कांशीराम की बहुजन विचारधारा की जीत है गोरखपुर-फूलपुर उपचुनाव

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मान्यवर कांशीराम की जयंती से एक दिन पहले गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन की जीत असल में बहुजन नायक को सच्ची श्रद्धांजली है. मान्यवर कांशीराम हमेशा यह चाहते थे कि बहुजन समाज एकजुट हो, क्योंकि उसकी एकजुटता ही उनकी ताकत है. उनका हमेशा से मानना था कि बहुजन समाज 100 में 85 है, इसलिए देश की सत्ता पर बहुजनों का शासन होना चाहिए.

जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी जैसे नारे कांशीराम की इसी दूरदर्शिता को दिखाते हैं. असल में कांशीराम देश की राजनीति के गणित को समझ गए थे. वह यह जान गए थे कि देश का अगड़ा कहा जाने वाला समाज आखिर सालों तक सत्ता पर कैसे कब्जा कर के बैठा है. उन्हें यह अंदाजा हो गया था कि बहुजन समाज को जातियों में बांटकर ही देश का सवर्ण तबका इस देश की सत्ता पर कब्जा कर के बैठा है. उन्होंने उसी बिखरे हुए बहुजन समाज को जोड़ना शुरू किया और राजनीति के मुहावरे बदल दिए.

गोरखपुर और (गोरखपुर में शानदार प्रदर्शन) फूलपुर उपचुनाव की जीत इसलिए भी अहम है क्योंकि दोनों लोकसभा सीटें यह सीट पिछले काफी समय से भाजपा का गढ़ रही हैं. गोरखपुर की जीत बहुजन समाज की सबसे बड़ी जीत है. क्योंकि अघोषित तौर पर हिन्दुत्व का गढ़ बन गए गोरखपुर में यह जीत गोरनाथ मठ की सत्ता को सीधी चुनौती है. पिछले कई दशक से गोरखपुर पर इसी के महंथ का कब्जा रहा है. जाहिर है कि इस एक हार से भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व से लेकर राज्य नेतृत्व तक हिल गया है. इज्जत की अहम लड़ाई में अगर भाजपा को मुंह की खानी पड़ी है तो इसके पीछे मान्यवर कांशीराम जी का बहुजनवाद का सिद्धांत है, जिसने अम्बेडकरवाद को हथियार बनाकर हिन्दुत्व को हरा दिया है.

गोरखपुर और फूलपुर की इस जीत ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को भी बड़ा संदेश दे दिया है. इस जीत से यह भी साफ हो गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ बहुजन समाज ही हिन्दुत्व के रथ पर सवार भाजपा का रास्ता रोक सकती है. और जिस उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा सीटें जीतकर भाजपा केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही है, उसे वहां सबसे ज्यादा खतरा है. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी मिलकर आसानी से भाजपा का रास्ता रोक सकती हैं. उत्तर प्रदेश में दोनों ही पार्टियां फिलहाल हाशिए पर पड़ी हैं. उसे इससे बाहर निकलने का फार्मूला मिल गया है. उपचुनाव में बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मिलकर जो प्रयोग किया था, वह प्रयोग सफल रहा है.

इस जीत के बाद अब सबकी नजरें मायावती और अखिलेश यादव पर टिक गई हैं. अगर 2019 लोकसभा चुनाव में दोनों दल आपस में समझौता कर के चुनाव लड़ते हैं तो केंद्र से भाजपा की विदाई तय है. अपनी स्थापना से लेकर अब तक लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के प्रदर्शन की बात करें तो 2009 में बसपा को 21 और सपा को 23 सीटें मिली थी. यह उनका सबसे बेहतर प्रदर्शन है. अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियां यूपी में 40-40 सीटों पर भी समझौता कर के चुनाव में उतरते हैं तो वो अपने इस बेहतर प्रदर्शन को दोहरा सकते हैं.

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