राजनीतिक फायदे के लिए तमाम दल और नेता भले ही बाबासाहेब के नाम की दुहाई दें, जमीन पर समाज के जातिवादी तबके में बाबासाहेब आंबेडकर को लेकर कितनी नफरत है, यह कर्नाटक में देखने को मिला। कर्नाटक के तुमकुरु जिले में दलित समाज के दो युवकों के साथ महज इसलिए मार-पीट की गई क्योंकि वो ‘जय भीम’ गाना बजा रहे थे। जातिवादियों ने इस दौरान दलितों को जातिवादी गालियां भी दी। पुलिस ने इस मामले में एक रेलवे अधिकारी चंद्रशेखर के अलावा नरसिंह राजू के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। घटना चार जनवरी की है।
खबरों के मुताबिक सिरिवारा गांव के निवासी दीपू (19) और नरसिंह मूर्ति (32) शाम को अपने टाटा ऐस वाहन में जा रहे थे। इस दौरान उन्होंने अपनी गाड़ी में ‘जय भीम’ गाना बजा रखा था। तभी वहां से मोटरसाइकिल पर सवार आरोपियों ने वाहन को रोका और पीड़ितों से उनकी जाति पूछी और ‘जय भीम’ गाने को बजाने के लिए उनके साथ मारपीट शुरु कर दी।
पुलिस निरीक्षक सुनील कुमार के मुताबिक आरोपी घटना के बाद मोटरसाइकल से भाग निकले। पुलिस अधिकरी ने बताया कि दोनों पीड़ितों का सरकारी अस्पताल में इलाज चल रहा है। हमने एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम और बीएनएस की धारा 109 (हत्या की कोशिश) के तहत मामला दर्ज किया है। हालांकि खबर लिखने तक हमारी जानकारी के मुताबिक आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं हो सकी थी।
घर के बाहर पढ़ती आदिवासी बच्ची, चित्र साभारः यूनिसेफ
आदिवासी समाज के युवाओं की पढ़ाई बीच में ही रुक जाना एक बड़ी समस्या रही है। पढ़ाई के पढ़ते खर्चे को परिवार झेल नहीं पाता और नतीजा यह होता है कि ज्यादातर छात्रों की पढ़ाई अधूरी रह जाती है। ओडिशा सरकार ने इसको देखते हुए एक बड़ा कदम उठाया है। ओडिशा के मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी ने 5 जनवरी को सलाना आदिवासी मेले का उद्धाटन करते हुए इस दिशा में बड़ी घोषणा की है। उन्होंने इस दौरान शहीद माधो सिंह हाथ खर्चा योजना की शुरुआत की। इस योजना के तहत सरकार राज्य भर के सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में नौवीं और 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले प्रत्येक आदिवासी छात्र-छात्राओं को पांच हजार रुपये की सहायता देगी। योजना की शुरुआत करते हुए मुख्यमंत्री ने 1.6 लाख आदिवासी छात्रों को 80 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता दी। मुख्यमंत्री माझी ने ऐलान किया कि राज्य सरकार हर साल लगभग दो लाख आदिवासी छात्रों को वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करेगी।
बता दें कि ओडिशा की कुल जनसंख्या का लगभग एक चौथाई (23%) अनुसूचित जनजाति / आदिवासी समुदाय है। यह भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 8% है। आजादी के बाद आदिवासियों की स्थिति सुधारने के लिए तमाम समितियां बनाई गईं। इसमें मुख्य रुप से 1959 में रेणुका रॉय और 1960 में वेरियर एल्विन समिति रही हैं। इसने आदिवासियों के बीच शिक्षा के विकास के साथ-साथ उनके संपूर्ण विकास के लिए कई सिफारिशें दी। लेकिन इन तमाम समितियों की योजनाएं धरी रह गई। यूनिसेफ की वेबसाइट में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक ओडिशा के आदिवासी समुदाय में बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं और लगभग 50 % लड़कियों की कम उम्र में शादी हो जाती है।
अब देखना होगा कि ओडिशा सरकार के इस फैसले को जमीन पर कितना उतारा जाता है। और इससे आदिवासियों के बीच शिक्षा का स्तर कितना सुधरता है। जहां तक शहीद माधो सिंह हाथ खर्च योजना की बात है तो इसका लाभ पाने के लिए ऑनलाइन आवेदन शुरु हैं। www.scholarship.odisha.gov.in पर जाकर इसके लिए आवेदन कर सकते हैं।
पिछड़ों की राजनीति कर केंद्र की सत्ता में लंबे समय से मंत्री पद पर बैठी अनुप्रिया पटेल के पति आशीष पटेल पर पिछड़ों का ही हक मारने का गंभीर आरोप लगा है। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में टेक्निकल एजुकेशन मंत्री आशीष पटेल पर लगे इन आरोपों ने प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी है। दरअसल उत्तर प्रदेश के टेक्निकल एजुकेशन डिपार्टमेंट में विभागाध्यक्ष के 177 पदों पर हुई पदोन्नति हुई थी। आशीष पटेल पर इसी में अनियमितता का आरोप लगा है। समाजवादी पार्टी की विधायक और अपना दल (कमेरावादी) की नेता पल्लवी पटेल ने इस मामले में राज्यपाल आनंदीबेन पटेल से मुलाकात की थी। तो रविवार 5 जनवरी को उन्होंने आशीष पटेल के पूर्व ओएसडी राजकुमार पटेल के साथ प्रेस कांफ्रेंस की। इसमें पूर्व ओएसडी ने मीडिया के सामने आरोप लगाया कि उन्होंने अनियमितताओं के बारे में आशीष पटेल को शुरू में ही चेताया था, लेकिन उनकी बातों की अनदेखी की गई। पूर्व ओएसडी के बयान के बाद आशीष पटेल बुरी तरह से घिर गए हैं।
पल्लवी पटेल ने इस मामले को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के समक्ष उठाते हुए 9 दिसंबर 2024 को जारी हुए डीपीसी शासनादेश को तत्काल निरस्त करने और विशेष जांच टीम (SIT) गठित कर दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की मांग की है। सपा विधायक पल्लवी पटेल ने आरोप लगाया है कि प्राविधिक शिक्षा विभाग में विभागाध्यक्ष के 45 पदों को असंवैधानिक तरीके से भरा गया। सामान्य प्रक्रिया के तहत इन पदों पर उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग (UPPSC) के माध्यम से सीधी भर्ती होनी चाहिए थी। लेकिन इन पदों को विभागीय पदोन्नति के माध्यम से भर दिया, जो नियमानुसार गलत है। पल्लवी पटेल ने दावा किया कि यह पूरी प्रक्रिया आरक्षण नीति और विभागीय नियमों के खिलाफ है। दिलचस्प यह है कि पल्लवी पटेल जिस आशीष पटेल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही हैं, वह उनकी बहन अनुप्रिया पटेल के पति हैं। अनुप्रिया पटेल अपना दल (एस) की अध्यक्ष हैं। साथ ही केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं। दोनों बहनों में छत्तीस का आंकड़ा जगजाहिर है।
इन आरोपों से बैकफुट पर आए मंत्री आशीष पटेल ने इसे राजनीतिक साजिश बताया है। उनका कहना है कि ऐसा आरोप लगाकर उनकी छवि को खराब करने का प्रयास किया जा रहा है। खुद को पाक-साफ साबित करने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके द्वारा लिए गए सभी फैसलों की सीबीआई जांच कराने की मांग कर डाली है।
दूसरी ओर इस मामले को लेकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी आशीष पटेल पर मंत्री पद का दुरुपयोग किये जाने का आरोप लगाया है। अखिलेश यादव का कहना है कि “आरक्षण नीति का मजाक उड़ाया जा रहा है। यह सरकार दलितों और पिछड़ों के अधिकारों का हनन कर रही है।”
मंत्री आशीष पटेल पर लगे ये आरोप उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ी हलचल पैदा कर सकते हैं। एक बड़ा सवाल यह भी है कि जो अनुप्रिया पटेल पिछड़ों की राजनीति कर मंत्री पद तक पहुंची हैं, क्या उनके ही पति पिछड़ों का हक मार रहे हैं। जहां तक आशीष पटेल का सवाल है तो एक तरफ उन पर पिछड़ों का हक मारने का आरोप लग रहे है तो वहीं वह योगी सरकार के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं।
आशीष पटेल सीएम योगी के दो करीबी अफसरों पर लगातार हमलावर हैं। इसमें सूचना निदेशक शिशिर सिंह और STF चीफ अमिताभ यश शामिल हैं। शिशिर सिंह वो अधिकारी हैं, जो योगी सरकार की उपलब्धियों को आम जनता तक पहुंचा रहे हैं। इससे सीएम योगी की प्रसिद्धि लगातार बढ़ रही है। अब सवाल ये है कि ‘गठबंधन कोटे’ से मंत्री आशीष पटेल इन्हीं दो पर सवाल क्यों उठा रहे हैं, और किसके इशारे पर उठा रहे है।
लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम है कि जिस तरह मोदी के बाद कौन? के सवाल के बीच, योगी आदित्यनाथ और अमित शाह आमने-सामने खड़े हैं, और योगी अमित शाह से आगे दिख रहे हैं, वैसे में कहीं आशीष पटेल दिल्ली के इशारे पर तो यह नहीं कर रहे हैं? इस बीच सीएम योगी आदित्यनाथ ने आशीष पटेल को बुलाकर कड़ी नसीहत भी दे डाली है। चर्चा है कि आशीष पटेल पर जल्दी ही सीएम योगी कड़ा एक्शन ले सकते हैं।
17 जनवरी 2016 को रोहित वेमुला की आत्महत्या, जिसे सांस्थानिक हत्या कहा गया और 22 मई 2019 को पायल तडवी की आत्महत्या ने बड़े शिक्षण संस्थानों में दलित और आदिवासी छात्रों के साथ जातिवाद पर बड़ी बहस शुरू हो गई। रोहित वेमुला और पायल तड़वी की आत्म हत्या सुर्खियों में रहा था। उनकी माताओं ने उच्च शिक्षण संस्थान में जातिगत भेदभाव की शिकायत करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। इसको लेकर अब सुप्रीम कोर्ट ने 3 जनवरी 2025 को यूजीसी से जवाब मांगा है।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयां की पीठ ने इस बारे में अहम निर्देश दिये हैं। साथ ही कहा है कि वह देश भर के शैक्षणिक संस्थानों में जातिवाद से निपटने के लिए एक प्रभावी तंत्र तैयार करेगा।
विश्वविद्यालयों में एससी-एसटी युवाओं के साथ होने वाले जातिवाद पर सुप्रीम कोर्ट में बहस करते हुए वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि- 2004 से अब तक आईआईटी और अन्य संस्थानों में 50 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की थी। इनमें ज्यादातर एससी-एसटी छात्र हैं। युनिवर्सिटी में जातिवाद के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला, डॉ. विक्रम हरिजन ने दलित दस्तक के संपादक अशोक दास से बातचीत में इसको लेकर तमाम सवाल उठाएं हैं।
जेलों में जाति के आधार पर एससी-एसटी के साथ भेदभाव पर सरकार की ओर से बड़ा अपडेट आया है। पत्रकार सुकन्या शांता की खोजी रिपोर्ट और जनहित याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने तीन अक्तूबर 2024 को इसको रोकने के लिए फैसला सुनाया था। इसके बाद अब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जेलों में कैदियों के साथ जातिवाद रोकने के लिए जेल नियमावली में संशोधन किया है।
नए संशोधन के अनुसार जेल अधिकारियों को सख्ती से यह सुनिश्चित करना होगा कि कैदियों के साथ उनकी जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो। गृह मंत्रालय की ओर से प्रमुख सचिवों को जारी पत्र में कहा गया है- “यह सख्ती से सुनिश्चित किया जाएगा कि जेलों में किसी भी ड्यूटी या काम के आवंटन में कैदियों के साथ उनकी जाति के आधार पर कोई भेदभाव न हो।”
नए नियमों के मुताबिक अब आदर्श कारागार एवं सुधार सेवा अधिनियम, 2023 के विविध में भी बदलाव किये गए हैं। इसमें धारा 55 (ए) के रूप में नया शीर्षक जोड़ते हुए ‘कारागार एवं सुधार संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव का निषेध’ किया गया है। गृह मंत्रालय के आदेश में हाथ से मैला उठाने को लेकर भी चर्चा की गई है। कहा गया है कि जेल के अंदर हाथ से मैला उठाने या सीवर या सेप्टिक टैंक की खतरनाक सफाई की अनुमति नहीं दी जाएगी।
दरअसल पुराने कानून और नियमावली में एससी-एसटी की कुछ जातियों को आदतन अपराधी के रूप में दर्ज किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर भी आपत्ति दर्ज कराई थी। बता दें कि तकरीबन एक दर्जन राज्यों की जेल नियमावलियों में जाति-आधारित भेदभावपूर्ण प्रावधान थे, जिसमें जाति के आधार पर कैदियों को अलग बैरकों में रखने का नियम था। सुप्रीम कोर्ट ने उन नियमों को असंवैधानिक करार दिया था। साथ ही जाति के आधार पर कामों के बंटवारों को भी गैर कानूनी घोषित किया था। हालांकि नियमों में तमाम बदलाव के बावजूद हकीकत में यह नियम कितने बदलते हैं, यह आने वाला समय बताएगा।
फरवरी में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर सभी दलों की तैयारियां जोरो पर है। आम आदमी पार्टी पूरे चुनावी मोड में आ चुकी है। तो वहीं भाजपा ने भी दिल्ली की सड़कों पर पोस्टर वार शुरू कर दिया है। इस बीच अब बहुजन समाज पार्टी भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरने जा रही है। खबर है कि बसपा प्रदेश की सभी 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव की तैयारी में है। खबर है कि बसपा प्रमुख मायावती उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जनवरी के दूसरे हफ्ते तक जारी कर सकती हैं। बसपा ने अपनी रणनीति के मुताबिक दिल्ली को पांच जोन में बांटा है। हर जोन के लिए जल्दी ही पदाधिकारियों और उम्मीदवारों की घोषणा हो जाएगी।
इसी साल फरवरी में प्रस्तावित दिल्ली विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने की संभावना है। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी ने पहले ही सभी 70 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। कांग्रेस ने भी 47 सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। भाजपा भी दिल्ली चुनाव को लेकर माथापच्ची में जुटी है। माना जा रहा कि जल्द ही पार्टी उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करेगी। ऐसे में बीएसपी की एंट्री से ये मुकाबला और भी दिलचस्प होता दिख रहा है।
दलित वोटों और आरक्षित सीटों की बात करें तो दिल्ली के 70 विधानसभा में से 12 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। सुरक्षित सीटों में, सुल्तानपुर माजरा, बवाना, मंगोलपुरी, मादीपुर, अंबेडकर नगर, देवली, करोलबाग, पटेल नगर, गोकलपुर, कोंडली, सीमापुरी एवं त्रिलोकपुरी शामिल है। 2011 की जनगणना के हिसाब से दिल्ली में अनुसूचित जाति की आबादी करीब 16.80 फीसदी है जो कि अब 18 से 20 फीसदी होने का अनुमान है। एक वक्त में बहुजन समाज पार्टी ने दिल्ली में अपना दम दिखाया था और उसके विधायक भी जीत कर आए थे, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में दिल्ली में बसपा कोई सीट जीतने में कामयाब नहीं हो सकी है। देखना होगा इस बार बसपा का प्रदर्शन कैसा होता है।
सावित्रीबाई फुले का जन्म 03 जनवरी, 1831 में पश्चिमी महाराष्ट्र के नायगांव में हुआ था। इन्होंने पति जोतीराव फुले के साथ मिलकर शिक्षा क्रांति के लिए जो काम किया, वह हर कोई जानता है। लेकिन इसके साथ ही फुले दंपति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना भी शुरू किया। खासकर स्त्री मुक्ति के लिए।
उस दौर में सबसे बदतर हालात विधवाओं के थे। ये ज़्यादातर उच्च जातियों की ब्राह्मण परिवारों से थीं। अक्सर कम उम्र में लड़कियों की शादी उनसे बहुत ज़्यादा उम्र के पुरुषों से कर दी जाती थी। ऐसे में कई सारी लड़कियां विधवाएं हो जाती थीं। ऊंची कही जाने वाली इन जातियों में इन विधवाओं का दोबारा विवाह नहीं हो सकता था। समाज इन्हें हेय दृष्टि से देखता था। इन्हें अशुभ और अपशकुन वाली महिला समझा जाता था। वे अक्सर सफ़ेद या भगवा साड़ी पहनती थीं। उनके बाल मूँड़ दिए जाते थे।
इस सबका उद्देश्य यह होता था कि वे पर-पुरुष की ओर आकर्षित न हों, न ही कोई पुरुष उनकी ओर आकर्षित हो। उनके भीतर प्रेम की भावना न जागे। लेकिन कई बार ये किसी के प्रति आकर्षित हो जाती थीं। अगर बाहरी पुरुषों से बच जाती थीं तो कई बार ये विधवाएं अपने सगे-संबंधियों की हवस का शिकार हो जाती थीं। ऐसे में यदि वे गर्भवती हो जाती थीं, तो उनके पास आत्महत्या करने या बच्चे के जन्म के बाद उसकी हत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था।’
ऐसी ही एक घटना ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के साथ हुई। वह किसी के संपर्क में आकर गर्वभती हो गयीं। उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। लोकलाज से विवश होकर उन्होंने उस बच्चे को कुएँ में फेंक दिया। उन पर हत्या का मुक़दमा चला और 1863 में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई।
इस घटना ने सावित्रीबाई फुले और जोतिराव फुले को भीतर तक हिला दिया। 1863 में फुले दंपति ने बालहत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था। इस बालहत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘‘विधवाओं! यहाँ अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएँ या यहीं रखें; यह आपकी मर्ज़ी पर निर्भर रहेगा। अन्यथा अनाथाश्रम उन बच्चों की देखभाल करेगा ही। विधवाओं के लिए इस तरह का यह भारत का पहला गृह था। सावित्रीबाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देख-रेख ख़ुद करती थीं।
सन् 1874 में एक रात मूठा नदी के किनारे टहलते समय जोतिराव की नज़र एक महिला पर पड़ी, जो अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में कूदने को तैयार थी। जोतिराव ने दौड़कर उसे रोक लिया। उस स्त्री ने उन्हें बताया कि वह विधवा है और उसके साथ बलात्कार हुआ था। उसे छह माह का गर्भ था। जोतिराव ने उसे सांत्वना दी और अपने घर ले गये। सावित्रीबाई ने खुले दिल से उस स्त्री का अपने घर में स्वागत किया। उस स्त्री ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया। फुले दंपति ने यशवंत को गोद ले लिया और उसे अपना क़ानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने यशवंत को शिक्षित किया और वह आगे चलकर डॉक्टर बना।
जोतिराव और सावित्रीबाई ने न सिर्फ़ उसकी ज़चगी करवायी, बल्कि उसके बेटे यशवंत को गोद भी लिया। यह तथ्य, कि फुले दंपति ने स्वयं संतान को जन्म देने की जगह एक अनजान स्त्री के बच्चे को गोद लेने का निर्णय किया, अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। ऐसा करके उन्होंने जाति, वंश, मातृत्व, पितृत्व आदि को लेकर प्रचलित रूढ़िवादी धारणाओं को खुलकर चुनौती दी। तो ऐसी थी माता सावित्रीबाई फुले। भारत की हर महिला को उनका ऋणी होना चाहिए।
पुणे बुक फेयर में डॉ. आंबेडकर की किताब पढ़ती लड़कीपुणे बुक फेस्टिवल में पढ़े लिखे,नौकरी वाले,अफसर की भीड़ में कोई लड़की कचरा इकठ्ठा करती थी, ध्यान किसी का नहीं था। पर कचरा इकठ्ठा करने वाले बाप पर लगा जिसने अपनी दुनिया बदल दी। आज पुणे बुक फेस्टिवल का आखिरी दिन है और कचरा इकट्ठा करते समय इस बहन ने स्टॉल पर बैठे लड़के से कहा- ‘मुझे ये बाप आदमी की किताब चाहिए, कितने पैसे हुए? पुस्तक महोत्सव में सभी पाठक उच्च, पढ़े लिखे लोग थे। किताब खरीदने के लिए भीड़ उमड़ गई है। लेकिन इस भीड़ में इस बहन के शब्द मेरे कान पर गिर गए।
मेरे मन में आया “पुस्तक महोत्सव में शामिल सभी हस्तियां एक तरफ और यह पाठक बहन एक तरफ। एक हाथ में कचरे का थैला और दूसरे हाथ में #बाप आदमी नाम की किताब लिए खड़ी इस बहन को देखा तो अपने आप आंखों में आंसू आ गए। लगा कि ये है किताब महोत्सव की सबसे बड़ी हस्ती।
मैंने लिखा था, वे गांधी-नेहरू के बाद अंतिम हमला आंबेडकर पर ही बोलेंगे, आखिर अमित शाह ने आंबेडकर पर हमला बोल ही दिया। भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के मार्ग में तीन व्यक्तित्व हिंदू राष्ट्रवादियों के मार्ग में सबसे बड़ी बाधाएं हैं, गांधी, नेहरू और आंबेडकर। गांधी यदि हिंदू राष्ट्रवादियों के ह्रदय में कांटे की तरह चुभें हुए हैं, तो नेहरू खंजर हैं, लेकिन आंबेडकर हिंदू राष्ट्रवादियों के सीने में इस पार से उस पार तक तलवार की तरह उतरे हुए हैं।
अभी फिलहाल हिंदू राष्ट्र की परियोजना को साकार करने में लगे संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति आंबेडकर पर सीधा हमला करने से बच रहे थे, लेकिन उन्हें हिंदू राष्ट्र के अपने स्वप्न को पूरी तरह साकार करने लिए, आंबेडकर को अपने मार्ग से हटाना ही पड़ेगा, जो हिंदुत्व का प्रतिपक्ष और संविधान का पर्याय बनकर चीन की दीवार की तरह हिंदू राष्ट्र के मार्ग में खड़े हैं। इस सच से हिंदू राष्ट्रवादी बखूबी परिचित हैं। आखिर अमित शाह ने संसद में आंबेडकर पर हमला बोलकर इसकी शुरूआत कर ही दी।
गांधी-नेहरू हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए अलग-अलग मात्रा और अलग-अलग रूपों में चुनौती तो हैं, लेकिन जिस व्यक्ति ने हिंदू राष्ट्र की बुनियाद पर सबसे प्राणघातक हमला बोला है, उसकी रीढ़ को निशाना बनाया और जिस हिंदू धर्म पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा आधारित है, उसे नेस्तनाबूद करने के लिए पूरा जीवन खपा दिया, उस व्यक्ति का नाम डॉ. आंबेडकर है। वे ब्राह्मण धर्म, सनातन धर्म और हिंदू धर्म को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखते थे।
नेहरू यह समझने में पूरी तरह असफल रहे कि हिंदू धर्म का मूल तत्व वर्ण-व्यवस्था है, गांधी यह समझते थे, लेकिन वो जीवन के अंत तक वर्ण-व्यवस्था के हिमायती बने रहे। गांधी-नेहरू दोनों यह नहीं समझ पाए कि हिंदू धर्म कोई धर्म नहीं बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका मूल उद्देश्य सवर्ण हिंदू मर्दों (द्विज मर्दों) के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को पिछड़े-दलितों और महिलाओं पर कायम रखना है। जिस व्यक्ति ने इस बात को समझा उस व्यक्ति का नाम डॉ. आंबेडकर है।
यह सच है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण तत्व मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति घृणा है। परन्तु यह घृणा, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है। सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उससे अधिक वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है। एक अर्थ में तो हिंदू धर्म ब्राह्मणों को छोड़कर सबको दोयम दर्जे का मानता है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए आंबेडकर ने लिखा कि ‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए – और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है- तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दलित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है” (सोर्स मटियरल ऑन डॉ. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।
गांधी-नेहरू या किसी अन्य ने खुले शब्दों में हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति घृणा नहीं प्रकट किया है। आंबेडकर हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति खुलेआम घृणा प्रकट करते हैं और इस घृणा का कारण बताते हुए लिखते हैं “मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इसलिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है और गलत सामाजिक जीवन जीता है। मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं। झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है। (भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का विनाश पृ. 112)।
डॉ. आंबेडकर साफ शब्दों में कहते हैं कि हिन्दू धर्म के प्रति उनकी घृणा का सबसे बड़ा कारण जाति है, उनका मानना था कि हिन्दू धर्म का प्राण-तत्त्व जाति है और इन हिन्दुओं ने अपने इस जाति के जहर को सिखों, मुसलमानों और क्रिश्चियनों में भी फैला दिया है। वे लिखते हैं कि ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिन्दुओं का प्राण है। लेकिन हिन्दुओं ने सारा वातावरण गन्दा कर दिया है और सिख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीड़ित हैं।’’ स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों और ईसाईयों के बीच जाति की उपस्थिति के लिए वे हिंदू धर्म को जिम्मेदार मानते हैं।
वे हिंदू धर्म का पालन करने वाले हिंदुओं को मानसिक तौर पर बीमार कहते थे। ‘जाति का विनाश’ किताब का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘‘मैं हिन्दुओं को यह अहसास कराना चाहता हूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं, और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए खतरा है।’’
आंबेडकर हिंदुओं को आदिम कबिलाई मानसिकता के बर्बर लोगों की श्रेणी में रखते हैं। ‘‘हिन्दुओं की पूरी की पूरी आचार-नीति जंगली कबीलों की नीति की भांति संकुचित एवं दूषित है, जिसमें सही या गलत, अच्छा या बुरा, बस अपने जाति बन्धु को ही मान्यता है। इनमें सद्गुणों का पक्ष लेने तथा दुर्गुणों के तिरस्कार की कोई परवाह न होकर, जाति का पक्ष लेने या उसकी अपेक्षा का प्रश्न सर्वोपरि रहता है।” डॉ. आंबेडकर को हिन्दू धर्म में अच्छाई नाम की कोई चीज नहीं दिखती थी, क्योंकि इसमें मनुष्यता या मानवता के लिए कोई जगह नहीं है। अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों की भीड़ है। हिन्दू-धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों की खिचड़ी संग्रह मात्र है। हिन्दुओं का धर्म बस आदेशों और निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धान्तों का विवेचन हो, जो वास्तव में सर्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिन्दुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धान्त पाये भी जाते हैं तो हिन्दुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती। हिन्दुओं का धर्म ‘‘आदेशों और निषेधों” का ही धर्म है। वे हिन्दुओं की पूरी व्यवस्था को ही घृणा के योग्य मानते हैं। उन्होंने लिखा कि ‘‘इस प्रकार यह पूरी व्यवस्था ही अत्यन्त घृणास्पद है, हिन्दुओं का पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण) एक ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है… ब्राह्मणवाद के जहर ने हिन्दू-समाज को बर्बाद किया है।” (जाति का विनाश)।
हिंदू राष्ट्र से आंबेडकर इस कदर घृणा करते थे कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र के निर्माण को किसी भी कीमत पर रोकने की बात की। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा, अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) हिंदू धर्म की यह समझ डॉ. आंबेडकर को गांधी-नेहरू से गुणात्मक तौर पर भिन्न बना देती है और हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए आंबेडकर को सबसे अधिक खतरनाक।
आंबेडकर वर्ण-जाति व्यवस्था के पोषक हिंदू धर्मग्रंथों को डायनामाइट से उड़ाने की तक की बात करते हैं। उन्होंने ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ और ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ और ‘जाति का विनाश’ जैसी किताबें लिखकर हिंदू धर्म दर्शन, विचारधारा, ईश्वरों, देवी-देवताओं, हिंदू धर्म की किताबों, आदर्शों-मूल्यों, जीवन-पद्धति और जीवन-दृष्टि की धज्जियां उड़ा दी हैं। वेदों से लेकर आधुनिक युग तक हिंदू धर्म के पक्ष में दिए गए तर्कों और हिंदू धर्म के पैरोकारों के हर तर्क का उन्होंने ठोस और सटीक जवाब दिया है, जाति का विनाश किताब इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। एक शब्द में कहें तो भारत के अब तक के इतिहास में सनातन धर्म और ब्राह्मण धर्म के पर्याय हिंदू धर्म या ब्राह्मणवाद पर इतना मर्मांतक और निर्णायक हमला किसी ने नहीं बोला है, जितना डॉ. आंबेडकर ने वोला है।
हिंदू धर्म पर दार्शनिक-वैचारिक हमले के साथ आंबेडकर ने संविधान के रूप में हिंदू राष्ट्र के मार्ग में एक पहाड़ खड़ा कर दिया है, इस पहाड़ को रास्ते से हटाए बिना हिंदू राष्ट्र स्थायी और मुकम्मल शक्ल नहीं ले सकता है और मंजिल तक नहीं पहुंच सकता। क्योंकि संविधान हर वयस्क नागरिक को वोट का अधिकार देता है। पांच साल में चुनाव और सरकार बदलने का भी उन्हें अधिकार देता है। जनता इस अधिकार का इस्तेमाल करके हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों को सत्ता से हटा सकती है। संसद में ऐसी सरकार को बहुमत दे सकती है, जो हिंदू राष्ट्र के खिलाफ हो। इसका खतरा हमेशा हिंदुत्वादियों के सामने मंडराता रहेगा। हालांकि इस संविधान के साथ लगातार हिंदू राष्ट्रवादी छेड़छाड़ कर रहे हैं, उसकी मूल भावना को रौंद रहे हैं, उसकी मनमानी व्याख्या कर रहे हैं, उसका हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और अब तो उसे बदलने की खुलेआम बातें भी करने लगे हैं। फिर भी संविधान उनके मार्ग में बड़ा रोड़ा बना हुआ है।
हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए संविधान को पूरी तरह बदलना इसलिए भी जोखिम भरा काम है, क्योंकि दलितों-पिछड़े और आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा संविधान और आंबेडकर को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखता है। संविधान से छेड़-छाड़ या संविधान बदलने की बात उसे आंबेडकर के विचारों-सपनों से छेड़-छाड़ लगती है। फिर भी हिंदू धर्म के लिए इतने खतरनाक और हिंदू राष्ट्र के मार्ग में सबसे बड़े अवरोध आंबेडकर पर हमला बोले बिना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के स्वप्न को हिंदू राष्ट्रवादी साकार नहीं कर सकते। वे आंबेडकर पर हमला बोलेंगे, लेकिन गांधी और नेहरू को पूरी तरह निपटाने के बाद। वे अंतिम हमला आंबेडकर पर ही बोलेंगे।
प्रश्न यह है कि हिंदू राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी बाधा आंबेडकर और उनकी वैचारिकी पर हमला करने से क्यों हिंदुत्ववादी बच रहे हैं और गांधी, नेहरू पर आक्रामक तरीके से हमलावार क्यों हैं।
इसका पहला कारण यह है कि देश में गांधी-नेहरू के समर्थक (वोटर) बहुत कम संख्या में बचे हैं। जो अपरकॉस्ट गांधी और नेहरू का मजबूत समर्थक और पैरोकार था, उसका बहुलांश हिस्सा हिंदुत्वादियों के साथ पूरी तरह खड़ा हो गया है। यह अपरकॉस्ट आजादी के दौरान गांधी और आजादी के बाद नेहरू को अपना सबसे बड़ा नेता, हितैषी और पैरोकार मानता था। इन दोनों ने इनके हितों की भरपूर पूर्ति भी किया।
अब अपरकॉस्ट को अपना सबसे बड़ा हितैषी हिंदुत्वादी लग रहे हैं और वह उनके साथ वह पूरी मुस्तैदी के साथ खड़ा है। अपरकॉस्ट के कुछ मुट्टीभर लोगों के बीच, विशेषकर सचेतन बुद्धिजीवियों के बीच अब गांधी-नेहरू की कद्र रह गई है, जो संख्या में बहुत कम हैं। गांधी-नेहरू कभी भी बहुजनों ( दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों) के सहज-स्वाभाविक नायक नहीं रहे हैं, भले ही विभिन्न वजहों से बहुजन उनके साथ खड़े हुए हों और नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को वोट भी देते रहे हों। आज भी पिछड़े-दलितों और आदिवासियों के सहज स्वाभाविक नायक जोतीराव फुले, शाहू जी, पेरियार, जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, बिरसा मुंडा, तिलका मांझी और राष्ट्रव्यापी नायक के रूप में आंबेडकर हैं। आंबेडकर कभी भी द्विज पुरूषों के चहेते नहीं रहे हैं, न आज हैं, न भविष्य में कभी हो सकते हैं।
चूंकि गांधी-नेहरू के कभी अनुयायी रहा अपरकॉस्ट उनका साथ छोड़ चुका और पूरी तरह हिंदुत्वादियों के साथ खड़ा हो गया है, ऐसे में उन पर आक्रामक हमला करना हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए आसान हैं। लेकिन आंबेडकर को जो समूह अपना नायक मानता है आज भी उन्हें उतने ही पुरजोर तरीके से उन्हें अपना नायक मानता है, भले ही आंबेडकर का जो रूप उसे पसंद हो। यह बात बहुजनों, उनमें विशेष तौर दलितों के बारे में पूरी तरह लागू होती है। यदि आज की तारीख में हिंदू राष्ट्रवादी आंबेडकर पर गांधी और नेहरू की तरह आक्रामक और निर्णायक हमला बोल दें, तो बहुजनों का एक बड़ा हिस्सा उनके खिलाफ खड़ा हो जाएगा। यहां तक कि सड़कों पर भी उतर सकता है।
ऐसी स्थिति में हिंदू राष्ट्रवादी आंबेडकर पर निर्णायक हमले के लिए उचित समय का इंतजार कर रहे हैं। यह उचित समय उनके लिए तब होगा, जब वह बहुजनों के एक बड़े हिस्से का हिंदुत्वीकरण (कम से कम राजनीतिक तौर पर) करने में सफल हो जाएं। जिसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है। वे पहले बडे़ पैमाने पर पिछड़ों का हिंदुत्वीकरण करेंगे और कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे पिछड़ों को दलितों से अलग करने की कोशिश करेंगे। जिसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिलती दिख रही है। इस प्रक्रिया में वे बहुजन अवधारणा को तोड़ेंगे। पिछड़ों से दलितों को अलग-थलग करने के बाद वे दलितों को भी अपने साथ खड़ा करने की कोशिश करेंगे। यदि इसमें सफलता नहीं मिली तो, अपरकॉस्ट और पिछड़ों का गठजोड़ बनाकर वे आंबेडकर यानी दलित वैचारिकी पर निर्णायक हमला बोलेंगे। पिछड़ों को अपरकास्ट के साथ जोड़ने का प्रयोग कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ था। जिसे नरेंद्र मोदी (तथाकथित पिछड़े) के नेतृत्व में एक अलग मुकाम तक पहुंचाया जा चुका है।
अंतिम तौर पर डॉ. आंबेडकर पर हमला बोलने की हिंदू राष्ट्रवादियों की दो रणनीति दिख रही है। पहली नरेंद्र मोदी के समर्थक दलित नेताओं को अपने साथ करके दलितों को हिंदुत्व की राजनीति के लिए पूरी तरह अपने साथ कर लेना और साथ में आंबेडकर का नाम भी लेते रहना। यह भी आंबेडकर पर हमला ही होगा, लेकिन पीठ पीछे से। जिसके कुछ रूप उत्तर प्रदेश बिहार और अन्य जगहों पर दिखाई दे रहे हैं।
यदि इसमें सफलता नहीं मिली तो वे अपरकॉस्ट और पिछड़ों के गठजोड़ का इस्तेमाल आंबेडकर पर निर्णायक हमला के लिए करेंगे। क्योंकि पिछड़े यदि दलितों से अलग हो जाते हैं, तो दलित वोटर एक अल्पसंख्यक वोटर बनकर रह जाएगा। दलितों के सहज-स्वाभाविक राजनीतिक दोस्त मुसमलानों को हिंदू राष्ट्रवादी पहले ही राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर करने के तरीके निकाल चुके हैं या निकाल रहे हैं। ऐसी स्थिति में वे आंबेडकर पर निर्णायक हमला बोलेंगे। लेकिन यह उनका अंतिम विकल्प होगा। जिसका वे सबसे अंत में ही इस्तेमाल करेंगे। इसका क्या परिणाम होगा यह भविष्य के गर्भ में है।
भारत के सबसे अमीर और दिग्गज कारोबारी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी गौतम अडानी को अमेरिका में बड़ा झटका लगा है। अडानी पर अमेरिका में धोखाधड़ी और रिश्वत के मामले में आरोप तय हो गया है। अडानी पर अमेरिका में अपनी एक कंपनी को कॉन्ट्रेक्ट दिलाने के लिए 25 करोड़ डॉलर की रिश्वत देने और इस मामले को छिपाने का आरोप लगाया गया है। यह आपराधिक मामला कल बुधवार 20 नवंबर को न्यूयॉर्क में दायर किया गया है।
अदानी और उनकी कंपनी पर आरोप है कि अदानी और उनकी कंपनी के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने अपनी अक्षय ऊर्जा (रिन्यूल एनर्जी) कंपनी को कॉन्ट्रेक्ट दिलाने के लिए भारतीय अधिकारियों को भुगतान करने पर सहमति जताई थी। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इस कॉन्ट्रेक्ट से कंपनी को आने वाले 20 सालों में दो अरब डॉलर से अधिक के मुनाफ़ा होने की उम्मीद थी। बीबीसी की खबर के मुताबिक अडानी और उनकी कंपनी पर आरोप है कि इसके प्रबंधकों ने क़र्ज़ और बॉन्ड्स के रूप में तीन अरब डॉलर जुटाए। इसमें कुछ धन अमेरिकी फर्म्स से भी जुटाया गया था।
आरोप है कि ये पैसे रिश्वत विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ और भ्रामक बयानों के ज़रिए जुटाए गए। ईस्टर्न डिस्ट्रिक्ट ऑफ न्यूयॉर्क के अटॉर्नी ब्रियोन पीस ने आरोपों में कहा है, “अभियुक्तों ने अरबों डॉलर के कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने के लिए भारत के सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देने की एक गोपनीय योजना बनाई थी और रिश्वतखोरी योजना के बारे में झूठ बोला क्योंकि वे अमेरिकी और वैश्विक निवेशकों से पूंजी जुटाने की कोशिश कर रहे थे।” अधिकारियों का कहना है कि रिश्वतखोरी योजना को आगे बढ़ाने के लिए कई मौक़ों पर अदानी ने ख़ुद सरकारी अधिकारियों से मुलाक़ात की। अमेरिका के अटॉर्नी ऑफिस ने इस मामले में जिन लोगों के ख़िलाफ़ आरोप लगाया है, उनमें गौतम अदानी के अलावा सात अन्य लोग, सागर आर अदानी, विनीत एस जैन, रंजित गुप्ता, रूपेश अग्रवाल, दीपक मल्होत्रा, सौरभ अग्रवाल और सिरील कैबनीज़ शामिल हैं।
बता दें कि अदानी समूह साल 2023 से ही अमेरिका में शक के घेरे में है। उस साल हिंडनबर्ग नाम की कंपनी ने अदानी पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया था। हालांकि तब कंपनी के दावे को गौतम अदानी ने सिरे से ख़ारिज कर दिया था फिलहाल ताजा आरोपों के बारे में अडानी ग्रुप ने चुप्पी साध रखी है।
मनोरंजन जगत से बड़ी खबर है। 29 साल की शादी के बाद ए.आर. रहमान ने पत्नी सायरा बानू से तलाक ले लिया है। 19 नवंबर 2024 को एक संयुक्त बयान जारी कर रहमान और उनकी पत्नी ने आपसी सहमति से तलाक की घोषणा की।
इसी दिन आंधी रात को रहमान ने भी इस बारे में लिखा। उन्होंने कहा, ”हमें उम्मीद थी कि शादी के शानदार 30 साल पार करेंगे लेकिन ऐसा लगता है कि सभी चीज़ों का एक अदृश्य अंत होता है। यहाँ तक कि टूटे हुए दिलों के भार से ईश्वर का सिंहासन भी हिल जाता है। फिर भी इस बिखराव में हम अपने अर्थ की तलाश करते हैं, भले ही टुकड़ों को दोबारा अपनी जगह ना मिले।”
सायरा बानू और एआर रहमान (57) की शादी 1995 में हुई थी। दोनों के तीन बच्चे हैं- बेटियां ख़ातिजा और रहीमा के अलावा एक बेटा अमीन हैं। ऑस्कर और ग्रैमी जैसे प्रतिष्ठित अवॉर्ड से सम्मानित मशहूर संगीतकार एआर रहमान ने संगीत की दुनिया में क़रीब 32 साल पूरे किए हैं। दोनों की शादी का समय भी लगभग इतना ही रहा। एआर रहमान ने 23 साल की उम्र में 1989 में इस्लाम क़बूल किया था।
बिरसा मुंडा भारत के उस महान सपूत का नाम है, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल तब फूंक दिया था, जब उनकी उम्र 25 साल भी नहीं थी। इसके बावजूद बिरसा मुंडा को लेकर अंग्रजों का खौफ ऐसा था कि उन्होंने उन पर पांच सौ रुपये का इनाम घोषित कर रखा था, जो कि उस वक्त बहुत बड़ी रकम थी। उनके कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब बिहार से अलग होकर सन् 2000 में झारखंड बनना था तो बिरसा मुंडा की जयंती की तारीख़ पर ही झारखंड राज्य की स्थापना की गई।
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था। बिरसा मुंडा का जन्म स्थान खूंटी जिले के उलिहातु गांव में हुआ था। हालांकि तब यह रांची जिले में था। अँग्रेज़ों को कड़ी चुनौती देने वाले बिरसा सामान्य कद-काठी के व्यक्ति थे। उनका क़द केवल 5 फ़ीट 4 इंच था। बिरसा मुंडा की आरंभिक पढ़ाई सालगा में जयपाल नाग की देखरेख में हुई थी। उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में दाख़िला लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया था। कहा जाता है कि उनके एक ईसाई अध्यापक ने एक बार कक्षा में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया। उसके बाद उन्हें कक्षा में वापस नहीं लिया गया और स्कूल से भी निकाल दिया गया।
बाद में उन्होंने ईसाई धर्म का परित्याग कर दिया और अपना नया धर्म ‘बिरसैत’ शुरू किया। जल्दी ही मुंडा और उराँव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे। अंग्रेजों द्वारा भोले-भाले आदिवासी समाज के धर्मांतरण करने के खिलाफ बिरसा मुंडा खड़े हो गए। बिरसा मुंडा ने अपने संघर्ष की शुरुआत चाईबासा से की। यहाँ उन्होंने 1886 से 1890 तक अपने जीवन के चार वर्ष बिताए। वहीं से उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आदिवासी आंदोलन की शुरुआत करते हुए नारा दिया-
“अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना” (यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज ख़त्म हो गया है।)
ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ते हुए बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को आदेश दिया कि वो सरकार को कोई टैक्स न दें। वजह यह रही कि 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों की भूमि नीति ने परंपरागत आदिवासी भूमि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था। साहूकारों ने उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था और आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था। इसके खिलाफ मुंडा समाज ने एक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ का नाम दिया। उस दौरान बिरसा मुंडा अलग राज्य की स्थापना के लिए जोशीले भाषण दिया करते थे। बिरसा अपने भाषण में अपने लोगों को ललकारते हुए कहते थे- “डरो मत। मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है। सरकार का राज समाप्त हो चुका है। उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी। जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो।”
अपने लोगो को संगठित कर उन्होंने पुलिस स्टेशनों और ज़मींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था। कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह मुंडा राज का प्रतीक सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा। बिरसा मुंडा और उनके साथियों के इस आंदोलन से अंग्रेज घबराने लगे। उन्हें लगने लगा कि अगर जल्दी ही बिरसा मुंडा के आंदोलन को कुचला नहीं गया तो देश भर में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ विद्रोह शुरू हो जाएगा। अंग्रेज अधिकारियों ने किसी भी कीमत पर बिरसा मुंडा को पकड़ने की ठान ली। बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम रखा था। यह रकम उस ज़माने में बड़ी रक़म हुआ करती थी।
बिरसा मुंडा के विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर दिया। 22 अगस्त 1895 को अंग्रेजी हुकूमत ने बिरसा मुंडा को किसी भी तरह गिरफ्तार करने का निर्णय लिया। जिला अधिकारियों ने बिरसा के गिरफ्तारी के संबंध में विचार-विमर्श किया। जिला पुलिस अधीक्षक, जीआरके मेयर्स को दंड प्रक्रिया संहिता 353 और 505 के तहत बिरसा मुंडा का गिरफ्तारी वारंट का तामिला करने का आदेश दिया गया। दूसरे दिन सुबह मेयर्स, बाबु जगमोहन सिंह तथा बीस सशस्त्र पुलिस बल के साथ बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करने चल पड़े। पुलिस पार्टी 8.30 बजे सुबह बंदगांव से निकली एवं 3 बजे शाम को चालकद पहुंची। बिरसा के घर को उन्होंने चुपके से घेर लिया। एक कमरे में बिरसा मुंडा आराम से सो रहे थे। इस तरह बिरसा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया था।
उन्हें शाम को 4 बजे रांची में डिप्टी कलेक्टर के सामने पेश किया गया। रास्ते में उनके पीछे भीड़ का सैलाब था। भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही थी। ब्रिटिश अधिकारियों को आशंका थी कि उग्र भीड़ कोई उपद्रव न कर बैठे। लेकिन बिरसा मुंडा ने भीड़ को समझाया। बिरसा मुंडा के खिलाफ मुकदमा चलाया गया। मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया। बिरसा को राजद्रोह के लिए लोगों को उकसाने के आरोप में 50/- रुपये का जुर्माना तथा दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गई।
दो साल बाद 30 नवम्बर 1897 के दिन बिरसा को रांची जेल से छोड़ दिया गया। जेल से बाहर आने के बाद बिरसा मुंडा भूमिगत हो गए और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन करने के लिए अपने समर्थकों के साथ गुप्त बैठकें करने लगे। उन्होंने यह संकल्प लिया कि वे मुंडाओं का शासन लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। सन् 1899 में उन्हें अपने संघर्ष को और विस्तार दे दिया था। तमाम इतिहासकारों ने इस बात पर मुहर लगाई है कि सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था। अंग्रेजों को ललकारते हुए साल 1889 में बिरसा मुंडा की सेना ने 89 ज़मीदारों के घरों में आग लगा दी थी।
आदिवासियों का विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के ज़िला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था। आखिरकार डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और बिरसा मुंडा और उनके साथियों की भिड़ंत हुई थी। इतिहास में दर्ज है कि इस मुठभेड़ में सैकड़ों आदिवासियों की मौत हुई थी और पहाड़ी पर शवों का ढेर लग गया था। गोलीबारी के बाद सुरक्षाबलों ने आदिवासियों के शव खाइयों में फेंक दिए थे और कई घायलों को ज़िंदा गाड़ दिया गया था। कहा जाता है कि इस गोलीबारी में क़रीब 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज़ पुलिस ने सिर्फ़ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी। इस गोलीबारी के दौरान बिरसा भी वहां मौजूद थे, लेकिन वो किसी तरह वहाँ से बच निकलने में कामयाब हो गए।
बिरसा मुंडा को न पाकर अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गए और किसी भी तरह बिरसा मुंडा के आंदोलन को खत्म करने के लिए उन्हें पकड़ने की तैयारी में जुट गए। तीन मार्च को अंग्रेज़ पुलिस ने चक्रधरपुर के पास एक गाँव को घेर लिया था। बिरसा के नज़दीकी साथियों कोमटा, भरमी और मौएना को गिरफ़्तार कर लिया गया था, लेकिन बिरसा फिर बच निकले। तभी एसपी रोश को एक झोंपड़ी दिखाई दी थी। इतिहासकारों ने लिखा है कि जब रोश ने अपने बंदूक में लगे संगीन से उस झोंपड़ी के दरवाज़े को धक्का देकर खोला था तो अंदर बिरसा मुंडा झोंपड़ी के बीचों बीच पालथी मार कर बैठे हुए थे। उन्होंने खड़े होकर बिना कोई विरोध किये हथकड़ी पहन लिया। इस तरह अंग्रेजों के हाथ में वो क्रांतिकारी वीर लग गया, जिसने अंग्रजी सरकार की नींव हिला कर रख दी थी।
जब बिरसा राँची जेल पहुंचे तो हज़ारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे। बिरसा पर लूट, दंगा करने और हत्या के 15 मामलों में आरोप तय किए गए थे। जेल में बिरसा को अकेले सबसे दूर एकांत में रखा गया। सिर्फ़ एक घंटे के लिए रोज़ उन्हें सूरज की रोशनी पाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकाला जाता था। तीन महीने तक उन्हें किसी से मिलने की इजाजत नहीं दी गई। एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था। उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था। कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं और आखिरकार 9 जून, सन् 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया। इस तरह भारत के एक क्रांतिकारी वीर सपूत के शरीर का अंत हो गया, हालांकि उनके सपने आज भी जिंदा है, जिसे पूरा करने के लिए देश में लाखों लोग लगातार आंदोलन कर रहे हैं। बिरसा मुंडा को जल, जंगल, जमीन और सम्मान के लिए चलाए गए अपने आंदोलन के कारण आदिवासी समाज में भगवान का दर्जा हासिल हासिल है।
भाजपा की हरियाणा सरकार ने आरक्षण में वर्गीकरण लागू कर दिया है। वर्गीकरण के तहत अनुसूचित जाति के आरक्षण को दो हिस्सों में बांटने की बात कही गई है। हरियाणा के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने विधानसभा में अपने अभिभाषण में 13 नवंबर को यह घोषणा की। इसके बाद मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने भी विधानसभा में इस बात को दोहराया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसे लागू करने वाला हरियाणा पहला राज्य बन गया है। प्रदेश में अनुसूचित जातियों की स्थिति को पता लगाने के लिए प्रदेश सरकार ने राज्य अनुसूचित जाति आयोग को नौकरियों में अनुसूचित जातियों की हिस्सेदारी का पता लगाने का निर्देश दिया है।
इस बारे में प्रदेश सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया है। इसके मुताबिक प्रदेश में अनुसूचित जाति को 20 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। अब इसको 10-10 प्रतिशत के दो हिस्सों में बांट दिया गया है। 10 प्रतिशत आरक्षण एससी समाज की उन वंचित जातियों को मिलेगा, जो पीछे छूट गई हैं। जबकि बाकी का 10 प्रतिशत आरक्षण अन्य अनुसूचित जातियों को मिलेगा।
राज्य सरकार ने एससी समाज की पीछे रह गई जातियों को DSC यानी डिप्राइव शिड्यूल कॉस्ट यानी वंचित अनुसूचित जाति कहा है, जबकि बाकी को OSC यानी अदर यानी अन्य अनुसूचित जाति कहा गया है। हालांकि इन दो हिस्सों में किस जाति को कहां रखा जाएगा, यह अभी तय नहीं है। और यह एससी कमीशन की रिपोर्ट के बाद तय हो पाएगा। आरक्षण में वर्गीकरण को लेकर जो यह आशंका जताई जा रही थी कि इससे सीटें खाली रह जाएंगी जो सामान्य वर्ग को दे दिया जाएगा, सरकार ने इसको लेकर भी स्थिति साफ की है। सरकार का कहना है कि दोनों वर्गों को बराबर सीटें दी जाएगी। अगर एक वर्ग में काबिल अभ्यर्थी नहीं मिलते तो दूसरे वर्ग को इसका लाभ मिलेगा। न कि किसी अन्य से यह सीटें भरी जाएंगी।
इसी तरह पदों की संख्या विषम यानी 9 रहने पर 5 सीटें वंचित अनुसूचित जातियों को दी जाएगी, जबकि 4 सीटें अन्य अनुसूचित जाति को मिलेगी। उसी विभाग में दुबारा सीटों की संख्या विषम, यानी 9 होने पर इसका अलटा होगा। यानी 5 सीटें अन्य अनुसूचित जातियों को और 4 सीटें वंचित अनुसूचित जातियों को मिलेगी। राज्य सरकार ने साफ किया है कि पहली खाली पोस्ट में वंचित अनुसूचित जातियों को प्राथमिकता दी जाएगी। आरक्षण का यह क्राइटेरिया प्रदेश सरकार की नौकरियों, स्थानीय निकायों एवं शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए लागू होगा। इस आदेश के बारे में विस्तार से जानकारी हरियाणा के मुख्य सचिव की वेबसाइट पर दी गई है।
राज्य सरकार के इस फैसले के बाद अब सबकी नजर अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट पर रहेगी। देखना होगा कि अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट में प्रदेश में अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व को लेकर क्या सामने आता है। इससे यह पता चल पाएगा कि कौन सी जाति कहां खड़ी है। यह आने वाले दिनों में अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण तो बन ही सकता है।
हम लाख एक भारत, श्रेष्ठ भारत कह लें, जाति का जहर न तो भारत को एक होने दे रहा है और न ही श्रेष्ठ बनने देगा। घटना कर्नाटक की है। यहां मंदिर में दलित समाज के लोग घुस गए तो मनुवादी इतने भड़क गए कि भगवान को ही मंदिर से निकाल कर ले गए। घटना 11 नवंबर की है।
प्रदेश की राजधानी बंगलुरु से महज 100 किलोमीटर दूर मंड्या जिला है। यहां के हनाकेरे गांव में कालभैरवेश्वर स्वामी नाम का एक ऐतिहासिक मंदिर है। उत्सव मूर्ति नाम से यहां एक बड़ा कार्यक्रम होता है। गांव के दलित भी इस दौरान इसमें शामिल होना चाहते थे, लेकिन मनुवादी इसकी इजाजत नहीं देते थे। महीने भर तक दलितों और सवर्णों में इस बात को लेकर रस्सा-कस्सी चली। दलित इस कार्यक्रम में और मंदिर में जाने के लिए अड़ गए। सवर्णों के विरोध के बावजूद पूर्व विधायक एम. श्रीनिवास और अधिकारियों ने दलितों को मंदिर में प्रवेश कराया। और पुलिस की सुरक्षा में दलितों ने पहली बार कालभैरवेश्वर स्वामी मंदिर में न सिर्फ प्रवेश किया, बल्कि पूजा अर्चना भी की।
मंदिर में दलितों के प्रवेश पर सवर्ण मनुवादी भड़क गए। पहले उन्होंने मंदिर में लगे नाम पट्टिका को वहां से उखाड़ लिया और फिर भगवान की मूर्ति को मंदिर से बाहर निकाल ले गए। उनका कहना था कि जब दलितों की पूजा के लिए श्री चिक्कम्मा और श्री मंचम्मा देवी का मंदिर बनवाया गया है तो अब दलित श्री कालभैरवेश्वर स्वामी मंदिर में प्रवेश करके हमारी परंपरा कैसे तोड़ सकते हैं। बता दें कि इस गांव में दलितों के लिए दो मंदिर बनाए गए हैं। दलितों को सिर्फ वहीं जाने की इजाजत है।
जातिवाद और सवर्णों द्वारा खुद को श्रेष्ठ समझने का आलम यह है कि उन्होंने साफ कर दिया है कि जब एक बार दलितों को मंदिर में प्रवेश दे दिया गया है तो अब सवर्ण उस मंदिर में प्रवेश नहीं करेंगे। सोचिए, जातीय अहम कितना बड़ा है। जिस देश में आए दिन दलित उत्पीड़न के दर्जनों मामले रोज हो रहे हों, हो सकता है कि वहां अगड़ी जातियों के लिए ऐसे मामले या ऐसी खबरें आम हो, लेकिन जिस दलित समाज पर यह बीतती है, हर रोज वो किस दर्द से गुजरते हैं, यह वही जानते हैं। और ऐसी घटनाओं पर न तो एक भारत-श्रेष्ठ भारत का नारा देने वाले देश के प्रधानमंत्री कोई बड़ा कदम उठाते हैं, न ही सुप्रीम कोर्ट।
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में छात्रों ने जमकर प्रदर्शन किया। विरोध इतना पढ़ गया कि पुलिस ने युवाओं पर जमकर लाठियां चलाई। बिना यह देखे कि वह डंडा किसी लड़के पर गिर रहा है या किसी महिला अभ्यर्थी पर। युवा यूपीपीएससी, पीसीएस और आरओ-एआरओ प्रारंभिक परीक्षा दो दिन कराने का विरोध कर रहे थे। इनकी मांग है कि दो दिन की बजाय परीक्षा एक ही दिन कराई जाए। हालांकि यह विरोध प्रदर्शन पहले से तय था। प्रशासन को लगा कि कुछ छात्र आएंगे प्रदर्शन करेंगे। लेकिन भारत में बेरोजगारी का आलम यह है कि किसी भी वेकैंसी के लिए लाखों अभ्यर्थी होते हैं। लिहाजा युवाओं की भीड़ बढ़ गई और 10 हजार से ज्यादा युवा पहुंच गए।
अब लाठी चार्ज हुई तो नेताओं के बयान तो आने ही थे। अखिलेश यादव ने इस मुद्दे पर भाजपा को जमकर घेरा और युवाओं के साथ होने की बात कही। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा- युवा विरोधी भाजपा का छात्राओं और छात्रों पर लाठीचार्ज बेहद निंदनीय कृत्य है। इलाहाबाद में UPPSC में धांधली को रोकने के लिए अभ्यर्थियों ने जब माँग बुलंद की तो भ्रष्ट भाजपा सरकार हिंसक हो उठी। हम फिर दोहराते हैं कि नौकरी भाजपा के एजेंडे में है ही नहीं। हम युवाओं के साथ हैं।
हालांकि पुलिस के लाठीचार्ज के दौरान प्रयागराज में अभ्यर्थियों और पुलिस के बीच जमकर झड़प हो गई। छात्रों ने पुलिस के लाठीचार्ज के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। खबर है कि नाराज अभ्यर्थी यूपी लोकसेवा आयोग के ऑफिस में घुस गए। अभ्यर्थियों ने आयोग के सामने “एक दिन, एक शिफ्ट, नॉर्मलाइजेशन नहीं” की मांग रखी है।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर से देश में बेरोजगार युवाओं की फौज का सच सामने ला दिया है। साथ ही यहां सवाल यह भी उठता है कि क्या अब देश में ऐसा वक्त आ गया है कि छात्रों का अपनी मांग को लेकर विरोध करना भी सत्ता को गंवारा नहीं है। यूपी में आने वाले दिनों में विधानसभा के उप चुनाव है। लाठी चार्ज से नाराज इन युवाओं का विरोध यूपी के उपचुनाव में भाजपा के लिए भारी पर सकता है।
ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न शहर में भारतीय बौद्ध समुदाय ने 19 अक्टूबर 2024 को 68वां धम्मचक्र प्रवर्तन दिवस मनाया। यह कार्यक्रम मेलबर्न बुद्धिस्ट सेंटर और भारतीय बौद्ध समुदाय द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था। इस दौरान बौद्ध समाज ने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर और तथागत बुद्ध के विचार को दोहराया। इस आयोजन में हर उम्र के लोग पहुंचे। इसमें बच्चे, युवा, महिलाएं और बुजुर्ग समान रूप से शामिल थे।
14 अक्टूबर 1956 को भारत के महाराष्ट्र राज्य के नागपुर शहर में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने पांच लाख से ज्यादा अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया। इसके ठीक दो दिन बाद, 16 अक्टूबर 1956 को धम्म दीक्षा का कार्यक्रम महाराष्ट्र के ही चंद्रपुर में भी आयोजित हुआ। चंद्रपुर में यह समारोह जिस समिति ने आयोजित किया था, उसमें दिवंगत डॉ. जमनादास खोबरागड़े की प्रमुख भूमिका थी।
19 अक्टूबर के इस कार्यक्रम के लिए, दिवंगत डॉ. जमनादास खोबरागड़े के पुत्र डॉ. प्रशांत खोबरागड़े भी सिडनी से मेलबर्न पहुंचे थे। इस दौरान अपने संबोधन में उन्होंने 1956 में चंद्रपुर में हुई ऐतिहासिक घटना के बारे में अपने पिता द्वारा सुने गए किस्से को साझा किया। डॉ. संजय लोहट ने डॉ. अंबेडकर की पुस्तक “द बुद्ध एंड हिज धम्मा” को पढ़ने को लेकर अपना अनुभव साझा किया। इस दौरान मौजूद स्वरूप लांडगे ने भी डॉ. आम्बेडकर के आंदोलन में शामिल होने वाली अपने परिवार के सदस्यों के अनुभवों को साझा किया।
सभा को संबोधित करने वाले प्रमुख अतिथियों में डॉ. संजय लोहट, डॉ. प्रशांत खोबरागड़े, धम्मचारी सिलदास, श्री स्वरूप लांडगे शामिल थे। बता दें कि धम्म दीक्षा दिवस या धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस भारत के बौद्धों द्वारा हर साल मनाया जाता है। जहां तक मेलबर्न बुद्धिस्ट सेंटर की बात है तो यह त्रिरत्न बौद्ध समुदाय द्वारा चलाया जाता है। इसे पहले फ्रेंड्स ऑफ द वेस्टर्न बौद्ध ऑर्डर (FWBO) के नाम से जाना जाता था। यह एक अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क है जो बौद्ध धर्म के सिद्धांतों दुनिया भर में पहुंचाने के लिए काम करता है।
इस दौरान ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीय बुद्धिस्ट समाज ने इस कार्यक्रम में सहभागिता की। आयोजकों ने दलित दस्तक को इसकी तस्वीरें साझा की है, आप खुद देखिए झलकियां-
उत्तर प्रदेश के 9 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए बहुजन समाज पार्टी ने अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। बसपा ने कुंदरकी सीट से रफतउल्ला उर्फ नेता छिद्दा को टिकट दिया है, जबकि मझवां से दीपू तिवारी, कटेहरी से अमित वर्मा, मीरापुर से शाह नजर, गाजियाबाद से पीएन गर्ग और करहल से अवनीश कुमार शाक्य को अपना उम्मीदवार बनाया है।
दो सीटों पर बसपा ने अपना प्रत्याशी बदल दिया है, इसमें सीसामऊ और फूलपुर सीट है। फूलपुर से पहले शिवबरन पासी को टिकट दिया गया था, लेकिन बाद में वहां से बसपा ने जितेन्द्र ठाकुर को उम्मीदवार बनाया है। इसी तरह सीसामऊ से पहले रवि गुप्ता, फिर उनकी पत्नी को टिकट देने की चर्चा चली लेकिन फिर मंगलवार 22 अक्तूबर को वीरेन्द्र शुक्ला को प्रत्याशी घोषित कर दिया गया। अखिलेश यादव की सीट करहल विधानसभा के लिए बसपा ने अवनीश कुमार शाक्य को मैदान में उतारा है। खैर सीट पर प्रत्याशी का नाम दलित दस्तक के पास फिलहाल नहीं है। बसपा सुप्रीमो मायावती के निर्देश पर बसपा के उम्मीदवारों ने मंगलवार 22 अक्तूबर से ही नामांकन शुरू कर दिया है।
बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल को सभी सीटों पर प्रचार की जिम्मेदारी दी गई है। चर्चा है कि आकाश आनंद को भी चुनाव प्रचार में उतारा जा सकता है। बता दें कि मिल्कीपुर सीट पर अभी चुनाव का ऐलान हीं हुआ है। नौ सीटों पर वोटिंग 13 नवंबर को होगी, जबकि नतीजे 23 नवंबर को आएंगे। जिन सीटों पर उप चुनाव होना है, इनमें मैनपुरी की करहल, कानपुर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, अंबेडकरनगर की कटेहरी, मिर्जापुर की मझवां, अयोध्या की मिल्कीपुर, गाजियाबाद सदर, अलीगढ़ की खैर सीट, मुजफ्फरनगर की मीरापुर और मुरादाबाद की कुंदरकी सीट शामिल है।