अप्रैल विद्रोह

5 अप्रैल को देश भर के दलितों में भयंकर गुस्सा था. दो अप्रैल के आंदोलन के बाद उनका गुस्सा बढ़ गया था. खासतौर पर भाजपा शासित राज्यों में हालात ज्यादा बुरे थे. और चूंकि देश के अधिकांश राज्यों में सत्ता पर भाजपा का कब्जा है, सो पूरे देश के हालात बुरे थे. असल में एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ 2 अप्रैल को देश भर के दलित सड़कों पर थे. जिसके बाद इस आंदोलन की कमर तोड़ने के लिए दलित युवाओं और आंदोलनकारियों की धर-पकड़ जारी थी.

‘दलित दस्तक’ के स्थानीय प्रतिनिधियों ने जो जानकारी मुहैया कराई, उसके मुताबिक इस आंदोलन के बाद देश के कई हिस्सों में दलितों पर पुलिस का कहर टूट पड़ा. हरिद्वार में 43 लोगों को गिरफ्तार किया गया. अलीगढ़ के खैर में 125 लोगों पर कार्रवाई हुई. मुजफ्फरनगर में 60 गिरफ्तारियां हुई, जिनमें कुछ की जमानत हो गयी कुछ अभी जेल में हैं बाकी अभी धर पकड़ जारी है. सहारनपुर में 900 लोगों पर अज्ञात एफआईआर हुई है. यह तब है जबकि सहारनपुर में विरोध प्रदर्शन शांति पूर्वक निकला था. मेरठ में गिरफ्तारियों का आंकड़ा 200 के पार था. बुलंदशहर में 135 की गिरफ्तारी हुई थी और उस तारीख तक किसी की बेल नहीं हुई थी. मथुरा में 600 से ज्यादा गिरफ्तारियां हुई तो मध्य प्रदेश के दतिया में यह आंकड़ा 250 था.

बिहार के छपरा जिले में दाउदपुर थाना क्षेत्र के हर्षपुरा गांव से रोशन कुमार ने दलित दस्तक को बताया कि 2 अप्रैल के दो दिन पहले उनके गांव में ऊंची जाति के लोगों ने संगठित होकर दलितों के ऊपर हमला किया और उन्हें यह धमकी देते रहे कि “अब तो सरकार ने एससी-एसटी एक्ट को निष्प्रभावी बना दिया है. अब तुम दलित कहां जाओगे, क्या करोगे.” जयपुर से रिपोर्ट आई कि ज्योति नगर थाने में 20-25 के करीब अनुसूचित जाति एवं जनजाति के युवकों को पुलिस ने धर दबोचा और उनके साथ मारपीट की थी. उनमें से कइयों की परीक्षा भी चल रही थी. राजस्थान के ही बाड़मेर में 300 से अधिक जबकि नीम का थाना में 150 के विरुद्ध नामजद रिपोर्ट दर्ज हुई.

ग्वालियर, मुरैना और भिंड में हालात इतने खराब हो गए थे कि दलितों का घर से निकलना मुश्किल हो गया था. चंडीगढ़ में करीब 250 अम्बेडकरवादियों की गिरफ्तारी हुई, हालांकि उन्हें शाम को रिहा कर दिया गया. अजमेर से दो दर्जन युवाओं के गिरफ्तारी की खबर मिली. इसमें तमाम शहरों में पुलिस ने युवाओं पर 3 से 4 धाराओं में केस दर्ज किया, ताकि वे आसानी से बाहर न आ सकें. जाहिर है कि देश में इतने ही शहर नहीं हैं. तमाम शहरों की रिपोर्ट हम तक पहुंच भी नहीं पाई.

खास तौर पर उत्तर प्रदेश के हापुड़ और मेरठ में तो 2 अप्रैल के आंदोलन के बाद कई दिनों तक पुलिस लगातार दबिश देती रही. यहां ज्यादातर 18-30 साल के युवाओं को निशाना बनाया गया. पुलिस ने घर में घुस-घुस कर उन्हें गिरफ्तार किया. इस दौरान घऱ की महिलाओं से भी बदतमीजी की खबर है. पुलिस वालों का अत्याचार जब हद से आगे बढ़ गया तो मेरठ में महिलाओं ने जिला मुख्यालय पर धरना देकर अपने बच्चों की गिरफ्तारी और खुद से छेड़छाड़ का विरोध किया.

असल में ये सारी धर-पकड़ सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट में हुए संसोधन के खिलाफ 2 अप्रैल को सड़क पर उतरे दलितों के विरोध प्रदर्शन के बाद की गई थी. इस आंदोलन के बाद दलितों को न सिर्फ पुलिस के अन्याय का सामना करना पड़ा, बल्कि कई जगहों से ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिसमें ऊंची जाति के लोग दलितों की भीड़ पर न सिर्फ पत्थर बरसाते दिखें बल्कि उन्होंने दलितों की भीड़ पर गोलियां भी चलाई. असल में यह प्रशासन और एक खास वर्ग के लोगों का गुस्सा था, जो नीले झंडे लिए उस हुजूम से खौफ खा रहा थे जो 2 अप्रैल को सड़कों पर उतर आई थी.

नीले आसमान के नीचे नीले झंडों से पटे देश भर की सड़कों पर यह नजारा किसी को भी हैरत में डालने वाला था. पूरा देश इस नीले सैलाब को अचरज से देख रहा था. सबके लिए उससे भी आश्चर्य की बात यह रही कि यह सैलाब किसी के बुलाए बिना अपनी मर्जी से उमड़ा था. लोगों का यह समुंदर तब था जब 2 अप्रैल की दोपहर तक देश के कई शहरों में यह साफ नहीं था कि प्रदर्शन करना है या नहीं. गोरखपुर से दलित दस्तक के प्रतिनिधि राजकुमार ने फोन कर बताया कि 12 बजे तक दलित संगठन इस बात को लेकर ऊहापोह की स्थिति में रहें कि शहर में विरोध का झंडा कौन उठाएगा और दो बजते-बजते स्थिति यह थी कि गोरखपुर का सबसे व्यस्त गोलघर चौराहे की सभी दुकानों के शटर गिरे हुए थे और योगी के गढ़ में जय भीम का नारा गूंज रहा था.

स्वतः स्फूर्त और बिना नेतृत्व हुए इस दलित आंदोलन पर समाजशास्त्री और जेएनयू में प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार कहते हैं “यह महज एक दिन का गुस्सा नहीं था, बल्कि यह सदियों से अपमानित समाज के संचित गुस्से का इजहार था. दलितों का अब राजनैतिक दलों की माई-बाप संस्कृति से मोहभंग हो गया है. दलित समाज अब अपने मुद्दों को उठाने के लिए किसी का मुंह ताकना नहीं चाहता.” यह इसलिए भी है क्योंकि यह समाज अब थोड़ा संबल हुआ है. शहरों में रह रहे इस समाज के लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक होने औऱ अपनी चुनावी ताकत का अहसास होने से स्थिति बदली है. सबके हाथों में मोबाईल है और पूरा समाज आपस में बिना रोक-टोक संवाद कर रहा है. अब वह अपना एजेंडा खुद तय कर रहा है.

दलित समाज का हर जागरूक व्यक्ति खुद के साथ औऱ अपने समाज के लोगों के साथ हर रोज हो रहे अत्याचार से गुस्से में है. भारत में हर 15वें मिनट में दलितों के साथ अपराध होता है. हर दिन छह दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना होती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट (2016) के मुताबिक पिछले दस सालों में दलितों पर होने वाले अत्याचार में 51 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. ये आंकड़े पीड़ित समाज में गुस्सा भरने के लिए काफी है. 1989 का अनुसूचित जाति- जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम दलित समाज का बचाव करता था, और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दलितों को अपनी सुरक्षा पर खतरा दिखने लगा. और खुद को असुरक्षित महसूस करने के कारण दलित समुदाय सड़कों पर आ गया. हैरान करने वाली बात यह रही कि सरकारी कर्मचारी भी अपने दफ्तरों से सामूहिक छुट्टी लेकर इस आंदोलन का हिस्सा बने. आरक्षण पर हमले और नौकरियों में डिमोशन होने से कर्मचारी वर्ग में भी बेहद गुस्सा था.

दलित समाज की यह असुरक्षा बेवजह नहीं थी. बीते सालों में कई ऐसी बातें हुई है जिसने दलितों में असुरक्षा का भाव भर दिया है. दलितों को सुरक्षा का भाव देश का संविधान देता है. चूंकि इस संविधान को बाबासाहब आम्बेडकर ने बनाया है सो दलित समाज का संविधान से लगाव भी ज्यादा है. इस संविधान में जो चीजें वंचित तबके को सुरक्षा देती है; वह राजनैतिक आरक्षण, नौकरियों में आरक्षण और अनुसूचित जाति- जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम है. इसमें से किसी एक पर हमला दलित समाज को आक्रामक कर देता है. पिछले एक दशक में सरकारी नौकरियां लगातार कम हुई है. 2014 में मोदी के शासन में आने के बाद स्थिति और बदतर हुई है. पिछले दिनों कॉलेजों में नियुक्ति का एक मामला सामने आया. यह एससी-एसटी औऱ ओबीसी के लोगों की भर्ती का था, इसमें आरक्षण को कमजोर किया गया. नौकरियों में ठेका प्रथा, निजीकरण और विनिवेश ने भी आरक्षण के नियमों में छेड़छाड़ का मौका दे दिया है. दलित समाज का युवा इस स्थिति को समझ रहा है और अपना अधिकार छिनते देख उसमें गुस्सा है.

सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को एससी-एसटी अधिनियम में बदलाव को लेकर जो फैसला सुनाया, उसमें उसने दलित उत्पीड़न के मामले में शिकायत मिलने पर अग्रिम जमानत की सुविधा दे दी और मुकदमा दायर करने से पहले जांच की बात जोड़ दी. साथ ही सरकारी कर्मचारियों के मामले में गिरफ्तारी से पहले डीएसपी रैंक के अधिकारी से मामले की जांच को जरूरी कर दिया. तर्क यह था कि ऐसा जातिवीहीन समाज बनाने के लिए किया जा रहा है. इस पूरी कवायद की जड़ में केंद्र सरकार की वह रिपोर्ट थी, जिसमें एससी-एसटी अत्याचार अधिनियम कानून के दुरुपयोग की बात कही गई थी.
झूठे मुकदमों के आरोप की हकीकत

ऊंची जातियों के लोगों द्वारा दलितों को लेकर झूठे मामलों की शिकायत कोई नई नहीं है, वो ऐसा काफी लंबे वक्त से करते रहे हैं. पिछले साल महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लोगों ने भी दलित उत्पीड़न कानून में नरमी को लेकर मांग की थी. उनका तर्क था कि मराठाओं के खिलाफ इस अधिनियम में कई फर्जी मामले दर्ज हैं. हालांकि तब इसके जवाब में महाराष्ट्र पुलिस ने राज्य सरकार को सौंपे अपने रिपोर्ट में कानून के दुरुपयोग का कोई सबूत होने से इंकार किया था. तो हाल ही में इसी सरकार की एक अन्य संस्था द्वारा जारी आंकड़ा बताता है कि झूठे मामले के 21 फीसदी केसों की संख्या घटकर अब 15 फीसदी हो गई है.

हालांकि यहां हमें झूठे मुकदमों की सच्चाई को समझना भी जरूरी है. इसमें कहीं न कहीं वह उच्च तबका भी शामिल है, जो इसके दुरुपयोग की शिकायत करता रहता है. कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि ऊंची जाति का एक व्यक्ति ऊंची जाति के ही अपने दूसरे विरोधी से अपनी दुश्मनी निकालने के लिए अपने अधीन काम करने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों से झूठे मामले दर्ज करवा देता था. अपनी रोजी-रोटी जैसी जरूरी जरूरतों के लिए सामान्य वर्ग पर निर्भर रहने के कारण अनुसूचित जाति/जनजाति का व्यक्ति दबाव में अपने बॉस के इशारे पर मामला दर्ज करवा देता था. लेकिन अब इस वर्ग में शिक्षा का प्रसार होने और सामान्य वर्ग पर निर्भरता कम होने से झूठे मामलों में कमी आई है. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि एससी-एसटी अत्याचार अधिनियम में संशोधन से पहले दलितों के खिलाफ अपराध के मामले में कुल दर्ज मुकदमों में सिर्फ 9 फीसदी मामलों में ही सजा मिल पाती है.

यानि की एक तो दलितों को न्याय नहीं मिल रहा था और उस पर से कानून को कमजोर कर दिया गया. अनुसूचित जाति और जनजाति को न्याय मिलने की दर कितनी धीमी है, यह 2016 के इस आंकड़े से समझा जा सकता है-

प्रदेश कुल दर्ज मामले सजा

उत्तर प्रदेश 10,430 1582
बिहार 5,726 209
राजस्थान 6,329 680
मध्य प्रदेश 6,745 1159
आंध्र प्रदेश 2,740 33
ओडिशा 2,477 52
कर्नाटक 2,237 22
महाराष्ट्र 2,139 127
– स्रोतः राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो

अगर इस कानून के दुरुपयोग की बात मान भी लें तो क्या देश में ऐसा कोई कानून है, जिसके दुरुपयोग की बात न उठी हो या फिर जिसका दुरुपयोग न हुआ हो. कानून और ताकत के दुरुपयोग का सबसे ज्यादा मामला तो पुलिस से जुड़ा होता है. उत्तर प्रदेश में हाल में जो एनकाउंटर हुए हैं, उसमें कई एनकाउंटर के फर्जी होने की बात सामने आई है. घरवालों ने इस बात के सबूत भी दिए हैं. तो क्या पुलिस के अधिकार को कम कर दिया जाना चाहिए या फिर एनकाउंटर की व्यवस्था को खत्म कर देना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने अन्य कानूनों की ओर ध्यान क्यों नहीं दिया?

एससी-एसटी एक्ट की हकीकत

प्रोफेसर विवेक कुमार कानून के दुरुपयोग से उलट एक दूसरा सवाल उठाते हैं. उनका कहना है, “ दुरुपयोग के उलट सच्चाई यह है कि इस कानून का पूरी तरह से पालन नहीं हो पाता है. यह बात इस मामले में रिहाई की ऊंची दर से साबित भी होती है. ” 1992 में राजस्थान में भंवरी देवी मामले का जिक्र करते हुए प्रो. विवेक कहते हैं कि इस मामले में तमाम सबूतों और बयानों को अनदेखा कर अदालत ने ऊंची जाति के बलात्कारियों को यह कहकर रिहा कर दिया था कि लड़के अपने पिता के सामने ऐसा कुकृत्य नहीं कर सकते हैं. तो बिहार में हुए दलितों के एक हत्याकांड में अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया.

एससी-एसटी कानून में हालिया बदलाव से दलितों-आदिवासियों के बचाव का संवैधानिक कवच कमजोर हो गया है. आर्थिक रूप से तो देश का यह वंचित तबका पहले से ही काफी परेशान रहा है. आजादी के सात दशकों के बाद भी देश की तीन-चौथाई अनुसूचित जाति की आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. इनमें से 84 फीसदी आबादी की औसत मासिक आमदनी 5000 रुपये से भी कम है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 60 फीसदी से ज्यादा दलित आबादी किसी तरह की आर्थिक गतिविधि में शामिल नहीं होती है. छोटे-मोटे काम कर अपना जीवन जीने वाले दलितों में 55 फीसदी बटाईदार और खेतिहर मजदूर हैं. गांवों में रहने वाले दलितों में 45 फीसदी भूमिहीन हैं.

राजनीतिक घमासान

उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ दो अप्रैल को जब दलित सड़क पर उतरे तो अचानक देश का राजनैतिक माहौल गरमा गया. देश भर की सड़कों पर दलितों के सैलाब को अपने पाले में खिंचने के लिए राजनैतिक दलों में होड़ मच गई. तो इस जनसमूह के सामने आने से घबराई भाजपा और केंद्र सरकार ने आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर कर दी. हालांकि उसके पास इस बात का जवाब नहीं है कि उसने ऐसा करने में दो हफ्ते का समय क्यों लगाया. स्पष्ट है कि यह दलितों की बढ़ी हुई राजनीतिक शक्ति है, जिससे तमाम दल घबरा गए हैं. यह वही भाजपा है जिसके नेता पिछले चार साल से संविधान बदलने और आरक्षण समाप्त करने की बात कर रहे हैं.

आगे क्या होगा

तो क्या दलितों के सड़क पर उतरने के बाद देश में और इस समाज में कुछ बदलेगा? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं, “ जो गुस्सा सामने आया वह एक दिन का गुस्सा नहीं था, बल्कि वो लंबे वक्त का असंतोष था. ऐसे गुस्से स्थायी नहीं होते. यह गुस्सा स्थायी तभी बन सकता है, जब इस प्रतिरोध का कोई सांगठनिक ढांचा बने और इसके बीच से कोई सांगठनिक ताकत प्रेरक शक्ति बनें. देश इस वक्त बड़ी क्राइसिस का शिकार है. बहुजन समाज के बीच से कोई बड़ा विजनरी लीडरशिप नहीं दिख रहा है.” उर्मिलेश का कहना है कि फिलहाल देश में नरेंद्र मोदी और भाजपा के पास एक विजन है. उनका विजन किसके लिए सही और किसके लिए गलत है या फिर यह कितना खतरनाक है, इस पर बहस हो सकती है. आप उससे सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता.

बकौल उर्मिलेश, “दो अप्रैल को सांगठनिक तौर पर दलित समाज जिस तरह से सामने आय़ा है उसने पूरे देश को चौंकाया जरूर है. इस बात की काफी संभावना है और यह हो भी सकता है कि लोग संगठित होकर भाजपा को हरा दें, लेकिन इससे ज्यादा कुछ दिख नहीं रहा है. आज भारत को एक नए अम्बेडकर की जरूरत है.”

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