आर्थिक उपकरणों का निर्माण कर लिया है। शीत युद्ध और आतंकवाद जैसी नई रचनाओं सहित अन्य नयी राजनीतिक आर्थिक रचनाओं ने परमाणु युद्ध से जन्मी सामूहिक आत्मघात की चुनौती को लगोबल कोआपरैशन के एक नए अवसर मे तब्दील कर दिया है।
इसीलिए आज हम बचे हुए हैं।
लेकिन अब अगला खतरा वैश्विक महामारियों और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस सहित बायोटेक्नोलॉजी की तरफ से आ रहा है। यह सबसे बड़ा खतरा साबित होने वाला है। इसका इलाज राजनेताओं या अर्थशास्त्रियों के पास नहीं है। यह खतरा असल मे नए इलाजों की मांग करता है। पहली बार महामारियाँ और बायोटेक्नोलॉजी हमें उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर रही हैं जहां इंसानी समाज के सभ्यता बोध और नैतिकता बोध पर सब कुछ निर्भर हो जाने वाला है।
इसीलिए अब धर्म दर्शन और इश्वर सहित मन और चेतना कि बहस पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण होती जा रही है। बाबा साहब अंबेडकर ने साठ साल पहले भारत मे एक नए धर्म की जरूरत पहले ही रेखांकित कर दी थी।
आइए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
पूरी दुनिया के गंभीर विचारक और दार्शनिक अब चेतना, विवेक, बुद्धि, नैतिकता, सभ्यता और चेतना के क्रमविकास (?) की बहस पर बहुत ज्यादा जोर दे रहे हैं। पिछली शताब्दी मे जिद्दू कृष्णमूर्ति ने साफ तौर से कहा है कि मनुष्य का शारीरिक विकास जरूर हुआ है लेकिन मन या चेतना का कोई विकास नहीं हुआ है। आज भी वही क्रोध, वही लोभ, वही घृणा और वही सब कुछ इंसान की चेतना को घेरे हुए है। कृष्णमूर्ति ने डेविड बोहेम और पुपुल जयकर सहित मेरी ल्यूटीयन आदि से अपनी गंभीर चर्चाओं मे यह बात बार बार कही है कि मनुष्य की चेतना मे ज्ञात इतिहास की सैकड़ों शताब्दियों मे कोई बदलाव नहीं आया है। जो थोड़ा बहुत बदलाव दिखता है वह ऊपर ऊपर का बदलाव है। वह बदलाव असल मे व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा की आवश्यकता के कारण किसी खतरे को दी जाने वाली प्रतिक्रिया भर है।
गौतम बुद्ध ने इस बात को एक अलग ढंग से रखा था। उन्होंने चेतना को परिभाषित किए बिना मन और स्व (सेल्फ) को परिभाषित किया। बुद्ध का रास्ता ज्यादा प्रेक्टिकल है। बुद्ध ने चेतना को उसे कार्यान्वित करने वाले उपकरण – मन या स्व या सेल्फ के जरिए पड़ना सिखाया। चेतना इतनी अमूर्त और वायवीय चीज है कि उसे थीओराइज़ करते हुए सभ्यताएं और धर्म तक फिसल जाते हैं। गौतम बुद्ध इसीलिए अपने धम्म का आधार मन या सेल्फ की इन्क्वायरी (खोज) पर रखते हैं। आगे चलकर जिद्दू कृष्णमूर्ति इस बात को विकसित करते हैं। आज युवाल नोवा हरारी भी एक विपश्यना साधक की तरह बुद्ध और कृष्णमूर्ति की दिशा मे कदम बढ़ाते नजर या रहे हैं। हरारी के वक्तव्यों मे चेतना मन और नैतिकता ही नहीं बल्कि एथिक्स और स्पिरिचुआलिटी के नए सूत्र मिल रहे हैं।
दो विश्वयुद्धों के बाद और विशेष रूप से केपटलिज़्म की छाया मे जन्म ले रहे फासीवाद के खतरों के बीच अब नैतिकता या सभ्यता कोई किताबी बातें नहीं रह गयी हैं। सभी मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक कह रहे हैं कि जिन समाजों के पास सभ्यता और नैतिकता नहीं है वे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और बायोटेक्नोलॉजी के द्वारा बहुत तेजी से आत्महत्या करने लगेंगे। नई टेक्नोलॉजी जिस महान शक्ति को जन्म देगी उसे इस्तेमाल करने वाले लोग अगर धर्म जाति लिंग रंग आदि की धारणाओं से ऊपर उठकर नहीं सोच पाएंगे तो वे पूरी दुनिया को खत्म कर डालेंगे।
भारत का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ के ईश्वरवादी धर्मों ने जिस तरह के ईश्वर की कल्पना की वह नीति और नैतिकता सहित सामान्य सदाचार का भी सम्मान नहीं करता। वह खुद इंसान को चार श्रेणियों मे विभक्त करके प्राकृतिक न्याय और नैतिकता के जन्म की संभावना को पहले ही बिन्दु पर मार डालता है।
हिटलर और मुसोलिनी को याद कीजिए। उनके पास विज्ञान की जो शक्ति थी उसका उन्होंने क्या इस्तेमाल किया? आजकल की टेक्नोलॉजी उस जमाने से बहुत ज्यादा आगे निकाल गयी है। शहरी जीवन मे और विशेष रूप से ग्लोबलाइज्ड दुनिया मे अब आपके समाज मे नैतिकता बोध और समानता का बोध नहीं है तो आपका समाज महामारियों और आपदा से सबसे पहले मरेगा। पुराने जमाने मे जब जंगलों और गांवों मे जीवन सरल था तब आप असभ्य और अनैतिक बने रहते हुए बचे रह सकते थे। लेकिन अब आप उसी पुराने ढंग से नहीं जी सकते। जिस तरह टेक्नोलॉजी का विकास होता है उसी तरह समाज मे धर्म और सभ्यता का विकास भी होते रहना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत के समाज और सार्वजनिक जीवन मे सभ्यता और नैतिकता का बोध लगभग खत्म हो गया है।
इसलिए भारत का समाज अब बहुत खतरनाक स्थिति मे आ चुका है।
एक सरल सी ग्रामीण और वनवासी (वानर) अवस्था मे नैतिकता और सभ्यता की समस्याओं को इग्नोर किया जा सकता था। कई बार यह जरूरी भी नजर आता था। इसीलिए आदिम समुदायों मे नीति, नैतिकता और सभ्यता के कोडीफाइड सूत्र या शास्त्र नहीं जन्मे थे। लेकिन प्राचीन भारत मे नगरीय सभ्यता के उदय के बाद और यूरोप मे नेशन स्टेट के जन्म के बाद नीति नैतिकता और एथिक्स की दार्शनिक बहस ने एकदम से राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया था और दर्शनशास्त्र ही नहीं बल्कि धर्म भी परलोक की बजाय इहलोक के प्रश्नों पर अधिक केंद्रित होता गया। सम्राट अशोक के प्रस्तर स्तंभ नीति और नैतिकता की खबर देते हैं। हज़रत मूसा के टेन कमांडमेंट्स भी नीति के सूत्र है।
भारत का दुर्भाग्य यह रहा कि विश्व की पहली नगरीय सभ्यता (हरप्पा) और दूसरी नगरीय सभ्यता (मगध) मे जन्मी नैतिकता और धर्म को बर्बर आर्यों के धर्म ने नष्ट कर दिया और एक भौतिकवादी ज्ञान की भित्ति पर जन्म ले रही जैन और बौद्ध श्रमण परंपराओं को अपने ही जन्म स्थान पर खत्म कर दिया। इसके बाद ग्रामीण और भेदभाव मूलक वैदिक सभ्यता ने अपनी जहरीली शिक्षाओं से भारत मे विज्ञान और सभ्यता के विकास की संभावना का गर्भपात कर दिया।
यूरोप का सौभाग्य रहा कि वहाँ एसे ईश्वर की कल्पना ने जन्म लिया जिसके लिए नीति और नैतिकता का मूल्य भक्ति और मुक्ति से भी अधिक था। भारत के ईश्वरवादी धर्मों मे ईशकृपा, गुरुकृपा और मोक्ष आदि का मूल्य नैतिकता और मनुष्यता से भी अधिक हो गया।
यद्यपि जैन और बौद्ध धर्म जैसे अनीश्वरवादी धर्मों मे नीति नियम और विनय सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे लेकिन उनके पतन के बाद नैतिकता और सभ्यता का भी पतन हो गया।
सौभाग्य से यूरोप मे जिस इसाइयत का जन्म हुआ वह जीसस की हत्या से जन्मी आत्मग्लानि पर खड़ी नैतिकता के बोध पर टिकी थी। भारत मे जो ब्राह्मण धर्म जन्मा वह गैर ब्राह्मणों से घृणा और सोशल डिस्टेंस के आग्रह पर टिका था। यूरोप की इसाइयत ओरिजिनल सिन और जीसस की हत्या के दो नैतिक आघातों की प्रतिक्रिया मे जन्मी और इसीलिए इसाइयत एक नए ढंग की नैतिकता का निर्माण कर सकी जो कि भारत के किसी भी ईश्वरवादी धर्म मे नहीं थी।
अनीश्वरवादी जैन और बौद्ध धर्म मे यह नैतिकता अपने सबसे विकसित स्वरूप मे मौजूद थी। इसी जैन नैतिकता ने एक तरफ श्रीमद राजचन्द्र के जरिए और दूसरी तरफ जॉन रस्किन के जरिए मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनाया था। जॉन रस्किन ने बाइबल मे वर्णित अंगूर के बागान के मजदूरों की कहानी और जीसस की शिक्षाओं के आधार पर जिस ‘सामाजिक अर्थनीति’ की कल्पना दी वह ईसाई नैतिकता पर खड़ी थी। इसने गांधी को बहुत प्रभावित किया और गांधी ने इसे सर्वोदय की कल्पना का आधार बनाया।
भारत का दुर्भाग्य यह है कि यहाँ के ईश्वरवादी धर्मों ने जिस तरह के ईश्वर की कल्पना की वह नीति और नैतिकता सहित सामान्य सदाचार का भी सम्मान नहीं करता। वह खुद इंसान को चार श्रेणियों मे विभक्त करके प्राकृतिक न्याय और नैतिकता के जन्म की संभावना को पहले ही बिन्दु पर मार डालता है। ईसाइयों का गॉड और इस्लाम का अल्लाह सभी इंसानों को बराबरी का दर्जा देता है। ईसाई गॉड तो बाइबल के जरिए यह भी कहता है कि गॉड ने इंसान को अपनी शक्ल मे बनाया है। इसी बात को आधार बनाकर प्रोटेस्टेंट सुधारकों ने चर्च की सत्ता को ही नहीं बल्कि पारंपरिक थियोलॉजी को भी कड़ी चुनौती दी। प्रोटेस्टेंट इसाइयत की नयी धारा ने ज्ञान विज्ञान और शिक्षा सहित समाज सेवा को आगे बढ़ाने मे बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इधर भारत मे शिक्षा को मुट्ठीभर लोगों तक सीमित कर दिया गया। रोजगार के अवसरों को जाति व्यवस्था की लोहे की दीवारों मे बांध दिया गया। यूरोप मे चूंकि सभी मनुष्य ईश्वर की बराबरी की संताने थे इसलिए वे अपने रोजगार ही नहीं अपने जीवनसाथी चुनने के लिए भी स्वतंत्र थे। इस स्वतंत्रता ने ज्ञान विज्ञान और नैतिकता सहित सभ्यता के विकास का रास्ता खोल दिया। लेकिन भारत मे विवाह और रोजगार को जाति और वर्ण व्यवस्था ने छोटे छोटे डब्बों मे बंद करके ज्ञान विज्ञान और सभ्यता के जन्म की संभावना को खत्म कर दिया।
ईश्वर की धारणा, ईश्वर के नैतिकता और नीति से संबंध को इस विस्तार मे जाने के बाद दुबारा देखिए।
किसी समाज का या किसी धर्म का ईश्वर कैसा है उसी से यह भी तय होगा कि वह समाज सभ्य बनेगा या नहीं। भारत के ईश्वर को और यूरोप के ईश्वर को देखिए। आपको आज के भारत और आज के यूरोप का अंतर साफ नजर आएगा।
अब इस अंतर के आईने मे कोरोना वाइरस या बायोटेक्नोलॉजी या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के खतरों को देखिए। आप आसानी से समझ पाएंगे कि भारत को सभ्यता और नैतिकता की सख्त जरूरत है। भारत मे जो ईश्वर और धर्म प्रचलित है वह भारत के समाज को एक सामूहिक आत्मघात की तरफ ले जा रहा है। इसे रोकना लगभग असंभव नजर आता है।