आज बहुजन समाज के लिए बड़ा दिन है। आज ही के दिन मान्यवर कांशीराम जी के नेतृत्व में बहुजन समाज पार्टी द्वारा मंडल कमीशन में पिछड़ी जातियों के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान हेतु की गई सिफारिशों को लागू करवाने के लिए जेल भरो आंदोलन किया गया था। आज उसकी 37वीं वर्षगांठ है। 37 वर्ष पहले सन् 1984 में 1 से 14 अगस्त तक बहुजन समाज पार्टी ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कराने के लिए जेल भरो आंदोलन किया था। इस दौरान बसपा ने संसद भवन के सामने बोट क्लब पर अपने 3749 कार्यकर्ताओं के साथ धरना प्रदर्शन किया तथा गिरफ्तारियां भी दी।
यहां 3749 कार्यकर्ताओं की संख्या के पीछे छिपे हुए अर्थ को भी समझना अति आवश्यक है। मान्यवर कांशी राम ने यह संख्या इसलिए चुनी थी क्योंकि मंडल कमीशन के अंदर 3749 जातियों का ही समावेश था। अर्थात मंडल कमीशन ने आरक्षण के लिए 3749 पिछड़ी जातियों को चिन्हित किया था। यद्यपि बाद में मंडल कमीशन की फाइनल रिपोर्ट में 3743 जातियों का ही नाम आया। जिसमें से 88 जातियां मुस्लिम समाज की भी समायोजित की गई।
साथ ही साथ मान्यवर कांशीराम ने ऑपरेस्ड इंडियन मैगजीन के अक्टूबर 1984 के अंक में यह भी वर्णित किया कि ऐसे ही प्रदर्शन एवं गिरफ्तारियां भारत के अनेक राज्यों की राजधानियों एवं जिला मुख्यालयों पर भी दिए गए। साथ ही साथ यह नारा भी प्रचलित किया गया कि, “मंडल कमीशन लागू करो, वरना कुर्सी खाली करो”।
इतना ही नहीं इसके पश्चात मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू कराने के लिए मान्यवर कांशीराम ने 10-11 अगस्त 1985 से 1993 तक मा. कांशीराम के नेतृत्व में बामसेफ, डीएस-4 और बसपा ने मिलकर पूरे भारत में पाँच सेमिनार और 500 सिंपोज़ियम किए। यहां बहुजन समाज को यह जानना जरुरी है कि पिछड़ी जातियों के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान हेतु संविधान में जिस कमीशन की संकल्पना की गई थी, वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत बना।
संविधान के इस अनुच्छेद 340 को बाबा साहेब आंबेडकर ने बनाया था। और बाद में जब वे नेहरू की कैबिनेट में कानून मंत्री थे तब इसे लागू कराने का भरसक प्रयास किया। जब वे इसमें कामयाब नहीं हुए तो उन्होंने नेहरू की कैबिनेट से भी त्यागपत्र दे दिया। यह तथ्य उन्होंने अपने रेजिग्नेशन स्पीच में साफ-साफ लिखा, जिसे हम बाबा साहेब (English Writings and Speeches ) के वॉल्यूम 14- पार्ट 2; पृष्ठ संख्या 1319 पर पढ़ सकते हैं।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि मान्यवर कांशीराम ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए जो भी धरना, प्रदर्शन, सिंपोजियम, सेमिनार, और गिरफ्तारियां आदि बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से दी वह बाबा साहेब आंबेडकर के अधूरे एजेंडे को पूरा करने के मार्ग में उठाया गया कदम था। इसीलिए बार-बार मान्यवर कांशीराम कहा करते थे कि मैंने बाबा साहेब आंबेडकर के कारवां को आगे बढ़ाने के लिए ही बहुजन समाज पार्टी बनाई है। बहुजनों की एकता के लिए हमें ऐसे आंदोलनों की तिथियों को अवश्य याद रखना चाहिए।
तमाम राजनीतिक दल अक्सर बहुजन समाज पार्टी पर यह आरोप लगाते हैं कि बसपा पैसे लेकर टिकट देती है। बसपा की मुखिया मायावती जब खुद को दलित की बेटी कहती हैं तो तमाम मनुवादी दलों के मनुवादी नेता मायावती को दौलत की बेटी कह कर उनका मजाक उड़ाते हैं। और तो और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं के कारण बसपा छोड़ कर जाने वाला हर नेता बहनजी पर टिकटों की खरीद बिक्री का आरोप लगाता है।
लेकिन वहीं जब देश के मूलनिवासी दलित, आदिवासी और पिछड़ों का खून चूसने वाले भारत के धन्नासेठ मनुवादी दलों को हजारों करोड़ रुपये का चंदा देते हैं तो उस वक्त कोई आवाज नहीं उठाता। तब कोई सवाल नहीं करता कि वो हजारो करोड़ रुपये आएं कहां से? तब कोई यह नहीं पूछता कि हजारों करोड़ रुपये का चंदा सिर्फ मनुवादी दलों को ही क्यों मिलता है, बसपा को ऐसे चंदे क्यों नहीं मिलते।
हम ये सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि चुनाव आयोग की वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट आई है। जिसके मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को साल 2019-20 के दौरान ढाई हजार करोड़ रुपये का चंदा मिला है। भाजपा को यह पैसे इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिला है, जिसको कुछ लोग ब्लैक मनी को व्हाइट मनी बनाने का साधन मानते हैं। देश की सत्ता में पिछले सात सालों से जमीं भाजपा, जो लगातार देश के तमाम संसाधनों को निजी हाथों में बेचती जा रही है, कहीं धन्नासेठ उसे इसका इनाम तो नहीं दे रहे हैं। यह सवाल मैं इसलिए पूछ रहा हूं क्योंकि भाजपा को साल 2018-19 में इलेक्टोरल बॉन्ड से 1450 करोड़ रूपये मिले थे। और इस बार उसको पिछले वित्तिय वर्ष के मुकाबले करीब 76 प्रतिशत अधिक ढाई हजार करोड़ रुपये मिले हैं।
वहीं कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 318 करोड़ रुपये मिले हैं। जो पिछले साल के मुकाबले 17 प्रतिशत कम है। दूसरी विपक्षी पार्टियों की बात करें तो तृणमूल कांग्रेस को 100 करोड़, डीएमके को 45 करोड़ रूपए, शिवसेना को 41 करोड़ रूपए, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 20 करोड़ रूपए, आम आदमी पार्टी को 17 करोड़ रूपए और राष्ट्रीय जनता दल को 2.5 करोड़ रूपए का चंदा इलेक्टोरल बांड के जरिए मिला है। बसपा को कितने पैसे मिले हैं, इसका कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। यानी बसपा को कोई पैसे नहीं मिले हैं।
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड योजना इसी मंशा से बनाई गई थी कि सत्ताधारी बीजेपी को लाभ पहुँ सके। दरअसल इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकते हैं। मोदी जी की सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी और इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था।
आरोप लगता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड में चूंकि पैसे देने वालों की पहचान गुप्त रखी गई है, इसलिए इससे काले धन को बढ़ावा मिल सकता है। यानी यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी। यानी कि जो सरकार काला धन लेकर आने का ढिंढ़ोरा पीटकर सत्ता में आई थी, उसने काला धन मैनेज करने का कानून बना दिया।
मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आप और हम टैक्स पेयर हैं। सरकार हमारे एक-एक पैसे का हिसाब मांगती है। हम एक लाख रुपये भी छिपा नहीं सकते, लेकिन सत्ता की आड़ में ऐसी व्यवस्था बना ली गई है कि भारत के सवर्ण नेतृत्व वाले दल धन्नासेठों के और अपने हजारों करोड़ रुपये आसानी से छिपा सकते हैं। गुमनाम तरीके से हर साल हजारों करोड़ रुपये हासिल करने वाले नेता और राजनीतिक दल जब बसपा पर और बसपा प्रमुख मायावती पर पैसे लेने का आरोप लगाते हैं और उन्हें दौलत की बेटी कहते हैं तो गरीब-वंचित समाज को उनसे यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि भारत के पूंजीपति भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों को तो करोड़ों रुपये दे देते हैं, जबकि बसपा सहित दलित-पिछड़ों के नेतृत्व वाले अन्य दलों से मुंह फेर लेते हैं। देश के बहुजनों को भी इस बारे में खुद भी समझने की जरूरत है।
भारतीय जनता पार्टी को साल 2019-20 के दौरान भाजपा को ढाई हजार करोड़ रुपये मिले हैं। चुनाव आयोग के सामने पेश की गई एक वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी ने यह जानकारी दी है। यह राशि साल 2018-19 में पार्टी को इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले 1450 करोड़ रूपये से करीब 76 प्रतिशत अधिक है। जो जानकारी सामने आई है, उसके अनुसार वित्तीय वर्ष 2019-20 के दौरान 18 मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदे में कुल मिलाकर लगभग तीन हजार 441 करोड़ रुपये की राशि मिली है।
इस राशि में भाजपा को मिली राशि कई गुना बढ़ी है, तो वहीं कांग्रेस को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए केवल 318 करोड़ रुपये मिले हैं। कांग्रेस को मिली राशि साल 2018-19 को मिली राशि से 17 प्रतिशत कम है। कांग्रेस को 2018-19 वित्तीय वर्ष में 383 करोड़ रुपये मिले थे।
दूसरी विपक्षी पार्टियों की बात करें तो वित्तीय वर्ष 2019-20 में ही बॉन्ड के ज़रिए तृणमूल कांग्रेस को 100 करोड़, डीएमके को 45 करोड़ रूपए, शिवसेना को 41 करोड़ रूपए, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 20 करोड़ रूपए, आम आदमी पार्टी को 17 करोड़ रूपए और राष्ट्रीय जनता दल को 2.5 करोड़ रूपए का चंदा मिला। बसपा को मिली राशि का कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड योजना इसी मंशा से बनाई गई थी कि सत्ताधारी बीजेपी को लाभ पहुँच सके।
क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड?
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकते हैं और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकते हैं। भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी और इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था। इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है। इन्हें को ऐसा कोई भी दाता खरीद सकता है जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है जिसकी केवाईसी की जानकारियां उपलब्ध हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड के ख़िलाफ़ तर्क यह है कि चूंकि दाता की पहचान गुप्त रखी गई है इसलिए इससे काले धन की आमद को बढ़ावा मिल सकता है। एक आलोचना यह भी है कि यह योजना बड़े कॉरपोरेट घरानों को उनकी पहचान बताए बिना पैसे दान करने में मदद करने के लिए बनाई गई थी।
23 जुलाई से शुरू हुए टोक्यो ओलम्पिक- 2020 का समापन हो चुका है, जिसमें 206 देशों के 1000 से अधिक खिलाडी दर्शक-शून्य स्टेडियमों में 33 खेलों की 339 स्पर्धाओं में अपनी काबलियत का मुजाहिरा किये। खेलों के इस महाकुम्भ में 39 स्वर्ण पदकों के साथ कुल 113 मैडल जीतकर अमेरिका शीर्ष पर रहा। दूसरे नंबर पर रहा हर क्षेत्र में अमेरिका के समक्ष चुनौती पेश कर रहा चीन, जिसने 38 स्वर्ण के साथ कुल 88 पदक जीते। पदकों की संख्या के लिहाज से मेजबान देश जापान तीसरे स्थान पर रहा, जिसने 27 स्वर्ण सहित कुल 58 पदक हासिल किये। जहाँ तक विश्व शक्ति बनने का दावा करने वाले भारत महान का सवाल है, एक स्वर्ण, दो रजत और चार कास्य के साथ कुल 7 पदक सवा सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश के हिस्से में आया, जो ओलम्पिक खेलों के इतिहास में इसका अब तक का श्रेष्ठ प्रदर्शन है।
इसके पहले भारत ने 2012 के रिओ ओलम्पिक में 6 पदक जीते थे। भारत के प्रदर्शन पर तंज कसते हुए हुए चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ ने लिखा है, ‘दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत का टोक्यो ओलम्पिक में अभियान सिर्फ एक स्वर्ण पदक के साथ ख़त्म हो गया। भारत को एक स्वर्ण पदक मिला।’ इसमें आगे लिखा गया है कि एक स्वर्ण, दो रजत और चार कांस्य पदक के साथ भारत मैडल जीतने वाले 93 देशों की रैंकिंग में 48 वें नंबर है। भारत ने टोक्यो ओलंपिक में 127 एथलीट का दल भेजा था, लेकिन सफलता केवल 7 को मिली। भारत जब भी पदक जीतता है तो बहस तेज हो जाती है लेकिन फिर हर कोई शांत हो जाता है।’ इतना ही नहीं ग्लोबल टाइम्स ने भी भारत के प्रदर्शन का मखौल उड़ाते हुए लिखा है, ‘भारत को केवल एक स्वर्ण पदक और कुल सात पदक मिले हैं। इससे पता चलता है कि भारत को कई चीजों के आधुनिकीकरण में बहुत लम्बी दूरी तय करनी है।’ भारत के लोग खुश हो सकते हैं कि उनके दुश्मन देश नंबर एक पाकिस्तान की तरफ से सोशल मीडिया पर काफी सकारात्मक रुख देखने को मिला। वहां के लोगों ने भारतीय खिलाड़ियों की भरपूर सराहना की है।
खैर! हमारा प्रबल प्रतिद्वन्दी देश जितना भी मजाक उडाये भारत के लोग, विशेषकर वर्तमान केन्द्रीय सरकार टोक्यों ओलंपिक में खिलाडियों के प्रदर्शन काफी खुश है। वह तरह–तरह से सन्देश दे रही है कि उसके कारण ही भारत ने ओलंपिक में रिकॉर्ड तोड़ प्रदर्शन किया है। यह सही है कि टोक्यो में भारतीय खिलाडियों ने कुछ सुधरा हुआ प्रदर्शन किया है: विशेषकर जिस हॉकी की वजह से खेल जगत में भारत की कुछ प्रतिष्ठा रही है, उस हॉकी की पुरुष और महिला टीम ने नए सिरे से धाक जमाई है। खासकर चौथे स्थान पर रही महिला हॉकी टीम ने तो कुछ हद तक विस्मृत ही कर दिया है। मैडल न जितने के बावजूद बहुत ही प्रतिकूलताओं में पली-बढ़ी भारतीय लड़कियों ने भारत सहित पूरे विश्व का दिल जीत लिया है।
बहरहाल कुछ सुधरे प्रदर्शन को लेकर मोदी सरकार जितना भी अपनी पीठ थपथपाए, सच्चाई यही है कि हमारा प्रदर्शन शर्मनाक रहा, जिसे आगामी पेरिश ओलंपिक में बदलने के लिए लिए अभी से युद्ध स्तर पर जुट जाना चाहिए। टोक्यो ओलंपिक में जिस तरह नीरज चोपड़ा ने भालाफेंक में गोल्ड, रवि दहिया ने रेसलिंग में रजत, मीराबाई चानू ने वेटलिफ्टिंग में रजत, लवलीना बोरगोहेन ने बॉक्सिंग, पीवी सिन्धु ने बैडमिन्टन, बजरंग पुनिया ने रेसलिंग और पुरुष हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीतने का कारनामा किया है, उससे प्रेरणा लेकर चाहें तो देश के खेल अधिकारी भारतीय खेलों के जाति शास्त्र का ठीक से अध्ययन कर ओलंपिक में देश की शक्ल बदल सकते हैं।
काबिलेगौर है कि किसी जमाने में राष्ट्र के शौर्य का प्रतिबिम्बन युद्ध के मैदान में होता था, पर बदले जमाने में अब यह खेल के मैदानों में होने लगा है। इस सच्चाई को सबसे बेहतर समझा चीन ने, जिसने 21वीं सदी में विश्व आर्थिक महाशक्ति के रूप में गण्य होने के पहले अपना लोहा खेल के क्षेत्र में ही मनवाया। लेकिन युद्ध हो या खेल, दोनों में ही जिस्मानी दमखम की जरुरत होती है। विशेषकर खेलों में उचित प्रशिक्षण और सुविधाओं से बढ़कर, सबसे आवश्यक दम-ख़म ही होता है। माइकल फेल्प्स, सर्गई बुबका, कार्ल लुईस, माइकल जॉनसन, मोहम्मद अली, माइक टायसन, मेरियन जोन्स, जैकी जयनार, इयान थोर्पे, सेरेना विलियम्स, नाडाल, जोकोविक जैसे सर्वकालीन महान खिलाड़ियों की गगनचुम्बी सफलता के मूल में अन्यान्य सहायक कारणों के साथ प्रमुख कारण उनका जिस्मानी दम-ख़म ही रहा है। दम-ख़म के अभाव में ही हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक, एशियाड, कॉमन वेल्थ गेम्स इत्यादि में फिसड्डी साबित होते रहे हैं।
जहां तक जिस्मानी दम-ख़म का सवाल है, हमारी भौगोलिक स्थिति इसके अनुकूल नहीं है। लेकिन इससे उत्पन्न प्रतिकूलताओं से जूझ कर भी कुछ जातियां अपनी असाधारण शारीरिक क्षमता का परिचय देती रही हैं। गर्मी-सर्दी-बारिश की उपेक्षा कर ये जातियां अपने जिस्मानी दम-ख़म के बूते अन्न उपजा कर राष्ट्र का पेट भरती रही हैं। जन्मसूत्र से महज कायिक श्रम करने वाली इन्हीं परिश्रमी जातियों की संतानों में से खसाबा जाधव, मैरी कॉम, पीटी उषा, ज्योतिर्मय सिकदार, कर्णम मल्लेश्वरी, सुशील कुमार, विजयेन्द्र सिंह, लिएंडर पेस, सानिया मिर्जा, बाइचुंग भूटिया, दीपा कर्मकार, हिमा दास इत्यादि ने दम-ख़म वाले खेलों में भारत का मान बढ़ाया है। हॉकी में भारत जितनी भी सफलता अर्जित किया, प्रधान योगदान उत्पादक जातियों से आये खिलाड़ियों का रहा है। इस बार भी वंदना कटारिया, सुमित वाल्मीकि, रानी रामपाल, सलीमा, निक्की प्रधान, लाल रेम सियामी, दीप ग्रेस, निशा वारिश, सविता पुनिया, नवनीत कौर इत्यादि हॉकी प्लेयरों की पारिवारिक पृष्ठभूमि श्रमजीवी जातियों की ही रही है। नीरज चोपड़ा, चानू, लवलीना, रवि दहिया, बजरंग पुनिया श्रमजीवी परिवारों से ही निकल कर ओलंपिक में अपनी चमक बिखेरे हैं।
यहां अनुत्पादक जातियों से प्रकाश पादुकोण, अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्द्धन सिंह राठौर, गगन नारंग, गीत सेठी, विश्वनाथ आनंद, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली इत्यादि ने वैसे ही खेलों में सफलता पायी जिनमें दम-ख़म नहीं, प्रधानतः तकनीकी कौशल व अभ्यास के सहारे चैंपियन हुआ जा सकता है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है, इसमें फ़ास्ट बोलिंग ही जिस्मानी दम-ख़म की मांग करती है। किन्तु दम-ख़म के अभाव में अनुत्पादक जातियों से आये भागवत चन्द्रशेखर, प्रसन्ना, वेंकट, दिलीप दोशी, आर अश्विन इत्यादि सिर्फ स्पिन में ही महारत हासिल कर सके, जिसमें दम-ख़म कम कलाइयों की करामात ही प्रमुख होती है। दम-ख़म से जुड़े फ़ास्ट बॉलिंग में भारत की स्थिति पूरी तरह शर्मसार होने से जिन्होंने बचाया, वे कपिल देव, जाहिर खान, उमेश यादव, मोहम्मद शमी इत्यादि उत्पादक जातियों की संताने हैं। आज भारत में बल्लेबाजी को विस्फोटक रूप देने का श्रेय जिन कपिल देव, विनोद काम्बली, वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, शिखर धवन इत्यादि को जाता है, वे श्रमजीवी जातियों की ही संताने हैं। इस बार के भी ओलंपिक में उत्पादक जातियों में जन्मे खिलाड़ियो की सफलता का यही सन्देश है कि हमारे खेल चयनकर्ता प्रतिभा तलाश के लिए पॉश कालोनियों का मोह त्याग कर अस्पृश्य, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों एवं जंगल-पहाड़ों में वास कर आदिवासियों के बीच जाएं, यदि चीन की भांति भारत को विश्व महाशक्ति बनाना चाहते हैं तो।
वंचित समाजों में जन्मी प्रतिभाओं को इसलिए भी प्रोत्साहित करना जरुरी है क्योंकि दुनिया भर में अश्वेत, महिला इत्यादि जन्मजात वंचितों में खुद को प्रमाणित करने की एक उत्कट चाह पैदा हुई है। वे खुद को प्रमाणित करने की अपनी चाह को पूरा करने के लिए खेलों को माध्यम बना रहे हैं। उनकी इस चाह का अनुमान लगा कर उन्हें दूर-दूर रखने वाले यूरोपीय देश अब अश्वेत खेल–प्रतिभाओं को नागरिकता प्रदान करने में एक दूसरे से होड़ लगा रहे हैं। इससे जर्मनी तक अछूता नहीं है। स्मरण रहे एक समय हिटलर ने घोषणा की थी-‘सिर के ऊपर शासन कर रहे हैं ईश्वर और धरती पर शासन करने की क्षमता संपन्न एकमात्र जाति है जर्मन: विशुद्ध आर्य-रक्त। उनके ही शासन काल में 1936 में बर्लिन में अनुष्ठित हुआ था ओलम्पिक। हिटलर का दावा था कि ओलम्पिक में सिर्फ आर्य-रक्त ही परचम फहराएगा, किन्तु आर्य-रक्त के नील गर्व को ध्वस्त कर उस ओलम्पिक में एवरेस्ट शिखर बन कर उभरे सर्वकाल के अन्यतम श्रेष्ठ क्रीड़ाविद जेसी ओवेन्स। अमेरिका के तरुण एथलीट, ग्रेनाईट से भी काले जेसी ओवेन्स जब बार-बार विक्ट्री स्टैंड पर सबसे ऊपर खड़े हो कर गोल्ड मैडल ग्रहण कर रहे थे। उनके मुकाबले गोरे लोग पीछे छूट गए। जेसी ओवेन्स ने 100 मीटर, 200 मीटर, लॉन्ग जम्प और फिर रिले रेस ट्रैक फिल्ड से चार-चार स्वर्ण पदक जीत लिए थे। तब हिटलर उनकी वह सफलता बर्दाश्त नहीं कर सका था और मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ था।
ब्रिटेन के लीवर पूल में जो काले कभी भेंड़-बकरियों की तरह बिकने के लिए लाये जाते थे, उन्ही में से एक की संतान जेसी ओवेन्स ने नस्ल विशेष की श्रेष्ठता की मिथ्या अवधारणा को ध्वस्त करने की जो मुहीम बर्लिन ओलम्पिक से शुरू किया, परवर्तीकाल में खुद को प्रमाणित करने की चाह में उसे गैरी सोबर्स, फ्रैंक वारेल, माइकल होल्डिंग, माल्कॉम मार्शल, विवि रिचर्ड्स, आर्थर ऐश, टाइगर वुड, मोहम्मद अली, होलीफील्ड, कार्ल लुईस, मोरिस ग्रीन, मर्लिन ओटो, सेरेना विलियम्स, उसैन बोल्ट इत्यादि ने मीलों आगे बढ़ा दिया। खेलों के जरिये खुद को प्रमाणित करने की वंचित नस्लों की उत्कट चाह का अनुमान लगाकर ही हिटलर के देशवासियों ने रक्त-श्रेष्ठता का भाव विसर्जित कर देशहित में अनार्य रक्त का आयात शुरू किया। आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि खेलों में सबसे अधिक नस्लीय-विविधता हिटलर के ही देश में है। अब हिटलर के देश में कई अश्वेत खिलाड़ियों को प्रतिनिधित्व करते देखना, एक आम बात होती जा रही है।
बहरहाल देशहित में ताकतवर अश्वेतों के प्रति श्वेतों, विशेषकर आर्य जर्मनों में आये बदलाव से प्रेरणा लेकर भारत के विविध खेल संघों के प्रमुखों को भी वंचित जातियों के खिलाड़ियों को प्रधानता देने का मन बनाना चाहिए। नयी सदी में मैडल जीतने के बाद जिस तरह खिलाड़ियों पर पैसों की बरसात हो रही है, उससे सिर्फ नीरज चोपड़ा- रवि दहिया इत्यादि ही नहीं, दीपा कर्मकार, हिमा दास, वंदना कटारिया, सुमित वाल्मीकि के भी भाई -बहनों में दम-ख़म वाले खेलों के जरिये खुद को प्रमाणित करने के साथ अपना जीवन स्तर उठाने की तीव्र ललक पैदा हो चुकी है। श्रमजीवी जातियों की सोच में आये इस बदलाव का सद्व्यवहार करने का यदि खेल अधिकारी और सरकारें मन बना लें तो निकट भविष्य में ओलंपिक का शर्मनाक रिकॉर्ड सुधारना ज्यादा कठिन नहीं होगा।
टोक्यो ओलंपिक में अकेले दो गोल्ड और ब्रोंज मैडल जीतने वाली अश्वेत रिफ्यूजी खिलाडी साफिया हसन ने नए सिरे से एक और तरीका बताया है, जिसके जरिये भारत ओलंपिक में अपनी स्थिति सुधार सकता है। सिफान हसन पर टिपण्णी करते हुए किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है-‘ सिफान इसलिए भी खास हैं क्योंकि वो लड़की होने के साथ एक रिफ्यूजी भी हैं। मगर नीदरलैंड तथा यूरोप की वह धर्मनिरपेक्ष संस्कृति भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो मानवीय आधार पर बिना किसी भेदभाव के अपने देश के रास्ते दूसरे धर्मों के लोगों के लिए खोल देते हैं और धार्मिक आधार पर किसी को हतोत्साहित नहीं करते। यह उन लोगों के लिए सबक है जो हर मामले में धार्मिक पहचान को आगे ले आते हैं।’
जिस तरह भारत विदेशी खेल कोचों को आयात करता हैं, उसी तरह विदेश के विधर्मी काबिल खिलाड़ियों को भी नागरिकता देना शुरू करे तो ओलंपिक मैडल की तालिका में हमारी स्थिति बेहतर हो सकती है। हालांकि ओलंपिक में चमत्कारिक परिणामों की संभावना के बावजूद खेल संघों पर हावी प्रभु जातियों के लिए भारत की श्रमजीवी जातियों को प्राथमिकता तथा विदेशों के विधर्मी खिलाडियों को नागरिकता देना आसान काम नहीं है। इसके लिए उन्हें राष्ट्रहित में उस वर्णवादी मानसिकता का परित्याग करना पड़ेगा जिसके वशीभूत होकर इस देश के द्रोणाचार्य, कर्णों को रणांगन से दूर रख एवं एकलव्यों का अंगूठा काट कर, अर्जुनों को चैंपियन बनवाते रहे हैं। पर, अगर 21वीं सदी में भी खेल संघों में छाये द्रोणाचार्यों की मानसिकता में आवश्यक परिवर्तन नहीं आता है तो भारत क्रिकेट, शतरंज, तास, कैरम बोर्ड, बिलियर्ड इत्यादि खेलों में ही इतराने के लिए अभिशप्त रहेगा। ओलम्पिक मैडल की शीर्ष तालिका में पहुंचने का उसका सपना सपना बना रहेगा और चीन जैसे प्रतिद्वंदी मजाक उड़ाते रहेंगे।
वरिष्ठदलित साहित्यकार एवं संवेदनशील कवि सूरजपाल चौहान जी का दिनांक 15 जून, 2021 को लंबी बीमारी से निधन हो गया था। दलित साहित्य के आरंभिक लेखकों में से एक चौहान जी भी थे। सूरजपाल चौहान का नाम उन दलित लेखकों में शुमार है, जो लकीर के फकीर नहीं बने और दलित चिंतन की स्वतंत्र जमीन पर आकर रचनाएं की। यह इसलिए संभव हो सका था क्योंकि चौहान जी ईमानदार और मजबूत व्यक्तित्व के थे। उन्होंने कौम की समस्या और उस के समाधान को समझा और फिर आजीवक चिंतन के साथ आए। कैलाश दहिया जी ने चौहान जी के निधन पर शोक संवेदना व्यक्त करते हुए अपनी एक फेसबुक टिप्पणी में बिल्कुल सही लिखा है- “सूरजपाल चौहान जी ने वैचारिक यात्रा पूरी की है। माता के जागरण की भेंट से शुरू कर, बुद्ध वंदना से होते हुए आजीवक तक पहुंचे हैं। इस से दलितों को सीख लेने की जरूरत है। चौहान साहब को शत् शत् प्रणाम।”(1)
बताइए, ये चौहान जी की दो कविताओं ‘मेरा गांव कैसा गांव…’ और ‘ये दलितों की बस्ती है’ को महत्वपूर्ण कविता बता रहे हैं और कह रहे हैं कि दलित समाज चौहान जी से ऐसे ही सार्थक लेखन की की उम्मीद कर रहा था। दलित समाज अपनी समस्याओं का समाधान चाहता है। रोने-धोने और शिकायत करते रहने से समाज की समस्या का समाधान नहीं निकलता। दलित समाज के लिए वही लेखनी सार्थक है, जो उस की समस्या के समाधान के क्रम में लिखा गया हो।
यह जरूरी लग रहा है कि चौहान जी की उन दोनों कविताओं को देख लिया जाए। पहली कविता इस प्रकार है –
“कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!
कच्ची मड्डिया
टूटी खटिया
घूरे से सटकर
बिना फूँस का—
मेरा छप्पर
मेरे घर न
कौए की काँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!
उनके आँगन
गैया बछिया
मेरे आँगन
सूअर, मुर्ग़ियाँ
मेरे सिर
उनकी लाठी
बेगारी करने को गाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!
उनका खेत
उन्हीं का बैल
और उन्हीं का है ट्यूब-वेल
‘मेरे हिस्से मेहनत आयी
उनके हिस्से है आराम’
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!
ब्याह-बरात का—
काम कराते
देकर जूठन बहकाते
जब मरता है
कोई जानवर
दे-देकर गाली उठवाते
दिन-रात
ग़ुलामी कर-करके
थक गये—
बिवाई फटे पाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव!
उनका दूल्हा
चढ़ घोड़ी पर
घूमे सारा गाँव-गली
मेरी बेटी की शादी पर
कैसी आफ़त आन पड़ी
जिन पर आया—
घोड़ी चढ़ वो
अलग पड़े हैं दोनों पाँव।
मेरा गाँव
कैसा गाँव?
न कहीं ठौर
न कहीं ठाँव”(5)
देखा जा सकता है इस कविता में कवि अपनी स्थिति का दुखड़ा रो रहा है। अपनी गुलामी की स्थिति दुनिया को दिखा रहा है। गुलाम कौम की स्थिति कैसी होती है यह कौन नहीं जानता भला? यह कविता महत्वपूर्ण इसलिए है कि यह दलितों की गुलामी के जीवन को दर्शाती है। यह ठीक है कि दलित कौम की यातनाएं, पीड़ा, अत्याचार जो उस ने इतिहास के एक लम्बे काल में सहे हैं उसे सामने लाना चाहिए। लेकिन, साथ में समाधान की बात भी तो हो। पर देखा यह गया है कि दलितों के साहित्य के नाम पर क्रंदन करने का एक पूरा दौर ही चला है। यह कविता दलित आंदोलन के उसी प्रारंभिक दौर की कविता है। अभी भी तथाकथित दलित लेखक इस नकारात्मकता में मशगूल हैं। दिवंगत मलखान सिंह का एक कविता संग्रह तो ‘सुनो ब्राह्मण’ के नाम से ही है। जिस में वे ब्राह्मण के सामने घुटनों के बल बैठ कर अपनी पीड़ाओं का रोना रो रहे हैं। उस कविता संग्रह को द्विजों ने दलितों की नम्बर एक कविता संग्रह का खिताब भी दे रखा है। उस कविता संग्रह की खोल बांध कैलाश दहिया जी ने अपने लेख ‘मलखान सिंह का कविताकर्म’ में की है, जिस में उन्होंने लिखा है – “कवि को दलित की समस्या का पता तो है, लेकिन इनके पास समस्या का समाधान नहीं है।…बताना यही है कि ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता संग्रह में ब्राह्मण बचा ही रह गया है, जो कवि को आंखे दिखा रहा है।
जब तक कवि’ सुनो भंगी सुनो चमार’ नाम से अपना संग्रह नहीं लाते तब तक यह इन्हें आँखें ही दिखाएगा।”(6) तो, दलितों को ध्यान देना चाहिए कि द्विज दलितों को कभी स्वतंत्र देखना नहीं चाहते। उन्हें तो रोने-धोने और ‘हाय मार डाला’ ‘हाय मार डाला’ करते हुए दलित ही पसंद हैं। शोषित जितना रोता है, पीड़ा से जितना कराहता है सामंत को उतना ही आनंद मिलता है। वह उतना ही अपनी मूंछों पर ताव देता हुआ घूमता है। दुनिया की कौन कौम गुलाम नहीं रही है? क्या वे अपनी गुलामी का रोना रोते हुए ही स्वतंत्र हुई हैं? दलित ही ऐसा क्यों सोचता है कि रोने-धोने से ही उसे स्वतंत्रता मिल जाएगी। वह हथियार क्यों नहीं उठाना चाहता? युद्ध क्यों नहीं करना चाहता? कहीं ऐसा तो नहीं कि उस ने अपनी पीड़ा और यातनाओं के बदले दुश्मन से मुआवजा मांगने की आकांक्षा पाल ली है।
चौहान जी की दूसरी कविता ‘ये दलितों की बस्ती है’ भी देखी जाए –
“बोतल महँगी है तो क्या,
थैली बहुत ही सस्ती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
क़दम-क़दम पर जय श्रीराम ।
रात जगाते शेरोंवाली की …
करते कथा सत्यनाराण..।
पुरखों को जिसने मारा था,
उनकी ही कैसिट बजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
तू चूहड़ा और मैं चमार हूँ,
ये खटीक और वो कोली ।
एक तो हम कभी हो ना पाए,
बन गई जगह-जगह टोली ।
अपने मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झाँकी सजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
हर महीने वृन्दावन दौड़े,
माता वैष्णो छह-छह बार ।
गुडगाँवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार ।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
बेटा बजरँगी दल में है,
बाप बना भगवाधारी
भैया हिन्दू परिषद में है,
बीजेपी में महतारी ।
मन्दिर-मस्जिद में गोली,
इनके कन्धे से चलती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
शुक्रवार को चौंसर बढ़ती,
सोमवार को मुख लहरी ।
विलियम पीती मंगलवार को,
शनिवार को नित ज़हरी ।
नौ दुर्गे में इसी बस्ती में,
घर-घर ढोलक बजती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
नकली बौद्धों की भी सुन लो,
कथनी करनी में अन्तर ।
बात करें हैं बौद्ध धम्म की,
घर में पढ़ें वेद मन्तर ।
बाबा साहेब की तस्वीर लगाते,
इनकी मैया मरती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
औरों के त्यौहार मनाकर,
व्यर्थ ख़ुशी मनाते हैं ।
हत्यारों को ईश मानकर,
गीत उन्हीं के गाते है ।
चौदह अप्रैल को बाबा साहेब की जयन्ती,
याद ना इनको रहती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
डोरीलाल है इसी बस्ती का,
कोटे से अफ़सर बन बैठा।
उसको इनकी क्या चिन्ता अब,
दूजों में घुसकर जा बैठा ।
बेटा पढ़कर शर्माजी, और
बेटी बनी अवस्थी है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
भूल गए अपने पुरखों को,
महामही इन्हें याद नहीं ।
अम्बेडकर, बिरसा , बुद्ध,
वीर ऊदल की याद नहीं ।
झलकारी को ये क्या जानें,
इनकी वह क्या लगती है ।
ये दलितो की बस्ती है ।।
मैं भी लिखना सीख गया हूँ,
गीत कहानी और कविता ।
इनके दु:ख दर्द की बातें,
मैं भी भला था, कहाँ लिखता ।
कैसे समझाऊँ अपने लोगों को ,
चिन्ता यही खटकती है ।
ये दलितों की बस्ती है।।”7
यह कविता दलितों की सांस्कृतिक गुलामी को उजागर करती है। यह सांस्कृतिक गुलामी के दुष्परिणाम का ही चित्रण है जिसे चौहान जी ने अपनी कविता में चित्रित किया है। दुनिया में अनेक स्वतंत्र कौमें हैं। इन अलग-अलग कौमों के होने का अर्थ ही यह है कि प्रत्येक कौम की अपनी खुद की संस्कृति, परम्पराएँ, रीति-रिवाज हैं। बिना इन के कोई भी कौम नहीं है। दलित कौम के लोग भी खेती-बाड़ी करते हैं, कमाते हैं, शादी-ब्याह करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, घर-गृहस्थी बसाते हैं। इस तरह से जीवन यापन के लिए दलितों को भी धर्म दर्शन, तीज-त्यौहार, परम्पराएं चाहिए ही चाहिए। दलित आज इन सब मामलों में भटके हुए हैं तो इस में उन का क्या दोष है? दोष तो उन के नेता का है, महापुरुष का है, चिंतक का है जिन्होंने दलित कौम को धर्म के मामले में भटकाया है। बताया जाए, दलित डा. अम्बेडकर के कारण हिन्दू बने हुए हैं। जब कौम अपने धर्म दर्शन से कट गई है तो वह दूसरे की धार्मिक गुलाम बनेगी ही बनेगी। फिर दलित यहाँ तो खुद ही धार्मिक गुलामी की शरण में जा रहा है। तो, सूरजपाल चौहान जी की ये दोनों कविताएँ एक समय के हिसाब से महत्वपूर्ण हैं। इन्हें बताया जाए, चौहान जी इस से कहीं आगे बढे़ हैं। इन कविताओं से आगे निकल कर चौहान जी ‘मेरा गांव ऐसा क्यों है?’, ‘ये दलितों की बस्ती ऐसी क्यों है?’ का समाधान भी तलाशते हैं। इसी समाधान की तलाश में आगे बढ़ते हुए चौहान जी मुकम्मल मुकाम ‘आजीवक’ तक आए हैं। और फिर उन की कलम से दलितों की समस्या का समाधान लिए हुए यह कविता निकलती है-
“अपना पुरखा भूलकर, दूजे का गुणगान।
यह तो तू भी जानता, कभी न मिलता मान।।
अपना पुरखा भूलकर, चले दूसरे संग।
कैसे तुम ज्ञानी पुरुष, सोच-सोच हम दंग।।
विश्वासी पुरखे रहे, चले वे अपनी चाल।
फिर तू काहे ढो रहा, दूजे का कंकाल।।
अनजाने करता रहा, मैं दूजे का जाप।
जैसा है वैसा भला, मेरा अपना बाप।।
जातिवाद के आज-तक, ना खुल पाए जोड़।
बाबा भी थक-हारकर, गये भंवर में छोड़।।
ना तो मैं हिंदू कभी, और ना ही मैं बुद्ध।
हूं आजीवक जन्म से, कर्म रहे हैं शुद्ध।।
आजीवक को भूलकर, लिया कमंडल थाम।
अब तक ठोकर खा रहा, भूला अपना धाम।।
अपना पुरखा ढूंढ कर, किया बहुत उपकार।
धर्मवीर जी आपका, जग में हो सत्कार।।”(8)
ये दोहे चौहान जी की दोहों की पुस्तक में संकलित हैं। इन दोहों से चौहान जी की वैचारिक यात्रा का पता चलता है। सूरजपाल चौहान जी अपनी कविताओं के जरिए साफ-साफ बता रहे हैं कि रोने-धोने का दौर अब खत्म हो चुका है। दलितों को समाधान चाहिए। समाधान के रूप में चौहान जी के ये दोहे बेजोड़ हैं। बताइए, ये कह रहे हैं कि चौहान जी से ‘मेरा गांव कैसा गांव’ और ‘ये दलितों की बस्ती है’ जैसी लेखनी की उम्मीद दलित समाज कर रहा था! चौहान जी दलित समाज की समस्या का समाधान चाहते थे, जिस में वे ‘आजीवक’ तक पहुंचे हैं।
देखा जा सकता है ऊपर दिए गए चौहान जी के दोहों में से पहला दोहा इस प्रकार है –
‘अपना पुरखा भूलकर, दूजे का गुणगान।
यह तो तू भी जानता कभी न मिलता मान।।’
अब महान आजीवक रैदास के इस दोहे को देखा जाए-
”पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सों, कौन करै हैं प्रीत?”(9)
साफ देखा जा सकता है चौहान जी के ये दोहे सद्गुरु रैदास के दोहों के क्रम में आये हैं। अर्थात चौहान जी अपने जीवन के अंतिम दौर में अपने पुरखों रैदास-कबीर के आंदोलन से जुड़ गए थे। आगे उन की कलम से आजीवक आंदोलन से जुड़ी ऐसी ही रचनाएँ निकलने वाली थीं। खैर, सूरजपाल चौहान दलित कौम के स्वतंत्र और असली साहित्यकार के रूप में मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। जो हमारे लिए गर्व की बात है। हाथ में नये नये कलम थामे दलितों को चौहान जी से सीख लेनी चाहिए।
मेरा गांव कैसा गांव और ये दलितों की बस्ती है से चौहान काफी लोकप्रिय हुए थे। चौहान जी की महत्वपूर्ण और साहसिक रचनाएँ उनकी आत्मकथाएं ‘संतप्त’ और ‘तिरस्कृत’ हैं। हर दलित को चौहान जी की आत्मकथाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए। अपनी आत्मकथा लिख कर चौहान जी ने दलित कौम की मूल और ऐतिहासिक समस्या को सब के सामने रखा।
दिल्ली कैंट में गुड़िया के चिता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में फिर से एक दलित बेटी के साथ हैवानियत हुई है। बच्ची महज छह साल की है और आरोपी उसका पड़ोसी बताया जा रहा है। यह घटना समाज के बीमार लोगों की सच्चाई उजागर करती है। पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है। हालांकि आरोप है कि आरोपी की गिरफ्तारी से पहले पुलिस ने लगातार पीड़ित परिवार पर दबाव बनाया और मामला दर्ज नहीं करने को कहा। एक के बाद एक हो रही इस तरह की घटनाओं के कारण पुलिस विभाग लोगों के निशाने पर है।
त्रिलोकपुरी से दिल का कंपा देने वाली घटना 6 साल की बच्ची से बलात्कार की खबर आ रही है हालत नाजुक है समाज के लोग इकट्ठा हो चुके है! बाकि आप खुद उनकी जुबानी सुन लीजिए pic.twitter.com/ZvMtPDnDwL
भारत के बहुजन समाज को यह बात गंभीरता से सोचनी चाहिए कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है जिसके कारण वर्तमान या पूर्वर्ती केंद्र सरकारें जाति के आधार पर ओबीसी की अखिल भारतीय स्तर पर जनगणना नहीं करना चाहती। इस पर सालों से बहस जारी है और इसको लेकर कई तरह की बातें कही जाती हैं। हमें उन बहानों की पड़ताल करना भी जरुरी है। यह कहा जाता है कि जातीय जनगणना से देश विभाजित हो जाएगा। यह बिल्कुल मिथ्या प्रचार है, क्योंकि अभी तक जाति के आधार पर कभी भी देश के बंटवारे की बात किसी ने नहीं कही है। न तो अनुसूचित जाति, न अनुसूचित जनजाति और न ही पिछड़े वर्ग के द्वारा कभी भी इस तरह की कोई बात आधिकारिक तौर पर सामने आई है।
हां, जाति के आधार पर इन वर्गों ने रिजर्वेशन की मांग जरूर की है, लेकिन अलग देश की मांग नहीं कि गई है। जहां तक कुछ वर्गों द्वारा देश के बंटवारे की बात है तो यह मांग धर्म के आधार पर किया गया है, लेकिन धर्म के आधार पर गिनती अब भी जारी है। अगर सचमुच में सरकारों को यह डर है कि जाति और धर्म की गिनती करने से देश बंट जाएगा तो सरकारों को धर्म के आधार पर गिनती बंद कर दी जानी चाहिए। आखिर सरकारों ने ऐसा क्यों नहीं किया? सन् 1980 के वक्त को याद करना चाहिए जब देश में आतंकवाद भी धर्म के आधार पर शुरू हुआ था, और वो भी अलग देश की मांग कर रहे थे। इसलिए जनगणना के आधार पर देश के बंटवारे की बात मिथ्या प्रचार है।
देश के संविधान में यह साफ है कि पिछड़ी जातियों को जाति के आधार पर राजनीति में आरक्षण नहीं मिलना है। जाति के आधार पर पिछड़े वर्ग को सिर्फ शिक्षा और नौकरियों में रिजर्वेशन मिलेगा, जो मिल रहा है। इससे साफ है कि ऊपर जो हमने बातें कहीं है, सरकार उसकी वजह से पिछड़ों की जातीय जनगणना को टाल रही है। साफ है कि सरकार द्वारा जनगणना नहीं कराने के पीछे कोई बहुत बड़ा कारण छिपा हुआ है। सरकार में डर है कि पिछड़े वर्ग की जनगणना के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। ये कारण कौन से हैं, हमें इसकी पड़ताल करनी चाहिए।
जहां तक जातीय जनगणना का सवाल है, देश का संविधान यह अधिकार केंद्र को देता है, न कि राज्यों को। तो क्या जो बिल संसद के सदनों में पास किया गया है, वह राज्यों को पिछड़ी जातियों की जन गणना कराने का अधिकार दे देगा? या फिर राज्यों को सिर्फ जाति के आधार पर लिस्ट तैयार करने की ही अनुमति होगी, यह देखना बाकी है।
रामविलास पासवान के बेटे और सांसद चिराग पासवान को एक के बाद एक झटका लग रहा है। केंद्रीय आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय ने लोकसभा सदस्य चिराग पासवान को 12 जनपथ का सरकारी बंगला खाली करने का नोटिस भेज दिया है। दरअसल यह आवास पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान को आवंटित था और अपने निधन से पहले बीते तीन दशक तक वह इस बंगले में रहे थे। वर्तमान में इस बंगले में रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान, उनकी पत्नी और परिवार के अन्य सदस्य रह रहे हैं। गौरतलब है कि रामविलास पासवान का पिछले साल निधन हो गया था। बंगला खाली करने का नोटिस चिराग पासवान के लिए दूसरा बड़ा झटका है। चिराग पासवान और उनके चाचा के बीच पार्टी पर अधिकार को लेकर रस्सा-कस्सी चल रही है।
सिविल सेवा परीक्षा में साल 2015 की टॉपर रही टीना डाबी और दूसरे नंबर पर रहने वाले उनके पति अतहर आमिर अब अलग हो गए हैं। दोनों ने 20 नवंबर 2020 को तलाक की अर्जी दाखिल की थी, जिसके बाद 10 अगस्त को अदालत ने उनके तलाक को मंजूरी दे दी। दोनों ने आपसी सहमति से अलग होने का फैसला किया था। दोनों की शादी काफी चर्चित रही थी और इनकी शादी में तमाम दिग्गजों ने शिरकत किया था। दोनों साल 2016 बैच के राजस्थान कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। वर्तमान में टीना वित्त विभाग में संयुक्त सचिव हैं तो तलाक की अर्जी दाखिल होने के कुछ महीने बाद ही आमिर डेप्युटेशन पर जम्मू कश्मीर चले गए थे।
हाल ही में अपने पद से इस्तीफा देने के बाद तेलंगाना के चर्चित आईपीएस अधिकारी आर.एस. प्रवीण 8 अगस्त को बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए। बीते दिनों ‘दलित दस्तक’ के संपादक अशोक दास ने आर. एस. प्रवीण कुमार का इंटरव्यू लिया था। देखिए आर.एस. प्रवीण की कहानी उन्हीं की जुबानी, देखिए यह एक्सक्लूसिव इंंटरव्यू-
लाखों समर्थकों की एक शानदार जनसभा के बीच पूर्व आईपीएस अधिकारी आर.एस. प्रवीण कुमार 8 अगस्त को बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो गए। 1995 बैच के आईपीएस अधिकारी प्रवीण कुमार ने हाल ही में रिटायरमेंट ले लिया था, और तभी से उनके राजनीति में जाने की अटकलें लग रही थी। बसपा का दामन थामने के बाद अब यह अटकलें शांत हो गई है। तेलंगाना के नलगोंडा में आयोजित ‘बहुजन राज्याधिकारा संकल्प सभा’ में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बसपा की सदस्यता ग्रहण करते ही आर.एस. प्रवीण कुमार ने तेलंगाना में बहुजन राज लाने की हुंकार भर दी। उन्होंने कहा कि तेलंगाना में अब कोई भी ताकत बहुजन राज को आने से नहीं रोक सकती।
इस शानदार जनसभा के दौरान पू्र्व आईपीएस अधिकारी की प्रदेश के लोगों के बीच पकड़ भी साफ तौर पर नजर आई। तेलंगाना सोशल वेलफेयर एंड रेजिडेंशियल स्कूल के सेक्रेट्री के रूप में और स्वैरो नाम के संगठन के प्रमुख के रूप में आर. एस. प्रवीण ने अपने शानदार काम से जिस तरह प्रदेश के बहुजन समाज के बीच अपनी जगह बनाई है, वह इस सम्मेलन में साफ तौर पर दिखा। आमतौर पर पार्टी कार्यालय में कुछ बड़े नेताओं के बीच सदस्यता लेने की बजाय आर.एस. प्रवीण ने भारी जनसभा में लाखों समर्थकों के बीच बसपा की सदस्यता लेकर साफ कर दिया है कि वह प्रदेश में बड़ी और मजबूत सियासी पारी के मूड में हैं। इस दौरान उन्होंने अपनी ताकत दिखाकर जहां बसपा प्रमुख मायावती को भी आश्वस्त करने की कोशिश की तो साथ ही अपने राजनीतिक विरोधियों को चेतावनी भी दे डाली।
बतौर राजनेता अपने पहले भाषण में आर.एस. प्रवीण ने कहा कि पिछले 70 सालों से देश की मजबूत जातियों ने बहुजन समाज के साथ छल किया है। उन्होंने तेलंगाना में बहुजन राज लाने के लिए बहुजन समाज से एकजुट होने की अपील की। उन्होंने साफ किया कि बहुजन राज्यम में सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के मुताबिक प्रतिनिधित्व मिलेगा। उन्होंने कहा कि शिक्षा, स्वास्थ और रोजगार उनका प्रमुख एजेंडा होगा।
आर.एस. प्रवीण के बसपा में शामिल होने के दौरान बसपा अध्यक्ष बहन मायावती ने पार्टी की ओर से बसपा के नेशनल को-आर्डिनेटर रामजी गौतम को भेजा। इस दौरान रामजी गौतम ने घोषणा किया कि आर.एस. प्रवीण बसपा के तेलंगाना स्टेट को-आर्डिनेटर होंगे। तो वहीं आर.एस. प्रवीण ने कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता तेलंगाना में बसपा को मजबूत करना होगा। राष्ट्रीय राजनीति में मेरी क्या भूमिका होगी, यह पार्टी तय करेगी। कार्यक्रम में मौजूद समर्थकों से जब उन्होंने पूछा कि वो गुलाम बनना चाहते हैं कि राजा? तो समर्थकों के हुजूम के बीच से जोर से राजा बनने की आवाज आई। साफ है कि आर.एस. प्रवीण बहुजन समाज को तेलंगाना में राजा बनाने के लिए राजनीति में आए हैं। और जिस तरह से उऩ्होंने रेजिडेंशियल स्कूल के लाखों बच्चों को सफलता का मूलमंत्र दिया है, उसी तरह अब वह बहुजन समाज को भरोसा दिला रहे हैं कि मिलकर तेलंगाना में बहुजन राज लाया जा सकता है। निश्चित तौर पर आर.एस. प्रवीण जिस तरह काम करते हैं, ऐसा होना नामुमकिन नहीं है।
ज्योतिबा फुले से लेकर बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर तक तमाम बहुजन महापुरुषों ने भारत के मूलनिवासी समाज को साफ-साफ कहा था कि बिना शिक्षा के उनका भविष्य नहीं बदल सकता। बहुजन नायकों ने अपने समाज को यह संदेश दिया है कि भले ही दो रोटी कम खाना चाहिए लेकिन अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजना चाहिए। बहुजन महापुरुषों के इन्हीं सूत्र को अपना कर राजस्थान का अखिल भारतीय श्री मीना सामाजिक एवं शैक्षणिक समिति, नाम का संगठन देश का पहला आदिवासी विश्वविद्यालय बनाने जा रहा है। यह विश्वविद्यालय राजस्थान के कोटा के रानपुर में बनेगा। देश के इस पहले आदिवासी विश्वविद्यालय का नाम ‘जय मीनेष आदिवासी विश्वविद्यालय’ होगा। इसका शिलान्यास 8 अगस्त 2021 को कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत करेंगे। कोविड को देखते हुए पूरा कार्यक्रम वर्चुअल रखा गया है। इस विश्वविद्यालय के साथ ही मुख्यमंत्री गहलोत आदिवासी मीना बालिका छात्रावास का लोकार्पण भी करेंगे। कार्यक्रम के विशेष अतिथि उच्च शिक्षा राज्य मंत्री भंवर सिंह भाटी होंगे। कोटा में यह कार्यक्रम यूआईटी ऑडिटोरियम में रविवार सुबह 11 बजे होगा। इस कार्यक्रम में हाड़ौती के मीणा समाज के प्रमुख लोग मौजूद रहेंगे। वहीं प्रदेश भर के मीणा समाज के लोग राजीव सेवा केंद्रों के माध्यम से वीडियो कांफ्रेंस के जरिए इस समारोह से जुड़ेंगे।
इससे पहले 18 जुलाई को बस्सी से विधायक और रिटायर डीजीपी लक्ष्मण मीणा और कोटा के संभागीय आयुक्त श्री के सी मीणा और आदिवासी समाज के सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में भूमि पूजन कार्यक्रम संपन्न हुआ। आयोजित समारोह में सम्भागीय आयुक्त कोटा, के.सी. मीणा मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए। जबकि कार्यक्रम की अध्यक्षता बस्सी के विधायक श्री लक्ष्मण मीणा ने किया। इस दौरान समिति के निदेशक श्री आर डी मीना ने उपस्थित जनसमूह को कोटा में बनने जा रहे ‘जय मीनेश आदिवासी विश्व विद्यालय’ के बारे में विस्तृत जानकारी दी और आगे की योजना के बारे में विस्तार से बताया।
इस अवसर पर अध्यक्षता कर रहे विधायक लक्ष्मण मीना ने अपने उद्बोधन में कहा कि ये हम सबके लिए गर्व की बात है कि आज जयनमीनेश आदिवासी विश्वविद्यालय का भूमि पूजन आप सभी के सहयोग सम्पन्न हुआ। कभी एक समय हमारा आदिवासी समाज पढ़ाई के संस्थान स्कूल कॉलेज में पढ़ने के अवसर लिए तरसते थे, आज हम शिक्षा के संस्थान स्थापित कर शिक्षा देने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। लक्ष्य कठिन जरूर है पर नामुमकिन नहीं। विश्वविद्यालय एक शहर बसाने जैसा है, घर बनाना आसान होता है, लेकिन शहर बसाना थोड़ा मुश्किल होता जरूर है।
लेकिन मुझे विश्वास है कि हम सामूहिक प्रयास, सहयोग से अपने इस सपने को साकार करेंगे। उन्होंने लोगों से आर्थिक मदद की अपील की। श्री मीणा ने यह भी कहा कि सबसे पहले हमे प्रथम चरण में 10 हजार वर्ग फिट का निर्माण कार्य नीयत समय एक वर्ष में पूरा करना ताकि विश्वविद्यालय को UGC की गाइडलाइन के अनुसार प्रारंभ कर सके जो कोई कठिन भी नही है। समाज के लोगों के पास जाकर हमें वांछित राशि लेने हेतु दिल से प्रयास करना पड़ेगा। आपके पास धन है तो अनुभव अपने आप आ जाता है। हम ये आदिवासी विश्वविद्यालय ही नहीं बना रहे है अपितु हमारी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की नींव खड़ी कर रहे हैं, जिसमें हमारे समाज के बच्चों के साथ अन्य समाज के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे।
इसके लिए मैं समाज के सभी बंधुओ से अपील करता हूं कि शिक्षा के इस पुनीत कार्य के लिए अधिक से अधिक धन राशि का बढ़-चढ़ कर सहयोग करे। चाहे वो समाज का अधिकारी हो या कर्मचारी या फिर गांव में रहने वाले पंच पटेल व किसान। हमें बस उनको विश्वविद्यालय निर्माण के लिए दान देने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है। इस अपील पर समाज के लोगों ने लगभग दो करोड़ रूपये इकट्ठा कर लिया। अंत में समिति के निदेशक श्री आर डी मीना द्वारा समारोह में पधारे सभी समाज बंधुओं का धन्यवाद ज्ञापित किया गया।
7 अगस्त एकाधिक कारणों से इतिहास का खास दिन है। यह लेख शुरू करने के पहले मैंने इस दिन का महत्व जानने के लिए लिए गूगल पर सर्च किया। विकिपीडिया पर इस दिन की प्रमुख घटनाओं के रूप में कई जानकारियां दर्ज है। लेकिन मुझे भारी विस्मय हुआ कि उन घटनाओं में मंडल दिवस का उल्लेख नहीं है, जबकि इसी दिन 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू कर इस दिन को बेहद खास बना दिया था, जिसे देश-विदेश के सामाजिक न्यायवादी कभी नहीं भूल सकते।
1989 के चुनाव में जनता दल की ओर से वीपी सिंह ने घोषणा किया था कि अगर सत्ता में आये तो मंडल आयोग की संस्तुतियां लागू करेंगे और सत्ता में आने के बाद उन्होंने मौका-माहौल देखकर 7 अगस्त, 1990 को अपना वादा पूरा कर दिखाया। उन्होंने मंडल की संस्तुतियों को लागू करने की घोषणा करते समय कहा था, ‘हमने मंडल रूपी बच्चे को माँ के पेट से बाहर निकाल दिया है। अब कोई माई का लाल इसे माँ के पेट में नहीं डाल सकता। यह बच्चा अब प्रोग्रेस करेगा।’ मंडल मसीहा की बात सही साबित हुई। पिछड़ों के लिए नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करने वाला मंडल रूपी बच्चा आज प्रोग्रेस करते–करते सरकारी नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग, परिवहन, धार्मिक न्यास, पुरोहितगिरी, आउट सोर्सिंग जॉब इत्यादि को स्पर्श करते हुए डाइवर्सिटी अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण का रूप अख्तियार करता प्रतीत हो रहा है। ऐसे में कहा जा सकता है 7 अगस्त प्रधानतः मंडल दिवस है। लेकिन 7 अगस्त का महत्त्व मुख्यतः मंडल दिवस तक ही सीमित नहीं है, यह आधुनिक भारत में वर्ग-संघर्ष के आगाज का भी दिन है।
इसे जानने के लिए महानतम समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स की मानव जाति के इतिहास की व्याख्या का सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा। मार्क्स ने कहा है अब तक का विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात दूसरे शब्दों में जिसका शक्ति के स्रोतों, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक पर कब्ज़ा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है। अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर व बहिष्कृत है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है। मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित, ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है।’ मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के इतिहास की यह व्याख्या मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास की निर्भूल व अकाट्य सचाई है, जिससे कोई देश या समाज न तो अछूता रहा है और न आगे रहेगा। जबतक धरती पर मानव जाति का वजूद रहेगा, वर्ग-संघर्ष किसी न किसी रूप में कायम रहेगा और इसमें लोगों को अपनी भूमिका अदा करते रहने होगा। किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि जहां भारत के ज्ञानी-गुनी विशेषाधिकारयुक्त समाज के लोगों ने अपने वर्गीय हित में, वहीं आर्थिक कष्टों के निवारण में न्यूनतम रूचि लेने के कारण बहुजन बुद्धिजीवियों द्वारा मार्क्स के कालजई वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की बुरी तरह अनदेखी की गयी, जोकि हमारी ऐतिहासिक भूल रही। ऐसा इसलिए कि विश्व इतिहास में वर्ग-संघर्ष का सर्वाधिक बलिष्ठ चरित्र हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा है, जो मूलतः शक्ति के स्रोतों अर्थात मार्क्स की भाषा में उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही है एवं जिसके द्वारा ही भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा है।
हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और वंचित बहुजन समाज, दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया। इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण को लेकर संघर्ष का एक नया दौर। मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया। ऐसे में सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके– छात्र और उनके अभिभावक, लेखक और पत्रकार, साधु-संत और धन्ना सेठ तथा राजनीतिक दल, अपने–अपने स्तर पर आरक्षण के खात्मे और वर्ग-शत्रुओं को खत्म करने में मुस्तैद हो गए। बहरहाल मंडल के बाद वर्ग शत्रुओं का खात्मा करने में जुटा भारत का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग भाग्यवान जिसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे नरसिंह राव ने सोत्साहवरण कर लिया। इसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर राव ने हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिसपर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आई। इनमें डॉ. मनमोहन सिंह ने अ-हिंदू होने के कारण बहुजनों के प्रति वर्ग- मित्र की भूमिका अदा करते हुए नवउदारीकरण की नीतियों को कुछ हद मानवीय चेहरा प्रदान करने का प्रयास किया।
इसी क्रम में ओबीसी को उच्च शिक्षा में आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ-कुछ बढ़ावा दिया। किन्तु वाजपेयी और मोदी हिन्दू होने के साथ उस संघ प्रशिक्षित पीएम रहे, जो संघ हिन्दू धर्मशास्त्रों में अपार आस्था रखने के कारण गैर- सवर्णों को शक्ति के स्रोतों के भोग का अनाधिकारी समझता है। मार्क्स ने वर्ग संघर्ष के इतिहास की व्याख्या करते हुए यह अप्रिय सच्चाई बताई है कि वर्ग संघर्ष में प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है। मंडल के बाद भारत में जो नए सिरे से वर्ग संघर्ष शुरू हुआ, उसमें शासक वर्ग के हित-पोषण के लिए वाजपेयी और मोदी ने जिस निर्ममता से राज्य का इस्तेमाल अपने वर्ग शत्रुओं अर्थात बहुजनों के खिलाफ किया उसकी मिसाल वर्ग संघर्ष के इतिहास में मिलनी मुश्किल है। मंडल से हुई क्षति की भरपाई के लिए ही इन्होंने अंधाधुन सरकारी उपक्रमों को बेचने जैसा विशुद्ध देश-विरोधी काम अंजाम देने में सर्वशक्ति लगाया ताकि आरक्षण से मूलनिवासी बहुजनों को महरूम किया जा सके।
इस मामले में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी तक को बौना बनाया, उनके शासन में आरक्षण के खात्मे तथा जन्मजात सर्वस्वहारा वर्ग की खुशिया छीनने की कुत्सित योजना के तहत श्रम कानूनों को निरन्तर कमजोर करने तथा नियमित मजदूरों की जगह ठेकेदारी-प्रथा को बढ़ावा देने में राज्य का अभूतपूर्व उपयोग हुआ। आरक्षण के खात्मे की योजना के तहत ही सुरक्षा तक से जुड़े उपक्रमों में 100 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दी गयी। गैर-सवर्णों के आरक्षण से महरूम करने के लिए ही हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, हॉस्पिटलों इत्यादि को निजी क्षेत्र में देने लिए राज्य का इस्तेमाल हो रहा है। वर्ग शत्रुओं को गुलामों की स्थिति में पहुचाने की दूरगामी योजना के तहत विनिवेशीकरण, निजीकरण के साथ लैटरल इंट्री में राज्य का अंधाधुंन उपयोग हो रहा है। जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सबकुछ सौपने के खतरनाक इरादे से ही दुनिया के सबसे बड़े जन्मजात शोषकों ईडब्ल्यूएस के तहत 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया गया। कुल मिलाकर मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ गोलबंद हुए प्रभुत्वशाली वर्ग की ओर से राज्य के निर्मम उपयोग के फलस्वरूप भारत का सर्वस्व-हारा वर्ग उस स्टेज में पहुंचा दिया गया है, जिस स्टेज में पहुंच कर सारी दुनिया में ही वंचितों को शासकों के खिलाफ स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा। इसी स्टेज में पहुंचने पर भारतीय लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई छेड़नी पड़ी थी।
बहरहाल अब लाख टके का सवाल यह है कि मंडलोत्तर काल में भारत के प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा छेड़े गए इकतरफा वर्ग संघर्ष के फलस्वरूप जो जन्मजात सर्वहारा वर्ग गुलामों की स्थिति में पहुच गया है, उसको आजाद कैसे किया जाय। कारण इस दैविक सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी का इल्म ही नहीं है। उसे राष्ट्रवाद के नशे में इस तरह मतवाला बना दिया गया कि वह धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की बदहाली देखकर अपनी बर्बादी भूल गया है। ऐसे में जन्मजात शोषितों को लिबरेट करना दूसरे देशों के गुलामों के मुकाबले कई गुना चुनौतीपूर्ण काम बन चुका है। लेकिन चुनौतीपूर्ण होने के बावजूद भारतीय शासक वर्ग ने अपनी स्वार्थपरता से सर्वस्वहाराओं की मुक्ति का मार्ग खुद प्रशस्त कर दिया है और वह मार्ग है सापेक्षिक वंचना (Relative deprivation) का।
क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है। समाज विज्ञानियों के मुताबिक़, ‘दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें!’ सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना। दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना के अहसास ने ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमें वहां गोरों की तानाशाही सत्ता भस्म हो गयी। जिस तरह आज शासकों की वर्णवादी नीतियों से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक जो हालात भारत में पूंजीभूत हुये हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे। यहां तक कि फ्रांसीसी क्रांति या रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी इतने बेहतर हालात नहीं रहे। तमाम कमियों और सवालों के बावजूद यह सुखद बात है कि सोशल मीडिया पर सक्रिय बहुजन बुद्धिजीवियों के सौजन्य से गुलामी का भरपूर इल्म न होने के बावजूद भी जन्मजात सर्वहाराओं में सापेक्षिक वंचना का अहसास पनपा है। इससे वोट के जरिये लोकतांत्रिक क्रांति के जो हालात आज भारत में पैदा हुए हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कभी किसी देश में उपलब्ध नहीं रहे। इस हालात में परस्पर शत्रुता से लबरेज मूलनिवासी वंचित समुदायों में क्रांति के लिए जरुरी ‘हम-भावना’ (we-ness) का तीव्र विकास का तीव्र विकास हुआ है। ऐसे में बहुजन बुद्धिजीवी/एक्टिविस्ट सबकुछ छोड़कर यदि बहुजनों में सापेक्षिक वंचना का भाव भरने में सारी ताकत झोंक दें तो वोट के जरिये भारत में लोकतान्त्रिक क्रांति स्वर्णिम अध्याय रचित होने के प्रति आशावादी हुआ जा सकता है।
हाल ही में दिल्ली में भी हाथरस दुहराया गया। दिल्ली कैंट के पुराना नागल स्थित श्मशान घाट में वाटर कूलर से पानी लेने गई नौ साल की दलित (बाल्मीकि) बच्ची से कथित तौर पर सामूहिक दुष्कर्म कर उसकी हत्या के बाद जबरन अंतिम संस्कार कर दिया गया। इस भयावह और बर्बर घटना को जिस बेरहमी से अंजाम दिया गया उसने न केवल मानवता को तार-तार किया है बल्कि अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी हैं। सवाल है कि बलात्कारियों और दुराचारियों में ऐसी क्रूर घटनाओं को अंजाम देने का दुस्साहस कैसे पैदा होता है? क्या दलित महिलाएं और बच्चियां उनके लिए ‘ईजी या सॉफ्ट टारगेट’ होती हैं? दरअसल जातिवादी मानसिकता वाले दुराचारी सवर्ण उनकी जाति और गरीबी का फायदा उठाते हैं। उन्हें क़ानून का भय नहीं होता। क्योंकि क़ानून के रखवाले भी कथित उच्च जाति और जातिवादी मानसकिता वाले होते हैं।इसलिए दुराचारी यह मानकर चलते हैं कि दलित महिलाओं/बच्चियों के साथ दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करने की उन्हें सजा नहीं मिलेगी। और वे ऐसी वारदात के बाद भी खुलेआम घूमते हैं। पर इस मामले में करीब दो सौ लोगों के हंगामे के बाद पंडित राधेश्याम और उसके तीन साथियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया।
उन पर पहले पुलिस ने गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया था। बाद में दिल्ली महिला आयोग और एससी/एसटी आयोग के दखल के बाद पुलिस ने प्राथमिक जांच के बाद सामूहिक दुष्कर्म, हत्या, साक्ष्य छुपाने, पोक्सो, एससी/एसटी एक्ट और धारा 506 के तहत मामला दर्ज किया। जन दबाब से मजबूर होकर पुलिस को चारों को गिरफ्तार करना पड़ा। जब देश की राजधानी दिल्ली में ऐसी हैवानियत हो सकती है तो पूरे देश के बारे में आप सोच सकते हैं कि दलित बच्चियां और महिलाएं कितनी सुरक्षित होंगी।
गुड़िया (बदला हुआ नाम) की मां ने बताया कि रविवार शाम साढ़े पांच बजे बेटी शमशान घाट में लगे वाटर कूलर से ठंडा पानी लेने गई थी। साढ़े छः बजे वहां के पंडित राधेश्याम ने परिजनों को घाट पर बुलाया और उन्हें बताया कि बच्ची की करंट लगने से मौत हो गई है। जबकि बच्ची के होंठ नीले पड़े हुए थे और उसकी कलाईयों पर जलने के निशान थे। गुड़िया की मां के अनुसार जब उन्होंने पुलिस को फोन करने की कोशिश की तो पुजारी ने पोस्टमार्टम में अंगो की चोरी होने की बात कह कर उन्हें डराया और जबरन बच्ची का अंतिम संस्कार कर दिया। गुड़िया के पिता मोहनलाल ने बताया कि उनकी बच्ची उनकी एकमात्र संतान थी। जिन चार दरिंदों ने मेरी बेटी के साथ दरिन्दगी की है उनके लिए मैं जल्द से जल्द फांसी की सजा चाहता हूँ ताकि मेरी बेटी को और मुझे न्याय मिल सके।
बचे रह गए गुड़िया के अधजले पांव!
दरिंदो ने 9 वर्षीया गुड़िया को जब जलाया (पता नहीं मारकर या जिन्दा!) तब जलाते समय उस मासूम के पांवों का निचला हिस्सा अधजला रह गया। उसके इन अधजले पावों का किसी ने फोटो खींच कर वायरल कर दिया। उस मासूम के उन अधजले पांवों की तस्वीर देख कर ही मन विचलित हो गया। पता नहीं उस मासूम के माता-पिता पर उन अधजले पांवों को देखकर क्या गुजरी होगी!
मामले को रफा-दफा करना चाहती थी पुलिस
गुड़िया के परिजनों ने बताया कि पहले पुलिस आरोपियों से पीड़िता के पिता को 20 हजार रुपया दिलवा कर मामले को रफा-दफा करना चाहती थी। यहां तक कि पुलिस ने गुड़िया के पापा को डराया-धमकाया भी था। और जब अन्य परिजनों खासतौर से महिलाओं ने इसका विरोध किया तो पुलिस ने कहा कि तुम ज्यादा मत बोलो नहीं तो तुम्हें भी अन्दर कर देंगे।परिजनों का आरोप है कि पुलिस वालों ने शराब पी रखी थी। पुलिस मीडिया वालों से भी बात नहीं करने दे रही थी। दरअसल पुलिस पीड़ितों के साथ नहीं बल्कि आरोपियों के साथ खड़ी थी और पीड़ितों पर दबाब बना रही थी।
दलित संगठनो और सामाजिक संगठनों ने इस हैवानियत के खिलाफ बुलंद की आवाज
जब मैं दिल्ली कैंट पुराना नागल में धरना स्थल पर पहुंचा तो मैंने देखा कि वहां दलित संगठनों के कार्यकर्ता तथा अन्य कई सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि आए हुए थे और मंच से अपनी बात रख रहे थे। दलित संगठनो में काफी आक्रोश दिख रहा था। वे प्रशासन और खासतौर से पुलिस प्रशासन से कह रहे थे कि वैसे तो हम संविधान और देश के क़ानून में विश्वास रखते हैं। और अपने हाथ में कानून नहीं लेना चाहते। हमें कानून व्यवस्था पर भरोसा है कि वह दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा देगी। पर यदि कानून दोषियों को सख्त से सख्त सजा नहीं देगा तो उन्हें हम सजा देंगे। आक्रोशित दलित तरह-तरह के नारे लगा रहे थे जैसे– ‘गुड़िया हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिन्दा हैं’, ‘गुड़िया के हत्यारों को,गोली मारो….को’, ‘पुलिस प्रशासन हाय हाय’, ‘दोषियों को फांसी दो, फांसी दो’, ‘गुड़िया के दरिंदों को मौत की सजा दो’, ‘गुड़िया को इन्साफ दो’, ‘वी वांट जस्टिस’, ‘आवाज दो हम एक हैं’, ‘जय जय जय जय जय भीम’…आदि।
धरनास्थल को विभिन्न सामाजिक संगठनो के प्रतिनिधियों ने विशेषकर महिलाओं ने संबोधित किया। सबने गुड़िया के लिए न्याय की मांग की और दोषियों के लिए सख्त से सख्त सजा। दलित नेताओं जैसे बिरजू पहलवान, मुहर सिंह पहलवान, भीम आर्मी चीफ चन्द्र शेखर आजाद आदि ने भी अपने विचार रखे और गुड़िया को न्याय दिलाने के लिए तन-मन-धन अर्पित करने की बात कही।
सुरक्षित नहीं हैं हमारी बेटियां
कुछ महिला वक्ताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” नारे पर तंज कसते हुए कहा कि हमारी बेटियां सुरक्षित नहीं हैं मोदी जी। दोष इसमें मानसिकता है। हमारी लचर क़ानून व्यवस्था का है। न्याय व्यवस्था का है।पुलिस प्रशासन का है। जातिवाद का है। दलितों की बेटियां भी इस देश की बेटियां होती हैं। जापान में चल रहे ओलिंपिक गेम में जब हमारी बेटियां चानू और सिंधू मैडल जीतती हैं तो उन पर गर्व करते हो दूसरी ओर हमारी दलित बिटियों के साथ जघन्य अपराध करते हो। तुम्हारे दिमाग में पितृसत्ता और जातिवाद बैठा हुआ है। रामराज्य की बात करते हो और गुंडाराज चलाते हो। पहले इस मानसिकता को बदलो।
पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को भड़काने की कोशिश
धरनास्थल का दृश्य काबिले गौर था। तेज धूप थी और प्रदर्शनकारी भीषण गर्मी में सड़क पर बैठे हुए थे। सिर्फ एक छोटा सा मंच बना हुआ था। प्रदर्शनकारी छाया में बैठ सकें, इसके लिए टेंट लगाने का प्रयास करने पर पुलिस वाले मना करने लगे कि यहाँ टेंट नहीं लगा सकते। इससे नाराज लोगों की पुलिस से झड़प हो गई। पुलिस वाले प्रदर्शनकारियों को भड़काने लगे जिससे वे पुलिस से हाथापाई करने लगें। पुलिस को लाठीचार्ज करने का मौका मिल जाए और वे प्रदर्शनकारियों को खदेड़ दें। लेकिन मंच संचालन अच्छा था। उन्होंने प्रदर्शनकारियों से निवेदन किया कि वे पुलिस से न भिड़ें। उन्हें कुछ न कहें। क्योंकि पुलिस वाले चाहते हैं कि आप हिंसा पर उतर आएं और वे लाठीचार्ज कर सकें। हमें धरना-प्रदर्शन शांतिपूर्ण ढंग से करना है जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है। इससे लोग शांत हुए और वापस आकर बैठ गए।
दलित संगठनों और अन्य सामाजिक संगठनों की मांगे
पूरे मामले की निष्पक्ष जांच के लिए एक स्वतंत्र उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जाए।
मामले को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में चलाया जाए।
सभी दोषियों को सख्त से सख्त सजा दी जाए।
किसी प्रलोभन या दबाब के कारण जांच प्रभावित न हो यह सुनिश्त किया जाए।
NEET में ओबीसी को आरक्षण मिलने के बाद अब जाति जनगणना को लेकर बहस छिड़ गई है। ऐसे में इसके समर्थक और विरोधी अपनी-अपनी दलीलें दे रहे हैं। लेकिन कुछ कथित प्रगतिशील ऐसे भी हैं; जो अपनी छवि को बचाने के लिए सीधे तो जाति जनगणना का विरोध नहीं कर रहे है, लेकिन परोक्ष रूप से इसके खिलाफ तमाम तर्क दे रहे हैं। कुछ बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि, “यादव, कुर्मी, शाक्य, लोधी को आरक्षण का लाभ “संख्या से अधिक” मिल रहा है, इसलिए उनको जाति जनगणना का समर्थन नहीं करना चाहिए। उनका तर्क है कि उनकी फीस वैज्ञानिक आंकलन एवं पद्धतिशास्त्र में माफ़ लगती है, या उन्होंने इसकी कभी पढ़ाई ही नहीं की है।
यहां हमें यह समझना होगा कि प्रतिनिधित्व या आरक्षण का वैज्ञानिक एवं पद्धतिशास्त्र अलग होता है। इसका आंकलन ‘indicies’ (सूचकांक) पर किया जाना चाहिए। अर्थात एक हजार या एक लाख आबादी पर कितने लोग शिक्षित हैं और उनमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है। वैज्ञानिक एवं पद्धतिशास्त्र आधार पर यह आसानी से स्पष्ट हो जाएगा की किसी एक जाति की कितने लाख आबादी है और उसमें से कितने लोगों को प्रतिनिधित्व मिला है या मिल रहा है। अगर किसी जाति की संख्या लाखों में है और किसी जाति की संख्या हजारों में तो यह स्वाभाविक ही है कि लाखों की जनसंख्या वाले जाति के लोगों में प्रतिनिधित्व ज्यादा ही लगेगा। परन्तु जब आप आरक्षण की गणना प्रति हजार करेंगे तो इंडीसीस लगभग एक जैसा ही आएगा।
जो लोग प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का आंकलन जाति की संख्या बल के आधार पर कर रहे हैं, उनको प्रतिनिधित्व आरक्षण के दर्शन के बारे में भी कुछ ज्ञान नहीं लगता। क्योंकि प्रतिनिधित्व (आरक्षण) सामाजिक न्याय पर आधारित है। यद्यपि यह जाति की सामूहिक अस्मिता पर आधारित है परंतु इसका लाभ जाति में रह रहे व्यक्ति को एकांगी रूप में प्राप्त होता है। अर्थात अगर जाति में किसी एक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व (आरक्षण) का लाभ मिल गया है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसके पूरे नाते-रिश्तेदारों या उसकी पूरी जाति को ही उसका लाभ मिल गया है। प्रतिनिधित्व (आरक्षण) पूरे वंचित समाज को सामाजिक न्याय के प्रति आशान्वित करता है जिससे उनके अंदर क्रांतिकारी बदलाव की सोच ना विकसित हो और वे संवैधानिक मार्ग पर उसमें प्रदत अधिकारों के आधार पर ही अपनी वंचना की को दूर कर सके। इसलिए प्रतिनिधित्व (आरक्षण) समाज में विघटन होने से भी बचाता है। अतः प्रतिनिधित्व (आरक्षण) उन वंचित समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सत्ता, शिक्षा, संसाधन, उत्पादन, आदि संस्थाओं में प्रतिनिधित्व देकर राष्ट्र एवं प्रजातंत्र को मजबूत करने की एक प्रक्रिया है, जिनको जातीय अस्मिता के आधार पर हजारों हजारों वर्षों से जीवन के हर क्षेत्र में यथा-आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यवसायिक, आवासीय आदि आधार पर बहिष्कृत किया गया। सारांश में जाति जनगणना एवं प्रतिनिधित्व (आरक्षण) परस्पर विरोधी नहीं बल्कि परस्पर पूरक हैं।
(प्रोफेसर विवेक कुमार, लेखक जवाहरलाल नेहरू स्थित समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। यह विचार व्यक्तिगत हैं।)
मुंबई एयरपोर्ट पर लगे अडाणी के बोर्ड को शिव सैनिकों ने तोड़ दिया है। दरअसल मराठी अस्मिता केंद्रित राजनीति करने वाली शिवसेना छत्रपति शिवाजी महाराज को अपना आइकन मानती है। ऐसे में जब अडाणी ग्रुप ने मुंबई एयरपोर्ट का अधिग्रहण करने के बाद उस पर जब अडाणी का बोर्ड लगाया, तो शिवसैनिकों ने इसे मराठी अस्मिता पर हमला बताया। अडाणी ग्रुप ने इसी साल जुलाई में मुंबई एयरपोर्ट के मैनेजमेंट का काम संभाला है। अडाणी ग्रुप के पास फिलहाल 74 फीसदी की हिस्सेदारी है।
इस बीच अडानी ग्रुप की ओर से कहा गया है कि एयरपोर्ट का नाम अब भी छत्रपति शिवाजी के नाम पर है। उसमें कोई तब्दीली नहीं की गई है। बता दें कि बीते कुछ सालों में अडानी ग्रुप ने एयरपोर्ट्स के मैनेजमेंट का अधिकार लेने में बड़ा निवेश किया है। केरल के कोच्चि एयरपोर्ट से लेकर मुंबई एयरपोर्ट तक का कॉन्ट्रैक्ट अडानी ग्रुप ने हासिल किया है।
दलितों के हितों को लेकर मोदी सरकार और उसके मंत्री कितने गैरजिम्मेदार हैं, यह हाल ही में देखने तब देखने को आया, जब मैनुअल स्केवेंजिंग को लेकर राज्यसभा में एक सवाल पूछा गया। 28 जुलाई को राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह सवाल पूछा था कि बीते पांच साल में हाथ से नाले की सफाई के दौरान कितनी मौते हुई हैं? जिसके जवाब में मोदी सरकार में सामाजिक न्याय राज्यमंत्री रामदास आठवले ने ऐसी किसी मौत से साफ इंकार कर दिया। अठावले ने कहा कि बीते पांच वर्षों में मैनुअल स्केवेंजिंग से किसी की मौत का मामला सामने नहीं आया है।
लेकिन यहां यह दिलचस्प है कि इसी साल फरवरी में बजट सत्र के दौरान लोकसभा में एक लिखित जवाब में मोदी सरकार के मंत्री रामदास आठवले ने ही बीते पांच साल में सेप्टिक टैंक और सीवर साफ़ करने के दौरान 340 लोगों की मौत की बात कही थी। अठावले ने जो डेटा दिया था, वह 31 दिसंबर, 2020 तक का था। तो यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर मोदी सरकार का कोई मंत्री एक ही सवाल का दो अलग वक्त पर अलग-अलग जवाब कैसे दे सकता है?
दलितों के हितों को लेकर मोदी सरकार की अनदेखी का भांडाफोड़ उस रिपोर्ट से भी होता है, जिसे साल 2020 में सरकार की ही संस्था राष्ट्रीय सफ़ाई कर्मचारी आयोग ने जारी किया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि साल 2010 से लेकर मार्च 2020 तक यानी 10 साल के भीतर 631 लोगों की मौत सेप्टिक टैंक और सीवर साफ़ करने के दौरान हो गई। तो आखिर अब मोदी सरकार के मंत्री मैनुअल स्केवेंजिंग के कारण हुई मौतों की बात से कैसे और क्यों इंकार कर रहे हैं??
यहां यह समझना होगा कि साल 2013 में मैनुअल स्केवेंजिंग यानी हाथ से मैला उठाने को लेकर नियोजन प्रतिषेध और पुनर्वास अधिनियम लाया गया था और इस पर पूरी तरह रोक लगाते हुए इसे गैरकानूनी कहा गया था। यहां सरकार ने ‘मैनुअल स्केवेंजर’ की परिभाषा तय की थी। इस परिभाषा के मुताबिक- “ऐसा व्यक्ति जिससे स्थानीय प्राधिकरी हाथों से मैला ढुलवाए, साफ़ कराए, ऐसी खुली नालियां या गड्ढे जिसमें किसी भी तरह से इंसानों का मल-मूत्र इकट्ठा होता हो उसे हाथों से साफ़ कराए तो वो शख़्स ‘मैनुअल स्केवेंजर‘ कहलाएगा।”
नियम के मुताबिक, इस अधिनियम के लागू होने के बाद कोई स्थानीय अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति किसी भी शख़्स को सेप्टिक टैंक या सीवर में ‘जोख़िम भरी सफ़ाई’ करने का काम नहीं दे सकता है। लेकिन यह सब महज सरकारी कागजों की बात है। जमीनी सच्चाई यह है कि देश में हर रोज सफाई कर्मचारी सीवर में बिना किसी सुरक्षा के उतर रहे हैं, और उनमें से कई अपनी जान गंवा रहे हैं। सिर्फ़ इस साल अब तक 26 लोगों की मौत हो चुकी है’।
सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेज़वाड़ा विल्सन का दावा है कि इन पांच सालों में सफ़ाई करने के दौरान 472 सफ़ाईकर्मियों की मौत हुई है। इस बारे में बीबीसी को दिये अपने बयान में विल्सन ने कहा- “सोचिए, लोग मर रहे हैं और कैसे एक मंत्री संसद में ये कह रहे हैं कि कोई मौत ही नहीं हुई है। सरकार तो ये भी कह रही है कि ऑक्सीज़न की कमी से देश में लोग नहीं मरे तो क्या हम जो देख रहे हैं या देखा है सबकी पुष्टि सरकार के बयानों से होगी? यह सबसे आसान तरीका है कि कह दो कि कोई डेटा ही नहीं है और सवालों और परेशानियों से बच जाओ क्योंकि अगर आपने डेटा दिया तो आपसे और सवाल पूछे जाएंगे और अगर डेटा सही नहीं हुआ तो लोग सवाल उठाएंगे।”
ऐसे में जब मोदी सरकार मैनुअल स्केवेंजिंग से हुई मौतों को नकार रही है, जमीनी हकीकत यह है कि मैनुअल स्केवेंजर्स की संख्या घटने की बजाए, लगातार बढ़ रही है। और यह खुद सरकारी आंकड़ें चीख-चीख कर कह रहे हैं। साल 2019 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2013 में जब मैनुअल स्केवेंजिंग रोकने के लिए क़ानून लाया गया था तो उस वक्त देश में 14 हज़ार से अधिक ऐसे सफ़ाईकर्मी थे जिन्हें मैनुअल स्केवेंजर की श्रेणी में रखा गया था। 2018 के सर्वे में ये संख्या बढ़कर 39 हज़ार पार कर गई और साल 2019 में ये बढ़ कर 54 हज़ार से ऊपर हो गई। वर्तमान में ऐसे लोगों की संख्या 66 हज़ार से अधिक है। अकेले उत्तर प्रदेश में हाथ से मैला उठाने वालों की संख्या 37 हज़ार से ज्यादा है। तो सदन में मैनुअल स्केवेंजिग से हुई मौतों की संख्या जीरो बताने वाले रामदास अठावले के गृहराज्य महाराष्ट्र में 7300 लोग यह काम करते हैं।
तो क्या अब भारत की सरकार, खासकर मोदी सरकार ऐसे ही काम करेगी। मौत चाहे ऑक्सीजन की कमी से हो, या फिर सीवर में उतरने से हो, क्या सरकार ने यह तय कर लिया है कि वह हर आंकड़े को बेशर्मी से झुठला कर उससे पल्ला झाड़ लेगी, चाहे देश की जनता जान गंवाती रहे। क्या सच को नकार करो विश्वगुरू बनने का खोखला दावा करना ही सरकार का काम रह गया है?
जनता दल युनाइटेड के नए अध्यक्ष ललन सिंह होंगे। दिल्ली में पार्टी ऑफिस में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह फैसला लिया गया। इस बैठक में शामिल होने के लिए नीतीश कुमार पटना से दिल्ली पहुंचे थे। आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बनने के बाद ही अटकलें लगाई जा रही थी कि किसी और को यह पद मिलेगा। ललन सिंह नीतीश कुमार के सबसे करीबी नेताओं में शुमार हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी के सभी सांसद और कई राज्यों के प्रदेश अध्यक्ष भी शामिल थे।
बहुजन समाज पार्टी द्वारा उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले किये जा रहे प्रबुद्ध वर्ग संगोष्ठी यानी ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर दलित-बहुजन समाज के एक तबके में काफी रोष है। सोशल मीडिया पर बसपा प्रमुख बहन मायावती को नसीहत देने वालों की भरमार लगी है। तमाम लोग यह बता रहे हैं कि ब्राह्मणों का सम्मेलन करने से बसपा को कोई फायदा नहीं होने वाला है और इससे बसपा के अपने आधार वोट बैंक का नुकसान होगा। बहुजन समाज के कुछ लोगों की यह चिंता समझ से परे है। दरअसल दलित-बहुजन समाज में ऐसे प्रतिक्रियावादी लोगों की भरमार हो गई है, जो बिना आगा-पीछा सोचे, बस फैसला सुनाने को बेचैन नजर आते हैं। और सोशल मीडिया ने उन्हें इसका हक दे ही दिया है।
लेकिन दलित-बहुजन समाज को यह सोचना होगा कि क्या इस तरह की प्रतिक्रिया जल्दबाजी में दी गई प्रतिक्रिया नहीं है? उन्हें यह समझना होगा कि जब भी चुनाव आते हैं या किसी राजनीतिक दल को जब भी किसी समाज को खुद से जोड़ना होता है, तो इस तरह की कवायद सभी करते हैं। यह कोई अनोखी घटना नहीं होती, बल्कि एक आम राजनैतिक प्रक्रिया होती है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुंभ के दौरान सफाईकर्मियों का पैर धोया, या जब अमित शाह किसी दलित के घर जाकर खाना खाते हुए नजर आते हैं तो क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि दोनों दलित समाज के हितैषी हो गए हैं? क्या यह मान लिया जाए कि प्रधानमंत्री मोदी वाल्मीकि समाज की सभी समस्याओं को दूर कर देंगे या अमित शाह दलित समाज के अधिकारों के लिए सड़क पर उतर कर आंदोलन करेंगे?
वाल्मीकि समाज का पैर धोने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने क्या उसके बाद उस समाज की खबर ली। क्या उसके बाद कभी उन्होंने यह ऐलान किया कि वह ऐसी व्यवस्था करेंगे जिससे वाल्मीकि समाज के किसी व्यक्ति को सीवर में मौत का सामना न करना पड़े। बिल्कुल नहीं। क्योंकि इस तरह की घटनाएं महज प्रतीक भर होती हैं और इनके सहारे तमाम दल और राजनेता खुद को सिर्फ उदार दिखाने की कोशिश करते हैं। और इन प्रतीकों का इस्तेमाल कर वोट के लिए ढोल बजाते फिरते हैं। यह बात उस समाज के वोटर भी समझते हैं इसलिए जब मोदी सफाईकर्मियों के पैर धोते हैं और अमित शाह और राहुल गांधी दलितों के घर खाना खाते हैं तो उनका सवर्ण समाज जाति और धर्म भ्रष्ट होने का रोना नहीं रोता।
ऐसे में बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन को लेकर दलित-बहुजन समाज के एक तबके के भीतर मच रहा हो-हल्ला कहीं न कहीं बेमानी है। दलित-बहुजनों को समझना होगा कि सत्ता में आने के लिए सभी राजनैतिक दलों को हर जाति, धर्म और वर्ग का वोट चाहिए होता है। हर राजनीतिक दल इसके लिए प्रयास करता है और एक राजनैतिक दल होने के कारण बसपा इससे परे नहीं है। हर राजनीतिक दल में एससी-एसटी सेल होता है, जिसकी कमान पार्टी के दलित-आदिवासी समाज के नेताओं के पास रहती है और इससेल का दायित्व अपने समाज के वोटों को पार्टी के लिए संगठित करना है। बसपा में सतीश चंद्र मिश्रा भी ब्राह्मण चेहरे हैं, लंबे वक्त से बसपा से जुड़े हुए हैं और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं। निश्चित तौर पर उनकी जिम्मेदारी ब्राह्मण समाज के वोटों को बसपा के खेमे में लाने की है।
अगर उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले बहुजन समाज पार्टी सतीश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में ब्राह्मण सम्मेलन कर रही है तो इसको लेकर हंगामे की कोई जरूरत नहीं दिखती है।कोई भी राजनीतिक दल तेरह प्रतिशत ब्राह्मण वोटों की अनदेखी करने का जोखिम नहीं लेगी।बहुजन समाज पार्टी लंबे समय से भाईचारा समितियां गठित करती रही है।जहां तक विचारधारा का सवाल है तोयहां दलित-बहुजन समाज को यह भी ध्यान देना होगा कि बसपा प्रमुख मायावती कभी भी हिन्दू धर्म के धार्मिक नेताओं के घरों और मठों के चक्कर नहीं लगाती हैं और अपनी विचारधारा पर कायम हैं। और क्या कोई भी यह दावे के साथ कह सकता है कि दलित समाज की सभी जातियां बसपा के समर्थन में खड़ी हैं, और अगर बसपा ब्राह्मण सम्मेलन नहीं करती तो सभी दलित और पिछड़े एकमुश्त होकर बसपा को जीताने के लिए एक हो जाते? संभवतः ऐसा दावा कोई भी नहीं कर सकता।
उत्तर प्रदेश का चुनाव देश का सबसे बड़ा चुनाव होता है। उत्तर प्रदेश की राजनीति पूरे भारत की राजनीतिक तस्वीर तय करती है। ऐसे में हर पार्टी विधानसभा चुनाव जीतने के लिए पूरा दम लगा रही है। ऐसे में अगर बहुजन समाज पार्टी अपनी राजनीतिक बिसात नहीं बिछाएगी तो निश्चित तौर पर पीछे रह जाएगी। और ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण समाज बसपा के टिकट पर चुनाव नहीं जीतता है। विधानसभा चुनाव के दौरान बहुजन समाज पार्टी अपने सर्वसमाज के फार्मूले पर चलते हुए हर जाति, धर्म और वर्ग को चुनावी मैदान में उतारती है। ब्राह्मण समाज भी इसमें से एक है। बसपा के टिकट पर 2007 में 41 ब्राह्मण विधायक जीत कर आए थे, आखिर इस तथ्य को कोई कैसे नजरअंदाज कर सकता है। राजनीति संभावनाओं का खेल है और अगर बसपा 23 प्रतिशत दलित वोट और 13 प्रतिशत ब्राह्मण वोट को एक करने की संभावना के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी करने की राह तलाश रही है तो यह उसका हक है। और चुनावी नतीजों से पहले इस फैसले को गलत कह देना ज्यादती होग।
मेडिकल की इंट्रेंस परीक्षा NEET में आरक्षण की मांग कर रहे ओबीसी समाज को बड़ी कामयाबी मिली है। पिछड़ी जातियों के भारी विरोध और सोशल मीडिया पर चली मुहिम के बाद आखिरकार मोदी सरकार झुक गई है और पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने का आदेश जारी कर दिया है। इसके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग यानी EWS के लिए भी दस प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा हुई है। इस आदेश के बाद पांच हजार से ज्यादा ओबीसी छात्र आरक्षण का लाभ लेकर हर साल डॉक्टर बन सकेंगे।
नए आदेश के मुताबिक अंडर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल, डेंटल कोर्स (एमबीबीएस, एमडी, एमएस डिप्लोमा, बीडीएस, एमडीएस) के लिए ओबीसी को सत्ताईस प्रतिशत और ईडब्लयूएस कोटे वाले को दस फीसदी आरक्षण मिलेगा। इसका फायदा ऑल इंडिया कोटा स्कीम (AIQ) के तहत मिलेगा। आरक्षण का यह लाभ अभ्यर्थियों को वर्तमान 2021-22 सत्र से मिलेगा। इस घोषणा के बाद हर साल ओबीसीसमाज के 1500 छात्रों को MBBS में 2500 ओबीसी छात्रों को पोस्ट ग्रेजुएशन में फायदा मिलेगा।सरकारी मेडिकल कॉलेजों की कुल सीटों में से अंडर ग्रेजुएट की पंद्रह प्रतिशत और पोस्ट ग्रेजुएट की पचास प्रतिशत सीटें ऑल इंडिया कोटा में आती है।
NEET की ऑल इंडिया कोटा सीटों पर इसी साल से OBC आरक्षण लागू। हर साल हज़ारों डॉक्टर बनेंगे। शुक्रिया अदा कीजिए इनका। pic.twitter.com/zSJUPvaC6M
दरअसल सरकार को यह फैसला मजबूरी और दबाव में लेना पड़ा है। एनईईटी में ओबीसी को आरक्षण दिये जाने की मांग को लेकर ओबीसी समाज ने मोर्चा खोल दिया था। सोशल मीडिया पर पिछड़े समाज के तमाम चिंतकों और बुद्धिजीवियों ने मुहिम चला रखी थी। दलित समाज ने भी इस मुहिम को अपना समर्थन दिया था। बहुजनों की इस एकता से मोदी सरकार दलित-पिछड़ा विरोधी छवि और मजबूत होने लगी थी।ओबीसी समाज के लोग मोदी सरकार में शामिल अपने समाज के मंत्रियों के खिलाफ भी हमलावर थे। यही वजह रही कि एनडीए के अन्य पिछड़ा वर्ग के सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने बुधवार को प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर अखिल भारतीय चिकित्सा शिक्षा कोटे में ओबीसी और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारो के लिए आरक्षम लागू करने की मांग की थी, जिसके बाद सरकार ने इसको हरी झंडी दे दी है।
हालांकि आज भले ही मोदी सरकार एनईईटी में पिछड़े वर्ग को आरक्षण देकर अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन पिछले चार साल में 11 हजार ओबीसी की मेडिकल सीटों को आरक्षण नहीं होने की वजह से नुकसान हुआ है। माना जा रहा है कि अगले साल उत्तर प्रदेश के चुनाव में विपक्षी दल इसे मुद्दा बनाने के लिए तैयार थे, इसी वजह से मोदी सरकार को यह फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।