महान दलित विभूतियों का तिरस्कार?

हमारा देश सदियों पुराना देश है जहां ना जाने कितने बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं ने राज किया और देश के इतिहास के पन्नों पर अपने कार्यों के माध्यम से अमिट छाप छोड़ दी. जितना पुराना इस देश का इतिहास है, लगभग उतना ही पुरानी इसकी जातिप्रथा का भी कलंक इसके हिस्से में आता है. कम से कम दस हज़ार वर्षों से तो जातिप्रथा का घुन इस देश के गौरव को एक दीमक की तरह चाट रहा है. इतिहास के पन्नों की परतें फिरोलें तो पता चलता है कि आज से लगभग 5250 वर्ष पहले महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र की धरती पर हुआ था और उस वक़्त इस युद्ध के महानायक, श्रीकृष्ण की आयु 83 वर्ष की थी! श्री कृष्ण से लगभग 2100 वर्ष पूर्व भगवान राम हुए थे और राम से तकरीबन दो-ढ़ाई हज़ार वर्ष पहले मनु महाराज नाम का एक ऋषि हुआ था. इस मनु महाराज से पहले समाज में होने वाले सभी कार्यों में तरलता थी, अर्थात कोई जातिपाति नहीं थी. समाज में अमीर-गरीब का भेदभाव तो था, लेकिन समाज में रहने वाले सभी लोगों को अपनी हैसियत और शारीरिक बल और बुद्धि के हिसाब से कोई भी काम धंधा करने की सबको आज़ादी थी.

लेकिन फिर मनु महाराज जैसे बड़े ही शातिर दिमाग वाले लोगों ने राज घरानों के साथ अपने असर रसूख के बलबूते पर इस एकदम सरल वर्गीकरण व्यवस्था में ऐसी तब्दिलियां लानी प्रारंभ कर दी (तकरीबन दस हज़ार वर्ष पहले) जिसने कि समाज को एक बहुत बड़े और भयानक बदलाव की दिशा की ओर धकेल दिया. इस मनु महाराज ने समाज में ऐसा बंटवारा करवा दिया कि उस वक़्त के जो ग़रीब लोग और उनकी आने वाली अनेकों पीढ़ियों कि दशा ही बदल डाली. क्योंकि राजे महाराजों के लिए यह व्यवस्था ज़्यादा फ़ायदेमंद साबित हो रही थी, उन्होंने इस व्यवस्था पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगा दी. मैं तो इस मनु महाराज को एक बहुत बड़ा षडयंत्रकारी और चालबाज ही कहूंगा, क्योंकि उसने अपने जैसे लाखों अमीरजादों के मुनाफ़े के मद्देनज़र हमेशा के लिए अच्छी आर्थिक सुविधाजनक परिस्थितियां बना डाली और समाज को चार वर्णो में विभाजित कर दिया – ब्राह्मण, क्षत्रिया वैश्य और शूद्र. किसी भी मनुष्य को उसकी अपनी बुद्धि, बल और क्षमता के आधार पर समाज में बढ़ने, फैलने-फ़ूलने के सभी दरवाजे बंद कर दिए. पहले जो समाज में व्यवसायों के लिए तरलता थी, वह अब समाप्त हो चुकी थी, क्योंकि इस व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मणों के बच्चे हमेशा ब्राह्मण ही रहेंगे, क्षत्रियों के बच्चे हमेशा क्षत्रिय ही रहेंगे, और इसी तरह वैश्य हमेशा वैश्य ही और शूद्र हमेशा के लिए शूद्र ही रहेंगे. ब्राह्मणों के लिए पढ़ना-पढ़ाना ही अनिवार्य कर दिया, क्षत्रिय बस देश का शासन और राजपाठ ही संभालेंगे, वैश्य समाज के सभी व्यापार/कारोबार इत्यादि ही करते रहेंगे और अंत में शूद्रों को बोल दिया कि आप लोग केवल ऊपर की तीनों जातियों की सेवा ही करोगे. इनके बाकी सभी सामाजिक-आर्थिक अधिकार समाप्त.

तो ऐसे इस षडयंत्रकारी मनु महाराज ने उस वक़्त के गरीबों को तमाम उम्र बाकिओं के दास बना दिया. उनको समाज में रहने वाली अन्य तीनों जातियों को उपलब्ध अधिकार- जैसे कि पढ़-लिख कर अपना जीवन संवारना, जमीन जायदाद का अधिकार, और न जाने कितने फलने फूलने के अवसर, वह सब बंद कर दिए. ऐसी ही शर्मनाक व्यवस्थाओं के चलते सदियां बीत गई, युग बदल गए, मगर शूद्रों का शोषण और उनपे होने वाले अत्याचार बंद नहीं हुए. बल्कि, उन पर अपवित्र और अस्पृश्य होने का कलंक और मढ़ दिया. यदाकदा इस व्यवस्था को बदलने के लिए कुच्छ क्रांतिकारियों ने यत्न भी किये, मग़र उनकी अवाज़ को बुरी तरह कुचल दिया गया.

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर: उन्नीसवीं सदी के आख़िर में एक एक बड़े ही जुझारू योद्धा ने 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में एक गरीब परिवार में जन्म लिया. भीम राव अम्बेडकर नाम के इस युवक ने बड़ी मुश्किल हालातों में शिक्षा प्राप्त की. उस वक़्त समाज में छुआछूत पूरे जोरों पर थी, दलितों पर खूब अत्याचार भी हुआ करते थे, इनके पढ़ने-लिखने के रास्ते में बहुत सी बाधाएं डाली जाती थी, ताकि यह लोग तमाम उम्र अनपढ़ रहकर, ग़ुलाम ही बने रहें और बाकी तीनों जातियों के लोग उन पर अपनी मन माफ़िक जुल्म, अत्याचार और शोषण कर सकें. डॉ. अम्बेडकर ने भी ऐसे ही शोषण और अत्याचारों की बीच रहते हुए अपनी शिक्षा पूरी ही नहीं की, बल्कि उस जमाने में भी ऐसी और इतनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल की, कि उनके ज़माने के अपने आप को तथाकथित ऊंची जाति वाले भी उनके सामने फ़ीके पड़ने लगे.

देश में अंग्रेज हुकूमत का राज था और चारों तरफ़ गुलामी की जंजीरें काटने और इसको तोड़ने के लिए खूब जी-जान से यतन किये जा रहे थे. देश प्रेमी अपने देश के लिए आज़ादी हासिल करने ख़ातिर जान की बाजियां लगा रहे थे, मग़र इसी देश में रहने वाले करोड़ों दलितों को तथाकथित तीनों ऊंची जातियों के लोगों के चुंगल से छुड़वाने के लिए, किसी को कोई चिन्ता-फ़िक्र नहीं थी. बल्कि वह लोग तो चाहते थे कि यह दलित लोग हमेशा के लिए ऐसे ही दबे-कुचले ही रहें ताकि इनपर अपनी मनमर्जी के मुताबिक इनसे काम लिया जाये और इन में से किसी में भी इतनी हिम्मत न आए कि कोई उफ़ तक न कर सकें! वह तो सभी यही मानकर बैठे हुए थे कि यह लोग तो अंग्रेजों से आज़ादी हासिल होने के बाद भी हमारे ग़ुलाम ही बने रहेंगे.

25 दिसम्बर, 1927 को महाड़, महाराष्ट्र में अपने एक सत्याग्रह के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के साथ भेदभाव सिखाने वाली, रूढ़िवादी विचारों वाली और अवैज्ञानिक सोच पर आधारित ब्राह्मणवादी पुस्तक मनुसमृति एक भव्य जन समूह के सामने जला डाली और कड़े शब्दों में इस पुस्तक में बताई गई वर्णव्यवस्था सिरे से ही ठुकराते हुए अपने अनुयाईओं को भी इसे बिलकुल न मानने का निर्देश दे दिया. यही नहीं, उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर दलितों को पानी लेने का भी ऐलान किया क्योंकि भगवान ने सभी कुदरती साधन और व्यवस्थाएं सभी इन्सानों के लिए ही की हुई हैं. कुछ मनुवादियों को डॉ. अम्बेडकर द्वारा दी गई चुनौतियां पसन्द नहीं आई और उन्होंने डॉ. अम्बेडकर की इन हरकतों को समाज विरोधी बताया और ऐसा करने वालों में महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के बहुत से बड़े-बड़े नेतागण भी शामिल थे. लेकिन डॉ. अम्बेडकर उनकी परवाह न करते हुए अपने मिशन में आगे बढ़ते ही जा रहे थे. दूसरी तरफ़, डॉ. अम्बेडकर ने अंग्रेजी हुकूमत को बार-बार पत्र लिखकर दलित शोषित वर्ग की स्थिति से अवगत करवाया और उन्हें अधिकार दिलवाने के लिए मांगपत्र भी भेजे. बाबासाहेब के पत्रों में वर्णित छुआछूत व भेदभाव के बारे में पढ़कर अंग्रेज़ दंग रह गए कि क्या एक मानव दूसरे मानव के साथ ऐसे भी पेश आ सकता है.

बाबा साहेब के तथ्यों से परिपूर्ण तर्कयुक्त पत्रों से अंग्रेज़ी हुकूमत अवाक रहगई और उसने 1927 में दलित शोषित वर्ग की स्थिति के अध्ययन के लिए और डॉ. अम्बेडकर के आरोपों की जांच के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने एक विख्यात वकील, सर जॉन साईमन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया. कांग्रेस ने इस आयोग का खूब विरोध किया मग़र 1930 में आयोग ने भारत आकर अपनी कार्यवाही शुरू कर दी. मई 1930 को उनके साथ एक मीटिंग में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म में फ़ैली बेशुमार कुरीतियों, अवैज्ञानिक जातिप्रथा की ग़लत धारणाओं पर आधारित, बड़ी तीन जातियों द्वारा अपनी कौम के साथ हो रही बेशुमार ज़्यादतियों का काला कच्चा चिट्ठा उसके सामने रखा और उनसे इस वर्णव्यवस्था को जड़ से समाप्त करने की अपील की. साइमन कमीशन को यह जानकर बड़ा दुख और हैरानी हुई की हिन्दुस्तान में समाज एक चैथाई तबके के साथ सदियों से ऐसा होता आ रहा है और देश सभी बड़े-बड़े नेता इस पर ख़ामोशी साधे हुए हैं?

ऐसे ही चलते-चलते जब आज़ादी का अन्दोलन अपने पड़ाव में आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था और कांग्रेस बड़े नेता महात्मा गांधी ने दलितों के ऊपर हज़ारों वर्षों से चले आ रहे शोषण, व अत्याचार के प्रति अपनी अन्तिम राय दे दी की– “मैं तो एक कट्टर हिन्दू हूं, और हिन्दू धर्म में सदियों से चली आ रही वर्णव्यवस्था सही है, और मैं इसको बदलने के पक्ष में बिलकुल भी नहीं हूं”, तब डॉ. अम्बेडकर ने अंग्रेज़ हुकूमत के सामने अपनी एक और बड़ी मांग रख दी कि देश की आज़ादी के बाद हमें इन तथाकथित झूठे/पाखण्डी/अत्याचारी सवर्णों के साथ रहने में कोई दिलचस्पी नहीं है और हमें भी अपनी आबादी के अनुपात से एक अलग देश बनाने की अनुमति दी जाये और इसके लिए देश के पूरे क्षेत्रफ़ल में से अपने हिस्से की ज़मीन भी दी जाये. डॉ. अम्बेडकर की इस मांग को सुनकर कांग्रेस के सभी बड़े-बड़े नेताओं में तो हड़कंप मच गया (ख़ास तौर पे जब साईमन आयोग के साथ हुई 3-4 बैठकों के बाद कांग्रेसी नेताओं को इस बात का एहसास होने लग गया कि आयोग तो डॉ. अम्बेडकर के ज़्यादातर मामलों से सहमत होता नज़र आ रहा है) और महात्मा गांधी ने जलभुन के पुणे में आमरण अनशन रख दिया. जब अन्य कांग्रेस के नेताओं के समझाने के बावजूद भी डॉ. अम्बेडकर अपनी अलग देश की मांग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए, तो इन नेताओं ने डॉ. अम्बेडकर को मनाने के लिए एक साज़िश रची. इस षडयन्त्र के तहत गांधी की पत्नी, कस्तूरबा गांधी कुछ अन्य महिलाओं के साथ डॉ. अम्बेडकर से मिलने गई और उनसे अपनी अलग देश की मांग त्यागने की बिनती की और हाथ जोड़कर प्रार्थना की – “मेरे पति की जान अब केवल आप ही बचा सकते हो. अगर आप अपनी यह मांग त्यागने के लिए सहमत हो जाते हैं तो कांग्रेस आपकी बहुत सी मांगों पर सकारात्मक रूप में विचार कर सकती हैं.” डॉ.अम्बेडकर ने कस्तूरबा गाँधी को समझाते हुए स्पष्ट लफ़्ज़ों में कहा कि “यदि गाँधी भारत की स्वतंत्रता के लिए मरण व्रत रखते, तो वह न्यायोचित हैं.

परन्तु यह एक पीड़ादायक आश्चर्य तो यह है कि गांधी ने केवल अछूतों के विरोध का रास्ता चुना है, जबकि भारतीय ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों को मिले इस अधिकार के बारे में गांधी ने कोई आपत्ति नहीं की. उन्होंने आगे कहा की महात्मा गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं. भारत में ऐसे अनेकों महात्मा आए और चले गए, लेकिन हमारे समाज में छुआछूत समाप्त नहीं हुई, हज़ारों वर्षों से अछूत, आज भी अछूत ही हैं. मग़र अब हम गांधी के प्राण बचाने के लिए करोड़ों अछूतों के हितों की बलि नहीं दे सकते.” लेकिन फिर धीरे-धीरे दोनों पक्षों के बीच बैठकों का सिलसिला बढ़ने लगा और डॉ. अम्बेडकर ने कस्तूरबा गांधी के आश्वासन पर और दलितों की सम्पूर्ण स्तिथि पर बड़ा गहन सोच विचार किया, और इस तरह 24 दिसम्बर, 1932 को पूना समझौते के अन्तर्गत दलितों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में चुनाव में, शिक्षा के लिए कॉलजों में दाखिले हेतु और सरकारी नौकरियों में और पद्दोन्तियों में सीटें आरक्षित रखने के मुद्दे पर सहमति बन पाई. ऐसे ही एक और मीटिंग में डॉ. अम्बेडकर ने महात्मा गांधी को उस वक़्त अच्छी तरह लताड़ दिया जब उसने कहा कि आप ऐसे ही इतने ख़फ़ा होते रहते हो, मैंने आपके लोगों के लिए एक नया शब्द “हरिजन” दे तो दिया है. डॉ. अम्बेडकर ने सभा में उपस्थित सभी को सम्बोधन करते हुए कहा, “मैं इतने वर्षो से जातिपाति के भेदभाव को समाप्त करने के लिए जी-जान से दिन रात संघर्ष कर रहा हूं, पूरे समाज को, पूरी मानवता को, इन्सानियत को एक ही पायदान पर लाकर खड़ा करने के प्रयासों में जुटा रहता हूं, और यह आदमी दलितों की एक अलग ही पहचान बनाने के लिए एक नई खिड़की खोल रहा है.” नेहरू से यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने बाबासाहेब से कहा, “अम्बेडकर जी! आप गांधीजी से इस लहजे में बात नहीं कर सकते!” इस पर डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें भी तल्खी से लताड़ते हुए उत्तर दिया, “मेरी एक बात का जवाब दो – हरिजन का शाब्दिक अर्थ होता है- भगवान के बन्दे, अगर केवल मेरे दलित शोषित वर्ग के लोग ही हरिजन हैं, जैसा कि आपके महात्मा गांधी कह रहे हैं, तो क्या आप बाकी सब राक्षसों की औलाद हैं?” डॉ. अम्बेडकर का यह तर्क सुनकर सभा में बैठे सब लोग थोड़ा झेंपकर इधर-उधर देखने लग गए और सभा में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा सा छा गया.

अगस्त 1947 में देश की आज़ादी के बाद उन्होंने देश का संविधान बनाने की ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई और यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया. तमाम उम्र डॉ अम्बेडकर कड़ा संघर्ष ही करते रहे, पूरे देश की ख़ातिर और अपने समाज की ख़ातिर, मग़र वक़्त-वक्त पर कांग्रेस के नेताओं ने उनका तिरस्कार व निरादर ही किया. देश का संविधान लिखा, उनकी लिखी हुई एक पुस्तक (The Problem of the Rupee – Its Origin and Its Solution) के आधार पर रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया की स्थापना 1 अप्रैल,1935 को की गई. न जाने और कितने उन्होंने समाज सुधार के कार्य किए. कानूनी तौर पर देश से छुआछूत मिटाई, सारी उम्र उन्होंने दलितों और समाज के दब्बे कुचले / बहिष्कृत और तिरस्कृत लोगों को न्याय दिलाने में लगा दी, देश के सभी नागरिकों को एक समान वोट देने का अधिकार दिलाया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अलग से निर्वाचिन सीटें दिलाईं, मगर उनके खुद के साथ पूरी उम्र ज्यादतियां ही होती रहीं. जब वे अपनी पढ़ाई पूरी करके देश लौटे और महाराजा गायकवाड़ के यहां अपने समझौते के मुताबिक नौकरी करने पहुंचे, तो वहां के लोगों ने उनकी नीची जाति के कारण उन्हें किराये पर कोई घर नहीं दिया. उनके ही दफ़्तर में काम करने वाला चपरासी जोकि पढ़ाई-लिखाई में बिलकुल ही निम्न स्तर का था, वह भी उनको पानी नहीं पिलाता था. जब अम्बेडकर पाठशाला में ही पढ़ते थे, क्लास में रखे हुए पानी के घड़े में से उनको पानी पीने की इजाजत नहीं थी, और वह क्लास से बाहर, अपने बाकी सहपाठियों से अलग, अपने ही घर से लाये गए टाट पर बैठते थे. इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी जब उन्होंने ढेर सारी किताबें लिख चुके थे, अख़बार के एडिटर भी बन चुके थे, कॉलेज में प्रिंसिपल भी रह चुके थे, इसके बावजूद भी जुलाई 1945 में उनको पुरी में जगन्नाथ मन्दिर में जाने से वहां के पुजारियों ने रोक दिया था, क्योंकि अम्बेडकर एक शूद्र/महार परिवार से आए थे. केवल इतना ही नहीं, अपने आपको बड़े पढ़े-लिखे और आधुनिक कहलवाने वाले महात्मा गांधी ने भी एक बार यह बात कबूल की कि जब भी किसी मीटिंग में उनको डॉ. अम्बेडकर के साथ हाथ मिलाना पड़ता था, उस दिन घर जाने बाद जबतक वह साबुन से अच्छी तरह हाथ नहीं धो लेते थे, वह खाने पीने की किसी भी वस्तु को छूते तक नहीं थे. बाद में ऐसा ही रवैया कुछ और कांग्रेसी नेताओं ने स्वीकार किया.

वैसे तो डॉ. अम्बेडकर बहुत पहले अपने मन की बात कह चुके थे कि उनका जन्म ही हिन्दू धर्म में हुआ है, लेकिन वह हिन्दु मरेंगे नहीं, और अन्तत: 14 अक्टूबर, 1956 को डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पत्नी सविता अम्बेडकर, अपने निजी सचिव- नानक चन्द रत्तु और दो लाख से भी ज्यादा अनुयाईयों के साथ नागपुर में हिन्दु धर्म त्यागने की घोषणा कर दी और बुद्ध धर्म (जोकि मानवता की बराबरी, ज्ञान, सच्चाई के रास्ते और करुणा/दया के सिद्धांतों पर आधारित है), को अपना लिया. आज़ादी के बाद भी वह देश के पहले कानून मंत्री बन गए थे, इतनी ज़्यादा विभिन्नताओं से भरे देश के लिए संविधान भी लिखा, मग़र इतना कुछ करने के बाद भी उनको देश का सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न से नहीं नवाज़ा गया था, आख़िर यह तो तब सम्भव हो पाया जब 1990 में वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, जबकि कोलंबिया विश्वविद्यालय, अमरीका, यहाँ से उन्होंने अपनी पी.एचडी की थी, उन्होंने डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे गए संविधान को जब भारत ने 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया था, तब ही अपने विश्वविद्यालय के प्रांगण में डॉ. अम्बेडकर को यथासम्भव सम्मान देते हुए उनकी प्रतिमा स्थापित कर दी थी. डॉ. अम्बेडकर का परिनिर्वाण तो दिल्ली में 6 दिसम्बर 1956 को हुआ था, लेकिन उनके अन्तिम संस्कार के लिए नेहरू ने दिल्ली में कोई जगह नहीं दी. इतना ही नहीं, नेहरू जानते थे कि पूरे देश में डॉ. अम्बेडकर को मानने और सम्मान देने वालों की संख्या करोड़ों में है, और अगर इनका अन्तिम संस्कार दिल्ली में हो गया तो प्रत्येक वर्ष अम्बेडकर के जन्म दिवस और परिनिर्वाण दिवस पर यहां तो मेले लगते रहेंगे. इस लिहाज़ से मरा हुआ अम्बेडकर जिन्दा अम्बेडकर से भी ज़्यादा ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है. यही सब ध्यान में रखते हुए नेहरू ने उन्हें (उनके घर वालों की इच्छा के ख़िलाफ़) दिल्ली से दूर उनके शव को एक विशेष विमान से मुम्बई भेज दिया. तो इस तरह देश के संविधान निर्माता और एक बड़े तबके के रहनुमा के साथ परिनिर्वाण के बाद भी नाइन्साफ़ी ही हुई. देश के संविधान निर्माता को देश की राजधानी में जगह नहीं मिली. इतना ही नहीं, उनके परलोक सुधारने के बाद भी उनके साथ अत्याचार होने बंद नहीं हुए हैं, बहुत बार ऐसा हो चुका है कि देश में विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गई उनकी प्रतिमाएं अक्सर या तो तोड़ दी जाती हैं या फिर उनके चेहरे पर कालिख़ पोत दी जाती है. कुछ भी हो, दलित समाज के करोड़ों लोगों के दिलों में डॉ अम्बेडकर का मान सम्मान और दर्जा किसी देवता से कम नहीं है और वह उन्हें 14वीं सदी के महान गुरू, क्रन्तिकारी समाज सुधारक, गुरू रविदास जी का ही अवतार मानते है.

इस तथाकथित महान आदमी, महात्मा गांधी का दोगलापन तो देखिए-जब 1893 में डरबन, साऊथ अफ्रीका में एक गाड़ी के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सफ़र करते समय एक टिकट चैकर ने उसे से गाड़ी से इसलिए उतार फेंका थाकि उसका काला रंग है और काले रंगवाले लोगों को ऐसे सहूलतों वाले रेल के डिब्बे में सफ़र करने की इजाजत नहीं है, तब उसने सारी दुनियां को चीख-चीख कर बताया था के मेरे साथ रंग/नसल के आधार पर भेदभाव करते हुए नाइंसाफी हुई है, उसी महात्मा गांधी को अपने ही देश हज़ारों वर्षों से शूद्रों के साथ जातिपाति के आधार पर हो रहे भेदभाव, शोषण और अत्याचार कभी नज़र नहीं आये और जब डॉ. अम्बेडकर ने इसके ख़िलाफ़ बुलन्द आवाज में विरोध किया तो वह हमेशा यही कहता रहा कि हिन्दुओं में प्रचलित यह वर्णव्यवस्था हज़ारों वर्ष पुरानी है और इसमें सुधार या बदलाव लाने की ज़रा भी गुंजाइश नहीं है. लेकिन इसके साथ ही यह बात भी सोलह आने सच है कि इस देश में अंग्रेज आए और उसी दौरान बाबासाहेब अम्बेडकर जैसी महान विभूति ने अवतार लिया और अंग्रेजों के दिलो-दिमाग़ में यह बात बैठाने में बाबासाहेब कामयाब हो गए कि इन तथाकथित ऊंची जाति वाले लोगों ने देश की एक चैथाई आबादी को हज़ारों वर्षो से ग़ुलाम बनाकर रखा हुआ है, झूठ, फ़रेब, अनपढ़ता और अंधविश्वाशों में उलझाकर उनका हजारों वर्षों से उनका शोषण व अत्याचार कर रहे हैं, उनकी उन्नति, विकास और प्रगत्ति के रास्ते में एक ज़हरीले साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं, और इन मनुवादी ब्राह्मणों से तो कहीं ज़्यादा तर्कशील और विवेकशील वह अंग्रेज शासिक थे, जिन्होंने बाबा साहेब द्वारा व्याख्यान की गई दलितों की व्यथा को ढंग से सुना और समझा और तब देश के साथ 2 दलितों को भी ग़ुलामी की जंजीरों से काफ़ी हद तक आज़ादी मिल गई, वार्ना इस से पहले वाले हजारों राजे महाराजे तो इन ब्राह्मणों की बनाई गई वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत ही अपना राजपाठ व प्रसाशन चलाते रहते और उनके राजपाठ के चलते दलितों के कल्याण व उत्थान की कल्पना करना भी नामुमकिन सा ही था.

सावित्रीबाई फुले: डॉ अम्बेडकर की तरह ही एक महिला विद्वान, सावित्रीबाई फुले (पत्नी ज्योतिबा फुले) एक महान दलित विद्वान, समाज सुधारक और देश की पहली महिला शिक्षिका, समाज सेविका, कवि और वंचितों की आवाज उठाने वाली सावित्रीबाई फूले का जन्‍म 3 जनवरी, 1831 में एक दलित परिवार में हुआ था. 1840 में 9 साल की उम्र में उनकी शादी 13 साल के ज्‍योतिराव फुले से हुई. सावित्रीबाई फूले ने अपने पति क्रांतिकारी नेता ज्योतिबा फूले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले. सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला अध्यापक-नारी मुक्ति अन्दोलन की पहली नेता थीं. उन्‍होंने 28 जनवरी,1853 को गर्भवती बलात्‍कार पीडि़तों के लिए बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की. सावित्रीबाई ने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतिप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरुद्ध बुलन्द आवाज़ उठाई और अपने पति के साथ मिलकर उसपर काम किया. सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जा रही एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में पैदाइश करवाई और उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया. दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने बड़ा किया और उसे डॉक्टर बनाया. ज्योतिबा फुले की मृत्यु सन 1890 में हुई. तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया. सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च,1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान ही हो गयी थी. उनका पूरा जीवन समाज में वंचित तबके, ख़ासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में ही बीता. उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति व्यवस्था तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों को फैंकने की बात करती हैं, क्योंकि यह पुस्तक हमेशा से ही दलितों को नीचा दिखाते आये हैं और इनकी प्रगति और विकास के मार्ग में बहुत बड़ी वाधा बनते आए हैं. बड़ी हैरानी की बात है कि उनके इतने बड़े संघर्ष और बलिदान को भूलकर जब अध्यापक दिवस मनाने की घोषणा की गई, तब सरकार में किसी को यह ध्यान क्यों नहीं आया की यह तो सावित्रीबाई के जन्म दिवस- अर्थात 3 जनवरी को ही मनाया जाना चाहिए था, ना कि 5 सितंबर को.

उस वक़्त जब औरतों को आदमियों की पैर की जूती बराबर ही समझा जाता था, सावित्री जी के प्रसिद्ध विचार पूरे समाज को एक नई दिशा और चेतना देने वाले इस प्रकार थे- जागो, उठो, पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर, मेहनती बनो, काम करो, ज्ञान और धन इकट्ठा करो, ज्ञान के बिना सब कुछ खो जाता है, ज्ञान के बिना आदमी पशु समान ही रह जाते हैं. उन्होंने हमेशा इस बात पर ज़ोर दिया कि दलित और शोषित समाज के दुखों का अंत केवल पढ़-लिख कर शिक्षित बनने, धन कमाने और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने से ही होगा. उस वक़्त के हिसाब से एक दलित परिवार से और बिलकुल ही निम्न स्तर से उठकर इस महान महिला के समाज सुधार को ध्यान में रखते हुए सभी दबे कुचले परिवारों के शोषित लोग सावित्रीबाई के जन्म दिवस (तीन जनवरी) को ही शिक्षक दिवस के रूप में मानते और मनाते हैं, नाकि 5 सितम्बर को, क्योंकि श्री राधाकृष्णन का पूरे समाज के लिए योगदान सावित्रीबाई के योगदान और बलिदान के सामने बिलकुल फ़ीका पड़ता ही नज़र आता है.

मेजर ध्यानचन्द: जब दलितों के साथ निरन्तर हो रहे अत्याचार, शोषण और तिरस्कार की बात चलती है तो हम हॉकी के महान जादूगर मेजर ध्यान चन्द को कैसे भूल सकते हैं. ध्यानचन्द का जन्म 29 अगस्त, 1905 को इलाहाबाद में हुआ था. वह भारतीय फ़ौज में नौकरी करते थे और हॉकी के बहुत ही बढ़िया खिलाड़ी थे. उनको तीन बार ओलिंपिक खेलों में भाग लेने का अवसर मिला– 1928, 1932 और 1936 में. अपने पूरे ख़ेल जीवन के दौरान उन्होंने 400 से ज़्यादा गोल किये और हमेशा अपनी टीम को जीत दिलाई. ख़ेल के दौरान ध्यानचन्द इतनी चुस्ती फुर्ती, स्फ़ूर्ति और कुशलता के साथ खेलते थे और उनके इतने ज्यादा गोल करने के क्षमता की वजह से ऐसा कहा जाने लग गया कि – हॉकी एक खेल नहीं है, बल्कि एक जादू है और ध्यान चन्द इसके महान जादूगर. 1936 ओलंपिक खेलों में भारत का फाइनल मैच जर्मनी के साथ होना था और यह मैच देखने के लिए उस वक़्त के जर्मनी के चांसलर अडोल्फ़ हिटलर भी स्टेडियम में मौजूद थे और वह चाहते थे कि किसी भी तरह जर्मनी यह फाइनल मैच जीत जाए. मगर ध्यान चन्द के होते हुए यह कहां सम्भव था, और अंतत: भारत ने जर्मनी को 8-1 के मार्जिन से हरा दिया. इस मैच में अकेले ध्यानचन्द ने 6 गोल दागे और जर्मनी के चांसलर हिटलर ध्यान चन्द की खेल कुशलता और शैली से इतना प्रभावित हुआ कि उसने ध्यानचन्द को अपने घर खाने पर बुलाया. खाने के दौरान हिटलर ने ध्यान चन्द से पूछा कि वह हॉकी खेलने के इलावा क्या करते है? ध्यानचन्द ने जवाब दिया कि वह आर्मी में लान्सनायक हैं. फिर हिटलर ने ध्यानचन्द को इंडिया छोड़कर जर्मनी में आकर बसने का निमंत्रण दिया और यह भी लालच दिया कि वह ध्यान चन्द को जर्मनी की सेना में जनरल बना देगा, एक बहुत बड़ी कोठी भी उसे दी जाएगी, बस वह आकर वहीं बस जाये और जर्मनी की टीम को हॉकी खेलना सिखाये. मगर ध्यानचन्द ने हिटलर का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अपने देश को बहुत प्यार करता है और अपना देश छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता.

मगर अपने देश में अन्य दलित लोगों की तरह, ध्यानचन्द के साथ भी जाति आधारित भेदभाव अक्सर होते रहते थे. जैसे कि खिलाडियों को जीतने के बाद जो इनाम में दी जाने वाली धन राशि को घोषणा होती है, वह भी उस खिलाड़ी की जाति जानकर ही होती है. सारी उम्र ध्यानचन्द का हॉकी के प्रति समर्पण, उसकी अपने देश को जीत दिलाने की लगन व कार्य-कुशलता को देखते हुए उसको बहुत पहले खेलों में भारत रतन मिल जाना चाहिए था. मगर ऐसा हरगिज़ नहीं हो सका, क्योंकि किस-किस खिलाड़ी को क्या-क्या इनाम और मान सम्मान देना है, इसका निर्णय तो सत्ता में शिखर पर बैठे बड़े अधिकारी और नेतागण ही करते हैं और यह निर्णय लेते समय वह खिलाड़ी की जाति देखना कभी नहीं भूलते. अंत में जब 2014 में यह निर्णय लिया गया कि भारत रत्न के लिए खेलों को भी शामिल किया जाना चाहिए, उस वक़्त भी ध्यानचन्द के साथ चार-पांच दशकों से होते रहे अन्याय को समाप्त करने की बजाय, एक बड़े दलित उम्मीदवार को छोड़कर एक ब्राह्मण (सचिन तेंदुलकर) को यह सम्मान दे दिया गया. और इस तरह ध्यानचन्द के साथ हो रहा तिरस्कार का सिलसिला उसके मरणोप्रांत अब भी जारी है. अपने ही गांव झाँसी में 3 दिसंबर, 1979 को उनकी मृत्यु हो गई.

मोहम्मद अली: ऐसा नहीं है ऐसे जातिपाति आधारित भेदभाव, तिरस्कार और उनकी प्रतिभा की अवेहलना हमारे देश में ही होती है. विश्वप्रसिद्ध अमरीकी बॉक्सिंग चैंपियन मोहम्मद अली (17 जनवरी, 1942 से 3 जून, 2016) को भी अपने पूरे जीवनकाल में बहुत बार रंगभेद का सामना करना पड़ा था. मोहम्मद अली, जोकि जन्म से एक ईसाई था और उसका नाम कैसियस मार्केलॉस क्ले था, को स्कूल के दिनों में अपने काले रंग की वजह से अनेकों बार पीड़ा, भेदभाव, तिरस्कार और भद्दी-भद्दी टिप्णियां सुननी पड़ती थी. फिर एक दिन ऐसा आया कि उसने अपना धर्म परिवर्तन करके इस्लाम धर्म अपना लिया और कैसियस क्ले से मोहम्मद अली बन गया. 25 फरवरी, 1964 को अपने से पहले बड़े मुक्केबाज़ चार्ल्स सोनी को, फ्लोरिडा में हराकर मोहम्मद अली बॉक्सिंग चैंपियन बन गया. विश्व चैंपियन बनने के बाद उनके पास पैसा, शोहरत, बड़ी कोठी इत्यादि तो सब आ गए थे, मगर उसके काले रंग की वजह होने वाले निरंतर तिरस्कार से उनका पीछा नहीं छूटा.

एक बार की बात है कि मोहमद अली की शादी की सालगिरह का अवसर था और उसके बच्चों की जिद्द थी उनके पिता बच्चों को शहर के सबसे बड़े और महंगे होटल में खाना खिलाएं. मोहम्मद अली ने बच्चों को बहुत समझाया कि जो खाने की उनकी इच्छा है, वह बता दें और इसका प्रबंध वह घर में ही कर देंगे. मगर बच्चे अभी इतने बड़े नहीं हुए थे कि वह समझ सकें कि उनके पिता उनको बड़े होटल में क्यों नहीं लेजा रहे. खैर, बच्चों की जिद्द के आगे नतमस्तक होकर मोहम्मद अली और उसकी पत्नी बच्चों को शहर के सबसे महंगे होटल में ले गए. वहां पहुंचकर एक ख़ाली मेज देखकर उसके इर्दगिर्द बैठ गए और मोहम्मद अली ने एक बैरे को खाने का मेनू लाने के लिए कहा. वह बैरा तो क्या, वहां पर उपस्थित सभी लोग मोहम्मद अली और उसके परिवार को ऐसे देखने लग गए जैसे कि वह कोई चोर हों. जब मोहम्मद अली ने अपने मेज के पास से गुजरते हुए एक बैरे को रोका और पूछा कि आप लोग हमारे लिए खाने का मेनू कार्ड क्यों नहीं दिखा रहे, तब उस बैरे ने बड़े नफ़रत भरे अंदाज से उत्तर दिया, “हमारे होटल में काले रंग के लोग और कुत्तों को अन्दर आने की इजाजत नहीं है, मुझे तो ताज्जुब हो रहा है कि आप लोग यहां आ कैसे गए?” इतना सुनते ही मोहम्मद अली का भी ख़ून खौल गया, आख़िर वह भी बॉक्सिंग का विश्व चैंपियन था, दोनों तरफ़ ख़ूब हाथापाई-मारपीट शुरू हो गई और मोहम्मद अली ने उस होटल के चार-पांच लोगों की अच्छी धुनाई कर दी. होटल के मैनेजर ने झट से फ़ोन करके पुलिस बुलवा ली और मोहम्मद अली पर होटल में जबरदस्ती घुसने और मारपीट करने और फर्नीचर की तोड़फोड़ का आरोप लगा दिया. पुलिस उस वक़्त तो मोहम्मद अली को पकड़कर ले गई, मग़र उसके ऊपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकी. और ऐसे इस घटना के बाद मोहमद अली के बच्चों को भी जिन्दगी भर का एक सबक मिल गया कि मां-बाप की बात मान लेने में ही भलाई होती है.

दशरथ मांझी: दशरथ मांझी नाम की इस महान विभूति को कौन भूल सकता है, जिन्हें आजकल ”माउन्टेन मैन” के नाम से भी जाना जाता है. वह बिहार में गया जिले के करीब गहलौर गांव में रहने वाला एक गरीब खेत मजदूर था, और उन्होनें केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर अकेले अपनी हिम्मत के सहारे ही 360 फुट लम्बी, 30 फुट चौड़ी और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काटकर एक सड़क बना डाली. 22 वर्षों के अत्यंत ही कठिन परिश्रम के बाद, दशरथ मांझी द्वारा बनाई सड़क ने अतरी और वजीरगंज ब्लाक की दूरी को 55 किलोमीटर से घटाकर मात्र 15 किलोमीटर ही कर दिया.

गहलौर गांव में 1934 में जन्मे इस सज्जन ने ये साबित किया है कि अगर इंसान ठान ले तो कोई भी काम असंभव नहीं है. एक इंसान जिसके पास पैसा नहीं, कोई ताकत नहीं, मगर उसने इतना बड़ा पहाड़ खोदकर उस में से सड़क बनानी, उनकी जिन्दगी से हमें एक सीख मिलती है कि अगर इंसान दृढ़ निश्चय करले तो हम किसी भी कठिनाई को पार कर सकते है, बस उस काम को करने की दिल में जिद्द और जनून होना चाहिए. उनकी 22 वर्षो की कठिन मेहनत से उन्होंने अकेले ही अपने गांव को शहर से जोड़ने वाली एक ऐसी सड़क बनाई जिसका उपयोग आज आसपास के सभी गांव वाले करते है.

दशरथ मांझी की शादी कम उम्र में ही फाल्गुनी देवी से हो गई थी. एक दिन जब दशरथ मांझी खेत में काम कर रहा था और उसकी पत्नी, नित प्रतिदिन की भांति अपने पति के लिए खाना ले जाते समय पहाड़ से फ़िसलकर गिर गई और गम्भीर रूप में घायल हो गई, और उस वक़्त वह गर्भवती भी थी. दशरथ मांझी उसे उठाकर घर ले आया मगर उसे इलाज़ के लिए शहर ले जाना था, जिसके लिए उसके पास कोई साधन नहीं था. गांव के अमीर ठाकुर लोग जिनके पास गाड़ियां थी, दशरथ मांझी उन सब के पास बारी-बारी से गए और मदद के लिए बिनती की कि उसकी पत्नी को गाड़ी में डालकर अस्पताल पहुंचा दें, मगर पूरे गांव में किसी ने उसकी मदद नहीं की. आख़िर में उसने पत्नी को बैलगाड़ी पर लेटाया और शहर की और चल दिया. देर शाम को जब वह अस्पताल पहुंचा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और डॉक्टरों ने उसकी जांच पड़ताल करके बताया कि उसने पत्नी को अस्पताल लाने में बहुत देर कर दी, खून ज़्यादा बहने से फाल्गुनी का निधन हो गया. अगर फाल्गुनी देवी को समय रहते अस्पताल ले जाया गया होता, तो शायद वो बच जाती. यह बात उसके अन्दर तक इतनी बुरी तरह चुभ गई कि दशरथ मांझी ने संकल्प कर लिया कि, भले ही सरकार या और कोई संस्था उसकी सहायता करें या ना, वह अकेले ही पहाड़ के बीचों बीच से रास्ता निकालेंगे, ताकि देर से डॉक्टरी सहायता ना मिलने की वजह से गांव के किसी और व्यक्ति को मौत न देखनी पड़े. तो ऐसे संकल्प में बंधे हुए उसने गहलौर की पहाड़ियों में से रास्ता बनाना शुरू किया. इन्होंने बताया, “जब मैंने पहाड़ी तोड़ना शुरू किया तो लोगों ने मुझे पागल कहा- कि ऐसे कभी हुआ है कि एक अकेला आदमी इतनी ऊंची पहाड़ी को काटकर, वह भी बिना मशीनों और विस्फोटक पदार्थों के, सड़क बना दे. लेकिन मैंने अपने पक्के निश्चय और भी मजबूत इरादे के चलते हुए यह सब सम्भव कर दिखाया.”

इतने बड़ी परियोजना को पूरा करने के लिए उसे 22 वर्ष (1960-1982) लगे और अतरी और वज़ीरगंज सेक्टर्स की दूरी 55 किमी से घटकर 15 किमी तक रह गई. दशरथ मांझी का यह पहाड़ से भी ज्यादा मजबूत प्रयास एक बहुत बड़ा सराहनीय कार्य है. उसके इतने बड़े कार्य के लिए अख़बारों/मैगज़ीनों/टीवी इत्यादि में चर्चा तो हुई ,मग़र इनाम के नाम पर एक मेहनतकश इंसान को मिला कुछ भी नहीं. बिहार की सरकार ने उसे पांच लाख रूपये देने की घोषणा भी की, मग़र यह धनराशि उसे कभी वितरण नहीं की गई. बिहार की राज्य सरकार ने उनकी इस उपलब्धि के लिए सामाजिक सेवा के क्षेत्र में 2006 में पद्मश्री हेतु उनके नाम का प्रस्ताव भी केन्द्रीय सरकार को भेजा, मग़र उसे यह भी मिला कभी नहीं. कारण- दशरथ मांझी भी एक दलित परिवार से सम्बन्ध रखने वाला इंसान था और यह तो हमारे समाज की एक बहुत बड़ी कुरीति और कुचाल ही कहेंगे, कि दलित लोग जितना मर्जी बड़ा असम्भव कार्य करके दिखा दें, समाज को उसे जितना मर्जी फ़ायदा पहुंचा हो, मगर तथाकथित बड़े लोग कभी सम्मानजनक धनराशि, इनाम और पद प्रदिष्ठा देने में हमेशा से अवेहलना करते ही आये हैं. दशरथ मांझी के साथ भी यही कुछ हुआ. मशहूर फ़िल्म अभिनेता आमिर खान ने अपने एक टीवी सीरियल “सत्यमेव जयते” में उसके इस महान कार्य पर एक एपिसोड भी बनाया, उसे दो-ढाई करोड़ की कमाई भी की मग़र, उसके परिवार को घर बनाने के लिए वादा की हुई धनराशि 15 लाख रूपये कभी नहीं मिले. अगर यही असम्भव सा कार्य दशरथ मांझी की जगह किसी ब्राह्मण या क्षत्रिय ने किया होता तो सरकार ने उसे कब से भारत रत्न प्रदान कर दिया होता और न जाने देश कितनी बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने उसे दिल खोलकर कितनी बड़ी-बड़ी धनराशि भी इनाम में दे दी होती. दशरथ माँझी की 17 अगस्त, 2007 को दिल्ली में मृत्यु हो गई थी.

फ्रांस के एक बहुत बड़े विद्वान, राजनैतिक विश्लेषक और दार्शनिक- रूसो ने बहुत वर्ष पहले कहा था कि अगर आप सच्चे दिल से चाहते हो कि आपका देश खूब उन्नति, विकास करे, प्रगति की बुलंदियां छुए और इस पथ पर हमेशा आगे बढ़ता ही रहे तो इसके लिए यह अत्यंत ही आवश्यक है कि समाज में रहने वाले सभी धर्मों और जातियों के लोगों को पढ़ाई-लिखाई के बराबर अवसर दिए जाए. किसी भी क्षेत्र में अच्छा कार्य करने वालों का समय-समय पर यथासम्भव मान-सम्मान व सराहना भी होनी चाहिए, ताकि समाज के अन्य लोगों के लिए यह एक प्रेरणा स्रोत बनते रहें. मगर हमारे देश का एक बहुत बड़ा दुर्भाग्य ही कहेंगे कि यहां पर जातिपाति आधारित अनेकों मतभेद, शोषण और तिरस्कार हज़ारों वर्षों से होते आए हैं, यही कारण है कि हमारा देश अन्य देशों के मुकाबले वैज्ञानिक उन्नति, विकास और प्रगति की श्रेणी में विकासशील देशों से बहुत पिछड़ा हुआ है, हालांकि आबादी की दृष्टि से हम पूरी दुनियां में दूसरे नंबर पर हैं. जितनी जल्दी से जल्दी यह सिलसिला बदला जाएगा/विसंगतियां दूर की जाएंगी, पूरे देश और समाज के लिए उतना ही बेहतर, लाभकारी और हितकारी होगा.

R D Bhardwaj ‘Noorpuri’

यह लेख आरडी भारद्वाज ‘नूरपुरी’ ने लिखा है.

7 COMMENTS

  1. बेहतरीन लेख l जो लोग अपने महापुरुषों से अनजान है और अपने दुखो के कारण को नहीं समझ पा रहे l उनके लिये ये लेख वरदान साबित हो सकता है l आपके इस लेख में हमारे इतिहास को शुरू से आखिर तक अंकित किया गया है l
    जय भीम

  2. jinhe hum apna samjhkar kursi per bathate he ve apna kartava bhulte ja rahe he . eska jita jagta uthaharn he. ab unhe bhi AC ki hawa, banglow , kothi, 5star me khana pansad ane laga, ve bhul gaye ki mai pankaj hu. (pank+Jal) meri utpatti kamal ki tarah he , laxmi ke pas jane pe swyam ko bhul gye, apno ko bhul gye, mai kai vacancy dekhta hu chahe state ki ho ya central ki ratio barabr nahi. aj bhi 4th grade me dalito ki seat jyada aur 1st me general ki jyada he. different saf dikhta he per.ye galti hamari he ki hamere yogy honhar hamare liye kulhadi ke hatthe ban gaye,

  3. Very nice दलित दस्तक हमे बहुत अच्छा लगा
    दिल से सम्मान करते हैं आपका जय भीम

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