औरंगज़ेब के विरुद्ध हिन्दू विरोधी होने के झूठे आरोप को झुठलाते ऐतहासिक तथ्य

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जब मैं इलाहाबाद नगरपालिका का चेयरमैन था (1948 से 1953 तक) तो मेरे सामने दाखिल-खारिज का एक मामला लाया गया, जो सोमेश्वर नाथ महादेव मन्दिर से संबंधित जायदाद को लेकर था.. मन्दिर के महंत की मृत्यु के बाद उस जायदाद के दो दावेदार खड़े हो गए थे.. एक ने कुछ ऐसे दस्तावेज़ दाखिल किये जो उसके खानदान में बहुत दिनों से चले आ रहे थे.. इनमें मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के फ़रमान भी थे..बादशाह ने इस मन्दिर को जागीर और नक़द अनुदान दिया था.. मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो सकता है कि औरंगज़ेब जैसा क्रूर शासक, जो मन्दिरों को तोडने के लिए कुख्यात है, उसने एक मन्दिर को यह कह कर जागीर दी कि यह पूजा और भोग के लिए दी जा रही है.. वो बुतपरस्ती के साथ कैसे अपने को शरीक कर सकता था..

मुझे यक़ीन था कि ये दस्तावेज़ जाली हैं, परन्तु कोई निर्णय लेने से पहले मैंने डा. सर तेज बहादुर सप्रु से राय लेना उचित समझा, जो अरबी और फ़ारसी के अच्छे जानकार थे.. मैंने दस्तावेज़ उनके सामने पेश कर दिए.. उन्होंने दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद कहा कि औरंगजे़ब के ये फ़रमान असली और वास्तविक हैं. इसके बाद उन्होंने अपने मुन्शी से बनारस के जंगमबाड़ी शिव मन्दिर की फाइल लाने को कहा, जिसका मुक़दमा इलाहाबाद हाईकोर्ट में 15 साल से विचाराधीन था.. जंगमबाड़ी मन्दिर के महंत के पास भी औरंगज़ेब के कई फ़रमान थे, जिनमें मन्दिर को जागीर दी गई थी..

इन दस्तावेज़ों ने औरंगज़ेब की एक नई तस्वीर मेरे सामने पेश की, उससे मैं आश्चर्य में पड़ गया..डाक्टर सप्रू की सलाह पर मैंने भारत के विभिन्न प्रमुख मन्दिरों के महंतो के पास पत्र भेजकर उनसे निवेदन किया कि यदि उनके पास औरंगज़ेब के प्रदान किये वो फ़रमान हों, जिनमें उन मन्दिरों को जागीरें दी गई हों तो वे कृपा करके उनकी फोटो-स्टेट कापियां मेरे पास भेज दें..

अब मेरे सामने आश्चर्य का जखीरा खड़ा था.. क्योंकि मुझे उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर, चित्रकूट के बालाजी मन्दिर, गौहाटी के उमानन्द मन्दिर, शत्रुन्जाई के जैन मन्दिर और उत्तर भारत में फैले हुए अन्य प्रमुख मन्दिरों एवं गुरूद्वारों से सम्बन्धित जागीरों के लिए औरंगज़ेब के फरमानों की नक़लें प्राप्त हुईं..

यह फ़रमान 1065 हि. से 1091 हि., अर्थात 1659 से 1685 ई. के बीच जारी किए गए थे.. इन दस्तावेजों से प्रमाण्ति हो जाता है कि इतिहासकारों ने औरंगज़ेब के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह पक्षपात पर आधारित है और इससे उसकी तस्वीर का गलत रुख सामने लाया गया है.

औरंगज़ेब के फरमानों की जांच-पड़ताल के सिलसिले में मेरा सम्पर्क श्री ज्ञानचंद और पटना म्यूजियम के भूतपूर्व क्यूरेटर डा. पी एल. गुप्ता से हुआ..ये दोनों महानुभाव औरंगज़ेब के विषय में अति महत्वपूर्ण रिसर्च कर रहे थे.. मुझे खुशी हुई कि कुछ अन्य अनुसन्धानकर्ता भी सच्चाई को तलाश करने में व्यस्त हैं और बुरी तरह बदनाम औरंगज़ेब की तस्वीर का सच्चा पक्ष सामने ला रहे हैं..

औरंगज़ेब पर हिन्दू दुश्मनी के आरोप के सम्बन्ध में जिस फरमान को बहुत उछाला गया है, वह ‘फ़रमाने-बनारस’ के नाम से प्रसिद्ध है, जो बनारस के मुहल्ला गौरी के एक ब्राहमण परिवार से संबंधित है.. 1905 ई. में इसे गोपी उपाघ्याय के नवासे मंगल पाण्डेय ने सिटी मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया था.. इसे पहली बार ‘एशियाटिक सोसाइटी’ नामके बंगाल के जर्नल (पत्रिका) ने 1911 ई. में प्रकाशित किया था..फलस्वरूप रिसर्च करनेवालों का ध्यान इधर गया..तब से इतिहासकार प्रायः इसका हवाला देते आ रहे हैं और वे इसके आधार पर औरंगज़ेब पर आरोप लगाते हैं कि उसने हिन्दू मन्दिरों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया था, जबकि इस फ़रमान का वास्तविक महत्व उनकी निगाहों से ओझल रह जाता है..

यह लिखित फ़रमान औरंगज़ेब ने 15 जुमादुल-अव्वल 1065 हि. (10 मार्च 1659 ई.) को बनारस के स्थानीय अधिकारी के नाम भेजा था, जो एक ब्राहमण की शिकायत के सिलसिले में जारी किया गया था.. वह ब्राहमण एक मन्दिर का महंत था और कुछ लोग उसे परेशान कर रहे थे.. फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘अबुल हसन को हमारी शाही उदारता का क़ायल रहते हुए यह जानना चाहिए कि हमारी स्वाभाविक दयालुता और प्राकृतिक न्याय के अनुसार हमारा सारा अनथक संघर्ष और न्यायप्रिय इरादों का उद्देश्य जन-कल्याण को बढ़ावा देना है और प्रत्येक उच्च एवं निम्न वर्गों के हालात को बेहतर बनाना है. अपने पवित्र कानून के अनुसार हमने फैसला किया है कि प्राचीन मन्दिरों को तबाह और बरबाद नहीं किया जाय, अलबत्ता नए मन्दिर ना बनाए जाएँ.

हमारे इस न्याय पर आधारित काल में हमारे प्रतिष्ठित एवं पवित्र दरबार में यह सूचना पहुंची है कि कुछ लोग बनारस शहर और उसके आस-पास के हिन्दू नागरिकों और मन्दिरों के ब्राहमणों-पुरोहितों को परेशान कर रहे हैं तथा उनके मामलों में दख़ल दे रहे हैं, जबकि ये प्राचीन मन्दिर उन्हीं की देख-रेख में हैं. इसके अतिरिक्त वे चाहते हैं कि इन ब्राहमणों को इनके पुराने पदों से हटा दें. यह दखलंदाज़ी इस समुदाय के लिए परेशानी का कारण है. इसलिए यह हमारा फ़रमान है कि हमारा शाही हुक्म पहुंचते ही तुम हिदायत जारी कर दो कि कोई भी व्यक्ति ग़ैर-कानूनी रूप से दखलंदाजी ना करे और ना उन स्थानों के ब्राहमणों एवं अन्य हिन्दु नागरिकों को परेशान करे. ताकि पहले की तरह उनका क़ब्ज़ा बरक़रार रहे और पूरे मनोयोग से वे हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के लिए प्रार्थना करते रहें. इस हुक्म को तुरन्त लागू किया जाये.’’

इस फरमान से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि औरंगज़ेब ने नए मन्दिरों के निर्माण के विरुद्ध कोई नया हुक्म जारी नहीं किया, बल्कि उसने केवल पहले से चली आ रही परम्परा का हवाला दिया और उस परम्परा की पाबन्दी पर ज़ोर दिया. पहले से मौजूद मन्दिरों को ध्वस्त करने का उसने कठोरता से विरोध किया. इस फ़रमान से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह हिन्दू प्रजा को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर देने का इच्छुक था.

यह अपने जैसा केवल एक ही फरमान नहीं है. बनारस में ही एक और फरमान मिलता है, जिससे स्पष्ट होता है कि औरंगज़ेब वास्तव में चाहता था कि हिन्दू सुख-शान्ति के साथ जीवन व्यतीत कर सकें.

यह फरमान इस प्रकार हैः ‘‘रामनगर (बनारस) के महाराजाधिराज राजा रामसिंह ने हमारे दरबार में अर्ज़ी पेश की है कि उनके पिता ने गंगा नदी के किनारे अपने धार्मिक गुरू भगवत गोसाईं के निवास के लिए एक मकान बनवाया था. अब कुछ लोग गोसाईं को परेशान कर रहे हैं. अतः यह शाही फ़रमान जारी किया जाता है कि इस फरमान के पहुंचते ही सभी वर्तमान एवं आने वाले अधिकारी इस बात का पूरा ध्यान रखें कि कोई भी व्यक्ति गोसाईं को परेशान एवं डरा-धमका ना सके, और ना उनके मामले में हस्तक्षेप करे, ताकि वे पूरे मनोयोग के साथ हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए प्रार्थना करते रहें. इस फरमान पर तुरंत अमल किया जाए.’’

(तारीख-17 रबी उस्सानी 1091 हिजरी) जंगमबाड़ी मठ के महंत के पास मौजूद कुछ फरमानों से पता चलता है कि औरंगज़ैब कभी यह सहन नहीं करता था कि उसकी प्रजा के अधिकार किसी प्रकार से भी छीने जाएँ, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान. वह अपराधियों के साथ सख़्ती से पेश आता था.

इन फरमानों में एक जंगम लोगों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) की ओर से सामने आया, जिस पर शाही हुक्म दिया गया था कि बनारस सूबा इलाहाबाद के अफ़सरों को सूचित किया जाता है कि पुराना बनारस के नागरिकों अर्जुनमल और जंगमियों ने शिकायत की है कि बनारस के एक नागरिक नज़ीर बेग ने क़स्बा बनारस में उनकी पांच हवेलियों पर क़ब्जा कर लिया है. उन्हें हुक्म दिया जाता है कि यदि शिकायत सच्ची पाई जाए और जायदाद की मिल्कियत का अधिकार प्रमाणित हो जाए तो नज़ीर बेग को उन हवेलियों में दाखि़ल ना होने दया जाए, ताकि जंगमियों को भविष्य में अपनी शिकायत दूर करवाने के लिए हमारे दरबार में ना आना पडे.

इस फ़रमान पर 11 शाबान, 13 जुलूस (1672 ई.) की तारीख़ दर्ज है. इसी मठ के पास मौजूद एक-दूसरे फ़रमान में जिस पर पहली रबीउल अव्वल 1078 हि. की तारीख दर्ज़ है, यह उल्लेख है कि ज़मीन का क़ब्ज़ा जंगमियों को दिया गया. फ़रमान में है- ‘‘परगना हवेली बनारस के सभी वर्तमान और भावी जागीरदारों एवं करोडियों को सूचित किया जाता है कि शहंशाह के हुक्म से 178 बीघा ज़मीन जंगमियों (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) को दी गई.

पुराने अफसरों ने इसकी पुष्टि की थी और उस समय के परगना के मालिक की मुहर के साथ यह सबूत पेश किया है कि ज़मीन पर उन्हीं का हक़ है. अतः शहंशाह की जान के सदक़े के रूप में यह ज़मीन उन्हें दे दी गई. ख़रीफ की फसल के प्रारम्भ से ज़मीन पर उनका क़ब्ज़ा बहाल किया जाय और फिर किसी प्रकार की दखलंदाज़ी ना होने दी जाए, ताकि जंगमी लोग (शैव सम्प्रदाय के एक मत के लोग) उसकी आमदनी से अपनी देख-रेख कर सकें.’’

इस फ़रमान से केवल यही पता नहीं चलता कि औरंगज़ेब स्वभाव से न्यायप्रिय था, बल्कि यह भी साफ़ नज़र आता है कि वह इस तरह की जायदादों के बंटवारे में हिन्दू धार्मिक सेवकों के साथ कोई भेदभाभ नहीं बरता था. जंगमियों को 178 बीघा ज़मीन संभवतः स्वयं औरंगज़ेब ही ने प्रदान की थी, क्योंकि एक दूसरे फ़रमान (तिथि 5 रमज़ान, 1071 हि.) में इसका स्पष्टीकरण किया गया है कि यह ज़मीन मालगुज़ारी मुक्त है.

औरंगज़ेब ने एक दूसरे फरमान (1098 हि.) के द्वारा एक दूसरी हिन्दू धार्मिक संस्था को भी जागीर प्रदान की. फ़रमान में कहा गया हैः ‘‘बनारस में गंगा नदी के किनारे बेनी माधो घाट पर दो प्लाट खाली हैं. एक मर्क़जी मस्जिद के किनारे रामजीवन गोसाईं के घर के सामने और दूसरा उससे पहले. ये प्लाट बैतुल-माल की मिल्कियत है. हमने यह प्लाट रामजीवन गोसाईं और उनके लड़के को ‘‘इनाम’ के रूप में प्रदान किया, ताकि उक्त प्लाटों पर बाहमणों एवं फ़क़ीरों के लिए रिहायशी मकान बनाने के बाद वे खुदा की इबादत और हमारी ईश-प्रदत्त सल्तनत के स्थायित्व के लिए दूआ और प्रार्थना करने में लग जाएं.

हमारे बेटों, वज़ीरों, अमीरों, उच्च पदाधिकारियों, दरोग़ा और वर्तमान एवं भावी कोतवालों को अनिवार्य है कि वे इस आदेश के पालन का ध्यान रखें और उक्त प्लाट, उपर्युक्त व्यक्ति और उसके वारिसों के क़ब्ज़े ही मे रहने दें और उनसे न कोई मालगुज़ारी या टैक्स लिया जाए और ना उनसे हर साल नई सनद मांगी जाए.’’ लगता है औरंगज़ेब को अपनी प्रजा की धार्मिक भावनाओं के सम्मान का बहुत अधिक ध्यान रहता था. असम का उमानन्द मंदिर..

हमारे पास औरंगज़ेब का एक फ़रमान (2 सफ़र, 9 जुलूस) है, जो असम के शह गोहाटी के उमानन्द मन्दिर के पुजारी सुदामन ब्राहमण नाम है. असम के हिन्दू राजाओं की ओर से इस मन्दिर और उसके पुजारी को ज़मीन का एक टुकड़ा और कुछ जंगलों की आमदनी जागीर के रूप में दी गई थी, ताकि भोग का खर्च पूरा किया जा सके और पुजारी की आजीविका चल सके. जब यह प्रांत औरंगजेब के शासन-क्षेत्र में आया, तो उसने तुरंत ही एक फरमान के द्वारा इस जागीर को यथावत रखने का आदेश दिया.

उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर..

हिन्दुओं और उनके धर्म के साथ औरंगज़ेब की सहिष्णुता और उदारता का एक और सबूत उज्जैन के महाकालेश्वर मन्दिर के पुजारियों से मिलता है. यह शिवजी के प्रमुख मन्दिरों में से एक है, जहां दिन-रात दीप प्रज्वलित रहता है. इसके लिए काफ़ी दिनों से प्रतिदिन चार सेर घी वहां की सरकार की ओर से उपलब्ध कराया जाता था और पुजारी कहते हैं कि यह सिलसिला मुगल काल में भी जारी रहा. औरंगजेब ने भी इस परम्परा का सम्मान किया.

इस सिलसिले में पुजारियों के पास दुर्भाग्य से कोई फ़रमान तो उपलब्ध नहीं है, परन्तु एक आदेश की नक़ल ज़रूर है, जो औरंगज़ब के काल में शहज़ादा मुराद बख़्श की तरफ से जारी किया गया था. (5 शव्वाल 1061 हि. को यह आदेश शहंशाह की ओर से शहज़ादा ने मन्दिर के पुजारी देव नारायण के एक आवेदन पर जारी किया था. वास्तविकता की पुष्टि के बाद इस आदेश में कहा गया है कि मन्दिर के दीप के लिए चबूतरा कोतवाल के तहसीलदार चार सेर (अकबरी घी प्रतिदिन के हिसाब से उपल्ब्ध कराएँ. इसकी नक़ल मूल आदेश के जारी होने के 93 साल बाद (1153 हिजरी) में

मुहम्मद सअदुल्लाह ने पुनः जारी की.

साधारण्तः इतिहासकार इसका बहुत उल्लेख करते हैं कि अहमदाबाद में नागर सेठ के बनवाए हुए चिन्तामणि मन्दिर को ध्वस्त किया गया, परन्तु इस वास्तविकता पर पर्दा डाल देते हैं कि उसी औरंगज़ेब ने उसी नागर सेठ के बनवाए हुए शत्रुन्जया और आबू मन्दिरों को काफ़ी बड़ी जागीरें प्रदान कीं.

काशी विश्वनाथ का मन्दिर क्यों तोड़ना पड़ा..

निःसंदेह इतिहास से यह प्रमाण्ति होता हैं कि औरंगजेब ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर और गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद को ढा देने का आदेश दिया था, परन्तु इसका कारण कुछ और ही था. विश्वनाथ मन्दिर के सिलसिले में घटनाक्रम यह बयान किया जाता है कि जब औरंगज़ेब बंगाल जाते हुए बनारस के पास से गुज़र रहा था, तो उसके काफिले में शामिल हिन्दू राजाओं ने बादशाह से निवेदन किया कि वहाँ क़ाफ़िला एक दिन ठहर जाए तो उनकी रानियां बनारस जा कर गंगा नदी में स्नान कर लेंगी और विश्वनाथ जी के मन्दिर में श्रद्धा सुमन भी अर्पित कर आएँगी. औरंगज़ेब ने तुरंत ही यह निवेदन स्वीकार कर लिया और क़ाफिले के पडाव से बनारस तक पांच मील के रास्ते पर फ़ौजी पहरा बैठा दिया. रानियां पालकियों में सवार होकर गईं और स्नान एवं पूजा के बाद वापस आ गईं, परन्तु एक रानी (कच्छ की महारानी) वापस नहीं आई, तो उनकी बड़ी तलाश हुई, लेकिन पता नहीं चल सका. जब औरंगजै़ब को मालूम हुआ तो उसे बहुत गुस्सा आया और उसने अपने फ़ौज के बड़े-बड़े अफ़सरों को तलाश के लिए भेजा. आखिर में उन अफ़सरों ने देखा कि गणेश की मूर्ति जो दीवार में जड़ी हुई है, हिलती है. उन्होंने मूर्ति हटवा कर देखा तो तहखाने की सीढ़ी मिली और गुमशुदा रानी उसी में पड़ी रो रही थी. उसकी इज़्ज़त भी लूटी गई थी और उसके आभूषण भी छीन लिए गए थे. यह तहखाना विश्वनाथ जी की मूर्ति के ठीक नीचे था.

राजाओं ने इस हरकत पर अपनी नाराज़गी जताई और विरोघ प्रकट किया. चूंकि यह बहुत घिनौना अपराध था, इसलिए उन्होंने कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने की मांग की. उनकी मांग पर औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि चूंकि पवित्र-स्थल को अपवित्र किया जा चुका है. अतः विश्वनाथ जी की मूर्ति को कहीं और ले जाकर स्थापित कर दिया जाए और मन्दिर को गिरा कर ज़मीन को बराबर कर दिया जाए और महंत को गिरफतार कर लिया जाए.

डाक्टर पट्ठाभि सीतारमैया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ़ेदर्स एण्ड द स्टोन्स’ मे इस घटना को दस्तावेजों के आधार पर प्रमाणित किया है. पटना म्यूज़ियम के पूर्व क्यूरेटर डा.पी.एल. गुप्ता ने भी इस घटना की पुस्टि की है.

मस्ज़िद तोड़ने की घटना…

गोलकुण्डा की जामा-मस्जिद की घटना यह है कि वहां के राजा, जो तानाशाह के नाम से प्रसिद्ध थे, रियासत की मालुगज़ारी वसूल करने के बाद दिल्ली का हिस्सा नहीं भेजते थे. कुछ ही वर्ष में यह रक़म करोड़ों की हो गई. तानाशाह ने यह ख़ज़ाना एक जगह ज़मीन में गाड़ कर उस पर मस्जिद बनवा दी. जब औरंगज़ेब को इसका पता चला तो उसने आदेश दे दिया कि यह मस्जिद गिरा दी जाए. अतः गड़ा हुआ खज़ाना निकाल कर उसे जन-कल्याण के कामों में ख़र्च किया गया.

ये दोनों मिसालें यह साबित करने के लिए काफ़ी हैं कि औरंगज़ेब न्याय के मामले में मन्दिर और मस्जिद में कोई फ़र्क़ नहीं समझता था. ‘‘दुर्भाग्य से मध्यकाल और आधुनिक काल के भारतीय इतिहास की घटनाओं एवं चरित्रों को इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर मनगढंत अंदाज़ में पेश किया जाता रहा है कि झूठ ही ईश्वरीय आदेश की सच्चाई की तरह स्वीकार किया जाने लगा, और उन लोगों को दोषी ठहराया जाने लगा जो तथ्य और मनगढंत बातों में अन्तर करते हैं. आज भी साम्प्रदायिक एवं स्वार्थी तत्व इतिहास को तोड़ने-मरोडने और उसे ग़लत रंग देने में लगे हुए हैं.

स्रोत-पुस्तेक का नाम: भारतीय संस्कृति और मुग़ल साम्राज्य • लेखक: प्रो. बी. एन पाण्डेय Read it also-मंदिर और मूर्तियों में रुचि रखने वाले शूद्रों(पिछड़ों) और आम महिलाओं से एक विनम्र सवाल!

बसपा ने जारी की 42 नामों की तीसरी सूची

जयपुर। बसपा ने सोमवार रात 42 प्रत्याशियों की तीसरी सूची जारी की. इससे पहले 19 उम्मीदवार घोषित किए जा चुके हैं. ऐसे में बसपा ने कुल 61 प्रत्याशियों घोषित किए हैं. इस सूची में जातीय समीकरणों व सोशल इंजीनियरिंग का प्रयास किया गया है, ताकि बसपा का प्रत्याशी बीजेपी-कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे सकें.

उधर, ये सूची जारी करने वाले बसपा प्रदेश अध्यक्ष सीताराम मेघवाल ने कहा कि किसी भी दूसरे दल के साथ गठबंधन को तैयार नहीं है. इसकी ऑफिशियल घोषणा मंगलवार को कर दी जाएगी. गौरतलब है कि हनुमान बेनीवाल लगातार ये दावा कर रहे थे कि उनके द्वारा गठित तीसरे मोर्चे में बसपा भी शामिल होगी. इसके लिए यूपी में अंतिम दौर में वार्ता की जा रही हैं.
बसपा के घोषित उम्मीदवार
विधानसभा सीट     प्रत्याशी
सूरतगढ़ डूंगरराम गेदर
बीकानेर पश्चिम नारायण हरि लेगा
लूणकरणसर पवन कुमार ओझा
सुजानगढ़ सीताराम नायक
झुंझुनूं राजेश सैनी
मंडावा अनवर खां
गढ़ी चेतनलाल मइडा
बांसवाड़ा शांति देवी
बागीदोरा गणेशलाल कटारा
कुशलगढ़ छगनलाल पारगी
डूंगरपुर अमृतलाल आहारी
चौरासी विजयपाल रोत
सागवाड़ा दलजीत
चित्तौडगढ़ अल्लाउद्दीन खान
माण्डल शिवलाल गुर्जर
भीलवाड़ा शंकरलाल सैन
डीग- कुम्हेर प्रताप सिंह महरावर
नदबई जोगेंद्र सिंह अवाना
नगर वाजिब अली
वैर अतर सिंह पगारिया
बांदीकुई भागचंद सैनी
मालपुरा नरेंद्र सिंह आमली
करौली लाखन सिंह मीना
सपोटरा इंजीनियर हंसराम मीना
सवाई माधोपुर हंसराज मीना
सिकराय फैलीराम बैरवा
टोंक मोहम्मद अली
धौलपुर पं. किशनचंद शर्मा
बाड़ी रामहेत कुशवाह
अलवर रामगढ़ लक्ष्मण चौधरी
बयाना सुनील कुमार जाटव
झालरापाटन श्रीगयास अहमद
भरतपुर जसवीर सिंह
दौसा गोपाल मीना
निवाई बनवारी लाल बैरवा
बसेड़ी उदयवीर सिंह
अलवर ग्रामीण रिंकी शर्मा
तिजारा होशियार सिंह यादव
गंगापुर आर.के. मीना
चाकसू गजानंद खटीक
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शहरों/ नगरों /सड़कों के  नाम बदलने की राजनीति नई तो नहीं है किंतु ….

आज के दौर में हम केवल भारतीय नहीं रह गए हैं. वैसे पहले भी हम कभी भारतीय नहीं रहे. भारतीय समान को जातियों में विभाजित कर देना इस देश की जनता के सिर सबसे बड़ा कलंक है. देश आजाद हुआ तो देश की जनता राजनीतिक खैमों में विभाजित हो गई. कोई कांग्रेसी तो कोई भाजपाई, कोई सपाई तो कोई कुछ…..होता चला गया और आज सद्विचारों की सहमति के बजाय खैमेंबाजी से सहमति का दौर चल रहा है. दरअसल हम स्वस्थ विचारधारा के नहीं, अपितु राजनीतिक मानसिकता के गुलाम होकर रह गए हैं. हम सोचते हैं कि वो राजनीतिक दल जिससे हम मानसिक रूप से जुड़े हुए हैं, वो जो भी कुछ अच्छा-बुरा करता है, अपने चहेतों के लिए ठीक ही करता है. और आपके पसंदीदा राजनेता आपकी निजी रुचि के विषय धर्म, जाति, समाज को राजनैतिक मुद्दा बनाकर सत्ता सुख की सीढ़ियों पर चढ़ जाते हैं. इन राजनीतिक दलों को इस बात से कुछ लेना-देना नहीं कि किसी भी शहर/नगर/सड़क का नाम बदलने में सरकारी खजाने से भारी रकम खर्च होती है और लाखों- करोडो के ठेके नेताओ के अपने सगे-संबंधियों, रिश्तेदारों, अनुयाइयों में बांट दिए जाते हैं. नाम बदलने का सिलसिला भी राजनीति के रोजगार का जरिया बन गया है.

क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि सरकार केवल मदारी की भूमिका में होती है, उसे कटोरा थामना पड़े या कटोरा छिनना पड़े, हर हाल  पैसे कमाने से मतलब है…., वो ऐसा खेल ही दिखायेगी जिससे जनता पैसे के साथ साथ ताली भी बजाए… और हम वही कर रहे हैं…

शहरों/नगरों/सड़कों के  नाम बदलने की राजनीति के चलते, गए दिनों में उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के चलते हुए तीन बड़े नाम बदले गए हैं| मुगल सराय स्टेशन का नाम पंडित दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर रखा गया तो इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज रखा गया| (2018) दीवाली के एक दिन पहले ही सीएम योगी आदित्याथ ने फैजाबाद जिले का नाम अयोध्या कर दिया है. पता नहीं … अब अयोध्या का क्या नाम होगा? इस तरह अब महाराष्ट्र के शहर उस्मानाबाद और औरंगाबाद के नाम बदलने की भी मांग की जा रही है. अब हैदराबाद का नाम बदलने की बात सामने आई है तो कल अहमदाबाद का नाम बदलने की बात होगी, इसमें शंका की कोई जगह नहीं है. बताते चलें कि ताजा खबर है…भाजपा द्वारा शहरों/नगरों/सड़कों के नाम बदलने की प्रक्रिया को विश्वभर में तिरछी निगाह से देखा जा रहा है. लेकिन भाजपा, खासकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके सिपहसालार आए रोज इस बारे में कोई न कोई बयान देते ही जा रहे हैं और भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आँख और मुंह दोनों बन्द किए हुए है. विदित हो कि अब मुज्जफरनगर, आगरा, आजमगढ़, अलीगढ़ आदि अन्य शहरों के नाम बदलने की बात सामने आई है. अब इसमें योगी आदित्यनाथ का कोई दोष थोड़े ही है… वो तो हैं ही योगी. भला एक योगी को शासन-प्रशासन चलाने की कला से क्या लेना-देना? जो कर सकते हैं, कर रहे हैं.

शहरों/नगरों/सड़कों का नाम बदलने का राजनीतिक इतिहास कोई नया नहीं है. सिद्धार्थ झा के अनुसार विलियम शेक्सपियर ने एक बार कहा था- ‘नाम में क्या रखा है?  किसी चीज का नाम बदल देने से भी चीज वही रहेगी. गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा.’ कम से कम मैं तो शेक्सपीयर की बात से इसलिए सहमत हूँ कि यदि भारत का नाम बदलकर ‘अमेरिका’ रख दिया जाए तो क्या भारत अमेरिका हो जाएगा? … नहीं…कतई नहीं.

लेकिन आज की भाजपा सरकार को नाम प्रासंगिक हो उठा है, इसलिए भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश की बहुत ही ख्यातिप्राप्त चिर-परिचित जगह का नया नामकरण किया गया है. मुगलसराय एक ऐसा ही नाम है जिससे देशी ही नहीं, विदेशी भी भली-भांति परिचित हैं, क्योंकि यहां से न सिर्फ उनके लिए काशी का रास्ता जाता है बल्कि सारनाथ की ख्याति इसे दूर-दूर तक लोकप्रिय करती है. इसका नाम अब ‘दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन’ कर दिया गया है. मुगलसराय स्टेशन का नाम संस्कृति, इतिहास और सभ्यता को दर्शाता है. ये काशी का अहम हिस्सा है. मुगलसराय के इतिहास में अगर हम झांकें तो इसमें हमारे अतीत की खुशबू महकती है जिसको भारत से अलग करना कठिन है. भले ही राष्ट्रवाद के दौर में हम सांस्कृतिक पुनरुत्थान के नाम पर मुगलिया इतिहास की अनदेखी करें लेकिन नाम बदलने से जज्बात नहीं बदला करते… यह हरेक को जान लेने की बात है.

अतीत के झरोखों में झांकें तो मुगलसराय कभी भी सिर्फ एक स्टेशन भर नहीं रहा. मुगल साम्राज्य के दौर में अक्सर लोग पश्चिम-दक्षिण से उत्तर-पूरब जाते वक्त शेरशाह सूरी द्वारा निर्मित ग्रांड ट्रंक रोड का इस्तेमाल करते थे. दिल्ली, हरियाणा व पंजाब में जीटी रोड पर दूरी को दर्शाने वाली कोस-मीनारें अब भी मौजूद हैं, जो दिशा और किलोमीटर बताती थीं. ये सड़क बेहद अहम थी व ढाका से पेशावर, कोलकाता-दिल्ली व अम्बाला-अमृतसर को जोड़ती थीं….तो क्या ये भाजपा सरकार जी. टी. रोड का नाम बदलेगी या इसे नेस्तोनाबूद करके नई सड़क बनाने का काम करेगी. … यह भी तो शेरशाह सूरी ने ही द्वारा बनवाई गई थी.

अब बात करते हैं कि मुगलसराय स्टेशन का नाम राष्ट्रवादी चिंतक और जनसंघ नेता के नाम पर क्यों रखा गया है? साल 1968 में इसी स्टेशन पर दीनदयाल उपाध्याय की लाश लावारिस हालत में मिली थी. जेब में 5 रुपए का मुड़ा-तुड़ा नोट और एक टिकट था और इसके अलावा कोई पहचान नहीं थी. स्टाफ लावारिस लाश समझकर अंतिम संस्कार करने जा रहा था लेकिन तभी किसी ने पहचान लिया और फिर अटलजी और सर संघसंचालक गोवलकर जी आए और दिल्ली ले जाकर इनका अंतिम संस्कार किया गया. उनकी मृत्यु एक राज ही रही…. क्यों, कैसे हुई? इस पर से पर्दा आज तक भी नहीं उठ पाया है. भाजपा इस वर्ष (2018) को दीनदयाल शताब्दी वर्ष मना रही है और उनको सम्मान देने के लिए राज्य सरकार ने केंद्र को ये सुझाव दिया जिसको केन्द्र सरकार द्वारा मान लिया गया. अब क्योंकि राजनीति की सेहत कमजोर पड़ती जा रहा है, सो विभाजनकारी राजनीति अपने चरम पर है….विभाजनकारी राजनीति ही भाजपा की शक्ति है. किंतु आज लोगों में इस विभाजनकारी राजनीति के प्रति काफी रोष तो है किंतु विपक्ष का एकजुट होना अति-आवश्यक है. किंतु भाजपा सरकार और भाजपा के विभाजनकारी नेता इस नाम बदलाव की प्रक्रिया को अति महत्त्वपूर्ण समझ रहे हैं, शायद यह उनकी सबसे बड़ी भूल होकर उभरेगी, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि पहली बार किसी शहर/नगर/सड़क का नाम बदला गया हो. नाम बदलने का लंबा इतिहास है. कभी राज्यों, कभी शहरों तो कभी सड़कों का…नाम बदलने का काम हमेशा होता ही रहा है. सड़क-मुहल्लों की गिनती नहीं कर पा रहा नगर निगम का जो भी आका होता है, वो मनमानी करता रहता है. आसपास नजर दौड़ाएंगे तो तमाम पार्षदों के मां-बाप, रिश्तेदारों के नाम पर सड़कें मिल जाएंगी. राज्यों या शहरों का नाम बदलने के लिए केंद्र की स्वीकृति लेनी होती है. किंतु आज की तारीख में ऐसा कतई भी देखने को नहीं मिल रहा. विगत में नाम बदलने की प्रक्रिया किसी न किसी प्रकार पारदर्शी होती थी और साम्प्रदायिक मसलों के आधार पर तो कतई नहीं होती थी, किंतु आज का सत्य ये है कि शहरों/नगरों/सड़कों के नाम बदलने की प्रक्रिया एक खास द्वेश के कारण की जा रही है और वह है ‘हिन्दू…मुसलमान’ का द्वेश-राग.

उल्लेखनीय है कि स्वतंत्र भारत में साल 1950 में सबसे पहले ‘पूर्वी पंजाब’ का नाम ‘पंजाब’ रखा गया. 1956 में ‘हैदराबाद’ से ‘आंध्रप्रदेश’, 1959 में ‘मध्यभारत’ से ‘मध्यप्रदेश’ नामकरण हुआ. सिलसिला यहीं नहीं खत्म हुआ… 1969 में ‘मद्रास’ से ‘तमिलनाडु’, 1973 में ‘मैसूर’ से ‘कर्नाटक’, इसके बाद ‘पुडुचेरी’, ‘उत्तरांचल’ से ‘उत्तराखंड’,  2011 में ‘उड़ीसा से ओडिशा’ नाम किया गया. लिस्ट यहीं खत्म नहीं होती. मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, शिमला, कानपुर, जबलपुर लगभग 15 शहरों के नाम बदले गए. सिर्फ इतना ही नहीं, जुलाई 2016 में मद्रास, बंबई और कलकत्ता उच्च न्यायालय का नाम भी बदल दिया गया. लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इससे मिलते-जुलते नामों से बदलाव किया गया है. अब तक शहरों का नाम नेताओं के नामों पर करने की कवायद नहीं की गई थी… हां! कांग्रेस और अन्य दलों की सरकारों ने नए प्रतिष्ठानों के नाम जरूर नेताओं के नाम पर रखे किंतु किसी भी पुराने शहर/नगर/सड़क के नाम नेताओं को श्रेय देने के नाम पर नहीं बदले. संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है. एयरपोर्टस/ रेलवे स्टेशंस के नाम महापुरुषों के नाम पर रखे गए हैं. हैरत की बात तो ये है कि  मुगलसराय में स्टेशन के साथ-साथ नगर निगम का नाम भी बदल दिया गया.

विदित हो कि शहरों/नगरों/सड़कों के नामों में जो भी परिवर्तन किए जाते है, ज्यादातर बदलाव राजनीतिक कारणों से किए जाते हैं…. लेकिन कुतर्क ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करने की दीए जाते हैं …और कुछ नहीं. नाम बदलने से सरकारों को फायदा ये होता है कि उन्हें कम समय में सुर्खियां बटोरने को मिल जाती हैं, दूसरा गंभीर विषयों से जनता का ध्यान भटकाना होता है…. 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर भाजपा का यह हथकंडा कितना काम आएगा यह तो समय ही बताएगा … किंतु भाजपा की कोशिश तो यही है कि शहरों/नगरों/सड़कों के नामों में परिवर्तन के जाल में फंसाकर जनता को अपनी असफलता के मुद्दे से भटकाकर अपना राजनीतिक उल्लू साध लिया जाए.

यूँ तो कांग्रेस की सरकार ने भी कुछ ऐसे काम किए थे. आपको याद होगा कि यूपीए सरकार के समय में ‘कनाट प्लेस’ और ‘कनाट सर्कस’ का नाम बदलकर ‘राजीव चौक’ और ‘इंदिरा चौक’ कर दिया गया था. किंतु हुआ क्या…. इस बात को दो दशक से भी ज्यादा हो चुका है लेकिन आज भी लोग ‘कनाट प्लेस’ को ‘कनाट प्लेस’ ही कहते हैं. अगर ‘कनाट प्लेस’ का नाम बदल जाने से कांग्रेस को फायदा होना होता तो वो आज हाशिये पर नहीं आई होती. भाजपा को इस प्रकरण से कुछ न कुछ तो सीख लेनी चाहिए ही कि नहीं? क्यों न शहरों/ नगरों/ सड़कों/ गलियों के नाम बदलने के लिए भी एक आयोग का गठन कर देना चाहिए? आखिर नाम बदलने के पीछे कोई तर्क-वितर्क तो होना ही चाहिए कि नहीं?

मै ये मानता हूँ कि हिन्दू और मुसलमान भारत की विरासत का अटूट हिस्सा हैं. नाम बदलने की इस प्रक्रिया के चलते समाज में फूट डालने की कोशिश, मुझे तो लगता है कि भाजपा के राजनीति को ही भारी पड़ेगी. अब आप कहेंगे कि मायावती ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए कई जिलों के नाम बदले थे, हाँ! मैं मानता  उस पर प्रतिक्रिया क्यों नहीं? स्मरण रहे कि मायावती ने किसी भी शहरों/नगरों/सड़कों के नाम तो कतई नहीं बदले थे, अपितु समाज को एक करने वाले महानायकों के नाम पर केवल और केवल नए नामों से जिले भर ही बनाए थे. जबकि भाजपा भारतीय समाज में विभाजनकारी संदेश पहुँचाने वाले लोगों के नाम पर शहरों/नगरों/सड़कों के नामों में परिवर्तन का काम करने पर उतारू है. यह प्रक्रिया देश के लिए हितकारी नहीं है, सो शहरों/नगरों/सड़कों के नए सिरे से  नामकरण की राजनीति बंद होनी चाहिए.

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नक्सलियों के गढ़ में वोटिंग के लिए लगी लंबी कतारें

रायपुर। छत्तीसगढ़ में पहले चरण के विधानसभा चुनावों के तहत 18 सीटों के लिए मतदान जारी है. दोपहर एक बजे तक 25.15 फीसदी वोटिंग हो चुकी है. नक्सलियों की धमकी का लोगों पर कोई असर नहीं है और मतदान केंद्रों के बाहर लोगों की लंबी-लंबी लाइनें लगी हुई हैं. सोमवार सुबह 7 बजे से शुरु हुई वोटिंग शाम तीन बजे तक होगी जबकि कुछ केंद्रों पर यह शाम पांच बजे तक चलेगी. नक्सली धमकियों और हमलों के बीच हो रहे मतदान में सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए हैं.

आठ नक्सल-प्रभावित जिलों की जिन 18 सीटों पर वोटिंग हो रही हैं उनमें बस्तर, दंतेवाड़ा और मुख्यमंत्री की सीट राजनांदगांव जैसे इलाके शामिल हैं. इन इलाकों से पिछले 10 दिनों के अंदर 300 आईईडी बरामद हो चुकी हैं. राजनांदगांव जिले के मोहला-मानपुर, कांकेर जिले के अंतागढ़, भानुप्रतापपुर और कांकेर, कोंडागांव जिले के केशकाल और कोंडागांव, नारायणपुर जिले के नारायणपुर, दंतेवाड़ा जिले के दंतेवाड़ा, बीजापुर जिले के बीजापुर तथा सुकमा जिले के कोंटा विधानसभा में सुबह सात बजे से दोपहर तीन बजे तक वोट डाले जाएंगे.

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केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार का 59 की उम्र में निधन

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बेंगलुरु। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार का सोमवार तड़के चार बजे यहां निधन हो गया. वे 59 साल के थे. कुछ महीनों से फेफड़ों के कैंसर से पीड़ित थे. अक्टूबर में न्यूयॉर्क से इलाज कराकर लौटे थे. दोबारा तबीयत बिगड़ने पर उन्हें बेंगलुरु के एक निजी अस्पताल में भर्ती किया गया था. उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था. उनकी पार्थिव देह बेंगलुरु स्थित घर पर अंतिम दर्शन के लिए रखी गई है. वे 1996 से 2014 के बीच बेंगलुरु दक्षिण सीट से छह बार लोकसभा सदस्य चुने गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वे सबसे युवा मंत्री थे. अनंत कुमार के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी समेत कई नेताओं ने शोक जताया. रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा- “अनंत कुमार के निधन की खबर सुनकर बेहद दुख हुआ. उन्होंने भाजपा की लंबे अरसे तक सेवा की. बेंगलुरु उनके दिल और दिमाग में हमेशा रहा. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को साहस दे.”

आज राष्ट्रध्वज आधा झुका रहेगा

केंद्रीय गृह मंत्रालय के मुताबिक, अनंत कुमार के निधन पर सोमवार को देशभर में राष्ट्रध्वज आधा झुका रहेगा. वहीं, कर्नाटक सरकार ने राज्य में तीन दिन का शोक और सोमवार का अवकाश घोषित किया है. उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा. अनंत के पास दो विभागों का प्रभार था

मोदी सरकार में कुमार के पास दो मंत्रालय की जिम्मेदारी थी. वे 2014 से रसायन एवं उर्वरक मंत्री थे. इसके अलावा उन्हें जुलाई 2016 में संसदीय मामलों की जिम्मेदारी भी सौंपी गई थी. अनंत कुमार वाजपेयी सरकार में मार्च 1998 से अक्टूबर 1999 तक नागरिक उड्डयन मंत्री भी रहे. उनका जन्म 22 जुलाई 1959 को बेंगलुरु में हुआ था. उन्होंने केएस ऑर्ट कॉलेज हुबली से बीए किया था. इसके बाद जेएसएस लॉ कॉलेज से एलएलबी की थी. उनके परिवार में पत्नी तेजस्विनी, दो बेटियां ऐश्वर्या और विजेता हैं.

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अल्पसंख्यक शोधार्थी से मारपीट करने एवं जान से मारने की धमकी की शिकायत

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मैं आबिद रेजा पीएचडी जनसंचार सत्र: 2018-19 का महात्मा गा.अं.हि.विश्वविद्यालय, वर्धा का शोधार्थी हूँ. मैं कक्ष सं. 67 में रहता हूँ. दिनांक 07/11/2018 को तक़रीबन 12:45 बजे. जैसे ही मैं गोरख पाण्डेय छात्रावास में प्रवेश कर अपने कक्ष स. 67 की ओर जानी वाली सीढीओं पर कुछ सीढी ही चढा था. जब तक कि राम सुंदर कुमार(पीएचडी शोधार्थी, सत्र: 2018-19) ने मेस से निकलते हुए आवाज़ देना शुरू कर दिया. तुम्हारे यहाँ पैसा बकाया है क्यों नहीं दे रहे हो. उसके आवाज़ देने और मेरे सीढी चलने की गति इतनी थी जब तक मैं सामने कुछ सीढीयों पर चढ़ चुका था और राम सुंदर कुमार भी पीछे की सीढ़ी पर चढ़ते हुए कहने लगा कि तुमने मेस का पैसा नहीं दिया है. मैंने कहा कि मैंने पाँच सौ रुपए दिये हैं और तक़रीबन 300 सौ के आस-पास जो भी होगा दे देता हूँ. उसने कहा कि नहीं तुम अभी दो फिर मैंने कहा कि मैं कमरे में जा रहा हूँ और पैसा लाकर देता हूँ और अभी मैंने खाना भी नहीं खाया है. जब तक पैसे के लिए उसने मेरी शर्ट की कालर पकड़ ली और जबर्दस्ती करने लगा और अशोभनीय और अभद्रता करने लगा जबकि मैंने उसे छुड़ाने की कोशिश की तो उसने धका देते हुए मुझे मेरे सर के बायां माथे पर घुसा मारकर ख़ून बहा दिया और लात घुसा चलाने लगा. फूटे हुए माथे का विडियो और तस्वीर मेरे पास मौजूद है. इस घटना की आवाज़ सुनते ही तमाम लोग इस घटना शरीक होकर बीच-बचाव करा दिए. इसके पूर्व में भी कहा था देखों मेरा संबंध असामाजिक तत्वों के साथ भी है जब चाहूँ तुम्हें कुछ अनहोनी करा सकता हूँ. और इस घटना के दूसरे दिन यानि आठ तारीख को कहा कि पाकिस्तान है तू और पाकिस्तान क्यों नहीं जा रहे हो. गाय के नाम पर तुम्हें मारना पड़ेगा. अगर तुमने कहीं शिकायत की तो देखना मैं क्या करता हूँ. इस भय से और उसके गुंडा प्रवृति के कारण मैं इस घटना के बाद और डरा हुआ हूँ. मानसिक रूप से परेशान हूँ और मुझे ऐसा लगता है धार्मिक उन्माद के नाम पर मेरी जान ली जा सकती है. मेरी दिनचर्या भी प्रभावित है. मैं  विश्वविद्यालय प्रशासन से निवेदन किया है मेरी सुरक्षा दी जाए. क्योंकि मैं असुरक्षित महसूस कर रहा हूँ. जिससे मेरी शिक्षण व्यवस्था सुचारु रूप से व्यवस्थित हो सके.
आबिद रेज़ा

असली ठग्स ऑफ़ हिन्दुस्तान की कहानी

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भारत में 19वीं सदी में जिन ठगों से अंग्रेज़ों का पाला पड़ा था, वे इतने मामूली लोग नहीं थे. ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और पुख़्ता जानकारी 1839 में छपी किताब ‘कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग’ से मिलती है. किताब के लेखक पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर थे लेकिन उन्होंने ‘इसे सिर्फ़ कलमबंद किया है.’ दरअसल, साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब ठगों के एक सरदार आमिर अली खां का ‘कनफ़ेशन’ यानी इक़बालिया बयान है. फ़िलिप मीडो टेलर ने आमिर अली से जेल में कई दिनों तक बात की और सब कुछ लिखते गए. टेलर के मुताबिक, “ठगों के सरदार ने जो कुछ बताया, उसे मैं तकरीबन शब्दश: लिखता गया, यहां तक कि उसे टोकने या पूछने की ज़रूरत भी कम ही पड़ती थी.”

अब हम आपको बताते हैं कि आखिर कैसे थे असली ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दुस्तान’.

टेलर ने लिखा है, “अवध से लेकर दक्कन तक ठगों का जाल फैला था, उन्हें पकड़ना इसलिए बहुत मुश्किल था क्योंकि वे बहुत ख़ुफ़िया तरीके से काम करते थे. उन्हें आम लोगों से अलग करने का कोई तरीका ही समझ नहीं आता था. वे अपना काम योजना बनाकर और बेहद चालाकी से करते थे ताकि किसी को शक न हो.”

उनके अपने रीति-रिवाज़, विश्वास, मान्यताएं, परंपराएं, उसूल और तौर-तरीक़े थे जिनका वे बहुत पाबंदी से धर्म की तरह पालन करते थे. उनकी अपनी एक अलग ख़ुफ़िया भाषा थी जिसमें वे आपस में बात करते थे. इस भाषा को रमासी कहा जाता था. गिरोह में हिन्दू और मुस्लिम दोनों होते थे.

चाहे हिंदू हों या मुसलमान, ठग शुभ मूहूर्त देखकर, विधि-विधान से पूजा-पाठ करके अपने काम पर निकलते थे, जिसे ‘जिताई पर जाना’ कहा जाता था. ठगी का मौसम आम तौर पर दुर्गापूजा से लेकर होली के बीच होता था. तेज़ गर्मी और बारिश में रास्तों पर मुसाफ़िर भी कम मिलते थे और काम करना मुश्किल होता था. जिताई पर जाने से सात दिन पहले से ‘साता’ शुरू जाता था. इस दौरान ठग और उनके परिवार के सदस्य खाने-पीने, सोने-उठने और नहाने-हज़ामत बनाने वगैरह के मामले में कड़े नियमों का पालन करते थे.

साता के दौरान बाहर के लोगों से मेल-जोल, किसी और को बुलाना या उसके घर जाना नहीं होता था. इस दौरान कोई दान नहीं दिया जाता था, यहां तक कि कुत्ते-बिल्ली जैसे जानवरों को भी खाना नहीं दिया जाता था. जिताई से सफल होकर लौटने के बाद पूजा-पाठ और दान-पुण्य जैसे काम होते थे. ठगी और लूटपाट के लिए हत्याएं भी की जाती थीं। इसके लिए भी कुछ नियम थे। पहला नियम यह था कि क़त्ल में एक बूंद भी खून नहीं बहना चाहिए, दूसरे किसी औरत या बच्चे को किसी हाल में नहीं मारा जाना चाहिए, तीसरे जब तक माल मिलने की उम्मीद न हो, हत्या बिल्कुल नहीं होनी चाहिए.

कैसे होती थी रास्ते पर ठगी: ——————– जिताई पर निकलने वाले ठगों का गिरोह 20 से 50 तक का होता था. वे आम तौर पर तीन दस्तों में चलते थे, एक पीछे, एक बीच में और एक आगे. इन तीनों दस्तों के बीच तालमेल के लिए हर टोली में एक-दो लोग होते थे जो एक कड़ी का काम करते थे. वे अपनी चाल तेज़ या धीमी करके अलग होते या साथ आ सकते थे. रास्ते में कई बार वो जरूरत के हिसाब से अपना रूप बदलते रहते थे। ठगों के सरदार आमतौर पर पढ़े लिखे इज़्ज़तदार आदमी की तरह दिखने-बोलने वाले लोग होते थे।

आमिर अली के मुताबिक ठगों के काम बंटे हुए थे. ‘सोठा’ गिरोह के सदस्य सबसे समझदार, लोगों को बातों में फंसाने वाले लोग थे जो शिकार की ताक में सरायों के आसपास मंडराते थे. वे आने-जाने वालों की टोह लेते थे, फिर उनके माल-असबाब और हैसियत का अंदाज़ा लगाकर उसे अपने चंगुल में फंसाते थे. शिकार की पहचान करने के बाद कुछ लोग उसके पीछे, कुछ आगे और कुछ सबसे आगे चलते. रास्ते भर धीरे-धीरे करके ठगों की तादाद बढ़ती जाती लेकिन वे ऐसा दिखाते जैसे एक-दूसरे को बिल्कुल भी नहीं जानते. अपने ही लोगों को जत्थे में शामिल होने से रोकने का नाटक करते थे ताकि शक न हो. हड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं थी.

आखिरी हमला —————— सबसे आगे चलने वाले दस्ते में ‘बेल’ यानी कब्र तैयार करने वाले लोग होते थे. उन्हें बीच वाले दस्ते में से कड़ी का काम करने वाला बता देता था कि कितने लोगों के लिए कब्र बनानी है. पीछे वाला दस्ता नज़र रखता था कि कोई ख़तरा उनकी तरफ़ तो नहीं आ रहा. आख़िर में तीनों बहुत पास-पास आ जाते लेकिन इसकी ख़बर शिकार को नहीं होती थी.

कई दिन गुज़र जाने के बाद जब शिकार चौकन्ना नहीं होता था और जगह माकूल होती थी तब गिरोह को कार्रवाई के लिए सतर्क करने के लिए, बातचीत में पहले से तय एक नाम लिया जाता था. यह पहला इशारा था कि अब कार्रवाई होने वाली है. इसके बाद ठगों में सबसे ‘इज्ज़तदार’ लोगों की बारी आती थी जिन्हें ‘भतौट’ या ‘भतौटी’ कहा जाता था. इनका काम बिना खून बहाए रुमाल में सिक्का बांधकर बनाई गई गांठ से शिकार का गला घोंटना होता था. हर एक शिकार के पीछे एक भतौट होता था, पूरा काम एक-साथ दो-तीन मिनट में होता था. इसके लिए मुस्तैद ठग अपने सरगना की ‘झिरनी’ यानी आखिरी इशारे का इंतज़ार करते थे.

इशारा मिलते ही पलक झपकते भतौट शिकार के गले में फंदा डाल देते थे और दो-तीन मिनट में आदमी तड़पकर ठंडा हो जाता था. इसके बाद लाशों से कीमती सामान हटाकर उन्हें पहले से खुदी हुई कब्रों में ‘एक के सिर की तरफ़ दूसरे का पैर’ वाली तरकीब से कब्रों में डाल दिया जाता ताकि कम-से-कम जगह में ज्यादा लाशें आ सकें. इसके बाद जगह को समतल करके उसके ऊपर कांटेदार झाड़ियां जो पहले से तैयार रखी होती थीं, लगा दी जाती थीं ताकि जंगली जानवर कब्र को खोदने की कोशिश न करें. इस तरह पूरा का पूरा चलता-फिरता काफ़िला हमेशा के लिए ग़ायब हो जाता था और ठग भी.

बीबीसी हिन्दी में प्रकाशित राजेश प्रियदर्शी के लेख का अंश साभार प्रकाशित

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मृत्यु भोज नहीं करने को लिया शपथ

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अजमेर। चूरू जिले के अंबेडकर नगर, गांव न्यारा के मेघवाल समाज के लोगों ने एक राय होकर मृत्यु भोज जैसी सामाजिक कुरीति को त्यागने ने का संकल्प 7 नवंबर, 2018 दीपावली को लिया। लोगों का तर्क था कि किसी की मृत्यु पर भोज का आयोजन करना गलत परंपरा है। किसी के मरने पर मिठाई खाना कैसी परंपरा है। यह भी तय हुआ कि जो मृत्यु भोज करता हो उसके यहाँ कोई भी भोजन नहीं करेगा।

दरअसल समाज के भीतर काफी लंबे वक्त से मृत्यु भोज को लेकर बहस चली आ रही है। अम्बेडकरी आंदोलन से जुड़े लोग अक्सर इसका विरोध करते हैं। इसको खत्म करने के लिए कई स्तरों पर लगातार जागरूकता अभियान चलाया जाता है। जिसके बाद ऐसा देखने को मिल रहा है।

डाॅ गुलाब चन्द जिन्दल ‘मेघ’

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संविधान दिवस के उपलक्ष्य में बरेली में भव्य आयोजन

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बरेली। संविधान दिवस के उपलक्ष्य में 11 नवम्बर को बरेली में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है. लार्ड बुद्धा इण्टरनेशनल धम्म ट्रस्ट द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम सुबह 10 बजे से होगा. एकदिवसीय बहुजन मैत्री एवं सामाजिक चिन्तन महासम्मेलन का विषय वर्तमान सामाजिक परिवेश में बुद्धिजीवीयों की भूमिका और समस्याओं के निदान में उनका योगदान होगा.

इस कार्यक्रम के मुख्य मार्गदर्शक के रुप में पूज्य भन्ते करुणाकर महाथेरा, सुमित रत्न थेरा और बोधिपिया तिस्सा जी उपस्थित रहेंगे. इसकी अध्यक्षता मा. धर्मप्रकाश भारतिय जी, पूर्व एम.एल.सी. बसापा, और इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. इन्दु चौधरी (प्रोफेसर बी.एच.यू.) होंगी.

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इस हिन्दू राष्ट्र में दलितों की यही नियति है!

भगवा झंडों वाला जो हिन्दू राष्ट्र आरएसएस बीजेपी निर्मित करने की फ़िराक में हैं, उसमें दलितों की क्या भूमिका होगी, कोई भूमिका होगी भी या नहीं अथवा उनके लिए कोई जगह भी नहीं होगी, उनको छिप छिप कर जीना पड़ेगा, इसके संकेत मिलने लगे है.

यह उन दलित युवाओं के लिए एक सबक भी है, जो बहुत उछल उछल कर हिन्दू संगठनों में हिस्सेदारी करते है, संघ की शाखाओं में जाते हैं, बजरंग दल के नारे लगाते है, भगवा पट्टा बांध कर अकड़ अकड़ कर घूमते है, विश्व हिंदू परिषद व अन्य हिंदूवादी संगठनों के मोहरे बनकर दंगे फसाद फैलाते है. इनकी औकात इस बहुचर्चित व बहुप्रतीक्षित हिन्दुराष्ट्र में क्या होगी, इसकी झलक भी अब मिलने लगी है.

भाजपा शासित राजस्थान में दक्षिणपंथी समूहों की प्रयोगशाला है भीलवाड़ा, इसके रायला थाना क्षेत्र के भैरु खेड़ा (सुरास) गांव में 14 लोगों का एक ‘हिदू युवा संगठन’ बनाया गया, जिसमें दो दलित युवा भी शामिल किए गए, इन दोनों दलित युवाओं से सदस्यता व गांव में लगाने के लिए बैनर बनवाने हेतु पैसा लिया गया, पर जैसे ही बैनर बन कर आया, गांव के गैरदलित हिंदुओं ने आपत्ति जता दी कि – ये ब्लाईट हिन्दू संगठन में क्या कर रहे हैं, अब इनके फ़ोटो लगेंगे गांव में? हमको इनके चेहरे देखने पड़ेंगे रोज?

अन्ततः जब गांव की शुद्र (ओबीसी) जातियों का विरोध बहुत मुखर हो गया तो रास्ता निकाला गया कि दोनों दलित युवाओं के फोटोओं पर टेप चिपका कर उन्हें छिपा दिया जाए, ताकि गांव के कथित ऊंची जाति के लोगों को इनकी शक्ल नहीं देखनी पड़े. हिन्दू युवा संगठन ने दलित युवाओं के फोटो हाईड करके जैसे ही पोस्टर चिपकाया, खबर दलित मोहल्ले तक भी पहुंची. दलित युवाओं के हिलोरें मारता नया नया हिन्दू जोश ठंडा पड़ गया, उसकी जगह आक्रोश ने ले ली.

8 नवम्बर 2018 की सुबह दलित युवा रामस्वरूप बलाई तथा गोरधन बलाई ने गांव में पहुंचकर इस बात पर आपत्ति जताई कि जब उन्हें हिदू युवा संगठन से जोड़ा गया और बैनर बनवाने के लिए पैसा लिया गया तो अब बैनर से उन्हें क्यों हाईड किया गया? केवल दलित युवाओं के चेहरों पर टेप क्यों चिपकाया गया, यह तो हमारा अपमान है.

दलित युवाओं की आपत्ति हिंदुत्व के नए रक्षक शूद्रों को अत्यंत नागवार गुजरी, उन्होंने दोनों दलित युवाओं को पहले तो जमकर जातिगत गालियां दी, उनको उनकी असली औकात बताई और बाद में हरफूल लौहार, नारायण गुर्जर, मुकेश लौहार व महावीर गुर्जर ने मिलकर इन दलित युवाओं के साथ मारपीट की, नारायण गुर्जर ने तो पथराव तक किया, जान से मारने की धमकी तक दे डाली.

जब इस मारपीट की खबर गांव के दलित मोहल्ले तक पहुंची तो नगजीराम बलाई नामक एक दलित युवा ने हिम्मत करके उपरोक्त बैनर को नीचे उतार दिया, एक दलित की ऐसी हिमाकत हिदू वीर कैसे सहन करते, पूरा गांव दलितों के खिलाफ एक जुट हो गया, दलितों के साथ गाली गलौज व धक्कामुक्की की गई तथा गांव छुड़वा देने की धमकी तक दे दी गयी.

पीड़ित दलित परिवारों ने बताया कि गांव में पूरी तरह हिदू आतंक व्याप्त है, यही स्थिति रही तो हमें गांव छोड़ना पड़ेगा.

इस घटनाक्रम परेशान दलितों ने रायला थाने में रिपोर्ट लिखवाई, लेकिन वहां से कार्यवाही के बजाय समझाईश की नसीहत देकर मामला रफा दफा करने की कोशिश की जा रही है, घटनाक्रम के तीन दिन बीत जाने के बाद भी अभी तक मुकदमा दर्ज नहीं हो पाया है.

हिदू राष्ट्र के इस पोस्टर कांड के बाद से भैरु खेड़ा( सुरास) के दलित भय, दशहत व आतंक के साये तले जीने को विवश है, वहीं हिन्दू युवा संगठन का भगवा ध्वज शान से लहर लहर लहरा रहा है और दूसरे कोने पर मौजूद बजरंग बली अत्यंत गुस्से में दिख रहे है, यह बजरंगी आक्रोश दलितों को कितना नुकसानदायक होगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता है.

भैरु खेड़ा (सुरास) जैसे लाखों गांव इस देश मे हैं, जहाँ पर दलित, आदिवासी व घुमन्तू समुदायों के करोड़ों युवाओं को जबरन हिन्दुराष्ट्र की भट्टी में झोंका जा रहा है, उनका जातिगत उत्पीड़न भी जारी है और धर्म की अफीम भी पिलाई जा रही है, शायद यही हिन्दू राष्ट्र में दलितों की नियति है. इस हिन्दू राष्ट्र में दलित, आदिवासी व घुमन्तुओं के लिए कोई जगह नहीं हैं.

भंवर मेघवंशी

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पीएम के लिए मायावती को मिला एक और बड़े नेता का समर्थन

नई दिल्ली। पीएम पद की रेस में बसपा अध्यक्ष मायावती को एक और बड़े नेता का समर्थन मिल गया है. छतीसगढ़ में बसपा के नए सहयोगी और जनता कांग्रेस के प्रमुख अजीत जोगी ने कहा है कि वो 2019 में मायावती को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस, मायावती की बीएसपी और वामदल मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं.

अजीत जोगी ने अपने एक बयान में कहा, ‘हमने बहुजन समाज पार्टी और लेफ्ट के साथ गठबंधन किया है, गठबंधन की जीत होती है तो मैं मुख्यमंत्री बनूंगा, वहीं 2019 में पीएम पद के लिए मायावती एक बेहतर उम्मीदवार हैं. जोगी ने कहा मेरा भरोसा है कि एक गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई गठबंधन 2019 में बहुमत में आएगा. इसी से यह निश्चित होगा कि 2019 में कौन पीएम बनेगा, मेरी राय में चार बार सीएम रहीं मायावती इस पद के लिए बेहतर उम्मीदवार हैं.

जोगी ने बसपा के साथ अपनी पार्टी के गठबंधन को दो दिलों का मिलन कहा है. जोगी के मायावती को लेकर दिए बयान से 2019 में बसपा प्रमुख के पीएम बनने की उम्मीद को और बल मिला है. जोगी 5वे बड़े नेता हैं जिन्होंने पीएम पद के लिए मायावती के नाम का सीधा समर्थन किया है. इससे पहले यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी, पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और इंडियन नैशनल लोक दल के मुखिया ओम प्रकाश चौटाला भी 2019 में मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार बता चुके हैं.

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“व्हाट इज इन ए नेम”, अर्थात नाम में क्या रखा है

महान विद्वान सेक्सपियर ने लिखा है, “व्हाट इज इन ए नेम”, अर्थात नाम में क्या रखा है. बच्चा जब पैदा होता तब उसका नामकरण संस्कार किया जाता है. उसको एक नाम दिया जाता वही नाम उसकी पहचान बन जाती है यहाँ तक कि मरने के उपरांत भी व्यक्ति का नाम जिंदा रहता है. इतिहास गवाह है कि नाम और इज्जत के खातिर बड़ी बड़ी जंग लड़ी गयी है और किसी को अपने नाम को चमकाने की और किसी को दूसरे के नाम को मिटाने की प्रवृति लंबे समय से चली आ रही है. भारत में नाम एकसमान, काम एक समान होते हुए भी व्यक्ति की पहचान का पैमाना जाति और धर्म भी अहम हो जाता है. कुछ लोग इतिहास में दर्ज इसलिए हो जाते हैं कि ओ लिखने लायक कुछ काम कर गए होते है. एक अंग्रेजी की सूक्ति है कि there is nothing good or bad, but thinking makes it so” इस दुनिया मे ऐसे शासक हुए हैं उन्होंने जो सोचा ओ जनता पर थोप डाला. लेकिन भारत का प्राचीन इतिहास गौरव और शौर्य से भरा पड़ा है. विश्व की महानतम प्राचीन सभ्यताओं में मेसापोटामिया की सभ्यता के बाद भारत की सिंधुघाटी सभ्यता का अपना विशेष नाम है. इसको हड़प्पा की सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है.

अब तार्किक प्रश्न ये खड़ा होता है कि जिस सिंधु नदी के नाम पर इस सभ्यता का नाम इंदुस वैली civilisation पड़ा ओ सिंधु नदी पाकिस्तान में है. और ओ पाकिस्तान कभी भारत का अभिन्न अंग हुवा करता था. लेकिन आज भारत पाकिस्तान एक दूसरे के विलोम शब्द बन चुके हैं जैसे कि दिन का रात. जिस तरह से आजकल भारत में संस्थाओं,ऐतिहासिक धरोहरों, के नाम परिवर्तन का दौर चला है उसे देखकर लगता हमने सब कुछ हासिल कर लिया, सब कुछ पैदा कर लिया, हमने बेरोजगारी पर जीत पा ली, हमने भरस्टाचार पर जीत पा ली, हमने कुपोषण, भुखमरी पर जीत पा ली, हमने शत प्रतिशत साक्षरता हांसिल कर ली, हमने महिलाओं पर हो रहे जुल्म और शोषण पर जीत पा ली और सबसे अहम हमने हजारो वर्षों के कलंक जातिवाद जो कि आरक्षण की जननी कही जाती है उस जाति के बंधन से मुक्त हो गए है और अब सिर्फ नए सिरे से नामकरण की ही रश्म जैसे अब शेष रह गयी हो. इस नव युग के दो अवतार मोदी और योगी सिर्फ नामकरण की ही रस्म पूरी करने में लगे हों? हम देखते है नामों में बड़ी रोचकता भी और हैरानी करने वाले तथ्य भी छुपे हैं. जैसे किसी व्यक्ति का नाम अमर हो और ओ क्या अमर रहता है? सुखी राम से ज्यादा सुखी सायद दुखी राम रहता हो. बदलने का ही शौक है तो समाज की सोच बदली जाए.

अंधविस्वास और पाखण्ड को बदल जाये, पुरानी रूढ़ियों, पुरानी सड़ी गली मानसिकता को बदला जाए, किन कारणों से देश गुलाम हुवा उन कारणों को बदला जाए. महिलाओ के प्रति पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता और धरणाओं को बदल कर आधुनिकता की ओर सबको समान अवसर प्रदान करने की सोच विकसित की जाए. हैरानी होती है एक तरफ हम मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं और शोषण के लिए काफी चिंतित और उत्सुक प्रतीत हो रहे हैं तीन तलाक, की समस्या से उनको स्वतन्त्रता दिलाने में संसद से लेकर न्यायालय तक लड़ाई लड़ रहे है. लेकिन जिस न्यू इंडिया और सबका साथ सबका विकास की बात कर रहे है उस न्यू इंडिया, डिजिटल इंडिया, में आज भी हिन्दू महिलाओ और हिन्दू दलितों के लिए मन्दिरों में प्रवेश करना मंगल ग्रह में प्रवेश करने से भी कठिन हो रहा है. आज भारती समाज को पुनर्जागरण की जरूरत महसूस होने लगी है. जिस प्रकार 19वीं सदी में कई कुप्रथाओ का अंत हुआ उसी प्रकार पुनः नवजागरण की आवस्यकता है. इतिहास को बदलकर हम अपने भविष्य को नहीँ बदल सकते है बेसक ऐतिहासिक गलतियों से अवश्य ही सबक लिया जाना चाहिए.

भविष्य की मजबूत इमारत वर्तमान की ज्वलन्त समस्यों पर विजय प्राप्त कर ही खड़ी की जा सकती है. नाम तो बहुत बदले गए है शहरों के, संस्थानों के, योजनाओ के, मगर उनकी कार्यशैली और स्वरूप नहीं बदला, नरेगा को मनरेगा करने से रोजगार में कोई क्रांतिकारी बदलाव अभी तक देखने को नहीं मिले है. किसान नरेगा में भी आत्महत्या कर रहे थे मनरेगा में भी, किसान इंडिया में भी उसी हाल में था जिस हाल में नई इंडिया में जी रहा है, दलित के लिए अछूतपन, भेदभाव वैदिक भारत मे भी था, आर्यव्रत में भी था, हिंदुस्तान में भी था,भारत में भी था और अब जब से न्यू इंडिया बनी है तब भी दलित शोषित और उपेक्षित ही है. इतना ही नहि गांधी ने दलितों को एक नया नाम दिया हरिजन लेकिन उस नामकरण से दलितों को अपने लिए गन्दी गाली समान लगने लग गयी और उस शब्द को असंवैधानिक करार दिया गया. उत्तराखंड राज्य गठन जब हुवा तब उत्तरांचल राज्य के नाम से हुआ इसका बाद में नाम उत्तराखंड कर दिया मगर हालत जो उत्तरांचल राज्य के थे वही हालात उत्तराखंड राज्य का भी है. पलायन, बेरोजगारी, उत्तरांचल राज्य में भी प्रमुख समस्या थी, उत्तराखंड राज्य में भी प्रमुख समस्या है. राजनीति से सत्ता तो परिवर्तित होती है मगर समाज को जगाने के लिए समाजसुधारकों की जरूरत होती है जो इस बक्त दिखता नहीं. सत्ता की भूख के आगे करोड़ो भूखे पेट तड़प रहे है. देश को 21वीं सदी के लिए तैयार करना है तो ध्यान, ज्ञान और विज्ञान के रास्ते पर चलना होगा  ताकि हम तकनीक और यंत्रों के समुन्द्र पार के देशों पर निर्भर न रहे.

लेखक:- आई0 पी0 ह्यूमन, (हल्द्वानी) नैनीताल, स्वतन्त्र स्तम्भकार, PGD, JMC Read it also- छत्तीसगढ़ चुनाव में कहां खड़ी है बसपा

यूपी में 2500 साल पुरानी बुद्ध मूर्ति मिली

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सिद्धार्थनगर शहर के बीचों बीच छठ घाट की साफ सफाई के दौरान जमुआर नदी से तथागत भगवान बुद्ध की प्राचीन मूर्ति मिली  है. मूर्ति के ढाई हजार साल पुरानी होने का अनुमान है. अष्टधातु की इस मूर्ति की कीमत लगभग 10 करोड़ आंकी गई है.

रविवार दोपहर नगरपालिका अध्यक्ष मो. जमील सिदृदीकी जमुआर नदी पर बने छठ घाट की सफाई करवा रहे थे. बताया जाता है कि मजदूर जब नदी में घुस कर उनके किनारों को साफ करने लगे तो उन्हें यह मूर्ति मिली. मौके पर मौजूद अध्यक्ष जमील सिदृदीकी ने मूर्ति देखा तो वह चौंक पड़े. वह बुद्ध की दो फीट उंची मूर्ति थी और काफी वजनी थी. उन्हें मूति की प्राचीनता और महत्व का अहसास हुआ तो फौरन इसकी खबर प्रशासन को दी गई. प्रशासनिक अमला आनन फानन में घाट पर पहुंच गया.अनुमान है कि उक्त मूर्ति नदी में बह कर आई होगी.

यह नदी गौतम बुद्ध के पिता की राजधानी प्राचीन कपिलवस्तु नदी से जुड़ी है.कपिलवस्तु बजहासागर के पास है. बजहा सागर का पानी जमुआर नदी में गिरता है. इसलिए संभव है कि बुद्ध के पुरातात्विक क्षेत्र से मूति नदी में बह कर यहां तक चली आई हो.

फिलहाल पुलिस विभाग ने इसे अष्टधातु की मूर्ति बताते हुए इसकी कीमत दस करोड़ आंका है और इसके ढाई हजार साल तक पुरानी होने की संभावना बताई जा रही है. मूर्ति को देखने के लिए मौके पर हजारों की भीड़ थी. समाचार लिखे जाने तक मूर्ति को प्रशासनिक संरक्षण में लेने की कार्रवाई चल रही थी.

इस बारे में नगरपालिका अध्यक्ष मो. जीमल सिदृदीकी ने कहा है कि प्रतिमा महत्वपूर्ण है. उसकी कलात्मकता देख कर बौद्ध काल के स्वर्णिम युग का इतिहास ताजा हो गया है.

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Thugs Of Hindostan बनी सबसे ज्यादा एडवांस बुकिंग वाली फिल्म

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नई दिल्ली। आमिर खान, अमिताभ बच्चन, फातिमा सना शेख और कैटरीना कैफ की फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां’ रिलीज हो गई है. फिल्म को भले ही अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला, लेकिन फिल्म की पहले दिन की कमाई ने सबको चौंका कर रख दिया है. फिल्म ट्रेड एनालिस्ट तरण आदर्श की रिपोर्ट के मुताबिक फिल्म ने पहले दिन ने 52.25 करोड़ की कमाई कर ली है.

फिल्म के पहले दिन की कमाई के साथ फिल्म ने एक बड़ा रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया है. दरअसल, सभी हिन्दी फिल्मों के पहले दिन के बॉक्स ऑफिस कलेक्शन को अगर देखें तो अब तक सबसे ज्यादा पहले दिन कमाने वाली फिल्म ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां’ है. ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां’ के बाद दूसरे नंबर पर शाहरुख खान की फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर है’. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ ने पहले दिन 44.97 करोड़ रूपए की थी. तो वहीं तीसरे नंबर पर 41 करोड़ रूपए के साथ ‘बाहुबली 2’ है. वैसे बता दें कि फिल्म ने रिलीज के साथ ही कई बड़े रिकॉर्ड अपने नाम किए थे जिस वजह से भी फिल्म की कमाई इतनी ज्यादा हो पाई है.

सबसे ज्यादा स्क्रीन्स पर रिलीज

जी हां, इस फिल्म को ग्लोबली करीब 7000 स्क्रीन्स पर रिलीज किया गया है. बता दें कि इससे पहले बाहुबली 2 को दुनियाभर में 6500 स्क्रीन्स पर रिलीज किया गया था. इतनी ज्यादा स्क्रीन्स पर रिलीज होने की वजह से भी फिल्म की कमाई इतनी ज्यादा हो पाई है.

सबसे ज्यादा एडवांस बुकिंग वाली फिल्म

रिपोर्ट्स के मुताबिक, ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान के 2 लाख टिकट पहले दिन के लिए एडंवास बुक हुए थे. ये अब तक की किसी बॉलीवुड फिल्म के लिए सबसे बड़ी एडवांस बुकिंग बताई जा रही है.

ये हैं 10 बॉलीवुड फिल्मों की पहले दिन की कमाई ठग्स ऑफ हिन्दोस्तां         : 52.25 करोड़ हैप्पी न्यू ईयर                 : 44.97 करोड़ बाहुबली 2                     : 41 करोड़ प्रेम रतन धन पायो           : 40.35 करोड़ सुल्तान                        : 36.54 करोड़ धूम 3                         : 36.22 करोड़ संजू                            : 34.75 करोड़ टाइगर जिंदा है               : 34.10 करोड़ चेन्नई एक्सेप्रेस              : 33.12 करोड़ एक था टाइगर               : 32.93 करोड़. Read it also-दलित और महादलित वर्ग को ठगने का काम कर रही सरकार: मांझी

दलित बस्ती में घुसकर 5 हुड़दंगियों ने की मारपीट, खुखरी और तलवारें लहराईं

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सुंदरनगर। सुंदरनगर में कुछ हुड़दंगियों ने चमुखा पंचायत की दलित बस्ती में घुसकर हमला कर 3 लोगों से मारपीट की और सरेआम खुखरी और तलवारें लहराईं. इस दौरान बस्ती की डेढ़ दर्जन महिलाओं सहित ग्रामीणों ने उनका बचाव किया. मामले को लेकर सुंदरनगर एस.डी.एम. और सुंदरनगर पुलिस को शिकायत पत्र सौंपकर ग्रामीणों ने न्याय की गुहार लगाई है. चमुखा पंचायत के सिहली के मंगलवाणा निवासी हेम राज पुत्र रघु राम, राम लाल पुत्र रघु राम और टेक चंद पुत्र लोहारू राम ने कहा कि 5 नशेड़ी हुड़दंगियों ने अचानक उनके गांव मंगलवाणा में घुसकर कर हमला कर दिया. उन्होंने कहा कि पांचों हुड़दंगी तलसाई के रहने वाले हैं और उच्च जाति से संबंधित हैं. उन्होंने कहा कि दलित बस्ती मंगलवाणा में घुसकर पांचों ने जातिसूचक गालियां निकालीं और 3 लोगों से मारपीट करने लगे.

इस दौरान उन्होंने तीनों को जान से मारने की धमकी दी और खुखरी व तलवारें भी निकाल लीं लेकिन तब तक बस्ती की महिलाएं भी बचाव में भाग कर आ गईं, जिसे देख कर पांचों भाग कर कुछ दूरी पर एक मकान में घुस गए जबकि खुखरी और तलवार की म्यान वहीं गिर कर छूट गई. उन्होंने कहा कि मंगलवाणा बस्ती के ग्रामीणों ने मंगलवाणा की नाकाबंदी कर दी और रास्ते में काफी देर तक पहरा देते रहे, जिसे देख कर पांचों हुड़दंगी भागने में सफल हो गए. वहीं सुंदरनगर के तहसीलदार उमेश शर्मा ने बताया कि स्थानीय लोगों की शिकायत पर कार्रवाई कर मामले की जांच के पुलिस को आदेश दिए गए हैं. इस तरह की किसी भी हरकत को क्षेत्र में कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

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बसपा सुप्रीमो ने केंद्र सरकार की आलोचना की

मायावती (फाइल फोटो)

नई दिल्ली। नोटबंदी के दो साल पूरे होने के मौके पर कांग्रेस पार्टी केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने में जुटी हुई है. वहीं, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने भी केंद्र सरकार की आलोचना की है.

मायावती ने कहा कि मोदी सरकार ने जो फायदे 125 करोड़ जनता को गिनाए थे, उनमें से किसी को भी अब तक पूरा नहीं किया जा सका है. उन्‍होंने बीजेपी की अगुवाई की केंद्र सरकार को जनता से मांफी मांगने की नसीहत दी. मायावती ने कहा, ” नोटबंदी से जनता को जबरदस्त आर्थिक नुकसान हुआ है और आर्थिक इमरजेंसी जैसी स्थिति पैदा हो गई है, इससे ज्यादा जनता को कुछ भी नहीं मिला है. यह जनता के साथ धोखा है. इसके लिए केंद्र सरकार को जनता से माफी मांगने चाहिए.”

मायावती ने बीजेपी पर हमला बोलते हुए कहा कि लोगों को अच्छे दिन लाने का सुनहरा सपना दिखाकर वोटों के स्वार्थ की राजनीति करती है.सरकार कोई भी वादा पूरा नहीं कर सकी है. मायावती ने कहा कि नोटबंदी एक व्यक्ति की अपनी मनमानी और अहंकार का नतीजा थी. उन्‍होंने कहा कि यह सच अब देश और दुनिया के सामने है. इसलिए बेहतर होगा कि सरकार अपना अहंकार त्यागकर जनता से माफी मांगे. इसके अलावा बसपा सुप्रीमो ने केंद्र सरकार को नसीहत देते हुए कहा कि अलग-अलग संवैधानिक और स्वतंत्र संस्थाओं में अनावश्यक टकराव कराने की स्थिति पैदा करने से परहेज करने की जरूरत है.

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संत शिरोमणी गुरू रविदास महाराज जी

दोहाः-  चैदाह सौ तैंतीस की माघ सूदी प्रन्द्रास. दुखियों के कल्याण हेतू प्रकटे श्री गुरू रविदास.
उनका जन्म भारत के प्रसिद्ध शहर वाराणसी के नजदीक 15 पूर्णिमा (1433) सन 1377 में हुआ. पिता श्री संतोख दास, माता पूज्यनीय कलसा देवी जी की पावन खोक से गांव सीर गोवर्धनपुर में दुखियों का कल्याण करने के लिए आगमन हुआ. दादा जी श्रीमान कालू राम जस्सल, दादी जी श्रीमति लखपती जी, पुत्र श्री विजय दास जी, पत्नी श्रीमति लोना देवी जी.
भारतीय हिन्दू विश्वाविद्यालय वाराणसी के निकट शूद्रों की बस्ती में जिसे सीर करै हिया कहते हैं. यहीं ईमली का पेड़ है जिसके नीचे बैठकर सत्संग किया करते थे. श्री गुरू ग्रंथ साहिब में भी गुरू जी का नाम श्री गुरू रविदास है.
शिक्षा- शिक्षा से वंचित रहे क्योंकि शुद्रों को शिक्षा देना जुर्म समझते थे तथा शिक्षा प्राप्त करने वाले की आंखे तक निकाल देते थे. गुरू जी स्वयं ही शिक्षित हुए, उनकी वाणियों तथा पदों से जो वर्णन मिलता है वह एक बहुत ही अच्छे संगीतकार थे. उनका शब्द कोष बहुत विशाल था. उनकी वाणियां पंजाबी, राजस्थानी, मराठी, खड़ी बोली, हिन्दी, अरबी तथा फारसी में पाई जाती है. उन्होंने एशिया के सभी देशों की यात्राएं की तथा अपने प्रभावशाली विचारों से लोगों को निम्नलिखित वाणी/विचारों से प्रभावित किया.
नाना खियान पुरान वेद विधि चऊतीस अक्षर माही..1..
विआस विचारि कहिओ परमारथ राम नाम सरि नही..2..
सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बड़ै भागि लिव लागी..
कह रविदास प्रगास रिदै धरि जन्म मरन सै भागि..3..
गुरू जी की उक्त वाणी में चऊतीस अक्षरों की गुरूमुखी लिपि उनके मुख से उजागर हुई है. इस बारे लाहौर में मुकदमा दायर किया गया और 11.03.1931 को फैसला आया कि गुरूमुखी लिपि का निर्माण गुरू रविदास जी ने ही किया था.
‘माधो अविदिया हित लीन. विवके दीप मलीन‘.
गुरू रविदास जी ने विवेक के दीप को जलाने के लिए गुरूमुखी के चैतीस अक्षरों की रचना की, जिससे समाज में जागृती आई और ज्ञानवान बनने की किरण फूटी. “गुरू रविदास जी का तेज, प्रताप तथा यश सूर्य की भांति फैल गया“. (लेखक तथा इतिहासकार मैकालिया) लेखक ज्ञानी गुरूबचन सिहं वैद ने भी इस प़क्ष की पूरी पुष्टि की. वास्तव में अक्षर चैतीस ही है परंतु पंड़ितों ने इसे कठिन बनाने के लिए बावन अक्षर बना दिए.
अछुत वर्ग तथा स्त्री (किसी भी जाति की हो) को संस्कृत भाषा पढ़ना व पढ़ाना पर  बिल्कुल प्रतिबंध था. इसको पूरा करने के लिए गुरू जी ने अक्षर बनाये ताकि अछुत वर्ग तथा स्त्री को पढ़ने का मौका मिले और मनुबाद की पराधीनता से मुक्त होकर सम्मानित जीवन जी सके और उन्नति करें.
स्त्री वर्ग का कल्याण-
मनुवाद ने अछूत तथा सभी वर्गाे्र की स्त्रियों को ताड़न के अधिकारी बताया गया. परंतु गुरू जी ने सारे हिन्दूस्तान में उपदेश दिए तथा उनके धार्मिक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर समाज के प्रत्येक लोग तथा स्त्री मीराबाई, झाला रानी समेत सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया. उस समय नारी को शिष्य बनने का अधिकार नहीं था परंतु गुरू जी ने उनको दीक्षा प्रदान करते हुए उनको भव सागर से पार किया.
गुरू नानक देव जी का सच्चा सौदा तथा गुरू रविदास जी-
गुरू नानक देव जी कुछ साधुओें की टोली साथ गुरू रविदास जी की अगुवाई में चुहड़काने (पाकिस्तान) में सच्चा सौदा किया. गुरू रविदास जी सच्चे सौदे से संतुष्ट हुए और गुरू नानक का माथा दायें अंगुठे से गुरू जी ने छुआ और दीक्षा प्रदान की. गुरू नानक देव जी को एकदम तीनों लोक का ज्ञान प्राप्त हुआ. उनके मुख से वाह गुरू निकला जो आज “वाहेगुरू“ बोला जाता है. उस समय गुरू रविदास जी के लगभग 52 राजा तथा रानी शिष्य बनें. जो सभी राजपूत ही थे. यदि उस समय कानून होता तो अछुतो के हितों को गुरू जी कलम बंद करवा सकते थे.
गुरू रविदास जी के उपदेश तथा वाणी सभी वर्गाें के लिए है-
गुरू रविदास जी जी की वाणी तथा उपदेश केवल शुद्रों के लिए नहीं बल्कि सभी वर्गों के लिए है. सुप्रसिद्ध लेखिका गेल ओम्वेट ने अपनी पुस्तक “सीकिंग वेगमपुरा“ में संत गुरू रविदास जी का संपूर्ण भारतीय इतिहास में प्रथम व्यक्ति माना है जिन्होंने आदर्श भारतीय इतिहास का माडल पेश किया है. “सीकिंग वेगमपुरा“ का मतलब है कि बिना गमों का शहर जो जाति विहिन, वर्ग विहीन आधुनिक समाज है.
1. “पराधीनता पाप है, जानले रे मीत.
रविदास प्राधीन सो कोनर करे है प्रीत“..
अर्थ- गुरू रविदास जी ने दूसरों की गुंलामी को पाप बताया.
2. ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न.
छोट बढे सब सम बसे, रविदास रहे प्रसन्न..
अर्थ- इतिहास में गुरू जी ने सबसे पहले खादय सुरक्षा की बात उठाई.
3. रविदास मनुष्य करि वसन कूं,
सुखकर है दुई ढांव एक सुख है स्वराज यहि दूसरा मरघट गांव..
अर्थ- इतिहास में गुरू जी न सबसे पहले शांतिपुूर्वक जीने के लिए दो ही स्थान बताए. एक स्वयंराज दूसरा शमशान घाट अर्थात मृत्यू.
4. सत विद्यया को पढ़े, प्राप्त करे सदा ज्ञान.
रविदास कह बिन विद्यया नर को ज्ञान अज्ञान..
अर्थ- रविदास जी कहते है कि केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त करना महत्वपूर्ण नहीं है अपितु सही ज्ञान सतविद्यया प्राप्त करने के बाद मनुष्य समाज कल्याण हेतू प्रयास करता है. वही असली ज्ञानी है अन्यथा उसे अज्ञानी ही मानना चाहिए.
5. पांडे रे विच अंतर डाढा. मुड मुडावे सेवा पूजा, भ्रम का बन्धन गाढ़ा..
अर्थ- हरे पांडे तुझमें और भगवान में बहुत अंतर है. तुमने तो पाखंडवाद फैला रखा है जिसमें तुम लोगों के सिर मुडवाकर तरह तरह से पूजा करवाते हों. भ्रम का गहरा झाल फैलाये बैठे हो. जब मनुष्य और प्रकृतिक रूप भगवान का संबंध अति सहज है.
6. रविदास जन्म के कारण होत न कोई नीच.
नर कूं करि नीच डारि है औछे कर्म की कीच..
अर्थ- नर जन्म के आधार पर नीच नहीं है. मनुष्य को नीच उसका औछा व्यवहार बनाता है.
7. जात पात में जात है ज्यो केलन में पात.
रविदास न मनुष्य जुड़ सके जो लों जात ना पात..
अर्थ-जैसे केले के पेड़ के तने में एक के बाद एक परत छुपि रहती है. परंतु वहां पर कोई ठोस पदार्थ नहीं होता. इसी प्रकार मनुष्य में भी जात में जात छुपी रहती है लेकिन उनको भी बांटने का कोई ठोस आधार नहीं होता.
8. “चारों वेद किया खंडोति. जन रविदास करै दण्डोति..“
अर्थ-गुरू रविदास जी ने चारों वेदों को खंडन किया है जो हमार समाज के लिए व्यर्थ घोषित किया है. ऐसे व्यक्ति को जन समुदाय दंडवत प्रणाम करता है.
संपूर्ण समाज के लए आर्दश समाज का माटल “बेगम पुरा“
“बेगमपुरा शहर को नाऊ. दुःख उन्दोहु नही तिही ठाऊ“..
ना तसवीस खिराजु न माल. खौफन खता तरसुना जवालु..
अत माही खूब वतन रह पाई. वहां खैरी सदा मेरे भाई..
काईमु दाइसु सदा पातसाही. दोम न सोम एक सो आहि..
आबा दानु सदा यतसहुर. वहां गनी वसी मामूर..
तिऊ तिऊ सैल करहि जिऊ भानै. मरहम महम न को अठकाले..
कहि रविदास खलास चमार. जो हम सहरी तु मीत हमारा..
अर्थ- बेगमपुरा बिना गमों का शहर वहां कोई चिंता, टैक्स, खौफ, धोखा, लाचारी अभाव नहीें है. वहां मनुष्य का सदा ही भला होता है. वहां सही विचारों की हकुमत है. वहां कोई दुसरा, तीसरा दर्जा नहीं है. सभी समान है. वहां कोई धर्म, जाति, लिंग, भाषा, स्थान का भेदभाव नहीं है. वहां कानून के अनुसार आचरण करते है. वहां सभी कहीं भी घूम सकते हैं. वहां राजा या उसके कर्मचारी किसी को रोकते नहीं है. किसी की आजादी का हलन नहीं करते है. जो इन विचारो के समर्थन है वह मेरे साथी है.
गुरू रविदास जी के कोई गुरू नहीं थे-
जब गुरू रविदास जी का जन्म (25.01.1377) में हुआ तो उस समय शुद्रों को कोई शिष्य नहीं बनाता था. पंडितों ने आरम्भ से ही लोगों को भ्रम में डाल रखा है कि वह स्वामी रामनन्द के शिष्य थे. जो बिल्कुल गलत है. रामनन्द का जन्म 1423 में हुआ था. वह गुरू जी से 10 वर्ष बढ़े थे. गुरू रामनन्द के पिता ने उन्हें अनेक स्कूल तथा वेदांे की शिक्षा ग्रहण करने के लिए 15-16 वर्ष तक बाहर भेजा.
1. वह 15,16 वर्षों तक वेदाचार्यों के पाठ ज्ञान अर्जित करते रहे. तो वह वैसे गुरू रविदास जी को दीक्षा दे सकते थे.
2. वह गुरू रविदास जी शुद्र थे. शुद्रों को दीक्षा पर प्रतिबंध था. दीक्षा देने वाले को भी ब्राहाण समाज में सजा देने का प्रवाधान था.
3. यह ठीक है कि गुरू रामानन्द, सन्त कबीर साहेब के गुरू थे. कबिर साहेब ने भी गुरू रामानन्द को धोखा देकर गुरू बनाया था. जब गुरू रामानन्द सवेरे गंगा स्नान करते थे उसी पोड़ी पर कबीर साहेब अन्धेरे में लेट गये. जब रामानन्द जी आये तो कबीर साहेब की ठोकर लग गई तो रामानन्द जी घबराये देखा कोई पोड़ी पर सो रहा है. तो गुरू रामानन्द ने उस के सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया. कबीर साहेब खुश हुए और     अपने आप को गुरू रामानन्द के शिष्य कहने लगे. जब सभी ब्राहणों ने पता चला कि गुरू रामानन्द के शुद्र को कैसे दीक्षा दे दी. ब्रहाण समाज ने बुरू रामानन्द के सामने बवाल रच दिया. गुरू रामानन्द ने कहा मैं कभी भी शुद्र को दीक्षा नहीं देता. परन्तु कबीर साहेब कह रहें है कि मैने दीक्षा गुरू रामानन्द से ली है, वह मेरे गुरू है. ब्रह्यणों ने कबीर साहेब को रामानन्द के पास बुलाया गया और संत कबीर साहेब फिर दोहराया कि मैंने दीक्षा गुरू रामानन्द से ली है.
उन्होने गुरू रामानन्द को वह सवेरे गंगा घाट की पोड़ी वाली घटना की याद दिलाई कि रामानन्द ने कहा उन्हे दीक्षा मैने ही दी है, पर धोखे से. उनके दूसरे शिष्य है, सुखानन्द, सरेशानन्द, अननानन्द इत्यादि थे. यदि वह कबीर साहेब को दीक्षा देते तो कबीर साहेब भी कबीरनन्द होते. इस प्रकार गुरू रविदास उनके चेले होते तो वह भी रविदास की बजाये रविनन्द होते.
इसीलिए गुरू रविदास जी का कोई गुरू नही था. गुरू जी ने तो स्वयं भी ज्ञान अर्जित किया. असल में गुरू रविदास जी तो जन्म से परमात्मा रूप थे उन्होने गुरू ही आवश्यकता ही नही थी. यहां यह कहना भी आवश्यक है कि गुरू रविदास के जन्म के पांच या छह दिन बाद गुरू रामानन्द गुरू रविदास को शुद्रों की बस्ती में दर्शन आये.
श्री खुरालगढ़ साहेब दर्शनः
ईसवी 1515 में गांव खुरालगढ़ तहसील गढ़संकर जिला होशियापुर में गुरू रविदास जी लुधियाना से होते हुए फगवाडा(चक हकीम नगर ) जहां गुरू जी कुछ दिनो के लिए जहां आज सुंदर साहेब गुरूद्वारा है उस समय वहां राजा बैन सिंह थे. राजा बैन संत मीराबाई के रिश्ते में मौसा थे (मीरा की माता के बहनोई). गुरू जी शुद्रो की बस्ती में बाबा धन्ना तथा देविया के घर सत्संग करते थे. वहां मीराबाई भी गुरू जी के दर्शन करने पहुंच गई. मीरा जी की खबर राजा बैन को मिल गई कि मीराबाई खुरालगढ़ सत्संग में पहुच गई है. राजा बैन ने तुरन्त शुद्रो की बस्ती में सिपाही भेजकर गुरू रविदास जी को अपनी कचहैरी में बुलवा लिया. गुरू जी के साथ धन्ना तथा दैविया भी आ गये. राजा बैन ने गुरू जी को शुद्र होते हुए सत्संग करने का दोषी करार कर दिया. सजा में गुरू जी को चक्की (जो बैलों से चलती थी) से आटा पिसने के आदेश दे दिये. गुरू जी ने प्रभु को याद किया थोडी देर में चक्की अपने आप ही चलने लगी. राजा बैन को इस घटना की सूचना दी तो राजा बैन गुरू जी के पास जेल में आ पहुॅुचे और गुरू जी से क्षमा मांगी गुरू जी ने उन्हे क्षमा कर दिया फिर राजा ने अपनी सम्सयाएॅं गुरू जी के सामने रखी.
1 अनाज की अकाल.
2 पानी की समस्या.
अनाज की समस्या बारे गुरू जी ने शुद्रो की बस्ती में एक गुरूमुखी राम दासी जो बहुत गरीब और गुरू जी का सत्संग करती थी. उसके घर से एक मण गेहूॅं मगवाई, राजा ने नौकरो को भेजा तथा गेहूॅं लाने के आदेश दिए. नौकर रामदासी के घर पहुंचे और गेहूॅं की मांग करी परन्तु गेहू तो उसके पास थी नही. फिर नौकरो ने गुरू जी के बारे बताया गया. रामदासी जी ने कहा देख लो कहीं होगी तो ले जाना. उसकी कोठी से एक मण गेहू मिल गयी और वह गेहू गुरू जी को दे दी तथा रामदासी भी साथ चली आई. गुरू जी ने नौकरो को कहा इस गेहॅंू को इस चक्की में डालो और परदे लगवा दिए. चक्की खूब चली, जब तक चले तो इसको रोकना नही. आटे के ढेर के ढेर लग गये और सारी जनता आटे को घर ले गई इस तरह अनाज की समस्या हल हो गई. चक्की लगातार चलती रही.
पानी की समस्या बारे गुरू जी ने कहा जेल से दो किलोमीटर तक मेरे साथ चलो. खुरालगढ का पहाडी ऐरिया होने के कारण से वहां बडे बडे पत्थर पडे थे उनमें से एक पत्थर को गुरू जी ने कहा क् िइस पत्थर को उठाओ. पत्थर को स्वयं राजा ने तथा नौकरो ने भी उठाया परन्तु भारी होने के कारण वह नही हिला. फिर गुरू जी ने अपने दाएं पैर के अगूठे से छुआ तो पत्थर दूर पडा और पत्थर के नीचे से पानी ऊपर की ओर आया. वहां आज भी एक अमृत कुण्ड है तथा गुरू जी का मंदिर भी है और उसे “चरण छूं गंगा“ के नाम से पुकारते है. वहां के पानी से सारी समस्याएं हल हो गई उस दिन से जेल को गुरद्वारे में बदल दिया. उसी गुरूद्वारे में गुरू जी चार वर्ष दो महीने ग्यारह दिन तक रहे तथा वहां तप भी किया. इसी स्थान पर तप स्थान श्री गुरू रविदास खुरालगढ साहेब (रजि. 305) स्थित है. यहां रात दिन संगत आती जाती है और श्री गुरू स्थान के दशर्नो का लाभ उठाती है तथा अटूट लंगर चलता रहता है.
संवत 1584 (06.03.1528) को 151 वर्ष 1 महिना 10 दिन की आयु के बाद चितौड़गढ़ में गम्भीर नदी के तट पर श्री गुरू रविदास जी ब्रह्यलीन हुए.
श्री गुरू ग्रंथ साहेब तथा गुरू रविदास जी-
श्री गुरू ग्रंथ साहेब सारी दुनिया मं अति पवित्र ग्रंथ के रूप में पूजा होती है. श्री गुरू ग्रंथ साहेब में सारे मानवतावादी गुरूओं की वाणियों को संजोया गया है तथा मनुवादी विचारों से परहेज रखते हुए दूर ही रख गया है. देवी, देवताओं, माता मसाणियों, ब्रह्यणवाद तथा सभी आडम्बरों को कहीं भी गुरू ग्रन्थ साहेब ने मान्यता नहीं दी गई. श्री गुरू रविदास जी की चालिस वाणियों तथा एक श्लोक को गुरू ग्रंथ साहेब में संजोया गया है.
सारी दुनिया श्री गुरूद्वारों में गुरू रविदास की वाणियां तथा आरती गाई जाती है. गुरू रविदास जी की आरती पाखण्ड रहित तथा सहज है. गुरू जी के बारे में जितना भी लिखे उतना ही थोड़ा है अर्थात इसका कोई अन्त नहीं है.
यू. एन. ओ. की टोरांटो में हुए सम्मेलन में ऐलान किया गया था कि विश्व सरकार का संविधान का आधार श्री ग्रंथ साहेब होगा और उसकी प्रस्तावना सतगुरू रविदास जी के शब्द बेगमपुरा पर आधारित होगी. इसी तरह मानवता कि मशीहा डा0 बी. आर. अम्बेडकर जी ने भारतीय संविधान की नींव प्रस्तावना और संविधान की रूप रेखा का सृजन सतगुरू रविदास जी के “बेगमपुरा“ शब्द के आधार पर किया गया है.
शेर सिहं डांडे

सरदार वल्लभ भाई पटेल डा. अम्बेडकर के धुर विरोधी थे

सरदार वल्लभ भाई पटेल और अंबेडकर, दोनों को ही भारतीय राजनीति के सबसे मजबूत स्तंभों में गिना जाता है| दोनों के बीच की बहस और मतभेद उन सवालों पर रोशनी डालते हैं, जो आज के राजनीतिक परिदृश्य में भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने उस समय थे. सरदार वल्लभ भाई पटेल व डॉ. भीमराव अंबेडकर के रिश्ते पर एक नजर डालें तो दोनों की विरासत को लेकर आज भी तमाम धड़ों में प्रतियोगिता होती रहती है. राजनीतिक दल दोनों की विरासतों को अपने सांचे में ढालकर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं/कर रहे हैं. दोनों को ही इन दिनों किसी न किसी प्रकार से सम्मानित किया जा रहा है. डा. बाबा साहेब अम्बेडकर की याद में दिल्ली में मेमोरियल बनाया गया है, तो सरदार वल्लभ भाई पटेल की याद में दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है. ज्ञात हो कि महाराष्ट्र सरकार ने भी बाबा साहेब अम्बेडकर की सरदार पटेल की ही तर्ज पर मूर्ति/प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा की है. सुना है कि उस परियोजना पर काम भी शुरू हो गया है.

क्या आप जानते हैं कि जाति और आरक्षण को लेकर सरदार पटेल और डॉक्टर अंबेडकर की सोच बिलकुल अलग थी. संविधान सभाओं में इस विषय पर उन दोनों के बीच अच्छी खासी बहस होती थी. शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मदद से अंबेडकर दलित अधिकारों को सुरक्षित करना चाहते थे किंतु पटेल को आरक्षण ‘राष्ट्र-विरोधी’ लगता था. उन्होंने कहा था, “जो अब अछूत नहीं हैं, उन्हें भूल जाना चाहिए कि वे कभी अछूत थे. हम सबको साथ खड़े होना होगा.” यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या आजादी के इतने सालों बाद भी पटेल की बात पर विश्वास किया जा सकता है. उनका ये कहना कि अछूतों को ये भूल जाना चाहिए कि वे कभी अछूत थे, कितना सार्थक है. क्या ये सवाल आज वाजिब नहीं? उन्होंने अछूतों को समझाने की कोशिश की किंतु ब्राह्मणवादी सोच को बदलने के लिए सवर्णों को कोई हिदायत अथवा सीख नहीं दी, फिर कैसे मान लिया जाए कि पटेल की विचारधारा मनुवादी नहीं थी? हां! ये जरूर है कि गृहमंत्री रहते हुए उन्होंने भारत के रजवाड़ों का सरकारीकरण करके भौगोलिक स्तर पर भारत को एक करने का काम किया किंतु समाज में व्याप्त भेदभाव और कुरीतियों के निस्तारण के लिए कोई काम नहीं किया. समाज में व्याप्त जातिप्रथा और कुरीतियों के खिलाफम जो भी काम हुआ, वो केवल और केवल बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही किया और किसी ने नहीं. यही अंतर था बाबा साहेब अम्बेडकर और पटेल जी की सोच में.

अंबेडकर संविधान सभा के सभापति थे. पर उनका एक निश्चित लक्ष्य भी था. उन्हें लंबे समय से शोषण का शिकार दलितों के हित भी सुरक्षित करने थे, चाहे उन्हें जिद्दी और आक्रामक रणनीति ही क्यों न अपनानी पड़े. उन्हें यकीन था कि ऐसा सिर्फ दलितों के राजनीतिक और आर्थिक अधिकार सुरक्षित करके ही किया जा सकता है, जो सरकारी शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के जरिए ही हो सकता था. इसलिए उन्होंने प्रस्ताव रखा कि सरकार शिक्षा और नौकरियों में कुछ फीसदी सीटें दलित और पिछड़े वर्ग के लिए सुरक्षित रखे.

सरदार पटेल, केएम मुंशी, ठाकुर दास भार्गव और कुछ अन्य ऊंची जाति के कांग्रेस नेताओं ने इसका पुरजोर विरोध किया. पटेल का कहना था कि दलित हिंदू धर्म का एक हिस्सा हैं और उनके लिए अलग व्यवस्था उन्हें हिंदुओं से हमेशा के लिए अलग कर देगी…. अब इन लोगों से कोई ये पूछे कि दलितों को हिन्दू तो माना गया किंतु वे व्यवस्था का हिस्सा कब थे? उन्हें सवर्णों ने अपना हिस्सा माना और उनके साथ कब मानवीय व्यवहार किया जाता था? दलितों के साथ सवर्णों का आज भी वही व्यवहार है. हां! कुछ विवशताओं के चलते दलितों की सामाजिक/ आर्थिक/ राजनीतिक स्थिति जो बदलाव आया है वो सवर्णों की सोच में बदलाव का परिणाम न होकर शिक्षा के प्रचार-प्रसार का परिणाम है और कुछ नहीं.

स्मरण रहे कि वह पटेल जी ही थे जिन्होंने संविधान निर्माण के दौरान बाबा साहेब से संविधान में आरक्षण का प्रावधान करने का विरोध किया था, जिस पर डॉ आंबेडकर ने संविधान समिति से पटेल जी को अपना स्तीफा सौंप दिया था किंतु पटेल जी ने भविष्य को देखते हुए बाबा साहेब का स्तीफा फाड़ दिया और कहा कि अम्बेडकर मैं जिद्दी जरूर हूं किन्तु मूर्ख नहीं… औऱ इस तरह संविधान में एस सी/एस टी को नौकरियों में आरक्षण प्रदान हो सका…..और आरक्षण विरोधी भाजपा उसी पटेल का गुणगान करने में लगी है…दोनों की मानसिकता एक सी जो है. यह भी सुनने को मिलता है कि पटेल जी ने कहा था कि यदि मैं प्रधान मंत्री होता तो अम्बेडकर को कभी भी संविधान निर्माण समिति में न आने देता.

हैरत की बात तो ये कि जिस सरदार पटेल ने गृह मंत्री रहते हुए आर एस एस पर प्रतिबन्ध लगाया था, उस आर एस एस से जन्मी भाजपा सरदार पटेल ही नहीं, न जाने और कितने ही आर एस एस विरोधी कांग्रेसी नेताओं को सिर माथे बिठाती जा रही है, जिनका विरोध करते – करते आर एस एस के नेताओं का गला भर्राने लगता था किंतु भाजपा की पैत्रिक संस्था आर एस एस आज आँख बन्द करके भाजपा की कारस्तानी देखने को मजबूर है अथवा वो भाजपा के सामने बौनी हो गई है, कुछ पता नहीं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि आर एस एस ने मान लिया है कि सरदार पटेल ने गृहमंत्री रहते हुए जो आर एस एस को प्रतिबन्धित किया था, वह सही था. यानी कि आर एस एस की गतिविधियां राष्ट्र विरोधी ही थीं…. और आज भी हैं किंतु सत्ता में बने रहने के लिए वो जरूरी मान बैठी है कि समाज विरोधी अपने रवैये को ढकने के लिए समाज के हित में काम करने वाला चाहे जो भी रहा हो, उसे अपने पाले में खींचना जरूरी है.

जब से भाजपा सत्ता में आई है, उसने नारा लगाया है कि भाजपा भारत को कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाहती है. किंतु देखा यह जा रहा है कि जो भी नेता कांग्रेस पार्टी का दामन छोड़ देता है, भाजपा उसे अपने घर में मेहमान बनाकर भरपूर आदर-सत्कार करती है और भाजपा में शामिल कर लेती है. इस प्रकार तो ये लगता है कि भारत कभी भी इसलिए कांग्रेस मुक्त नहीं होगा क्योंकि भाजपा ही कांग्रेस युक्त होती जा रही है.

उल्लेखनीय है कि भाजपा ने 2014 के चुनाव-प्रचार के दिनों से पहले ही प्रतीकों की जंग शुरू करदी थी. अब 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर यह और भी तेज हो गई है. सुभाष चंद्र बोस के नाम पर दिल्ली से लेकर अंडमान तक कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं, ये आयोजन इस ओर ही इशारा कर रहे हैं. इन कार्यक्रमों के पीछे बीजेपी और मोदी सरकार के राजनीतिक निहतार्थ ही हैं. भाजपा सरकार ने 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर ही आजाद हिंद फौज की स्थापना की इस साल 75वीं वर्षगांठ मनाई है. मोदी सरकार और बीजेपी का दावा है कि आजाद भारत में नेताजी के नाम पर अब से पहले कभी भी कोई आयोजन नहीं किया गया, जैसा इस दौरान किया जाएगा. यह पहला मौका है जब लाल किले पर 15 अगस्त की बजाय प्रधानमंत्री की ओर से किसी दूसरे दिन तिरंगा फहराया गया. पिछले कुछ सालों में मोदी सरकार ने नेताजी को भी अपने पाले में खींचने की पुरजोर कोशिश की है. खबरों के हिसाब से नेताजी परिवार के कुछ सदस्य पहले से ही बीजेपी में हैं. लेकिन यहाँ यह सवाल भी उठता है कि मोदी जी ऐसे आयोजनों के जरिए आर एस एस और अन्य हिन्दूवादी शक्तियों द्वारा नेताजी के समय में किए गए विरोध की आग को बुझा सकेंगे.

इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 31 अक्टूबर को गुजरात में सरदार पटेल की सबसे ऊंची मूर्ति का अनावरण किया गया. यह उनकी सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में शामिल है जिसकी शुरुआत 2013 में ही उन्होंने बतौर गुजरात के सीएम रहते हुए की थी. इस कार्यक्रम को पीएम मोदी अति प्रमुखता से ले रहे हैं. दिलचस्प बात है कि नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की विरासत को कांग्रेस से छीनकर अपनी राजनीति के साथ सफलतापूर्वक जोड़ लिया है.

इस प्रकार प्रधानमंत्री मोदी शुरू से ही सरदार पटेल को एक प्रतीक की तरह इस्तेमाल करके कांग्रेस की वंशवादी राजनीति पर कड़ाई से हमला करते रहे हैं. इससे वह दोहरा निशाना लगाते हैं. एक तरफ वह कांग्रेस पर एक ही परिवार को संरक्षण देने का आरोप लगाते रहते हैं तो इसकी एवज में वह सरदार पटेल जैसे नायकों की उपेक्षा का भी आरोप लगाकर अपने पाले में खींचने का उपक्रम करते रहे हैं. 31 अक्तूबर को ही सरदार पटेल की जयंती के साथ इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि भी होती है. ऐसे में मोदी जी ने सरदार पटेल की मूर्ति का अनावरण करने के बहाने इन्दिरा गान्धी के कद को अदना करने का प्रयास भी किया है. इसके साथ ही कांग्रेस इस मूर्ति को बनाने में चीन के बने प्रॉडक्ट का इस्तेमाल करने का आरोप लगाकर इसे मेक इन इंडिया और सरदार पटेल का अपमान बता रही है. कांग्रेस ही नहीं अपितु भाजपा के वरिष्ठ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने यह कहकर विरोध किया कि सरदार पटेल और शिवाजी की मूर्तियां स्थापित करने जिस अकूत धनराशि का अपव्य्य किया गया है , इस धनराशि से यदि अस्पतालों की स्थापना की जाती तो कम से कम 100 AIIMS अस्पतालों की स्थापना हो सकती थी किंतु सरकार ने जनता के हितों की अनदेखी कर राजनीति को प्रमुखता देने का प्रयास किया है और कुछ नहीं.

आज का सच ये है कि सरदार पटेल की विशालकाय प्रतिमा लगाकर भाजपा बेशक अपनी पीठ खुद ही थपथपाकर खुश हो रही हो किंतु विश्वपटल भाजपा सरकार खूब खिल्ली उडाई जा रही है. स्टैचू ऑफ यूनिटी’ को लेकर ब्रिटेन ने भारत सरकार की करनी और कथनी की जो पोल खोली है, वह समूचे भारत के लिए शर्म की बात है. ब्रिटेन ने दावा किया है कि जिस बीच भारत यह मूर्ति बना रहा था, उस बीच ब्रिटेन ने भारत को करीब एक अरब पाउंड की आर्थिक मदद दी थी. बजरिए पंजाब केसरी, ब्रिटेन द्वारा बताई जा रही यह रकम पटेल की मूर्ति पर आए खर्च से कहीं ज्यादा है. खबर में एक सांसद यह भी कहा है कि ब्रिटेन को अब भारत की मदद नहीं करनी चाहिए. ब्रिटेन ने कहा कि अगर भारत ये पैसा मूर्ति बनाने में खर्च नहीं करता तो अपने प्रॉजेक्ट्स का खर्च खुद ही उठा सकता था.

विदित हो कि सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी एक के बाद एक कांग्रेस के प्रतीक और नेहरू की विरासत को छीनने की कोशिश करते रहे हैं. इसमें सिर्फ नेताजी या सरदार पटेल ही नहीं हैं. उनकी लिस्ट में इनके अलावा कई और नाम भी शामिल हैं. पीएम मोदी की आक्रामक राजनीति का यह अहम हिस्सा रहा है. पीएम मोदी ने दलित वोट पर निशाना साधते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम पर भी एक के बाद एक कई आयोजन और कार्यक्रम चलाए. बिहार चुनाव से ठीक पहले पीएम मोदी ने रामधारी सिंह दिनकर को तरजीह देते हुए उनकी जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया था.

चलते-चलते बताते चलें कि मायावती के द्वारा बनाए गए स्मारकों की न जाने किस-किस प्रकार से खिलाफत की गई थी किंतु आज चाहे पटेल की प्रतिमा स्थापित करने की बात हो या फिर वीर शिवाजी की, भारत में इस पर कहीं कोई भी चर्चा नहीं हो रही. … क्यों? कमाल की बात यह भी है कि जो भाजपा सरकार आम जनता से जिस चीन के सामान की खरीद-फरोक्त के लिए मना करती है, उसके द्वारा उसी चीन से सरदार की प्रतिमा बनवाई गई है…. मायावती ने तो ऐसा भी नहीं किया था.

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मंदिर और मूर्तियों में रुचि रखने वाले शूद्रों(पिछड़ों) और आम महिलाओं से एक विनम्र सवाल!

क्या आपने ‘संघ-विहिप-भाजपा’ से कोई एमओयू (MoU) करा ली है कि अयोध्या के भावी भव्य मंदिर से लेकर केरल के शबरीमला मंदिर तक, सारा धरम-करम अब लोकतांत्रिक ढंग से होगा? जाति, उम्र और लिंग का भेदभाव नहीं होगा? किसी भी जाति का व्यक्ति पुजारी हो सकता है और पूजा करने कोई भी व्यक्ति, १० से ५० वर्ष की महिला सहित, मंदिर के अंदर जा सकता है?

क्या संघ-परिवार से संचालित मौजूदा केंद्र सरकार अयोध्या में मंदिर-निर्माण के कथित अध्यादेश से पहले पूरे भारत के अधिसंख्य मंदिरों के संचालन-प्रबंधन और उपासना के अधिकार से सम्बंधित इस आशय का कानून संसद से पारित कराएगी? आप क्यों नहीं यह सवाल उनसे पूछते हैं?

अगर आपने ऐसा कोई MoU उनके साथ नहीं किया है या मंदिर-प्रबंधन व उपासना के अधिकार सम्बन्धी जरुरी सवाल का जवाब उनसे नहीं लिया है तो यकीनन आप मंदिरों और भगवानों को कुछ गिने-चुने चितपावन या कुलीन ब्राह्मण पुरुषों के हवाले कर रहे हैं!

आखिर ये कैसा धर्म है, जिसके अधिसंख्य उपासना-गृहों(मंदिरों) पर सिर्फ एक खास जाति के कुछ पुरुषों का ही ‘राज’ कायम रहता है? शूद्रों और महिलाओं को अपने इस धर्म और इसके अधिसंख्य उपासना-गृहों(मंदिरों) के बारे में जरूर सोचना चाहिए!

अच्छी स्थिति दलितों और दक्षिण भारत (खासकर तमिलनाडु) के ज्यादातर शूद्रों की है, उनका बड़ा हिस्सा इस धर्म, इसकी उपासना पद्धति और मंदिरों की असलियत से काफी पहले ही वाकिफ हो गया था!

उर्मिलेश

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दलित दस्तक मैग्जीन का नवम्बर 2018 अंक ऑन लाइन पढ़िए

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दलित दस्तक मासिक पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. जून 2012 से यह पत्रिका निरंतर प्रकाशित हो रही है. मई 2018 अंक प्रकाशित होने के साथ ही पत्रिका ने अपने छह साल पूरे कर लिए हैं. हम आपके लिए सांतवें साल का छठा अंक लेकर आए हैं. इस अंक के साथ ही दलित दस्तक ने एक नया बदलाव किया है. इसके तहत अब दलित दस्तक मैग्जीन के किसी एक अंक को भी ऑनलाइन भुगतान कर पढ़ा जा सकता है.

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