परिनिर्वाण दिवस विशेषः बहुजन पुर्नजागरण के सूत्रधार बने थे फुले

महात्मा ज्योतिबा फुले भारत के इतिहास में एक ऐसा नाम हैं, जिन्होंने भारतीय के शूदों और स्त्रियों की स्वतंत्रता और समानता की पुरजोर वकालत की थी. फुले ने अपना सार्वजनिक जीवन 1848 में शुरु किया और 28 नवंबर 1890 को अपने जीवन के आखिरी दिन तक वह बहुजन (दलित-पिछड़े-स्त्रियां) समाज के कल्याण में लगे रहे. फुले आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे. फुले की कथनी-करनी में कोई फर्क नहीं था. फुले अपने समय की राष्ट्रव्यापी समस्याओं से भिड़े. उन्होंने धर्म, जाति तथा जेंडर के सवाल पर, कर्मकाण्ड, किसानों की समस्या और ब्रिटिश शासन आदि पर चिंतन किया.

वे एक दार्शनिक, नेता और महान संगठनकर्ता थे. यही वजह थी कि उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा और दलित मुक्ति के लिए काफी काम किया. सामाजिक ब्राह्मणवादी मान्यताओं का फुले ने हमेशा विरोध किया. यही वजह रही कि जब उस दौर में सामंतियों ने दलितों के पानी पर प्रतिबंध लगाया तो उन्होंने व्यवस्था का विरोध करते हुए उनके लिए अपने घर का जलाशय खोल दिया.

फुले अमेरिकन लोकतंत्र और फ्रांसीसी क्रांति के मूल सूत्र- समानता, स्वतंत्रता और बंधुता से बहुत प्रभावित थे. वे टामस पेन की कृति ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ से बहुत प्रभावित थे. स्त्रियों और पिछड़े वर्ग का शोषण और मानव अधिकार की समस्याओं पर फुले ने गंभीर चिंतन किया और उसका मानवीय स्तर पर समाधान करने के लिये ताउम्र प्रतिबद्ध रहे. फुले ने बुद्ध के सामाजिक न्याय और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के दर्शन को आगे बढाया. फुले अपनी मुक्तगामी दर्शन के आधार पर 19वीं सदी के महान चिन्तक जे. एस मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की कतार में खड़े होते हैं. फुले मानते थे कि क्रांतिकारी विचार क्रांतिकारी कार्यों से ही आंके जाते हैं. फुले ने देश के अद्विज लोगों (दलित एवं पिछड़े) को शूद्र-अति शूद्र माना. उन्होंने इन्ही वर्गों को क्रांति का पहरुआ कहा और इसी समुदाय को गुलामी से मुक्त करने के लिये काम करना शुरू किया.

फुले आधुनिक दर्शनशास्त्र के पिता समझे जाने वाले देकार्ते के समकक्ष माने जाते थे. देकार्ते ने सभी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसा. वैसे ही फुले ने भारतीय समाज का अध्ययन तार्किक आधार पर ही किया. उन्होंने भारतीय दर्शन का आधुनिकीकरण किया. फुले ने पहली बार धर्म, योग, वेदांत और बुद्ध दर्शन के इतर शोषण और असमानता का चिंतन किया. योग में व्यक्ति के मानस के सुधार की बात की गयी है जबकि फुले का चिंतन सार्वजानिक कल्याण के लिए था.

वेदान्त में माया और यथार्थ का चिंतन किया गया. फुले ने इस दर्शन को ख़ारिज कर दिया और अविद्या को ही सभी दुखों का कारण बताया और सच्चे ज्ञान को ही समता और बंधुता का आधार बताया. फुले दुःख का कारण ऐतिहासिक या मानसिक नहीं मानते थे, बल्कि वे गैर-बराबरी पर आधारित भारतीय सामाजिक ढांचे को दुख का कारण मानते थे. उनका मानना था कि जिस दिन ये सामजिक ढांचा ख़त्म हो जाएगा व्यक्ति स्वतंत्र तथा आधुनिक हो जायेगा.

फुले 1858 में शैक्षणिक संस्थानों से अलग होकर सामाजिक सुधारों की तरफ अग्रसर हुये. वह 1876 में पुणे नगर निगम के पार्षद बने. ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया. उनके योगदान के चलते बाम्बे में 1888 में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी. उन्होंने साहित्य के जरिए जहां द्विज व्यवस्था पर धावा बोला तो बहुजन समाज को जगाने का भी काम किया. फुले ने अपनी रचनाओं में धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लिखा और खुली सभाओं में संवाद किया. फुले ने कई गीतों और पावडों की रचना की जिनका आधार सामाजिक-धार्मिक समस्याएं थी.

फुले ने मूर्ति-पूजा और परम ब्रह्म की अवधारणा को ख़ारिज किया और पाखंडी धर्म, मूर्ति पूजा और जाति-व्यवस्था को समृद्ध भारत के पतन का कारण माना. फुले ने अपनी पुस्तक ‘सार्वजानिक धर्म सभा’ में इन समस्याओं का विकल्प दिया. प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ओम्वेट ने अपनी रचना ‘औनिवेशिक समाज में सांस्कृतिक विद्रोह’ में फुले को भारतीय पुनर्जागरण का सूत्रधार माना है. फुले के जीवन के कई पहलू थे. वह भिन्न-भिन्न समय पर शिक्षा के लिए आंदोलन करने वाले, सामाजिक आंदोलनकर्ता और भेदभावपूर्ण भारतीय व्यवस्था के विरोधी रहें.

जन्म

आधुनिक भारत के निर्माता और ‘सामाजिक क्रांति के पिता’ महात्मा ज्योतिराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में माली समाज में गोविंदराव जी के घर पर हुआ था. ज्योतिबा फुले के पिता का नाम गोविन्द राव और माता का नाम चिमणा बाई था. फुले के बड़े भाई का नाम राजाराम था. फुले जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. फुले का लालन-पालन सगुनाबाई नामक एक विधवा जिसे ज्योतिबा के पिता मुंहबोली बहन मानते थे, ने किया.

शिक्षा के प्रति लगाव

फुले को सात वर्ष की आयु में स्कूल में पढ़ने भेजा गया उन्हीं दिनों ऐसा हुआ कि \””बम्बई नैटिव एजुकेशन सोसाइटी\”” के संकेत पर सोसाइटी के विद्यालय से छोटी जाति के छात्रों को निकाल दिया गया. जाति व्यवस्था में फुले माली जाति के थे, सो बालक ज्योति फावड़ा और खुरपी लेकर खेतों में लग गए तथा पेशेगत कार्य को आगे बढ़ाने लगे. बचे हुए समय में वह किताबें पढ़ते थे. इनकी इस लगन को देखकर आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने में उनके दो पड़ोसियों गफ्फार बेग मुंशी एवं फ़ादर लिजीट ने उन्हें काफी सहयोग किया. उन्होंने बालक फुले की प्रतिभा एवं शिक्षा के प्रति रुचि देखकर उन्हें पुनः विद्यालय भेजने का प्रयास किया. फुले फिर से स्कूल जाने लगे. वह स्कूल में सदा प्रथम आते रहे. ज्योतिराव ने 1841 में पुणे के स्काटिश मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया. स्कॉटलैंड के मिशन द्वारा संचालित स्कूल में फुले ने अधिकतर शिक्षा ग्रहण की.

फुले जार्ज वाशिंगटन और छत्रपति शिवाजी की जीवन कथाएं पढ़ते थे. इस दौरान वे गुलामी की जकड़न को समझने लगे थे. फुले अपने अन्य मित्रों के साथ मिलकर अंधविश्वास तथा मिथ्या कुरीतियों में फंसे लोगों को इससे मुक्त होने के लिए प्रेरित करते रहते थे. ज्योतिराव 13 वर्ष के थे तभी उनका विवाह सावित्रीबाई से हो गया था. सावित्रीबाई को ज्योतिराव फुले ने घर में ही पढ़ाया और उन्हें आधुनिक शिक्षा दी. बाद में सावित्रीबाई भारत की प्रथम महिला शिक्षक बनी.

जाति व्यवस्था का सामना

1848 में हुयी घटना ने ज्योतिराव को झकझोर दिया. एक ब्राह्मण साथी ने बरात में ज्योतिराव फुले को आमंत्रित किया था. बारात में जब उनकी जाति का पता लगा तो उन्हें अलग बैठाया गया. लोगों ने उनका अपमान किया. इससे बालक ज्योतिराव के मन को गहरी चोट लगी. इस घटना के बाद ज्योतिराव ने प्रण किया वे अपनी जिंदगी पिछड़े और महिलाओं के उत्थान में लगा देंगे.

शिक्षा के क्षेत्र में योगदान

19वीं सदी में जाति-व्यवस्था ने मानव अधिकारों को कुंद कर दिया था. जाति-व्यवस्था के चलते एक मनुष्य दुसरे के साथ खाने-पीने, चलने-बोलने पर समानता का व्यवहार नहीं कर सकता था. समाज के निचले वर्ग को उच्च शिक्षा प्राप्त करना व्यवस्था खिलाफत माना जाता था. फुले ने  इस व्यवस्था के खिलाफ जेहाद कर दिया. ज्योतिराव फुले इस बात को अच्छी तरह समझ चुके थे कि शूद्र-अतिशूद्रों की स्थिति सिर्फ शिक्षा के जरिए ही सुधर सकती है. फुले साहब का प्रथम उद्देश्य था- एक समान प्राथमिक शिक्षा. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए शिक्षक की योग्यता और पाठ्यक्रम पर ध्यान दिया.

21 वर्ष की आयु में ज्योतिबा फुले ने महाराष्ट्र को एक नये ढंग का नेतृत्व दिया. जनवरी, 1848 में ज्योतिराव ने पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला. तब पिछड़े वर्ग की लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था. उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी समाज के महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. पिछड़े समाज की लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी. नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया.

गृह त्याग के बाद पति-पत्नी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. परन्तु वह अपने लक्ष्य से डिगे नहीं. यहां तक की उन्हें जान से मारने की कोशिश भी की गई. उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. लेकिन फुले ठहरे जिद्दी. वह इससे डिगे नहीं बल्कि सामाजिक बहिष्कार का जवाब उन्होंने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया. दो वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने के बाद फुले ने 3 जुलाई 1953 को एक दूसरा विद्यालय पूना के अन्नासाहेब चिपलूणकर भवन में खोला. उन्होंने महाराष्ट्र भर में कुल 18 विद्यालय शुरू किए. उनके विद्यालय को जब कोई अध्यापक नहीं मिल रहे थे तो उन्होंने इस कार्य के लिए अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया जिसके बाद वह स्कूल में पढ़ाने लगीं.

इससे सवर्णों के क्रोध की कोई सीमा न रही. सावित्रीबाई फुले जब स्कूल जाती थी तो लोग उन पर ढेले चलाना शुरू कर देते थे, उन पर कीचड़, कंकड़-पत्थर फेकते थे. साड़ी गन्दी हो जाया करती थी इसलिए वो एक साड़ी हमेशा साथ ले कर चलती थी जिसे वह स्कूल में पहुंच कर बदल लेती थी. इसी संघर्ष के कारण माता सावित्रीबाई फुले को भारत की महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त है. उनके लिए शिक्षा सामाजिक बदलाव का एक माध्यम थी. उनके इसी योगदान के कारण बाबासाहेब अम्बेडकर फुले को अपना गुरु मानते हैं. उनका मानना था सामाजिक बदलाव की निरंतरता तभी बनी रह सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को पूरी शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त हो. विद्या की महता को फुले ने अपने शब्दों में रोचक तरीके से बताया. बकौल फुले-

विद्या बिना मति गयी
मति बिना गति गयी
गति बिना नीति गयी
नीति बिना संपत्ति गयी
इतना घोर अनर्थ मात्र
अविद्या के ही कारण हुआ।

ब्रिटिश सरकार ने किया था सम्मानित

फुले शूदों और स्त्रियों की शिक्षा के लिए जो कार्य कर रहे थे, सवर्ण समाज के लोग उससे खासे नाराज थे. हालांकि तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने फुले जी के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों की प्रशंसा की. 19 नवंबर, 1852 को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह में 200 रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर फुले का सम्मान किया. साथ ही उन्होंने महात्मा फुले को एक महान समाज सेवी के रूप में मान्यता दी.

फुले के कार्यों की सर्वसमाज में सराहना

सन् 1852 में ही फुले ने पिछड़ों के लिये एक वाचनालय की स्थापना भी की. तब कुछ समाज सेवी ब्राह्मणों ने भी फुले की नीतियों से प्रभावित होकर उनका सहयोग करना प्रारम्भ कर दिया. इससे रूढ़िवादी और समाज सेवी ब्राह्मणों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी. 19 फरवरी 1852 के \””टेलीग्राफ एंड कोरियर\”” पत्र में एक पर्यवेक्षक ने लिखा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि \”ब्राह्मण छोटी जातियों के भयानक शत्रु थे किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने यह भी अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है कि उनके पूर्वजों ने इन जातियों के लोगों को अनगिनत अघात पहुचाएं है.\”

रचनाकार के रूप में फुले

महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है. उनकी किताब ‘किसान का कोड़ा’ उस समय के किसानों, जिन्हें फुले ने कुंडबी (कुर्मी) लिखा; उनकी बदहाली का चित्रण किया है. फुले ने छत्रपति शिवाजी को किसानों का प्रेरणास्रोत बताया.

फुले महाराष्ट्र के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी के पराक्रम, साहस और कुशलता पर गीत लिखे. उन्होंने शिवाजी के महान आदर्शों का वर्णन किया. शिवाजी के राज्यकाल में किसान ही उनकी सेना में सिपाही होते थे. शिवाजी स्वयं एक कुर्मी-किसान परिवार से थे इसलिये वे किसानों को अपने परिवार का अंग मानते थे. फुले जी छत्रपति शिवाजी को ‘लोकराजा’ बोलते थे. फुले ने अपनी रचनाओं में पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. गरीब किसानों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया.

उन्होंने आज से 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की. जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था. धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी. इसमें तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पखड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत आदि है. 1873 में उनकी महान रचना ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुयी.

स्त्री अधिकार के लिए फुले का आंदोलन

स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे. मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं. लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा. उन्होंने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की और ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया. इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली. वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे. प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था, लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था. इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं. हालांकि तब वो धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन उन्होंने एक महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने का समर्थन किया.

फुले को विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन का जनक माना जाता है. उन्होंने विधवाओं के लिए अपने आश्रम खोले और बाल विवाह प्रथा को बंद करवाने के लिए आन्दोलन किया. फुले दम्पति ने विधवाओं के पुनर्वास और अनाथ बच्चों के लिए कई अनाथालय खोले. यहां तक कि 1873 में  एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को उन्होंने गोद लिया और उसका नाम  यशवंत फुले रखा. उन्होंने विधवा नारी के उद्धार का कार्यक्रम बनाया. उनकी देखरेख में 8 मार्च 1860 में एक विधवा युवती का विवाह कराया गया. फुले के इस प्रयास से एक नयी क्रांति का उदय हुआ. उनके समय में महिलाओं और पिछड़ी जातियों के लिए पढ़ाई करना दिन में सपने देखने जैसा था. लेकिन फुले महिला मुक्ति के बंद दरवाजे पर जोर की ठोकर मारने में सफल रहे.

फुले का स्त्रीवादी चिंतन

फुले का स्त्रीवादी चिंतन उन्हें महान चिंतकों मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की बराबरी पर खड़ा करता है. फुले अपने समय के पुरुष समाज सुधारकों से ज्यादा प्रगतिशील साबित होते हैं. फुले ने स्त्री के शोषण का आधार धार्मिक के साथ सामाजिक तथा आर्थिक माना और धर्म के इतर स्त्री विमर्श को स्वतंत्र चिंतन के रूप में स्वीकारा. जहां मिल ने व्यक्तिवाद को आधार बनाकर स्त्री-पुरुष असमानता पर चिंतन किया और पुरुष की भांति स्त्री को भी एक इकाई माना. एक सभ्य समाज के लिये स्त्री-पुरुष की बराबरी को आवश्यक बताया. फ्रेडरिक एंगल्स ने अपनी कृति ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में स्त्री की शोषण की ऐतिहासिक दास्ता का वर्णन किया है.

एंगल्स ने धर्म की जगह आर्थिक कारणों को स्त्री के शोषण के लिये जिम्मेदार माना और उसे वर्गीय शोषण के रूप चिन्हित किया. फुले ने भी एंगल्स की भाति स्त्री के शोषण का आधार आर्थिक माना यद्यपि फुले ने वर्गीय आधार की जगह जाति को आधार माना जो भारतीय ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ है.

फुले ने मिल की भांति स्त्री को पुरुष के जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और मानव अधिकारों लिये योग्य पाया. इसके लिये फुले ने पहली बार केवल छात्राओं के लिये विद्यालय खोले. विधवाओं के पुनर्वास के लिये आश्रम खोले गए. तब ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शोषण की शिकार विधवाएं अपनी पहचान गुप्त रखकर वहां अपने बच्चो को दे सकती थी. फुले की संस्था विधवाओं और उनके बच्चो की देखभाल करती थी. फुले एक ब्राह्मण महिला को सबसे ज्यादा शोषित मानते थे. फुले दम्पति ने खुद एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को गोद लिया था. फुले वास्तव में भारतीय स्त्रियों के मुक्तिदाता थे. फुले के स्त्री-चिंतन का प्रभाव बाबासाहेब आंबेडकर, राना डे और महात्मा गांधी पर पड़ा.

सत्यशोधक समाज की स्थापना

24 सितम्बर 1873 को फुले ने अपने सभी हितैषियों, प्रशंसकों तथा अनुयायियों की एक सभा बुलाई. उनसे विचार-विमर्श के बाद तथा फुले के विचारों से सहमत होते हुए संस्था का गठन कर दिया गया. महात्मा फुले ने संस्था को नाम दिया ‘“सत्य शोधक समाज”’. उनके तीन ब्राह्मण मित्रों ने भी सत्यशोधक समाज को हर प्रकार का सहयोग देने का वचन दिया. सत्य शोधक समाज का प्रमुख उद्देश था- पिछड़े, दलित और महिलाओं को शोषणकरी व्यवस्था से छुड़ाना और उन्हें शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाना.

सत्य शोधक समाज उस समय के अन्य संगठनों से अपने सिद्धांतों व कार्यक्रमों के कारण भिन्न था. सत्य शोधक समाज पूरे महाराष्ट्र में शीघ्र ही फ़ैल गया. संगठन के लोगों ने जगह-जगह दलित-पिछड़ों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले. छूआ-छूत का विरोध किया. किसानों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया.

समाजसेवा के क्रम में हुआ जीवन का अंत

फुले साहब ताउम्र शोषितों के पक्ष में अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे. 19वीं सदी के अंतिम दशक में पूना प्लेग महामारी से ग्रस्त हुआ था. फुले दम्पति ने प्लेग रोगियों की अथक सेवा की. इसी दौरान ज्योतिराव फुले भी प्लेग की चपेट में आ गए और 28 नवम्बर 1890 को उनका परिनिर्वाण हो गया.

आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान

वैसे भारतीय संविधान को आधुनिक विधि-संहिता माना जाता है जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, सामाजिक न्याय और समाजवाद की प्रस्तावना करती है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि आज भी एक ‘गुप्त वर्ण-भेद’ व्याप्त है. इसके बावजूद महात्मा फुले ने अपने जीवन में जो आंदोलन किया और जिसे बाद में बाबासाहेब अम्बेडकर ने संवैधानिक जामा पहनाया, उसके फलस्वरूप ही आजादी के बाद के. आर. नारायणन पहले दलित राष्ट्रपति बनते हैं, प्रतिभा देवी पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति बनती हैं, इंदिरा गांधी पहली महिला प्रधानमंत्री बनती हैं. एच. डी. देवेगौड़ा पहले पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री बनते हैं. कल्पना चावला के रूप में पहली भारतीय महिला अंतरिक्ष पहुंचती है. देश के शासन-प्रशासन में दलित एवं पिछड़े वर्ग के लोगों और महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. इसमें महात्मा ज्योतिराव फुले के समता-तर्क और मानव अधिकारों पर आधारित दार्शनिक चिंतन का बड़ा योदगान है.

वह भारत में एक समान शिक्षा प्रणाली और देश के किसानों के आंदोलनों के सूत्रधार बने. वे भारत में सामाजिक न्याय के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने दलित-पिछड़ों और महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. यही वजह थी कि डॉ. अम्बेडकर ने बुद्ध और कबीर के बाद महात्मा फुले को अपना तीसरा गुरु माना था. बाबा साहेब ने फुले के बारे में कहा था- “महात्मा फुले मॉडर्न इंडिया के सबसे महान शूद्र थे, जिन्होंने यह शिक्षा दी कि भारत के लिए विदेशी हुकूमत से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है.”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.