उना में जो हुआ उसने पूरे दलित समाज के आत्म सम्मान और इज्जत को छीन लिया था- जिग्नेश मेवाणी

गुजरात के उना में  देश भर से लोग ””आजादी का जश्न”” मनाने इकट्ठा हो रहे हैं. गुजरात में चल रहे मौजूदा दलित आंदोलन को जिग्नेश मेवाणी ने एक शक्ल और एक दिशा दी है. भले ही वे इसके अकेले नेता नहीं हैं, लेकिन वे इस आंदोलन का चेहरा और दिमाग दोनों हैं. मौजूदा आंदोलन की रीढ़ ‘उना दलित अत्याचार लड़त समिति’ उन्हीं की पहल पर बनी और वे इसके संयोजक हैं. 35 वर्षीय जिग्नेश एक वकील, आरटीआई कार्यकर्ता और दलित अधिकार कार्यकर्ता रहे हैं. राज्य में वे दलितों के जमीन पर अधिकार के मुद्दों पर अथक लड़ाई लड़ने वाले एक कार्यकर्ता के रूप में जाने जाते रहे हैं.स्वतंत्र पत्रकार सुरभि वाया ने जिग्नेश मेवाणी से बातचीत की है.

उना की घटना में आपकी समझ से ऐसा क्या था जिसने इस विद्रोह की शुरुआत की? क्यों यह एक चिन्गारी बन गया?
– जिस तरह उना की घटना का वीडियो वायरल हुआ, इसे व्हाट्सएप पर भेजा जा रहा था, जिसमें दिन दहाड़े सब देख सकते थे कि उना कस्बे में आप चार दलित नौजवानों को पीट रहे हैं, एक तरह से उनकी खाल उधेड़ रहे हैं… इस विडियो ने पूरे दलित समाज के आत्म सम्मान और इज्जत को छीन लिया था. आपने एक इंसान और एक समुदाय के आत्म सम्मान को दिन दहाड़े सबकी आंखों के सामने कुचल कर रख दिया. जिस तरह इसे मीडिया ने उठाया और एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया, उसने भी आंदोलन को मजबूती दी. लेकिन यह तो होना ही था.

अब मोदी केंद्र में हैं, क्या इस वजह से गुजरात के हिंदू गिरोहों का चरित्र बदला है?
– एक बड़ी सावधानी से सोची-समझी रणनीति के तहत संघ परिवार और भाजपा ने पूरे देश में दलितों के भगवाकरण की परियोजना शुरू की थी. उन्होंने गुजरात में भी इसको आजमाया. लेकिन मुख्यत: जन विरोधी, गरीब विरोधी गुजरात मॉडल में दलितों के लिए अपनी हार और अपने शोषण के अलावा और कुछ नहीं रखा था. एक ऐसा दौर था जब वे हिंदुत्व की विचारधारा के साथ चले गए थे, लेकिन वह दौर अब खत्म हो रहा है और वे अब इसको पहचान सकते हैं कि ये लोग असल में कैसे हैं. जब आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है और दूसरी तरफ वे “वाइब्रेंट” और “गोल्डेन गुजरात” जैसी बड़ी बड़ी बातों का जाप सुन रहे हैं. “सबका साथ सबका विकास” जैसी बातों के नारे लगाए जा रहे हैं, लेकिन इसमें लगता है कि दलित इससे बाहर हैं. इसलिए दलित भी इसको महसूस करने लगे हैं कि उनको इस गुजरात मॉडल में क्रूरता और हिंसा के अलावा और कुछ नहीं मिलने वाला है.

आनंदीबेन पटेल और नरेंद्र मोदी सरकार में आपने क्या फर्क देखा?
– कोई फर्क नहीं है. मोदी हुकूमत के दौरान एससी, एसटी या ओबीसी के बीच जमीन बांटने के बजाए इसको अडाणी, अंबानी और एस्सार को दिया गया. आनंदीबेन ने भी यही मॉडल आगे बढ़ाया. इसके अलावा, चूंकि मोदी दिल्ली पहुंच गए थे इसलिए आनंदीबेन की हुकूमत में एग्रीकल्चल लैंड सीलिंग एक्ट में भी फेर-बदल किया गया, जो भूमिहीनों को जमीन देने के प्रावधान वाला एक प्रगतिशील कानून था. इनमें से किसी भी हुकूमत ने जातीय हिंसा और दलित अधिकारों के मुद्दों पर कोई काम नहीं किया है.

गुजरात में दलितों और दलित आंदोलनों के इतिहास पर क्या कहेंगे?
– 1980 के दशक में अनेक गैर दलित भी (दलित) आंदोलन का हिस्सा बने. दलित पैंथर्स का हमेशा ही एक बहुत रेडिकल, प्रगतिशील एजेंडा और घोषणापत्र था. दलित आंदोलन का यह एक पहलू है. इसकी वजह से एक जुझारू मानसिकता विकसित हुई.  मतलब अगर रूढ़िवादी उनसे अच्छे से पेश नहीं आए तो फिर हिंसक प्रतिक्रिया होगी. संदेश साफ था, कि वे अपने अधिकारों के लिए अथक रूप से लड़ सकते हैं. [दलित पैंथर] के घोषणापत्र में दिए गए कार्यक्रम में मजदूर संघ बनाने, बुनियादी अधिकारों के लिए लड़ने, जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ने जैसी बातें शामिल थीं. लेकिन ये साकार नहीं हो सकीं. सिर्फ घोषणापत्र का नाम बदल दिया गया.

दूसरी तरफ गुजरात में बहुत थोड़ी प्रगतिशील ताकतें रही हैं जो दलितों की स्वाभाविक सहयोगी बन सकती थीं. इसके साथ साथ जब वैश्वीकरण की आर्थिक नीतियां आईं तो पहचान की राजनीति भी एक बड़ा फैक्टर बनी. भारत भर में दलित आंदोलन इस राजनीति की गिरफ्त में आ गए. 1990 के दशक के बाद दलित आंदोलन जातिवाद से लड़ने, मनुवाद मुर्दाबाद की जुमलेबाजी में फंस गया और इसने इन मुद्दों को नहीं उठाया कि दलितों के पास रोटी, छत और घर जैसी बुनियादी चीजें हासिल हों. हमेशा ही ऐसे संगठन, लोग और संस्थान रहे हैं जिन्होंने दलितों के मुद्दों को उठाया, खास कर अत्याचारों और जमीन के संघर्ष को उठाया. लेकिन एक ऐसा मंच अभी बनना बाकी है जो इन सभी विचारों को एक साथ ला सके और मुद्दों के सामने रख सके.

गुजरात में जहां तक दलित आंदोलनों की बात है पिछले दो या तीन दशकों में मैं बस यही देख सकता हूं कि ऐसे लोग हैं जो काम करना चाहते हैं और अच्छा काम कर रहे हैं. ऐसा जज्बा है कि अन्याय को रोकने के लिए काम किया जाए, लेकिन इसके लिए मिलजुल कर एक वैचारिक नजरिया नहीं बनाया जा सका और जमीन पर काम करने वाले लोग दीर्घ कालिक बदलाव लाने के लिए दूसरों के साथ एकजुट नहीं हो सके. इसलिए एक बड़े दलित आंदोलन के खड़े होने की जो उम्मीद थी वो पूरी नहीं हो सकी.

दूसरी तरफ पहचान की राजनीति की वजह से, खास कर मोदी की हुकूमत के दौरान, एक तरफ तो उनका एजेंडा सांप्रदायिक फासीवाद का एडेंडा था और दूसरी तरफ यह वैश्वीकरण का एजेंडा है, भौतिक विरोधाभास बढ़े हैं, गरीबों और अमीरों के बीच गैरबराबरी बढ़ी है, निचली जातियों, निचले वर्गों को काफी भुगतना पड़ा है.

उना का मुद्दा इतना बड़ा क्यों बन गया? इसलिए क्योंकि अब पानी के सिर के ऊपर से बहने का इंतजार नहीं करना था. ऐसा होना ही था, क्योंकि गुजरात में ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं. यहां गहरा खेतिहर संकट है. ग्रामीण इलाकों में दलित वर्ग का भारी शोषण होता रहा है. शहरों में रहने वाला दलित मुख्यत: औद्योगिक मजदूर है, निजी कंपनियों के लिए काम करता है…

क्या टेक्सटाइल मिल मजदूरों की तरह जिन्होंने 1980 के दशक में यूनियन बनाने की मांग की थी?
– हां, लेकिन कारखाने के मजदूरों और खेतिहर मजदूरों में एक फर्क है. दलित कारखाना मजदूरों के वक्त उम्मीद थी, संघर्ष की बड़ी चाहत खेतिहर मजदूरों में जिंदा थी. इसलिए तब एक बार्गेनिंग पावर थी. कारखानों के आसपास कारखाना मालिकों ने शेल्टर बनाए जहां मजदूरों को रहने के लिए घर दिए. इसलिए एक तरह की एकता थी. लेकिन जो लोग मॉलों में या निजी कॉरपोरेट घरानों में काम करने गए वो बिखरे हुए हैं. उनके बीच का संपर्क भी बहुत कमजोर है. अगर मोदी सरकार उन्हें 4000 रुपए माहवार की नौकरी देना जारी रखती है तो हम औद्योगिक मजदूरों के हालात का अंदाजा लगा सकते हैं. इस तरह एक शहर के औद्योगिक इलाकों में काम करने वाले दलित और भूमिहीन ग्रामीण दलित, इन दोनों ही समूहों का शोषण पिछले 12 से 15 बरसों में बहुत खराब हुआ है.

इनके अलावा अत्याचारों के मामले भी बढ़े हैं. प्रदेश में मोदी सरकार के दौरान 2003 से 2014 तक 14,500 मामले दर्ज किए गए थे. 2004 में 34 अनुसूचित जाति की महिलाओं का बलात्कार हुआ था, जो 2014 में बढ़कर 74 तक पहुंच गया. 2005 से 2015 के बीच 55 गांवों से दलितों को हिंसक तरीके से बाहर किया गया है. उन्हें वो गांव छोड़ने पड़े जहां वे रहते थे. 55,000 से ज्यादा सफाई कर्मी हैं जो मैला साफ करते हैं. करीब एक लाख सफाई कर्मी हैं जो नगर निगमों में बरसों से न्यूनतम मजदूरी पर काम करते आ रहे हैं और अभी भी स्थायी नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इस तरह एक ओर तो भारी आर्थिक शोषण है और दूसरी तरफ जाति के आधार पर उन्हें जीवन के हर पहलू में दबाया जाता है. 2012 में राज्य पुलिस ने 16, 17 और 21 साल के तीन दलित नौजवानों को इतने बुरे तरीके से पीटा कि एक तरह से उनकी खाल उधड़ गई थी, और बाद में उन्हें एके-47 से गोली मारी गई क्योंकि वे एक दिन पहले हुए अत्याचार के एक मामले में रिपोर्ट दर्ज कराने जा रहे थे. चार बरसों के बाद भी इस मामले में कोई इंसाफ नहीं हुआ है. दलित अत्याचारों के मामलों में गुजरात में कसूर साबित होने की दर महज तीन फीसदी है – 97 फीसदी लोग बस तोड़ दिए जा रहे हैं. उनके लिए गुजरात में कोई इंसाफ नहीं है. यह बात अरसे से मन में जमा होती रही है. जिसने अब एक आंदोलन का शक्ल लिया है.

2015 में आपने एक आरटीआई दायर किया था जिसमें आपने गुजरात में दलितों के बीच जमीन के बंटवारे के बारे में कुछ दिलचस्प संख्याएं शामिल की थीं.
– आरटीआई को लेकर मेरे काम का मुख्य सरोकार भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और दलितों से रहा है, खास कर जमीन के अधिकार से. भारत ऊंची जातियों, ऊंचे वर्गों का एक जमावड़ा है, है न? अगर आप ऑब्जेक्टिवली देखें तो राज्य के सभी अंगों पर ऊंची जातियों और ऊंचे वर्ग की इस जोड़ी का कब्जा है. उत्पादन के सभी साधन उनके हाथों में हैं और खास कर उनका जमीन पर कब्जा है. देहाती इलाकों में ऊंची जातियों का दबदबा खास कर उनके द्वारा जमीन पर कब्जे की वजह से ही है. इसलिए भूमि सुधार बेहद जरूरी हैं.
गुजरात में, खास कर हरेक जिले में, दलितों को हजारों एकड़ जमीन दिया जाना एक मजाक है. यह सिर्फ कागज पर ही हुआ है. मिसाल के लिए, आप कल्पना करें कि मुझे जमीन का मालिकाना दिया गया है. मुझे कागज का एक पर्चा मिलेगा जिसमें लिखा होगा, मैं, जिग्नेश मेवाणी, मेरे पास सर्वे नंबर है जो इसका सबूत है कि मेरे पास एक निश्चित गांव में छह बीघे जमीन है. लेकिन जमीन पर असली कब्जा हमेशा ही ऊंची और प्रभुत्वशाली जातियों का बना रहेगा. इसका मतलब है कि उनको [दलितों को] 1000 एकड़ जमीन मिली है लेकिन सिर्फ कागज पर. असली, जमीनी कब्जे की गारंटी कभी नहीं दी गई.

मेरे मां-बाप बताते हैं कि जब वे सबसे पहले अहमदाबाद रहने आए तो यहां घेट्टो (छावनी) नहीं थे और ये बस हाल की परिघटना है.
– यह मोदी मैजिक है. [2002] दंगों में नरोदा पाटिया, नरोदा गाम, गुलबर्ग, सरदारपुरा और बेस्ट बेकरी में जिस तरह मुसलमानों को मारा गया, इसके बाद उनके पास कोई और विकल्प नहीं था. वे हिंदू इलाकों में किस तरह रहेंगे? वे अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहते और रहने का ठिकाना खोज रहे हैं. आनंदीबेन मेहसाना से आती हैं, प्रधानमंत्री मोदी भी वहीं से आते हैं और राज्य के गृह मंत्री भी वहीं से आते हैं. उसी मेहसाना जिले में पिछले तीन महीनों में, चार गांवों में दलितों का सामाजिक बहिष्कार हुआ है और उन्हें उनके घरों से निकाल दिया गया है. दंगों के नतीजे में मुसलमान भारी तादाद में उन जगहों से उजड़ गए जहां वे पले-बढ़े थे और इन घेट्टो (छावनी) में चले आए. उसी तरह ये मनुवादी ताकतें दलितों को उनके गांवों से जबरन खदेड़ रही हैं.

दलित-मुसलमान एकता के हालिया आह्वान पर आप क्या सोचते हैं?
– यह सचमुच एक अच्छी बात है. मैंने मुकुल सिन्हा और निर्झरी सिन्हा के साथ करीब 8 बरसों तक काम किया है. मुकुल सिन्हा एक जाने माने एक्टिविस्ट और मानवाधिकार वकील थे. वो और उनकी पत्नी निर्झरी सिन्हा गुजरात में मोदी सरकार के मुखर विरोधी थे. निर्झरी अभी जन संघर्ष मंच चलाती हैं, जो उन्होंने शुरू किया था. मैंने 2002 दंगों के बाद होने वाली घटनाओं पर नजर रखी है और मैंने राज्य में मुठभेड़ों में की जानेवाली हत्याओं में अमित शाह और नरेंद्र मोदी की भूमिका पर भी नजर रखी है. इन मुद्दों से मेरा सरोकार ठीक उन्हीं वजहों से था और मैं उन मुद्दों में पड़ा, जिन वजहों से मैंने दलित अधिकारों के लिए काम शुरू किया. इसलिए मैं हमेशा ही चाहता रहा हूं कि एक दलित-मुसलमान एकता का आह्वान किया जाना चाहिए, उन्हें एक मंच पर लाया जाना चाहिए. आने वाले दिनों में इन दोनों समूहों को एकजुट करने के लिए ज्यादा ठोस कदम उठाए जाएंगे.

तो बाकी के देश में हिंदू गिरोहों के सिलसिले में जो हो रहा है उसमें और गुजरात के हालात में आप क्या संबंध और फर्क देखते हैं?
– जबसे मोदी केंद्र में गए हैं, संघ परिवार के छुटभैए समूह ज्यादा सक्रिय हो गए हैं. भ्रष्टाचार, कॉरपोरेट लूट और हिंदुत्व एजेंडा को आगे बढ़ाना भाजपा सरकार का भी मुख्य मुद्दा रहा है. एक बड़ा फर्क यह रहा कि आनंदीबेन आतंक के उस राज को जारी नहीं रख सकीं.

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