”वो हमसे वोट लेते हैं, चुनाव जीतते हैं, लेकिन बदले में वो हमें क्या देते हैं? कुछ नहीं. वो हमें कुछ नहीं देते. हम गोबर के कीड़ों जैसे हैं. अंबेडकर बाबा बोलकर गए थे कि गोबर के कीड़ों की तरह मत रहो लेकिन ये लोग हमें ऐसे रहने का मजबूर करते हैं.”
मध्य प्रदेश के महू शहर में रहने वाली कामनीबाई गावई अपने हालातों को कुछ इस तरह बयां करती हैं. मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इससे पहले जनता का हाल जानने की कड़ी में हम महू शहर में रुके. महू में डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर का जन्म हुआ था. कामिनीबाई हाट मैदान के पास दलित-आदिवासी इलाके में रहती हैं जो महू शहर के मध्य में है. इस इलाके का नाम बुद्ध नगर है.
यहां पर एक-दूसरे सटे आधे से एक फुट चौड़े और 10-12 मीटर लंबे पांच घर हैं. असल में वहां घर ही नहीं हैं बल्कि ये 100-150 वर्ग फीट की कच्ची झोपड़ियां हैं. इनमें से एक या दो घरों को अपवाद कह सकते हैं. किसी भी घर में खिड़की नहीं है. छतों पर ढकी परतों के कोनों से थोड़ी धूप आ जाती है. इन घुटन भरे कमरों में बदबू आती रहती है. 70 साल की कामिनीबाई अंबेडकर की जन्मस्थली को देखने के लिए अपने पति के साथ महू आई थीं और फिर यहीं की होकर रह गईं. वह यहां पर 50 सालों से ज़्यादा समय से रह रही हैं.
उनके बच्चों की शादी भी यहीं हुई है. उनकी बहू, दामाद और पोते-पोतियां हैं.
अंधेरे में घर और ज़िंदगी
वह पतली गलियों से होते हुए मुझे अपने घर लेकर गई. उनके छोटे से कमरे में अंधेरा था और कुछ भी साफ नहीं दिख रहा था. जब मैंने बहुत ध्यान से देखा तो वहां उनकी बेटी और बेटी के बच्चे चारपाई पर बैठे थे. बेटी छुट्टियों में अपनी मां के घर आई हुई थीं. फिर मैंने और देखने की कोशिश की तो एक गैस सिलिंडर और चारपाई के पास स्टोव, कुछ बर्तन और रस्सी पर टंगे कपड़े नज़र आए. वहीं, बाबा साहेब अंबेडकर की फोटो भी लगी थी.
कामनीबाई कहती हैं, ”मैं कूड़ा उठाकर पैसे कमाती हूँ. मेरी बेटी यहां आई है लेकिन मेरे पास उसे साड़ी दिलाने के पैसे नहीं है. मुझे उधार लेना पड़ेगा लेकिन ब्याज़ चुकाने में बहुत मुश्किल आती है. मुझे उसे साड़ी देनी होगी इसलिए अब सोच रही हूं कि कहीं और से पैसे मिल जाएं.” ऐसे हालात में जीने वालों में यहां कामनीबाई अकेली नहीं हैं. हर कोई यहां ऐसी ही ज़िंदगी जी रहा है. अधिकतर लोग कूड़ा बीनकर और घरों में सफाई का काम करके ही घर चलाते हैं. इसके बाद हम स्थानीय दलित नेता मोहनराव वाकोड़े के पास गए और लोगों के इस हाल के बारे में बात की.
उन्होंने कहा, ”यहां लोगों की स्थिति दयनीय है. वहां कोई नहीं जाता. उन्हें कई योजनाओं का फायदा नहीं मिलता. देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है लेकिन यहां उसका नामोनिशान तक नहीं है. यहां रहने वाले लोग इंदौर शहर की सफाई करते हैं और इंदौर देश का सबसे साफ शहर है लेकिन कोई भी इन लोगों का ध्यान नहीं रखता.”
दलितकोई मुद्दा ही नहीं
महू शहर की कुल जनसंख्या एक लाख है जिनमें से 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति से हैं. इन 15 प्रतिशत में से करीब 5000 महाराष्ट्र से आप्रवासी हैं जो महू में रहने लगे हैं. अधिकतर आप्रवासी अकोला या उसके आसपास के इलाकों से हैं.
महू में कामनीबाई और अन्य दलितों की बदहाली, मध्य प्रदेश में दलित राजनीति की झलक देती है. दूसरे राज्यों के मुक़ाबले मध्य प्रदेश में दलित राजनीति की ख़ास जगह नहीं है. बीजेपी और कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में दलितों के लिए कई वादे किए हैं. लेकिन, असल चुनावी अभियान में दलित मुद्दा केंद्र में तो छोड़ो उसके आसपास भी नहीं है.
स्थानीय अख़बार ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ के संपादक प्रकाश हिंदुस्तानी कहते हैं, ”इस क्षेत्र में दलित राजनीति अपने आप में पिछड़ी हुई है. इस राज्य में महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसी दलित राजनीति नहीं होती. यहां ग्रामीण और कृषि संबंधी मुद्दे प्रमुख हैं. आदिवासियों की जनसंख्या ज़्यादा है. यहां तक कि भानुसिंह सोलंकी जैसा सिर्फ़ एक नेता उप-मुख्यमंत्री के पद पर पहुंच पाया है. और किसी को ऐसी सफलता नहीं मिली.”
पिछले विधानसभा चुनावों में मायावती की बहुजन समाज पार्टी के चार विधायक जीते थे. पार्टी को सिर्फ 6.5 प्रतिशत वोट मिले थे. प्रकाश हिंदुस्तानी मानते हैं, ”अनुसूचित जाति के लोग चुप रहने वाले मतदाता हैं. वह आमतौर पर सामने नहीं आते हैं लेकिन पोलिंग के दौरान पूरी तरह काम करते हैं. ‘सपाक्स’ और ‘जयास’ यहां उभरकर आए हैं लेकिन बीएसपी को अब भी बढ़त हासिल है.”
क्या है सपाक्स और जयास
‘सपाक्स’ का मतलब है ‘सामान्य, पिछड़ा-वर्ग अल्पसंख्यक कल्याण समाज’. यह सेवानिवृत्त हो चुके सरकारी अधिकारियों का संगठन है. उन्होंने पदोन्निति में आरक्षण के विरोध में ओबीसी और अल्पसंख्यकों को इकट्ठा किया था. इस संगठन ने भी आने वाले चुनाव में उम्मीदवार उतारे हैं.
‘सपाक्स’ एक तरह से ‘अजाक्स’ के विरोध में बनाई गई है. अजाक्स राज्य सरकार में काम करने वाले अनुसूचित जाति के अधिकारियों का संगठन है.
वहीं, ‘जयास’ का मतलब है ‘जय आदिवासी शक्ति संगठन’. इस संगठन ने आदिवासी इलाकों से आदिवासियों को एकजुट करने की कोशिश की है. लेकिन, संगठन इन चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन कर रहा है. लेकिन ‘जयास’ के विरोध में कोई अनुसूचित जाति का संगठन क्यों नहीं है? हमने ये सवाल स्थानीय एससी नेता जी.डी. जारवाल से पूछा.
उन्होंने कहा, ”बड़ी पार्टियों के नेताओं ने दलित नेतृत्व को दबाया है. कई बार दलित नेता ख़ुद को सिर्फ़ अपनी पार्टी तक सीमित कर लेते हैं. वह समाज के मुक़ाबले पार्टी के प्रति ज़्यादा समर्पित रहते हैं.” जारवाल ख़ुद कांग्रेस के लिए काम करते हैं. हमने उनसे पूछा कि एक दलित नेता होने के नाते क्या उन पर भी यही बात लागू होती है क्योंकि उन्होंने भी चुनाव नहीं लड़ा है.
इस पर जारवाल कहते हैं, ”कई बार आर्थिक मुश्किलें होती हैं. एक संगठन को बनाने के लिए पैसे की जरूरत होती है. हम कहां से इतने पैसे लाएंगे? यह गरीब समाज है. परिवार में सिर्फ़ एक ही सदस्य कमाने वाला होता है. अगर आर्थिक हालत मजबूत होते हैं तो लोगों को दूसरी चीजों पर ध्यान देने और संगठन बनाने के लिए ज़्यादा समय मिलता है. बाकी जो लोग आर्थिक रूप से मजबूत हैं वो इन लोगों और ऐसी जगहों पर जाना नहीं चाहते.”
जारवाल इसके बारे में और बताते हैं, ”राज्य में दलित समुदाय तीन श्रेणियों में बंटा हुआ है. पहली श्रेणी में वो लोग हैं जो आरक्षण से मिली स्थायी नौकरी या स्थिर ज़िंदगी जी रहे हैं. दूसरी श्रेणी में वो हैं जिन्हें शिक्षा मिल रही है और तीसरी श्रेणी मजदूरी करने वालों की है.”
”पहली श्रेणी को किसी संगठन या अभियान से कोई लेना-देना नहीं है. दूसरी श्रेणी को अपने करियर की ज़्यादा चिंता है इसलिए वो ऐसे संगठन या अभियान का हिस्सा नहीं बनते. वहीं, तीसरी श्रेणी अपनी रोजी-रोटी का इंतज़ाम ही करती रह जाती है. अब ऐसे हालात में कैसे कोई संगठन या नेता पनप सकता है?”
जारवाल एक और बात की तरफ ध्यान दिलाते हैं. वह कहते हैं, ”मध्य प्रदेश में दलित समुदाय कई जातियों में बंटा हुआ है. समुदाय में कोई एक संगठित आवाज़ नहीं है. कुछ अनुसूचित जातियां जैसे महार, अहीर, जाटव, बर्वा, कोरी, खटिक, रेगर, मालवीय बलाई बड़ी जातियां हैं. लेकिन, उनमें एकजुटता व सामंजस्य नहीं है और न ही कोई उस दिशा में कोशिश करता है.”
क्या सोचता है दलिता युवा
इस सामाजिक ढांचे के साथ मध्य प्रदेश में दलित राजनीति की क्या स्थिति है?
एक दलित युवक विवेक मुराडे कहते हैं, ”यहां कोई दलित राजनीति नहीं है बल्कि दलितों के ख़िलाफ़ राजनीति की जाती है. नेता अपने दलित पड़ोसियों को ही देखने नहीं जाना चाहते.”
बर्वा जाति से आने वाले विवेक के पास एमकॉम की डिग्री है और वह एक फाइनेंस कंपनी में काम कर रहे हैं. उन्हें हर महीने 15 हजार रुपये तनख़्वाह मिलती है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले अपने परिवार में पहले व्यक्ति हैं.
विवेक एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां लोगों के बीचे कोई भेदभाव न हो और सबके साथ एक-सा व्यवहार किया जाए. सबके लिए समान नियम हों.
विश्लेषक क्या कहते हैं
महू में डॉ. बीआर आंबेडकर यूनिवर्सिटी में कुलपति डॉ. सीडी नाईक कहते हैं, ”इस राज्य में दलितों का कोई संगठन नहीं है. कुछ संगठन हैं भी तो उनके नेता अन्य दलों के साथ सौदेबाजी में व्यस्त रहते हैं. कुछ उभरते नेता सौदेबाजी में माहिर हैं.”
लेकिन डॉ. नाईक को लगता है कि ये हालात तेजी से बदल रहे हैं. बिरसा मुंडा, तांत्या भिल्ला जैसे आदिवासियों के प्रतिमानों की तरह भीमराव आंबेडकर भी यहां आदर्श हैं. दलित युवा आदिवासियों के साथ काम रहा है. शिक्षित युवा सोचता है कि उसे अपना नेतृत्व खुद बनाना है इसिलए वो अब सक्रिया हो गए हैं.
डॉ. नाईक कहते हैं, ”इस राज्य के दलित युवाओं में जिस जोश की कमी थी वो अब पूरी हो रही है. डॉ. आंबेडकर का कहना था, शिक्षित हों , संगठित हों और लड़ें. इसे लागू होने में अभी समय लगेगा. लेकिन, मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चल रही है. कोई नहीं कह सकता कि ये कब उभरकर सामने आएगी लेकिन निकट भविष्य में एक संगठन जरूर आएगा.”
साभार- बीबीसी हिन्दी
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