श्रीमान, अक्षय कुमार.
आपकी केसरी फिल्म देख कर आ रहा हूँ. क्या जबरदस्त फिल्माकंन है. फिल्म पर अच्छी मेहनत की गयी है. लोकेशन और ड्रेसिंग भी जबरदस्त है. आपकी कलाकारी ने तो फिल्म में 4 चाँद ही लगा दिए है. सायद इसी फिल्म के लिए आपने ये कला सीखी थी. मैने आपकी दर्जनों फिल्मे देखी है लेकिन सबसे बेहतरीन कला इस केसरी फिल्म में देखने को मिली. कलाकार के नाम पर आपको 5 स्टार मिलने चाहिए.
जब इसका ट्रैलर लांच हुआ या उससे पहले जब फिल्म की चर्चाएं मिडिया के माध्यम से आम जनता में आई तो बड़ी उत्सुकता थी की फिल्म में क्या दिखाया जायेगा, क्या संदेश फिल्म जनता को देगी. क्योंकि फिल्म एक ऐतिहासिक घटना पर बन रही थी. फ़िल्में दो तरह की होती है एक फिल्म कहानी पर आधारित और दूसरी इतिहास की सच्ची घटनाओं पर आधारित होती है.
कहानी पर आधारित फिल्म में जो मर्जी हो वो दिखाया जा सकता है. कल्पनाओं के घोड़े जितने दौड़ाना चाहो उतने दौड़ाये जा सकते है और ये सब किया भी जाता है. उसमें जिस कम्युनिटी को चाहे विलेन बनाओ या जिसको चाहे हीरो बनाओ. जैसे गदर – एक प्रेम कथा में भारत का हीरो तारा अकेला एक तरफ और पूरी पाकिस्तान की फ़ौज एक तरफ, अकेला तारा पूरी पाकिस्तानी फौज को खदेड़ देता है. फ़ौज हार जाती है, तारा जीत जाता है. फिल्म सुपरहिट हो जाती है. ऐसी अनेको फिल्मे बनी जो नफरत के कारोबार को बढ़ाने के लिए बनाई गई. फ़िल्मकार बड़े ही शातिर दिमाक से पड़ोसी मुल्क को नीचा दिखाकर, उसको हराकर अपने लोगो को चतुराई से अंधराष्ट्रवाद की तरफ ले जाता है. फ़िल्मकार द्वारा एक खास विचार से प्रेरित होकर एक खास मकसद के लिए ये सब किया जाता है. लेकिन वही दूसरी तरफ ऐसे फ़िल्मकार भी बहुत है जो अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ बिगुल बजाते हैं. वार छोड़ न यार, क्या दिल्ली-क्या लाहौर, वीर जारा जैसी फिल्में भी बनती है जो सच में बेहतरीन फिल्मे होती है. जो नफरत के कारोबार से ऊपर उठकर नफरत को हराने की बात करती है. जिनका मकसद भी बेहतरीन होता है.
इतिहास की फिल्म से अगर छेड़छाड़ करके अगर इतिहास के विपरीत फिल्म बनाई जाए तो ये इतिहास के साथ खिलवाड़ तो है ही, एक भयंकर साजिस और घटियापन भी होता है. ऐसी ही साजिस और घटियापन मुझे आपकी केसरी फिल्म देख कर महसूस हुई. इसलिए बड़े ही गुस्से से ये आपको खुला पत्र लिख रहा हूँ.
इतिहास से छेड़छाड़ के कारण आने वाली नस्ले आपको कभी माफ नही करेगी. वो सवाल करेगी आपसे की कैसे देश और अपनी मिटटी के लिए लड़ने वाले योद्धाओं को आपने बड़ी ही चतुराई से विलेन बना दिया. कैसे बड़ी चतुराई और शातिराना दिमाक से इस ऐतिहासिक घटना को आपने धर्म का चोला पहना कर धार्मिक रंग में रंग दिया. कैसे इस पूरी लड़ाई को क्रांतिकारी बनाम अंग्रेज सत्ता की जगह आपकी फिल्म ने मुस्लिम बनाम सिख बना कर दिखाया है.
मुझे लगता है कि अगर ऐसे ही इतिहास के साथ छेड़छाड़ चलती रही तो वो दिन दूर नही जब गदर पार्टी के क्रांतिकारियों को विलेन और अंग्रेजो की तरफ से गोलियां चलाने वाले सैनिको को सुपर हीरो दिखाया जायेगा या जलियाँ वाला बाग नरसंहार को, सुभाष चंद्र बोष की आजाद हिंद फौज के सैनिकों को मारने वाली बिर्टिश आर्मी जिसमे भारत के ही जवान थे उनको हीरो दिखाया जाएगा या मध्य भारत के आदिवासी जिनका नेतृत्व बिरसा मुंडा कर रहे थे, चटगांव के विद्रोहियों जो सूर्य सेन के नेतृत्व में लड़ रहे थे या अलग-अलग हिस्सो में लड़ने वाले और अपनी जान की कुर्बानियां देने वाले लाखों क्रांतिकारियों को विलेन और इनकी हत्या करने वाले बिर्टिश सैनिको को महान हीरो दिखाया जाएगा.
सारागढ़ी का इतिहास और केसरी फिल्म
सारागढ़ी जो अंग्रेज सरकार की एक महत्वपूर्ण पोस्ट थी जिस पर 36 सिख रेजिमेन्ट के 21 जवानों की तैनाती थी. ये 12 सितम्बर 1897 की बात है. जब ये ऐतिहासिक युद्ध हुआ. (ये भी याद रखना चाहिए की भारतीय जनता द्वारा 1857 का अंग्रेजो के खिलाफ महान विद्रोह हो चूका था.) सारागढ़ी के युद्ध में 21 सिख सैनिक अंग्रेज सरकार की तरफ से लड़ते हुए भारतीय क्रांतिकारी ताकतों के हाथों मारे गए. इस लड़ाई में अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने वाली जनता जो वहां के अफरीदी आदिवासी और पठान शामिल थे भी बड़ी तादात में शहीद हुए. इन शहीदों की याद में फिल्म बननी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य है कि इसके विपरीत इन शहीदों के खिलाफ फिल्म बनती है और इन शहीदों को विलेन दिखाया जाता है. पूरी फिल्म में थोड़ा सा भी आभास नही होने दिया गया कि अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ने वाले ये क्रांतिकारी है जो जल-जंगल-जमीन को बचाने और गुलामी की बेड़िया तोड़ने के लिए लड़ रहे है. इसके विपरीत ये दिखाया गया कि ये लड़ने वाले वहसी धार्मिक दरिंदे है. ये मुस्लिम धर्म के लिए लड़ रहे है न की देश के लिए. इनका नेतृत्व करने वाला धार्मिक नेता तालिबानी है जो महिलाओं पर अत्याचार करता है.
क्रांतिकारियों को वहसी और तालिबानी साबित करने के लिए फ़िल्मकार ने फिल्म में कई सीन डाले है. एक सीन जो ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसकी चर्चा करना अनिवार्य है, जब 10 हजार क्रांतिकारी अंग्रेज सेना से लड़ने आते है. वो सारागढ़ी के मैदान में आकर एक महिला की सरेआम गर्दन कलम कर कत्ल करते है. क्योंकि उस महिला ने मुस्लिम धर्म के किसी नियम का उलघ्न किया है. इसलिए उसको ये सजा दी गयी है. महिला की मौत पर हजारों क्रांतिकारी खुशिया मनाते दिखाये गये हैं. फ़िल्मकार ने ऐसे कई काल्पनिक सीन के माध्यम से इनको दरिंदा और तालिबानी साबित करने की पुरजोर कोशिश की है. ये साबित करने के लिए की वो isisi की तरह थे.
फिल्म के संवाद बहुत कुछ बोलते है –
➢ विद्रोही गुट के नेता द्वारा बोलना की शाम तक सारे सिख सैनिको की पगड़िया मेरे पैरों में होगी.
➢ मुझे इस सिख की चींखें सुननी है लगा दो आग
➢ ईसर सिंह द्वारा युद्ध से पहले अपने सैनिकों से बोलना की आज हम ये लड़ाई अंग्रेजो के लिए नही लड़ेंगे आज हम ये लड़ाई धर्म के लिए लड़ेंगे. इस केसरी पगड़ी के लिए लड़ेंगे. इस पगड़ी के लिए लाखों शहीद हुए है हम उन शहीदों के लिए लड़ेंगे.
➢ सर पर केसरी पगड़ी बांध कर लड़ना.
श्रीमान क्या बताने का कष्ठ करोगे की, सारागढ़ी का युद्ध सिखों के खिलाफ था या अंग्रेजो के खिलाफ.
फ़िल्मकार द्वारा केसरी फिल्म एक राजनितिक साजिस के तहत बनाई गई फिल्म है. इस साजिस का अहम हिस्सा श्रीमान आप हो. क्योंकि एक कलाकार ही अपनी कला के माध्यम से किसी भी कहानी के पात्र को जीवंत करता है. आपने भी अपनी कला के माध्यम से इतिहास के साथ की गयी गड़बड़ी में अहम भूमिका निभाई है. इस पूरी फिल्म में जो शब्दो का इस्तेमाल किया गया है वो एक भयंकर साजिस की तरफ इशारा करती है. कैसे इस फिल्म को सिख धर्म के साथ जोड़ कर उनकी भावनाओं को कैश किया गया है.
सिख धर्म के झंडे के इस्तेमाल की बात हो या सिख गुरुओ की अनमोल वाणियो की बात हो. उन सबको अपने आर्थिक और साम्प्रदायिक राजनितिक फायदे के लिए इस फिल्म में इस्तेमाल किया गया है जो सरासर गलत है. जिसका व्यापक विरोध होना चाहिए. एक खास फासीवादी राजनितिक विचारधारा को फायदा पहुंचाने के लिए इस फिल्म का निर्माण किया गया है. इसी फायदे के लिए इस फिल्म की रिलीज की तारीख भी आचार सहिंता में तय की गयी है. इस शातिराना चाल का विरोध प्रत्येक भारतीय नागरिक को करना चाहिए.
इस पुरे मसले में एक बात समझने की ये भी है कि आदिवासियों और पठानों की फ़ौज जिसकी संख्या 10 हजार थी. अगर आज की जनसंख्या से उसका मूल्यांकन किया जाये तो ये 10 लाख बैठती है. 10 हजार क्रांतिकारी जो अपनी जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए अंग्रेज सरकार से लड़ रहे थे. जो गुलामी की बेड़िया तोड़ कर एक नई सुबह में आजादी की साँस लेना चाहते थे. ये एक जन विद्रोह था जिसको अंग्रेज सरकार ने ईशर सिंह जैसे सैनिको की मदद से इन क्रांतिकारियों के सपनों को अपने लोहे की एड़ियों से कुचला, इनका दमन किया. इस जन विद्रोह के 122 साल बाद 2019 में श्रीमान आपने भी अपनी कला के जरिये उनके सपनों को कुचलने की कोशिश की है.
मै ऐसे किसी भी ईशर सिंह जो किसी भी कौम से हो. वो चाहे कितना भी बहादुर क्यों न हो, को महान या योद्धा नही मानूँगा, जिसने अपनी बहादुरी साम्राज्यवाद की गुलामी की बेड़िया तोड़ने में न लगाकर बेड़ियों को ओर ज्यादा मजबूत करने में लगाई हो. महान योद्धा वो सैनिक नही थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार की गुलामी की बेड़िया पहन कर अपनी बहादुरी जन विद्रोह को कुचलने में दिखाई. उनको बहादुरी की नही गद्दार की संज्ञा दी जायेगी.
महान और बहादुर योद्धा
1857 के महान विद्रोह के विद्रोही, गदर पार्टी के हजारों सिख योद्धा, सारागढ़ी के आदिवासी और पठान, बिरसा मुंडा, चटगांव के महान क्रांतिकारी सूर्यसेन, भगत सिंह, आजाद, लक्ष्मी बाई, लाखो बागी विद्रोही महान और बहादुर थे जिन्होंने विश्व की सबसे मजबूत साम्राज्यवादी ताकत जिनका कभी सूर्य अस्त नही होता था के खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान की कुर्बानिया दी. ऐसे बहादुर योद्धाओं को सलाम.
आप और आपकी साम्प्रदायिक विचारधारा जितना चाहे जोर लगा ले इतिहास को बदलने का लेकिन आप उस खून को दबाने या मिटाने में कामयाब नही होंगे जिन्होंने आजाद साँस के लिए खून बहाया था और आज भी खून बहा रहे है.
इंक़लाब जिंदाबाद…
Uday Che

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