” हिंदी दलित नाटक और रंगमंच “

हिंदी दलित साहित्य की अवधारणा में नाटक या रंगमंच को देखे तो भारतीय समाज में जातियों के परस्पर टकराव झेलती जातियों का संघर्ष नजर आता है। यहाँ दर्द भी है और अधिकार की माँग भी। इसी चाह, आंदोलन और वैमनस्य तथा आक्रोश के गर्भ से दलित नाटक तथा रंगमंच का निर्माण हुआ। दलित नाटककार एवं रंगकर्मियों ने अपनी अस्मिता तथा संस्कृति को पहचाना और हिंदी हिंदू रंगमंच के समान अपनी मौजूदगी दर्ज की। जब हम दलित नाटक या दलित रंगमंच की ओर देखते हैं तो कुछ बातें हमारे सम्मुख उपस्थित होती है। अत्याचार सहते हमारी जातीय बंधु, सवर्ण पुरूषों द्वारा बलात्कार का शिकार होती हमारी माँ, बहने, बेटियाँ तथा देवदासी प्रथा के अंतर्गत हिंदू देवताओं के प्रतिनिधियों के हवस की शिकार धर्म भीरू महिलाएँ, मंदिरों में अपनी इज्जत बचाने के लिए चिल्लाती तथा अंधविश्वास की शिकार महिलाएँ यह सब जो होता है वह भारत में स्थापित सवर्णवादी व्यवस्था के कारण । सवर्णवादी व्यवस्था के उत्पीड़न की प्रतिक्रिया स्वरूप दलित साहित्य की एक मजबूत विधा के रूप में नाटक की उत्पत्ति हुई । सबसे पहले दलित समाज में इस व्यवस्था के प्रति आक्रोश निर्माण हुआ और इसी आक्रोश ने आंदोलन का रूप ले लिया । इसी आंदोलन के गर्भ से नाटक का जन्म हुआ । स्वयं डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था, ”मेरे दस भाषणों से कई अधिक एक नाटक की प्रस्तुति लोगों पर असर डालती है।”1 मानवीय मूल्यों की स्थापना करना दलित नाटक तथा रंगमंच का मुख्य उद्देश्य रहा है। इसका निर्माता संवेदनशील होने के कारण अपनी वेदना, अपने उपर होने वाले अत्याचार, अपने अधिकारों का होता हनन, छटपटाहट को नाटक द्वारा व्यक्त कर समाज में चेतना निर्माण करने का कार्य करता है।

उपर हमने कहाँ है कि दलित नाटक की उत्पत्ति बहुत मजबूत रूप से हुई है। किंतु इसके बावजूद भी यह विधा अचर्चित दिखाई देती है। इसके कई कारण हमें दिखाई देते हैं। यह नाटक जब-जब कहीं खेले जाते हैं या इसका मंचन होता है तब इसका काफी विरोध होता रहा है। व्यावसायिक नाटकों से इसका संघर्ष, रंगमंच की प्रतिकुलता, लेखकों की आर्थिक उदारता, प्रकाशक वर्ग द्वारा इनकी होती उपेक्षा आदि अनेक कारण इसके अचर्चा के रहे हैं ।

मूलत: नाटक यह विधा दलितों की ही देन है। शुरू से ही दलित समाज उत्पादक और श्रमजीवी रहा है। यह लोग दिन भर मजदूरी करके जब रात को वापिस आते हैं तो मनोरंजन के लिए अनेक कलाएँ प्रस्तुत करते थे । बिमारियों से मुक्ति, अकाल, अनावृष्टि से बचने के लिए यह लोग मुखौटा, जानवरों की खाल लगाकर नृत्य करते थे। नाटक का प्राथमिक रूप यही रहा है। मोहनदास नैमिशराय ने दलित नाट्य परंपरा को लोकनाट्य परंपरा से जोड़ते हुए लिखा है, ”मैं अगर कहूँ कि हर रंगकर्मी के भीतर उसकी स्मृतियों का दबाव होता है तो गलत नहीं होगा । थिएटर और लेखन के प्रति मेरे अनुराग का कारण भी वहीं रहा है। उसे विकसित किया सांग, ढोला तथा नौटंकी ने हमारे पड़ोसी लगभग अल्हा-उदल की कथा सुनते थे । बाद में मुझे पता चला वे हमारे पुरखे थे । उनकी बहादूरी के किस्से हमें रोमांचित करते थे। बिहार में ‘राजा सल्हेस’ का किस्सा लगभग इसी तरह का है। उस किस्से में अस्मिता का भाव है। साथ हमलावर को जवाब देने की प्रवृत्ति भी, दलितों के लिए नाटक से जुड़ना व्यक्तिगत रूची की बात कम और सामूहिक अधिक है।”2

मनोरंजन की जो तमाम विधाएँ है वह दलितों से ही विकसित होती नजर आती है। जैसे – नट, नृत्य, गायन इत्यादी । गाँव में नट-नटी के करतब दिखाने के लिए भाड़े-भड़ौती करना, विदूषक, मसखरा, बहरूपिया बनना, किसी के गुणों-अवगुणों का गा-गाकर प्रचार करना दलित लोग ही करते थे। इसी कलाओं को आगे चलकर नाटक का स्वरूप प्राप्त हुआ । कोई भी लोककला क्यों न हो, जैसे – जलसा, लावणी या नाटक उसमें काम करनेवाले ज्यादातर लोग दलित समाज के ही होते हैं । इससे पता चलता है कि नाटक दलितों के द्वारा ही खेला जाता है ।

वस्तुत: नाटकों का विवेचन दो रूपों में हम कर सकते है। वर्तमान में नाटक के दो रूप हमें दिखाई देते हैं। एक वह नाटक जो रंगमंच के अधिन है। जिसका निर्माण ही रंगमंच को आधार बनाकर किया जाता है । जिसे आज हम मूल प्रवाह का नाटक कहते हैं । जिसका उद्देश्य केवल मनोरंजन तथा अर्थ प्राप्ती ही होता है। लेकिन दलित नाटक इससे अलग है। यह दलितों द्वारा ही लिखा जाता है । यह अलग बात है कि आज गैर दलित लेखक भी दलितों के उपर लिख रहे हैं। लेकिन यह लेखन सहानुभूतिपरक होता है। परंतु आज दलितों को सहानुभूति नहीं चाहिए । क्योंकि सहानुभूति से कोई प्रश्न हल नहीं हो सकत हैं ।

एक तरफ वह नाटक है जिसके पास पूरी तरह से रंगमंच होता है और एक ओर वह नाटक है जिसके पास कोई विशेष रंगमंच ही नहीं है । इसे हम दलित नाटक कहते हैं । इसके पास न कोई रंगमंच है न रंगमंच की कोई साधन सामग्री। सही बात तो यह है कि दलित नाटकों को इन साधनों की कोई जरूरत ही नहीं होती । इसकी थीम ही इतनी सशकत होती है कि बिना किसी साधन-सामग्री तथा रंगमंच के बीना ही यह दर्शकों पर अपना प्रभाव छोड़ जाती है । यह नाटक जिसने भोगा है, उसके द्वारा लिखने के कारण उसमें अभिव्यक्ति सामर्थ्य इतना होता है कि उसे संगीत, प्रकाश, वस्त्रसज्जा आदि साधनों की कोई जरूरत नहीं होती । इसीलिए इसे मुक्त नाटक भी कहा जाता है।

मूलत: हिंदी में दलित रंगमंच का जो प्रारूप है वह लोकरंगमंच है। लोकमंच पर काम करनेवाले लोग दलित ही रहे हैं । उसमें काम करने वाला वर्ग दलित ही रहा है। जो लोककलाएँ थी, उन्होंने ही आगे चलकर नाटक का रूप धारण किया । इस संदर्भ में दशरथ ओझा का मानना है कि, ”हिंदी नाटक की परंपरा का मूल स्रोत यह जन-नाटक ही है, जो स्वांग आदि नाम से अपने प्राचीन रूप से अब तक विद्यमान है। क्रमश: इन जन-नाटकों की एक शाखा ने विकसित होकर साहित्यिक रूप धारण किया।”3

आज दलित साहित्य के अंतर्गत नाटक विधा प्रमुखता के साथ हमारे सामने आती है। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के प्रेरणा से आज दलित नाटक एवं दलित रंगभूमी आगे बढ़ रही है। इतिहास में घटित अनेक प्रसंग एवं घटनाओं ने दलित नाटककारों को लिखने के लिए प्रेरित किया है। इतिहास में ऐसे कई पात्र है जिनके मानवी हक को नकार कर उन्हें केवल जैविक रूप में देखा गया है । ऐसे पात्रों की वकालत करने का काम इस रंगभूमी ने किया है। वरिष्ठ आत्मकथाकार कौशल्या बैसंत्री के अनुसार, ”निश्चित ही नकारे हुए मानवीय हक को प्राप्त करने के लिए दलित रंगभूमी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।”4

20 वीं सदी में सबसे पहले स्वामी अछूतानंद ने हिंदी दलित नाट्य लेखन को लेकर पहल की । इनके चार नाटक दृष्टिगोचर होते हैं । इनका पहला नाटक ‘रामराज्य न्याय’ में रामायण के उपेक्षित तथा जुल्म का शिकार पात्र शंबूक की हत्या का चित्रण है । उनके अन्य नाटक, ‘मायानन्द बलिदान’, ‘पारख-पद’, ‘बली छलन’, यह हिंदू शास्त्रों और वाङ्मय के ऐसे पात्रों पर लिखे गए हैं, जिनके उत्पीड़न को सवर्ण साहित्यकारों और समाज ने त्यागा या बलिदान की संज्ञा देकर सवर्णों द्वारा दलितों के शोषण तथा सवर्ण पात्रों के छल को महिमामंडित करने का षड़यंत्र रचा था । अछूतानंद ने अपने नाटकों में ऐसे मर्म को छूनेवाले संवादों को रखा है जिससे दर्शक तथा पाठक को राम के प्रति अपनी मानसिकता बदलने को प्रेरित करते हैं और राम के वर्चस्ववाद को प्रस्तुत करते हैं ।

हिंदी दलित नाटक की इसी परंपरा में महत्त्वपूर्ण रूप से शिवप्रसन्नदास का ‘हरिजन’, माता प्रसाद का ‘अछूत का बेटा’, ‘धर्म के नाम पर धोखा’, ‘प्रतिशोध’, मोहनदास नेमिशराय का ‘अदालतनामा’, ‘हैलो कामरेड’, डॉ. एन.सिंह का ‘कठौती में गंगा’, एन.आर. सागर का ‘मार्ग का काटा’, ‘अन्तिम अवरोध’, सुनील कुमार सुमन द्वारा लिखित ‘एक बार फिर’, एल.एम. धर्मरत कृत ‘अछूत का प्यार’, कर्मशील भारती द्वारा लिखित ‘मान सम्मान’, ‘फांसी’, रूपनारायण सोनकर द्वारा लिखित ‘विषधर’, ‘एक दलित डिप्टी कलेक्टर’, ‘महानायक’, रत्नकुमार सांभरिया द्वारा लिखित ‘वीमा’, सुशीला टाकभौरे का ‘नंगा सत्य’, आदि प्रमुख नाटक है।

दलित नाटक और रंगमंच की दृष्टि से कर्मशील भारती और धर्मवीर ने दिल्ली में दलित न्याय मंच स्थापित किया था। जिसके द्वारा अनेक दलित नाटकों का मंचन हुआ । कर्मशील भारती के अनेक नाटकों का यहाँ सफलतापूर्वक मंचन भी हुआ है। जिसमें – ‘मेरा वजूद’, ‘फाँसी’, ‘संवादों के पीछे’, आदि प्रमुखता से देखे जा सकते हैं । उन्होंने 10 अक्टूबर, 1989 को विजयादशमी के दिन मुनीरका गाँव में ‘मेरा वजूद’, नाटक का मंचन किया था। उन्होंने ‘मान-सन्मान’, ‘श्रेष्ठ-कौन’, ‘झुठा अहंकार’, ‘आजादी किसकी’, आदि नाटकों का भी मंचन किया है। साथ ही वरिष्ठ दलित कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखित ‘दो चेहरे’ नाटक भी कई नाट्य संस्थाओं द्वारा मंचित हुआ है।

60 के दशक में प्रसिद्ध रंगकर्मी रमेश मेहता ने एक नाटक लिखा था, जिसका नाम था – ‘रोटी और बेटी’। नाटक के माध्यम से उन्होंने जातीय आधार पर लोगों को उद्वेलित और उत्तेजित करती आ रही ज्वलंत समस्या को उजागर किया है। इसी परंपरा में आगे 1977 में मनोहर लाल मानव ने ‘चावली’ नामक नाटक की निर्मिती की। इसकी मूल थीम दलित समाज के पढ़े-लिखे तबके में मध्यवर्गीय मूल्यों के प्रति रूझान और समाज का झकझोर कर उन्हें शिक्षित समाज के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देना है। इस नाटक का निर्देशन आनन्द कुमार ने किया था।  यह नाटक अनेक सार्वजनिक सभाओं में और दलित बस्तियों में मंचित हुआ था । 1980 मे मनोहरलाल और डालचंद के संयुक्त प्रयास से एल.के. रैना के द्वारा ‘कबिरा खड़ा बाजार में’, विशेष रूप से दलित लोगों के लिए मंचित किया ।

जहाँ तक दलित समाज के शौकिया, नाटककारों की बात है, उसमें उत्तर प्रदेश के ही नाटककारों ने कई प्रस्तुतियाँ की । एकलव्य के जीवन पर वर्तमान के संदर्भ को लेकर भीमसेन संतोष द्वारा ‘शोषित के नाम संतोष का पैगाम’ नाटक लिखा, जो शोषित साहित्य प्रकाशन, दिल्ली की ओर से 1983 में प्रकाशित हुआ। इस नाटक में उन्होंने दलितों के भीतर की पीड़ा को बाहर लाने का प्रयास किया है। इस प्रकार दलित नाटकों का लेखन और मंचन आज भी होता हुआ दिखाई देता है।
वर्तमान समय में दलित नाटककार सिनेमा और सिरियल के चकाचौंध से प्रभावित तो हुए हैं, किंतु वह अपने मूल उद्देश्य से दूर नहीं गये । वह आंबेडकरी विचारों से हटे नहीं है। वह सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन के लिए कटिबद्ध दिखाई देते हैं । भले ही आज दलित नाटक एवं दलित रंगभूमी के सामने अनेक समस्याएँ है किंतु बाबासाहेब आंबेडकर के प्रेरणा से दलित नाटककार, दलित नाटक, दलित रंगभूमी और दलित कलाकार आज आगे बढ़ रहा है।

संदर्भ :
1) मोहनदास नेमिशराय, दलित साहित्य अवधारणा में रंगमंच, पृ. 54
2) संपा. मनोहर भंडारी, दलित साहित्य समग्र परिदृश्य, पृ. 149
3) दशरथ ओझा, हिंदी नाटक का उद्भव और विकास, पृ. 53
4) संपा. डॉ. उमाकांत बिरादार, डॉ. विजकुमार रोडे, दलित विमर्श : नाटक तथा रंगमंच, पृ. 138

संप्रति :
1)    प्रोफेसर डॉ. संजय राठोड
हिंदी विभाग, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, पिन-431004
चलभाष् – 9421686342
ई-मेल – drsanjayrathod5@gmail.com

तथा

2) विकास सूर्यकांत वाघमारे
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), सेट, एम.फिल.,                 पी.जी. डिप्लोमा, पी-एच.डी. (कार्यरत) आदि ।
चलभाष् : 9518325363, 9075181603
ई-मेल :waghamarev12@gmail.com

पत्राचार का पता : शोधार्थी, हिंदी विभाग, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र, पिन-431004
मौलिकता प्रमाणपत्र- ” हिंदी दलित नाटक और रंगमंच” शीर्षक शोध आलेख स्वलिखित,  अप्रकाशित है।

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