Bihar में 16 प्रतिशत Dalit वोटों की लड़ाई तेज, Manjhi पर भड़के Nitish

23 जून को बिहार में विपक्षी दलों की बैठक के पहले बिहार की राजनीति गरमा गई है। और इस गरमाई राजनीति के केंद्र में पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी हैं, जो महागठबंधन से अलग हो गए हैं। आपसी खिंचतान में मांझी के बेटे संतोष सुमन ने भी सरकार से इस्तीफा दे दिया था। इस इस्तीफे के बाद मांझी ने नीतीश कुमार पर कई आरोप लगाए थे, जिसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को भाजपा से मिला हुआ बता दिया है।

मांझी का आरोप है कि नीतीश कुमार ने उन्हें बैठक में नहीं बुलाकर उनका अपमान किया। साथ ही आरोप लगाया कि नीतीश कुमार उनकी पार्टी हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा को जदयू में मिलाना चाहते थे,  जिस पर नीतीश कुमार ने उन्हें भाजपा का एजेंट बता दिया। नीतीश कुमार ने आरोप लगाया कि मांझी विपक्ष की बैठक में हुई चर्चा को भाजपा से बता देते, इसलिए उनसे विलय करने को कहा गया।

मांझी इस पूरे घटनाक्रम को दलित समाज के अपमान से जोड़कर इसका राजनीतिक लाभ लेने में जुट गए हैं। तो अंदरखाने खबर यह भी है कि महागठबंधन से निकलने के बाद जीतनराम मांझी एनडीए के खेमे में जाने को तैयार हैं। भाजपा को भी मांझी के रूप में एक मौका दिखने लगा है। तो इसके पीछे की वजह बिहार के 16 प्रतिशत दलित मतदाता हैं। बिहार के दलित मतदाताओं की बात करें तो प्रदेश के सबी 243 सीटों में 40-50 हजार दलित मतदाता हैं, जो किसी को भी हराने या जीताने में कामयाब हैं। इन वोटों पर भाजपा लेकर लेकर राजद, लोजपा और कांग्रेस सभी की नजरे हैं। हालांकि जीतनराम मांझी के जाने के बाद नीतीश कुमार ने उन्हीं के मुसहर समाज से रत्नेश सदा को मंत्री बनाकर डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश कर दी है। तो जीतनराम मांझी नई राह ढूंढ़ने में लग गए हैं। खबर है कि पटना में 18 जून को हम पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद 19 जून को मांझी अपने बेटे के साथ दिल्ली जाएंगे, जहां वह गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात करेंगे।

जानिये बृजभूषण पर कौन-कौन सी धारा लगी है, कितनी हो सकती है सजा.

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महिला खिलाड़ियों से छेड़छाड़ के मामले में भाजपा सांसद और ओलंपिक संघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर आरोप तय हो गया है। दिल्ली पुलिस ने राउज एवेन्यू कोर्ट में दाखिल चार्जशीट में बृज भूषण पर 354, 354A, 354D और 506 (I) धाराएंDij लगाई है। लेकिन इस पूरे मामले में खिलाड़ियों के लिए चिंता की बात यह है कि अगर बृजभूषण सिंह को जेल हो भी जाती है तो बेल मिल जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के एक वकील डीके गर्ग का कहना है कि बृजभूषण पर लगी धाराएं ऐसी हैं, जिसमें बेल हो सकती है। और अगर बृज भूषण दोषी भी पाए जाते हैं तो ज्यादा सजा नहीं होगी।

बृजभूषण पर लगी धाराओं के मायने क्या हैं, उसे भी समझिए। धारा 354 यानी किसी महिला का शील भंग करने के इरादे से उसपर हमला, एक अन्य धारा 354 ए भी यौन उत्पीड़न से संबंधित धारा है। अन्य धाराओं में भी किसी महिला को गलत तरीके से छूने और जबरन अश्लील सामग्री दिखाने, पीछा करने,धमकाने जैसे अपराध हैं। इस सभी धाराओं में दोषी पाए जाने पर एक साल से लेकर पांच साल तक की सजा का प्रावधान है।

चार्जशीट दाखिल होने के बाद पहलवान अभी खुल कर तो कुछ नहीं बोल रहे हैं लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया पर दिये उनके बयान से साफ है कि वो इस रिपोर्ट से बहुत खुश नहीं हैं। महिला पहलवान साक्षी मलिक ने कहा है कि हम पहले देखेंगे कि जो वादे किए गए थे वो पूरे होते हैं या नहीं उसके बाद हम अगला कदम उठाएंगे। हम इंतजार कर रहे हैं। जबकि विनेश फोगाट ने एक ट्विट को रि-ट्विट किया, जिसमें उन्होंने पीएम मोदी कह रहे हैं कि बेटियों के साथ गलत करने वालों को फांसी पर लटकाया जाएगा।

साफ है कि पहलवान अभी कुछ भी बोलने से पहले सभी बातों को समझ लेना चाहते हैं। साथ ही वो अदालत की सुनवाई का भी इंतजार कर रहे हैं। पुलिस ने दो अलग-अलग  अदालतों में चार्जशीट दाखिल की है। 22 जून को चार्जशीट पर सुनवाई करेगी। जबकि पॉक्सो लगेगा या नहीं, इस पर 4 जुलाई को सुनवाई होगी।  हालांकि खिलाड़ियों ने साफ किया है कि आंदोलन को अस्थायी रूप से रोका गया है और जरुरी हुआ तो आंदोलन फिर से शुरू होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि इंसाफ नहीं मिलने पर वे एशियाई खेलों के ट्रायल में भाग नहीं लेंगे

मध्य प्रदेश में आदिवासी उद्यमियों को मिलता रोजगार

मध्य प्रदेश का बड़वानी जिला 1948 से पहले राज्य की राजधानी हुआ करता था. यह छोटा सा राज्य अपनी चट्टानी इलाकों और कम उत्पादक भूमि के चलते अंग्रेज, मुगल और मराठों के शासन से बचा रहा. यह जैन तीर्थ यात्रा का केंद्र चूलगिरि और बावनगजा के लिए मशहूर है. मध्य प्रदेश के दक्षिण पश्चिम में स्थित बड़वानी के दक्षिण में सतपुड़ा एवं उत्तर में विन्ध्याचल पर्वत शृंखला है. करीब 13 लाख की आबादी वाले बड़वानी को 25 मई 1998 को मध्यप्रदेश में जिले का दर्जा मिला. आदिवासी बाहुल्य इस जिले की साक्षरता दर करीब 50 फीसदी से कम है. अति पिछड़ा होने के कारण केंद्र सरकार ने वर्ष 2014 में जिन 112 आकांक्षी जिलों का चुनाव किया था, उनमें बड़वानी भी शामिल है. लेकिन वर्ष 2014 से 2021 के बीच इस जिले ने इतनी तरक्की की, कि राज्य नीति आयोग की ग्रेडिंग में यह जिला वर्ष 2021 में प्रदेश के टॉप 10 समृद्ध ज़िलों में शामिल हो गया है. इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि यहां कृषि के साथ-साथ सूक्ष्म उद्योगों की ओर युवाओं ने हाथ आजमाना शुरू किया है.

दरअसल खुद का कारोबार शुरू करने के लिए प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना के तहत मिलने वाली राशि युवाओं के लिए बहुत उपयोगी साबित हुई है. इसी जिले के तीन आदिवासी संतोष वसुनिया, पवन और लक्ष्मी वाणी ने इस योजना के तहत लोन लेकर अपना कारोबार शुरू किया और आज वह आत्मनिर्भर बन चुके हैं. पेटलावद की 44 वर्षीय संतोष वसुनिया बताती हैं कि “जब कोरोना महामारी के दौरान लोग शहर से गांव की ओर पलायन कर रहे थे, तब मेरे मन में एक बात कौंधी कि आखिर इतने लोगों की आजीविका कैसे चलेगी? क्योंकि उस वक्त तक गांव में कृषि और मज़दूरी के अलावा रोजगार के कोई ठोस साधन नहीं थे. अक्सर रोज़गार के लिए ग्रामीण पलायन ही करते थे. असंख्य प्रवासियों को इस तरह बदहवास अपने-अपने गांव की ओर लौटते देखकर मैं विचलित हो गई. उसी वक्त मैंने ठान लिया कि निर्वाह के लिए कम वेतन वाले काम करने से बेहतर है कि सरकार से लोन लेकर छोटा व्यवसाय शुरू कर जीवन को सुरक्षित करूं.”

वह बताती हैं कि मैंने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, बहुत सारी चुनौतियों का सामना किया है, पिता झाबुआ में कृषि मजदूर थे. जब वह सिर्फ 4 साल की थी, तब उनके पिताजी गुजर गए. मां को छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर मजदूरी करने जाना पड़ता था. होनहार होते हुए भी वह 10वीं तक ही पढ़ पाई थी कि उनकी शादी हो गई और वह पति के साथ पेटलावद चली आईं. जहां दो संतान को जन्म दिया. संतोष बताती हैं कि मैं कभी नाउम्मीद नहीं हुई. आत्मनिर्भर होने की इच्छा ने कभी उनका पीछा नहीं छोड़ा. परिवार में दूर दूर तक व्यवसाय से किसी का कोई नाता नहीं था. लॉकडाउन खत्म होते ही उसने सौंदर्य प्रसाधन की दुकान खोलने का निर्णय लिया. इस बीच उनका संपर्क ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (टीआरआई) एंटरप्रेन्योरशिप फैसिलिटेशन हब टीम से हुआ और वह उनकी मदद से व्यवसाय की दिशा में काम करने लगीं. संतोष ने अपनी बचत से एक लाख रुपए का निवेश किया और प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना (पीएमईजीपी) के तहत वित्तीय सहायता के रूप में 3.75 लाख रुपए प्राप्त कर अपना व्यवसाय शुरू कर दिया. अब उसका सौंदर्य प्रसाधन के साथ-साथ जलपान इत्यादि से संबंधित एक सफल दुकान भी है. जिससे आज वह न सिर्फ आत्मनिर्भर बन चुकी है बल्कि अपने परिवार को आर्थिक मदद भी कर रही है.

संतोष की तरह पवन जमरे और लक्ष्मी वानी की सफलता बताती है कि ग्रामीण भारत में कितनी मानवीय क्षमताएं मौजूद हैं. ऐसे समय में जब बेरोजगारी चरम पर है, बड़वानी के राजपुर ब्लॉक के चितावल गांव के 20 साल के पवन ने एक उद्यमी के रूप में कदम आगे बढ़ाया है. वह एक छोटे किसान परिवार से आते हैं और महज 8वीं तक पढाई की है. वह बताते हैं, कि “मैंने अपने गांव के पास के एक इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान पर एक दैनिक मजदूर के रूप में काम करना शुरू किया था और प्रतिदिन लगभग 150 से 200 रुपए कमा लेता था. टीआरआई की सुमन सोलंकी ने इलेक्ट्रॉनिक्स में मेरी दिलचस्पी को देखते हुए मुझे ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान से मोबाइल रिपेयरिंग ट्रेनिंग प्रोग्राम में भाग लेने सुझाव दिया और इसमें नामांकन कराने में मेरी मदद भी की.” अब पवन के पास अपना खुद का मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान है. जुलवानिया, बड़वानी में एंटरप्राइज फैसिलिटेशन हब ने उन्हें उनके व्यवसाय को सशक्त बनाने के लिए एक्सीलरेटेड एंटरप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट प्रोग्राम (एईडीपी) में भाग लेने में मदद की. प्रशिक्षण के दौरान पवन ने अगले 3 वर्षों के लिए अपना खुद का बिजनेस प्लान तैयार किया और लोन भी प्राप्त किया.

30 वर्षीय लक्ष्मी वानी की सफलता भी कुछ इसी तरह की कहानी कहती है. वह बड़वानी के नेवाली विकासखंड के नेवाली गांव की रहने वाली हैं और ओबीसी समुदाय से संबंध रखती हैं. जैसा कि कम आय वाले ग्रामीण परिवारों में आम है, लक्ष्मी ने सिर्फ 11वीं कक्षा तक पढ़ाई की और कम उम्र में ही उनकी शादी कर दी गई. एक दिहाड़ी मजदूर की पत्नी और तीन बच्चों की मां के रूप में, वह आय के दूसरे साधन तलाशने लगीं. वह बताती हैं, “मैं नेवाली गांव में टीआरआई इंडिया की यूथ हब टीम द्वारा आयोजित एक अभियान में शामिल हुई, जहां उद्यमिता के प्रति मेरी रुचि बढ़ी. मैं कंप्यूटर की बुनियादी बातें जानती थी और एक कॉमन सर्विस सेंटर (सीएससी) चलाने का सपना पहले से ही देखती आ रही थी.” यूथ हब टीम ने बड़वानी में ग्रामीण स्वरोजगार प्रशिक्षण संस्थान के साथ मिलकर लक्ष्मी को छह दिन के आवासीय सीएससी आईडी ट्रेनिंग एंड सर्टिफिकेशन कोर्स में नामांकन करा दिया. अब वह अपना खुद का सीएससी बिजनेस चला रही हैं. इस तरह लक्ष्मी न केवल आत्मनिर्भर बन चुकी हैं बल्कि अपने गांव की अन्य महिलाओं की प्रेरणा स्रोत भी बन गई हैं.

इस संबंध में यूथ इनिशिएटिव ऑफ ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया में प्रैक्टिशनर रानू सिंह कहती हैं, “सफलता की ये कहानियां जमीनी स्तर के उन स्वयंसेवी संस्थाओं के महत्व पर जोर देती हैं, जो ग्रामीण युवाओं और महिलाओं को उनका खुद का व्यवसाय शुरू करने के लिए  वित्तीय साक्षरता प्रदान करते हैं और साथ ही प्रशिक्षण, मार्केट रिसर्च, प्रॉडक्ट डेवलपमेंट और अन्य जरूरी कौशल उपलब्ध कराते हैं”. बहरहाल, ग्रामीण क्षेत्रों के उद्यमियों की सफलता की यह कहानी बताती है कि हौसले देश के गांव गांव तक फैले हुए हैं. ग्रामीण भारत भी देश की अर्थव्यवस्था में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. ज़रूरत है केवल उन्हें राह दिखाने की. प्रधानमंत्री रोजगार सृजन योजना इस दिशा में अहम कड़ी साबित हो रहा है.

रूबी सरकार भोपाल, मप्र

भाजपा नेता की गुंडई से मजबूर दलितों ने घरों पर लगाया गांव से पलायन का पोस्टर

दिल्ली से सटे यूपी के बुलंदशहर में दलित समाज के लोगों ने अपने घरों पर गांव से पलायन करने का पोस्टर चिपका दिया है। वजह है भाजपा नेता और अरनिया क्षेत्र का ब्लॉक प्रमुख सुरेन्द्र सिंह। दलित समाज के लोगों ने पलायन का पोस्टर लगाने के बाद उसका वीडियो बनाकर वायरल कर दिया है, जिसके बाद हंगामा मच गया है। बुलंदशहर के शिकारपुर स्थित गांव देवराला में नौ जातिवादी गुंडों ने 14 मई को दलित परिवार के घर में घुसकर सचिन गौतम और अच्छन कुमार नाम के युवक के साथ मारपीट की, जिसमें वह गंभीर रूप से घायल हो गए। इस मामले में परिवार वालों ने अररिया क्षेत्र से भाजपा से ब्लॉक प्रमुख सुरेन्द्र सिंह सहित नौ लोगों के खिलाफ हत्या के प्रयास सहित अन्य धाराओं में शिकारपुर थाने में मुकदमा दर्ज कराया है। इस मामले में पुलिस ने दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस पर आरोप है कि वह राजनीतिक दबाव में जानबूझ कर अन्य आरोपियों की गिरफ्तारी में देरी कर रही है। जिसके बाद बाकी बचे सात आरोपियों की गिरफ्तारी न होने से नाराज दलित समाज के चार परिवारों के 18-20 सदस्यों ने गांव से पलायन करने का पोस्टर चिपका दिया है। घटना के बारे में पीड़ित अच्छन कुमार के पिता विजेन्द्र सिंह का आरोप है कि अच्छन का बेटा सुरेन्द्र प्रमुख के घर के बाहर खेल रहा था, जिस पर सुरेन्द्र प्रमुख के पिता ने उसे थप्पड़ मार दिया था, जिसका विरोध करने पर सुरेन्द्र प्रमुख ने अपने गुंडों के साथ मिलकर उनके घर हमला कर दिया था। उनका कहना है कि बाकी बचे आरोपियों की गिरफ्तारी जल्द नहीं हुई तो वो गांव से पलायन कर जाएंगे। वीडियो वायरल होने के बाद मामले ने तूल पकड़ लिया है और पुलिस बैकफुट पर है। लेकिन पीड़ित परिवार को अब भी इंसाफ का इंतजार है। उन्हें उम्मीद है कि मामले के तूल पकड़ने के बाद अब पुलिस को बाकी आरोपियों को गिरफ्तार करना ही पड़ेगा।

लोकतंत्र का बाभन विमर्श- बिना शर्म-हया के

‘लोकतंत्र का भविष्य’ शीर्षक से वाणी प्रकाश से एक किताब आई है। इसका संपादन अरूण कुमार त्रिपाठी ने किया है।
इसमें कुल 12 लेख हैं। संपादकीय सहित 13 लेख। संपादक सहित 13 लेखकों में 10 बाभन हैं। करीब 72 प्रतिशत लेखक ब्रह्मा के मुंह से पैदा हुआ बाभन हैं। एक जैन हैं। एक अशरफ मुसलमान भी जगह पाने में सफल हुए हैं।
संपादक-प्रकाशक भूदेवताओं के प्रति इस कदर दंडवत हैं कि उन्होंने किसी ठाकुर, लाला, भूमिहार या किसी अन्य द्विज को इस पंक्ति में खड़ा करने का अपराध नहीं किया।
यह ठीक भी है, बाभनों की पंक्ति में आखिर कौन खड़ा हो सकता है। ठाकुर, लाला और भूमिहार की भी कहां यह औकात है। लेकिन यह हो सकता है कि बाभनों की इस पंक्ति में कोई छद्म वेषी भूमिहार हो। वे क्षमा करें।
पिछड़ों-दलितों और आदिवासियों की बात तो छोड़ ही दीजिए। उनकी कहां औकात है किसी तरह के विमर्श उमर्श शामिल होंने की। वह भी उस विमर्श में जो एक बाभन के नेतृत्व में चल रहा हो। लोकतंत्र जैसे गुरु-गंभीर विषय पर।
इस किताब के संपादक को लोग लोहियावादी-गांधीवादी सोशिलिस्ट कहते हैं।
इस किताब ‘आज के प्रश्न’ श्रृंखला के तहत आई है। जिसकी शुरूआत राजकिशोर जी ने की थी। पता नहीं, उन्होंने कभी इस तरह का बाभन विमर्श कभी किया था या नहीं।
लेखकों का अनुक्रम और परिचय नीचे है-
अनुक्रम
नन्हीं सी जान दुश्मन हजार ………………………………………………………………………….रमेश दीक्षित
लोकतंत्र का पुनर्निर्माण……………   …………………………………………………………………..शंभुनाथ
लोकलुभावनवाद और तानाशाही……   ………………………………………………………….अभय कुमार दुबे
स्वप्न से अंतर्विरोधों तक……………………………. ……………………………………………..नरेश गोस्वामी
पूंजीवाद से परे जाने की जरूरत………………………………………………………………………. विजय झा
लोकतंत्र की धड़कन है आंदोलन…………………………………………………………………………सुनीलम
जनमानस में लोकतंत्र………………………………………………………………………………..गिरीश्वर मिश्र
आपातकाल का अतीत और भविष्य………………………………………………………………..जयशंकर पांडेय
न्यायपालिकाः क्या कुछ संभावना शेष है…………………………………………………………………अनिल जैन
गोदी मीडिया का स्तंभ……………………………………………………………………….अरुण कुमार त्रिपाठी
बराबरी चाहिए अल्पसंख्यकों को ……………………………………………… ……………सैयद शाहिद अशरफ
लोकतंत्र और आदिवासीः कुछ अनसुलझे सवाल…………………………………………………..कमल नयन चौबे
लेखक परिचय—-
रमेश दीक्षित—–जाने माने राजनेता और राजनीतिशास्त्री। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष। लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष।
शंभुनाथ——हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और शिक्षक। कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष। संप्रतिः—भारतीय भाषा परिषद के अध्यक्ष और वागर्थ के संपादक।
अभय कुमार दुबे—-जाने माने पत्रकार और समाजशास्त्री।डा भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली के अभिलेख अनुसंधान केंद्र के निदेशक।
नरेश गोस्वामी—-शोधार्थी, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता। डा भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एकेडमिक फेलो।
विजय झा-–मार्क्सवाद, ग्राम्शी और स्त्री विषयों के विशेषज्ञ। डा भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में एकेडमिक फेलो।
सुनीलम—-पूर्व विधायक और किसान नेता। समाजवादी विचारों के लिए प्रतिबद्ध और समाजवादी आंदोलन में सतत सक्रिय।
गिरीश्वर मिश्र—–अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध मनोविज्ञानी। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति।
जयशंकर पांडेय—पूर्व विधायक और समाजवादी चिंतक मधु लिमए के सहयोगी। समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश के पदाधिकारी।
अनिल जैन—-समाजवादी आंदोलन से प्रतिबद्ध। पत्रकार और लेखक। फिलहाल नई दुनिया में वरिष्ठ सहायक संपादक।
सैयद शाहिद अशरफ—-आंबेडकर विश्वविद्यालय के अभिलेख अनुसंधान केंद्र के एकेडमिक फेलो। यूनाइटेड किंगडम की डरहम यूनिवर्सिटी के फेलो।
कमल नयन चौबेः—दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज के राजनीति शास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर। कई पुस्तकों के लेखक।
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भाजपा MLC के स्कूल में नाबालिग से रेप और हत्या का आरोप

ईको गार्डन लखनऊ में बेटी को इंसाफ दिलाने खातिर धरने पर बैठे पिता जसराम राठौरआजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद ने एक गंभीर मुद्दा उठाया है। उन्होंने योगी सरकार पर एक बड़ा आरोप लगाते हुए ट्विट किया है और इंसाफ की मांग की है। भीम आर्मी प्रमुख ने भाजपा के एक एमएलसी पर पिछड़े समाज के किसान की बेटी का रेप के बाद हत्या करने का आरोप लगाते हुए पीड़ित के लिए योगी सरकार से इंसाफ मांगा है।

आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस बारे में ट्विट किया है। जिसमें उन्होंने लिखा है-

जालौन के एक छोटे से गांव से बड़े अरमानों के साथ पिछड़े समाज से आने वाले किसान जसराम राठौर ने अपनी 13 वर्षीय बच्ची को पढ़ने के लिए भाजपा MLC पवन चौहान के SR ग्लोबल स्कूल लखनऊ भेजा था. पिता के पास पूरे साक्ष्य हैं वहां उनकी नाबालिग बेटी के साथ रेप करने के बाद बेरहमी से हत्या कर दी गई। पिता का आरोप है कि स्कूल मुख्यमंत्री के सजातीय भाजपा MLC का है इसलिए इस हत्या को आत्महत्या बताते हुए पुलिस ने FR लगा दी। लेकिन पिता ने हार नहीं मानी और बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है। पीएम से लेकर सीएम तक हर दरवाजे दस्तक दी, लेकिन, सत्ता के रसूख के आगे सब फेल। थक हारकर पिता इको गार्डन लखनऊ में धरने पर बैठे हैं लेकिन योगी पुलिस ने धमकी दी है अगर वहां बैठे तो ठीक नहीं होगा।

धरने पर बैठे पिता ने जस्टिस फॉर प्रिया का बैनर लगाया है। इसमें उनका कहना है कि लखनऊ पुलिस, हत्या को आत्महत्या न बताओ। सीबीआई जांच कर प्रिया को न्याय दिलाओ। पिता जसराम राठौर ने पूरे घटनाक्रम का जिक्र पोस्टर पर किया है। उनका आरोप है कि भाजपा एमएलसी पवन सिंह चौहान के स्कूल एसआर ग्लोबल के हॉस्टल में 8वीं क्लास की 12 वर्षीय छात्रा प्रिया राठौर की 20 जनवरी 2023 को दुष्कर्म कर के हत्या कर दी गई। भ्रमित करने के लिए शव को फेंका ऊंचाई से।

इस पोस्टर के माध्यम से प्रिया के पिता जसराम राठौर ने कई सवाल उठाए हैं। हालांकि दलित दस्तक के पास उपलब्ध पोस्टर के सामने जसराम राठौर बैठे हैं, जिससे उसमें लिखी कुछ बातें छुप गई हैं। लेकिन जो समझ में आ रहा है उसके मुताबिक जसराम राठौर ने पुलिस से लेकर स्कूल प्रशासन पर तमाम आरोप लगाया है। इसमें वार्डन द्वारा बार-बार बयान बदलने, पुलिस द्वारा आधी-अधूरी जांच रिपोर्ट देने, बेटी का फोन नहीं लौटाने और पुलिस पर मामले को रफा-दफा करने का आरोप लगाया है।

दलित महिला नेत्री वर्षा गायकवाड़ को मुंबई कांग्रेस की कमान

मुंबई कांग्रेस की अध्यक्ष वर्षा गाडकवाड़

कांग्रेस पार्टी ने मुंबई के धारावी विधानसभा सीट से चार बार की विधायक प्रोफेसर वर्षा एकनाथ गायकवाड़ को मुंबई कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया है। महाराष्ट्र सरकार में वह स्कूल एजुकेशन मिनिस्टर रह चुकी हैं। आगामी निकाय चुनाव और लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी के इस फैसले से प्रदेश की राजनीति में हलचल मच गई है। वर्षा पहली ऐसी महिला नेता हैं, जिसे कांग्रेस पार्टी ने यह पद दिया है।

वर्षा गायकवाड़ अंबेडकरवादी मूवमेंट से जुड़ी नेता हैं। वह सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ आर्ट्स में लेक्चरर हैं और उनके पास बीएड और मैथमेटिक्स की मास्टर डिग्री है। कांग्रेस के इस फैसले से साफ है कि कांग्रेस दलितों को पार्टी के भीतर ज्यादा तव्वजो देने की रणनीति पर काम कर रही है। मुंबई में काफी संख्या में अंबेडकरी-बुद्धिस्ट समाज के वोटर्स हैं, कांग्रेस पार्टी वर्षा के जरिये उन्हें जोड़ने का काम करेगी। वर्षा गायकवाड़ ने इसके लिए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को धन्यवाद दिया है। बता दें कि वर्षा के पिता एकनाथ गायकवाड़ भी साल 2017 से 2020 तक मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके हैं।

कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी दलित समाज से ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर भी दलित समाज की महिला को अध्यक्ष बनाने से साफ है कि कांग्रेस पार्टी तमाम राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर दलित मतदाताओं को केंद्र में रखने की रणनीति पर काम कर रही है। साथ ही वह देश भर के दलित मतदाताओं को भी मैसेज देना चाहती है कि कांग्रेस पार्टी दलित समाज के मतदाताओं को पार्टी में प्रतिनिधित्व देने के लिए तैयार हैं। वर्षा गायकवाड़ दलित वर्ग से होने के साथ-साथ एक पढ़ी-लिखी महिला भी हैं। वर्षा सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव रहती हैं और ट्विटर पर उनके करीब पांच लाख फॉलोवर हैं।

यानी साफ दिख रहा है कि कांग्रेस पार्टी चुनावों को लेकर अपनी रणनीति कैसे काफी सोच-समझ कर बना रही है। संभव है कि आगामी लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी इसी तरह का कोई फैसला लेकर सबको चौंका भी सकती है।

बृजभूषण की अकड़ निकली, जेल जाना तय!

भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर शिकंजा कस गया है। इस मामले में एक अंतरराष्ट्रीय कुश्ती रेफरी जगबीर सिंह समेत चार लोगों के बृज भूषण सिंह के खिलाफ गवाही के बाद बृजभूषण बुरी तरह घिर गए हैं। तो दूसरी ओर महिला पहलवानों के समर्थन में लगातार आम लोगों और खाप की गुटबंदी के बाद अब सरकार भी बृजभूषण के पीछे से हाथ खिंचती दिख रही है। यही वजह है कि दिल्ली पुलिस और एसआईटी ने बृजभूषण के खिलाफ जांच में तेजी कर दी है।

इस मामले में एसआईटी ने 200 से ज्यादा लोगों से सवाल-जवाब किया है। जिसमें रोज नई बातें निकल कर सामने आ रही हैं। इंटरनेशनल रेफरी जगबीर सिंह ने बृजभूषण का महिला पहलवानों के साथ गलत व्यवहार के मामले में भी गवाही दी है। उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि बृजभूषण ने नशे की हालत में महिला पहलवान के साथ अभद्र व्यवहार किया था। उस दिन कुछ तो गलत हुआ था। बृजभूषण और महिला पहलवान बगल में खड़े थे। वह असहज दिख रही थी। उसने धक्का भी दिया। कुछ बोली और फिर वहां से निकल गई। बृजभूषण पहलवानों को हाथ से छूकर बोल रहे थे कि इधर आ जा, यहां खड़ी हो जा।

इंटरनेशनल रेफरी जगबीर सिंह के मुताबिक, उन्होंने पहली बार 2013 में बृजभूषण को महिला खिलाड़ियों के साथ गलत व्यवहार करते देखा था।जगबीर के मुताबिक, ‘ये थाइलैंड का टूर था, जहां उन्होंने बृजभूषण को महिला के पीछे खड़े देखा। बृजभूषण ने महिला पहलवान को अभद्र तरीके से छुआ था।

जगबीर सिंह के अलावा एक राज्य स्तरीय कोच और कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक विजेता रेसलर ने भी बृजभूषण के खिलाफ बयान दिया है। इन लोगों ने तीन महिला पहलवानों के आरोपों की पुष्टि की है।

इन तमाम आरोपों के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा क्राइम सीन रिक्रिएट करने के लिए महिला पहलवान संगीता फोगाट को लेकर भारतीय कुश्ती महासंघ के दफ्तर और बृजभूषण सिंह के घर पहुंचने की खबर है। बता दें कि बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ छह महिला पहलवानों ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए प्राथमिकी दर्ज कराई है। इस मामले में पुलिस की जांच लगभग पूरी हो गई है। और 15 जून को पुलिस अपनी रिपोर्ट जारी करेगी।

देश की सामाजिक व्यवस्था कब संवैधानिक मूल्यों को स्वीकार करेगी?

किसी भी स्वतंत्र देश की आवाम के गरिमामयी जीवन और विकास का मूल आधार उस देश का संविधान होता है। संविधान में वर्णित नियमावली से एक देश का कार्यान्वयन और संचालन होता है। दुनियाँ के विभिन्न देशों की भांति हमारे देश को भी चलाने वाला दस्तावेज ‘भारत का संविधान’ है। जो भले ही 2 वर्ष 11 माह 18 दिन मे बना, लेकिन असलियत में इस संविधान की नींव तब डल गई थी, जब भारतीय समाज ने ब्रिटिश दासता और सदियों से चले आ रहे शोषण, अपराध, गुलामी की मुखालफत का आगाज किया था। वहीं, ब्रिटिश दासता की चरम सीमा ने देश की आवाम को अपने प्राकृतिक अधिकारों और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए खड़ा कर दिया। ऐसे में, 1947 का वह वक्त भी आ गया, जब राष्ट्र आजाद हो गया। इसके उपरांत एक महान देश के निर्माण के लिए संविधान निर्मित किया गया। ऐसे में, सदियों से भारतीय समाज जिन स्वतंत्रता, समानता जैसे अन्य प्राकृतिक अधिकारों की मांग करता आ रहा था। उन प्राकृतिक अधिकारों को संविधान निर्माताओं ने, संविधान की प्रस्तावना में, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों के रूप में दर्ज किया। वहीं, भारतीय संविधान जब समग्रता से एक दस्तावेज़ के रूप में आया। तब सम्पूर्ण संविधान का मूल संविधान की प्रस्तावना में नजर आया। ऐसे में, संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने प्रस्तावना के बारे में कहा कि, ‘‘यह वास्तव में जीवन का एक तरीका था, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में पहचानता है और जिसे एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है,,

वास्तव में, संविधान में दर्ज, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा जैसे अन्य संवैधानिक मूल्य हमारे जीवन जीने का आधार है। लेकिन, ध्यातव्य है कि, आजाद भारत के 75 वर्ष बाद हम संवैधानिक मूल्यों को कितना स्वीकार पाए? और संवैधानिक मूल्यों के प्रति कितनी जागरूकता कर पाए? शायद! अपरिहार्यता से कम।

आज के दौर में विकास की चमक काफी गहरने के बाद भी हमें देश में, ये सुनने और देखने मिलता है कि, किसी दलित की शादी समारोह में घोड़ी पर रास नहीं फेरने दी जाती। ऐसी स्थिति में, कई बार तो तगड़ी मार-धाड़ भी हो जाती है। जिससे लोगों के न्याय और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्यों पर संकट पैदा होता है।

संवैधानिक मूल्यों के हनन को लेकर कुछ ऐसे ही अनुभव हमने सागर जिले के वंचित समुदाय के लोगों से जानने की कोशिश की।

तब अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले सागर के मकुंदी बंसल बताते है कि, हम आजाद जरूर हो गए है, लेकिन हमारे साथ गाँव में ऊंची जाति वाले ऐसे पेशाते की हमने लगता है की हम गुलाम की जंजीरों में जकड़े है। वह हमारे दूल्हे को घोड़े पर नहीं बैठने देते, अच्छे कपड़े पहनने पर, ऊंची जाति वालों से राम-राम ना करने पर, उनके सामने जमीन पर ना बैठने पर ऊंची जाति वाले खफा हो जाते है। सामाजिक नियमों को नहीं मानने पर हमें गालियां सुननी पड़ती है। यहाँ सोचनीय है कि, मकुंदी जैसे लोगों के व्यक्ति की गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों का ध्यान क्यों नहीं रखा जाता है?

फिर, बंडा विधानसभा क्षेत्र के बिहारी आदिवासी जो मुहजुबानी ऐसे पेश करते हैं, “अपने आप को ऊंचा समझने वाले लोगों के यहाँ, समारोह जब हम लोग कहना खाने जाते है तब हमें आदरपूर्वक खाना नहीं खिलाया जाता। हमारे साथ बंधुतापूर्ण व्योहार नहीं किया जाता।,,

वहीं, “जब बड़े लोग हमें मजदूरी पर बुलाते हैं और हमारी जाने की इच्छा नहीं होती तो हमें गालियां सुननी पड़ती है। ऐसे में, कभी-कभी तो हमें मार भी पड़ जाती है।,, क्या यहाँ सामाजिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का उल्लंघन नहीं होता?

आगे हमने अरबिन्द बंसल से बातचीत की। तब वे कहते हैं कि, सामाजिक असमानताएँ ग्रामीण अंचलों में इस तरह हावी है कि, सेन समाज का नाई अनुसूचित जाति के लोगों के सिर के बाल नहीं काटता। ऐसे हम लोग बंडा तहसील में सिर के बाल कटवाने जाते है। याकि स्वयं घर पर अपने सिर के बाल काटते है। पूछने पर अरबिन्द बताते है कि, नाई हमारे बाल इसलिए नहीं काटता, क्योंकि नाई के ऊपर ऊंची जाति के लोगों का दबाब रहता है। अनुसूचित जाति के लोगों के बाल काटने पर ऊंची समाज नाई और अनुसूचित जाति के लोगों पर सामाजिक प्रतिबंध लाद देता है। अनुसूचित जाति के लोगों के सिर के बाल ना काटने के हालात बंडा क्षेत्र के कई गाँव में बनी हुए है। अरबिन्द की मुहजुबनी यह याद दिलाती है की हम समानता जैसे संवैधानिक मूल्य का कब पालन करेंगे?

आगे हमारी मुलाकात बरा गाँव की राजकुमारी बाल्मीकि से हुयी। राजकुमारी प्रधानमंत्री आवास योजना होने बाद भी कच्चे मकान में रहने को मजबूर है। राजकुमारी हमें बताती हैं कि, “गाँव में हम नीची जाति है, इसलिए हमें कोई अच्छा रोजगार नहीं देता। आज भी हमारा रोजगार सड़क पर झाड़ू लगाना, टोकरी बनाना, छोटे-छोटे घरेलू समान बनाने तक सीमित है। यदि हम बाजार में खान-पान कि, कोई अच्छी दुकान खोलते है तब हमारा सामाजिक बहिष्कार किया जाता है।,,

आगे हम रूबरू होते हैं करेवना गाँव के शालकराम चौधरी से। वह कहते है कि, हमारे गाँव में हम नीची जाति वालों को चाय की टपरी पर चाय तक पीने नहीं देते है, ना ही बैठने देते है। आज भी आजाद भारत में समाज में बराबरी का हक नहीं है।

हमारे सामने सागर संभाग के छतरपुर जिले से एक ताज़ा घटना भी सामने आयी। यह घटना एक दलित की घोड़े से राज फेरने के दौरान ऊंची जाति के लोगों द्वारा पत्थर मारने की है। दरअसल, शादी समारोह में दलित दूल्हे की राज पुलिस की अगुआई में फेरी जा रही थी। लेकिन ऊंची जाति के लोगों को यह पसंद नहीं आया। ऐसे में उन्होंने शादी वाले पक्ष पर पथराव कर दिया, जिसमें तीन पुलिस वाले घायल हो गए। पुलिस ने मामले को अपने संज्ञान में लिया है। ऐसी घटनाएं क्या इस ओर संकेत नहीं करती कि, लोगों का स्वतंत्रता जैसा संवैधानिक मूल्य खतरे में है?

विचारणीय है कि, एक तरफ हमारे संविधान के स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे विभिन्न संवैधानिक मूल्य है, जो लोगों को कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाकर, उनके अधिकारों और‌ कर्तव्यों के संरक्षण का बोध कराते हैं। वहीं, दूसरी ओर वे सामाजिक मूल्य हैं, जो इंसान को इंसान बनने में रोड़ा उत्पन्न करते हैं। जैसे, जातिवाद, छुआछूत, सामाजिक भेदभाव, कुप्रथाएं गैर जरूरी परंम्पराएं‌ और रीतिरिवाज जैसे अन्य समाजिक मूल्य। बसुधैव कुटुबंकम की भावना का संचार करना है, तब हमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों की दृढ़ता बढ़ावा देना‌ होगा, तब कई मायनों में देश समाजिक, आर्थिक शैक्षणिक अन्य विकास की ओर अग्रसर हो पायेगा।

क्रिकेट की गेंद छूने पर अंगूठा काटा, अंबेडकर जयंती मनाने पर युवक की हत्या

 जून के पहले हफ्ते में महाराष्ट्र के नांदेड़ से खबर आई थी कि बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर जयंती मनाने के कारण 24 साल के दलित युवक की हत्या कर दी गई। अभी दलित समाज इस दर्द से उबरा भी नहीं था कि गुजरात के पाटन जिले में दलित समाज के एक बच्चे ने गेंद छू लिया तो उसके बाद शुरु हुए विवाद में बच्चे के परिवार के साथ न सिर्फ मारपीट की गई, बल्कि चाचा का अंगूठा काट लिया। एक मामूली बात को लेकर मारपीट और अंगूठा काटने की यह घटना रविवार 4 जून की है। दरअसल गुजरात के पाटन जिले मे कुछ युवक क्रिकेट खेल रहे थे। बाल बच्चे के पास गई तो बच्चे ने गेंद को उठा लिया। इत्तेफाक से लड़का दलित समाज से ताल्लुक रखता था। इसके बाद क्रिकेट खेल रहे जातिवादी समाज के गुंडे युवक भड़क गए और उसको गालियां देने लगे और जमकर उत्पात मचाया। बच्चे के चाचा धीरज परमार ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई तो मामला शांत हो गया। लेकिन इसके बाद क्रिकेट खेलने वाले जातिवादी युवाओं का समूह हथियारों से लैस होकर बच्चे के घर पहुंच गए और बॉल उठाने वाले बच्चे के चाचा धीरज परमार और उनके भाई कीर्ति पर हमला कर दिया। मारपीट करने के अलावा इन लोगों ने चाचा धीरज परमार का हाथ का अंगूठा काट दिया। इसके बाद दलित समाज के लोग इंसाफ के लिए सड़कों पर उतर गए।

इसके बाद आरोपियों पर आईपीसी की धारा 326 (खतरनाक हथियारों से जानबूझ कर चोट पहुंचाना), 506 (आपराधिक धमकी) और एससी-एसटी एक्ट में मामला दर्ज कर लिया गया है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह कि इतनी छोटी घटनाओं के बाद दलित समाज पर इस तरह से अत्याचार करने की वजह क्या है? दलित दस्तक के संपादक अशोक दास ने ट्विटर पर इस मुद्दे को पोस्ट किया है, जिसमें उनका कहना है कि सवाल यह भी है कि दलितों पर बिना वजह या मामूली बात को लेकर अत्याचार करने वाले समाज के लोग अपने समाज के जातिवादी गुंडों की गुंडई पर शर्मिंदा होते होंगे क्या??

भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू सुरीनाम के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित

सूरीनाम के राष्ट्रपति से सूरीनाम का सूरीनाम का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार "ग्रैंड ऑर्डर ऑफ द चेन ऑफ द येलो स्टार" ग्रहण करती भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू

भारत देश और हर भारतीय के लिए गर्व की खबर सामने आई है। भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सुरीनाम देश के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया है। राष्ट्रपति मुर्मू को “ग्रैंड आर्डर ऑफ द चेन ऑफ द यलो स्टार” सम्मान से सम्मानित किया गया है। इसकी जानकारी राष्ट्रपति भवन ने ट्विटर के जरिये दी। इस खबर के सामने आने के बाद हर कोई इसे गौरव का पल बता रहा है। वहीं दूसरी ओर इस सम्मान के मिलने पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा कि यह सम्मान सिर्फ मेरे लिए नहीं, बल्कि भारत के उन सभी 1.4 अरब लोगों के लिए भी अत्यधिक महत्व रखती है जिनका मैं प्रतिनिधित्व करता हूं। राष्ट्रपति मुर्मू ने यह सम्मान भारतीय-सूरीनाम समुदाय की आने वाली पीढ़ियों को समर्पित करते हुए कहा कि उन्होंने हमारे दोनों देशों के बीच भ्रातृत्व संबंधों को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रपति जी ने कहा कि सूरीनाम में भारतीय आगमन की 150वीं वर्षगांठ के ऐतिहासिक मौके पर यह सम्मान प्राप्त करना इसे और विशेष बनाता है। अगर यह सम्मान हमारे दोनों देशों में महिलाओं के सशक्तिकरण और प्रोत्साहन के प्रकाश स्तंभ के रूप में काम करता है तो यह और भी सार्थक हो जाता है। इस दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सूरीनाम में मामा शरणन स्मारक पर श्रद्धासुमन अर्पित किए। यह स्मारक मामा सरनन, या मदर सूरीनाम का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें उनके पांच बच्चे हैं, पांच जातीयताएं जो सूरीनाम में देखभाल और स्नेह के साथ निवास करती हैं। यह स्मारक सूरीनाम में कदम रखने वाले पहले भारतीय पुरुष और महिला का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व था। इस मौके पर सूरीनाम पहुंचे 34,000 भारतीयों के बलिदान और संघर्ष को भी याद किया गया। इस अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सूरीनाम में भारतीयों के आगमन के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में डाक टिकटों के विशेष आवरण भेंट किए गए। जबकि राष्ट्रपति की ओर से सूरीनाम के राष्ट्रपति को सांकेतिक रूप से दवाओं का डिब्बा भेंट किया। दरअसल भारत ने सूरीनाम को आपातकालीन दवाओं से मदद की है। इस दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उम्मीद जताई कि आने वाले दिनों में भारतीय समुदाय और सुरीनाम के बीच संबंध और बेहतर होंगे। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इस दौरान सुरीनाम की जनता को भारत आने और उसके विकास को देखने के लिए आमंत्रित किया।

पर्यावरण को पंगु करते कार्पोरेट निगमों की अकूत मुनाफे की लालच और उपभोक्ता जीवन शैली

फिदेल कास्त्रो ने 1992 में कहा था, “एक महत्वपूर्ण जैविक प्रजाति– मानव जाति – के सामने अपने प्राकृतिक वास-स्थान के तीव्र और क्रमशः बढ़ते विनाश के कारण विलुप्त होने का खतरा है… मानव जाति के सामने आज एक अनिश्चित भविष्य मुंह बाये खड़ा है, जिसके बारे में यदि हम समय रहते ठोस और प्रभावी कदम उठाने में असफल रहते हैं, तो धनी और विकसित देशों की जनता भी, दुनिया की गरीब जनता के साथ मिलकर एक ही जमीन पर खड़ी, अपने अस्तित्व के खतरे और अंधकारमय भविष्य से जूझ रही होगी।”
फिदेल कास्त्रो (1992)
“अगर हम ऐसा नहीं करते ( अकूत मुनाफे की लालच और उपभोक्तावादी जीवन-शैली नहीं छोड़ते) तो संसार की सबसे अद्भुत रचना मानव जाति गायब हो जाएगी…इस धरती को मानवता की समाधि न बनायें, इसमें हम समर्थ हैं।आइए इस धरती को स्वर्ग बनाएं, जीवन का, शान्ति का स्वर्ग,सम्पूर्ण मानवता के लिए, शांति और भाईचारा के लिए । इसके लिए हमें अपनी स्वार्थपरता छोड़नी पड़ेगी।”
ह्यूगो शावेज ( 2009)
 मानव सहित सभी प्रजातियों तथा स्वयं धरती का अस्तित्व खतरे में है। शायद ही कोई तथ्यों से अवगत व्यक्ति इससे इंकार करे। तमाम आनाकानी के बावजूद चीखते तथ्यों तथा भयावह प्राकृतिक आपदाओं एंव विध्वंसों ने दुनिया को तथ्य को स्वीकार करने के लिए इस कदर बाध्य कर दिया है कि वे इस हकीकत से इंकार न कर सके। इस स्थिति से निपटने के लिए, कई अंंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और संधि-समझौते हो चुके हैं। ये सम्मेलन या कार्य-योजनाएं दुनिया भर के पर्यावरणविदों तथा मनुष्य एवं धरती को प्यार करने वाले लोगों की उम्मीदों का केन्द्र रहे हैं, क्योंकि इस सम्मेलन की सफलता या असफलता पर ही मानव जाति के अस्तित्व का दारोमदार टिका हुआ था। इसी से यह तय होना था कि आने वाले वर्षों या सदियों में कौन से देश का अस्तित्व बचेगा या कौन सा देश समुद्र में समा जायेगा या किस देश का कितना हिस्सा समुद्र में डूब जायेगा, कितने देश या क्षेत्र ऐसे होगें, जिनका नामो-निशान ही नहीं बचेगा। कितनी प्रजातियां कब विलुप्त हो जाएंगी। मानव प्रजाति का अस्तित्व कितने दिनों तक कायम रहेगा। समुद्री तूफान,सुनामी या अतिशय बारिश किन क्षेत्रों को तबाह कर देगी, किस पैमाने पर जान-माल की क्षति होगी। कितने इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगे। बाढ़, सूखा या असमय बारिश कितने लोगों पर किस कदर कहर ढायेगी।
 हमें प्रकृति के प्रति अपने नजरिये में बदलाव लाना होगा तथा उपभोक्तावादी जीवन शैली का परित्याग करना होगा। इसी चीज को रेखांकित करते हुए कोपनहेगन सम्मेलन(2009 में ह्यूगो शावेज ने कहा था कि अगर हम ऐसा नहीं करते तो संसार की सबसे अद्भुत रचना मानव जाति गायब हो जाएगी…इस धरती को मानवता की समाधि न बनायें, इसमें हम समर्थ हैं।आइए इस धरती को स्वर्ग बनाएं, जीवन का, शान्ति का स्वर्ग,सम्पूर्ण मानवता के लिए, शांति और भाईचारा के लिए । इसके लिए हमें अपनी स्वार्थपरता छोड़नी पड़ेगी। इसी बात को वर्षों पहले फिदेल कास्त्रो ने कहा था कि स्वार्थपरता बहुत हो चुकी। दुनिया पर वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बहुत हुए। असंवेदनशीलता, गैरजिम्मेदारी और फरेब की हद हो चुकी। जिसे हमें बहुत पहले करना चाहिए था, उसे करने के लिए बहुत देर हो चुकी है। कोचाबाम्बा मसविदा दस्तावेज से शब्द उधार लेकर कहें तो एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना बेहद जरूरी है जो प्रकृति के साथ और मानवजाति के बीच आपसी तालमेल के लिए फिर से बहस करे।

आंबेडकर ने कबीर को अपना गुरु क्यों माना

बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने तीन लोगों को अपना गुरु माना था। ये थे, गौतम बुद्ध, कबीर और जोतिराव फुले को अपना गुरु माना। ये तीनों भारत के तीन युगों की सबसे क्रांतिकारी और प्रगतिशील वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसके मूर्त रूप हैं। जिसे बहुजन-श्रमण वैचारिकी कहते हैं। गौतम बुद्ध प्राचीन भारत, कबीर मध्यकालीन भारत और जोतिराव फुले आधुनिक भारत की सबसे मानवीय और उन्नत वैचारिकी के प्रतिनिधि हैं।
इन तीनों की संवेदना और वैचारिकी में वेदों और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के लिए कोई जगह नहीं। कबीर और जोतीराव फुले ने वेदों- ब्राह्मणों की श्रेष्ठता खुली चुनौती दी है और वर्ण-व्यवस्था को खारिज किया। इनमें कोई ब्राह्मण या द्विज नहीं था। जहां कबीर और जोतिराव फुले वर्ण-व्यवस्था के क्रम में कहे जाने वाले शूद्र समुदाय में जन्म लिए हैं। वहीं गौतम बुद्ध शाक्य कबीले में पैदा हुए थे। जिसमें वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। वे न क्षत्रिय थे, न ब्राह्मण और न ही शूद्र।
ये तीनों उत्पादक-श्रमशील समाज में पैदा हुए थे। गौतम बुद्ध, कबीर और जोतीराव फुले को तीनों युगों के प्रतिनिधि के रूप में रेखांकित करके आंबेडकर ने भारत की क्रांतिकारी-प्रगतिशील परंपरा की निरंतरता को रेखांकित किया। इन तीनों को गुरु मानकर आंबेडकर ने पुरजोर तरीके यह रेखांकित किया कि इन तीनों के विचारों और व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर ही आधुनिक भारत का निर्माण किया जा सकता है। ऐसा भारत जिसके केंद्र में समता, स्वतंत्रता, बंधुता और सबके लिए न्याय हो।
आधुनिक भारत में एक मात्र आंबेडकर थे, जिन्होंने भारत की देशज क्रांतिकारी-प्रगतिशील परंपरा की पूरी यात्रा को इन तीनों के माध्यम से रेखांकित किया। भारत का कोई दूसरा नायक या विचारक इसको ठोस और मुकम्मल रूप में रेखांकित नहीं कर पाया और न समझ पाया। भारत में पैदा हुए इतिहासकार प्रोफेशन के अर्थों में भले इतिहासकार रहें हों, लेकिन प्राचीन भारत से आधुनिक भारत की तक की यात्रा को समझने की उनके पास इतिहास दृष्टि नहीं थी।
यह इतिहास दृष्टि सिर्फ और सिर्फ आंबेडकर के पास थी। गौतम बुद्ध, कबीर और फुले को भारत के तीन युगों के प्रतिनिधि के रूप में रेखांकित करना इसी इतिहास दृष्टि का परिणाम था। जैसे मार्क्स के पहले बहुतेरे इतिहासकार दुनिया में हुए थे, लेकिन उनके पास मानव जाति की यात्रा को समझने के लिए मुकम्मल इतिहास दृष्टि नहीं थी। दुनिया को मुकम्मल इतिहास दृष्टि मार्क्स ने दी। उसी तरह आंबेडकर से पहले भारत की ऐतिहासिक यात्रा को समझने की मुकम्मल इतिहास दृष्टि से सिर्फ और सिर्फ आंबेडकर पास थी। जिसकी सबसे सूत्रवत अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी किताब ‘ प्राचीन भारत में क्रांति औ प्रतिक्रांति’ में की है।
मार्क्स की शब्दावली का इस्तेमाल करें तो,अब तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है। भारत का इतिहास भी वर्ग-संघर्ष का इतिहास रहा है। यहां वर्ग ने खुद वर्ण-जाति के रूप में अभिव्यक्त किया। वर्ग-संघर्ष में हमेशा एक प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी वर्ग होता है। परजीवी और शोषक वर्ग प्रतिक्रियावादी वर्ग होता है। उत्पादक और मेहनकश वर्ग प्रगतिशील वर्ग होता है। भारत में ब्राह्मण, श्रत्रिय और वैश्य (द्विज) परजीवी और शोषक वर्ण (वर्ग) रहे हैं। जिन्हें शूद्र और अतिशूद्र कहा जाता है, वे उत्पादक और प्रगतिशील वर्ग रहे हैं।
गौतम बुद्ध, कबीर और जोतिराव फुले भारत के वर्ग-संघर्ष (वर्ण संघर्ष) के क्रांतिकारी विरासत के मूर्त रूप हैं। आंबेडकर ने इन्हें अपना गुरु मानकर इसे पुरजोर तरीके से रेखांकित किया। कबीर भारत के मध्यकाल के सबसे क्रांतिकारी-प्रगतिशील और महान व्यक्तित्व हैं। उन्हें सादर स्मरण करते हुए।

पकड़ा गया Savarkar को हीरो बनाने को लेकर रचा गया झूठ

28 मई को विनायक दामोदर सावरकर की 140वीं जयंती के मौके पर फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर का टीजर रिलीज हुआ। लेकिन इसमें जो कुछ भी कहा गया, उसको लेकर जबरदस्त विवाद शुरू हो गया है। फिल्म के टीजर में कहा गया है कि सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह और खुदीराम बोस ने सावरकर से प्रेरणा ली थी। इसी बात को लेकर रणदीप हुड़्डा की जमकर आलोचना हो रही है। जिन लोगों ने भी इन तीनों महानायकों को पढ़ा है वह फिल्म मेकर्स की इस बात से खासे हैरान हैं। यहां तक की सुभाष चंद्र बोस के परिवार ने भी इसका मजबूती से विरोध किया है। नेताजी के पड़पोते चंद्र कुमार बोस ने फिल्म मेकर्स और रणदीप हुड्डा के दावे को खारिज करते हुए कहा कि, सुभाष चंद्र बोस ने पूरी जिंदगी हर जगह अपने भाषणों और लेखों में जिन दो नायकों से प्रभावित होने की बात कही, उनमें एक स्वामी विवेकानंद थे और दूसरे उनके राजनीतिक गुरु देशबंधु चितरंजन दास। यही नहीं रणदीप हुड्डा और अन्य फिल्म मेकर्स जिस सुभाष चंद्र बोस को सावरकर से प्रभावित बता रहे हैं, उन्होंने खुद अपनी एक किताब में सावरकर की पोल खोली है। नेताजी ने द इंडियन स्ट्रगल 1920-42 में लिखा है कि ‘दूसरे विश्व युद्ध से पहले मैंने जिन्ना व सावरकर से आजादी के लिए संघर्ष की बात की। जिन्ना अंग्रेजों की मदद से पाकिस्तान बनाना चाहते थे। सावरकर सोच रहे थे कि सेना में घुसकर हिन्दू कैसे सैनिक ट्रेनिंग लें। मैं नाउम्मीद हो गया।’

तो वहीं दूसरी ओर भगत सिंह को पढ़ने से साफ जाहिर होता है कि उन्होंने हमेशा सांप्रदायिक शक्तियों की निंदा की। उन्होंने हमेशा से धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को अपने लेखों में आड़े हाथों लिया। इसी मुद्दे पर एक्ट्रेस स्वास्तिका मुखर्जी ने भी सवाल उठाया। स्वास्तिका ने खुदीराम बोस का जिक्र करते हुए ट्विटर पर सवाल उठाया कि जिस खुदीराम बोस का 18 साल की उम्र में निधन हो गया था, क्या इस उम्र के पहले भी उन्हें किसी ने स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया था?

उन्होंने सवाल उठाया कि ये प्रेरक कहानियां कहां से आ रही हैं? मैं फिल्मों की इस बिकाऊ पिच से सहमत नहीं हूं। चुने हुए लोगों को ऊंचे आसन पर बिठाना आवश्यक है। साफ है कि एक एजेंडे के तहत कुछ खास नायकों को लोगों के दिमाग में स्थापित किया जा रहा है। ऐसा कर खासकर उन युवाओं को टारगेट किया जा रहा है जिनकी उम्र 30 साल के नीचे है और जो फिलहाल किताबें पढ़ने की बजाय सोशल मीडिया और फिल्में देखकर अपनी राय कायम कर रहे हैं।

सुरक्षा घेरे में नए संसद का उद्धाटन बताता है कि सरकार डरी हुई है

जेल जाने के बाद अंग्रेजों से गिड़गिड़ा कर माफी मांगने वाले हिन्दू राष्ट्र के समर्थक विनय दामोदर सावरकर की जयंती के मौके पर सवारकर को अपना नायक मानने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता और फिलहाल 2024 तक के लिए भारत के प्रधानमंत्री का काम-काज देख रहे नरेन्द्र मोदी ने आज 28 मई को भारत के नए संसद भवन का उद्घाटन कर दिया। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के समर्थक कई नेताओं के मुखिया नरेन्द्र मोदी ने यह काम दर्जन भर से ज्यादा हिन्दू पुरोहितों की मौजूदगी में की।

इस दौरान संसद भवन से कुछ ही फर्लांग की दूरी पर इसी भारत के लिए दुनिया के सबसे बड़े खेल महोत्सव ओलंपिक में पदक जीतकर भारत के हर एक व्यक्ति की छाती चौड़ी करने वाले खिलाड़ियों के इंसाफ के आंदोलन को कुचल दिया गया। भाजपा नेता और कुश्ती फेडरेशन के बृजभूषण सिंह पर शोषण का आरोप लगाने के बाद ये खिलाड़ी करीब महीने भर से आंदोलन कर रहे थे। न तो भारत सरकार, न ही उसकी पुलिस उन्हें न्याय दिला सकी, उल्टे जब सरकार नए संसद भवन का जश्न मना रही थी, जंतर-मंतर पर पुलिस खिलाड़ियों के टेंट उखाड़ने के बाद उनको घसीट रही थी।

दिल्ली के आस-पास से इन महिला पहलवानों के समर्थन में जंतर-मंतर पहुंचने वाले लोगों को बसों में भरकर जेलों में डाल रही थी। जो लोग सोशल मीडिया पर इसका विरोध कर रहे थे, सरकारी ट्रोलर उनके साथ गाली-गलौच कर रहे थे।

  लेकिन दूसरी ओर नए संसद के जश्न से विपक्ष का बड़ा हिस्सा गायब था। संसद के आस-पास एक भी विरोधी को पहुंचने नहीं दिया गया। राजा और उसके कारिदों की छाती फुली थी कि विरोध की हर आवाज को दबा दिया गया है। राजा, मंत्री, संतरी, और कारिंदे सब खुश थे। नए भवन को देखकर इठला रहे थे।

 लेकिन सवाल बस एक है कि जिस संसद भवन के उद्घाटन के दौरान थोड़ी दूर पर हजारों लोग सरकार का विरोध करने के लिए इकट्ठा थे। विपक्ष गायब था। उसको कैसे मुकम्मल माना जाए। जिस नए संसद भवन के उद्घाटन के वक्त उसके आस-पास उत्साहित जनता का हुजूम होना चाहिए था, वहां पुलिस का पहरा इसलिए लगाना पड़ा कि कोई विरोध का झंडा लेकर न पहुंच जाए। यह पहरा बताता है कि देश का हुक्मरान डरा हुआ है।

संसद भवन में रखा जाने वाला सेंगोल क्या सम्राट अशोक की विरासत को खत्म करने की शुरुआत है?

भारत के 20 राजनीतिक दल 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का विरोध कर रहे हैं। इसमें देश के तकरीबन सभी प्रमुख राजनीतिक दल शामिल हैं। मुद्दा भारत के राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को इस दौरान आमंत्रित नहीं करने का है। विपक्ष का आरोप है कि ऐसा कर राष्ट्रपति पद की गरिमा का अपमान किया गया। साथ ही विपक्ष की यह भी मांग है कि नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बजाय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को करना चाहिए क्योंकि वह भारतीय संघ की प्रमुख हैं।

इस विवाद के साथ दो और विवाद भी जुड़ गए हैं। दरअसल 28 मई की जिस तारीख को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नए संसद भवन का उद्घाटन करने की तैयारी में हैं, वह दिन विनायक दामोदर सावरकर की जयंती है। सावरकर हिन्दू राष्ट्र के समर्थक थे। भाजपा और आरएसएस उन्हें अपना नायक मानती है। वहीं दुसरी ओर संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर संसद के भीतर जिस सेंगोल की स्थापना की जाएगी, उसको लेकर भी बवाल मचा है। दरअसल, संगोल एक राजदंड है, जिसे सत्ता हस्थांतरण के तौर पर एक शासक से दूसरे शासक को सौंपा जाता है।

 लेकिन जब हम सेंगोल का इतिहास टटोलेंगे और उसकी बनावट को देंखेंगे तो यह सवाल सामने आता है कि क्या भारत में इसके जरिये हिन्दू साम्राज्य को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है? जिसके पक्षधर सावरकर से लेकर मोहन भागवत सहित आरएसएस और भाजपा के तमाम नेता हैं? और कभी दबी जुबान से तो कभी खुलकर जिसकी वकालत नरेन्द्र मोदी से लेकर भारतीय जनता पार्टी से जुड़े तमाम मंत्री और मुख्यमंत्री भी करते हैं।

दरअसल सेंगोल का संबंध चोल राजवंश से है। चोल राजवंश प्राचीन भारत का एक राजवंश था। भारत के दक्षिणी हिस्से सहित पास के अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया था। इसी राजवंश में सेंगोल सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में जाना जाता था। इस राजवंश की भाषाएं तमिल और संस्कृत थी, जबकि धार्मिक समूह हिन्दू था। ऐसे में क्या यह नहीं माना जाए कि वर्तमान सरकार चोल राजवंश और उससे जुड़े प्रतीक सेंगोल के जरिये हिन्दू राष्ट्र की आहट का संकेत दे रही है।

सेंगोल की बनावट की बात करें तो इसके ऊपर गाय की आकृति है। भले ही गायें सड़कों पर कूड़ा खाती दिखे या फिर गंगा साल दर साल और ज्यादा मैली होती जा रही हो, वर्तमान सत्ता के हिन्दू धर्म में गाय, गोबर और गंगा का महत्व सबसे अधिक है। जबकि दूसरी ओर भारत का संविधान कुछ और कहता है। वह भारत को धर्म निरपेक्ष देश के तौर पर मान्यता देता है। भारतीय शासन का चिन्ह अशोक स्तंभ है, जिसके ऊपर एक-दूसरे से पीठ लगाए चार मुंह वाले शेर हैं। लेकिन इन शेरों की शक्ल बिगाड़ कर सरकार ने पहले ही अपनी मंशा जाहिर कर दी है। भले ही सीधे तौर पर सरकार अशोक स्तंभ के चिन्हों को हटाने और मिटाने की हिम्मत न कर पा रही हो, सांकेतिक रूप से सेंगोल और 28 अक्टूबर की तारीख के इतिहास को सामने लाकर वह अपनी मंशा जाहिर कर चुकी है।

संविधान से लेकर संवैधानिक चिन्हों में इसी छेड़छाड़ के कारण तमाम जागरूक भारतीयों को वर्तमान सरकार के हाथों में देश सुरक्षित नहीं दिखता और इसलिए तमाम अमन पसंद और भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले लोग, 2024 में इस सरकार को दुबारा सत्ता में लाने के पक्ष में नहीं हैं।….  अगर सरकार ईमानदार है तो यह सवाल उठता है कि भारत में सरकार के कितने प्रतीक चिन्ह होंगे? राजकीय प्रतीक चिन्ह क्या एक ही नहीं होना चाहिए?

 पहले आदिवासी समाज के राष्ट्रपति की अनदेखी, फिर हिन्दू राम्राज्य के समर्थक चोल राजवंश के प्रतीक सेंगोल को लेना, फिर संसद भवन के उद्घाटन के लिए हिन्दू राष्ट्र के समर्थक सावरकर की जयंती की तारीख को चुनना क्या मोदी सरकार के असली चेहरे को बेनकाब करने के लिए काफी नहीं है?

कर्नाटक में RSS-बजरंग दल पर बैन की तैयारी में कांग्रेस?

क्या कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में आरएसएस और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी में है। यह सवाल कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे प्रियांक खड़गे के बयान के बाद उठने लगा है। कर्नाटक में मंत्री पद की शपथ लेने वाले प्रियांक खड़गे ने आरएसएस और बजरंग दल सरीखे संगठनों को लेकर बड़ा बयान दिया है। खड़गे ने इन दोनों संगठनों को प्रतिबंधित करने को लेकर बयान दिया है। उनका कहना है कि “जो भी दल या संगठन राज्य की शांति भंग करने का साहस या प्रयास करेंगे उन पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। उन्‍होंने आरएसएस और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने के मामले पर कांग्रेस के रुख को स्‍पष्‍ट करते हुए कहा, “धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक कोई भी संगठन, जो असंतोष और वैमनस्य के बीज बोने काम करेगा, कर्नाटक में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हम कानूनी और संवैधानिक रूप से उनसे निपटेंगे, चाहे वह बजरंग दल, पीएफआई (PFI) या कोई अन्य संगठन ही क्‍यों ना हो। हम उन्हें प्रतिबंधित करने में संकोच नहीं करेंगे, यदि वे कर्नाटक में कानून और व्यवस्था के लिए खतरा बनने जा रहे हैं।”

बता दें कि अभी कर्नाटक में किसी को भी विभागों का बंटवारा नहीं हुआ है, लेकिन प्रियांक खड़गे के बयान के मतलब निकाले जाने लगे हैं। दरअसल प्रियांक खड़गे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बेटे हैं। कर्नाटक चुनाव में जीतने वाले जिन विधायकों ने कर्नाटक में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के साथ मंत्री पद की शपथ ली है, प्रियांक भी उनमें से एक हैं। ऐसे में आरएसएस और बजरंग दल को लेकर उनके बयान को अहम माना जा रहा है।

प्रियांक खड़ने यहीं नहीं रुके, उन्होंने भाजपा द्वारा शासित पिछली सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा करने की भी बात कही। उन्होंने कहा कि जिनकी समीक्षा होनी है, उसमें पाठ्यपुस्तक संशोधन, धर्मांतरण विरोधी कानून, गौहत्या विरोधी कानून और भाजपा द्वारा पेश किये गए अन्य सभी कानून शामिल है।

हरामी व्यवस्थाः यूपी में दलित लड़की का रेप, पुलिस ने समझौते का दबाव बनाया तो पिता ने जहर खाकर दी जान

पीलीभीत, यूपी। भारत में सिस्टम में बैठे हुए तमाम अधिकारी इतने घटिया और अमानवीय हैं कि उन्हें सजा के तौर पर नौकरी से निकाल कर सालों जेल में यातना दी जानी चाहिए। मामला पीलीभीत का है जहां दलित समाज की एक 14 वर्षीय लड़की का रेप कर दिया गया। पीड़ित बच्ची के पिता आरोपियों के खिलाफ केस दर्ज करने की गुहार लगा रहे थे, लेकिन पुलिस वाले समझौता करवाना चाहते थे, जिससे तंग आकर और बेटी को न्याय न दिलाने की कसक के साथ पिता ने 17 मई को अपनी जान दे दी।

घटना 9 मई की है और मामला उत्तम प्रदेश और राम राज्य वाले उत्तर प्रदेश का है। पीलीभीत जिले के अमरिया थाना क्षेत्र के एक गांव में तीन लड़कों ने दलित समाज की 14 साल की एक लड़की को खेत से जबरन उठा लिया। फिर उसे ले जाकर अपने साथी को सौंप दिया, जिसने उसके साथ रेप किया। जब मामला सामने आया और पीड़िता ने जब पूरी बात पुलिस और घरवालों को बताई तो मामला थाने पहुंचा। पीड़ित लड़की के पिता चारों दोषियों के खिलाफ केस दर्ज करवाने की मांग कर रहे थे। लेकिन अमरिया थाना क्षेत्र की पुलिस मामला दर्ज करने की बजाय मामले में समझौता करवाने पर अड़ी रही। इससे परेशान होकर पीड़ित लड़की के पिता ने फांसी लगाकर अपनी जान दे दी। दैनिक भास्कर की वेबसाइट पर 23 मई को प्रकाशित खबर में कहा गया है कि पिता के आत्महत्या के बाद राहुल, होति, शेखर और मनोज नाम के युवक के खिलाफ मामला दर्ज हो गया है, लेकिन मुख्य आरोपी बताए जा रहे हरेन्द्र का नाम शामिल नहीं किया गया है। पीड़ित परिवार का कहना है कि आरोपियों की प्रशासन में पहुंच है। वो धमका रहे थे कि समझौता कर लो नहीं तो मार दिये जाओगे। पीड़ित के पिता ने थक हार कर मौत का रास्ता चुन लिया। हालांकि मामला के तूल पकड़ने के बाद 18 मई को सीओ ने अमरिया थाने के एसओ मुकेश शुक्ला को सस्पेंड कर दिया है,लेकिन इससे मामला खत्म नहीं हो जाता।
पीड़ित लड़की के भाई के बयान को समझना होगा और भारत में दलितों को इंसाफ पाना कितना मुश्किल है, यह भी समझना होगा। पीड़िता के भाई का कहना है कि जब हम और हमारे पिताजी थाने गए तो हम चाहते थे कि इस मामले में कार्रवाई हो, लेकिन पुलिस ने हमारी एक न सुनी। अमरिया थाने के एसओ मुकेश शुक्ला ने हम लोगों को गाली देकर भगा दिया। उन्होंने कहा कि भाग जाओ वरना जेल में डाल दूंगा। जिसके बाद अपनी बेटी के बलात्कार के बाद शर्म से दबे लड़की के पिता ने अपनी जान दे दी। ऐसे मामलों को अक्सर समय बीतने के साथ दबा दिया जाता है। लेकिन इस मामले में मानवाधिकार आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, महिला आयोग और यूपी के मुख्यमंत्री क्या कार्रवाई करते हैं और पीड़ित परिवार को क्या न्याय दिलाते हैं, यह देखना होगा। सवाल उठता है कि अगर पीड़ित बच्ची किसी राजपूत और ब्राह्मण की बेटी होती तो क्या एसओ मुकेश शुक्ला पीड़िता के पिता और भाई को गाली देकर भगा पाता, क्या वह समझौता करने का दबाव बनाता, क्या वह कहता कि भाग जाओ नहीं तो जेल में डाल दूंगा।

सरकार ने किया राष्ट्रपति का अपमान, आरोप लगाकर मोदी पर भड़के कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे

नए संसद भवन का उद्घाटन वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से कराए जाने को मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस पार्टी ने भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। साथ ही संसद भवन के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति को निमंत्रण तक नहीं देने को भी कांग्रेस पार्टी ने बड़ा मुद्दा बना दिया है।

दरअसल पीएम मोदी ने 10 दिसंबर 2020 को नए संसद भवन का शिलान्यास किया था। तब तात्कालिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को निमंत्रण नहीं दिया गया था। अब जब 28 मई को नए संसद भवन का लोकार्पण हो रहा है, मोदी सरकार ने वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भी निमंत्रण नहीं भेजा है। इसको लेकर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी और आरएसएस पर तीखा हमला बोला है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने भाजपा-आरएसएस के दलित और आदिवासी प्रेम को महज दिखावा ठहराया है।

शिलान्यास में तत्कालिन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और उद्धाटन समारोह में वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को नहीं बुलाए जाने को मुद्दा बनाते हुए खड़गे ने एक के बाद एक चार ट्विट कर सरकार पर हमला बोला है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन वर्तमान राष्ट्रपति से कराने की मांग का समर्थन करते हुए कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आरोप लगाया है कि मोदी सरकार दलित और जनजातीय समुदायों को राष्ट्रपति केवल चुनावी वजहों से बनाती है।

मल्लिकार्जुन खड़गे का तर्क है कि संसद भारत गणराज्य की सर्वोच्च लेजिस्लेटिव बॉडी है और राष्ट्रपति इसका सबसे बड़ा संवैधानिक अथॉरिटी है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु देश की प्रथम नागरिक हैं। वह सरकार और विपक्ष के साथ ही देश की हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करती हैं। अगर नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति करतीं तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सरकार के कमिटमेंट का प्रतीक होता। ये तमाम आरोप लगाते हुए कांग्रेस ने साफ कर दिया है कि वह इसे बड़ा मुद्दा बनाने जा रही हैं।

 बता दें कि 28 मई की जिस तारीख को भाजपा सरकार ने नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए चुना है, उसको लेकर भी कांग्रेस ने विरोध दर्ज कराया है। दरअसल इस दिन विनायक दामोदर सावरकर की जयंती होती है। सावरकर हिन्दू राष्ट्र के समर्थक थे और सावरकर को भाजपा अपना नायक मानती है। कांग्रेस ने इसे भी मुद्दा बनाते हुए इसे देश के नायकों का अपमान बताया है। नया संसद भवन 28 महीने में बनकर तैयार हो चुका है। नए चार मंजिला नए संसद भवन में लोकसभा के 888 और राज्यसभा के 384 सदस्य बैठ सकेंगे।

जाहिर है कि कांग्रेस के तमाम विरोध के बावजूद 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही इसका उद्घाटन करेंगे, क्योंकि राजनीति में पत्थर पर नाम लिखवाना सबसे नेताओं का प्रिय शौक होता है। वर्तमान सरकार को देश का नया इतिहास ही लिखना चाहती है। लेकिन राष्ट्रपति को इस कार्यक्रम से दूर रखकर भाजपा खुद ही एक्सपोज हो गई है। और यह साफ हो गया है कि उसका दलित और आदिवासी प्रेम महज एक दिखावा है। देखना होगा कि कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे को 2024 चुनावों से पहले कितना बड़ा बना पाती है। अगर कांग्रेस पार्टी के साथ ही वंचित समाज को केंद्र में रखकर राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने भी इसे बड़ा मुद्दा बना दिया तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है।

काले धन के विमर्श के भंवर से निकलने की जरुरत

8 नवम्बर की रात 12 से उठी नोटबंदी की सुनामी के तीन के तीन सप्ताह गुजर चुके हैं और इसकी चपेट में आने से देश का शायद एक भी नागरिक बच नहीं पाया है.विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक़ इससे राष्ट्र का जीवन जिस तरह प्रभावित हुआ,वैसा भारत-चीन या भारत-पाक के मध्य हुई लड़ाइयों में भी नहीं देखा गया.भारी आर्थिक क्षति के साथ ही इसमें 80 से अधिक लोग शहीद भी हो चुके हैं.इससे हुई हानि पर अपना कर्तव्य स्थिर करने में विपक्षी दलों ने कोई कमी नहीं की.इस मुद्दे पर एकबद्ध विपक्ष सड़क से संसद तक आक्रामक तरीके से मुखर रहा.वह जनता तक यह बात भी पहुंचा दिया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नोटबंदी के जरिये आजाद भारत का सबसे बड़ा घोटाला अंजाम दिया है.वह अपनी पार्टी,मित्रों तथा कुछ खास–खास उद्योगपतियों का पैसा ठिकाने लगाने में व्यस्त रहने के कारण बिना पूरी तैयारी के नोटबंदी का फैसला ले लिए,जिस कारण ही जनता को इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है.बहरहाल नोटबंदी से हुई दिक्कतों में अवाम का पूरा साथ देने और इस पर मोदी सरकार को बुरी तरह एक्सपोज करने के बाद विपक्ष को पूरा भरोसा हो चला था कि जनता मोदी से क्षुब्ध हो गयी है.इस विश्वास के कारण ही विपक्ष के बहुत से नेता मोदी सरकार को चुनाव में उतरने के लिए ललकारने लगे .किन्तु नोटबंदी के फैसले के दो सप्ताह बाद मोदी सरकार ने जो सर्वे कराया ,वह विपक्ष की उम्मीदों के विपरीत:कुछ हद तक चौकाने वाला रहा.सर्वे में पाया गया कि 92 प्रतिशत लोगों को भ्रष्टाचार से लड़ने का नोटबंदी का कदम पसंद आया है तथा उन्हें यह विशवास है कि इससे कालेधन,भ्रष्टाचार और आतंकवाद पर लगाम लगेगी.विभिन्न सर्वेक्षणों के अतिरक्त सात राज्यों के लोकसभा व विधानसभा सीटों के उपचुनाव के बाद ही महाराष्ट्र और गुजरात में जो स्थानीय निकायों के उपचुनाव हुए, उनमें भी जनता को नोटबंदी के पक्ष खड़ा पाया गया.

किन्तु तमाम सर्वेक्षणों और उपचुनाव परिणामों से विपक्ष अप्रभावित नजर आया.उसे आज भी लग रहा है कि नोटबंदी के बाद जनता को जो तकलीफ उठानी पड़ी है उसकी कीमत मोदी को आने वाले चुनावों में अदा करनी पड़ेगी,इसलिए वह नोटबंदी के खिलाफ विरोध की नई-नई मंजिलें तय करते जा रहा है.लेकिन वह समझ नहीं पा रहा है कि ऐसा करने के क्रम में उसकी स्थिति उस तत्कालीन विपक्ष जैसी होती जा रही है जिसने 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे का विरोध किया था.

वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी ने जो नोटबंदी का फैसला लिया है भारत में उसकी तुलना सिर्फ इंदिरा गाँधी के 1969 के फैसले से ही हो सकती है.किन्तु 1969 और 2016 के साहसिक फैसलों में काफी साम्यता होने के बावजूद दो बड़े फर्क हैं.1969 में इंदिरा गाँधी ने अपनी छवि एक प्रगतिशील प्रधानमंत्री रूप स्थापित करने के लिए जो कठोर फैसले लिए उससे अवाम का जीवन आज जैसा नरक नहीं बना था,इसलिए उन्हें जनता के बीच रोने की नौबत नहीं आई थी. दूसरा बड़ा फर्क यह था कि बैंकों का राष्ट्रीकरण और प्रिवीपर्स का खात्मा सचमुच में भारी जोखिम भरा फैसला था .ऐसा करके इंदिरा गांधी ने राजे-महाराजे और धन्ना सेठों को सीधी चुनौती दी थी,जिसका राष्ट्र को चिरस्थाई लाभ मिला.इस लिहाज से नोटबंदी का फैसला कहीं से भी साहसिक और जोखिम भरा नहीं नजर आ रहा.इसमें जो भी तकलीफ हुई है साधारण और मध्यम वर्ग की जनता को हुई है,काले धन के लिए जो सचमुच में जिम्मेवार हैं,उन्हें कहीं से भी चुनौती मिली ही नहीं है.

नोटबंदी के फैसले को खुद मोदी द्वारा मना किये जाने के बावजूद उनके दल के साथ कुछ नोटबंदी समर्थक बुद्धिजीवि भी अतिउत्साह में इसे काले धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ बताये जा है.किन्तु वास्तव में यह काले धन की आड़ में विपक्षी दलों पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ है .इसके जरिये निर्ममता से विपक्षी दलों को आर्थिक रूप से पंगु बनाने का कार्य अंजाम दिया है.शायद नोटबंदी का मुख्य लक्ष्य विपक्ष को पंगु बनाना ही था क्योंकि प्रधानमंत्री इस बात से अनजान नहीं होंगे कि नकदी का योगदान कुल काले धन की मात्रा में ऊंट के मुंह में जीरे से अधिक नहीं है,लिहाजा नोटबंदी के जरिये काले धन और भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं किया जा सकता.हां ,इसके जरिये यह सन्देश जरुर दिया जा सकता था कि भले ही वह विदेशों से काला धन लाने में पूरी तरह विफल रहे ,किन्तु काले धन के खिलाफ कठोर हैं.हालांकि जिस तरह मोदी सरकार काला धन रखने वालों को आयकर कानून संशोधन विधेयक -2016 के जरिये आधा देकर काला धन सफ़ेद करने का अवसर मुहैया कराई है,उससे उसकी काला धन विरोधी छवि को काफी आघात लगा है.शायद इसीलिए उनके समर्थक काले धन के खात्मे के बजाय कैश्लेश लेस इकॉनमी का गुणगान करने लगे हैं. किन्तु एक दिसंबर से देश के संगठित व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों लोग वेतन लेने के लिए भटकते रहने के बावजूद जिस तरह सोत्साह नोटबंदी का समर्थन करते दिख रहे हैं ,उससे तय है कि प्रधानमंत्री मोदी राजग के सहयोगियों तथा संघ के तीन दर्जन संगठनों और मीडिया के जरिये 2017 के चुनाव में नोटबंदी को विपक्ष के खिलाफ सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में सफल हो जायेंगे.

हालही में एक विद्वान ने लिखा है-‘भारतीय राजनीति की एक विशेषता यह बनती जा रही है कि जब परिस्थितियां सत्ताधारी दल के प्रतिकूल जाने लगे तो एक विवादास्पद निर्णय लेकर विमर्श की पूरी धारा को एक ही दिशा में प्रवाहित कर दो.’सत्ता में आने के पूर्व विदेशों से कालाधन ला कर प्रत्येक के खाते में 15-15 लाख जमा कराने तथा हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने जैसे भारी भरकम वादों को पूरा करने में बुरी तरह व्यर्थ प्रधानमंत्री के लिए विमर्श को उस काले धन ,जो नकदी के रूप में कुल काले धन का सिर्फ 5-6 %प्रतिशत है एवं कई विद्वानों के मुताबिक जिस पर वर्तमान सरकार का एक्शन मक्खी पर तोप चलाने जैसा है,पर केन्द्रित करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था.उन्हें इस बात का भलीभांति इल्म था कालेधन का मुद्दा ऐसा है जिस पर अवाम का भावनात्मक दोहन बड़ी आसानी से किया जा सकता है.इस कारण ही जन लोकपाल के जरिये कभी काला धन और भ्रष्टाचार के खात्मे का सब्ज बाग़ दिखाकर अन्ना-केजरी जैसे साधारण लोग सुपर हीरो बन गये थे .शायद उनकी सुपर छवि को दृष्टिगत रखकर ही मोदी ने अपनी सारी विफलता को ढकने के लिए विमर्श की पूरी धारा को काले धन पर केन्द्रित कर दिया है और पूरा विपक्ष इसके भंवर में फँस गया है.

सारी स्थिति देखते हुए यह बात जोर गले से कही जा सकती है मोदी ने नोटबंदी के जरिये यूपी चुनाव के लिए काले धन की पिच तैयार कर दी है और इस पर खेलने पर विपक्ष की स्थिति कोहली सेना के सामने टॉस हारी विदेशी टीमों जैसी होना तय है.ऐसे में आर्थिक रूप से लुंज-पुंज हो चुका विपक्ष यदि भारी पॉलिटिकल माइलेज ले चुके मोदी को मात देना चाहता है तो उसे मौजूदा विमर्श के भंवर से निकलना होगा.इसके लिए खुद मंडल के दिनों की भाजपा से प्रेरणा लेने से श्रेयष्कर कुछ हो ही नहीं सकता.

स्मरण रहे 7 अगस्त,1990 को जब मंडल रिपोर्ट के जरिये पिछड़ों को आरक्षण मिला तथा वर्ण-व्यवस्था के वंचित(दलित,आदिवासी ,पिछड़े और उनसे धर्मान्तरित ) हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गयी घृणा और शत्रुता की प्राचीर तोड़कर भ्रातृ भाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगे,तब भाजपाइ अडवाणी ने यह कह कर राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया कि मंडल से समाज टूट रहा है.उसके बाद सारा विमर्श राम मंदिर पर केन्द्रित होने के साथ भाजपा के सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त हो गया .आज विपक्ष यदि एक बड़े तानाशाह के रूप में उभर रहे मोदी को मात देना चाहता है तो राम जन्मभूमि आन्दोलन से प्रेरणा लेते उसे विमर्श को सामाजिक न्याय की राजनीति पर केन्द्रित करने का सफल उपक्रम चलाना होगा.इसके लिए आर्थिक,राजनैतिक,न्यायिक,शैक्षिक,धार्मिक इत्यादि समस्त क्षेत्रों के अवसरों के बंटवारे में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का मुद्दा खड़ा करना शायद बेहतर होगा।