बागेश्वर धाम वाले धीरेन्द्र शास्त्री के भाई ने दलितों को पिस्तौल दिखाकर धमकाया

 हिन्दू धर्म में ऋृषि-मुनियों को श्रद्धा से देखने की परंपरा रही है। लेकिन अब हिन्दू धर्म में ऋृषि-मुनियों की परंपरा को कलियुगी बाबा लगातार दागदार कर रहे हैं। इन दिनों बागेश्वर धाम का धीरेन्द्र शास्त्री चर्चा में है। बागेश्वर धाम वाले धीरेन्द्र शास्त्री का भाई गुंडा निकल गया है। शास्त्री के भाई ने हथियारों के बल पर दलितों को धमकाया है, जिसका वीडियो वायरल हो रहा है। सोशल मीडिया पर वायरल वीडिया में बागेश्वर धाम वाले शास्त्री के भाई ने एक दलित महिला की शादी में घुसकर वहां मौजूद मेहमानों को पिस्तौल दिखाकर धमकाया।

इस दौरान धीरेन्द्र शास्त्री का भाई सौरभ गर्ग उर्फ शालिगराम शराब के नशे में था। वीडियों में एक हाथ में सिगरेट लिए सौरभ को एक शख्स को गाली देते हुए और उसके सिर पर पिस्तौल ताने हुए देखा गया। पुलिस का कहना है कि सौरभ बागेश्वर धाम के गीतों की बजाय शादी मे बुंदेलखंड के लोकप्रिय राई नृत्य संगीत को बजाने से नाराज था। हद है, अब कोई बाबा और उसका गुंडा भाई यह तय करेगा कि कौन अपनी शादी में किस गीत-संगीत को बजाएगा।

 दरअसल धीरेन्द्र शास्त्री और बागेश्वर धाम पिछले कुछ वक्त से लगातार विवाद में है। 26 साल के धीरेन्द्र शास्त्री पर जमीन के अवैध कब्जे से लेकर लोगों को चमत्कार के नाम पर गुमराह करने के भी आरोप लगते रहे हैं। पिछले दिनों धीरेन्द्र शास्त्री ने महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम को लेकर भी विवादित बयान दिया था।

 बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक धीरेंद्र शास्त्री के साथ स्कूल में पढ़ चुके एक व्यक्ति ने बीबीसी को बताया था कि, ”स्कूल में धीरेंद्र पढ़ाई में बहुत ख़ास नहीं था। कहता था कि बड़े होकर धंधा करना है। फिर पता नहीं कहाँ, एक साल के लिए ग़ायब हो गया था। लौटा तो अलग ही था। धीरे-धीरे विधायकों, बाहुबलियों का आना शुरू हुआ। ये बना तो कांग्रेस नेताओं के कारण है पर आज जो हो रहा है, उसमें भाजपा का रोल है। वरना पाँच साल पहले तक साइकिल, मोटर-साइकिल से घूमा करता था।”

बीबीसी की इसी रिपोर्ट में चंदला के पूर्व विधायक आरडी प्रजापति ने भी शास्त्री पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि- ”गढ़ा में जो सरकारी ज़मीन थी, उस पर धीरेंद्र शास्त्री ने अपना निर्माण करवा लिया।” धीरेंद्र शास्त्री पर ज़मीन हड़पने के आरोप कुछ स्थानीय लोगों ने भी लगाया था और धरना भी दिया था, लेकिन इसपर कोई खास कार्रवाई नहीं हुई।

आम जनता में इन जैसे लोगों को चमत्कारिक संत मान लेने की जो जल्दी होती है, वह चिंता की बात है। ऐसे में जिस तरह धीरेन्द्र शास्त्री के भाई का दलित समाज की बेटी की शादी में सिगरेट पीते हुए और हाथ में पिस्तौल लहराते हुए धमकाने का वीडियो सामने आया है, उससे साफ है कि बागेश्वर धाम की इमारत के नीचे काफी सच दबा है। धीरेन्द्र शास्त्री के भाई को लेकर पुलिस-प्रशासन की चुप्पी समझ से परे हैं। दलित संगठन परिवार को धमकाने के लिए सौरभ गर्ग पर एससी-एसटी एक्ट में मुकदमा दर्ज करने की मांग कर रहे हैं।

” हिंदी दलित नाटक और रंगमंच “

हिंदी दलित साहित्य की अवधारणा में नाटक या रंगमंच को देखे तो भारतीय समाज में जातियों के परस्पर टकराव झेलती जातियों का संघर्ष नजर आता है। यहाँ दर्द भी है और अधिकार की माँग भी। इसी चाह, आंदोलन और वैमनस्य तथा आक्रोश के गर्भ से दलित नाटक तथा रंगमंच का निर्माण हुआ। दलित नाटककार एवं रंगकर्मियों ने अपनी अस्मिता तथा संस्कृति को पहचाना और हिंदी हिंदू रंगमंच के समान अपनी मौजूदगी दर्ज की। जब हम दलित नाटक या दलित रंगमंच की ओर देखते हैं तो कुछ बातें हमारे सम्मुख उपस्थित होती है। अत्याचार सहते हमारी जातीय बंधु, सवर्ण पुरूषों द्वारा बलात्कार का शिकार होती हमारी माँ, बहने, बेटियाँ तथा देवदासी प्रथा के अंतर्गत हिंदू देवताओं के प्रतिनिधियों के हवस की शिकार धर्म भीरू महिलाएँ, मंदिरों में अपनी इज्जत बचाने के लिए चिल्लाती तथा अंधविश्वास की शिकार महिलाएँ यह सब जो होता है वह भारत में स्थापित सवर्णवादी व्यवस्था के कारण । सवर्णवादी व्यवस्था के उत्पीड़न की प्रतिक्रिया स्वरूप दलित साहित्य की एक मजबूत विधा के रूप में नाटक की उत्पत्ति हुई । सबसे पहले दलित समाज में इस व्यवस्था के प्रति आक्रोश निर्माण हुआ और इसी आक्रोश ने आंदोलन का रूप ले लिया । इसी आंदोलन के गर्भ से नाटक का जन्म हुआ । स्वयं डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था, ”मेरे दस भाषणों से कई अधिक एक नाटक की प्रस्तुति लोगों पर असर डालती है।”1 मानवीय मूल्यों की स्थापना करना दलित नाटक तथा रंगमंच का मुख्य उद्देश्य रहा है। इसका निर्माता संवेदनशील होने के कारण अपनी वेदना, अपने उपर होने वाले अत्याचार, अपने अधिकारों का होता हनन, छटपटाहट को नाटक द्वारा व्यक्त कर समाज में चेतना निर्माण करने का कार्य करता है। उपर हमने कहाँ है कि दलित नाटक की उत्पत्ति बहुत मजबूत रूप से हुई है। किंतु इसके बावजूद भी यह विधा अचर्चित दिखाई देती है। इसके कई कारण हमें दिखाई देते हैं। यह नाटक जब-जब कहीं खेले जाते हैं या इसका मंचन होता है तब इसका काफी विरोध होता रहा है। व्यावसायिक नाटकों से इसका संघर्ष, रंगमंच की प्रतिकुलता, लेखकों की आर्थिक उदारता, प्रकाशक वर्ग द्वारा इनकी होती उपेक्षा आदि अनेक कारण इसके अचर्चा के रहे हैं ।

मूलत: नाटक यह विधा दलितों की ही देन है। शुरू से ही दलित समाज उत्पादक और श्रमजीवी रहा है। यह लोग दिन भर मजदूरी करके जब रात को वापिस आते हैं तो मनोरंजन के लिए अनेक कलाएँ प्रस्तुत करते थे । बिमारियों से मुक्ति, अकाल, अनावृष्टि से बचने के लिए यह लोग मुखौटा, जानवरों की खाल लगाकर नृत्य करते थे। नाटक का प्राथमिक रूप यही रहा है। मोहनदास नैमिशराय ने दलित नाट्य परंपरा को लोकनाट्य परंपरा से जोड़ते हुए लिखा है, ”मैं अगर कहूँ कि हर रंगकर्मी के भीतर उसकी स्मृतियों का दबाव होता है तो गलत नहीं होगा । थिएटर और लेखन के प्रति मेरे अनुराग का कारण भी वहीं रहा है। उसे विकसित किया सांग, ढोला तथा नौटंकी ने हमारे पड़ोसी लगभग अल्हा-उदल की कथा सुनते थे । बाद में मुझे पता चला वे हमारे पुरखे थे । उनकी बहादूरी के किस्से हमें रोमांचित करते थे। बिहार में ‘राजा सल्हेस’ का किस्सा लगभग इसी तरह का है। उस किस्से में अस्मिता का भाव है। साथ हमलावर को जवाब देने की प्रवृत्ति भी, दलितों के लिए नाटक से जुड़ना व्यक्तिगत रूची की बात कम और सामूहिक अधिक है।”2

मनोरंजन की जो तमाम विधाएँ है वह दलितों से ही विकसित होती नजर आती है। जैसे – नट, नृत्य, गायन इत्यादी । गाँव में नट-नटी के करतब दिखाने के लिए भाड़े-भड़ौती करना, विदूषक, मसखरा, बहरूपिया बनना, किसी के गुणों-अवगुणों का गा-गाकर प्रचार करना दलित लोग ही करते थे। इसी कलाओं को आगे चलकर नाटक का स्वरूप प्राप्त हुआ । कोई भी लोककला क्यों न हो, जैसे – जलसा, लावणी या नाटक उसमें काम करनेवाले ज्यादातर लोग दलित समाज के ही होते हैं । इससे पता चलता है कि नाटक दलितों के द्वारा ही खेला जाता है ।

वस्तुत: नाटकों का विवेचन दो रूपों में हम कर सकते है। वर्तमान में नाटक के दो रूप हमें दिखाई देते हैं। एक वह नाटक जो रंगमंच के अधिन है। जिसका निर्माण ही रंगमंच को आधार बनाकर किया जाता है । जिसे आज हम मूल प्रवाह का नाटक कहते हैं । जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन तथा अर्थ प्राप्ती ही होता है। लेकिन दलित नाटक इससे अलग है। यह दलितों द्वारा ही लिखा जाता है । यह अलग बात है कि आज गैर दलित लेखक भी दलितों के उपर लिख रहे हैं। लेकिन यह लेखन सहानुभूतिपरक होता है। परंतु आज दलितों को सहानुभूति नहीं चाहिए । क्योंकि सहानुभूति से कोई प्रश्न हल नहीं हो सकत हैं ।

एक तरफ वह नाटक है जिसके पास पूरी तरह से रंगमंच होता है और एक ओर वह नाटक है जिसके पास कोई विशेष रंगमंच ही नहीं है । इसे हम दलित नाटक कहते हैं । इसके पास न कोई रंगमंच है न रंगमंच की कोई साधन सामग्री। सही बात तो यह है कि दलित नाटकों को इन साधनों की कोई जरूरत ही नहीं होती । इसकी थीम ही इतनी सशकत होती है कि बिना किसी साधन-सामग्री तथा रंगमंच के बीना ही यह दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ जाती है । यह नाटक जिसने भोगा है, उसके द्वारा लिखने के कारण उसमें अभिव्यक्ति सामर्थ्य इतना होता है कि उसे संगीत, प्रकाश, वस्त्रसज्जा आदि साधनों की कोई जरूरत नहीं होती । इसीलिए इसे मुक्त नाटक भी कहा जाता है।

मूलत: हिंदी में दलित रंगमंच का जो प्रारूप है वह लोकरंगमंच है। लोकमंच पर काम करनेवाले लोग दलित ही रहे हैं । उसमें काम करने वाला वर्ग दलित ही रहा है। जो लोककलाएँ थी, उन्होंने ही आगे चलकर नाटक का रूप धारण किया । इस संदर्भ में दशरथ ओझा का मानना है कि, ”हिंदी नाटक की परंपरा का मूल स्रोत यह जन-नाटक ही है, जो स्वांग आदि नाम से अपने प्राचीन रूप से अब तक विद्यमान है। क्रमश: इन जन-नाटकों की एक शाखा ने विकसित होकर साहित्यिक रूप धारण किया।”3

आज दलित साहित्य के अंतर्गत नाटक विधा प्रमुखता के साथ हमारे सामने आती है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के प्रेरणा से आज दलित नाटक एवं दलित रंगभूमी आगे बढ़ रही है। इतिहास में घटित अनेक प्रसंग एवं घटनाओं ने दलित नाटककारों को लिखने के लिए प्रेरित किया है। इतिहास में ऐसे कई पात्र है जिनके मानवी हक को नकार कर उन्हें केवल जैविक रूप में देखा गया है । ऐसे पात्रों की वकालत करने का काम इस रंगभूमी ने किया है। वरिष्ठ आत्मकथाकार कौशल्या बैसंत्री के अनुसार, ”निश्चित ही नकारे हुए मानवीय हक को प्राप्त करने के लिए दलित रंगभूमी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।”4

20 वीं सदी में सबसे पहले स्वामी अछूतानंद ने हिंदी दलित नाट्य लेखन को लेकर पहल की । इनके चार नाटक दृष्टिगोचर होते हैं । इनका पहला नाटक ‘रामराज्य न्याय’ में रामायण के उपेक्षित तथा जुल्म का शिकार पात्र शंबूक की हत्या का चित्रण है । उनके अन्य नाटक, ‘मायानन्द बलिदान’, ‘पारख-पद’, ‘बली छलन’, यह हिंदू शास्त्रों और वाङ्मय के ऐसे पात्रों पर लिखे गए हैं, जिनके उत्पीड़न को सवर्ण साहित्यकारों और समाज ने त्यागा या बलिदान की संज्ञा देकर सवर्णों द्वारा दलितों के शोषण तथा सवर्ण पात्रों के छल को महिमामंडित करने का षड़यंत्र रचा था । अछूतानंद ने अपने नाटकों में ऐसे मर्म को छूनेवाले संवादों को रखा है जिससे दर्शक तथा पाठक को राम के प्रति अपनी मानसिकता बदलने को प्रेरित करते हैं और राम के वर्चस्ववाद को प्रस्तुत करते हैं ।

हिंदी दलित नाटक की इसी परंपरा में महत्त्वपूर्ण रूप से शिवप्रसन्नदास का ‘हरिजन’, माता प्रसाद का ‘अछूत का बेटा’, ‘धर्म के नाम पर धोखा’, ‘प्रतिशोध’, मोहनदास नेमिशराय का ‘अदालतनामा’, ‘हैलो कामरेड’, डॉ. एन.सिंह का ‘कठौती में गंगा’, एन.आर. सागर का ‘मार्ग का काटा’, ‘अन्तिम अवरोध’, सुनील कुमार सुमन द्वारा लिखित ‘एक बार फिर’, एल.एम. धर्मरत कृत ‘अछूत का प्यार’, कर्मशील भारती द्वारा लिखित ‘मान सम्मान’, ‘फांसी’, रूपनारायण सोनकर द्वारा लिखित ‘विषधर’, ‘एक दलित डिप्टी कलेक्टर’, ‘महानायक’, रत्नकुमार सांभरिया द्वारा लिखित ‘वीमा’, सुशीला टाकभौरे का ‘नंगा सत्य’, आदि प्रमुख नाटक है।

दलित नाटक और रंगमंच की दृष्टि से कर्मशील भारती और धर्मवीर ने दिल्ली में दलित न्याय मंच स्थापित किया था। जिसके द्वारा अनेक दलित नाटकों का मंचन हुआ । कर्मशील भारती के अनेक नाटकों का यहाँ सफलतापूर्वक मंचन भी हुआ है। जिसमें – ‘मेरा वजूद’, ‘फाँसी’, ‘संवादों के पीछे’, आदि प्रमुखता से देखे जा सकते हैं । उन्होंने 10 अक्टूबर, 1989 को विजयादशमी के दिन मुनीरका गाँव में ‘मेरा वजूद’, नाटक का मंचन किया था। उन्होंने ‘मान-सन्मान’, ‘श्रेष्ठ-कौन’, ‘झुठा अहंकार’, ‘आजादी किसकी’, आदि नाटकों का भी मंचन किया है। साथ ही वरिष्ठ दलित कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘दो चेहरे’ नाटक भी कई नाट्य संस्थाओं द्वारा मंचित हुआ है।

60 के दशक में प्रसिद्ध रंगकर्मी रमेश मेहता ने एक नाटक लिखा था, जिसका नाम था – ‘रोटी और बेटी’। नाटक के माध्यम से उन्होंने जातीय आधार पर लोगों को उद्वेलित और उत्तेजित करती आ रही ज्वलंत समस्या को उजागर किया है। इसी परंपरा में आगे 1977 में मनोहर लाल मानव ने ‘चावली’ नामक नाटक की निर्मिती की। इसकी मूल थीम दलित समाज के पढ़े-लिखे तबके में मध्यवर्गीय मूल्यों के प्रति रूझान और समाज का झकझोर कर उन्हें शिक्षित समाज के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देना है। इस नाटक का निर्देशन आनन्द कुमार ने किया था।  यह नाटक अनेक सार्वजनिक सभाओं में और दलित बस्तियों में मंचित हुआ था । 1980 मे मनोहरलाल और डालचंद के संयुक्त प्रयास से एल.के. रैना के द्वारा ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, विशेष रूप से दलित लोगों के लिए मंचित किया ।

जहाँ तक दलित समाज के शौकिया, नाटककारों की बात है, उसमें उत्तर प्रदेश के ही नाटककारों ने कई प्रस्तुतियाँ की । एकलव्य के जीवन पर वर्तमान के संदर्भ को लेकर भीमसेन संतोष द्वारा ‘शोषित के नाम संतोष का पैगाम’ नाटक लिखा, जो शोषित साहित्य प्रकाशन, दिल्ली की ओर से 1983 में प्रकाशित हुआ। इस नाटक में उन्होंने दलितों के भीतर की पीड़ा को बाहर लाने का प्रयास किया है। इस प्रकार दलित नाटकों का लेखन और मंचन आज भी होता हुआ दिखाई देता है। वर्तमान समय में दलित नाटककार सिनेमा और सिरियल के चकाचौंध से प्रभावित तो हुए हैं, किंतु वह अपने मूल उद्देश्य से दूर नहीं गये । वह आंबेडकरी विचारों से हटे नहीं है। वह सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन के लिए कटिबद्ध दिखाई देते हैं । भले ही आज दलित नाटक एवं दलित रंगभूमी के सामने अनेक समस्याएँ है किंतु बाबासाहेब आंबेडकर के प्रेरणा से दलित नाटककार, दलित नाटक, दलित रंगभूमी और दलित कलाकार आज आगे बढ़ रहा है।

संदर्भ : 1) मोहनदास नेमिशराय, दलित साहित्य अवधारणा में रंगमंच, पृ. 54 2) संपा. मनोहर भंडारी, दलित साहित्य समग्र परिदृश्य, पृ. 149 3) दशरथ ओझा, हिंदी नाटक का उद्भव और विकास, पृ. 53 4) संपा. डॉ. उमाकांत बिरादार, डॉ. विजकुमार रोडे, दलित विमर्श : नाटक तथा रंगमंच, पृ. 138 संप्रति : 1)    प्रोफेसर डॉ. संजय राठोड हिंदी विभाग, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, पिन-431004 चलभाष् – 9421686342 ई-मेल – drsanjayrathod5@gmail.com तथा 2) विकास सूर्यकांत वाघमारे शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), सेट, एम.फिल.,                 पी.जी. डिप्लोमा, पी-एच.डी. (कार्यरत) आदि । चलभाष् : 9518325363, 9075181603 ई-मेल :waghamarev12@gmail.com पत्राचार का पता : शोधार्थी, हिंदी विभाग, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, पिन-431004 मौलिकता प्रमाणपत्र- ” हिंदी दलित नाटक और रंगमंच” शीर्षक शोध आलेख स्वलिखित,  अप्रकाशित है।

रामचरित मानस विवाद के बीच समाजवादी पार्टी का बड़ा फैसला

 समाजवादी पार्टी ने अपनी पार्टी के दो सवर्ण नेताओं को निष्कासित कर दिया है। इसमें पहला नाम रोली तिवारी मिश्रा जबकि दूसरा नाम ऋचा सिंह का है। ये दोनों नेता रामचरित मानस मुद्दे पर स्वामी प्रसाद मौर्य का लगातार विरोध कर रही थीं और मौर्य के खिलाफ सोशल मीडिया पर मोर्चा खोल रखा था। ऐसे में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के फैसले से साफ हो गया है कि अखिलेश यादव अपनी पार्टी के सवर्ण नेताओं की बजाय पिछड़े समाज के नेताओं के साथ खड़े हैं।

 दरअसल, रोली मिश्रा और ऋचा सिंह सोशल मीडिया पर स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान का लगातार विरोध कर रही थीं। और हिन्दू धर्म और रामचरित मानस के समर्थन में खड़े होने के साथ ही स्वामी प्रसाद मौर्य पर खुलकर तो अखिलेश यादव पर इशारों-इशारों में हमला कर रही थीं। लगातार ऐसा होने के बाद अखिलेश यादव ने दोनों नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया है।

 इस बीच कई सपा नेताओं ने रोली तिवारी मिश्रा और ऋचा सिंह पर भाजपा के इशारे पर काम करने का आरोप भी लगा रहे थे। क्योंकि रोली तिवारी मिश्रा इस पूरे विवाद के बाद जिस तरह से हिन्दू धर्म की राजनीति पर उतर आई थीं, उससे साफ हो गया था कि आने वाले दिनों में उनका सपा में रहने का कोई इरादा नहीं है। सोशल मीडिया ट्विटर पर खुद को डॉ. रोली तिवारी मिश्रा लिखने वाली सपा नेत्री ने बाद में अपने नाम के आगे पण्डित जोड़ लिया था।

सपा से निकाले जाने के बाद मिश्रा ने अखिलेश यादव को टैग करते हुए लिखा कि राष्ट्रद्रोहियों, सनातन धर्मद्रोहियों, रामद्रोहियों के खिलाफ आवाज उठाती थी, उठाती रहूंगी। सनातन धर्म के स्वाभिमान प्रभु श्रीराम, श्रीरामचरित मानस के सम्मान के लिए ऐसे हजारों निष्कासन स्वीकार। अखिलेश यादव की इस कार्रवाई के खिलाफ जहां तमाम सवर्ण समाजवादी पार्टी को सनातन धर्म का विरोधी बताकर अखिलेश यादव पर निशाना साध रहे हैं तो वहीं अखिलेश यादव ने भी साफ कर दिया है कि धर्म और सम्मान की लड़ाई में वह सम्मान के साथ हैं।

People think who has come to live among us – Ramesh Bhangi

When a person lying in a corner of the village comes to live in the city and allegedly starts living in the midst of civilized society, there is a stir among the people around. He is harassed. People are not able to digest that till yesterday the person who used to serve at our place has come to live on an equal footing with us. This is to say of Ramesh Chand Gehlot i.e. Ramesh Bhangi.

Ramesh Bhangi of Valmiki Samaj is a well-known name in the world of Dalit literature and is practicing law these days. When he came to live in a society in Ghaziabad, there was a buzz in the neighborhood. He was harassed. Dirt was poured into their water tank. The neighbors wanted Ramesh to leave the Bhangi Society, but he stayed put as we faced difficulties.

It is not that Ramesh Bhangi promoted his caste. Ramesh Bhangi says my certificate name is Ramesh Chand Gehlot. It is a common name, it does not reveal caste, but in Indian society your caste goes ahead of you. As the fragrance of a flower moves forward, so does your caste. Can’t escape caste. I have to say that India itself means caste. The identity of India is only from caste.

How did Ramesh Bhangi become Ramesh Gehlot, and why? When asked, Ramesh says, “All the books on sociology, all start with caste. All the books written on India start with caste. So the reality of India is caste, it is difficult to avoid it, so I added my caste to my name.

Ramesh Bhangi struggled a lot in order to come to Delhi from the Dalit colony of the village. He was born in 1968 in Malakpur village of Baghpat district of Uttar Pradesh, situated on the edge of Delhi. From here he took education up to primary. When he was studying in the fifth standard, he and other children of his caste were made to sweep the school. The teacher then used to keep a separate stick for the children of the Dalit community. A big stick, so that he can beat the children of Dalit society and also stay away from them.

Later in the day, Ramesh Bhangi came to Delhi. During this he also did the work of scrap. He used to go around the city to collect papers. Ramesh Bhangi did not give up the desire to move forward despite doing many odd jobs during the days of struggle. His inspiration was Babasaheb Dr. Ambedkar, whose biography he got to read in his childhood. Babasaheb’s life struggle instilled in Ramesh Bhangi the belief that life can be successful if there is struggle. Ramesh realized how caste works when he went to the exchange office to enroll for a job. There was a vacancy for the bus conductor. But the clerk sitting there told him to work as a sweeper, what would he do by working as a bus conductor? However, later he got a job as a bus conductor and then later he was appointed as a translator in the Central Translation Bureau of the Ministry of Home Affairs. After which he saw closely what the Dalit community had to face while living in the residential colony.

He saw casteism closely while living in different government and private flats. And when he came to live in Vasundhara area of Ghaziabad situated at the mouth of Delhi, then there was an earthquake in the society. Ramesh Bhangi recollects, “I joined a society of Vasundhara in 2001. Everything went well for a few years. Then in the year 2006, my neighbor asked my wife about caste. Then the wife told her caste. Since then she started cutting off from us and gradually other people of the neighborhood also came to know about our caste.

After the truth of Ramesh Bhangi’s caste came to the fore, many times the neighbors argued with him. He was harassed in various ways. Ramesh says- “Everyone wanted us to leave from there. But if we stick to our identity, the neighbors start harassing us indirectly. Like broke the chairs kept on my terrace. They break our pots, they break the plants in them. Let’s break the water boil inside the water tank. Since we do not see who has done this, we cannot even say anything. So in this way there is an attempt to harass us.”

After all, in a society where all the people are educated, intelligent, who are called civilized, why do those people do this? When I ask, Ramesh Bhangi says that the people of Dalit society are still not being fully accepted in the residential areas of the cities. If the person in front belongs to the Valmiki community, the discrimination against him increases further. People also want to escape from our shadow. This is a mental illness and if the person in front has a mental illness, then he should also get treated. I am a Victim.

लोगों को लगता है कि हमारे बीच यह कौन रहने आ गया- रमेश भंगी

गांव के एक कोने में पड़ा हुआ व्यक्ति जब शहर में रहने के लिए आता है और कथित तौर पर सभ्य समाज के बीच में रहना शुरू करता है तो आसपास के लोगों के बीच में हलचल मच जाती है। उसे परेशान किया जाता है। लोग यह पचा नहीं पाते हैं कि कल तक जो व्यक्ति हमारे यहां चाकरी करता था, वह हमारे बराबर में रहने आ गया है। यह कहना है रमेश चंद गहलोत यानी रमेश भंगी का।

वाल्मीकि समाज के रमेश भंगी दलित साहित्य की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम हैं और इन दिनों वकालत कर रहे हैं। जब वो गाजियाबाद की एक सोसाइटी में रहने आएं तो आस-पड़ोस में खुसर-फुसर शुरू हो गई। उन्हें परेशान किया गया। उनके पानी की टंकी में गंदगी डाली गई। पड़ोसी चाहते थे कि रमेश भंगी सोसाइटी छोड़ दें, लेकिन हम मुश्किल को झेलते हुए वह वहां जमें रहें।

ऐसा नहीं है कि रमेश भंगी ने अपनी जाति का प्रचार किया था। रमेश भंगी कहते हैं मेरा सर्टिफिकेट का नाम रमेश चंद गहलोत है। सामान्य नाम है, इससे जाती का पता नहीं चलता, लेकिन भारतीय समाज में आपसे आगे आपकी जाति चलती है। जैसे किसी फूल की खुशबू आगे चलती है, वैसे ही आपकी जाति भी आगे चलती है। जाति से बच नहीं सकते। मेरा तो कहना है कि भारत का मतलब ही जाति है। भारत की पहचान ही जाति से ही है।

रमेश गहलोत से रमेश भंगी कैसे बन गए, और क्यों? पूछने पर रमेश कहते हैं, “समाजशास्त्र की जितनी किताबें हैं, सब सब की सब जाति से शुरू होती हैं। भारत के ऊपर जितनी किताबें लिखी गई हैं, सभी जाति से ही शुरू होती है। तो भारत की जो इस सच्चाई है वह जाति है इससे बचना मुश्किल है इसलिए मैंने अपने नाम के साथ ही अपनी जाति जोड़ ली।”

रमेश भंगी ने गांव की दलित बस्ती से दिल्ली आने के क्रम में काफी संघर्ष किया। दिल्ली के किनारे पर बसे उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के मलकपुर गांव में सन् 1968 में उनका जन्म हुआ। यहीं से उन्होंने प्राइमरी तक की शिक्षा ली। जब वो पांचवी में पढ़ते थे, तब स्कूल में उनसे और उनकी जाति के बाकी बच्चों से स्कूल में झाड़ू लगवाया जाता था। टीचर तब दलित समाज के बच्चों के लिए अलग से डंडे रखता था। एक बड़ा सा डंडा, ताकि वो दलित समाज के बच्चों को पीट भी दे और उनसे दूर भी रहे।

बाद के दिनों में रमेश भंगी दिल्ली आ गए। इस दौरान उन्होंने कबाड़ी का काम भी किया। वो शहर में घूम-घूम कर कागज चुना करते थे। संघर्ष के दिनों में कई छोटे-मोटे काम करने के बावजूद रमेश भंगी ने आगे बढ़ने की चाह नहीं छोड़ी। उनके प्रेरणा बने थे- बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, जिनकी एक जीवनी उन्हें बचपन में ही पढ़ने को मिल गई थी। बाबासाहेब के जीवन संघर्ष ने रमेश भंगी में यह विश्वास पैदा किया कि संघर्ष किया जाए तो जीवन सफल हो सकता है। जाति किस तरह काम करती है इसका अहसास रमेश को तब हुआ, जब वो नौकरी के लिए एक्सचेंज ऑफिस में नाम लिखवाने गए। बस कंडक्टर के लिए वेकैंसी थी। लेकिन वहां बैठे क्लर्क ने उनसे कहा कि वह सफाई कर्मचारी का काम कर लें, बस कंडक्टर की नौकरी कर वह क्या करेंगे?  हालांकि बाद में उन्हें बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई और फिर बाद में वह गृह मंत्रालय के केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में अनुवादक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। जिसके बाद रिहायशी कॉलोनी में रहने के दौरान दलित समाज के व्यक्ति को क्या-क्या झेलना पड़ता है, उन्होंने इसे करीब से देखा।

अलग-अलग सरकारी और निजी फ्लैट में रहने के दौरान उन्होंने जातिवाद को नजदीक से देखा। और जब वो दिल्ली के मुहाने पर बसे गाजियाबाद के वसुंधरा इलाके में रहने आएं तब तो सोसाइटी में भूचाल आ गया। रमेश भंगी याद करते, “मैं 2001 में वसुंधरा की एक सोसायटी में आ गया। कुछ सालों तक सब ठीक चला। फिर साल 2006 की बात है, मेरी पड़ोसी ने मेरी पत्नी से जाति के बारे में पूछा। तब पत्नी ने अपनी जाति बता दी। तब से वह हमसे कटने लगी और धीरे-धीरे आस-पड़ोस के दूसरे लोगों को भी हमारी जाति पता चल गई।”

रमेश भंगी की जाति का सच सामने आने के बाद कई बार पड़ोसियों ने उनसे तू-तू मैं-मैं की। उनको तरह-तरह से परेशान किया गया। रमेश कहते हैं- “सब चाहते थे कि हम वहां से चले जाएं। लेकिन हम अपनी पहचान के साथ डटे रहें तो पड़ोसी हमें अप्रत्यक्ष रूप से परेशान करने लगे। जैसे कि मेरी छत पर रखी कुर्सियां तोड़ दी। हमारे गमले तोड़ देते हैं, उसमें लगे पौधे तोड़ देते हैं। वाटर टैंक के अंदर लगे वाटर बॉईल को तोड़ देते हैं। हम चूकि देखते नहीं है कि यह किसने किया है, इसलिए हम कुछ बोल भी नहीं पाते हैं। तो इस तरह हमें परेशान करने की कोशिश की जाती है।”

आखिर जिस समाज में सभी लोग पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, जिन्हें सभ्य कहा जाता है, वो लोग ऐसा क्यों करते हैं? मेरे पूछने पर रमेश भंगी कहते हैं कि शहरों के रिहायशी इलाकों में दलित समाज के लोगों को अब भी पूरी तरह से एक्सेप्ट नहीं किया जा रहा है। सामने वाला वाल्मीकि समाज का हो तो उसके साथ भेदभाव और बढ़ जाता है। लोग हमारी परछाई से भी बचना चाहते हैं। यह एक मानसिक रोग है और मानसिक रोग सामने वाले को है तो इलाज भी उसे करना चाहिए। मैं तो विक्टिम हूं।

हिन्दू राष्ट्र की पोल खोलने वाली कहानी

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आज मैं मित्र अनुज के गांव में गया, जहां मुस्लिम ना के बराबर रहते हैं, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी का तो नामोनिशान तक नही गांव में, मैंने गांव के नुक्कड़ पर ही अनुज के घर के बारे में गांव के बाहर ही खड़े एक व्यक्ति मुकेश से पूछा कि भाईसाहब अनुज जी के घर जाना है।
मुकेश ने कहा की कौन अनुज?
मैंने बोला अनुज जी ,,
उसने फिर बोला भाई अनुज कौन से वाले?
मैंने कहा वही अनुज जी, अब वो आदमी गर्म हो गया, कहने लगा, अनुज-अनुज कर रहे, पूरा नाम बताओ?
मैंने बोला पूरा नाम जरूरी है क्या?
कहने लगा जरूरी है, बिल्कुल जरूरी है।
यहां कई अनुज रहते हैं, एक अनुज जाटों में है, दो अनुज चमारों में हैं, एक अनुज मालियों में हैं, एक त्यागियों में अनुज और एक अनुज तिवारी।
मैंने कहा अनुज हिन्दू,,
अब उस आदमी का पारा सातवें आसमान पर था, कहने लगा हिन्दू-हिन्दू नही , नाम बताओ पूरा नाम क्या है?
मैंने कहा अनुज जबभी मुझसे बहस करता है तो कहता है कि मैं “हिन्दू” हूँ,, हिन्दू राष्ट्र बनाने में अपना अहम योगदान दे रहा हूँ।
तो मुझे लगा कि जो व्यक्ति हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए ततपर हो , प्रयासरत हो, अग्रणी हो, कम से कम उसकी पहचान हिन्दू से तो होगी ही।
अब वो आदमी चिल्लाने भर पर आ गया, कहने लगा जब उसका पूरा नाम पता हो तब उसके बारे में पूछना उससे पहले नही।
मैं तब से यही सोच रहा हूँ कि जो व्यक्ति दिन-रात हिन्दू-राष्ट्र हिन्दू-राष्ट्र का राग अलाप रहा है वो अपने गांव तक को हिन्दू बना नही पाया वो देश को क्या हिन्दू राष्ट्र बनाएगा?
गांवों में आज भी ना केवल मोहल्ले बल्कि शमसान तक जातिओ के हिसाब से बंटे हुए हैं।
ऐसा देश जहां “जन्म से मृत्यु” के बाद भी “जाति नही जाती” वहां हिन्दू राष्ट्र की कल्पना मात्र करना भी हास्यस्पद नही तो क्या हे।
जाति । जाति । जाति ।
Mp Singh जी की पोस्ट से साभार 🙏

BBC पर छापे को लेकर मोदी की दुनिया भर में भारी फजीहत

दिल्ली और मुंबई स्थित बीबीसी दफ्तर पर आयकर विभाग के अधिकारियों के घंटों तक जमे रहने के बाद दुनिया भर में मोदी सरकार की जमकर किरकिरी हो रही है। आलम यह है कि इस पर दुनिया के अलग-अलग देशों से निकलने वाले अखबारों ने मोदी सरकार पर हमला बोला है। अखबारों ने भारत में प्रेस स्वतंत्रता पर हो रहे हमले को लेकर पीएम मोदी और उनकी सरकार पर निशाना साधा है। दुनिया के बड़े अखबार न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है-

‘भारत के अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के प्रति भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रुख़ की आलोचना करने वाली डॉक्यूमेंट्री के प्रसार को रोकने की कोशिश किए जाने के हफ़्तों बाद उनकी सरकार के आयकर विभाग के अधिकारियों ने मंगलवार को बीबीसी के दिल्ली और मुंबई दफ़्तरों पर छापा मारा है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत की सरकारी एजेंसियों ने अक्सर ही स्वतंत्र मीडिया संस्थानों, मानवाधिकार संगठनों और थिंक टैंकों पर छापे मारे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता सरकार की ओर से उनके फ़ंडिंग स्रोतों को निशाना बनाने को आलोचनात्मक आवाज़ों को दबाने की कोशिशों के रूप में देखते हैं।’

अमेरिका से ही प्रकाशित वॉशिंगटन पोस्ट ने मोदी सरकार की इस कार्रवाई पर एक बड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर बात की गयी है। वॉशिंगटन पोस्ट ने लिखा है-

‘आयकर विभाग अधिकारियों के बीबीसी के मुंबई और दिल्ली स्थित दफ़्तरों पर पहुंचने से दुनिया भर का ध्यान भारत में प्रेस स्वतंत्रता के ख़राब हालातों पर गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने इसे ”सर्वे” कहा है जो कि टैक्स रेड को व्यक्त करने का ही एक अलग ढंग है। इसकी टाइमिंग को लेकर भी सवाल हैं क्योंकि ब्रितानी प्रसारक ने तीन हफ़्ते पहले ही एक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ की थी जिसमें साल 2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों में पीएम नरेंद्र मोदी की कथित भूमिका की ओर ध्यान खींचा गया था। इस मामले में मोदी काफ़ी संवेदनशील दिखे हैं। उनकी सरकार ने डॉक्यूमेंट्री ब्लॉक करने के साथ ही सोशल मीडिया से लेकर विश्वविद्यालयों में उसकी क्लिप्स को रोकने की कोशिश की।’

अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल ने भी इस कार्रवाई की टाइमिंग पर सवाल उठाया है। अखबार ने लिखा है- ‘ये कार्रवाई मोदी सरकार की ओर से बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री ‘इंडिया- द मोदी क्वेश्चन’ को और उसके अंशों को प्रतिबंधित करने के लिए आपातकालीन क़ानूनों को अमल में लाए जाने के एक महीने से भी कम समय में की गयी है। सरकारी एजेंसियों ने इस डॉक्यूमेंट्री को अपने विश्वविद्यालयों में सामूहिक रूप से देखने की कोशिश करने वाले छात्रों को भी हिरासत में लिया है।’

जर्मनी के प्रमुख मीडिया संस्थान डी डब्ल्यू ने इस मामले में ख़बर लिखते हुए बताया है कि ‘जनवरी में बीबीसी ने दो हिस्सों वाली एक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ की थी। इस डॉक्यूमेंट्री में ये आरोप लगाया गया था कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए साल 2002 के दंगों में पुलिसकर्मियों को आंखें मूंदने का आदेश दिया था। इस हिंसा में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी जिसमें ज़्यादातर लोग मुसलमान थे। डी. डब्ल्यू ने यह भी कहा है कि भारत सरकार ने अपने सूचना प्रोद्योगिकी क़ानून में निहित आपातकालीन ताक़तों का इस्तेमाल करते हुए डॉक्यूमेंट्री साझा करने वाले ट्वीट्स और वीडियो लिंक्स को ब्लॉक किया था।’

 हालांकि बीबीसी ने इस मामले पर जारी अपने बयान में बस इतना भर कहा है कि ‘हम अपने कर्मचारियों की मदद कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि स्थिति जल्द से जल्द सामान्य हो जाएगी। हमारा आउटपुट और पत्रकारिता से जुड़ा काम सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा। हम अपने ऑडियंस को सेवा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’

 लेकिन जिस तरह से दुनिया भर के मीडिया संस्थानों में मोदी सरकार की बीबीसी के खिलाफ कार्रवाई को लेकर बातें हो रही है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में भारत में प्रेस स्वतंत्रता को लेकर बहस तेज हो सकती है। कुल मिलाकर दुनिया भर के अखबार मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं, जिससे मोदी सरकार की साख को बट्टा जरूर लग गया है।

डाइवर्सिटी एजेंडा लागू करवाने के लिए: क्यों नहीं आगे आ सकते बहुजनवादी दल!

आज भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता जिस तरह शिखर पर पहुंची है;जिस तरह नीचे की प्रायः 50% आबादी महज 3% नेशनल वेल्थ पर गुजर-बसर करने के लिए विवश है;जिस तरह भारत नाइजीरिया को पीछे छोड़ते हुए दुनिया के ‘पॉवर्टी कैपिटल’ अर्थात ‘गरीबी की राजधानी ‘का ख़िताब अपने नाम किया है; जिस तरह देश की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लगने के कयास लगाये जा रहे हैं और सर्वोपरि जिस तरह शासक वर्ग की नीतियों से बहुसंख्य वंचित समाज उस स्टेज में पहुंचा दिया गए है, जिस स्टेज में पहुंचने पर सारी दुनिया में वंचितों को मुक्ति- संग्राम में उतरना पड़ा है, ऐसी दशा

में अधिकांश बहुजन बुद्धिजीवियों को निगाहें बहुजन लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) पर टिक गयी हैं.बहुजन लेखकों का यह संगठन पिछले डेढ़ दशक से सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि,ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद; राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल अर्थात शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की वैचारिक लड़ाई शिद्दत से लड़ रहा है. इसके दस सूत्रीय एजेंडे को जहां भाजपा-कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के साथ के साथ कई क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने चुनावी मैनिफेस्टो में जगह दिया है,वहीँ कई राज्य सरकारों ने लागू भी किया है. बहुजन बुद्धिजीवियों का मानना है कि यदि बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को ठीक से लागू कर दिया जाय तो दलित, आदिवासी,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाएं शक्ति के स्रोतों में अपनी वाजिब हिस्सेदारी पा जाएँगी और भारत पलक झपकते आर्थिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से निजात पा जायेगा!

लेकिन बीडीएम के डाइवर्सिटी एजेंडे को लागू करेगा कौन, इस सवाल से इस लेखक को अक्सर दो-चार होते रहना पड़ता है! जहां तक वर्तमान सरकार का सवाल है, वह तो वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं को उस हालात में पहुचाने मे सर्वशक्ति लगा रही है, जिस हालात में इन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं.ऐसे में शक्ति के समस्त स्रोतों पर हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों के हाथ में देने पर आमादा वर्तमान सरकार से कोई उम्मीद नहीं: फिर उम्मीद किससे की जाय बहुजनवादी दलों से? तमाम लोग यही कहेंगे कि जो हिंदी पट्टी देश के राजनीति की दिशा तय करती है, वहां मजबूती से पैर जमायी सपा-बसपा- राजद- जदयू -लोजपा इत्यादि पार्टियां ही सामाजिक न्याय के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता के कारण बीडीएम के एजेंडे को लागू करने में रूचि ले सकती  हैं, इसलिए इन पर ही निर्भर होकर इसे लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए. लेकिन इन पर निर्भर होने के पहले जरा इनके मौजूदा चरित्र का अध्ययन कर लिया जाय!

इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी पट्टी के बहुजनवादी दलों ने मंडल उत्तरकाल में विराट सम्भावना जगाया, किन्तु वह चिरस्थायी न हो सका और 2009 के लोकसभा चुनाव से वे सामाजिक न्याय की राजनीति से विचलन का संकेत देने लगे. दरअसल 2009 तक वे बहुजन समाज को अपने वोटों का गुलाम समझने लगे थे. वे यह मानकर निश्चिन्त थे कि कुछ नहीं भी करने पर बहुजनों का वोट उन्हें थोक भाव में मिलते रहेगा. इसलिए उन्होंने न सिर्फ सारा ध्यान सवर्णों पर लगाना शुरू किया, बल्कि उनके हिसाब से एजेंडा भी सेट करने लगे. वे बहुजनों की भागीदारी को दरकिनार कर गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की आवाज़ बुलंद करने लगे थे. इस समय तक खुद को जातिमुक्त दिखाने के लिए उन्होंने तिलक तराजू .. और भूराबाल जैसे नारों से पूरी तरह दूरी बना लिया था. वे सवर्णों के सहारे पीएम बनने के सपनों में विभोर हो गए थे. सामाजिक न्याय की राजनीति से उनके विचलन का परिणाम 2009 के लोकसभा चुनाव में गहरी शिकस्त के रूप में आया, जिस पर टिपण्णी करते हुए प्राख्यात बहुजन पत्रकार दिलीप मंडल ने ‘मंद पड़ने लगी है सामाजिक न्याय  की राजनीति’ शीर्षक से 25 मई, 2009 को ‘नवभारत टाइम्स’ में लिखा था –:

‘वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में हिंदी पट्टी के दो राज्यों: बिहार और यूपी के राजनीति की एक हकीकत उजागर हो गयी है. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती और यूपी में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद मुलायम सिंह यादव, ये सभी महारथी अपनी चमक खो चुके हैं. इसके साथ ही भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में वंचित समूहों की हिस्सेदारी बढ़ाने की जो प्रक्रिया लगभग 20 साल पहले शुरू हुई थी, उस मॉडल के नायक –नायिकाओं का निर्णायक रूप से पतन हो चुका है. हालाकि यह सब एक दिन में नहीं हुआ है, लेकिन अब वह समय है, जब इसके पतन और विखंडन की प्रक्रिया पूरी हो रही है. सामाजिक न्याय की राजनीति का सफ़र जिस उम्मीद से शुरू हुआ था, उसे याद करें तो इन मूर्तियों का इस तरह गिरना और नष्ट होना तकलीफ देता है. बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक वजूद घट गया है और उनकी पार्टी सिर्फ चार सीटें जीत पाई है या रामविलास पासवान की पार्टी का अब लोकसभा में अब कोई नामलेवा नहीं बचा है. न ही इस बात का निर्णायक महत्त्व है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का ख्वाब सजों रही मायावती की पार्टी का प्रदर्शन इस लोकसभा चुनाव में बेहद ख़राब रहा. मुलायम सिंह के पार्टी का प्रदर्शन पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले खराब होने का भी निर्णायक महत्त्व नहीं है.अहम बात यह है कि इनसे राजनीति के जिस मॉडल की बागडोर सँभालने की अपेक्षा की जा रही थी और इनके जनाधार की जो महत्वाकांक्षाएं थी, उसे पूरा करने में सभी नाकामयाब हो चुके हैं. यह एक सपने के टूटने की दास्तान है. यह सपना था भारत को बेहतर और सबकी हिस्सेदारी वाला लोकतंत्र बनाने और देश के संसाधनों पर खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी दिलाने का. मायावती की बात करें तो दो दशक पहले जिस तेज-तर्रार नेता को देश ने उभरते हुए देखा था, अब की मायावती उसकी छाया भी नहीं लगतीं.’

बहरहाल 2009 में दिलीप मंडल ने सामाजिक न्याय के राजनीति के मंद पड़ने की जो घोषणा किया था, वह 2014 में और बदतर स्थिति में पहुँच गयी. 2009 के पराजय के बाद उन्हें सामाजिक न्याय की उग्र राजनीति की ओर लौटना था,पर वे खुद को नहीं बदले और अच्छे दिन लाने की उम्मीद जगा कर 2014 के लोकसभा में उतरे नरेंद्र मोदी नामक तूफ़ान के सामने उड़ से गए. सबसे बुरी स्थिति बसपा की हुई. सामाजिक न्याय से भारी दूरी बनाने के कारण मायावती जी की बसपा शून्य पर पर पहुँच गयी.2014 में मुखर बहुजन नेता रामविलास पासवान सामाजिक न्याय का खेमा बदलकर मोदी के साथ हो लिए. बहरहाल बहुजनवादी दलों में अगर 2009 में लोजपा; 2014 में  बसपा शून्य पर पहुंचने का रिकॉर्ड बनायीं तो 2019 में सामाजिक न्याय की बेहद मुखर पार्टी राजद शून्य पर पहुँच गयी. वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के उदय के बाद बहुजनवादी पार्टियां चुनाव दर चुनाव अपनी स्थिति कारुणिक बनाती गईं. इसका प्रधान कारण यह रहा कि जिस सामाजिक न्याय के राजनीति की जोर से भाजपा को शिकस्त दी जा सकती थी, इन्होंने वह मुद्दा उठाया ही नहीं. एकमात्र अपवाद रहे लालू प्रसाद यादव जिन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में डाइवर्सिटी केन्द्रित मुद्दा उठाकर लोकप्रियता के शिखर पर काबिज मोदी की भाजपा को शिकस्त दे दिया.2015 के बाद हिंदी पट्टी में चार चुनाव हुए : 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 में लोकसभा चुनाव, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 में फिर यूपी विधानसभा चुनाव. आश्चर्य की बात यह रही कि अज्ञात कारणों से यूपी और बिहार के बहुजन नेतृत्व ने इन चुनावों में सामाजिक न्याय से जुड़ा जरा भी मुद्दा नहीं उठाया. एक ऐसे दौर में जबकि मोदी सत्ता में आने के बाद राजसत्ता का अधिकतम इस्तेमाल निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये आरक्षण के खात्मे और संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने में कर रहे थे, इन्होंने चारों चुनावों में  आरक्षण को विस्तार देने वाला मुद्दा उठाया ही नहीं. जबकि इनके समक्ष लालू प्रसाद यादव का दृष्टांत था, जिन्होंने डाइवर्सिटी केन्द्रित हल्का सा मुद्दा उठाकर 2015 मोदी जी को आराम से शिकस्त दे दिया था. यदि इन्होंने कायदे से डाइवर्सिटी टाइप मुद्दा उठाया होता, मोदी की 2019 में न तो सत्ता में वापसी हो पाती और न ही बहुजनों के गुलामों की स्थिति में पहुचने की नौबत आती.

ऐसा लगता है मोदी के उत्तरोत्तर अप्रतिरोध्य बनते जाने के साथ अज्ञात कारणों से बहुजन नेतृत्व में सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति मरती गयी, जबकि सत्ता में आने के बाद जिस तरह जूनून से मोदी आरक्षण के खात्मे और शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के हाथ में देने में मुस्तैद हुए थे, उससे वंचित बहुजनों को आक्रोशित कर सत्ता दखल की बेहतर जमीन तैयार होने लगी थी. किन्तु जैसा पूर्व पंक्तियों में कहा कि इनमें सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति ही विलुप्त सी हो गयी, इसलिए उन्होंने मोदी की बहुजन विरोधी नीतियों के सद्व्यवहार में कोई रूचि ही नहीं ली. अगर ऐसा नहीं होता तो वे कहते कि हम सत्ता में आने के 24 घंटे के अन्दर सवर्ण आरक्षण का खात्मा कर देंगे और जाति जनगणना कराकर उनको उनके संख्यानुपात में हर क्षेत्र में अवसर देंगे तथा उनके हिस्से का 65 से 75 प्रतिशत अतिरक्त अवसर दलित, आदिवासी पिछड़ो और अकलियतों के मध्य बाटेंगे. जिस तरह मोदीराज में लाभजनक सरकारी उपक्रमों को अन्धाधुन बेचा गया, वे कह सकते थे कि हम सत्ता में आने पर बेचीं गयी सरकारी कंपनियों और परिसंपत्तियों की समीक्षा कराएँगे और प्रयोजन होने पर पुनः राष्ट्रीयकरण करेंगे. वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति सहित सत्ता में आने पर सरकार के हर बहुजन विरोधी फैसलों को पलटने की बात कहकर अपने समर्थकों में सामाजिक न्याय का सपना दे सकते थे पर,इच्छाशक्ति ख़त्म होने के कारण ऐसा न कर सके.

सबसे बड़ी बात तो यह है कि मोदी सरकार ने अपनी बहुजन विरोधी नीतियों से सापेक्षिक वंचनाको तुंग पर पंहुचा दिया , किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में बहुजन नेतृत्व इसके  सद्व्यवहार से मीलों दूर रहे. क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब वंचित वर्गों में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है,तब उन में शक्ति संपन्न वर्ग के खिलाफ आक्रोश की चिंगारी फूट पड़ती है और वे शासकों को सत्ता से दूर धकेल देते हैं.जिस तरह आज मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक आज जो हालात भारत में पूंजीभूत हुए  हैं,वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे: यहाँ तक कि फ्रांसीसी क्रांति और  रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी नहीं रहे !लेकिन मोदी सरकार द्वारा  लगातार देश को बेचने तथा बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने का उपक्रम करते देखकर भी बहुजनवादी विपक्ष कभी सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लिए आगे इसलिए नहीं आया, क्योंकि अदृश्य व अज्ञात कारणों से उसमें सत्ता हासिल करने की इच्छा शक्ति शायद विलुप्त हो गयी है. अतः जिन बहुजनवादी दलों में सत्ता में आने की चाह विलुप्त सी हो गयी, उनसे यह प्रत्याशा नहीं की जा सकती कि वे शक्ति के समस्त सोतों के वाजिब बंटवारे की हिमायत करने वाले बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के दस सूत्रीय एजेंडे में कोई रूचि लेंगे! ऐसे में इसे लागू करवाने के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करना होगा!

बहनजी ने सीएम योगी पर बोला हमला, जानिए क्या है मामला

बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने मुख्यमंत्री योगी और उनकी सरकार पर जमकर हमला बोला है। कानपुर में हुई घटना से आहत बहनजी ने न सिर्फ इस मामले पर दुख जताया, बल्कि पीड़ित परिवार के लिए इंसाफ की भी मांग की है। दरअसल कानपुर देहात में अतिक्रमण हटाने के दौरान मां-बेटी की जल कर हुई मौत का मामला योगी सरकार के लिए मुसीबत खड़ी कर रहा है। योगी प्रशासन की इस ज्यादती के खिलाफ देश भर में रोष है और हर कोई इसके लिए योगी सरकार की जमकर आलोचना कर रहा है।

उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने इस मामले में ट्विट किया है। अपने ट्विट में उन्होंने कहा कि- “देश व खासकर उत्तर प्रदेश जैसे गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई व पिछड़ेपन आदि से त्रस्त विशाल राज्य में भाजपा सरकार की लोगों को अति-लाचार एवं आतंकित करने वाली बुल्डोजर राजनीति से अब निर्दोष गरीबों की जान भी जाने लगी हैं, जो अति-दुखद व निन्दनीय है। सरकार अपना जनविरोधी रवैया बदले।” बसपा प्रमुख ने कहा है कि- “कानपुर देहात जिले में अतिक्रमण हटाने के नाम पर हुई ज्यादती व आगजनी की घटना के दौरान झोपड़ी में रहने वाली माँ-बेटी की मौत तथा 24 घण्टे बाद उनके शव उठने की घटना यूपी सरकार के विज्ञापित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से ज्यादा चर्चाओं में है, ऐसे मंघ यूपी का जनहितकारी भला कैसे संभव?”

सवर्ण समाज के जो लोग भाजपा की सरकार को अपनी सरकार मानते हैं, इस घटना ने साफ कर दिया है कि सरकार किसी की नहीं होती, खासकर गरीब और वंचितों की तो बिल्कुल नहीं। घटना में पीड़ित परिवार का संबंध ब्राह्मण परिवार से बताया जा रहा है। इस घटना में मां-बेटी की अतिक्रमण हटाने के दौरान आग में जलकर मौत की घटना परेशान करने वाली है। परिवार के मुखिया कृष्ण गोपाल दीक्षित की चीत्कार करती हुई सामने आई तस्वीर किसी का भी कलेजा चीरने के लिए काफी है। यह तस्वीर योगी सरकार पर गंभीर सवाल खड़े करती है। साफ है कि पीड़ित परिवार को न्याय मिलना चाहिए। ऐसे में जब बहनजी भी खुलकर पीड़ित परिवार को इंसाफ दिलाने के लिए आगे आ गई हैं, साफ है कि योगी सरकार और उसके प्रशासन पर दबाव बढ़ गया है।

दो सौ रुपये के लिए दलित को मार डाला

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में जातिवादी किस कदर बेखौफ हैं यह आए दिन होने वाली घटनाओं से साफ हो गया है. ताजा घटनाक्रम में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में जातिवादी गुंडों ने सिर्फ 200 रुपये के लिए दलित परिवार पर गोलियां चला दी। इस घटना में दलित परिवार के 35 साल के संजीव की मौके पर ही मौत हो गई जबकि बच्चों सहित एक अन्य युवक गोली लगने से घायल हो गया। घायलों की स्थिति गंभीर बनी हुई है।

घटना मुजफ्फरनगर जिले के जानसठ कोतवाली क्षेत्र के राजपुर कला गांव की है। मामला महज 200 रुपये के लेन-देन का था। इसको लेकर दोनों पक्षों में विवाद हो गया। बात इतनी बढ़ गई की राजेन्द्र नाम के गुंडे ने अपने बेटे मोहित और एक अन्य साथी के साथ मिलकर अपनी लाइसेंसी बंदूक से दलित परिवार पर फायरिंग शुरू कर दी। जब तक किसी को समझ में आता और कोई बीच-बचाव को आता देर हो गई थी।

संजीव की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि उसका 4 साल का बेटा शौर्य, 5 साल की बेटी दिव्या और भाई मोहित गोली लगने से गंभीर रूप से घायल हो गए। घटना में मारा गया युवक और उसका परिवार वाल्मीकि समाज के हैं, जबकि आरोपी जाट समाज का है। मारे गए संजीव के घायल भाई मोहित का आरोप है कि वह दो सौ रुपये रख लेने की बात कह रहा था, लेकिन हमने उसके कोई पैसे नहीं रखे हैं। उसने अचानक गोली चला दी।

घटना को अंजाम देने के आरोपी आसानी से भाग निकले। तो दूसरी ओर प्रशासन ने आरोपियों की गिरफ्तारी के लिए चार टीमों का गठन किया है। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि जो भाजपा सरकार और उसके सीएम योगी आदित्यनाथ लगातार गुंडों को काबू में करने और गुंडों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने की बात करने हैं उनके शासन में जातिवादी गुंडे क्यों नहीं काबू में आ रहे हैं। प्रदेश में दलितों पर अत्याचार आए दिन बढ़ता जा रहा है।

उत्तर प्रदेश के एटा में भी एक रेस्तरां में योगेश यादव नाम के युवक को अपने चार साथियों के साथ सिर्फ इसलिए पीटा क्योंकि वो कुर्सी पर बैठ कर खा रहा था। योगेश याव ने पहले उसकी जाति पूछी, और फिर उसे पीटा।

बिहार क्यों आरएसएस-भाजपा के लिए चुनौती बना हुआ है?

केंद्र में भाजपा की सत्ता का आधार हिंदी पट्टी के 10 राज्य हैं। इन 10 राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं।
इन 10 प्रदेशों में लोकसभा की कुल 353 सीटों में 214 सीटें हैं यानि लोकसभा की करीब 61 प्रतिशत सीटें इन्हीं 10 राज्यों में हैं। शेष 143 सीटें यानि 39 प्रतिशत सीटें शेष 18 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में वितरित हैं।
2019 के लोकसभा चुनावों भाजपा को कुल 303 सीटों पर विजय मिली थी। जिसमें 178 सीटें हिंदी पट्टी के इन 10 राज्यों में मिली हैं। हिंदी पट्टी की 214 सीटों में से 178 सीटों पर भाजपा विजयी हुई थी। इन राज्यों में उसकी सफलता की दर 83 प्रतिशत से अधिक हैं।
दिल्ली की सभी सात सीटों, हरियाणा की सभी 10 सीटों और उत्तराखंड की सभी पांच सीटों पर भाजपा विजयी हुई। इन तीनों राज्यों में उसकी सफलता की दर 100 प्रतिशत रही। राजस्थान में उसे कुल 25 सीटों में से 24 सीटों पर जीत मिली।
यहां उसकी सफलता की दर 96 प्रतिशत रही। मध्यप्रदेश में उसे 29 सीटों में 27 सीटें मिलीं। यहां उसकी सफलता की दर 93 प्रतिशत रही। झारखंड में उसे 14 में से 12 सीटों पर विजय हासिल हुई। यहां उसकी सफलता की दर 86 प्रतिशत रही। छत्तीसगढ़ में उसे 11 सीटों में से 9 सीटों पर जीत हासिल हुई। यहां उसकी सफलता की दर 82 प्रतिशत रही।
उत्तर प्रदेश में उसे 80 सीटों में 62 सीटें मिलीं। यहां उसकी सफलता की दर 78 प्रतिशत रही। बिहार में उसे 40 सीटों में से 17 सीटें मिली। यहां उसकी सफलता की दर 42 प्रतिशत रही। 2014 में भाजपा को बिहार में 40 सीटों में से 22 सीटें मिली थीं। उस समय उसकी सफलता की दर 55 प्रतिशत थीं।
जहां हिंदी पट्टी के अन्य सभी शेष राज्यों में भाजपा की सफलता की दर 75 प्रतिशत से लेकर 100 प्रतिशत तक है, वहीं बिहार में उसकी सफलता की दर 42 प्रतिशत है। हिंदी पट्टी में बिहार एकमात्र राज्य है, जहां भाजपा आज तक विधान सभा चुनावों में अपने दम पर न तो बहुमत हासिल कर पाई है, न अभी तक अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बना पाई है।
प्रश्न यह आखिर भाजपा के सामने बिहार में कौन सी राजनीतिक और वैचारिक चुनौतियां हैं और कौन से सामाजिक समीकरण हैं, जिसके चलते बिहार हिंदी पट्टी में एकमात्र ऐसा किला बना हुआ है, जिसको पूरी तरह भाजपा फतह नहीं कर पाई है। यह मात्र संयोग है या इसके पीछे कुछ ठोस बुनियादी वजहें हैं या कुछ समय की बात है?

जातिवाद के दो बड़े मामले से दलित समाज में हलचल

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IIT बॉम्बे के 18 साल के छात्र दर्शन सोलंकी ने हॉस्टल की सांतवी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली। बी.टेक का छात्र दर्शन सोलंकी अहमदाबाद का रहने वाला था। उसने तीन महीने पहले ही इंजीनियरिंग कोर्स में दाखिला लिया था। 11 फरवरी को ही उसके पहले सेमेस्टर की परीक्षा समाप्त हुई थी, जिसके बाद 12 फरवरी को वह सातवीं मंजिल से कूद गया।

इसके बाद अंबेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्कल ने एक इंस्टाग्राम पोस्ट में इसे जातीय उत्पीड़न का मामला बताया है। तो कुछ लोग इसे पढ़ाई के दबाव के कारण उठाया गया कदम बता रहे हैं। हालांकि छात्र ने कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा है, इस घटना के बाद कई तरह की सूचनाएं सामने आ रही हैं।

 इसी तरह के एक और मामले में स्कूल के प्रिंसिपल ने 11वीं के एक छात्र राजकुमार को इसलिए मारपीट कर के स्कूल से भगा दिया, क्योंकि उसने प्यास लगने पर बोतल से पानी पी लिया, जो प्रिंसिपल का था। यह घटना उत्तर प्रदेश के बिजनौर के अफजलगढ़ का है। पीड़ित राजकुमार सीरवासुचन्द्र स्थित चमनोदेवी इंटर कॉलेज में 11वीं का छात्र है। बीते 12 फरवरी को स्कूल में 12वीं के छात्रों का फेयरवेल था। जिसमें पीड़ित युवक पहुंचा था। युवक का आरोप है कि उसे प्यास लगी तो उसने सामने रखे बोतल से पानी पी लिया। जिसके बाद प्रिंसिपल योगेन्द्र कुमार और उसके भाई ने बोतल को अपनी बताते हुए उसके साथ मारपीट की और जातिसूचक  शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उसे स्कूल से भगा दिया। इस मामले में भी मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।

 अगर दोनों मामलों को साथ मिलाकर देखें तो साफ है कि दोनों मामले जातिवाद के होते हुए भी अलग हैं। पहले मामले में छात्र ने खुदकुशी कर ली, जबकि दूसरे मामले में पीड़ित ने खुद को प्रताड़ित करने वालों के खिलाफ पुलिस में मामला दर्ज करवा दिया। दरअसल जातिवाद ऐसी चीज है, जिसे रोकना दलित समाज के वश में नहीं है। घर से बाहर निकलने पर तमाम लोगों को जातिवाद झेलना ही पड़ता है। खासकर युनिवर्सिटी में पढ़ाई के लिए जाने वाले युवाओं को तो इसका ज्यादा ही सामना करना पड़ता है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने बच्चों को जातिवाद से लड़ने की ट्रेनिंग दें। उन्हें यह बताएं कि जाति का सवाल उनके सामने आएगा, और जब आएगा तो उससे कैसे निपटना है। ताकि वो जातिवाद के खिलाफ लड़ें, जातिवादियों को मुंहतोड़ जवाब दें, न कि हथियार डाल दें और हॉस्टल की बिल्डिंग से छलांग लगा दें।

बी.आर. अंबेडकर को कहा ‘बीयर अंबेडकर’, मामला दर्ज

बेंगलुरु के जैन युनिवर्सिटी में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का अपमान का मामला सामने आया है। जिसके बाद जैन युनिवर्सिटी के सेंटर फॉर मैनेजमेंट स्टडीज के प्रिंसिपल दिनेश नीलकांत और 7 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया है। दरअसल इन सभी पर कॉलेज में नाटक के दौरान बाबासाहेब आंबेडकर और दलित समुदाय के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप है। जिसके बाद सभी आरोपियों के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत IPC 153A,149, 295A  के तहत मामला दर्ज किया गया है।

 विश्वविद्यालय के छात्रों की ओर से किए गए नाटक का एक वीडियो कुछ दिनों पहले ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था, जिसमें युनिवर्सिटी के 6 दलित छात्रों और डॉ. आंबेडकर को अपमानजनक तरीके से दिखाया गया था, जिसके बाद लोग नाराज हो गए। इस नाटक में दलितों का मजाक उड़ाया गया और डॉ. बी. आर. आंबेडकर को ‘बीयर अंबेडकर’ कहा गया।

4 फरवरी को कॉलेज के ही कुछ छात्रों द्वारा नाटक देखने के बाद इसे जातिवादी  नाटक करार दिया गया और इसके खिलाफ ऑनलाइन याचिका दायर की गई। हैरानी की बात यह है कि इस नाटक को प्ले करने से पहले उसकी स्क्रिप्ट को कई लोगों ने देखा और उसे मंजूरी भी दे दी गई। अब आरोपियों से सार्वजनिक मांफी मांगने की मांग की जा रही है।

दरअसल पिछले कुछ दिनों में भारत रत्न और संविधान निर्माता डॉ. बी आर आंबेडकर के खिलाफ बोलने और उनके सार्वजनिक अपमान की घटनाएं बढ़ी हैं। पहले सिर्फ गांवों से बाबासाहेब आंबेडकर की प्रतिमाओं को तोड़ने की खबरें आती थी, लेकिन वर्तमान में पढ़े-लिखे लोगों के बीच भी डॉ. आंबेडकर का मजाक बनाए जाने और उन्हें अपमानित करने की घटनाएं तेज हो गई हैं। कई लोग डॉ. आंबेडकर के फॉलोवर को ‘भीमटा’ कह कर संबोधित करते दिखते हैं, इससे बाबासाहेब और दलित समुदाय को लेकर उनके मन में भरा जहर सामने आ जाता है। बेंगलुरू की घटना भी ऐसी ही घटना है।

बीबीसी पर इंकम टैक्स विभाग की रेड

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और पूरी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह अव्वल दर्जे के तानाशाह हैं। जो भी उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश करेगा, वो उसे बख्शेंगे नहीं। जी हां, जिस बीबीसी ने पिछले दिनों गुजरात दंगों और रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर वीडियो सीरीज को रिलिज किया था, उसके दफ्तर पर आज आयकर विभाग ने छापा मारा है।

हालांकि विभाग इसे सर्वे बता रहा है, रेड नहीं। उनका कहना है कि अियमितताओं के इनपुट्स के आधार पर बीबीसी से जुड़े कुछ मामलों की जांच की जा रही है। दिल्ली के अलावा बीबीसी के मुंबई दफ्तर पर भी आयकर अधिकारी पहुंच गए हैं।

दिल्ली के क्नॉट प्लेस में मौजूद बीबीसी के दफ्तर में इंकम टैक्स के 60-70 लोगों की टीम पहुंची। इस दौरान स्टॉफ के फोन बंद करा दिये गए और यहां हर किसी के आने-जाने पर रोक लगा दी गई। इसकी जो वजह बताई जा रही है उसमें कहा जा रहा है कि बीबीसी पर इंटरनेशनल टैक्स में गड़बड़ी का आरोप है। इसकी सूचना बाहर आते ही विपक्ष ने भाजपा सरकार पर हमला बोल दिया है। कांग्रेस ने इसे अघोषित आपातकाल बताया है।

दरअसल कुछ दिन पहले ही बीबीसी ने गुजरात दंगों और रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर वीडियो सीरीज जारी किया था, जिसके बाद हंगामा मच गया था। मोदी सरकार इससे इस कदर परेशान हो गई कि उसने बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री को ही बैन कर दिया। और अब बीबीसी दफ्तर में इंकम टैक्स के अधिकारी पहुंच गए हैं। साफ है कि मोदी सरकार बीबीसी को सबक सिखाने के मूड में है।

मोदी सरकार पहले ही अडानी मामले को लेकर चारो ओर से घिरी हुई है। विपक्ष की घेराबंदी के बावजूद न तो सरकार का कोई मंत्री और न ही प्रधानमंत्री मोदी ही अडानी पर कुछ कह रहे हैं। मोदी सरकार पर अक्सर मीडिया को दबाने का आरोप भी लगता है। इसी कारण तमाम सोशल एक्टिविस्ट भारतीय मीडिया को गोदी मीडिया कहते रहे हैं। लेकिन इस बीच में यह माना जा रहा था कि भारत में काम करने वाली विदेशी मीडिया स्वतंत्र है। लेकिन बीबीसी पर आयकर विभाग के छापे ने साबित कर दिया है कि चाहे भारतीय मीडिया हो या फिर विदेशी मीडिया, मोदी सरकार में किसी को भी सरकार और उसके आका के खिलाफ कुछ भी कहने की इजाजत नहीं दी जाएगी। लेकिन सोचना होगा कि क्या यह भारत के लोकतंत्र के लिए ठीक है?

अंबेडकर जिंदा होते तो उन्हें गोली मार देता- दलित नेता

राजनीति जो न करवाए। जी हां, सत्ता की लालच आज के राजनेताओं को इतना गिरा दे रही है कि वो उल-जलूल कोई भी बयान देने को तैयार रहते हैं ताकि किसी ‘खास’ की नजर में हीरो बन सके। दरअसल तेलंगाना में दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले और खुद को दलितों का नेता कहने वाले हमारा प्रसाद नाम के व्यक्ति ने एक वीडियो जारी कर कहा है कि अगर डॉ. आंबेडकर आज जिंदा होते तो वह उन्हें उसी तरह से गोली मार देता, जैसे गोडसे ने गांधी को मारा था।

यह बयान देने वाला हजारा प्रसाद खुद को राष्ट्रीय दलित सेना का संस्थापक कहता है। डॉ. आंबेडकर की किताब ‘रीड्ल्स इन हिंदुइज्म’ को दिखाते हुए उसका कहना है कि डॉ. आंबेडकर ने हिन्दुओं की भावनाओं को आहत किया है। इस वीडियो के सामने आने के बाद बवाल मचा है। तेलंगाना में बहुजन समाज पार्टी के नेता और पूर्व आपीएस अधिकारी डॉ. आर.एस. प्रवीण कुमार ने इस वीडियो को साझा करते हुए ओरोपी हमारा प्रसाद को गिरफ्तार करने और कठोर कार्रवाई करने की मांग की। इसके बाद हैदराबाद की पुलिस ने हमारा प्रसाद के खिलाफ आईपीसी की धारा 153ए और 505 (2) के तहत मामला दर्जकर उसे गिरफ्तार कर लिया है।

दरअसल इन दिनों कुछ दलित नेताओं में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी से निकटता करने की होड़ मची है। वह खुद को हिन्दुवादी साबित कर भाजपा से कोई राजनैतिक पद हासिल करने की जुगाड़ में लगे रहते हैं। इसके लिए सबसे आसान तरीका अंबेडकर की आलोचना और हिन्दू धर्म की तारीफ का है। हमारा प्रसाद की कोशिश भी कुछ ऐसी ही दिखती है। बता दें कि इन दिनों रामदास अठावले नाम के नेता भी संसद के भीतर लगातार मोदी की शान में कविताएं पढ़ते हुए दिखते हैं। अठावले जब भी बोलने के लिए खड़े होते हैं, उनका एकमात्र लक्ष्य भाजपा और उससे भी ज्यादा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करना होता है। ऐसा कर वह अक्सर खुद ही मजाक बन जाते हैं, लेकिन अठावले रुकते नहीं।

भारत के अब तक के इतिहास के सबसे आदर्श और खूबसूरत जीवनसाथी फुले दंपति हैं

फुले दंपति ने अपने जीवन के आधार पर यह आदर्श स्थापित किया कि पति-पत्नी का संबंध कैसे होना चाहिए।
दोनों ने हर स्तर पर बराबरी का जीवन जिया। उस रूढ़िवादी दमनकारी परम्परा में सही और स्वतंत्र सोच वाले इस दंपति-युगल ने इस अवधारणा को तोड़ दिया कि स्त्री का काम सिर्फ़ घर संभालना, पति व उसके घर वालों की सेवा करना और बच्चे पैदा करना मात्र है।
उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि पुरुष सिर्फ़ बाहरी कार्य करेगा। इसका पालन स्वयं जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने भी जीवनभर किया और व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन के संघर्षों में दोनों कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चले।
दोनों ने एक साथ शिक्षा प्राप्त की; एक साथ मिलकर स्कूल स्थापित किए। दोनों एक साथ घर से बाहर निकाले गए। दोनों ने मिलकर विधवाओं के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह खोला। सत्यशोधक समाज की स्थापना दोनों ने मिलकर की। सत्यशोधक विवाह पद्धति के निर्माण में दोनों की भूमिका रही।
अकाल पीड़ितों की मदद करने दोनों एक साथ निकले और कौन क्या कहेगा इसकी चिंता किए बिना अलग-अलग जगहों पर मानवसेवा के महान कार्य में पूरी तन्मयता से लगे रहे। यानि जीवन में हर क्षण हर क़दम पर बराबरी की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का पालन करते हुए दोनों एक-दूसरे का साथ देते रहे।
शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए दोनों ने अपना जीवन न्योछावर कर दिया। दोनों पूरी तरह आधुनिक चेतना और मानवीय संवेदना से परिपूर्ण महान व्यक्तित्व के धनी थे। स्वतंत्रता, समता और सबके लिए न्याय, ये सब दोनों के जीवन के आदर्श थे। दोनों के सपने एक थे। दोनों का रास्ता एक था और दोनों की मंज़िल भी एक ही थी।
यदि यह देश वर्ण-जातिवादी न होता और इस पर अपरकॉस्ट मानसिकता के विचारकों-लेखकों का प्रभुत्व न होता, तो इस देश के जन-जन को आदर्श दंपत्ति के रूप में फुले दंपत्ति को पढ़ाया और बताया जाता तथा उनके दिखाए रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता।

महाराष्ट्र के वैचारिक परंपरा में राजर्षि  शाहू महाराज का योगदान 

महाराष्ट्र का इतिहास प्राचीन है। अनेक घरानों  की  सत्ता   महाराष्ट्र   पर  थी, जिनमें से सर्व  प्रथम  ‘मौर्य’ घरानों की  सत्ता  थी । इसके  पश्चात सातवाहन,वाकाटक ,चालुक्य , राष्ट्रकूट , यादव,तुघलक,आदिलशाही,निजामशाही,वरिदशाही,  कुतुबशाही,  इमामशाही   आदि   प्रमुख घरानों की सत्ता आयी। इनमें  से कई  शासन में आम लोगों का शोषण होता था। धर्म, जाति  के नाम झगड़े होते थे। सत्रहवीं  सदी  परिवर्तन  के रूप में सामने आयी। छत्रपति शिवाजी महाराज ने तत्कालीन समय सभी जाति,धर्म को एकत्रित किया।समाज की गलत रूढ़ि का विरोध किया। स्वराज्य की स्थापना की।जुल्मी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष  करते   रहे।  कालांतर  से  परिवर्तन  की शुरुआत  हुई।  वैचारिक  विचारों  की  पृष्ठभूमि निर्माण होने लगी। वारकरी संप्रदाय महाराष्ट्र के लिए वरदान साबित हुआ।उन्होंने प्रबोधन के  माध्यम  से  समाज  जागृति  की।  सभी जाति, धर्म  को समान माना। जाति भेद, अस्पृश्यता नष्ट   करने की कोशिश  की।  समानता  निर्माण  करने  का प्रयास किया।संत से प्रेरणा लेकर कई व्यक्तियों ने तत्कालीन समय कार्य किया। वर्तमान में  भी कर  रहे  हैं ।  परिणाम   समाज  में  सामाजिक क्रांति हुई। क्रांति के दृष्टि से उन्नसवीं सदी महत्वपूर्ण रही। क्योंकि  कई समाज  सुधारक, सामाजिक संस्था  का  निर्माण  हुआ।  समाज  में  प्रचलित रूढ़ि, परंपरा, जातिभेद,  अस्पृश्यता,  वर्णभेद, अंधश्रद्धा  आदि  का  विरोध  किया। आधुनिक  क्रांति शुरू हुई। सिर्फ  विरोध नहीं  किया, कार्य निरंतर करते  रहे। इन्हीं  कारणवश  वर्तमान  में महाराष्ट्र को पुरोगामी विचार  से  पहचाना जाता है । महाराष्ट्र  की  वैचारिक  परंपरा   प्राचीन  है, तथागत  गौतम  बुद्ध  के विचार  से  शुरू  होती  है।  आधुनिक  काल  में  जगन्नाथ  शंकर   शेट, बाळशास्री  जांभेकर, दादोबा  पांडुरंग , गोपाळ हरि  देशमुख , भाऊ   दाजी  लाड, विष्णु  बुआ ब्रह्मचारी, महात्मा ज्योतिबा फुले, विष्णु शास्त्री, सावित्रीबाई  फुले, रा. गो. भांडारकर, न्यायमूर्ति गोविंद  रानाडे, गोपाळ  गणेश  आगरकर,धोंडो केशव  कर्वे, रमाबाई   रानाडे, पंडिता  रमाबाई, गोपाळ  कृष्ण   गोखले,  विठ्ठल   रामजी  शिंदे, कर्मवीर   भाऊराव   पाटिल ,  डाॅ.  बाबासाहेब आंबेडकर,राजर्षि शाहू महाराज,लहूजी साळवे, ताराबाई बापुजी शिंदे,भास्कर राव जाधव,बाबा पदमजी,भाऊ महाजन,मुक्ता साळवे, कृष्ण राव भालेकर, नारायण लोखंडे, लक्ष्मी बाई  टिळक, काशीबाई कानिटकर,रखमाबाई राऊत, आनंदी बाई   जोशी , विष्णु   शास्त्री  पंडित  आदि  का योगदान रहा। वर्तमान में भी उनसे प्रेरणा लेकर कई व्यक्ति कार्य  कर रहे हैं। विचार  आगे  बढ़ा रहे है। महाराष्ट्र की वैचारिक परंपरा में  जिन्होंने योगदान  दिया, उनमें   से  प्रमुख  व्यक्तियों   के विचार पर प्रकाश डालेंगे। महाराष्ट्र की वैचारिक परंपरा धर्म के नाम पर बहुजन समाज का शोषण कल भी होता था, आज भी होता है और शायद आने वाले समय में भी होगा। हर धर्म  में  कोई बुरी परंपरा रहती है। इससे आम लोगों का मानसिक, शारीरिक  शोषण   होता  है । शोषण  विरुद्ध   महात्मा  ज्योतिबा  फुले  ने  तत्कालीन समय  आवाज  उठाई। उन्होंने  किसी  धर्म  का विरोध नहीं किया, धर्म में प्रचलित रूढ़ि, परंपरा का विरोध किया। वे  धर्म को दोष नहीं देते, धर्म के अनुयाई  को  दोष देते  हैं। हर  धर्म में भेद है चाहे   ख्रिश्चन  हो,  मुस्लिम  हो, जैन  हो,  बौद्ध हो,हिंदू हो। जहा भेद वहां उच-नीचता आती है। वे भेदभाव का निरंतर विरोध करते रहे।
                                 सनातनी ब्राह्मण बहुजन समाज का निरंतर शोषण करते रहे ,वर्तमान में भी कर  रहे   है  किंतु कम मात्रा में।लोगों में भेदभाव  निर्माण  किया, खुद  के  स्वार्थ के लिए। बहुजन  समाज को धार्मिक  विचार  में  बांध  रखा। पाप- पुण्य, स्वर्ग- नरक आदि काल्पनिक घटनाओं में लोगों को  व्यस्त रखा। यात्रा, गृह प्रवेश, जन्म,विवाह, मृत्यु , उत्सव  आदि   से   बहुजन   समाज  का आर्थिक शोषण करते रहे। धार्मिकता के  गुलाम बनाते रहे। सनातनी  ब्राह्मण के  विचार  गुलामी से   मुक्ति  मिले,  इसलिए   सत्यशोधक  विवाह पद्धति  शुरू  की। पद्धति  में  मंगलाष्टक  कहने ब्राह्मण की  जरूरत  नहीं  थी । वर, वधू  दो ,दो मंगलाष्टक और पाॅंचवी  समारोह  में आया  एक व्यक्ति कहता था।सनातनी ब्राह्मण की मक्तेदारी खत्म होना शुरू हुआ। बहुजन समाज मुक्त होने लगा।  सनातनी  ब्राह्मण  के  धार्मिक विचार के संदर्भ  में   महात्मा  ज्योतिबा  फुले  कहते  है , ” ब्राह्मणों ने  बच्चों के जन्म, विवाह, ग्रह  प्रवेश मृत्यु, नए  वर्ष, विभिन्न  त्योहारों,हर  जगह  की वार्षिक, अर्धवार्षिक या मासिक यात्रा  इस तरह की  घटनाऍं  यानी  सामान्य  मनुष्य  को निरंतर लूट के प्रसंग बना दिए।”1  वर्तमान  में  धार्मिक रूढ़ि, परंपरा का बोलबाला  दिखाई  दे  रहा है, इसके परिणाम गंभीर हो रहे हैं। इनमें  परिवर्तन होना जरूरी है, इसलिए महात्मा ज्योतिबा  फुले के विचार को आत्मसात करना समय  की  माॅंग है। धोंडो केशव कर्वे ने स्री शिक्षा,स्री पुनर्विवाह के  लिए  निरंतर कार्य किया। स्री  की  सुधारना उनके जीवन का  उद्देश्य  था। तत्कालीन  समय बाल  विवाह  होते थे। परिणाम स्री जल्द विधवा होती  थी । विवाह  क्या  होता  है?यह  भी  उसे अच्छी तरह समझ  नहीं आता  था। उसका कई माध्यम  से  शोषण  होता  था। इन  समस्या की तरफ धोंडो  केशव  कर्वे   ने ध्यान  दिया।  बाल विवाह प्रथा पर पाबंदी  हो, यह अंग्रेज  सरकार को  बताने  की  कोशिश  की। 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून बना, किंतु विधवा विवाह नहीं हो रहे थे। विधवा विवाह हो, इसलिए मानव धर्म सभा,परमहंस सभा,प्रार्थना समाज,सत्यशोधक समाज, आर्य   समाज  आदि  ने   निरंतर  कार्य किया।संस्था के कार्य का आदर्श सामने रखकर धोंडो  केशव   कर्वे  ने   सामाजिक  कार्य  शुरू किया। कालांतर  से  महाराष्ट्र  में  विधवा विवाह होने लगे। विधवा विवाह को ज्यादातर  विरोध ब्राह्मण  जाति से  था।  विधवा  की  पीड़ा  धोंडो केशव  कर्वे  ने  नजदीक  से  देखी  थी । उन्होंने उद्धार करने  का ठान  लिया  था। उनका विवाह भी बाल विवाह था। विवाह के समय उनकी उम्र पंद्रह  वर्ष  और पत्नी  राधाबाई  की उम्र नौ वर्ष थी।पत्नी राधाबाई का देहांत जल्द यानी 1891 में हुआ, तब धोंडो केशव कर्वे पैंतीस वर्ष के थे। विधवा की  समस्या जान  चुके  थे। उन्होंने  तय किया  कि  मैं विवाह करूंगा तो विधवा स्त्री से। वह  भी  प्रौढ़  स्री  से।  परिवार  के  सदस्य  को समझा कर विधवा स्त्री से विवाह किया। विधवा विवाह  के  संदर्भ में धोंडो केशव कर्वे के विचार है,” 11मार्च,1893 को कुंवारी लड़की से शादी न  करके  मुंबई  में  पंडिता  रमाबाई  के  शारदा आश्रम  में चार  साल  रहने वाली  गोदुबाई नाम की  अटठाईस  वर्षीय  विधवा  स्री से पुनर्विवाह करके समाज के सामने आदर्श निर्माण किया।” 2  वे  सिर्फ  बोलते  नहीं  थे, खुद  कार्य  करते थे,बाद  में दूसरों  को  बताते थे। इसी से उनकी कथनी और  करनी  में  कोई अंतर नहीं था, यह समझ आता है।
                        तत्कालीन  व्यवस्था में धर्म का वर्चस्व था। धर्म  के  नाम  पर स्री का शोषण होता था। स्री जीवन  शाप  बन  चुका  था। देवदासी प्रथा, मुरळी  प्रथा,  बाल  विवाह, विधवा  पन, जरठ विवाह आदि प्रमुख समस्या प्रचलित थी। गलत परंपरा  का  कई  समाज   सुधारक   ने  विरोध किया, जिसमें  प्रमुख  नाम  था  विठ्ठल  रामजी  शिंदे।  समस्या  पर  हल  निकालने  की  उन्होंने निरंतर  कोशिश  की।  स्री को  नई ज़िंदगी  दी। विठ्ठल रामजी  शिंदे  प्रार्थना समाज के अनुयाई थे। उन्होंने  समाज में जागृति  की।  धर्म  शिक्षा के लिए  इंग्लैंड  गए। वहाॅं  दो  वर्ष रहे। जाने के लिए पैसे नहीं थे, तब सयाजीराव  गायकवाड ने  आर्थिक सहायता की।  इंग्लैंड  में विठ्ठल रामजी शिंदे  ने  कई   धर्म   का   तुलनात्मक  अध्ययन किया। वहाॅं के विचारवंत से  चर्चा  की। अलग- अलग विषय के  व्याख्यान सुने। कई  मंदिर  में गए, वहां  की  परंपरा देखी। ॲनी बेझंट, रिसडे व्हिड आदि के ग्रंथ पढ़े। कालांतर से स्कॉटलैंड, फ्रान्स,जर्मनी,होलैंड, स्विजरलैंड, इटली  आदि देश की यात्रा की। वहा भी धर्म का ज्ञान हासिल किया। वे होलैंड के ॲमस्टरडॅम में आंतर राष्ट्रीय उदार धर्म  परिषद  को गए। भारतीय  प्रतिनिधि के रूप में वहां ‘भारत के उदार धर्म’  विषय  पर व्याख्यान दिया। बुरी परंपरा के  खिलाफ  कार्य करने वाली संस्थाओं  की  जानकारी दी। इंग्लैंड से भारत आने के पश्चात धर्म  सुधार  में तेजी से लगे। धर्म  की  मीमांसा भी की। धार्मिक  विचार के संदर्भ में विठ्ठल  रामजी शिंदे  कहते है, “एक दस  वर्षीय  लड़की  को  जमखेड़ी  गाॅंव में एक अछूत ने  मुरळी  के रूप में छोड़ दिया था। उसे अपने घर  बुलाया  और  उसके  माता-पिता  से मुरळी प्रथा रोकने का आग्रह किया। उन्हें  कहा कि लड़की को पढ़ाना चाहिए। मुरळी  प्रथा नहीं चलानी चाहिऍं।”3  वर्तमान  में  धर्म के नाम पर परंपरा शुरू है किंतु  कम। आज  भी  देवदासी, मुरळी  जैसी  प्रथा  प्रचलित  है।  इन  वजह  से समाज  में, परिवार   में   स्री  को   सम्मान  नहीं मिलता।  संविधान  होकर  भी  भारत  की  यह अवस्था है,इसे नकारा नहीं जा सकता।  प्रथा से स्री को मुक्त करना है तो  पुरुष को  मानसिकता बदलनी  होगी ।  धर्म  का  अंधविश्वास  छोड़ना  होगा। समाज में धार्मिक प्रथा प्रचलित थी, वर्तमान में भी है सिर्फ स्वरूप बदला है। परंपरा को  विज्ञान  का आधार  नहीं  था काल्पनिकता  था। इन  विचार  से समाज अंधकार में था। धर्म के कई  नियम थे। पालन नहीं  किया तो धर्म से बहिष्कृत किया जाता था। समाज  में  हर  धर्म की अलग-अलग परंपरा थी,समाज के लिए वह कलंक थी। बुरी  प्रथा  के  माध्यम  से  सनातनी विचार के लोग बहुजन समाज का शोषण करते थे। कोई भी धर्म के विचार बुरे नहीं होते, विचार का प्रसार करने वाले व्यक्ति बुरे होते हैं। खुद के स्वार्थ के लिए गलत विचार का  प्रसार वे  करते हैं।  यह  धर्म   विषयक  कर्मवीर  भाऊराव  की धारणा  थी। वे  रूढ़ि, परंपरा  के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते रहे। कर्मवीर भाऊराव पाटिल पढ़ाई के लिए करवीर के जैन छात्रावास में थे। तत्कालीन समय  छात्रावास  में   धर्म  के  कई  नियम  थे।  नियम  का  पालन  भाऊराव ने नहीं  किया ।  वे बंडोखोर व्यक्ति थे। उन्होंने  धर्म के सभी नियम को  तोड़ा। इन  कारणवश   छात्रावास  से  उन्हें अन्नासाहेब लठ्ठे ने निकाल  दिया। छात्रावास  से बाहर  जाना  पसंद  किया, लेकिन  किसी   की  माफी  नहीं   माॅंगी।  क्योंकि   वे  विज्ञान   वादी विचार पर विश्वास रखते थे। सभी जाति धर्म के व्यक्ति  के  साथ  भोजन  करते  थे। अस्पृश्यता पालन  कभी  नहीं  किया। उन्होंने सनातनी वर्ग का त्रास सहा, किंतु धार्मिक परिवर्तन कार्य अंत तक नहीं छोड़ा। धार्मिकता के संदर्भ में कर्मवीर भाऊराव  पाटिल  कहते  है, “हर  एक लड़के ने खाना सोवळे  परिधान  करके ही खाना चाहिए, और खाने से पहले हर  एक लड़के ने  दाढ़ी  या हजामत  करना  चाहिऍं।”4  समाज  ने  विज्ञान वादी विचार पर विश्वास रखना चाहिए, यह बात उन्होंने कहीं। वर्तमान में महापुरुष के विचार पर चिंतन होना जरूरी है,तब  मानसिक  गुलामी से बहुजन समाज मुक्त हो सकता है। जाति, धर्म के नाम पर प्राचीन काल से समाज में विषमता थी और वर्तमान में भी है। विषमता नष्ट करने का प्रयास तत्कालीन  समय भीमराव   रामजी  आंबेडकर  ने  किया।  उनके पिताजी रामजी पुरोगामी विचार के थे।  उन्होंने कबीर  पंथ   की   दीक्षा   ली  थी।  परिवार  को वैचारिक विचार का वारसा  था। बचपन में धर्म, जाति  के  नाम  भीमराव  आंबेडकर   को  नीच ठहराया  गया। उन्होंने  कालांतर  से  धार्मिकता पर  चिंतन,  मनन   किया ।  समाज  कार्य   की शुरुआत   की ।  जाति  के   नाम  पर  अस्पृश्य समाज   के   अधिकार   छीन  लिए  थे।  उनके अधिकार  के  लिए  संघर्ष  जारी   रखा।  महाड सत्याग्रह,कालाराम मंदिर  प्रवेश  यह धार्मिकता प्रतिकार है। वे  सभी  को  समान  अधिकार की माॅंग  करते   रहे । सनातनी   लोगों   से  निरंतर झगड़ते   रहे । हिंदू   होकर  अस्पृश्य  को   हीन वागणूक   क्यों?   यह   सवाल   उच्च   वर्गों  से भीमराव आंबेडकर पूछते रहे।
                         अस्पृश्य समाज पर उच्च वर्ग का अत्याचार बढ़ रहा था। बहुजन समाज सनातनी विचार   का   मानसिक   गुलाम   बन  रहा  था। कर्मकांड  में  व्यस्त   रहता   था।  पैसे  धार्मिक कर्मकांड  में  उड़ाने लगा। ईश्वर पर अंधविश्वास रखने लगा। ईश्वर  के नाम   पशु  की  बलि देता रहा।  इसके  पीछे का  कारण सिर्फ अज्ञान था। इन  समस्या  से  भीमराव आंबेडकर ने अस्पृश्य समाज  को  बाहर निकालने  की  कोशिश  की। धार्मिक  कर्मकांड  के  संदर्भ  में  वे  कहते है, ” जन्म, मृत्यु  के  समय  धर्म के नाम  पर विभिन्न क्रियाकलाप  करने   में   वे  अपनी  मेहनत  की कमाई  खर्च   करने  में  नहीं  हिचकिचाते।  हम उनसे  विनती  करते  हैं  कि  वे  अपने  कर्म  के परिणामों  को  अधिक  बारीकी   से  देखें।  तब समझ  जाएंगे  कि इस  कारण  पैसे की बर्बादी होती है, सच्चे  धर्म  की रक्षा भी नहीं होती और अयोग्य दान करने से पुण्य  भी नहीं मिलता।”5 वर्तमान  में   कई   व्यक्ति  धार्मिक   परंपरा  पर व्याख्यान देते हैं, वही  दिन- रात ईश्वर की पूजा में   व्यस्त   रहते   हैं।  भीमराव  आंबेडकर   के धार्मिक  विचार  पर  बातचीत  करते  हैं लेकिन उनके   गुण , विचार  आचरण  में   नहीं   लाते। परिणाम  बहुजन  समाज  धार्मिक   पाखंड  में पिस्ता जा रहा है। परिस्थिति  में परिवर्तन करना है  तो भीमराव  आंबेडकर  के विचार पर चिंतन करने की सख्त जरूरत है। उसका अमल भी!
प्राचीन समय समाज में अंधश्रद्धा का बोलबाला था। बहुजन  समाज  में  शिक्षा न के  बराबर थी। भूत, प्रेत  के  नाम  पर  बहुजन समाज   का   शोषण   होता   रहा।  समाज   में विषमता थी। इसे  प्रबोधन  के  माध्यम  से   दूर करने का प्रयास राजर्षि शाहू महाराज ने किया। रूढ़ि, परंपरा   के  माध्यम  से   बहुजन  समाज पर अत्याचार होते थे। हीन नजर  से देखा जाता था। इसे खत्म करने का प्रयास वे निरंतर  करते रहे। वर्ण  व्यवस्था  का  विरोध किया। कालांतर से  समाज  में  बदलाव  संभव  हुआ। जाति  के आधार पर व्यवसाय तय थे, यह प्रथा नष्ट करने की  कोशिश  की। कोई  भी  व्यक्ति  किसी  भी व्यवसाय में जा सकता है, व्यवसाय कर सकता है, यह  अहसास  करके दिया। परिणाम समाज में समता, स्वतंत्रता,बंधुता  निर्माण हुई।  राजर्षि शाहू महाराज श्रद्धा रखते थे, अंधश्रद्धा नहीं। वे भगवान को मानते थे, किंतु इंसान के रूप में..!
  समाज में कोई भी कार्य करने से पहले मुहूर्त देखा जाता था, आज  भी  देखा जाता है। प्राणियों की बलि दी जाती थी। अभिषेक किया जाता था। इन प्रथा में कई  पैसा खर्च होता था। ऐसी  प्रथा  का  वे   विरोध  करते   रहे।  समाज जागृति की। अंधश्रद्धा  के संदर्भ में राजर्षि शाहू महाराज   के    विचार  है, “हिंदुस्तान  के  सभी भगवान  जमीन  में  दफनाएं  बिना खेती अच्छी तरह से उत्पाद नहीं देगी, ऐसी  मेरी  धारणा  है। खेती को  लगने  वाला पैसा किसान देव, धर्म में व्यर्थ  खर्च  करता  है। किसान  के  कृतित्व एवं खेती  में  उत्पाद  के लिए देव, धर्म  सबसे  बड़ी दिक्कत है।  देहाती  लोग  सप्ताह, भगवान को अभिषेक  करके   बहुत   पैसा  खर्च  करते  हैं। हिंदुस्तान  की  आर्थिक एवं नैतिक प्रगति करनी है तो सभी  भगवान  को  जमीन में दफनाना ही होगा।”6  इसी  से  उनके   विज्ञान वादी  विचार समझ आते हैं।  राजर्षि शाहू महाराज के विचार महाराष्ट्र   के   लिए   वैचारिक   रहे  ।  उन्होंने  सामाजिक,   शैक्षिक,   राजनीतिक,   धार्मिक, सांस्कृतिक  आदि  कार्य  से समाज में परिवर्तन किया।  महात्मा  फुले  और भीमराव आंबेडकर के  बीच  की  कड़ी  के  रूप में कार्य करते रहे। बहुजन  समाज  का  उद्धार किया। गौतम बुद्ध, महात्मा फुले के विचार को आगे बढ़ाया। उनके विचार से प्रेरणा लेकर वर्तमान  में भी कई  लोग कार्य कर रहे हैं, विचार आगे  बढ़ा  रहे हैं। शाहू विचार    का   महाराष्ट्र   को   आगे   बढ़ाने   में   महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इसे  इतिहास  साक्षी है, यह कोई भूल नहीं सकता।
               निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहा जा सकता  है  कि  महापुरुष  के विचार  समाज के लिए मायने रखते हैं। विचार को आगे बढ़ाने का कार्य हमारा है। किसी  भी महापुरुष को  जाति, धर्म के  अंदर  कैद नहीं  करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने  किसी  एक  जाति  के  लिए  कार्य नहीं किया, तो  समाज  के लिए  कार्य किया। भारत के एकता  के लिए  कार्य  किया। उनके  विचार को लेकर आगे बढ़ना है, उनका सपना  साकार करना है, तभी उनका कार्य सार्थक होगा। शोध आलेख का उद्देश्य भी! संदर्भ सूची 1) रामकृष्ण कांबळे- महात्मा फुले आणि आधुनिक महाराष्ट्र, कैलाश पब्लिकेशन, औरंगपुरा, औरंगाबाद-431004, प्रथम संस्करण-2009,पृ.78 2)अनिल कटारे- आधुनिक महाराष्ट्राचा इतिहास, विद्या बुक्स प्रकाशन, औरंगपुरा, औरंगाबाद-431004, प्रथम संस्करण- 2016,पृ.185 3)सुहास कुलकर्णी- महर्षी विठ्ठल रामजी शिंदे,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन,सदाशिव पेठ,पुणे- 411030, प्रथम संस्करण-2010,पृ.46 4)रमेश जाधव- कर्मवीर भाऊराव पाटील,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन सदाशिव पेठ, पुणे- 411030, प्रथम संस्करण-2010,पृ.38 5)किशोर गायकवाड- घटनेचे शिल्पकार बाबा साहेब आंबेडकर,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन सदाशिव पेठ, पुणे-411030,प्रथम संस्करण-2010,पृ.38 6)उत्तमराव मोहिते- वैज्ञानिक संस्कृतिचा दार्शनिक राजर्षी शाहू छत्रपती,जिजाई प्रकाशन,584, नारायण पेठ,कन्याशाळा बसस्टाॅप,जिजापुर,पुणे-411030,पृ.41 संक्षिप्त परिचय 1)नाम:- वाढेकर रामेश्वर महादेव जन्म:- 20 मई,1991 जन्मस्थान:-ग्राम-सादोळा,तहसील-माजलगाॅंव,  जिला-बीड, महाराष्ट्र शिक्षा:-बी.ए.,एम.ए.(हिंदी),एम.फिल.,सेट,नेट,   पी.जी.डिप्लोमा,पी-एच.डी.(कार्यरत) आदि। लेखन:- चरित्रहीन,दलाल,सी.एच.बी.इंटरव्यू, लड़का  ही  क्यों?,  अकेलापन,  षड़यंत्र, शहीद…! आदि कहानियाॅं विभिन्न पत्रिका में प्रकाशित।भाषा, विवरण,शोध दिशा, अक्षरवार्ता, गगनांचल,युवा हिन्दुस्तानी ज़बान, साहित्य यात्रा, विचार वीथी आदि पत्रिकाओं में लेख तथा संगोष्ठियों में प्रपत्र प्रस्तुति। संप्रति:- शोध कार्य में अध्ययनरत। चलभाष् :-9022561824 ईमेल:-rvadhekar@gmail.com पत्राचार पता:-हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय,औरंगाबाद – महाराष्ट्र, पिन -431004 2)नाम:- प्रोफेसर,संजय राठोड ,हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय,औरंगाबाद-महाराष्ट्र, पिन-431004 चलभाष् :-9421686342 ईमेल:-drsanjayrathods@gmail.com पत्राचार पता:-हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद- महाराष्ट्र,पिन-431004 मौलिकता प्रमाण पत्र आलेख-“महाराष्ट्र के वैचारिक परंपरा में राजर्षि शाहू महाराज का योगदान”शीर्षक शोध आलेख स्वरचित,अप्रकाशित है।

भगवत गीता के बारे में डॉ अंबेडकर क्या कहते हैं?

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद: एस आर दारापुरी आईपीएस (से. नि.)

भगवत गीता के बारे में डॉ. अम्बेडकर क्या कहते हैं? वह विशेष रूप से गीता के बारे में अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रति-क्रांति’ के एक अधूरे अध्याय में बात करते हैं (भाग III का अध्याय 9, जिसे आप यहां ऑनलाइन, Ambedkar.org पर पा सकते हैं)। अध्याय का नाम ‘भगवत गीता पर निबंध: प्रति-क्रांति की दार्शनिक रक्षा: कृष्ण और उनकी गीता’ है। अध्याय के परिचयात्मक भाग में, उन्होंने गीता पर विभिन्न आधुनिक विद्वानों के विचारों, इसके ‘विरोधाभासों’ और ‘असंगतताओं’ पर उनके विचारों को उद्धृत किया है। नीचे प्रकाशित अंश में, बाबासाहेब अपने मूल तर्कों की रूपरेखा प्रस्तुत करते हैं। अंश को एक साक्षात्कार के समान व्यवस्थित किया गया है, लेकिन यह साक्षात्कार कभी नहीं हुआ।

कृपया ध्यान दें: प्रश्न और पाठ के कुछ हिस्सों पर जोर मूल पाठ में नहीं होते हैं। उन्हें मुख्य तर्कों को स्पष्ट करने के लिए, इसे एक साक्षात्कार की तरह पढ़ने के लिए सम्मिलित किया गया है, क्योंकि प्रत्येक विभाजित खंड उन महत्वपूर्ण प्रश्नों को संबोधित करता है जो भगवत गीता के बारे में किसी भी सामान्य पाठक के मन में आ सकते हैं। और वे उन सवालों को बहुत ही स्पष्ट रूप से संबोधित करते हैं, जिससे ऐसा लगता है कि डॉ. अंबेडकर ने लगभग आधी सदी पहले उन सवालों का अनुमान लगा लिया था।

प्र. भगवत गीता क्या हैइसका उद्देश्य क्या है?

डॉ. अम्बेडकर:

रूढ़िवादी पंडितों के दृष्टिकोण की ओर मुड़ते हुए, हम फिर से कई तरह के विचार पाते हैं। एक मत यह है कि भागवत कोई साम्प्रदायिक ग्रंथ नहीं है। यह मोक्ष के तीन तरीकों (1) कर्म मार्ग या कर्म के मार्ग (2) भक्ति मार्ग या भक्ति के मार्ग और (3) ज्ञान मार्ग या ज्ञान के मार्ग को समान सम्मान देता है और तीनों की प्रभावकारिता को मोक्ष का साधन के रूप में बताता है। अपने इस तर्क के समर्थन में कि गीता मोक्ष के तीनों मार्गों का सम्मान करती है और उनमें से प्रत्येक की प्रभावकारिता को स्वीकार करती है, पंडित बताते हैं कि भगवत गीता के 18 अध्यायों में से अध्याय 1 से 6 तक के उपदेश के लिए समर्पित हैं। ज्ञानमार्ग, अध्याय 7 से 12 तक कर्ममार्ग का उपदेश और अध्याय 12 से 18 तक का भक्तिमार्ग का उपदेश और कहते हैं कि इसके अध्यायों का समान वितरण यह दर्शाता है कि गीता मोक्ष के तीनों रूपों को धारण करती है।

पंडितों के विचार के बिल्कुल विपरीत शंकराचार्य और श्री तिलक के विचार हैं, दोनों को रूढ़िवादी लेखकों के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। शंकराचार्य का विचार था कि भगवत गीता ने उपदेश दिया कि ज्ञान मार्ग ही मोक्ष का एकमात्र सच्चा मार्ग है। श्री तिलक [एफ15] अन्य विद्वानों में से किसी के विचारों से सहमत नहीं हैं। वे इस मत का खंडन करते हैं कि गीता विसंगतियों का पुलिंदा है। वह उन पंडितों से सहमत नहीं है जो कहते हैं कि भगवत गीता मोक्ष के तीनों तरीकों को पहचानती है। शंकराचार्य की तरह वह इस बात पर जोर देते हैं कि भगवत गीता का प्रचार करने के लिए एक निश्चित सिद्धांत है। लेकिन वह शंकराचार्य से भिन्न हैं और मानते हैं कि गीता कर्म योग सिखाती है न कि ज्ञान योग।

भगवत गीता जिस संदेश का उपदेश देती है, उसके बारे में इस तरह की विभिन्न राय मिलना बड़े आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। यह पूछने पर विवश होना पड़ता है कि विद्वानों में इस प्रकार के मतभेद क्यों हैं? इस प्रश्न का मेरा उत्तर यह है कि विद्वान झूठे काम पर चले गए हैं। वे इस धारणा पर भगवत गीता के संदेश की खोज पर गए हैं कि यह कुरान, बाइबिल या धम्मपद के रूप में एक सुसमाचार है। मेरी राय में यह धारणा काफी गलत धारणा है। भगवत गीता एक सुसमाचार नहीं है और इसलिए इसका कोई संदेश नहीं हो सकता है और किसी को खोजना व्यर्थ है। नि:संदेह यह प्रश्न पूछा जाएगा कि भगवद्गीता यदि सुसमाचार नहीं है तो क्या है? मेरा उत्तर यह है कि भगवत गीता न तो धर्म की पुस्तक है और न ही दर्शनशास्त्र का ग्रंथ है। भगवत गीता जो करती है वह दार्शनिक आधार पर धर्म के कुछ हठधर्मिता का बचाव करना है। यदि इस आधार पर कोई इसे धर्म की पुस्तक या दर्शन की पुस्तक कहना चाहे तो वह स्वयं को प्रसन्न कर सकता है। लेकिन अनिवार्य रूप से यह दोनों नहीं  है। यह धर्म की रक्षा के लिए दर्शन का उपयोग करता है। मेरे विरोधी केवल विचारों के बयान से संतुष्ट नहीं होंगे। वे विशिष्ट उदाहरणों के संदर्भ में मेरी थीसिस को साबित करने पर जोर देंगे। यह कतई मुश्किल नहीं है। वास्तव में यह सबसे आसान काम है।

प्र. भगवत गीता धर्म के किन सिद्धांतों का समर्थन करती है?

डॉ. अम्बेडकर:

भगवत गीता पढ़ने में पहला उदाहरण युद्ध का औचित्य है। अर्जुन ने संपत्ति के लिए लोगों को मारने के खिलाफ युद्ध के खिलाफ खुद को घोषित किया था। कृष्ण युद्ध और युद्ध में मारे जाने का दार्शनिक बचाव प्रस्तुत करते हैं। युद्ध की यह दार्शनिक रक्षा अध्याय 2 श्लोक 2 से 28 में मिलेगी। भगवत गीता द्वारा प्रस्तावित युद्ध की दार्शनिक रक्षा तर्क की दो पंक्तियों के साथ आगे बढ़ती है। तर्क की एक पंक्ति यह है कि वैसे भी दुनिया नश्वर है और मनुष्य नश्वर है। चीजों का अंत होना तय है। मनुष्य का मरना तय है। बुद्धिमानों को इससे कोई फर्क क्यों पड़ता है कि मनुष्य स्वाभाविक मृत्यु मरता है या वह हिंसा के परिणामस्वरूप मृत्यु को प्राप्त होता है? जीवन असत्य है, आंसू क्यों बहाएं क्योंकि यह होना बंद हो गया है? मृत्यु अवश्यंभावी है, इसका परिणाम क्या हुआ इसकी परवाह क्यों करें?

 युद्ध के औचित्य में तर्क की दूसरी पंक्ति यह है कि यह सोचना गलत है कि शरीर और आत्मा एक हैं। वे अलग हैं। न केवल दोनों काफी अलग हैं बल्कि वे इस बात में भी भिन्न हैं कि शरीर नाशवान है जबकि आत्मा शाश्वत और अविनाशी है। जब मृत्यु होती है तो शरीर ही मरता है। आत्मा कभी नहीं मरती। न केवल यह कभी नहीं मरता बल्कि हवा इसे सुखा नहीं सकती, आग इसे जला नहीं सकती और कोई हथियार इसे काट नहीं सकता। इसलिए यह कहना गलत है कि जब एक आदमी मारा जाता है तो उसकी आत्मा मर जाती है। क्या होता है कि उसका शरीर मर जाता है। उसकी आत्मा मृत शरीर को वैसे ही त्याग देती है जैसे कोई व्यक्ति अपने पुराने वस्त्रों को त्याग देता है—नए वस्त्र पहनता है और आगे बढ़ता है। जिस प्रकार आत्मा कभी नहीं मरती, उसी प्रकार किसी व्यक्ति की हत्या कभी भी किसी आंदोलन का विषय नहीं हो सकती। युद्ध और हत्या इसलिए पश्चाताप या लज्जित करने के लिए कोई आधार नहीं देते हैं, ऐसा भगवत गीता का तर्क है।

एक और हठधर्मिता जिसका दार्शनिक बचाव करने के लिए भगवत गीता आगे आती है, चातुर्वर्ण्य है। भगवत गीता में निस्संदेह उल्लेख है कि चातुर्वर्ण्य भगवान द्वारा बनाया गया है और इसलिए पवित्र है। लेकिन यह इसकी वैधता को इस पर निर्भर नहीं करता है। यह पुरुषों में जन्मजात, जन्मजात गुणों के सिद्धांत से जोड़कर चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत को एक दार्शनिक आधार प्रदान करता है। मनुष्य के वर्ण का निर्धारण कोई मनमाना कार्य नहीं है, भगवत गीता कहती है। लेकिन यह उसके सहज, जन्मजात गुणों के अनुसार तय होता है। [F16]

तीसरा हठधर्मिता जिसके लिए भगवत गीता एक दार्शनिक रक्षा प्रदान करती है, कर्म मार्ग है। कर्म मार्ग से भगवत गीता का अर्थ मोक्ष के मार्ग के रूप में यज्ञ जैसे अनुष्ठानों का प्रदर्शन है। भगवत गीता कर्म मार्ग के लिए सबसे अलग है और इसका एक बड़ा समर्थक है। कर्म योग का बचाव करने के लिए जिस लाइन की आवश्यकता होती है, वह है उन मलों को हटाना जो उस पर उग आए थे और जिसने उसे काफी बदसूरत बना दिया था। पहला अवतरण अंध विश्वास था। गीता कर्म योग के लिए एक आवश्यक शर्त के रूप में बुद्धि योग [f17] के सिद्धांत को पेश करके इसे हटाने की कोशिश करती है। स्थितप्रज्ञ अर्थात् ‘बुद्धि युक्त’ बन जाने से कर्मकांड के प्रदर्शन में कुछ भी गलत नहीं है। कर्मकांड पर दूसरा उद्गम स्वार्थ था जो कर्मों के प्रदर्शन के पीछे का मकसद था। भगवत गीता अनासक्ति के सिद्धांत को पेश करके इसे दूर करने का प्रयास करती है, अर्थात कर्म के फल के लिए किसी भी लगाव के बिना कर्म का प्रदर्शन। [f18] बुद्धि योग में स्थापित और कर्म के फल के लिए स्वार्थी लगाव से अलग कर्म कांड के हठधर्मिता में क्या गलत है? इस तरह से भगवत गीता कर्म मार्ग का बचाव करती है। इस तनाव में जारी रहना काफी संभव होगा, अन्य हठधर्मिता को चुनना और यह दिखाना कि कैसे गीता उनके समर्थन में एक दार्शनिक रक्षा की पेशकश करने के लिए आगे आती है, जहां पहले कोई मौजूद नहीं था। लेकिन यह तभी किया जा सकता था जब कोई भगवत गीता पर एक ग्रंथ लिखे। यह एक ऐसे अध्याय के दायरे से बाहर है जिसका मुख्य उद्देश्य भगवत गीता को प्राचीन भारतीय साहित्य में उसका उचित स्थान देना है। इसलिए मैंने अपनी थीसिस को स्पष्ट करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण हठधर्मिता का चयन किया है।

डॉ. अम्बेडकर:

  मेरी थीसिस के संबंध में दो अन्य प्रश्न निश्चित रूप से पूछे जाएंगे। वे सिद्धांत किसके लिए हैं जिनके लिए भगवत गीता यह दार्शनिक बचाव प्रस्तुत करती है? भगवत गीता के लिए इन हठधर्मिता का बचाव करना क्यों आवश्यक हो गया?

पहले प्रश्न के साथ शुरू करने के लिए, गीता जिन सिद्धांतों का बचाव करती है, वे प्रति-क्रांति के सिद्धांत हैं, जैसा कि प्रति-क्रांति की बाइबिल अर्थात् जैमिनी की पूर्वमीमांसा में रखा गया है। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। यदि कोई है तो वह मुख्यतः कर्म योग शब्द से जुड़े गलत अर्थ के कारण है। भगवत गीता पर अधिकांश लेखक कर्म योग शब्द को ‘क्रिया’ और शब्द जंग योग को ‘ज्ञान’ के रूप में अनुवादित करते हैं और भगवत गीता पर चर्चा करने के लिए आगे बढ़ते हैं, हालांकि यह सामान्य रूप में ज्ञान बनाम क्रिया की तुलना और अंतर करने में लगा हुआ था। यह काफी गलत है। भगवत गीता क्रिया बनाम ज्ञान की किसी भी सामान्य, दार्शनिक चर्चा से संबंधित नहीं है। वस्तुतः गीता का संबंध विशेष से है, सामान्य से नहीं। कर्म योग या क्रिया से गीता का अर्थ है जैमिनी के कर्मकांड में निहित सिद्धांत और ज्ञान योग या ज्ञान से इसका अर्थ है बादरायण के ब्रह्म सूत्र में निहित सिद्धांत। कि कर्म की बात करने वाली गीता सामान्य शब्दों में गतिविधि या निष्क्रियता, वैराग्य या ऊर्जावाद की बात नहीं कर रही है, लेकिन भगवत गीता पढ़ने वाले किसी भी व्यक्ति द्वारा धार्मिक कृत्यों और अनुष्ठानों से इनकार नहीं किया जा सकता है। छोटी-छोटी बातों पर विवाद में उलझी एक दलीय पैम्फलेट की स्थिति से गीता को जीवन देना और उसे ऐसे प्रकट करना है जैसे कि यह उच्च दर्शन के मामलों पर एक सामान्य ग्रंथ है कि यह कर्म शब्दों के अर्थ को बढ़ाने का प्रयास किया गया है और ज्ञान और उन्हें सामान्य महत्व के शब्द बनाते हैं। देशभक्त भारतीयों की इस चाल के लिए श्री तिलक को काफी हद तक दोषी ठहराया जाना चाहिए। इसका परिणाम यह हुआ है कि इन झूठे अर्थों ने लोगों को यह विश्वास दिलाने में गुमराह किया है कि भगवद्गीता एक स्वतंत्र स्वयंभू पुस्तक है और इसका पूर्ववर्ती साहित्य से कोई संबंध नहीं है। लेकिन अगर कोई कर्म योग शब्द के अर्थ को रखता है जैसा कि कोई इसे भगवत गीता में पाता है तो उसे यकीन हो जाएगा कि कर्म योग की बात करते हुए भगवत गीता जैमिनी द्वारा प्रतिपादित कर्मकांड के हठधर्मिता के अलावा और कुछ नहीं है। जिसे यह पुनर्निर्मित और मजबूत करने की कोशिश करता है।

दूसरा प्रश्न उठाते हैं: भगवद्गीता ने प्रतिक्रांति के सिद्धांतों का बचाव करना क्यों आवश्यक समझा? मेरे विचार से उत्तर बहुत स्पष्ट है। उन्हें बौद्ध धर्म के हमले से बचाने के लिए ही भगवत गीता अस्तित्व में आई। बुद्ध ने अहिंसा का उपदेश दिया। उन्होंने न केवल इसका प्रचार किया बल्कि बड़े पैमाने पर लोगों ने – ब्राह्मणों को छोड़कर – इसे जीवन के मार्ग के रूप में स्वीकार कर लिया था। उन्होंने हिंसा के प्रति घृणा प्राप्त कर ली थी। बुद्ध ने चातुर्वर्ण्य के विरुद्ध उपदेश दिया। चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत पर हमला करने के लिए उन्होंने कुछ बेहद आपत्तिजनक उपमाओं का इस्तेमाल किया। चातुर्वर्ण्य का ढाँचा टूट चुका था। चातुर्वर्ण्य की व्यवस्था उलट दी गई थी। शूद्र और महिलाएं संन्यासी बन सकते थे, एक ऐसी स्थिति जिससे प्रतिक्रांति ने उन्हें वंचित कर दिया था। बुद्ध ने कर्मकांड और यज्ञों की निंदा की थी। उन्होंने हिमसा या हिंसा के आधार पर उनकी निंदा की। उन्होंने इस आधार पर भी उनकी निंदा की कि उनके पीछे मकसद बोनस प्राप्त करने की स्वार्थी इच्छा थी। इस हमले का जवाब क्रांतिकारियों ने क्या दिया? केवल यह। ये बातें वेदों द्वारा नियत की गई थीं, वेद अचूक थे, इसलिए हठधर्मिता पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए था। बौद्ध युग में, जो कि भारत का अब तक का सबसे प्रबुद्ध और सबसे तर्कसंगत युग था, ऐसी मूर्खतापूर्ण, मनमानी, अतार्किक और नाजुक नींव पर टिके हठधर्मिता शायद ही टिक सके। जो लोग अहिंसा को जीवन के सिद्धांत के रूप में मानने लगे थे और इसे जीवन का नियम बनाने की हद तक चले गए थे – उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे इस हठधर्मिता को स्वीकार कर सकते हैं कि क्षत्रिय पाप किए बिना मार सकते हैं क्योंकि वेद कहते हैं कि मारना उसका कर्तव्य है? जिन लोगों ने सामाजिक समानता के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था और जो हर एक के गुणों के आधार पर समाज का पुनर्निर्माण कर रहे थे – वे केवल वेदों के कहने पर चातुर्वर्ण्य सिद्धांत के उन्नयन और जन्म के आधार पर मनुष्य के अलगाव को कैसे स्वीकार कर सकते थे? जिन लोगों ने बुद्ध के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था कि समाज में सभी दुख तन्हा के कारण हैं या जिसे तावनी अधिग्रहण की वृत्ति कहते हैं – वे उस धर्म को कैसे स्वीकार कर सकते हैं जो जानबूझकर लोगों को बलिदान द्वारा वरदान प्राप्त करने के लिए आमंत्रित करता है क्योंकि इसके पीछे वेदों का अधिकार है ? इसमें कोई संदेह नहीं है कि बौद्ध धर्म के उग्र हमले के तहत, जैमिनी की प्रति-क्रांतिकारी हठधर्मिता लड़खड़ा रही थी और अगर उन्हें भगवत गीता का समर्थन नहीं मिला होता, तो वे ध्वस्त हो जाते। भगवत गीता द्वारा दिए गए प्रति-क्रांतिकारी सिद्धांतों की दार्शनिक रक्षा किसी भी तरह से अभेद्य नहीं है। क्षत्रिय के कर्तव्य को मारने के बारे में भगवत गीता द्वारा दी गई दार्शनिक रक्षा सबसे कम बचकानी है। यह कहना कि हत्या हत्या नहीं है क्योंकि जो मारा जाता है वह शरीर है न कि आत्मा हत्या का एक अनसुना बचाव है। यह उन सिद्धांतों में से एक है जिसके कारण कुछ लोग कहते हैं कि सिद्धांत किसी के रोंगटे खड़े कर देते हैं। यदि कृष्ण एक वकील के रूप में एक मुवक्किल के लिए पेश होते हैं, जिस पर हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा है और भगवत गीता में उनके द्वारा निर्धारित बचाव की वकालत करते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्हें पागलखाने भेजा जाएगा।

इसी तरह चातुर्वर्ण्य के हठधर्मिता की भगवत गीता का बचाव बचकाना है। कृष्ण सांख्य के गुण सिद्धांत के आधार पर इसका बचाव करते हैं। लेकिन कृष्ण को शायद यह एहसास नहीं हुआ कि उन्होंने खुद को कितना मूर्ख बना लिया है। चातुर्वर्ण्य में चार वर्ण हैं। किन्तु सांख्य के अनुसार गुण तीन ही हैं। जिस दर्शन में तीन वर्णों से अधिक की मान्यता नहीं है, उसके आधार पर चार वर्णों की व्यवस्था का बचाव कैसे किया जा सकता है? भगवत गीता का पूरा प्रयास प्रतिक्रांति के सिद्धांतों के दार्शनिक बचाव की पेशकश करना बचकाना है – और एक पल के गंभीर विचार के लायक नहीं है। फिर भी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि भगवत गीता की सहायता के बिना प्रति-क्रान्ति अपने हठधर्मिता की निरी मूर्खता के कारण समाप्त हो जाती। भगवद्गीता की भूमिका क्रांतिकारियों को भले ही कितनी ही शरारतपूर्ण लगे, इसमें कोई संदेह नहीं कि इसने प्रतिक्रांति को पुनर्जीवित किया और यदि प्रतिक्रांति आज भी जीवित है, तो यह पूरी तरह से उस दार्शनिक रक्षा की संभाव्यता के कारण है, जो इसे इससे प्राप्त हुई थी। भगवत गीता- वेद विरोधी और यज्ञ विरोधी। इससे बड़ी गलती कुछ नहीं हो सकती। जैसा कि भगवत गीता के अन्य अंशों से प्रकट होगा कि यह वेदों और शास्त्रों के अधिकार के विरुद्ध नहीं है (XVI, 23, 24: XVII, I I, 13, 24)। न ही यह यज्ञों की पवित्रता के विरुद्ध है (III. 9-15)। यह दोनों के गुणों को धारण करता है।

प्र. फिरभगवत गीता क्या है?

डॉ. अम्बेडकर:

  इसलिए जैमिनी की पूर्व मीमांसा और भगवत गीता में कोई अंतर नहीं है। अगर कुछ भी हो, तो जैमिनी के पूर्व मीमांसा की तुलना में भगवत गीता प्रति-क्रांति का अधिक प्रबल समर्थक है। यह दुर्जेय है क्योंकि यह प्रति-क्रांति के सिद्धांतों को वह दार्शनिक और इसलिए स्थायी आधार देना चाहता है जो उनके पास पहले कभी नहीं था और जिसके बिना वे कभी जीवित नहीं रह सकते थे। जैमिनी के पूर्व मीमांसा की तुलना में विशेष रूप से दुर्जेय दार्शनिक समर्थन है जो भगवत गीता प्रतिक्रांति के केंद्रीय सिद्धांत-अर्थात् चातुर्वर्ण्य को देता है। भगवत गीता की आत्मा चातुर्वर्ण्य की रक्षा और व्यवहार में इसके पालन को सुरक्षित करने के लिए प्रतीत होती है, कृष्ण केवल यह कहकर संतुष्ट नहीं होते हैं कि चातुर्वर्ण्य गुण-कर्म पर आधारित है, बल्कि वे आगे जाकर दो सकारात्मक निषेधाज्ञा जारी करते हैं।

पहला निषेधाज्ञा अध्याय III श्लोक 26 में निहित है। इसमें कृष्ण कहते हैं: कि एक बुद्धिमान व्यक्ति को प्रति प्रचार द्वारा एक अज्ञानी व्यक्ति के मन में संदेह पैदा नहीं करना चाहिए जो कर्म कांड का अनुयायी हैजिसमें निश्चित रूप से चातुर्वर्ण्य के नियमों का पालन शामिल है। दूसरे शब्दों में, आपको कर्मकांड के सिद्धांत और उसमें शामिल सभी चीजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए लोगों को उत्तेजित या उत्तेजित नहीं करना चाहिए। दूसरा निषेधाज्ञा अध्याय XVIII के श्लोक 41-48 में निर्धारित है। इसमें कृष्ण बताते हैं कि हर कोई अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्य करता है और कोई नहीं और जो उनकी पूजा करते हैं और उनके भक्त हैं, उन्हें चेतावनी देते हैं कि वे केवल भक्ति से नहीं बल्कि भक्ति के साथ अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्य के पालन से मोक्ष प्राप्त करेंगे। संक्षेप में, एक शूद्र, चाहे वह एक भक्त के रूप में कितना भी महान क्यों न हो, यदि उसने शूद्र के कर्तव्य का उल्लंघन किया है – अर्थात् उच्च वर्गों की सेवा में जीना और मरना, तो उसे मोक्ष नहीं मिलेगा। मेरी थीसिस का दूसरा भाग यह है कि भगवत गीता का आवश्यक कार्य जैमिनी को कम से कम उसके उन अंशों को नया समर्थन देना है जो जैमिनी के सिद्धांतों की दार्शनिक रक्षा प्रदान करते हैं – जैमिनी की पूर्व मीमांसा के प्रख्यापित होने के बाद लिखा जाना बन गया है। मेरी थीसिस का तीसरा भाग यह है कि बौद्ध धर्म के क्रांतिकारी और तर्कवादी विचारों के हमले के कारण भगवद्गीता कीप्रतिक्रांति के सिद्धांतों की यह दार्शनिक रक्षा आवश्यक हो गई थी।

[अधूरे अध्याय के अगले भाग में, डॉ. अम्बेडकर यह साबित करते हैं कि कैसे भगवद गीता ‘बौद्ध धर्म और जैमिनी की पूर्व मीमांसा के समय से पीछे है’। पूरा चैप्टर यहां पढ़ें]

क्यों बख्शें तुलसी को?

वर्ष 1992 में मैंने अपने सुलतानपुर (उत्तर प्रदेश) प्रवास में एक कविता लिखी थी, ‘तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’ उसे मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ को भेजा। उन दिनों वहां विष्णु खरे संपादक थे। उन्होंने उसे ‘नवभारत टाइम्स’ के 31 मार्च, 1992 के रविवारीय अंक में प्रकाशित किया। उसे पढ़कर गिरीशचंद्र श्रीवास्तव और शिवमूर्ति जी मुझसे मिलने आए, जो उन दिनों सुलतानपुर में ही रहते थे। दलित बुद्धिजीवियों में वह कविता इतनी लोकप्रिय हुई कि उसकी सैकड़ों प्रतियां फोटोस्टेट कराकर बांटी गईं। आज के दौर में उस कविता को कोई अखबार नहीं छाप सकता। यह अनुभव मैंने इसलिए साझा किया, क्योंकि आज रामचरितमानस पर दलित बुद्धिजीवियों को कुपढ़ बताया जा रहा है। ‘नवभारत टाइम्स’ में छपी उस लंबी कविता की अंतिम पंक्तियां तुलसीदास की मानस पर हैं। ये पंक्तियां इस प्रकार हैं–

तुलसीदास मानस में लिखते पूजिए सूद्र सील गुन हीना। विप्र न गुन गन ग्यान प्रवीना। तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?

मुख्य सवाल आज इसी निष्ठा का है, जिसे तुलसी-भक्तों द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर ‘रामचरितमानस’ को सिर्फ एक काव्य-कृति के रूप में स्वीकार किया जाता, और ब्राह्मणों द्वारा उसे धर्म-गंथ न बनाया गया होता, तो कोई विवाद ही नहीं होता। राम का जीवन चरित्र केवल तुलसीदास ने ही तो नहीं लिखा, और भी बहुत से कवियों ने लिखा है; वाल्मीकि, भवभूति, कालिदास, रसिक गोविंद, केशव दास, मैथिलीशरण गुप्त आदि कितने ही कवियों ने राम की कथा लिखी है। उन्हें धर्म-ग्रंथ की श्रेणी में क्यों नहीं रखा गया? हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के उद्भव तक लगभग नब्बे प्रतिशत साहित्य ब्राह्मणवाद और ब्राह्मण-महिमा से भरा हुआ है। पर रामचरितमानस के ब्राह्मणवाद पर ही आपत्तियां इसलिए की जा रही हैं, क्योंकि ब्राह्मणों ने उसे धर्म-ग्रंथ बना दिया है।

यह विडंबना ही है कि ब्राह्मणों की निष्ठा ब्राह्मणवाद में ही संतुष्ट होती हैं, लोकतांत्रिक विमर्श में नहीं। यदि तुलसीदास ने ‘जे वर्णाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा’ में ‘विप्र’’ को भी शामिल कर ब्राह्मणों को भी वर्णाधम माना होता, और ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ की जगह ‘विप्र गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ लिखकर ब्राह्मण को भी ताड़ना का अधिकारी माना होता, तथा ‘पूजिए विप्र सील गुन हीना’ की जगह ‘पूजिए शूद्र सील गुन हीना’ लिखकर शूद्र को पूजनीय माना होता, तो ब्राह्मणों की निष्ठा क्या होती? क्या वे तब भी तुलसीदास के भक्त होते? ब्राह्मण अपनी सीधी बुद्धि से इस तरह क्यों नहीं सोचते? पर वे तो उलटी बुद्धि से सोचते हैं।

इसी उलटी बुद्धि का एक लेख इसी 4 फरवरी, 2023 के ‘अमर उजाला’ में ब्राह्मण पत्रकार हेमंत शर्मा का छपा है– ‘तुलसी को बख्शिए’। अब कोई इनसे पूछे कि तुलसी को बख्श दें, तो पकड़ें किसको? क्या हेमंत शर्मा को पकड़ें? शूद्रों को अधम बताकर अपमानित तुलसीदास ने किया है, तो तुलसी को ही तो पकड़ेंगे। क्यों बख्शें तुलसी को? क्या शूद्रों को बख्श दिया था तुलसी ने? अब चूंकि ‘अमर उजाला’ ब्राह्मणवादी अखबार है, इसलिए हेमंत शर्मा जैसे ब्राह्मण लेखक उसमें छप सकते हैं, पर तुलसी के विरोध में लिखा गया किसी दलित लेखक का लेख उसमें नहीं छपेगा। अगर हेमंत शर्मा सीधी बुद्धि के ब्राह्मण होते, तो निष्ठा पर विचार करते। निष्ठा का मतलब है, अपने को शूद्रों की जगह पर रखना और विचार करना, तब बताते कि फिर उनकी निष्ठा क्या होती?

हेमंत शर्मा का पूरा लेख मेरी नजर में ब्राह्मण-दंभ से भरा हुआ है। वह स्वयं को विद्वान और सुपढ़ मानते हुए लिखते हैं, “इस दफा तुलसी पर हमला ‘कुपढ़ो’ ने बोला है।” उन्होंने अपने ब्राह्मण होने के दंभ में तुलसी के शूद्र-विद्वेष को रेखांकित करने वाले सभी दलित बुद्धिजीवियों को ‘कुपढ़’ बता दिया। असल में कुपढ़ शूद्र का ही पर्याय है। जिस तरह तुलसी ने शूद्र को गंवार और अधम बताया है, उसी का अनुसरण करते हुए हेमंत शर्मा ने ऐसे शूद्रों को नया शब्द ‘कुपढ़’ दे दिया। और, सत्ता की धमक में इस कुपढ़ के खिलाफ कोई पुलिस थाना एफआईआर दर्ज करने का साहस नहीं करेगा, जबकि यह शूद्रों के लिए बेहद अपमानजनक और आहत करने वाला शब्द है।

हेमंत शर्मा अपने लेख में उन बातों को उठाते हैं, जिनसे कोई मतलब ही नहीं है। जैसे, तुलसी को बुरे नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनके माता-पिता ने त्याग दिया था। तुलसी के किस दलित आलोचक ने इस पर आपत्ति की है? क्या हेमंत शर्मा बताने का कष्ट करेंगे? अब जब यह बेतुका प्रश्न हेमंत की ब्राह्मण बुद्धि ने उठा ही दिया है, तो मैं बता दूं कि तुलसी को त्यागने वाले माता-पिता भी हद दर्जे के मूर्ख, कुपढ़ और ब्राह्मणवादी थे, इसीलिए शकुन-अपशकुन में विश्वास करते थे। वे शायद ईश्वर को भी नहीं मानते होंगे, जैसे आज के ब्राह्मण नहीं मानते, उनके लिए कर्मकांड ही महत्वपूर्ण है। अगर वे ईश्वर की सत्ता को मानते होते, तो शकुन-अपशकुन में विश्वास नहीं करते, क्योंकि न जन्म नक्षत्र देखकर होता है, और न मृत्यु नक्षत्र देखकर होती है। सिर्फ कर्मकांडी कुपढ़ मूर्ख ही नक्षत्रों में विश्वास करते हैं। अब दूसरा सवाल लेते हैं, जिस बालक को माता-पिता ने त्याग दिया हो, उसका पालन-पोषण किसने किया? वह कैसे शिक्षित हो गया? कैसे कवि बन गया? जवाब एक ही है कि तुलसीदास ब्राह्मण था, और ब्राह्मण के विकास में किसी काल में कभी कोई बाधा नहीं थी। अगर तुलसी की जगह कोई दलित होता, और उसके माता-पिता उसे नहीं भी त्यागते, तब भी वह गुलामी ही करता हुआ जीता-मरता, उसे कोई द्विज न पालता, और न पढ़ाता-लिखाता।

हेमंत ने आगे लिखा है कि तुलसी ने दर-दर की ठोकरें खाईं, और हनुमान की शरण में जाकर उनके आशीर्वाद से ‘रामचरितमानस’ लिखना आरंभ किया। प्रथम तो तुलसी की इस उटपटांग जीवनी से हमारा कोई लेना-देना नहीं। हमारा विरोध तो केवल ‘रामचरितमानस’ में शूद्रों के अपमान से है। दूसरी बात यह कि सवाल यह नहीं है कि तुलसी ने किसकी शरण में जाकर किसके आशीर्वाद से ‘रामचरितमानस’ को लिखना आरंभ किया, बल्कि सवाल यह है कि गरीब तुलसी की पढ़ाई-लिखाई कैसे हुई? बिना शिक्षित हुए वह कुछ भी लिख कैसे सकते थे? हेमंत ने लिखा है कि तुलसी के युग में न मंडल कमीशन आया था और न सिमोन द बुआ का नारी विमर्श आया था। इसका मतलब यह हुआ कि फिर तुलसी को यह समझ कहां से आती कि शूद्रों और स्त्रियों का सम्मान किया जाए। ब्राह्मण किस तरह अपने नायकों की रक्षा करते हैं, उसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है। माना कि मंडल कमीशन और नारी विमर्श नहीं आया था, जिससे तुलसी स्त्री-शूद्र-विरोधी हो गए, पर ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च होता है, यह भाव उनमें कहां से आया?

जवाब यह है कि तुलसी में यह भाव आया था मनुस्मृति से, जो उनके समय में आ गई थी। उसी मनुस्मृति से उन्होंने यह भाव लिया था कि ब्राह्मण सर्वोच्च होता है, स्त्री-शूद्र नीच होते हैं। और अगर मंडल कमीशन और सिमोन द बुआ का स्त्री-विमर्श आ भी गया होता, तब भी तुलसी स्त्री-शूद्र के समर्थक नहीं होते, क्योंकि जब मंडल कमीशन आया था, तो ब्राह्मणों ने ही, जो आज तुलसी के भक्त बने हुए हैं, मंडल का विरोध किया था, और चिल्ला-चिल्लाकर कहा था कि आत्मदाह करके मर जायेंगे, पर पिछड़ी जातियों को पढ़ने-लिखने नहीं देंगे।

कुछ याद आया हेमंत जी! अगर आज तुलसीदास होते, तो वे उतने ही बड़े दलित-विरोधी, उतने ही बड़े मंडल-विरोधी और उतने ही बड़े मुस्लिम-विरोधी होते, जितने बड़े आज आरएसएस और भाजपा के हिंदू हैं, और शायद आप भी।

हेमंत ने डॉ. लोहिया का उदाहरण दिया है, जिन्होंने तुलसी और राम की प्रशंसा की थी। पर हेमंत को यह नहीं मालूम कि लोहिया अपने इसी हिंदू मुखौटे के कारण दलितों में अपना स्थान नहीं बना सके। इसी मुखौटे के कारण डॉ. आंबेडकर को लोहिया कभी रास नहीं आए थे, और इसी मुखौटे के कारण रामस्वरूप वर्मा ने लोहिया की पार्टी को लात मार दी थी। चाहे सोशलिस्ट लोहिया हों और चाहे कम्युनिस्ट रामविलास शर्मा, वे अपने चेहरों पर समाजवाद और कम्युनिज्म के मुखौटे लगाए हुए थे, भीतर से वे ब्राह्मणवादी ही थे। ऐसे ही तमाम ब्राह्मण आज भी समाजवाद के मुखौटे लगाए हुए हैं। पर उन सबके असली चेहरे ब्राह्मणवाद के विरोध के मुद्दे पर तुरंत उजागर हो जाते हैं। हेमंत ने लिखा है कि “तुलसी ने भी पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की निंदा की– ‘विप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी। इसके बाद भी तुलसी को कैसे ब्राह्मणवादी कह सकते हैं?’”

हेमंत जी मनु ने भी ब्राह्मणों की निंदा की है। पर जानते हैं, कौन से ब्राह्मणों की? मनुस्मृति में उन ब्राह्मणों की निंदा की गई है, जो शूद्रों को पढ़ाते थे। तुलसी भी ऐसे ही ब्राह्मणों के निंदक थे। इसके बाद भी हम तुलसी को ब्राह्मणवादी ही मानते हैं, क्योंकि यह तुलसी ही थे, जिन्होंने मूर्ख ब्राह्मण को भी पूजने को कहा है, और जिनके राम मानव मात्र के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि केवल ब्राह्मणों के कल्याण के लिए पैदा हुए थे।

ब्राह्मणों की यह खासियत है कि वे मुद्दे को भटकाने और दूसरी दिशा में मोड़ने में कुशल होते हैं। हेमंत शर्मा ने भी अपने लेख में मुद्दे को भटकाया ही है और तुलसी पर दलित बुद्धिजीवियों के एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है। मामला सिर्फ ‘रामचरितमानस’ में शूद्रों के अपमान से संबंध पदों से है, जो सिर्फ तुलसी के विरोध तक सीमित है, पर ब्राह्मणों ने उसे राम के अपमान से जोड़ दिया और हिंदू भावनाओं का सवाल खड़ा करके मुद्दे को भटका दिया। जिस क्षण ये ब्राह्मण और द्विज हिंदू भावनाओं का सवाल उठाते हैं, उसी क्षण वे शूद्रों को गैर-हिंदू मान लेते हैं। अगर शूद्र हिंदू नहीं हैं, तो बाकयदा इसकी घोषणा उन्हें करनी चाहिए। और अगर शूद्र हिंदू हैं, तो हिंदू भावनाओं में उनकी भावनाएं शामिल क्यों नहीं हैं? क्या हिंदू के रूप में शूद्रों की भावनाओं का कोई मूल्य नहीं है?

डॉ. आंबेडकर की भारतीय गणतंत्र की परिकल्पना

26 जनवरी आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण तिथियों में एक है। इसी दिन 26 जनवरी 1950 को भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया था और भारतीय संविधान को पूरी तरह लागू किया गया था। हालांकि 26 नवंबर 1949 को ही भारतीय संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने संविधान को संविधान सभा को सौंप दिया था और उसे संविधान सभा द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया था, लेकिन भारतीय संविधान पूरी तरह से 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ और भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। इसी दिन अतीत के उन सभी कानूनी प्रावधानों को खारिज करते हुए रद्द कर दिया गया, जो भारतीय संविधान से मेल न खाते हों, चाहे वे विभिन्न धर्मों के कानूनी दर्जा प्राप्त प्रावधान हों या ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के कानूनी प्रावधान हों।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी भारत को एक लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया है। दुनिया में लोकतंत्र के दो रूप हैं- एक सिर्फ लोकतंत्र और दूसरा लोकतांत्रिक गणराज्य। पहले प्रकार के लोकतंत्र का उदाहरण ब्रिटेन है, जहां लोकतंत्र तो है, लेकिन वहां गणतंत्र नहीं है, जापान और स्पेन जैसे अन्य कई देश भी इसके उदाहरण हैं। इन देशों में राष्ट्राध्यक्ष राजा या रानी होते हैं। लोकतंत्रात्मक गणतंत्र का उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस जैसे देश हैं, जहां राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष दोनों प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जनता द्वारा चुने जाते हैं। अमेरिका में राष्ट्राध्यक्ष और शासनाध्यक्ष एक ही व्यक्ति होता है। 26 जनवरी 1950 को भारत ने लोकतांत्रिक गणराज्य का रास्ता चुना। सिर्फ लोकतंत्र होने का परिणाम यह है कि जहां ब्रिटेन और स्पेन में अभी भी राजा-रानी को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, भले ही वह कितना भी सीमित और औपचारिक क्यों न हो, वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस और भारत जैसे गणतंत्रात्मक लोकतंत्र में राजा-रानी के लिए कोई जगह नहीं है। इसका निहितार्थ यह है कि गणतांत्रिक लोकतंत्र में जन्म के आधार पर किसी को भी स्वाभाविक तौर पर बड़ा नहीं माना जाता है, न तो कोई विशेषाधिकार प्राप्त होता है और न ही किसी भी आधार पर राज्य का कोई पद किसी के लिए जन्म के आधार पर आरक्षित होता है।
डॉ. आबेडकर के नेतृत्व में भारतीय संविधान सभा ने भी गणतंत्रात्मक लोकतंत्र का रास्ता चुना और जन्म-आधारित सभी प्रकार के विशेषाधिकारों और स्वाभाविक तौर पर बड़े होने के दावों को खारिज कर दिया। भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था पूरी तरह से जन्म-आधारित विशेषाधिकार और अधिकार विहीनता पर टिकी हुई थी, जिसमें लिंग के आधार पर महिलाओं पर पुरूषों को भी विशेषाधिकार और वर्चस्व प्राप्त था। जन्म और लिंग-आधारित विशेषाधिकार ही ब्राह्मणवाद का मूलतत्व रहा है, इसको खारिज करते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से भारत में लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव डाली। उन्हें लोकतांत्रिक गणतंत्र कितना प्रिय था, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में जिस पार्टी की नींव डाली, उस पार्टी का नाम उन्होंने ‘द रिपब्लिकन (गणतांत्रिक) पार्टी ऑफ इंडिया’ रखा।
26 जनवरी 2023को भारतीय गणतंत्र के 72 वर्ष वर्ष पूरे हो रहे हैं। डॉ. आंबेडकर ने यह उम्मीद की थी कि भारत में लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव धीरे-धीरे मजबूत होती जाएगी और यह काफी हद तक हुई भी। जिसका परिणाम है कि वैचारिक तौर पर वर्ण-जाति की पक्षधर आर.एस.एस.-भाजपा को भी अपनी जरूरतों एवं मजबूरियों के चलते ही सही भारत राज्य के राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति) के रूप में दलित समाज से आए एक व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ा। लेकिन इस प्रतीकात्मक उपलब्धि के बावजूद भी डॉ. आंबेडकर का भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य गंभीर खतरे में है और इस पर गहरे संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इस पर सबसे बड़ा खतरा हिंदू राष्ट्र का खतरा है। जिसके संदर्भ में डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि “अगर हिंदू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिंदू कुछ भी कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, समता और बंधुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतंत्र के साथ मेल नहीं खाता है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” – (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य के भारत के स्वप्न को धूल-धूसरित करता है। जहां लोकतांत्रिक गणतंत्र में जन्म-आधारित छोटे-बड़े के लिए कोई स्थान नहीं होता, न ही कोई व्यक्ति पुरूष होने के चलते महिलाओं पर किसी प्रकार से वर्चस्व का दावा कर सकता है, वहीं हिंदू राष्ट्र की पूरी परिकल्पना जन्मगत श्रेष्ठता एवं निम्नता और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व पर आधारित है, जिसे किसी भी रूप में डॉ. आंबेडकर अपने लोकतांत्रिक गणराज्य में जगह देने के लिए तैयार नहीं थे। पुरुषों के वर्चस्व से महिलाओं की स्वतंत्रता और स्त्री-पुरुष के बीच समता के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया और मूलत: यही प्रश्न उनके लिए नेहरू के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने का मूल कारण बना। इसके साथ हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हिंदूओं के वर्चस्व एवं विशेषाधिकार का दावा करती है। धार्मिक वर्चस्व एवं विशेषाधिकार के लिए भी डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य में कोई जगह नहीं थी। उन्होंने लिखा है कि ‘‘हिंदू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिंदू धर्म को खुली छूट मिल जाए-और हिंदुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है-तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिंदू नहीं हैं या हिंदू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दमित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है” (सोर्स मटियरल आन डॉ. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।
उपरोक्त उद्धरण में डॉ. आंबेडकर साफ शब्दों में हिंदू राष्ट्र को पूर्णत: लोकतंत्र विरोधी और मुसलमानों के अलावा अन्य सभी दमित वर्गों के लिए खतरा मान रहे हैं। डॉ. आंबेडकर के लोकतांत्रिक गणराज्य की परिकल्पना और हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना दो बिलकुल विपरीत ध्रुव हैं, दोनों के बीच कोई जोड़ने वाला सेतु नहीं है, यदि हिंदू राष्ट्र फलता-फूलता है, तो डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित भारत का लोकतांत्रिक गणराज्य खतरे में है। फिलहाल भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य के सम्मुख हिंदू राष्ट्र का गंभीर खतरा आ उपस्थित हुआ है, इस खतरे से भारतीय गणतंत्र को बचाने की जिम्मेदारी हर उस व्यक्ति की है, जो लोकतांत्रिक गणतंत्र की डॉ. आंबेडकर और संविधान सभा के अन्य सदस्यों की परिकल्पना के साथ खड़ा है।
डॉ. आंबेडकर लोकतांत्रिक गणराज्य को एक राजनीतिक व्यवस्था के साथ सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में भी देखते थे। सामाजिक व्यवस्था का उनका मूल आधार समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर टिका हुआ था। उन्होंने अपनी किताब ‘जाति के विनाश’ में साफ शब्दों में कहा है कि मेरा आदर्श समाज समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित है। समाज के सभी सदस्यों के बीच बंधुता कायम करना उनका लक्ष्य रहा है। बंधुता की यह अवधारणा उन्होंने गौतम बुद्ध से ग्रहण किया था। आधुनिक युग में फ्रांसीसी क्रांति का भी नारा स्वतंत्रता, समता और भाईचारा ही था। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि बंधुता के बिना लोकतांत्रिक गणराज्य सफल नहीं हो सकता है और न ही बंधुता-आधारित राष्ट्र या देश का निर्माण हो सकता है। भारत में बंधुता के मार्ग में दो बड़ी बाधाएं उन्हें दिखी- सामाजिक और आर्थिक। सामाजिक असमानता का भारत में दो आधार स्तंभ रहे हैं और हैं- वर्ण-जाति व्यवस्था और महिलाओं पर पुरुषों का वर्चस्व। उनका मानना था कि वर्ण-जाति व्यवस्था और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के बिना सामाजिक समता और स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती है और बिना समता और स्वतंत्रता के बंधुता कायम नहीं हो सकती है। उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है कि बंधुता सिर्फ उन्हीं व्यक्तियों के बीच कायम हो सकती है, जो समान और स्वतंत्र हों। यानी बंधुता की अनिवार्य शर्त समता और स्वतंत्रता है। डॉ. आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ बंधुता के लिए सामाजिक समता और स्वतंत्रता की अनिवार्यता को स्थापित करती है और उन सभी चीजों के विनाश का आह्वान करती है, जो सामाजिक असमानता की जनक वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करती हो। जिसमें हिंदू धर्म और वे सभी हिंदू धर्मग्रंथ दोनों शामिल हैं, जो वर्ण-जाति व्यवस्था का समर्थन करते हैं।
यूरोप-अमेरिका के पूंजीवादी समाज के अपने निजी अनुभव और अध्ययन के आधार पर डॉ. आंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि आर्थिक असमानता के रहते हुए बंधुता कायम नहीं हो सकती है। सामाजिक समता के साथ आर्थिक समता भी बंधुता की अनिवार्य शर्त है। यूरोप-अमेरिका में काफी हद तक सामाजिक समता थी, लेकिन पूंजीवादी आर्थिक असमानता के चलते बंधुता का अभाव डॉ. आंबेडकर को दिखा । आर्थिक समता के लिए उन्होंने राजकीय समाजवाद की स्थापना का प्रस्ताव अपनी किताब ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में रखा। उन्होंने कृषि भूमि के निजी मालिकाने को पूरी तरह खत्म करने और उसका पूरी तरह राष्ट्रीयकरण करने का प्रस्ताव इस किताब में किया है। इसके साथ उन्होंने सभी बड़े और बुनियादी उद्योग धंधों को भी राज्य के मालिकाने में रखने का प्रस्ताव किया है। कृषि भूमि के पूर्ण राष्ट्रीयकरण और बुनियादी एवं बड़े उद्योग धंधों का पूरी तरह राष्ट्रीयकरण के माध्यम से ही आर्थिक समता हासिल की जा सकती है, यह डॉ. आंबेडकर के चिंतन का एक बुनियादी तत्व है। सामाजिक समता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा ब्राह्मणवाद है और आर्थिक समता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा पूंजीवाद है। इन्हीं दोनों तथ्यों को ध्यान में रखते हुए डॉ. आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद एवं पूंजीवाद को कामगारों के सबसे बड़े दो दुश्मन घोषित किए।
डॉ. आंबेडकर की नजर में लोकतांत्रिक गणराज्य की अनिवार्य शर्त सामाजिक एवं आर्थिक समता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने संविधान सभा के समक्ष संविधान प्रस्तुत करते समय कहा था कि हमने राजनीतिक समता तो हासिल कर ली है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक समता हासिल करना अभी बाकी है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हम सामाजिक और आर्थिक समता हासिल करने में असफल रहे तो राजनीतिक समता भी खतरे में पड़ जाएगी। आज भारत का लोकतांत्रिक गणराज्य गंभीर खतरे में है। एक तरफ हिंदू राष्ट्र की परियोजना के नाम पर नए सिरे से नए रूप में वर्ण-जाति व्यवस्था स्थापित करने की कोशिश चल रही है और सामाजिक समता के डॉ. आंबेडकर के स्वप्न को किनारे लगाया जा रहा है, तो दूसरी तरफ सार्वजनिक संपदा और सार्वजनिक संपत्ति को विभिन्न रूपों में कार्पोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है और इस तरह से डॉ. आंबेडकर के राजकीय समाजवाद के स्वप्न का खात्मा किया जा रहा है।
डॉ. आंबेडकर की बंधुता की जड़ें बुद्ध धम्म में थीं। उन्होंने साफ शब्दों में लिखा है कि “सकारात्मक तरीके से मेरे सामाजिक दर्शन को तीन शब्दों में समेटा जा सकता है- मुक्ति, समानता और भाईचारा। मगर, कोई यह न कहे कि मैंने अपना दर्शन फ्रांसीसी क्रांति से लिया है। बिलकुल नहीं। मेरे दर्शन की जड़ें राजनीतिशास्त्र में नहीं, बल्कि धर्म में हैं। मैंने उन्हें… बुद्ध के उपदेशों से लिया है…। (क्रिस्तोफ़ जाफ्रलो, पृ. 159) वे बंधुता-आधारित लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए बुद्धमय भारत की कल्पना करते थे। बुद्धमय भारत उनके लिए वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित वैदिक, सनातन, ब्राह्मणवादी और हिंदू भारत का विकल्प था। बुद्धमय भारत उनके समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित भारत के स्वप्न का एक अन्य आधार स्तंभ था। डॉ. आंबेडकर के प्रयासों के चलते भारतीय गणराज्य के बहुत सारे प्रतीकों में बौद्ध प्रतीकों को शामिल किया गया। जैसे- राष्ट्रीय ध्वज में धर्मचक्र, प्राचीन भारत के बौद्ध सम्राट अशोक के सिंहों को राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में मान्यता देना और राष्ट्रपति भवन की त्रिकोणिका पर एक बौद्ध सूक्ति को उत्कीर्ण करना। संविधान में भी उन्होंने बौद्ध धम्म के कुछ बुनियादी तत्वों को समाहित किया। इस संदर्भ में उन्होंने स्वयं लिखा है- “मैं भी हिंदुस्तान में सर्वांगीण पूर्ण तैयारी होने पर बौद्ध धर्म का प्रचार करने वाला हूं। संविधान बनाते समय उस दृष्टि से अनुकूल होने वाले कुछ अनुच्छेदों को मैंने उसमें अंतर्भूत किया है।” (धनंजय कीर, पृ.457) उन्होंने बौद्ध धम्म को वैज्ञानिक चेतना, लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता, समता और बंधुता की भावना पर खरा पाया। जिसमें ईश्वर और किसी पारलौकिक दुनिया के लिए कोई जगह नहीं थी। न तो उसमें किसी अंतिम सत्य का दावा किया गया था और न ही कोई ऐसी किताब थी, जो ईश्वरीय वाणी होने का दावा करती हो।
गणतंत्रात्मक भारत, बंधुता-आधारित भारत और बुद्धमय भारत डॉ. आंबेडकर के सपनों के भारत के तीन बुनियादी तत्व थे, लेकिन इन तीनों तत्वों को तभी हासिल किया जा सकता है, जब भारतीय जन प्रबुद्ध बनें। प्रबुद्ध भारत की इस परिकल्पना को साकार करने के लिए उन्होंने 4 फरवरी 1956 को ‘प्रबुद्ध भारत’ नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। प्रबुद्ध व्यक्ति एवं समाज वही हो सकता है, जो वैज्ञानिक चेतना से लैश हो और हर चीज को तर्क की कसौटी पर कसता हो तथा आलोचनात्मक दृष्टि से देखता हो। डॉ. आंबेडकर स्वयं बीसवीं शताब्दी के सबसे प्रबुद्ध व्यक्तित्वों में से एक हैं। वे हर चीज को एक समाज वैज्ञानिक की दृष्टि से आलोचनात्मक नजरिए से देखते थे और तर्क की कसौटी पर कसते थे। जो कुछ भी उनकी तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता था, उसे वे खारिज कर कर देते थे। उन्होंने बौद्ध धम्म को भी तर्क की कसौटी पर कसा और आलोचनात्मक नजरिए से देखा और उसे नया नाम ‘नवयान’ दिया।
आर.एस.एस. और कार्पोरेट (ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद) के गठजोड़ से बन रहा वर्तमान भारत डॉ. आंबेडकर के गणतंत्रात्मक, बंधुता-आधारित, बुद्धमय और प्रबुद्ध भारत की परिकल्पना से पूरी तरह उलट है। हमें डॉ. आंबेडकर की संकल्पना के भारत के निर्माण के लिए इस गठजोड़ का पुरजोर विरोध करना चाहिए और स्वतंत्रता, समता और बंधुता आधारित गणतंत्रात्मक भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ लग जाना चाहिए।