आज भारत में आर्थिक और सामाजिक विषमता जिस तरह शिखर पर पहुंची है;जिस तरह नीचे की प्रायः 50% आबादी महज 3% नेशनल वेल्थ पर गुजर-बसर करने के लिए विवश है;जिस तरह भारत नाइजीरिया को पीछे छोड़ते हुए दुनिया के ‘पॉवर्टी कैपिटल’ अर्थात ‘गरीबी की राजधानी ‘का ख़िताब अपने नाम किया है; जिस तरह देश की आधी आबादी को आर्थिक समानता पाने में 257 साल लगने के कयास लगाये जा रहे हैं और सर्वोपरि जिस तरह शासक वर्ग की नीतियों से बहुसंख्य वंचित समाज उस स्टेज में पहुंचा दिया गए है, जिस स्टेज में पहुंचने पर सारी दुनिया में वंचितों को मुक्ति- संग्राम में उतरना पड़ा है, ऐसी दशा
में अधिकांश बहुजन बुद्धिजीवियों को निगाहें बहुजन लेखकों के संगठन ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) पर टिक गयी हैं.बहुजन लेखकों का यह संगठन पिछले डेढ़ दशक से सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की,सभी प्रकार की नौकरियों, पौरोहित्य,डीलरशिप; सप्लाई,सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन; शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली राशि,ग्राम-पंचायत,शहरी निकाय, संसद-विधानसभा की सीटों; राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट;विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों; विधान परिषद; राज्यसभा;राष्ट्रपति,राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि के कार्यबल अर्थात शक्ति के समस्त स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने की वैचारिक लड़ाई शिद्दत से लड़ रहा है. इसके दस सूत्रीय एजेंडे को जहां भाजपा-कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के साथ के साथ कई क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने चुनावी मैनिफेस्टो में जगह दिया है,वहीँ कई राज्य सरकारों ने लागू भी किया है. बहुजन बुद्धिजीवियों का मानना है कि यदि बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे को ठीक से लागू कर दिया जाय तो दलित, आदिवासी,पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाएं शक्ति के स्रोतों में अपनी वाजिब हिस्सेदारी पा जाएँगी और भारत पलक झपकते आर्थिक विषमताजन्य समस्त समस्यायों से निजात पा जायेगा!
लेकिन बीडीएम के डाइवर्सिटी एजेंडे को लागू करेगा कौन, इस सवाल से इस लेखक को अक्सर दो-चार होते रहना पड़ता है! जहां तक वर्तमान सरकार का सवाल है, वह तो वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए दलित, आदिवासी, पिछड़े और महिलाओं को उस हालात में पहुचाने मे सर्वशक्ति लगा रही है, जिस हालात में इन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं.ऐसे में शक्ति के समस्त स्रोतों पर हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग (मुख-बाहु- जंघे) से जन्मे लोगों के हाथ में देने पर आमादा वर्तमान सरकार से कोई उम्मीद नहीं: फिर उम्मीद किससे की जाय बहुजनवादी दलों से? तमाम लोग यही कहेंगे कि जो हिंदी पट्टी देश के राजनीति की दिशा तय करती है, वहां मजबूती से पैर जमायी सपा-बसपा- राजद- जदयू -लोजपा इत्यादि पार्टियां ही सामाजिक न्याय के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता के कारण बीडीएम के एजेंडे को लागू करने में रूचि ले सकती हैं, इसलिए इन पर ही निर्भर होकर इसे लागू करवाने का प्रयास करना चाहिए. लेकिन इन पर निर्भर होने के पहले जरा इनके मौजूदा चरित्र का अध्ययन कर लिया जाय!
इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदी पट्टी के बहुजनवादी दलों ने मंडल उत्तरकाल में विराट सम्भावना जगाया, किन्तु वह चिरस्थायी न हो सका और 2009 के लोकसभा चुनाव से वे सामाजिक न्याय की राजनीति से विचलन का संकेत देने लगे. दरअसल 2009 तक वे बहुजन समाज को अपने वोटों का गुलाम समझने लगे थे. वे यह मानकर निश्चिन्त थे कि कुछ नहीं भी करने पर बहुजनों का वोट उन्हें थोक भाव में मिलते रहेगा. इसलिए उन्होंने न सिर्फ सारा ध्यान सवर्णों पर लगाना शुरू किया, बल्कि उनके हिसाब से एजेंडा भी सेट करने लगे. वे बहुजनों की भागीदारी को दरकिनार कर गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की आवाज़ बुलंद करने लगे थे. इस समय तक खुद को जातिमुक्त दिखाने के लिए उन्होंने तिलक तराजू .. और भूराबाल जैसे नारों से पूरी तरह दूरी बना लिया था. वे सवर्णों के सहारे पीएम बनने के सपनों में विभोर हो गए थे. सामाजिक न्याय की राजनीति से उनके विचलन का परिणाम 2009 के लोकसभा चुनाव में गहरी शिकस्त के रूप में आया, जिस पर टिपण्णी करते हुए प्राख्यात बहुजन पत्रकार दिलीप मंडल ने ‘मंद पड़ने लगी है सामाजिक न्याय की राजनीति’ शीर्षक से 25 मई, 2009 को ‘नवभारत टाइम्स’ में लिखा था –:
‘वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में हिंदी पट्टी के दो राज्यों: बिहार और यूपी के राजनीति की एक हकीकत उजागर हो गयी है. लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती और यूपी में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद मुलायम सिंह यादव, ये सभी महारथी अपनी चमक खो चुके हैं. इसके साथ ही भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में वंचित समूहों की हिस्सेदारी बढ़ाने की जो प्रक्रिया लगभग 20 साल पहले शुरू हुई थी, उस मॉडल के नायक –नायिकाओं का निर्णायक रूप से पतन हो चुका है. हालाकि यह सब एक दिन में नहीं हुआ है, लेकिन अब वह समय है, जब इसके पतन और विखंडन की प्रक्रिया पूरी हो रही है. सामाजिक न्याय की राजनीति का सफ़र जिस उम्मीद से शुरू हुआ था, उसे याद करें तो इन मूर्तियों का इस तरह गिरना और नष्ट होना तकलीफ देता है. बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक वजूद घट गया है और उनकी पार्टी सिर्फ चार सीटें जीत पाई है या रामविलास पासवान की पार्टी का अब लोकसभा में अब कोई नामलेवा नहीं बचा है. न ही इस बात का निर्णायक महत्त्व है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का ख्वाब सजों रही मायावती की पार्टी का प्रदर्शन इस लोकसभा चुनाव में बेहद ख़राब रहा. मुलायम सिंह के पार्टी का प्रदर्शन पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले खराब होने का भी निर्णायक महत्त्व नहीं है.अहम बात यह है कि इनसे राजनीति के जिस मॉडल की बागडोर सँभालने की अपेक्षा की जा रही थी और इनके जनाधार की जो महत्वाकांक्षाएं थी, उसे पूरा करने में सभी नाकामयाब हो चुके हैं. यह एक सपने के टूटने की दास्तान है. यह सपना था भारत को बेहतर और सबकी हिस्सेदारी वाला लोकतंत्र बनाने और देश के संसाधनों पर खासकर वंचित समूहों की हिस्सेदारी दिलाने का. मायावती की बात करें तो दो दशक पहले जिस तेज-तर्रार नेता को देश ने उभरते हुए देखा था, अब की मायावती उसकी छाया भी नहीं लगतीं.’
बहरहाल 2009 में दिलीप मंडल ने सामाजिक न्याय के राजनीति के मंद पड़ने की जो घोषणा किया था, वह 2014 में और बदतर स्थिति में पहुँच गयी. 2009 के पराजय के बाद उन्हें सामाजिक न्याय की उग्र राजनीति की ओर लौटना था,पर वे खुद को नहीं बदले और अच्छे दिन लाने की उम्मीद जगा कर 2014 के लोकसभा में उतरे नरेंद्र मोदी नामक तूफ़ान के सामने उड़ से गए. सबसे बुरी स्थिति बसपा की हुई. सामाजिक न्याय से भारी दूरी बनाने के कारण मायावती जी की बसपा शून्य पर पर पहुँच गयी.2014 में मुखर बहुजन नेता रामविलास पासवान सामाजिक न्याय का खेमा बदलकर मोदी के साथ हो लिए. बहरहाल बहुजनवादी दलों में अगर 2009 में लोजपा; 2014 में बसपा शून्य पर पहुंचने का रिकॉर्ड बनायीं तो 2019 में सामाजिक न्याय की बेहद मुखर पार्टी राजद शून्य पर पहुँच गयी. वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी के उदय के बाद बहुजनवादी पार्टियां चुनाव दर चुनाव अपनी स्थिति कारुणिक बनाती गईं. इसका प्रधान कारण यह रहा कि जिस सामाजिक न्याय के राजनीति की जोर से भाजपा को शिकस्त दी जा सकती थी, इन्होंने वह मुद्दा उठाया ही नहीं. एकमात्र अपवाद रहे लालू प्रसाद यादव जिन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में डाइवर्सिटी केन्द्रित मुद्दा उठाकर लोकप्रियता के शिखर पर काबिज मोदी की भाजपा को शिकस्त दे दिया.2015 के बाद हिंदी पट्टी में चार चुनाव हुए : 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव, 2019 में लोकसभा चुनाव, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 में फिर यूपी विधानसभा चुनाव. आश्चर्य की बात यह रही कि अज्ञात कारणों से यूपी और बिहार के बहुजन नेतृत्व ने इन चुनावों में सामाजिक न्याय से जुड़ा जरा भी मुद्दा नहीं उठाया. एक ऐसे दौर में जबकि मोदी सत्ता में आने के बाद राजसत्ता का अधिकतम इस्तेमाल निजीकरण, विनिवेशीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये आरक्षण के खात्मे और संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने में कर रहे थे, इन्होंने चारों चुनावों में आरक्षण को विस्तार देने वाला मुद्दा उठाया ही नहीं. जबकि इनके समक्ष लालू प्रसाद यादव का दृष्टांत था, जिन्होंने डाइवर्सिटी केन्द्रित हल्का सा मुद्दा उठाकर 2015 मोदी जी को आराम से शिकस्त दे दिया था. यदि इन्होंने कायदे से डाइवर्सिटी टाइप मुद्दा उठाया होता, मोदी की 2019 में न तो सत्ता में वापसी हो पाती और न ही बहुजनों के गुलामों की स्थिति में पहुचने की नौबत आती.
ऐसा लगता है मोदी के उत्तरोत्तर अप्रतिरोध्य बनते जाने के साथ अज्ञात कारणों से बहुजन नेतृत्व में सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति मरती गयी, जबकि सत्ता में आने के बाद जिस तरह जूनून से मोदी आरक्षण के खात्मे और शक्ति के समस्त स्रोत सवर्णों के हाथ में देने में मुस्तैद हुए थे, उससे वंचित बहुजनों को आक्रोशित कर सत्ता दखल की बेहतर जमीन तैयार होने लगी थी. किन्तु जैसा पूर्व पंक्तियों में कहा कि इनमें सत्ता हासिल करने की इच्छाशक्ति ही विलुप्त सी हो गयी, इसलिए उन्होंने मोदी की बहुजन विरोधी नीतियों के सद्व्यवहार में कोई रूचि ही नहीं ली. अगर ऐसा नहीं होता तो वे कहते कि हम सत्ता में आने के 24 घंटे के अन्दर सवर्ण आरक्षण का खात्मा कर देंगे और जाति जनगणना कराकर उनको उनके संख्यानुपात में हर क्षेत्र में अवसर देंगे तथा उनके हिस्से का 65 से 75 प्रतिशत अतिरक्त अवसर दलित, आदिवासी पिछड़ो और अकलियतों के मध्य बाटेंगे. जिस तरह मोदीराज में लाभजनक सरकारी उपक्रमों को अन्धाधुन बेचा गया, वे कह सकते थे कि हम सत्ता में आने पर बेचीं गयी सरकारी कंपनियों और परिसंपत्तियों की समीक्षा कराएँगे और प्रयोजन होने पर पुनः राष्ट्रीयकरण करेंगे. वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति सहित सत्ता में आने पर सरकार के हर बहुजन विरोधी फैसलों को पलटने की बात कहकर अपने समर्थकों में सामाजिक न्याय का सपना दे सकते थे पर,इच्छाशक्ति ख़त्म होने के कारण ऐसा न कर सके.
सबसे बड़ी बात तो यह है कि मोदी सरकार ने अपनी बहुजन विरोधी नीतियों से सापेक्षिक वंचनाको तुंग पर पंहुचा दिया , किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में बहुजन नेतृत्व इसके सद्व्यवहार से मीलों दूर रहे. क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब वंचित वर्गों में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है,तब उन में शक्ति संपन्न वर्ग के खिलाफ आक्रोश की चिंगारी फूट पड़ती है और वे शासकों को सत्ता से दूर धकेल देते हैं.जिस तरह आज मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक आज जो हालात भारत में पूंजीभूत हुए हैं,वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे: यहाँ तक कि फ्रांसीसी क्रांति और रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी नहीं रहे !लेकिन मोदी सरकार द्वारा लगातार देश को बेचने तथा बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने का उपक्रम करते देखकर भी बहुजनवादी विपक्ष कभी सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लिए आगे इसलिए नहीं आया, क्योंकि अदृश्य व अज्ञात कारणों से उसमें सत्ता हासिल करने की इच्छा शक्ति शायद विलुप्त हो गयी है. अतः जिन बहुजनवादी दलों में सत्ता में आने की चाह विलुप्त सी हो गयी, उनसे यह प्रत्याशा नहीं की जा सकती कि वे शक्ति के समस्त सोतों के वाजिब बंटवारे की हिमायत करने वाले बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के दस सूत्रीय एजेंडे में कोई रूचि लेंगे! ऐसे में इसे लागू करवाने के लिए अन्य विकल्पों पर विचार करना होगा!
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डायवर्सिटी मैन के नाम से विख्यात एच.एल. दुसाध जाने माने स्तंभकार और लेखक हैं। हर विषय पर देश के विभिन्न अखबारों में नियमित लेखन करते हैं। इन्होंने कई किताबें लिखी हैं और दुसाध प्रकाशन के नाम से इनका अपना प्रकाशन भी है।
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