Sunday, June 8, 2025
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जानिए, संतों में क्यों सर्वश्रेष्ठ थे संत रविदास

गुरु रविदास का जन्म बनारस के नजदीक मांडुर गढ़ (महुआडीह) नामक स्थान पर हुआ था. मध्यकालीन संतों, जिसमें तुकाराम, नरसी-दादू, मेहता, गुरूनानक, कबीर, चोखा मेला,पीपादास आदि शामिल है, इन सन्तों में सदगुरू रैदास का स्थान श्रेष्ठ है. इसी कारण उनको संत शिरोमणि भी कहा जाता है. ये चमार जाति में पैदा हुए. गुरुग्रंथ साहिब में संकलित रविदास के पदों में उनकी जाति चमार होने का उल्लेख बार-बार आया है. गुरु रविदास जी के पिता का नाम संतोख दास और करमा देवी था.

चेतना, जन आन्दोलन, समतामूलक समाज की परिकल्पना, मानव सेवा आदि क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए सन्त शिरोमणि रैदास का नाम बड़े आदर तथा सम्मान के साथ लिया जाता है. रैदास सामाजिक सुधार के लिए जीवन पर्यन्त जूझते तथा रचनात्मक प्रयत्न करते रहे. सामाजिक समानता, समरसता लाने के लिए वो अपनी वाणियों के माध्यम से तत्कालीन शासकों को भी सचेत करते रहे. घृणा और सामाजिक प्रताड़नाओं के बीच सन्त रैदास ने टकराहट और भेदभाव मिटाकर प्रेम तथा एकता का संदेश दिया. उन्होंने जो उपदेश दिये दूसरों के कल्याण व भलाई के लिए दिये और उनकी चाहत एक ऐसा समाज की थी जिसमें राग, द्वेष, ईर्ष्या, दुख, कुटिलता का समावेश न हो.

संत शिरोमणि रैदास कहते हैं:-

ऐसा चाहूं राज्य मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट, बड़ों सभ सम बसै, रैदास रहे प्रसन्न।।

वैचारिक क्रान्ति के प्रणेता सदगुरू रैदास की एक वैज्ञानिक सोच हैं, जो सभी की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता देखते हैं. स्वराज ऐसा होना चाहिए कि किसी को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो, एक साम्यवादी, समाजवादी व्यवस्था का निर्धारण हो इसके प्रबल समर्थक संत रैदास जी माने जाते हैं. उनका मानना था कि देश, समाज और व्यक्ति की पराधीनता से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है. पराधीनता से व्यक्ति की सोच संकुचित हो जाती है. संकुचित विजन रखने वाला व्यक्ति बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय की यथार्थ को व्यवहारिक रूप प्रदान नहीं कर सकता है. वह पराधीनता को हेय दृष्टि से देखते थे और उनका मानना था कि तत्कालीन समाज व लोगों को पराधीनता से मुक्ति का प्रयास करना चाहिए.

सन्त रैदास के मन में समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति आक्रोश था. वह सामाजिक कुरीतियों, वाह्य आडम्बर एवं रूढ़ियों के खिलाफ एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की मांग करते थे. उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक समाज में वैज्ञानिक सोच पैदा नहीं होगी, वैचारिक विमर्श नहीं होगा. और जब तक यथार्थ की व्यवहारिक पहल नहीं होगी, तब तक इंसान पराधीनता से मुक्ति नहीं पा सकता है.

उन्होंने कर्म प्रधान संविधान को अपने जीवन में सार्थक किया. सन्त रैदास ने सामाजिक परम्परागत ढांचे को ध्वस्त करने का प्रयास किया. रैदास कहते हैं:-

रविदास ब्राह्मण मत पूजिए, जेऊ होवे गुणहीन।
पूजहिं चरण चंडाल के जेऊ होवें गुण परवीन।।

इस वैज्ञानिक विचारधारा से तत्कालीन प्रभाव से समाज को मुक्ति मिली और आज भी इस विचारधारा का लाभ समाज को मिलता दिखाई दे रहा है. बल्कि 21वीं सदी में इसकी सार्थकता और भी बढ़ गयी है. समाज सुधार की आधारशिला व्यक्ति का सुधार है. सबसे पहले व्यक्ति को नैतिक दृष्टि से सीमाओं से ऊपर उठकर विवेक, बुद्धि आदि इस्तेमाल करना चाहिए, तभी समाज उन्नत हो सकेगा. व्यक्तिगत सद्चरित्रता, स्वच्छता तथा सरलता पर ध्यान देना चाहिए.

अपनी क्रान्तिकारी वैचारिक अवधारणा, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना तथा युग बोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के कारण उनका धम्म दर्शन लगभग 600 वर्ष बाद आज भी प्रासंगिक है. सन्त रैदास अपने समय से बहुत आगे थे. वह समतामूलक समाज की कल्पना करते थे और मानते थे कि यह तभी संभव है जब सभी के सुख-दुःख का ख्याल रखा जाए. अज्ञानता के कारण प्रभाव स्थापित करने में लोग विभेद करते हैं. रैदास कहते हैं कि सभी जन एक ही मिट्टी के बने हैं और सभी के लिए ज्ञान का मार्ग खुला हुआ है.

संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु के रुप में भी जाना जाता है जो कि राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी. वो संत रविदास के अध्यापन से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी. सिक्ख धर्मग्रंथ में उनके पद, भक्ति गीत और दूसरे लेखन (41 पद) आदि दिये गये थे. गुरु ग्रंथ साहिब जो कि पांचवें सिक्ख गुरु अर्जन देव द्वारा संकलित की गयी. सामान्यत: रविदास जी के अध्यापन के अनुयायी को रविदासिया कहा जाता है और रविदासिया के समूह को अध्यापन को रविदासीया पंथ कहा जाता है.

 

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