वारकरी संप्रदाय महाराष्ट्र के लिए वरदान साबित हुआ।उन्होंने प्रबोधन के माध्यम से समाज जागृति की। सभी जाति, धर्म को समान माना। जाति भेद, अस्पृश्यता नष्ट करने की कोशिश की। समानता निर्माण करने का प्रयास किया।संत से प्रेरणा लेकर कई व्यक्तियों ने तत्कालीन समय कार्य किया। वर्तमान में भी कर रहे हैं । परिणाम समाज में सामाजिक क्रांति हुई।
क्रांति के दृष्टि से उन्नसवीं सदी महत्वपूर्ण रही। क्योंकि कई समाज सुधारक, सामाजिक संस्था का निर्माण हुआ। समाज में प्रचलित रूढ़ि, परंपरा, जातिभेद, अस्पृश्यता, वर्णभेद, अंधश्रद्धा आदि का विरोध किया। आधुनिक क्रांति शुरू हुई। सिर्फ विरोध नहीं किया, कार्य निरंतर करते रहे। इन्हीं कारणवश वर्तमान में महाराष्ट्र को पुरोगामी विचार से पहचाना जाता है । महाराष्ट्र की वैचारिक परंपरा प्राचीन है, तथागत गौतम बुद्ध के विचार से शुरू होती है। आधुनिक काल में जगन्नाथ शंकर शेट, बाळशास्री जांभेकर, दादोबा पांडुरंग , गोपाळ हरि देशमुख , भाऊ दाजी लाड, विष्णु बुआ ब्रह्मचारी, महात्मा ज्योतिबा फुले, विष्णु शास्त्री, सावित्रीबाई फुले, रा. गो. भांडारकर, न्यायमूर्ति गोविंद रानाडे, गोपाळ गणेश आगरकर,धोंडो केशव कर्वे, रमाबाई रानाडे, पंडिता रमाबाई, गोपाळ कृष्ण गोखले, विठ्ठल रामजी शिंदे, कर्मवीर भाऊराव पाटिल , डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर,राजर्षि शाहू महाराज,लहूजी साळवे, ताराबाई बापुजी शिंदे,भास्कर राव जाधव,बाबा पदमजी,भाऊ महाजन,मुक्ता साळवे, कृष्ण राव भालेकर, नारायण लोखंडे, लक्ष्मी बाई टिळक, काशीबाई कानिटकर,रखमाबाई राऊत, आनंदी बाई जोशी , विष्णु शास्त्री पंडित आदि का योगदान रहा। वर्तमान में भी उनसे प्रेरणा लेकर कई व्यक्ति कार्य कर रहे हैं। विचार आगे बढ़ा रहे है। महाराष्ट्र की वैचारिक परंपरा में जिन्होंने योगदान दिया, उनमें से प्रमुख व्यक्तियों के विचार पर प्रकाश डालेंगे।
महाराष्ट्र की वैचारिक परंपरा
धर्म के नाम पर बहुजन समाज का शोषण कल भी होता था, आज भी होता है और शायद आने वाले समय में भी होगा। हर धर्म में कोई बुरी परंपरा रहती है। इससे आम लोगों का मानसिक, शारीरिक शोषण होता है । शोषण विरुद्ध महात्मा ज्योतिबा फुले ने तत्कालीन समय आवाज उठाई। उन्होंने किसी धर्म का विरोध नहीं किया, धर्म में प्रचलित रूढ़ि, परंपरा का विरोध किया। वे धर्म को दोष नहीं देते, धर्म के अनुयाई को दोष देते हैं। हर धर्म में भेद है चाहे ख्रिश्चन हो, मुस्लिम हो, जैन हो, बौद्ध हो,हिंदू हो। जहा भेद वहां उच-नीचता आती है। वे भेदभाव का निरंतर विरोध करते रहे।
धोंडो केशव कर्वे ने स्री शिक्षा,स्री पुनर्विवाह के लिए निरंतर कार्य किया। स्री की सुधारना उनके जीवन का उद्देश्य था। तत्कालीन समय बाल विवाह होते थे। परिणाम स्री जल्द विधवा होती थी । विवाह क्या होता है?यह भी उसे अच्छी तरह समझ नहीं आता था। उसका कई माध्यम से शोषण होता था। इन समस्या की तरफ धोंडो केशव कर्वे ने ध्यान दिया। बाल विवाह प्रथा पर पाबंदी हो, यह अंग्रेज सरकार को बताने की कोशिश की। 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून बना, किंतु विधवा विवाह नहीं हो रहे थे। विधवा विवाह हो, इसलिए मानव धर्म सभा,परमहंस सभा,प्रार्थना समाज,सत्यशोधक समाज, आर्य समाज आदि ने निरंतर कार्य किया।संस्था के कार्य का आदर्श सामने रखकर धोंडो केशव कर्वे ने सामाजिक कार्य शुरू किया। कालांतर से महाराष्ट्र में विधवा विवाह होने लगे।
विधवा विवाह को ज्यादातर विरोध ब्राह्मण जाति से था। विधवा की पीड़ा धोंडो केशव कर्वे ने नजदीक से देखी थी । उन्होंने उद्धार करने का ठान लिया था। उनका विवाह भी बाल विवाह था। विवाह के समय उनकी उम्र पंद्रह वर्ष और पत्नी राधाबाई की उम्र नौ वर्ष थी।पत्नी राधाबाई का देहांत जल्द यानी 1891 में हुआ, तब धोंडो केशव कर्वे पैंतीस वर्ष के थे। विधवा की समस्या जान चुके थे। उन्होंने तय किया कि मैं विवाह करूंगा तो विधवा स्त्री से। वह भी प्रौढ़ स्री से। परिवार के सदस्य को समझा कर विधवा स्त्री से विवाह किया। विधवा विवाह के संदर्भ में धोंडो केशव कर्वे के विचार है,” 11मार्च,1893 को कुंवारी लड़की से शादी न करके मुंबई में पंडिता रमाबाई के शारदा आश्रम में चार साल रहने वाली गोदुबाई नाम की अटठाईस वर्षीय विधवा स्री से पुनर्विवाह करके समाज के सामने आदर्श निर्माण किया।” 2 वे सिर्फ बोलते नहीं थे, खुद कार्य करते थे,बाद में दूसरों को बताते थे। इसी से उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था, यह समझ आता है।
समाज में धार्मिक प्रथा प्रचलित थी, वर्तमान में भी है सिर्फ स्वरूप बदला है। परंपरा को विज्ञान का आधार नहीं था काल्पनिकता था। इन विचार से समाज अंधकार में था। धर्म के कई नियम थे। पालन नहीं किया तो धर्म से बहिष्कृत किया जाता था। समाज में हर धर्म की अलग-अलग परंपरा थी,समाज के लिए वह कलंक थी। बुरी प्रथा के माध्यम से सनातनी विचार के लोग बहुजन समाज का शोषण करते थे। कोई भी धर्म के विचार बुरे नहीं होते, विचार का प्रसार करने वाले व्यक्ति बुरे होते हैं। खुद के स्वार्थ के लिए गलत विचार का प्रसार वे करते हैं। यह धर्म विषयक कर्मवीर भाऊराव की धारणा थी। वे रूढ़ि, परंपरा के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते रहे।
कर्मवीर भाऊराव पाटिल पढ़ाई के लिए करवीर के जैन छात्रावास में थे। तत्कालीन समय छात्रावास में धर्म के कई नियम थे। नियम का पालन भाऊराव ने नहीं किया । वे बंडोखोर व्यक्ति थे। उन्होंने धर्म के सभी नियम को तोड़ा। इन कारणवश छात्रावास से उन्हें अन्नासाहेब लठ्ठे ने निकाल दिया। छात्रावास से बाहर जाना पसंद किया, लेकिन किसी की माफी नहीं माॅंगी। क्योंकि वे विज्ञान वादी विचार पर विश्वास रखते थे। सभी जाति धर्म के व्यक्ति के साथ भोजन करते थे। अस्पृश्यता पालन कभी नहीं किया। उन्होंने सनातनी वर्ग का त्रास सहा, किंतु धार्मिक परिवर्तन कार्य अंत तक नहीं छोड़ा। धार्मिकता के संदर्भ में कर्मवीर भाऊराव पाटिल कहते है, “हर एक लड़के ने खाना सोवळे परिधान करके ही खाना चाहिए, और खाने से पहले हर एक लड़के ने दाढ़ी या हजामत करना चाहिऍं।”4 समाज ने विज्ञान वादी विचार पर विश्वास रखना चाहिए, यह बात उन्होंने कहीं। वर्तमान में महापुरुष के विचार पर चिंतन होना जरूरी है,तब मानसिक गुलामी से बहुजन समाज मुक्त हो सकता है।
जाति, धर्म के नाम पर प्राचीन काल से समाज में विषमता थी और वर्तमान में भी है। विषमता नष्ट करने का प्रयास तत्कालीन समय भीमराव रामजी आंबेडकर ने किया। उनके पिताजी रामजी पुरोगामी विचार के थे। उन्होंने कबीर पंथ की दीक्षा ली थी। परिवार को वैचारिक विचार का वारसा था। बचपन में धर्म, जाति के नाम भीमराव आंबेडकर को नीच ठहराया गया। उन्होंने कालांतर से धार्मिकता पर चिंतन, मनन किया । समाज कार्य की शुरुआत की । जाति के नाम पर अस्पृश्य समाज के अधिकार छीन लिए थे। उनके अधिकार के लिए संघर्ष जारी रखा। महाड सत्याग्रह,कालाराम मंदिर प्रवेश यह धार्मिकता प्रतिकार है। वे सभी को समान अधिकार की माॅंग करते रहे । सनातनी लोगों से निरंतर झगड़ते रहे । हिंदू होकर अस्पृश्य को हीन वागणूक क्यों? यह सवाल उच्च वर्गों से भीमराव आंबेडकर पूछते रहे।
संदर्भ सूची
1) रामकृष्ण कांबळे- महात्मा फुले आणि आधुनिक महाराष्ट्र, कैलाश पब्लिकेशन,
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3)सुहास कुलकर्णी- महर्षी विठ्ठल रामजी शिंदे,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन,सदाशिव पेठ,पुणे- 411030, प्रथम संस्करण-2010,पृ.46
4)रमेश जाधव- कर्मवीर भाऊराव पाटील,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन सदाशिव पेठ, पुणे- 411030, प्रथम संस्करण-2010,पृ.38
5)किशोर गायकवाड- घटनेचे शिल्पकार बाबा साहेब आंबेडकर,श्री गंधर्व वेद प्रकाशन सदाशिव पेठ, पुणे-411030,प्रथम संस्करण-2010,पृ.38
6)उत्तमराव मोहिते- वैज्ञानिक संस्कृतिचा दार्शनिक राजर्षी शाहू छत्रपती,जिजाई प्रकाशन,584, नारायण पेठ,कन्याशाळा बसस्टाॅप,जिजापुर,पुणे-411030,
संक्षिप्त परिचय
1)नाम:- वाढेकर रामेश्वर महादेव
जन्म:- 20 मई,1991
जन्मस्थान:-ग्राम-सादोळा,तहसील-
शिक्षा:-बी.ए.,एम.ए.(हिंदी),एम.
लेखन:- चरित्रहीन,दलाल,सी.एच.बी.इंटरव्
लड़का ही क्यों?, अकेलापन, षड़यंत्र, शहीद…! आदि कहानियाॅं विभिन्न पत्रिका में प्रकाशित।भाषा, विवरण,शोध दिशा, अक्षरवार्ता, गगनांचल,युवा हिन्दुस्तानी ज़बान, साहित्य यात्रा, विचार वीथी आदि पत्रिकाओं में लेख तथा संगोष्ठियों में प्रपत्र प्रस्तुति।
संप्रति:- शोध कार्य में अध्ययनरत।
चलभाष् :-9022561824
ईमेल:-rvadhekar@gmail.com
पत्राचार पता:-हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय,औरंगाबाद – महाराष्ट्र, पिन -431004
2)नाम:- प्रोफेसर,संजय राठोड ,हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय,औरंगाबाद-महाराष्
चलभाष् :-9421686342
ईमेल:-drsanjayrathods@gmail.
पत्राचार पता:-हिंदी विभाग,डाॅ.बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद- महाराष्ट्र,पिन-431004
मौलिकता प्रमाण पत्र
आलेख-“महाराष्ट्र के वैचारिक परंपरा में राजर्षि शाहू महाराज का योगदान”शीर्षक शोध आलेख स्वरचित,अप्रकाशित है।
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