‘सैराट’ जैसी सफल क्यों नहीं हो पाई ‘धड़क’

नई दिल्ली। पिछले शुक्रवार को फिल्म धड़क रिलिज हुई थी. यह फिल्म मराठी फिल्म सैराट का हिन्दी रि-मेक थी. जाह्नवी कपूर और ईशान खट्टर की फिल्म ‘धड़क’ का कलेक्शन देखकर इतना जरूर कह सकते हैं कि ‘धड़क’ कमाई के मामले में फेल हो गई. ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि फिल्म ‘सैराट’ की तरह बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी के झंडे गाड़ेगी लेकिन इस फिल्म का बजट निकालना भी मुश्किल हो गया है.

‘धड़क’ ने बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन धमाकेदार ओपनिंग की थी लेकिन वीकेंड के बाद से इस फिल्म के कलेक्शन में जबरदस्त गिरावट हुई. शुक्रवार को रिलिज होने के दिन से बुधवार तक का कलेक्शन देखा जाए तो ‘धड़क’ अब तक सिर्फ 47.35 करोड़ का बिजनेस कर पाई है, जबकि फिल्म का बजट 50 करोड़ है. तो वहीं ‘सैराट’ फिल्म का बजट महज 4 करोड़ था लेकिन फिल्म ने 100 करोड़ का बिजनेस किया था. इसके बाद यह साफ हो गया है कि जाह्नवी की ‘धड़क’ सैराट की तरह जादू चलाने में सफल नहीं हो पाई है.

सैराट 2016 में आई मराठी फिल्म थी. मराठी फिल्म इतिहास की अब तक की सबसे सफल फिल्म होने का खिताब इस फिल्म को हासिल है. मराठी में पहली बार किसी फिल्म ने 100 करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया. फिल्म के दोनों किरदार और गाने लोगों की जबान पर चढ़ गए. इस फिल्म के लिए निर्देशक नागराज मुंजाले को कई अवार्ड भी मिले.

इस कामयाबी को भुनाने के लिए हिन्दी में धड़क बनाई गई. संगीत का जिम्मा अजय-अतुल की उसी जोड़ी ने संभाला, जिन्होंने सैराट की धुनों से पूरे महाराष्ट्र को भिगो दिया था. दो बड़े स्टार परिवारों से इस फिल्म के कैरेक्टर उठाए गए. दोनों फिल्मों की कहानी और कैरेक्टर कमोबेश एक सा रहा. सवाल है कि आखिर इन सब के बावजूद धड़क, फिल्म सैराट जैसा जादू क्यों नहीं पैदा कर पाई?

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने इसके कारण गिनाते हुए क्विंट हिन्दी के लिए एक आर्टिकल लिखा है, जिससे यह साफ होता है कि फिल्म सैराट का हिन्दी रिमेक क्यों उतना सफल नहीं हो पाया, जितनी की उम्मीद की जा रही थी. आइए डालते हैं एक नजर आखिर दोनों फिल्मों में क्या फर्क है.

1. सबसे पहला फर्क निर्देश को लेकर है. असल में धड़क फिल्म के निर्देशक शशांक खेतान और सैराट के नागराज मंजुले दोनों के फिल्म की कहानी को देखने का नजरिया अलग है.

नागराज मंजुले महाराष्ट्र के एक दलित परिवार में जन्मे फिल्मकार हैं. जाति उनके लिए कोई किताबी चीज नहीं है. जाति को उन्होंने अपने आसपास देखा और झेला है. इसलिए जाति भेद के कारण होने वाली ऑनर किलिंग को वे वहां से देख पाए हैं, जो किसी और लोकेशन से देख पाना संभव नहीं है.

शशांक कोलकाता के एक मारवाड़ी परिवार में पले-बढ़े फिल्मकार हैं. उन्होंने फिल्म में ईमानदार रहने की कोशिश की है. नागराज मंजुले को ऐसी कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी.

2. दोनों फिल्मों में जो दूसरा अंतर है, वो दोनों फिल्मों के बीच बड़ा गैप पैदा कर देता है. फिल्म धड़क से जाति का सवाल गायब, जबकि सैराट इस सवाल से टकराती है.

अगर धड़क में हीरो के पिता यह एक डायलॉग न बोलते कि “वे लोग ऊंची जाति वाले हैं, उस लड़की से दूर रहो” तो पता भी न चलता कि हीरो नीची जाति का है या कि यह ऑनर किलिंग पर बनी फिल्म है. इस डायलॉग को छोड़ दें तो फिल्म अमीर लड़की और मिडिल क्लास लड़के की प्रेम कहानी है. पूरी फिल्म जाति से मुंह चुराकर चलती है.

दूसरी ओर सैराट में हीरो अपने पिता के साथ मछलियां पकड़ता है. गांव के बाहर की दलित बस्ती में उसका मकान है. उसके माता-पिता उसकी दलित जाति का उसे एहसास कराते हैं. हीरोइन उसके घर आकर पानी पी लेती है, तो यह एक दर्ज करने लायक बात बन जाती है.

यहां तक कि गांव की पंचायत में भी हीरो का पिता अपनी दलित होने की बेचारगी को जताता है. हीरो और हीरोइन जब गांव छोड़कर भागते हैं तो शहर में एक दलित बस्ती में वे ठहरते हैं. वहां बौद्ध पंचशील का झंडा बैकग्राउंड में है, जो यह बताता है कि वे कहां हैं. हीरोइन का मराठा होना भी साफ नजर आता है.

3. सैराट बारीकियों में चलती है, कमजोरों के साथ खड़ी होती है

सैराट में हीरो के दो दोस्त हैं. एक मुसलमान है और दूसरा शारीरिक रूप से कमजोर. एक चूड़ी बेचने वाले का बेटा है तो एक मोटर मैकेनिक. यहां फिल्म के लेखक और डायरेक्टर नागराज मंजुले की सामाजिक दृष्टि साफ नजर आती है. ये दोस्त हास्य पैदा करते हैं, लेकिन समाज के विस्तार और उसकी पीड़ाओं को भी दिखाते हैं. धड़क इन बारीकियों में जाने से कतरा जाती है.

4. क्लासरूम सीन में भी सैराट ने धड़क से बाजी मार ली है

सैराट में जब हीरोइन का दबंग भाई क्लास में आता है और मास्टर को थप्पड़ मारता है तो डॉयरेक्टर इशारों में बता देता है कि मास्टर दलित है. वह क्लास में इंग्लिश साहित्य पढ़ाते हुए दलित पैंथर आंदोलन के कवि के बारे में बताता है. धड़क का डायरेक्टर ऐसी कोई जहमत नहीं उठाता, बल्कि शिक्षक का नाम अग्निहोत्री बताकर वह पूरे सीन को कमजोर कर देता है. अग्निहोत्री की एक ठाकुर लड़कों के हाथ से पिटाई में वह ताप नहीं है जो एक मराठा दबंग द्वारा एक दलित शिक्षक पर हाथ उठाने में है, वह भी तब जब वह शिक्षक दलित चेतना के कवि को पढ़ा रहा हो.

5. अंतिम सीन में धड़क, सैराट से काफी कमजोर पड़ जाती है

सैराट के अंत में हीरोइन के परिवार वाले लड़का-लड़की दोनों को मार देते हैं. धड़क में डायरेक्टर हीरोइन को बचा लेता है. यह ऑनर किलिंग का तरीका नहीं है. ऑनर किलिंग में अक्सर देखा गया है कि परिवार वाले लड़की को नहीं छोड़ते. खासकर तब जब उसने अपने से नीच जाति के लड़के के साथ प्रेम या शादी की है.

ऑनर किलिंग करने के पीछे परिवार और जाति की इज्जत जाने का एक भाव होता है और जाति गौरव दोबारा हासिल करने के लिए और दोबारा ऐसी घटना न हो, ऐसा सबक बाकी लड़कियों को देने के लिए, लड़कियों की हत्या की जाती है. इस बात को वो लोग नहीं समझ पाते, जिन्होंने जाति को सिर्फ किताबों में पढ़ा है.

एक और बात दोनों फिल्मों को काफी अलग करती है. धड़क दो फिल्मी परिवारों की अगली पीढ़ी का लॉन्च पैड है, वहीं सैराट के हीरो और हीरोइन दोनों दलित परिवारों से हैं. उनका कोई फिल्मी अतीत नहीं है. उनका इस फिल्म में होना सिर्फ नागराज मंजुले की दृष्टि की वजह से है.

इसके अलावा फिल्म के लिए शहरों का चुनाव, सेट और लोकेशन भी दोनों फिल्मों को अलग बनाती है. सैराट के शहर, सेट और लोकेशन फिल्म को सपोर्ट करते हैं, धड़क में ऐसा नहीं होता. दिलीप मंडल के शब्दों में, धड़क लगातार इस बात का ध्यान रखती है कि दर्शकों को कोई गंदी या आंखों को चुभने वाली चीज न दिखाई जाए. सैराट एक ईमानदार फिल्म है. धड़क के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती.

इसे भी पढ़े-कैंसर से जूझ रही सोनाली बेंद्रे का हैरान करने वाला वीडियो आया सामने

दलित-बहुजन मीडिया को मजबूत करने के लिए और हमें आर्थिक सहयोग करने के लिये दिए गए लिंक पर क्लिक करेंhttps://yt.orcsnet.com/#dalit-dast

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.