देश की सामाजिक व्यवस्था कब संवैधानिक मूल्यों को स्वीकार करेगी?

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किसी भी स्वतंत्र देश की आवाम के गरिमामयी जीवन और विकास का मूल आधार उस देश का संविधान होता है। संविधान में वर्णित नियमावली से एक देश का कार्यान्वयन और संचालन होता है। दुनियाँ के विभिन्न देशों की भांति हमारे देश को भी चलाने वाला दस्तावेज ‘भारत का संविधान’ है। जो भले ही 2 वर्ष 11 माह 18 दिन मे बना, लेकिन असलियत में इस संविधान की नींव तब डल गई थी, जब भारतीय समाज ने ब्रिटिश दासता और सदियों से चले आ रहे शोषण, अपराध, गुलामी की मुखालफत का आगाज किया था। वहीं, ब्रिटिश दासता की चरम सीमा ने देश की आवाम को अपने प्राकृतिक अधिकारों और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए खड़ा कर दिया। ऐसे में, 1947 का वह वक्त भी आ गया, जब राष्ट्र आजाद हो गया। इसके उपरांत एक महान देश के निर्माण के लिए संविधान निर्मित किया गया। ऐसे में, सदियों से भारतीय समाज जिन स्वतंत्रता, समानता जैसे अन्य प्राकृतिक अधिकारों की मांग करता आ रहा था। उन प्राकृतिक अधिकारों को संविधान निर्माताओं ने, संविधान की प्रस्तावना में, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों के रूप में दर्ज किया। वहीं, भारतीय संविधान जब समग्रता से एक दस्तावेज़ के रूप में आया। तब सम्पूर्ण संविधान का मूल संविधान की प्रस्तावना में नजर आया। ऐसे में, संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर ने प्रस्तावना के बारे में कहा कि, ‘‘यह वास्तव में जीवन का एक तरीका था, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में पहचानता है और जिसे एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है,,

वास्तव में, संविधान में दर्ज, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता, व्यक्ति की गरिमा जैसे अन्य संवैधानिक मूल्य हमारे जीवन जीने का आधार है। लेकिन, ध्यातव्य है कि, आजाद भारत के 75 वर्ष बाद हम संवैधानिक मूल्यों को कितना स्वीकार पाए? और संवैधानिक मूल्यों के प्रति कितनी जागरूकता कर पाए? शायद! अपरिहार्यता से कम।

आज के दौर में विकास की चमक काफी गहरने के बाद भी हमें देश में, ये सुनने और देखने मिलता है कि, किसी दलित की शादी समारोह में घोड़ी पर रास नहीं फेरने दी जाती। ऐसी स्थिति में, कई बार तो तगड़ी मार-धाड़ भी हो जाती है। जिससे लोगों के न्याय और बंधुता जैसे संवैधानिक मूल्यों पर संकट पैदा होता है।

संवैधानिक मूल्यों के हनन को लेकर कुछ ऐसे ही अनुभव हमने सागर जिले के वंचित समुदाय के लोगों से जानने की कोशिश की।

तब अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले सागर के मकुंदी बंसल बताते है कि, हम आजाद जरूर हो गए है, लेकिन हमारे साथ गाँव में ऊंची जाति वाले ऐसे पेशाते की हमने लगता है की हम गुलाम की जंजीरों में जकड़े है। वह हमारे दूल्हे को घोड़े पर नहीं बैठने देते, अच्छे कपड़े पहनने पर, ऊंची जाति वालों से राम-राम ना करने पर, उनके सामने जमीन पर ना बैठने पर ऊंची जाति वाले खफा हो जाते है। सामाजिक नियमों को नहीं मानने पर हमें गालियां सुननी पड़ती है। यहाँ सोचनीय है कि, मकुंदी जैसे लोगों के व्यक्ति की गरिमा जैसे संवैधानिक मूल्यों का ध्यान क्यों नहीं रखा जाता है?

फिर, बंडा विधानसभा क्षेत्र के बिहारी आदिवासी जो मुहजुबानी ऐसे पेश करते हैं, “अपने आप को ऊंचा समझने वाले लोगों के यहाँ, समारोह जब हम लोग कहना खाने जाते है तब हमें आदरपूर्वक खाना नहीं खिलाया जाता। हमारे साथ बंधुतापूर्ण व्योहार नहीं किया जाता।,,

वहीं, “जब बड़े लोग हमें मजदूरी पर बुलाते हैं और हमारी जाने की इच्छा नहीं होती तो हमें गालियां सुननी पड़ती है। ऐसे में, कभी-कभी तो हमें मार भी पड़ जाती है।,, क्या यहाँ सामाजिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्य का उल्लंघन नहीं होता?

आगे हमने अरबिन्द बंसल से बातचीत की। तब वे कहते हैं कि, सामाजिक असमानताएँ ग्रामीण अंचलों में इस तरह हावी है कि, सेन समाज का नाई अनुसूचित जाति के लोगों के सिर के बाल नहीं काटता। ऐसे हम लोग बंडा तहसील में सिर के बाल कटवाने जाते है। याकि स्वयं घर पर अपने सिर के बाल काटते है। पूछने पर अरबिन्द बताते है कि, नाई हमारे बाल इसलिए नहीं काटता, क्योंकि नाई के ऊपर ऊंची जाति के लोगों का दबाब रहता है। अनुसूचित जाति के लोगों के बाल काटने पर ऊंची समाज नाई और अनुसूचित जाति के लोगों पर सामाजिक प्रतिबंध लाद देता है। अनुसूचित जाति के लोगों के सिर के बाल ना काटने के हालात बंडा क्षेत्र के कई गाँव में बनी हुए है। अरबिन्द की मुहजुबनी यह याद दिलाती है की हम समानता जैसे संवैधानिक मूल्य का कब पालन करेंगे?

आगे हमारी मुलाकात बरा गाँव की राजकुमारी बाल्मीकि से हुयी। राजकुमारी प्रधानमंत्री आवास योजना होने बाद भी कच्चे मकान में रहने को मजबूर है। राजकुमारी हमें बताती हैं कि, “गाँव में हम नीची जाति है, इसलिए हमें कोई अच्छा रोजगार नहीं देता। आज भी हमारा रोजगार सड़क पर झाड़ू लगाना, टोकरी बनाना, छोटे-छोटे घरेलू समान बनाने तक सीमित है। यदि हम बाजार में खान-पान कि, कोई अच्छी दुकान खोलते है तब हमारा सामाजिक बहिष्कार किया जाता है।,,

आगे हम रूबरू होते हैं करेवना गाँव के शालकराम चौधरी से। वह कहते है कि, हमारे गाँव में हम नीची जाति वालों को चाय की टपरी पर चाय तक पीने नहीं देते है, ना ही बैठने देते है। आज भी आजाद भारत में समाज में बराबरी का हक नहीं है।

हमारे सामने सागर संभाग के छतरपुर जिले से एक ताज़ा घटना भी सामने आयी। यह घटना एक दलित की घोड़े से राज फेरने के दौरान ऊंची जाति के लोगों द्वारा पत्थर मारने की है। दरअसल, शादी समारोह में दलित दूल्हे की राज पुलिस की अगुआई में फेरी जा रही थी। लेकिन ऊंची जाति के लोगों को यह पसंद नहीं आया। ऐसे में उन्होंने शादी वाले पक्ष पर पथराव कर दिया, जिसमें तीन पुलिस वाले घायल हो गए। पुलिस ने मामले को अपने संज्ञान में लिया है। ऐसी घटनाएं क्या इस ओर संकेत नहीं करती कि, लोगों का स्वतंत्रता जैसा संवैधानिक मूल्य खतरे में है?

विचारणीय है कि, एक तरफ हमारे संविधान के स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे विभिन्न संवैधानिक मूल्य है, जो लोगों को कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाकर, उनके अधिकारों और‌ कर्तव्यों के संरक्षण का बोध कराते हैं। वहीं, दूसरी ओर वे सामाजिक मूल्य हैं, जो इंसान को इंसान बनने में रोड़ा उत्पन्न करते हैं। जैसे, जातिवाद, छुआछूत, सामाजिक भेदभाव, कुप्रथाएं गैर जरूरी परंम्पराएं‌ और रीतिरिवाज जैसे अन्य समाजिक मूल्य। बसुधैव कुटुबंकम की भावना का संचार करना है, तब हमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय जैसे अन्य संवैधानिक मूल्यों की दृढ़ता बढ़ावा देना‌ होगा, तब कई मायनों में देश समाजिक, आर्थिक शैक्षणिक अन्य विकास की ओर अग्रसर हो पायेगा।

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