पिछले छह महीने से यूपी चुनाव की व्यस्तताओं में उलझी मायावती के सामने जब 11 मार्च को चुनावी नतीजे आए तो उनकी हैरानी का ठिकाना नहीं था. चुनाव के दौरान अपने को सत्ता से बस एक कदम दूर मानकर चल रही मायावती और बहुजन समाज पार्टी के हिस्से आई सीटें हाथों और पैरों की ऊंगलियों की गिनती से बाहर नहीं आ पाई. बसपा को महज 19 सीटें मिली. यह एक ऐसा रिजल्ट था;जिससे सिर्फ पार्टी के नेता ही नहीं, बल्कि बसपा के समर्थक भी हताश और परेशान थे. इस नतीजे के बाद देश-विदेश में फैले बहुजन विचारधारा के हितैषी अम्बेडकरवादियों की निगाहें मायावती पर टिकी थीं. सब टकटकी लगाए बैठे थे कि वह जिस नेतृत्व में विश्वास करते हैं, इस परिणाम के बाद उसकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी?
आखिरकार मायावती बाहर आईं और उन्होंने सीधे ऐसा बयान दिया, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. उन्होंने चुनाव परिणाम के लिए ई.वी.एम (इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन) को दोषी ठहरा दिया. उन्होंने कहा कि यह नतीजे चौंकाने वाले हैं और चुनाव प्रक्रिया में गड़बड़ी हुई है. उन्होंने भाजपा पर सीधा आरोप लगाते हुए कहा कि ई.वी.एम मशीन ने भाजपा के अलावा किसी का वोट ही नहीं लिया. आरोप गंभीर था, लेकिन उनके इस आरोप पर भाजपा ने जहां प्रतिक्रिया तक देने से इंकार कर दिया तो वहीं अन्य दल भी खुलकर सामने नहीं आए. हालांकि अखिलेश यादव ने यह जरूर कहा कि वह इस मुद्दे पर बसपा के साथ हैं और इसकी जांच होनी चाहिए लेकिन उन्होंने इसके पहले आत्मपरिक्षण करने की बात भी कही.
ई.वी.एम में गड़बड़ी के मायावती के आरोप के बाद उनके समर्थकों में ई.वी.एम की कमियां निकालने की जैसे होड़ मच गई. सोशल मीडिया खासकर व्हाट्सएप्प पर बसपा समर्थकों ने अपने नेता के आरोप को सही साबित करने के लिए जी-जान लगा दिया. इसके लिए वो तमाम तरह के तथ्य ढूंढ़ कर सामने लाएं. हालांकि विचारधारा और अम्बेडकरी मिशन के कारण बसपा को समर्थन देने वाला प्रबुद्ध वर्ग इस मुद्दे से ज्यादा संतुष्ट नहीं दिखा. वह आस लगाए बैठा था कि बाबासाहेब और मान्यवर कांशीराम के राजनैतिक मिशन का नेतृत्व कर रही बसपा प्रमुख मायावती इस कठिन वक्त में आत्मसमीक्षा की बात भी करेंगी और पार्टी के अंदर नारे और दूसरी पंक्ति के नेतृत्व के स्तर कुछ बदलाव होगा. क्योंकि वह ई.वी.एम के तर्क से खुद को बहुत ज्यादा जोर कर नहीं देख पाया. यह तबका ई.वी.एम गड़बड़ी की बात से इंकार नहीं कर रहा है, लेकिन उसका मानना था कि इससे इतर भी पार्टी के अंदर की तमाम खामियों पर भी बात होनी चाहिए.
हालांकि ई.वी.एम का तर्क कोई बहुत हल्का तर्क नहीं है. मायावती का आरोप है कि जो काम पहले कमजोर वर्ग को बूथ तक आने से रोककर दबंग करते थे, वही काम अब ई.वी.एम के जरिए तकनीकी षड्यंत्र रच कर किया जा रहा है. इस दावे को इसलिए भी खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि एक भी मुसलमान को टिकट न देने वाली और उनके प्रति अपनी घृणा को न छिपाने वाली भाजपा की पचास फीसदी से भी अधिक मुस्लिम वोटरों वाले धार्मिक रंगत के कस्बे देवबंद से जीत की कोई राजनीतिक व्याख्या कर पाना संभव नहीं है. कोई भी राजनीतिक विश्लेषक इस सीट पर भाजपा की जीत के मायने के कारण नहीं ढूंढ़ पा रहा है तो वहीं देवबंद की जनता भी हैरान-परेशान है.
मायावती के आरोपों की सच्चाई का पता तो तब चलेगा जब केंद्र की भाजपा सरकार जांच कराने को राजी होगी. लेकिन फिलहाल मायावती के लिए यह वक्त ऐसा है, जिसमें उनका नेतृत्व, उनकी पार्टी और दलित आंदोलन संकट में घिरा दिख रहा है. बसपा पर यह संकट बहुत दिनों से मंडरा रहा था लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद यह सतह पर आ गया, जब बसपा लोकसभा चुनाव में अपना खाता तक नहीं खोल पाई.
इस चुनाव में मायावती ने बड़ी तादाद में ऐसे नए धनपतियों को उम्मीदवार बनाया था जिनका न कोई राजनीतिक अतीत है, न ही उनका दलित-बहुजन आंदोलन से ही कोई लेना-देना है. जाहिर है कि बसपा की हार के बाद अब ये अपने फायदे वाली दूसरी पार्टियों का रुख करेंगे. बसपा के जमीनी समर्थकों और कार्यकर्ताओं के लिए परेशान करने वाली बात यह है कि पार्टी में मतलबपरस्त नेताओं की संख्या उन नेताओं से ज्यादा हो गई है, जिनका सरोकार बसपा, इसके जनक कांशीराम और अम्बेडकरी-बहुजन आंदोलन से था. जबकि इसके उलट कांशीराम के सहयोगी रहे दलित आंदोलन से प्रतिबद्धता वाले नेताओं की संख्या अब पार्टी में गिनी-चुनी रह गई है.
आज भी बसपा से दिल से जुड़े लोगों की परेशानी यह है कि एक ओर जहां बसपा वोटों का गठजोड़ कर चुनाव प्रबंधन करने वाली एक सत्तामुखी पार्टी में बदलती जा रही है, तो दूसरी तरफ उसका वोट आधार सिकुड़ता जा रहा है. पार्टी से जुड़े तमाम समर्थक इसकी वजह पार्टी के दो गैरदलित चेहरे और महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मानते हैं. जमीनी स्तर पर इन दोनों नेताओं को पार्टी से बाहर करने की मांग बहुत दिनों से हो रही है. तमाम समर्थकों का मानना है कि इन दोनों के कारण पार्टी और बसपा प्रमुख मायावती की छवि लगातार खराब हुई है और गलत मैसेज जा रहा है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी जहां पैसों के लेन-देन के आरोपों के कारण कठघरे में हैं तो वहीं ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा को कार्यकर्ता हर वक्त अपनी‘बहनजी’ के आस-पास देखना पसंद नहीं करते हैं. कार्यकर्ताओं के बीच चर्चा यह भी है कि बसपा प्रमुख; मिश्रा से प्रभावित होकर बसपा की रणनीति बनाती हैं, जिससे अंततः पार्टी को नुकसान ही होता है.
पार्टी के अंदर से एक बड़ी मांग पार्टी को सर्वजन की विचारधारा से वापस बहुजन की ओर लाने की भी है. जेएनयू के प्रोफेसर और बसपा की राजनीति को करीब से देखने वाले डॉ. विवेक कुमार कहते हैं, “बसपा की यह हार अम्बेडकरवाद की हार है, क्योंकि हम इसी विचारधारा के माध्यम से लड़ रहे थे. पहले अम्बेडकरवाद को गांधीवाद ने हराया, फिर मान्यवर कांशीराम इसके लिए लड़ते रहे. अब मनुवाद ने इसे हरा दिया है. मिशन से जुड़े लोग इसे किसी व्यक्ति की हार से जोर कर नहीं देख रहे हैं. बल्कि वो विचारधारा की हार से व्यथित हैं.”
मायावती पिछले दो साल से चुनावी तैयारियों में लगी थीं और उन्होंने मुसलमान और दलितों का साथ लेकर सत्ता तक पहुँचने का इरादा जताया था. साथ ही ब्राह्मणों को भी साधने की कवायद में थी. तो क्या यह माना जाए कि बहनजी का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फ्लॉप हो गया है. या फिर ऐन वक्त पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन ने मुस्लिम वोटों में सेंधमारी कर दी. या फिर सर्वजन से अल्पसंख्यक के नारे को लोगों ने ठुकरा दिया.
अगर यह कहा जाए कि रणनीति के आधार पर भाजपा सफल रही तो भी गलत नहीं होगा. क्योंकि बसपा जिस तरह से मुसलमानों पर मेहरबान हुई और जिस तरह से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का जोर भी मुस्लिम वोटों पर ही था, इसमें भाजपा ने बहुत सोच-समझ कर मुसलमानों को टिकट नहीं दिया और इस चुनाव को हिन्दू बनाम मुस्लिम बना दिया. इसी रणनीति की बदौलत भाजपा प्रचंड प्रदर्शन करते हुए 312 सीटें लाने में सफल रही है. भाजपा की इस जीत पर वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं, “बहुजन समाज के बुद्धीजीवी तो बदल सकते हैं, लेकिन नेता बदलने को तैयार नहीं है. बहुजन आंदोलन का नेता जब तक कांशीराम और कर्पूरी ठाकुर जैसा नहीं होगा तब तक उसका भला नहीं होगा. करप्ट बहुजन नेता बहुजनवाद को लेकर नहीं चल सकता क्योंकि वह हमेशा डर कर रहेगा. बहुजनों को संत चाहिए; जैसे कांशीराम थे.” भाजपा की प्रचंड जीत के कारणों पर उर्मिलेश कहते हैं कि उनके पास हिन्दू राष्ट्र का सपना है. वह उसे पूरा करने में जी-जान से जुटे हैं. साथ ही सवाल उठाते हैं कि बहुजनों के पास क्या सपना है.?
2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही बसपा का राजनीतिक ग्राफ़ ढलान पर है. इन चुनावों में उसके पास वापसी का आख़िरी मौका था, लेकिन मायावती चूक गईं. भारत में दलित राजनीति का इतिहास महाराष्ट्र, तमिलनाडु और अन्य राज्यों में रहा ज़रुर है लेकिन दलितों को सत्ता पहली बार यूपी में ही मिली. मायावती पहली दलित महिला नेता है जो दलितों के वोटों के कारण सत्ता में पहुंची. दलित राजनीति करने वाले नेताओं और दलितों के लिए अपनी राजनीति को पुनर्परिभाषित करने का यह आखिरी मौका है. वरना बहुजन समाज पार्टी को इतिहास में दर्ज होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.

अशोक दास ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर हैं। वह पिछले 15 सालों से पत्रकारिता में हैं। लोकमत, अमर उजाला, भड़ास4मीडिया और देशोन्नति (नागपुर) जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे हैं। पांच साल (2010-2015) तक राजनीतिक संवाददाता रहने के दौरान उन्होंने विभिन्न मंत्रालयों और भारतीय संसद को कवर किया।
अशोक दास ने बहुजन बुद्धिजीवियों के सहयोग से साल 2012 में ‘दलित दस्तक’ की शुरूआत की। ‘दलित दस्तक’ मासिक पत्रिका, वेबसाइट और यु-ट्यूब चैनल है। इसके अलावा अशोक दास दास पब्लिकेशन के संस्थापक एवं प्रकाशक भी हैं। अमेरिका स्थित विश्वविख्यात हार्वर्ड युनिवर्सिटी में आयोजित हार्वर्ड इंडिया कांफ्रेंस में Caste and Media (15 फरवरी, 2020) विषय पर वक्ता के रूप में शामिल हो चुके हैं। भारत की प्रतिष्ठित आउटलुक मैगजीन ने अशोक दास को अंबेडकर जयंती पर प्रकाशित 50 Dalit, Remaking India की सूची में शामिल किया था। अशोक दास 50 बहुजन नायक, करिश्माई कांशीराम, बहुजन कैलेंडर पुस्तकों के लेखक हैं।
देश के सर्वोच्च मीडिया संस्थान ‘भारतीय जनसंचार संस्थान,, (IIMC) जेएनयू कैंपस दिल्ली’ से पत्रकारिता (2005-06 सत्र) में डिप्लोमा। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम.ए हैं।
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Ashok Das is the founder of ‘Dalit Dastak’. He is in journalism for last 15 years. He has been associated with reputed media organizations like Lokmat, Amar Ujala, Bhadas4media and Deshonnati As a political correspondent for five years (2010-2015). He covered various ministries and the Indian Parliament.
Ashok Das started ‘Dalit Dastak’ with a group of bahujan intellectual in the year 2012. ‘Dalit Dastak’ is a monthly magazine, website and YouTube channel. Apart from this, Ashok Das is also the founder and publisher of ‘Das Publication’. He has attended the Harvard India Conference held at the world-renowned Harvard University in America as a speaker on the topic of ‘Caste and Media’ (February 15, 2020). India’s prestigious Outlook magazine included Ashok Das in the list of ‘50 Dalit, Remaking India’ published on Ambedkar Jayanti. Ashok Das is the author of 50 Bahujan Nayak, Karishmai Kanshi Ram, Ek mulakat diggajon ke sath and Bahujan Calendar Books.
