मायावती का चरित्रहनन और राजनीतिक पतन का मर्सिया

भारत के 20 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती को भारतीय जनता पार्टी का एक वरिष्ठ नेता सार्वजनिक तौर पर जिस घिनौनी भाषा का इस्तेमाल करता है. आखिर इस बयान की जद में क्या है यह जानने की गुंजाइश इसलिये बनती है कि मायावती इस आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में बिना किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के, इतना बड़ा राजनीतिक मुकाम बनाने वाली दलित ही नहीं, समूचे सबल्टर्न समाज की शायद अकेली कद्दावर महिला शख्सियत हैं. वैसे भारत की राजनीति में अभी तक की सबसे बड़ी हैसियत बनाने वाली एकमात्र महिला जो प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँची वो इंदिरा गाँधी थीं. इंदिराजी को महात्मा गाँधी की गोद में खेलने का अवसर मिला था और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे. 1971 में बांग्लादेश युद्ध जीतने के बाद तो इंदिरा गाँधी की नेतृत्व क्षमता से प्रभावित होकर बीजेपी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें  दुर्गा या दुर्गावतार घोषित किया था. इंदिरा कभी दुर्गा थी तो बहुजन नायक महिषासुर के लोकप्रसंग में दुर्गा भी उसी श्रेणी में आती हैं जैसे मायावती को कहा गया. मायावती के संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि वो भारतीय लोकतंत्र में बहुजन जमात की एक प्रतिनिधि राजनीतिक नायिका हैं. इस बयान का मनोविज्ञान यह बतलाता है कि ऐसा बोलने वाला शख्स पुरूषवादी मानसिकता से ग्रस्त तो है ही जातिवादी भी है और एक औरत को भोग की वस्तु समझता है. हालांकि यह भी सच है कि वेश्यावृति के लोकप्रचलित पेशे को सत्ता-व्यवस्था से जुड़े सफेदपोश लोगों ने संरक्षण देकर स्थापित किया और जिन लोगों ने समाज में नैतिकता की ठेकेदारी की उन्होंने अपनी अय्याशी के लिये देवों के नाम पर यौन कुंठा को तृप्त करने के लिये देवदासी प्रथा को भी स्थापित किया. देवदासी प्रथा की भुक्तभोगी तमाम महिलायें वंचित समाज से आती थी. इस प्रथा को पूरी तरह खत्म करने और इसके अभिशप्त लोगों की सामाजिक बहिष्करण/तकलीफ से मुक्ति की कोशिश आज तक जारी है. वहीं सफेदपोशों के द्वारा पोषित वेश्यावृति में देशभर के कमजोर तबके की लड़कियों को ढकेलने के लिये मानव तस्करी तमाम कानूनों के बावजूद जारी है. हर जगह के रेड लाइट इलाकों में सही- गलत धंधे पुलिस- प्रशासन के सहयोग से ही चलता है तो बड़े अय्याश लोगों के लिये एक सप्लाई-चेन मैनेजमेंट की तर्ज पर लड़कियों की सप्लाई शहरों में संगठित गिरोह का रूप ले चुकी है. इस सबमें बहुजन पीड़ित, शोषित, मजबूर या भुक्तभोगी की ही भूमिका में है और इसके उपभोग करने वाले सरगना मुख्यत: सवर्ण, संभ्रांत, सामंती चरित्र वाले लोग ही हैं. ऐसे में मायावती के खिलाफ बयान के पीछे वेश्यावृति के बदनाम पेशे का स्याह सच बकौल एक सवर्ण सामने आता है जो दलितों-आदिवासी-पिछड़ों यानि समस्त बहुजनों को वेश्या घोषित करने पर आमादा है. दलित होने के कारण वर्ण व्यवस्था में मायावती सबसे नीचले पायदान पर हैं तो लिहाजा वो संघ- बीजेपी की राजनीतिक रणनीति में चरित्रहनन के लिये एक सॉफ्ट टारगेट बनाई गईं. ये बातें आजाद भारत की हैं लेकिन आजादी के पहले के कालखंड का रूख करें तो दिलचस्प ये है कि वर्ण व्यवस्था में उपर के लोगों ने समाज में अपने वर्चस्ववादी- यथास्थितिवादी रूतबे को कायम करने के लिये कालांतर में जाति ही नहीं धर्म तक देखे बिना हर तरह के गठजोड़ बनाने से लेकर राजघरानों में बेटी- रोटी के संबंध स्थापित कर सत्ता में भागीदारी भी सुनिश्चित की. वो हर व्यवस्था जो आज 85% बहुजन समाज पर जबरन थोपा जा रहा है, जिसे वंचित- शोषित समाज कईबार मजबूरी में स्वीकार करने को भी बाध्य है उसे सवर्णों ने सत्ता में भागीदारी के लिये जागरूक व शौकिया तौर पर अपना रखा था. दयाशंकर के इस पूरे बयान में दलित विरोधी मानसिकता से मायावती को अपमानित करने की नीति है और चरित्रहनन की खतरनाक गंदी साजिश भी है. इस पूरे विमर्श में महिला है, राजनीतिक महिला का चरित्र है, जाति- समाज है, राजनीति है और यौन कुंठायुक्त सेक्स आधारित विमर्श भी शामिल है जिसे समझना बहुत जरूरी है. इसी संदर्भ में भारत की राजनीति में कई अदभुत प्रयोग के सफल- असफल होने उदाहरण मिलते हैं. तमिलनाडू में जनता तो ऐसी है कि एमoजीoरामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन के विस्मृत होते जाने के बीच उनकी ऑन-स्क्रीन प्रेमिका जयललिता पांचवी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाती हैं. लेकिन वही जनता एनoटीoरामाराव की पत्नी व बेटे को खारिज कर देती है और बगावती दामाद चंद्रबाबू नायडू को मुख्यमंत्री पद पर दुबारा बिठाती है. पश्चिम बंगाल के भद्रलोक में सामाजिक संरचना पर भारी बौद्धिक-वैचारिक द्वंद्व के बीच पार्टियों से परे सवर्ण नेताओं का राजनीतिक शीर्ष पर पक्ष-विपक्ष में छाये रहने की कलाबाजी गजब दिलचस्प है. विधान चंद्र राय, सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कांग्रेसी के बाद घोर वामपंथी ज्योति बसु, बुद्धदेव भट्टाचार्य और अब तृणमूल पार्टी की दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी ममता बनर्जी का फर्क दलों के दलदल व विचार से परे सत्ता के कॉमन सवर्ण सामाजिक पृष्ठभूमि की बुनियाद पर समझना कोई बड़ी बात नहीं है. आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया की कौन सी बड़ी खासियत उन्हें अपने राज्य व पार्टी में कद्दावर बनाकर मुख्यमंत्री के ओहदे पर शुमार करती है. शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति में पुराने विरासत के बूते ही टपककर एक कद्दावर मुख्यमंत्री के रूप में शुमार हुई. लेकिन इन तमाम सर्वगुणसम्पन्न एवं सर्वमान्य नामों के बीच मंडलवादी लालू यादव के राजनीतिक संक्रमण काल में उनकी पत्नी राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनने की घटना पर चुटकुले पेश कर आज भी सवर्ण समाज अपनी कुंठा तृप्त करता है. इस कुंठा की हद तो ये हैं कि एक दौर में टेलीविजन के एक प्रोमों में लालू- राबड़ी का नाम क्रमश: पुरूष-स्त्री शौचालय के दरवाजे पर लिखकर दिखाया जाता था. सवाल उठता है कि इस तरह के प्रतिबिंबन के पीछे क्या सिर्फ सवर्ण समाज के भाषा-ज्ञान-बुद्धि की श्रेष्ठता ही है या वर्ण व्यवस्था में श्रेष्ठता पर आधारित जातिवाद की मानसिकता है? मीरा कुमार कांग्रेस की सुर्खियों में हमेशा इसलिए बनी रहती हैं कि वो एक वक्त में कांग्रेस के लिये गले की हड्डी बने दिवंगत जगजीवन राम की बेटी हैं और उनकी पार्टी नाम, विरासत, चेहरे को भंजाना बखूबी जानती है. लेकिन कांग्रेस यह भी जानती है कि ओबीसी सीताराम केसरी को क्यों और कैसे निपटाया जाता है. जाहिर है ये दोनों अगर दलित- पिछड़े नहीं होते तो शायद देश के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे. वैसे ही बीजेपी जानती है कि गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे को कैसे निपटाना है और तेलगी मामले से बच गये छगन भुजबल को महाराष्ट्र सदन में बहुजन नेताओं की मूर्ति स्थापित करने की सजा कैसे देनी है? इन सबके पीछे जाति है जो तमाम सवालों के बीच जाती नहीं बल्कि सभी बातों में मूल रूप से समाई हुई है. एक दौर रहा है जब राजनीति में ट्रेनिंग और ग्रूमिंग का एक कल्चर हुआ करता था. इसके तहत लोहिया, जेपी, कर्पूरी जैसे तमाम नेताओं के सानिध्य में रहकर स्त्री- पुरूष नेताओं की एक बड़ी फौज राजनीति का ककहारा सीखकर लोकसभा-विधानसभा की शोभा बढ़ाते रहे हैं. मायावती के खिलाफ दिये गये बयान के नजरिये से महिला राजनीतिकों की बात करें तो सुषमा स्वराज 70 के दशक में हरियाणा में सबसे कम उम्र की कैबिनेट मिनिस्टर बनीं जिन्हें प्रारंभिक तौर पर देवीलाल, चंद्रशेखर जैसे लोगों ने आगे बढ़ाया. अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का संरक्षण प्राप्त अनेकों महिलाओं ने राजनीति में काफी अच्छा नाम कमाया है जिनमें लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन जैसी कद्दावर नेता शामिल हैं. बीजेपी में आज की वरिष्ठ महिला नेता स्मृति इरानी को आगे बढ़ाने में प्रमोद महाजन और नरेन्द्र भाई मोदी का नाम लिया जाता है. कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू, नारायण दत्त तिवारी, राजीव गाँधी ने भी अनगिनत महिलाओं को सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया जिसकी एक लम्बी फेहरिश्त है. जाहिर है कि इन महिलाओं की अपनी क्षमता भी इनकी राजनीतिक सफलता में शामिल रही है. अब इस सूची में जितना चाहें नाम जोर सकते हैं कि किस नेता ने किस महिला को संरक्षण  या सहयोग देकर राजनीति में आगे बढ़ाया लेकिन कभी भी किसी के चरित्र पर किसी पार्टी संगठन के नेता ने सार्वजनिक तौर पर सवाल नहीं उठाया है. यही नहीं मिडिया भी अपने जातिवादी चरित्र के बावजूद इस मामले में अबतक काफी संवेदनशील रूख अपनाती रही है. लेकिन हाल के दिनों में पक्ष- विपक्ष की राजनीति में एक- दूसरे का सम्मान करना तो दूर छीछालेदर और चरित्रहनन करने को हथियार समझा जाने लगा है. इंदिरा गाँधी की हत्या जिस साल हुई थी उसी साल कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी थी. बहुजनवादी विचार, सशक्त संगठन व सामाजिक संघर्ष की बुनियाद पर राजनीति की नींव कांशीराम जी ने रखी. उस संघर्ष में उन्होंने मायावती को तब से जोड़ रखा था जब किसी के लिये ऐसा सोचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था कि बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय पार्टी तो दूर कभी राज्य स्तर की पार्टी भी बनेगी. इस लिहाज से कांशीराम जी की दूरदर्शिता का अंदाजा लगाना मुश्किल है जिसने मायावती को पार्टी का चेहरा बनाया जो इस मुकाम तक पहुँची. इस संघर्ष से निकली राजनीति के दौर में कांशीराम के सक्रिय न रहने के बाद तो मायावती भी बहुत बदल चुकी थी. बीएसपी की राजनीति को सफल बनाने के लिये मायावती ने सवर्णों से समझौते का रास्ता अपनाया जो कांशीराम की नीति और रणनीति कभी नहीं रही थी. ये मंडल के बाद की राजनीति का दौर था जब एक पत्रकार आशुतोष ने मायावती- कांशीराम पर अभद्र, अमर्यादित, अश्लील टिप्पणी की जिसके लिये आशुतोष को कांशीराम ने जोड़दार थप्पड़ जड़ा था. उस थप्पड़ की गूँज अब मद्धिम पर गई है लेकिन मीडिया के सवर्णों की अकड़ आज भी कायम है. उधर थप्पड़ खाने वाला पत्रकार खुद नेता बनने चल पड़ा है. आशुतोष जेएनयू में मंडल के उतरार्ध काल में मंडल समर्थक समारोह के दौरान शरद यादव की धोती खींचने, दलित- पिछड़ा आरक्षण विरोधी जातिवादी नारे लगाने और शरद यादव की गाड़ी पर पत्थर मारने की घटनाओं में भी लिप्त रहा था. अब यूथ फॉर इक्वालिटी के आरक्षण विरोधी नायक अरविंद केजरीवाल के साथ आशुतोष का राजनीतिक गठजोड़ करना ये सारी बातें यही साबित करती हैं की पत्रकार के ज्ञान और वैचारिक मुखौटे से परे उसकी जाति देखना भी अब उतना ही महत्वपूर्ण है. यही नहीं आशुतोष चांदनी चौक से चुनाव लड़ने जाता है तो वोट के लिये सवर्ण बनिया होने का प्रचार करने के लिये जाति गुप्ता के टाइटल वाले पोस्टर चिपकवाता है. ये सारी बातें शहरी, संभ्रात, शिक्षित और मॉडरेट, मॉडेस्ट, सोफेस्टिकेटेड, प्रोग्रेसिव चेहरों के भीतर सत्तातंत्रों में छिपे सवर्ण जातिवादी भेंड़ियों की पहचान के लिये भी जानना जरूरी है. मायावती को लेकर किसी दयाशंकर की टिप्पणी के सिर्फ पुरूषवादी होने की बात कहकर मामले को खत्म कर देना भी ठीक नहीं. उत्तर प्रदेश कांग्रेस की महिला नेता रीता बहुगुणा जोशी ने एक बलात्कार की घटना के बाद टिप्पणी करते हुये एक बार मायावती के भी बलात्कार होने पर ही एक पीड़ित की पीड़ा को महसूस करने की बात कही थी. यही नहीं रीता जोशी ने मायावती की स्थापित मूर्तियों को लेकर कह डाला था कि- मायावती पाँच करोड़ में अपनी एक मूर्ति बनवाती हैं और वह भी काली. उसमें भी पता नहीं चलता कि नाक कहाँ है और कान कहाँ? ये टिप्पणी रंगभेदी, नस्लवादी, जातिवादी श्रेणी में आती है लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ शायद ही कभी बनी हों. इन तमाम मामलों में जाहिर है कि मायावती के महिला या राजनीतिक होने से ज्यादा ये बयान जाति संदर्भ में थे. क्या आप भारत के लोकतंत्र में सोच सकते हैं कि राज्य व देश के सदन में भी दलित- आदिवासी- पिछड़ों के खिलाफ सामाजिक मनोवैज्ञानिक भेदभाव होता होगा जिसमें महिलायें स्वाभाविक तौर पर ज्यादा भुक्तभोगी होंगी. फूलन देवी (उत्तर प्रदेश) और भगवतिया देवी (बिहार) ने लोकसभा में अपने अनुभव के बारे में एकबार नीजी संवाद के दौरान कमोबेश एक ही तरह की बातें शेयर की थी-पुरूषों को कौन पूछे कई महिला सांसद नाक- भौं सिकोड़ते हुये, मुँह बिचका कर बचते हुये निकलती हैं जैसे उन्हें बदबू या घिन आ रही हो. बगल में बैठना हो तो कन्नी काट जाती हैं, दूर से निकल जाती हैं. संसद में भी पुरूष और महिला लोग पार्टी से भी ज्यादा जाति- समाज देखकर खुलती हैं और भेंट- बात करती हैं. एक ओबीसी महिला सांसद का हाल ही में कहना है कि- स्पीकर चेयर पर जब वो (एक महिला) होती हैं तो दलित- ओबीसी के सवाल उठाने पर बहुत इंटरप्शन करती है और जानबूझकर मुद्दा देखकर बोलने ही नहीं देना चाहती हैं. कई बार तो भ्रम होता है कि मेरे चेहरे से इसको चिढ़ या मुझसे कोई नफरत तो नहीं. जाहिर है कि सभी औरतें एक नहीं हैं और वे भी दलित-आदिवासी-ओबीसी-पसमांदा समाज और उनकी जातियों में बँटी हुई हैं. सवर्ण महिलाओं और पुरूषों के राजनीतिक एजेंडे एक होते हैं जो उनके अपने सामाजिक-राजनीतिक व जातीय हित से जुड़ी होती हैं. जहाँ तक आधी आबादी का सवाल है तो सभी सामाजिक वर्ग- समूहों के भीतर ही उनके हक-हकूक-सम्मान के सवाल हल होते ज्यादा आसानी से दिखते हैं और महिला के तौर पर भी उन्हें पहली सामाजिक-राजनीतिक स्वीकृति अपने जाति-समाज के समूहों के भीतर ही मिलती दिखती है. 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद दलितों को मनोवैज्ञानिक तौर पर लुभाने के लिये संविधान दिवस और अम्बेडकर शताब्दी जैसे कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया जा रहा है. लेकिन इन प्रतिकात्मक हवाबाजी के बीच रोहित वेमुला की घटना, बीजेपी शासित राज्यों में दलित उत्पीड़न, गाय के नाम पर पहले मुसलमान और अब दलितों को निशाना बनाना, दलित- पिछड़ों के आरक्षण को खत्म व खारिज किये जाने की कोशिशे भी तेज हैं. बीजेपी- संघ के नेताओं के हिन्दूवादी- जातिवादी बयान सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं दलित-पिछड़ों के आरक्षण को निशाना बनाये जाने का सबूत पेश करता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार चुनाव के वक्त लालू यादव की बेटी मीसा भारती का मिमिक्री करते हुये बेचारी कहकर उपहास किया था तो उसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था. इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव की पृष्ठभूमि जब तैयार हो रही है तो संघ- बीजेपी अपने जातिवादी गोलबंदी के पत्ते अभी से खोलने लग गई है. बीजेपी की एक वरिष्ठ महिला नेता मधु मिश्रा ने संविधान-दलितों-आरक्षण के खिलाफ जातिवादी बयान देते हुये कहा कि- संविधान के कारण ब्राह्मणों की यह स्थिति हो गई है जो कभी जूते सीलते थे वो राज चलाने लगे हैं. गुजरात में हार्दिक पटेल से किसी तरह छुटकारा पाने की जुगत में लगी बीजेपी का गाय और दलितों को लेकर बवाल में फँसना–इनसे मुक्ति का मार्ग तलाशने के लिये इसबार दयाशंकर ही मोहरा बना है. ठीक उसी तरह जैसे कि रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या और एचसीयू में हो रहे बवाल से मुक्ति के लिये कन्हैया और जेएनयू एक मुक्ति का मार्ग बना था. अब यूपी बीजेपी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष दयाशंकर का बयान साबित करता है कि ये अकारण नहीं है बीजेपी की रणनीति का ही अंग है. उत्तर प्रदेश की चुनावी जंग में मायावती पर अश्लील टिप्पणी के बाद दयाशंकर से पहले पल्ला झाड़ लेना लेकिन फिर उसके परिवार के सम्मान का मुद्दा बनाकर बीजेपी अब यूपी की राजनीति में दलितों को अपमानित कर सवर्णों को अपने पाले में गोलबंद करने की कोशिश कर रही है. देशभर की सवर्ण मीडिया भी बीजेपी के मुहिम में मायावती के खिलाफ ज्यादा सक्रीय और दयाशंकर के परिवार के प्रति किसी भी हद तक जाकर- गिरकर सहानुभूति का माहौल तैयार करती दिखाई दे रही है. लेकिन इसी बीच लोकतंत्र के सभी स्तंभ तथ्यपरक विश्लेषण से दूर होते जा रहे हैं और हर सत्ताकेन्द्र सामाजिक संरचना के हिसाब से अपना पक्ष- विपक्ष- रूख तय कर रहे हैं. इसी कड़ी में रायपुर का नवभारत अखबार की हेडिंग माया का चरित्र वेश्या से बदतर भारतीय मीडिया के घोर सवर्णवादी सामाजिक चरित्र को बेहतरीन तरीके से उजागर करता दिखता है. मायावती दलित हैं और बहुजनवादी लोग मीडिया में नहीं हैं तो उसके लोग सड़कों पर उतर कर विरोध दर्ज करा रहे हैं या फिर अल्टरनेटिव सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं. वहीं संघ-बीजेपी और सवर्ण मीडिया मिलकर देश की राजनीति को अपने पाले और मुट्ठी में करने के लिये मर्यादा- नीति- नैतिकता को ताक पर रखकर दोजख बनाने पर तुल गया हैं. संघ-बीजेपी की मुसलमानों से अदावत तो जगजाहिर है लेकिन दलित, आदिवासी इनके नंबर एक निशाने पर है फिर ओबीसी को भी ये व्यवस्था के बाहर हाशिये पर ढकेलने व निपटाने में जोर- शोर से लग गये है. बहुजन समाज पार्टी के लोग जो अपनी नेता के सम्मान मे कर रहे हैं उस पर नैतिकता का प्रवचन बाँच रहे लोगों को याद कर लेना चाहिये कि ये सब स्वाभाविक प्रतिक्रिया के ही तौर पर है जिसकी दुहाई नरेंद्र मोदी, संघ-बीजेपी के लोग गुजरात दंगों के समर्थन में आजतक देते है. देशभर में जो भी इस वक्त हो रहा है इन सबका सूत्रधार संघ-बीजेपी है. अगर दयाशंकर की बहन- बेटी की इज्जत है तो बहन मायावती की भी इज्जत है और सम्मान तो सभी महिलाओं का बराबर होना चाहिये. लेकिन सवाल महिलाओं का नहीं जाति का है. अगर महिला का सवाल जाति से बड़ा होता तो दयाशंकर की माँ व पत्नी मायावती के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर अपने पति और बेटे के समर्थन में चुप्पी नहीं साधती. साथ ही दयाशंकर की बेटी को आगे करके उसके सम्मान का सवाल उठाते हुये मामले को इमोशनल टर्न दिलाने की कोशिश नहीं की जा रही होती. फिर एक माँ-पत्नी-बेटी को सामने खड़ा करके दयाशंकर के बहाने उच्च जाति को गोलबंद करने की मेगा इवेंट मैनेजमेंट पर आधारित रणनीति बीजेपी- संघ और सवर्ण मिडिया खुल्लमखुल्ला नहीं करती. मायावती और बीएसपी कार्यकर्ताओं के आक्रमक तेवर से सवर्ण समाज काफी बेचैन दिखाई दे रहा हैं लेकिन काश देशभर में दलित-आदिवासी- पिछड़े बहुजनों के बलात्कार, हत्या, शोषण, अत्याचार पर देश का पूरा सवर्ण समाज अपने बलात्कारी भाइयों के खिलाफ ऐसे ही खड़ा हो पाता. सत्ता, संसाधनों, तंत्रों, व्यवस्था पर ठेकेदारी अबतक सिर्फ उच्च जाति की रही है और वर्ण-जाति व्यवस्था पर आधारित समाज में सारी कुव्यवस्था का  जनक-पोषक सिर्फ देश का मनुवादी- ब्राह्मणवादी तबका रहा है जिसमें बहुजन सिर्फ भुक्तभोगी है. यही कारण है कि समस्त बहुजन समूहों (दलित-आदिवासी-पिछड़ा-पसमांदा) के लिये सभी संसाधनों और सत्ताकेन्द्रों के सभी स्तरों पर सामाजिक न्याय, बराबरी, भागीदारी का सवाल सबसे अहम और अव्वल है. फिलहाल राजनीति में विचार- चरित्र- नैतिकता को तार- तार कर देने वाले इन बयानों के बीच दलित बीएसपी के पक्ष में गोलबंद हो रहा है तो शीला दीक्षित को आगे करने की रणनीति से ब्राह्मणों को कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होता देख बीजेपी सवर्णों को येन- केन- प्रकारेण एकजुट करने में लगी है. वहीं अखिलेश अपने परिवार के दुर्गम- दुरूह राजनीतिक किले को बचाने की जुगत में लगे हैं. निखिल आनंद एक सबल्टर्न पत्रकार हैं. इनसे nikhil.anand20@gmail.com और 09939822007 पर संपर्क किया जा सकता है.

चमड़ी उतारना छोड़े दलित

डॉक्टर अम्बेडकर कहते थे यदि कोई काम आपको अछूत बनाता है तो उस काम को तुरन्त छोड़ दीजिये. साफ़ सुथरे रहिये और गंदगी वाला काम मत कीजिये. मैं समझता हूँ जिस तरह दलितों ने गुजरात में मरी हुई गाय को फेंककर विरोध किया है, उसके बाद इन्हें कभी भी मरी हुई गाय की चमड़ी उतारने जैसा काम नहीं करना चाहिए. क्यों सारे गन्दगी वाले काम दलित ही करें?? गंदे नालों के सीवेज में जाकर सफाई करना, लोगों का मैला ढोना और मरे हुए पशुओं की चमड़ी उतारने जैसा काम सिर्फ दलितों के हिस्से ही क्यों आये?? दूध देती गाय ब्राह्मणवादियों की और मरी हुई बदबूदार गाय दलितों की क्यों ?? कितना कठिन और दमघोटू होता होगा मरे हुए जानवर की चमड़ी उतारना और वो भी बिना मास्क और दस्तानों के?? ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा जूठन में लिखा है कि जब उनके चाचा ने उन्हें मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए मदद करने को कहा तो कैसे बदबू के कारण उनका दम निकला जा रहा था और जब वो अपने सिर पर खाल लेकर जा रहे थे तो उन्हें डर लग रहा था कि कहीं उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे उनको देख ना ले, वरना वो उनका मजाक उड़ाएंगे. क्या बीती होगी उस वक़्त एक बच्चे पर ?? डॉक्टर तुलसीराम ने भी अपनी आत्मकथा मुर्दहिया में लिखा है कि कैसे चमड़ी उतारने वालों को दूसरी जाति वाले डांगर खाना यानी पशु को खाने वाला बुलाते थे. इसलिये मुझे लगता है यदि सम्भव हो तो दलित समुदाय को इन कामों नहीं करना चाहिए. डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी किताब शुद्र कौन थे और वो अछूत कैसे बने? में लिखा है कि ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है. ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं कि उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था. यानी जो ब्राह्मणवादी ना सिर्फ मांस बल्कि गौ-मांस खाकर विकसित हुए वो आज गौ-रक्षा के नाम पर मरी हुई गाय की चमड़ी उतार रहे दलितों पर अमानवीय अत्याचार करते हैं. दोगले कहीं के! इतिहास गवाह है, हिन्दू धर्म ने वैसे भी शूद्रों को कभी अपना हिस्सा नहीं माना था, सब जानते हैं अंग्रेजी शासनकाल में कैसे मुस्लिम लीग के खिलाफ अपना संख्याबल बढ़ाने और अलग चुनाव क्षेत्र की मांग को ठंडा करने के लिए ही ब्राह्मणवादियों ने शूद्रों को हिन्दू होने का दर्जा दिया था. गुजराती दलितों ने सही कहा है… आओ करो अपनी माँ का अंतिम संस्कार।  तुम्हारी माँ है तो अंतिम संस्कार भी तुम्हीं करो और चमड़ी भी तुम्हीं रखो. मनुवादियों ने शूद्रों को जानबूझकर ऐसे गंदे और घृणित काम करने के लिए मजबूर किया ताकि समाज में उन्हें हीन भावना से देखा जाये और उनका सामाजिक बहिष्कार करना आसान हो जाये. चमड़ी उतारने जैसा काम असल में उसी मनुवादी गुलामी की निशानी है जिसने सैकड़ों सालों से शूद्रों को नरकीय जीवन जीने के लिए मजबूर किया. आज जरूरत है इस गुलामी की निशानी से भी दलित खुद को आजाद करें.  मैं जानता हूं लाखों दलितों का पेट इस काम से भरता है. लेकिन अगर आप इसे नहीं छोड़ेंगे तो आने वाली नस्ल भी इससे बाहर नहीं निकल पाएगी. बाबा साहेब के अनुयायियों स्वाभिमान से रहो और सम्मानजनक काम करो. लेखक पत्रकार है

चौराहे पर आ रहे हैं चमरौटी के लोग- डा. विवेक कुमार

आपका जन्म किस शहर में हुआ, पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई ? – जन्म लखनऊ में हुआ, शहर में. वहीं छोटे स्कूल में पढ़ाई शुरू की. शाहनगर रोड पर मिला-जिला स्कूल था. बहन वहीं जाती थी. पांच साल बाद पिताजी का ट्रांसफर बिजनौर के अफजलगढ़ में हो गया. तीन साल वहां टाट की पट्टियों पर बैठकर पढ़ाई की. सेठे का कलम, खड़िया वाली रोशनाई से पढ़ना शुरू किया. एक टीचर थी, निर्मला मिश्रा. वो बहुत मारती थीं. क्यों मारती थी, पता नहीं. आस-पास के बच्चे भी जाति जानते थे, सो उसी तरह का व्यवहार हुआ. पिताजी ने देखा की बहुत ज्यादती हो रही है तो फिर लखनऊ भेज दिया. यहां बीए तक पढ़ा. फिर एमए में जेएनयू आ गए. एमफिल, पीएचडी की. एक साल तक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस में पढ़ाया. बीच में सरकारी नौकरी कर ली. यूपी सरकार की प्रशासनिक सुधार में शोध अधिकारी था. नौकरी यूपीएससी से मिली थी. मन नहीं लगा तो नौकरी से रिजाइन करके फिर से जेएनयू आ गया. रिजाइन करने की वजह क्या थी? – क्योंकि जेएनयू से पीएचडी था और मन बड़ा व्यथित रहता था. सरकारी नौकरी में माहौल बड़ा अजीब था. ज्ञान की कोई खपत नहीं थी. काम के नाम पर केवल फाइल आगे बढ़ानी थी. तब नौकरी मजबूरी थी, क्योंकि पिताजी रिटायर होने के बाद डिप्रेशन में थे. मैं बड़ा लड़का था तो जिम्मेदारी निभाने के लिए नौकरी करनी पड़ी. लेकिन एक ललक थी कि पीएचडी जरूर करूंगा. दलित चिंतन की ओर कब रुख किया? – इसमें जेएनयू ने बहुत बड़ा रोल प्ले किया. जब यहां पहुंचे तो पता चला कि किसी दिशा में नहीं सोच पा रहे हैं. दलितों के प्रति रुझान बहुत था लेकिन एक दलित चिंतक के तौर पर सोचूंगा, इसका पता नहीं था. लेकिन जेएनयू आने के बाद यहां का जो माहौल मिला, उसमें सरोकार नजर आने लगे. तब मंडल कमिशन के कारण रेखाएं साफ खिंच गई थी कि कौन किस पाले में है. हमलोगों को कोई संरक्षण नहीं था. तब एमए में था. उसी दौरान बाबा साहेब के लेखन से साक्षात्कार हुआ. उनके वाल्यूम आने लगे थे. गौतम बुक स्टॉल वाले तब अपने कंधे पर किताब पहुंचाने आते थे. मैं उनकी इज्जत इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने तब बाबा साहेब के साहित्य को लोगों तक पहुंचाया था. थोड़ा रुक कर जोड़ते हैं… (हालांकि आज बड़े धनाढ़्य हो गए हैं और सबको गलियाते हैं.) तो.. वहां से लेखन शुरू हुआ. फिर एमफिल करने के दौरान गुरु श्री नंदू राम जी के संपर्क में आने से पढ़ने-लिखने का माहौल बना. अखबारों में लेख लिखने लगा. लोगों से मिलना-जुलना, बातें करनी शुरू की. इस तरह से शुरुआत हुई. आपने जब दलित मुद्दों पर लिखना-सोचना शुरू किया, तब से अब तक 20 साल हो गए हैं. यह सफर आज कहां तक पहुंचा है? – देखिए, शुरुआत मैने एक छोटे से प्रश्न से की थी. मैने देखा था कि आंदोलन में लीडरशिप निर्णायक भूमिका अदा करता है. इसके लिए मैने दलित लीडरशिप का अध्ययन किया कि यह कैसे दलितों के उत्थान और पतन के लिए उत्तरदायी है. यहां देखा कि लीडरशिप में क्राइसेस (संकट) है. बाबा साहब को पढ़ने से लीडरशिप की क्राइसेस नजर आने लगी. बाबा साहब का वह कथन बार-बार उद्वेलित करता था कि ‘बड़ी मुश्किल से मैं कारवां यहां तक लाया हूं, मेरे अनुयायी अगर इसे आगे न ले जा पाएं तो उसे वहीं छोड़ दें, लेकिन किसी हालत में यह पीछे नहीं जाना चाहिए.’ तब मैने लीडरशिप की तीन क्राइसेस चिन्हित की. सबसे पहला अस्मिता का संकट था. दलित समाज की अस्मिता एकबद्ध नहीं हो पा रही थी. दूसरा संकट विचारधारा का था. बहुत भटकाव था. तीसरा संकट गठबंधन का था कि किस तरह गठबंधन करें. उसी वक्त देखा कि मान्यवर कांशीराम का उदय हो रहा होता है. तभी आशा की किरण दिखाई पड़ने लगी और लगा कि लीडरशिप अब सही हाथों में पहुंच गई है. आज के लोकतंत्र में दलित कहां खड़ा है? – अगर जनतंत्र यानि डिमोक्रेसी की बात करें तो मैं इसे उत्तर प्रदेश में लागू होते हुए देखता हूं. वहां पाता हूं कि यूपी में डिमोक्रेसी दलितों के लिए दोधारी तलवार है. एक तरफ जहां वह दलितो को अधिकार देती है, वहीं दूसरी ओर उनके आंदोलन में अवरोध भी खड़े करती है. जैसे बहुजन समाज पार्टी के आंदोलन में बार-बार अवरोध खड़ा किया गया. उसे तोड़ा गया, खरीदा-बेचा गया. पीएचडी करने के दौरान देखा था कि दलित आंदोलन के राजनैतिक पक्ष ने भारतीय जनतंत्र को मजबूत किया है. इतने बड़े विशालकाय समूह, जिसको अधिकारों से वंचित किया गया, उसके अपने आत्मनिर्भर दल बनें और यह भारतीय जनतंत्र में रच-बस गया. आज हम सिर्फ वोट बैंक की राजनीति में नहीं हैं, बल्कि हम अपने लीडर खुद बनने लगे हैं. हम स्वआत्मनिर्भर प्रतिनिधित्व की तरफ बढ़ चुके हैं. आज दलित आंदोलन केवल एकपक्षीय नहीं रह गया है. वह केवल राजनीति या फिर आरक्षण की बात नहीं कर रहा है. उसके सात आयाम दिखाई पड़ने लगे हैं. सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, साहित्य, कर्मचारियों का आंदोलन, दलितों के स्वयंसेवी संगठनों का आंदोलन, दलित महिलाओं का आंदोलन और सातवां अप्रवासी भारतीय आंदोलन. ये सात छटाएं दिखाई देने लगी है. दलित आंदोलन आगे बढ़ा है और यह परिपक्व और मजबूत हुआ है. बीएसपी की राजनीति को आप बहुत पास से देखते रहे हैं. दलित हित में यह अन्य दूसरी पार्टियों से अलग कैसे हैं? – दलित राजनीतिक आंदोलन को सीधे-सीधे दो फाड़ों में बांट कर देखा जा सकता है. एक है निर्भर दलित आंदोलन, और दूसरा है आत्म-निर्भर दलित आंदोलन. निर्भर आंदोलन सवर्ण समाज द्वारा पल्लवति होता है और यह यहां दलित मुख्य पार्टियों के एससी, एसटी सेल में पाएं जाते हैं. जैसे ही सेल की बात आती है, यह साफ हो जाता है कि वह मुख्यधारा में नहीं हैं. उनकी भाषा, विचारधारा सब परतंत्र हो जाती है. वो अपने लिडरों के कहने पर चलते हैं. लिडर कहते हैं- बैठ जाओ तो बैठ जाते हैं, कहते हैं-खड़े हो जाओ, तो खड़े हो जाते हैं. वह निर्भर राजनैतिक दलित आंदोलन है. लेकिन इसके विपरीत एक आत्म निर्भर राजनैतिक आंदोलन है, जिसकी नींव बाबा साहेब ने इंडिपेंडेंटन लेबर पार्टी से डाली. बाद में शिड्यूल कॉस्ट फेडरेशन बनाया और आरपीआई की नींव डाली. इस आंदोलन की विशिष्ट प्रवृति है. इसके लीडर अपने स्वतंत्र एजेंटा और विचारधारा के साथ अपनी पार्टी बनाते हैं और उसमें अपनी भाषा, अपने नारे सब रखते हैं. इस रूप में आप देखेंगे कि स्वप्रतिनिधित्व गणतंत्र की जान होती है. ‘जिसका मुद्दा उसकी लड़ाई, जिसकी लड़ाई-उसकी अगुवाई’ यह जनतंत्र का मूलमंत्र होना चाहिए और यही बाबा साहब चाहते थे. इसका मतलब यह हुआ कि हम भी कानून बना सकते हैं. क्योंकि भारत वर्ष में समाज की चेतना का नितांत अभाव है और यहां के लोग जातीय चेतना से जीते हैं. इसलिए दलितों की चेतना, पिछड़ों की चेतना, अक्लियतों की चेतना स्वयं अपना प्रतिनिधित्व चाहती है. कुछ लोगों का आरोप है कि बसपा पर सवर्णों का कब्जा हो गया है. सरकारी आंकड़ों का जिक्र करें तो कहा जा सकता है कि सबसे अधिक दलित उत्पीड़न यूपी में ही होता है. पिछले दिनों अलीगढ़ में एक इंजीनियर की हत्या हो गई. परिवार के लोग इसमें एक सवर्ण मंत्री का नाम ले रहे हैं, बावजूद इसके मंत्री के ऊपर कार्रवाई नहीं हो रही है. क्या इससे लोगों का विश्वास टूटता नहीं है? – देखिए, नंबरों पर मत जाइये. यहां हमकों अत्याचारों की संख्या को दूसरे तरीके से समझना होगा. इस बारे में सूक्ष्मता से अध्यन करने की जरूरत है. उत्तर प्रदेश कि जनसंख्या 16 करोड़ की है. इसमें दो करोड़ दलित हैं. एक तो जनसंख्या ज्यादा, दूसरी इसमें दलित समाज की संख्या ज्यादा. इसलिए नंबरो के हिसाब से अत्याचारों की संख्या ज्यादा होगी ही. दूसरे राज्यों की बात करें तो वहां कि जनसंख्या इतनी अधिक नहीं है, जिससे उनकी संख्या बढ़ जाए. लेकिन 2010 के आंकड़ों को देखें तो अनुपात के आधार पर सबसे ज्यादा अत्याचार मध्यप्रदेश में हुए हैं. (लेकिन अलीगढ़ जैसी घटना, मैं उनकी बात बीच में काटते हुए पूछता हूं.) विवेक जी कहते हैं ‘ देर सबेर न्याय हुआ है. लोग पकड़े गए हैं. चाहे अंगद यादव हों या फिर द्विवेदी सब पकड़े गए हैं. देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं है.’ जब भी हम बहुजन समाज पार्टी के राज-काज को देखते हैं तो हमें एतिहासिकता भी देखनी चाहिए. भारतीय समाज ढ़ाई हजार वर्ष पुराना है, उसके अंदर जो विकृतियां हैं, वो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी है. लेकिन बसपा सरकार केवल छह वर्ष की है और वह भी अलग-अलग चार-पांच हिस्सों में. तो आप यह चाहते हैं कि जो ढ़ाई हजार वर्ष पुरानी एतिहासिकता है, जिसकी विकृतियां मानसिकता में भर गई हैं, वह पांच वर्ष की सरकार में पूरा हो जाएगा तो यह ज्यादती है. लेकिन हमको व्यक्ति की मंशा दिखेनी चाहिए कि क्या वह दिखाई दे रही है. अंबेडकर ग्राम से लेकर महामाया योजना तक जैसी बातें बताती हैं कि दलित उत्थान की प्रकृति हर योजना में समायोजित है. कोई यह नहीं कह सकता है कि सवर्णों के पक्ष में ज्यादा फैसले हो गए. जो भी फैसले हुए, चाहे वो कांशीराम गरीबी उन्मूलन हो, अंबेडकर ग्राम योजना हो या फिर महामाया योजना सबके सब गरीबों के पक्ष में जाते हैं. आपने बीएसपी के पक्ष में तमाम बातें गिनाई, लेकिन यूपी छोड़कर बसपा अन्य राज्यों में सफल क्यों नहीं हो पाई. यहां तक कि विगत महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बसपा कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाई. – सबसे बड़ी बात है कि आंदोलनों की अपनी एक पृष्ठिभूमि होती है. इसमें अगर हम महाराष्ट्र का उदाहरण ले लें, तो हमें लगता है कि बाबा साहेब के आंदोलन से लोग इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो अन्य नेताओं को जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे. वहां के जो अपने लीडर हैं, लोग उनको भी स्वीकार नहीं करते. यही वजह है कि महाराष्ट्र में अलग-अलग जाति के लोग अलग-अलग जगहों से जाकर राजनीति करते हैं. बाबा साहेब के जो पौत्र हैं प्रकाश आंबेडकर, उनसे लोग अभी भी इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि वो दूसरे नेता की ओर प्रभावित नहीं हो पातें. एक बात और, महाराष्ट्र जैसे जगहों पर चुनाव बहुत तरीके से मैनेज भी किए जाते हैं. लेकिन वह भी कोई बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ पातें? – क्योंकि वहां पर कांग्रेस का अपना आंदोलन है, जो दलित आंदोलन को स्वच्छंद रूप से खड़ा नहीं होने देना चाहते है. रामदास अठावले, योगेंद्र कवाडे, सुशील शिदें जैसे लोग आत्मनिर्भर दलित राजनीति को छोड़कर निर्भर दलित राजनीति की ओर आ रहे हैं. लोग अपने तात्कालिक फायदे को देखने लगते हैं और लौंग टर्म इंट्रेस्ट को नहीं समझते हैं. फिर इन्हें यूजीसी का चेयरमैन बना दिया जाता है या फिर राज्यसभा में भेज दिया जाता है. वहां उभरते हुए दलित लीडर- दलित दिमाग खत्म हो जाते हैं. कांग्रेसी नेताओं में इन्हें ‘कोऑप्ट’ करने की क्षमता होती है. फिर क्या यह मान लिया जाए कि दलित नेताओं में समाज के लिए जूझने की प्रवृति कम हुई है? – राजनेताओं की तो जरूर कम हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं है. लेकिन महाराष्ट्र का जो सामाजिक आंदोलन है वो ज्यादा परिपक्व हुआ है. वहां आज भी छोटे-छोटे बच्चे काम कर रहे हैं. इसलिए सामाजिक आंदोलनों की जड़ें वहां बहुत गहरी हैं, लेकिन राजनीतिक आंदोलन क्षीण हो गया है-बंट गया है, क्योंकि लोग अपने तात्कालिक फायदे के लिए काम करने लगे हैं. क्या यह समाज के समाज धोखा नहीं है? – बहुत बड़ा धोखा है. लेकिन कभी-कभी लोग ऐसा सोचते हैं कि हम अपने जीवन को सुधार लें, बाकि पीढ़ियां चाहे जो सोचे, कोई दिक्कत नहीं है. दलित नेताओं पर यह भी आरोप लगते रहे हैं कि अपने समाज का विश्वास जीतने के बाद वह अपने फायदे के लिए मुख्यधारा की अन्य पार्टियों से इस विश्वास को बेच देते हैं, यह आरोप कितना सही है. – देखिए, हमें दोनों तरफ देखना चाहिए. यह समझना चाहिए कि दलित समाज के अंदर बहुत गुरबत है. अशिक्षा है, गरीबी है. लेकिन हमारा समाज बहुत समझदार भी है. क्योंकि हम मेहनतकश इंसान है, इसलिए वास्तविक राजनीति की समझ नहीं है. लोग भावनावश अपना अधिकार सामने वाले को दे देते हैं, लेकिन ये है कि जैसे-जैसे समाज में पढ़े-लिखे लोग आ रहे हैं, बात अब दूसरी ओर जा रही है. अब जल्दी बेचने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. आज 4-5 आत्मनिर्भर दलित आंदोलन चल रहे हैं. आप देखेंगे कि इतने वर्षों बाद अब रामविलास पासवान अपने आत्मनिर्भर आंदोलन पर आ गए हैं. अब ठीक है कि बाद में वह जोड़ें या घटाएं. इधर लोग जस्टिस पार्टी को भी चलाने का प्रयास कर रहे हैं. तो मेरे कहने का मतलब यह है कि समाज राजनैतिक रूप से परिपक्व होगा. क्योंकि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसे किए बिना नहीं समझा जा सकता. दलित समाज राजनीति से दूर रहा है, तो राजनीति नहीं जानता है. इसलिए जब भी कोई कुठाराधात होता है तो वो समझता है कि उसका नेता खराब है. लेकिन उसे संयम रखना चाहिए. अपने नेता पर भरोसा रखना चाहिए. यह बड़ी बात है. दलित राजनीति के भविष्य को आप कैसे देखते हैं? – आने वाले समय में आत्मनिर्भर दलित आंदोलन और परिपक्व होगा. जब लोगों को यह यकींन होगा कि आत्मनिर्भर दलित आंदोलन से हम बहुत कुछ पा सकते हैं, तो लोग खुद आगे आएंगे. जैसे एक बार महाराष्ट्र में एक यूनिवर्सिटी का नाम बाबा साहेब के नाम पर करने के लिए बहुत आंदोलन हुआ था, कईयों को शहादत देनी पड़ी थी, तो वहीं आज उत्तर प्रदेश में बाबा साहेब के नाम पर कई कॉलेज हैं. आत्मनिर्भरता का यही फायदा है और इसे समझना होगा. दलित राजनीति के संदर्भ में पहले की और वर्तमान की चुनौतियों में क्या अंतर है? – पहले दलितों को मानव समझाने की चुनौती थी. बाबा साहेब जब आंदोलन कर रहे थे तो दलितों को इंसान नहीं समझा जाता था. जब इंसान नहीं समझा जाता था तो उनके कोई अधिकार नहीं थे. बाबा साहेब ने पहली बार उन्हें नागरिक बनाने के लिए संघर्ष किया कि ये भी नागरिक हैं. जब नागरिक बन गए तो नागरिकों के मौलिक अधिकार होते हैं, उन अधिकारों को उन्होंने संविधान में प्रदत कराया. आज सबसे बड़ी चुनौती बाबा साहेब द्वारा संविधान में दिलाए गए अधिकारों को, ‘लैटर ऑफ स्पिरीट’ में लागू करवाना है. क्योंकि इसके लागू नहीं होने की स्थिति में आंदोलन ठहर जाएगा. आज हमारे पास बकायदा बिछी हुई बिसात है. केवल चाल चलनी है. दूसरी बात, बाबा साहेब ने नंबर की ताकत यानि वन मैन-वन वोट-वन वैल्यू समझा दिया था, जिसे मान्यवर कांशीराम ने समझा और कहा कि 100 में से 85 प्रतिशन वोट हमारा है. वो 85 फीसदी वोट जोड़ते रहे. इससे अभी थोड़ी ही जातियां जुड़ी हैं और देखिए कि सरकार बन गई. दलितों को यह समझना पड़ेगा कि संगठन में शक्ति होती है और बिना सभी के जुड़े एक बड़ा समाज नहीं बनेगा. अंतरजातीय स्वभाव को भूल करके अपने संघर्ष को बड़े आयाम में कैसे परिवर्तित किया जाए, यह सोचना होगा. हम सब कास्टीज्म भूल करके अपने बड़े युग्म की तरफ बढ़ें. इसको लेकर बहुत बड़ी चुनौती है. राजनीति में जब तक हमारे नंबर नहीं बढ़ेंगे तब तक सत्ता नहीं आएगी. आप समाज शास्त्र के शिक्षक हैं. सामाजिक रूप से जो पिछड़ापन है, वह कैसे दूर होगा? – हां, यह दूसरी चुनौती है. पहले तो लग रहा था कि सारा दलित समाज गरीब है, अशिक्षित है, बेरोजगार है. लेकिन कालांतर में आजादी के 63 वर्ष के बाद एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जो शहरों में रह रहा है और जिसके पास नौकरियां है. इसलिए दलितों के दो फाड़ साफ दिखाई दे रहे हैं. एक शहर में रहने वाला दलित तो दूसरा गांवों में रहने वाला वर्ग. दोनों के मसले अलग हो गए हैं. जो शहर में रह रहा है, उसको अच्छी नौकरी, अच्छा घर और आरक्षण चाहिए. जो वर्ग गांवों में रह रहा है, गरीबी में रह रहा है वह अभी दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगा है. ऐसे में इस आंदोलन की चुनौती यह होगी कि उस अंतिम पायदान पर खड़े दलित साथी कि मुश्किलों को समझ कर उन्हें साथ में लाएं और उनके लिए संघर्ष करे. दूसरी तरफ न्यायपालिका, अफसरशाही और विश्वविद्यालयों में जारी पक्षपातपूर्ण रवैये से भी जूझने की चुनौती होगी. लड़ाई कई मोर्चों पर है, इसलिए समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सबको किस तरह एक धागे में पिरो करके आंदोलित किया जाए. ये चुनौती सबसे बड़ी होगी. मायावती की जो अब तक की राजनीति है और उन्होंने यूपी की सरकार में आने के बाद जो काम किया है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं? – एक समाजशास्त्री के दृष्टिकोण से इसमें वो गधे और उसके बेटे वाली कहावत लागू होती है. (किस्सा सुनाते हैं) ‘एक गधे को लेकर बाप-बेटे जा रहे थे. रास्ते में लोगों ने हंसना शुरू कर दिया कि गधा रहने के बावजूद दोनों पैदल चल रहे हैं. बाप ने गधे पर बेटे को बैठा दिया तो लोग ताने देने लगें कि बाप पैदल चल रहा है, बेटा गधे पर है. अब बेटे ने बाप को बैठा दिया तो लोग बाप की निंदा करने लगे कि बेटे को पैदल चला रहा है और खुद आराम कर रहा है. अब दोनों गधे पर बैठ गए तो लोग बाप-बेटे को निर्दयी कहने लगे कि एक गधे पर दोनों बैठ गए हैं. जब दोनों लोग उतर गए तो लोग फिर हंसने लगे.’ इस समाज के साथ भी ऐसा ही हैं. इस समाज द्वारा कुछ भी किया जाएगा वह ग्राह्य नहीं होगा. इसलिए संतोष की बात करना एक अतिश्योक्ति है. न कोई संतोष कर रहा, न ही कोई संतुष्ट है लेकिन अच्छा इसलिए लग रहा है कि एक प्रयास है और इसे सभी को सराहना चाहिए. तभी जाकर एक साकारात्मक छवि बन पाएगी. आज राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेतृत्व के नाम पर एक शून्य उभर आया है. जगजीवन राम आखिरी नेता थे, जिससे देश भर के दलित जुड़े. मायावती हैं तो वह कुछ राज्यों तक सीमित है. यह शून्य कैसे भर पाएगा? – राष्ट्रीय स्तर पर एकांगी नेतृत्व पुरानी बात हो गई है क्योंकि समाज अब आगे निकल गया है. जब तक राष्ट्रीय स्तर पर शून्य की बात है तो, जब तक समाज से अखिल भारतीय स्तर पर प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं उभरेगा, लोग उसको राष्ट्रीय नेता नहीं मानेंगे. इसलिए समाज को यह लगता है कि अखिल भारतीय स्तर पर कोई लीडर नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति को भी देखें और उसमें एक खास परिवार को छोड़ दें तो यहां भी किसी भी पार्टी में अखिल भारतीय लीडर नहीं है. अगर यह पैदा करना है तो जन आधार पैदा करना पड़ेगा. यह बात दिखाई नहीं पर रही. रामविलास पासवान और उदित राज जैसे लोगों की राजनीति का भविष्य क्या है? – इन लोगों की शुरुआती दौर की राजनीति एंटी बसपा रही है. अब तक इन लोगों ने कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं दिया है. अब तक इन लोगों ने लुभावने वादों पर राजनीति की हैं. जब तक ये कोई साकारात्मक प्रोग्राम नहीं देंगे और अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढ़ांचे को मजबूत नहीं करेंगे, तब तक मुझे नहीं लगता कि इनका कोई भविष्य है. अपनी पार्टी की संरचना में इनको संगठनात्मक ढाचे को मजबूत कर उसमें कैडर बनाने होंगे. अगर ये लोग इसके लिए समय देने को तैयार है. तो कुछ संभव है. क्या यह संभव है कि सभी दलित नेता एक मंच पर आ सकते हैं? – कतई नहीं. यह हो ही नहीं सकता क्योंकि जो बड़े लीडर हैं उन्हें लगता है कि उनकी राजनीति सुरक्षित है. वैसे ही जो पुराने नेता हैं वो क्यों किसी के साथ काम करेंगे. जैसे संघप्रिय गौतम हैं, उन्होंने बाबा साहेब के साथ काम किया है. दूसरे उनके सामने बच्चे हैं. रामविलास पासवान वगैरह खुद को स्थापित लीडर समझते हैं, वो किसी के साथ क्यों आएंगे. बहन मायावती की तो अपनी राष्ट्रीय पार्टी है, तो क्यूं किसी के साथ जाएंगी. जहां तक छोटे लीडरों की बात है, उनकी अपनी इतनी छोटी-छोटी डिमांड है कि वो पनप नहीं पा रहे हैं तो इसलिए साथ आना मुश्किल है. आज की राजनीति में चारो ओर यूथ की बात हो रही है. कांग्रेस-भाजपा और तमाम पार्टियां उनको लुभाने में जुटी है. लेकिन जो दलित युवा है, वह कहां जाए? – सबसे बड़ी बात है कि दलित युवा एकांगी नहीं है. उसमें भी कई फाड़ हैं. सबसे बड़ा तबका ग्रामीण इलाकों में है. वह अनपढ़ और डेली वेज पर काम करके जी रहा है. उसके सामने सबसे बड़ा अंधकार है. उसके लिए प्रोग्राम, पॉलिसी और न्याय जुटाना दलित आंदोलन के लिए एक चैलेंज होगा. जो दूसरा यूथ है वह पहली पीढ़ी का है और शहरों में है. वह डाक्टर, इंजीनियर बनने में लगा है. एक पीढ़ी ऐसी है, जिसकी पहली जेनेरेशन विश्वविद्यालयों में आ गई है. वह टीचर हो गया है तो उसकी कोई बिसात नहीं है, उसको कोई सुनता नहीं है. तो ये जो तीन प्रकार के यूथ हैं इनके अपने-अपने एजेंडे हैं. दलित समाज की जो पार्टियां हैं उनकी खुद के इतने मसायल हैं कि वो यूथ विंग नहीं संभाल सकते. कांशीराम जी से यह प्रश्न किया गया था कि आप यूथ विंग क्यो नहीं बनाते. उनका जवाब था कि विंग कि जरूरत प्लेन को पड़ती है. जब प्लेन टेक ऑफ कर लेता है तो उसकी बॉडी संभालने के लिए विंग चाहिए होता है. लेकिन हमारी बॉडी ही नहीं संभल रही. इसलिए हमारे यूथ को अपने आप आत्मनिर्भर संगठन के संदर्भ में सोचना चाहिए कि किस तरह सत्यनिष्ठा के साथ आंदोलन चलेगा. क्योंकि यह तबका बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाता है और बहुत जल्दी बहक भी जाता है. इसलिए हमारे जो यूथ हैं उन्हें और भी परिपक्वता और विचारधारा के आधार पर जोड़ना पड़ेगा ताकि कोई उसे बरगला न कर सके. क्या आप निजी क्षेत्र में आरक्षण का समर्थन करते हैं? – बिल्कुल, सौ फीसदी. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि क्यों होना चाहिए? देखिए, पब्लिक सेक्टर दलितों को केवल सात फीसदी जॉब देता है. जबकि 97 फीसदी लोग प्राइवेट सेक्टर में बिना रिजर्वेशन के जीते हैं. भारत में अगर इंडियन लेबर कमिशन का जॉब का आंकड़ा लें तो तकरीबन दो करोड़ जॉब आते हैं. इन दो करोड़ लोगों में शिड्यूल कास्ट का आरक्षण प्रतिशत गिन लिया जाए तो वो तकरीबन तीस लाख होगा. एक परिवार में पांच लोगों को मान लिया जाए तो डेढ़ करोड़ लोग दलितों को आरक्षण के तहत मिलने वाली नौकरियों से लाभान्वित होते है. दलितों की आबादी है 18 करोड़. अब 16 करोड़ 50 लाख लोग बिना रिजर्वेशन के ही जी रहे हैं. ऐसे में प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण की जवाबदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. हमारे लोगों को अब नौकरियों के अलावा संसाधन में भी आरक्षण मांगना चाहिए. जमीन के बंटवारे में भी हमें हमारा हक मिलना चाहिए. हमें सप्लाई में भी रिजर्वेशन मिलना चाहिए. मेरा मानना है कि अगर एक अस्पताल में किसी दवा की 100 गोलियां बिकती है, तो इसमें से 16 गोलियां हमारे लोगों से खरीदी जानी चाहिए. सरकार चाहे तो क्वालिटी जांच ले. जूते बनाने का धंधा तो हमारे लोगों का है. स्पोर्ट्स हॉस्टल में हमसे भी 100 में 16 जूते लो. यह चीज गाड़ियों, डीलरशिप जैसी हर छोटी-बड़ी चीज की सप्लाई में होनी चाहिए. ऐसा करके सरकार किसी का हक नहीं मार रही है. बल्कि दलितों में नए इंटरप्येनोरशिप डेवलप कर रही है. इसके लिए सरकार को केवल एक आर्डर निकालना है. केवल नौकरियों में आरक्षण मांगकर हमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए. क्योंकि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां कम हो रही है. यह तर्क भी सुनने में आता है कि दलितों में योग्यता नहीं है? – जहां तक निजी क्षेत्रों में योग्यता की बात है तो इसकी कोई संवैधानिक परिभाषा नहीं है. योग्यता की परिभाषा वो लोग बनाते हैं जो सत्ता में होते हैं. और सत्ता में बैठने वाले लोग योग्यता का निर्धारण हमेशा अपने पक्ष में, अपनी सांस्कृतिक विरासत के आधार पर करते हैं. तीसरी बात यह है कि योग्यता का निर्धारण आजकल परीक्षा में आने वाले अंकों से निर्धारित होता है. अंग्रेजी बोलने को ही योग्यता का आधार माना जाता है. यह भी उन्हीं के द्वारा किया गया निर्धारण है. जबकि भाषा ज्ञान की निशानी नहीं है, बल्कि सोशल बैकग्राउंड की निशानी है. इसलिए व्यक्तियों के सामाजिक परिवेश को देखकर योग्यता का पैमाना बने और उसके आधार पर परीक्षा हो. तब कहीं जाकर हम एक समाज की कल्पना कर सकते हैं. फिर से मायावती की बात करते हैं. उन्होंने अपनी राजनीति बहुजन समाज के नारे के साथ शुरू की थी. आज वह सर्वजन समाज के नारे पर आ गई हैं. क्या यूपी में बहुजनों की समस्याएं खत्म हो गई हैं? बहुजन समाज पार्टी को दो तरीके से समझना चाहिए. एक तो वो राजनैतिक आंदोलन है, दूसरा सामाजिक आंदोलन भी है. राजनीतिक आंदोलन के तहत जो नारे दिए गए हैं वो राजनीति तक ही सीमित रह सकते हैं. एक बात और है. आपके जितने वोट हैं, उससे आप आत्मनिर्भर सरकार नहीं बना सकते हैं और इसलिए आपको दूसरे समाज का सहारा लेना पड़ेगा. इसलिए राजनैतिक तौर पर तो यह नारा सही हो सकता है लेकिन सामाजिक तौर पर जब हम काम देखते हैं, जैसे बुद्ध के नाम पर प्रतिमा बनती है, महामाया के नाम से शहर बनता है, कांशीराम के नाम से योजनाएं बन रही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि सामाजिक तौर पर आंदोलन आज भी जारी हैं. बाकी सत्ता में आने के बाद सबको संरक्षण देना होता है. सबको साथ लेकर चलना पड़ता है. तो जो भी परिवर्तन है, वह सत्ता में आने के बाद का परिवर्तन है. आपने मूर्तियों की और महामाया नगर की बात की. इसको लेकर भी बसपा और मायावती की काफी आलोचना हुई है. – मैं इन मूर्तियों और पार्क को रिएक्सनरी एजेंटे से नहीं देखता हूं. यह बसपा के विचारात्मक सोच का नतीजा है क्योंकि अपना दल बनाते समय ही उन्होंने इंगित कर दिया था कि जब हम सत्ता में आएंगे तो हम आपको वो सब देंगे जिसका वादा किया था. उन्होंने यह किया भी. इसलिए मुझे लगता है कि वो साकारात्म एजेंडा था. पूर्ववर्ती सरकारों में बहुजन समाज के लीडरों को न्याय नहीं दिया, इज्जत नहीं दी. कल तक जिन जगहों पर केवल सवर्णों का एकाधिकार था और जो दलितों के लिए प्रतिबंधित थी, उस एकाधिकार को तोड़कर वहां दलितों की मूर्तियां लगाना जनतांत्रिकरण की निशानी है. इससे कल तक जो लोग चमरौटी में सीमित कर दिए गए थे, वो चौराहे पर आ रहे हैं. इसमें लोगों को मूर्तियों से कोई परहेज नहीं है बल्कि उन्हें एकाधिकार टूटने का डर सता रहा है. वास्तविकता में वही लोग इसकी निंदा कर रहे हैं, जिनकों इन महापुरुषों के योगदान के बारे में कुछ नहीं पता. उनको भी दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि उनकी कक्षाओं में, उनके विश्वविद्यालयों में कभी इन महापुरुषों की चर्चा होने ही नहीं दी गई. इसकी वजह से वो चेतना शून्य हैं. इसलिए उनको दोषी ठहराना गलत होगा. आपने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दलितों की आवाज उठाई है. वहां किस तरह की दिक्कतें होती हैं? – अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकारों की बातें होती हैं, व्यक्तियों की नहीं. इसलिए वो सुनना नहीं चाहतें क्योंकि दो देशों के रिश्ते प्रभावित होते हैं. उनको भारतीय समाज की जो वास्तविकता है, वह भी नहीं पता. उनको लगता है कि भारतीय लोग बड़ी शांति से, भक्ति से जैसे पहले रह रहे थे, आज भी वैसे ही रह रहे हैं. उनके मुताबिक भारत में कोई शोषण नहीं है. हमारे देश का एक तबका भी यह प्रचारित करता हैं कि हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं है. कुछ था तो संविधान ने उसका संज्ञान ले लिया है. लेकिन अब संयुक्त राष्ट संघ ने इसका संज्ञान ले लिया है. आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं? – मेरी कोशिश दलित समाज की साकारात्मक छवि स्थापित करने की है. अब तक जो छवि बनी है, उसके मुताबिक हम गंदे, दारूबाज और अयोग्य हैं. मैं इस छवि को बदलना चाहता हूं. हमें बताना होगा कि हमारा समाज लेने वाला नहीं बल्कि देने वाला है. चाहे वह किसी बच्चे को सबसे पहली बार छूने वाली दाई हो या अन्य कार्य करने वाले लोग, हमारे ही श्रम से देश चलता है और देश में आर्थिक बदलाव आता है. मेरी कोशिश समाज के नायक-नायिकाओं को उभारने की है. बाबा साहेब को दलित नेता के रूप में सीमित कर दिया गया था, जबकि वो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के नेता थे. आज कई चिंतक इसे दिशा दे रहे हैं. भारतीय समाज में जो दलित समाज है, उसके अपने मूल्य है. उसे वापस लाना होगा. चूंकि शिक्षा के क्षेत्र में हूं इसलिए सोचता हूं कि भारतीय समाज के प्राइमरी से लेकर पीएचडी तक हर पाठ्यक्रम में दलित समाज की सकारात्मक छवि को किस तरह समायोजित किया जाए. वंचित समाज के हित में अगर आपको एक फार्मूला बनाने को कहा जाए, तो इस समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात ठीक करने के लिए आप क्या करेंगे? – यह कहना तो जरा मुश्किल है लेकिन एक फार्मूला यह हो सकता है कि वास्तविकता में दिक्कत कहां है, उसकी प्रकृति क्या है, उस दिक्कत को समझा जाए, तब जाकर उसका हल मिल सकता है. इसे चिन्हित करना होगा. बाबा साहेब ने 60 साल पहले जिन मुश्किलों को समझा था, वह आज भी बहुत दूर नहीं हो पाई हैं. आज के कंप्यूटर युग में बाबा साहेब के दिए मूलमंत्र के साथ 21 सदी के कालखंड को समझना होगा. आज अदालत, ब्यूरोक्रेसी, राजनीति और मीडिया जैसी सत्ता को चलाने वाली संस्थाओं में अनुपातिक जनसंख्या के आधार पर दलितों की भागीदारी जरूरी है. जमीन और संसाधन में भागीदारी सुनिश्चित करने की भी जरूरत है. विवेक जी, आपने इतना अधिक वक्त दिया और विस्तार से बातें की, धन्यवाद – धन्यवाद अशोक जी।
डा. विवेक कुमार से संपर्क करने के लिए आप उन्हें vivekkumar@mail.jnu.ac.in पर मेल कर सकते हैं. दलितमत.कॉम से संपर्क करने के लिए आप ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या 09711666056 पर फोन कर सकते हैं.

​नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था!

लखनऊ। भाजपा नेता दयाशंकर के बयान के बाद हुए बसपा के धरना प्रदर्शन और नसीमुद्दीन सिद्दकी के विवादित बयान को लेकर एक नई सच्चाई सामने आई है. मीडिया में एक नया विडियो जारी हुआ है, जिसमें यह साफ दिख रहा है कि नसीमुद्दीन सिद्धीकी ने दयाशंकर की बेटी के बारे में कोई आपत्तिजनक टिप्पणी नहीं की है. नसीमुद्दीन सिद्दकी ने कहा था कि दयाशंकर सिंह अपनी पत्नी और बेटी पेश करें, हम सब  के सामने वहीं शब्द कहें जो उन्होंने बहन मायावती के लिए कहा था. जबकि मीडिया में जो खबर आई, उसमें नसीमुद्दीन सिद्दीकी के भाषण का आधा अंश ही दिखाया गया. मीडिया ने बसपा नेता के बयान को इस तरह से पेश किया, जिससे विवाद को काफी हवा मिल गई. मीडिया ने सिद्दीकी के बयान का आधा हिस्सा ही दिखाया. मीडिया में जो खबर चली, उसमें सिर्फ…  दयाशंकर सिंह अपनी पत्नी और बेटी पेश करें…. इतना ही दिखाया गया, जबकि उसके बाद कही गई बात कि….  हम सब  के सामने वहीं शब्द कहें जो उन्होंने बहन मायावती के लिए कहा था, वाले हिस्से को मीडिया ने गायब कर दिया. जबकि सिद्दीकी के इसी बयान को लेकर दयाशंकर की पत्नी स्मिता सिंह ने बसपा अध्यक्ष मायावती, नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सतीश चंद मिश्रा पर एफआईआर दर्ज करा दिया. उनका कहना था कि बसपा नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी ने उन्हें अभद्र बातें कहीं, जबकि इस नए वीडियो में साबित हो गया है नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कोई विवादित बयान नही दिया है. उनका बयान विभिन्न मीडिया चैनलों में तोड़-मरोड़ का पेश किया गया है.

जय भीम बोलकर एवरेस्ट फतेह करेंगें पर्वतारोही रवि कुमार

नई दिल्ली। मुरादाबाद के एक छोटे से गांव से निकल कर रवि ने पूरे विश्व में भारत का परचम लहराया है. रवि कुमार ने विभिन्न देशों की ऊंची चोटियों पर भारतीय झंडा फहराया है. वह जहां भी जाते हैं बाबा साहेब का फोटो अपने साथ लेकर चलते हैं. पर्वतारोही रवि कुमार ने सर्वप्रथम वर्ष 2010 में अफ्रीका की उच्चतम चोटी किल मंजरो को फतह किया, वर्ष 2014 में एशिया नेपाल की आइसलैंड पीक को फतह किया. फिर 15 अगस्त 2014 को यूरोप की चोटी माउन्ट ऐलवेरा और 26 जनवरी  2015 तो आस्ट्रेलिया की हाइजेस्ट चोटी माउन्ट कोसीयूसजको पर भी भारतीय झण्डा लहराया. 2014 में एवरेस्ट पर हिमस्खलन हुआ जिसके कारण इनके 25 पर्वतारोही साथी की मौत हो गई और नेपाल सरकार ने एवरेस्ट पर जाने से मना कर दिया. जिसके कारण यह एवरेस्ट फतेह करने की चाह अधूरी रह गई. रवि कुमार को 2010 में डॉ. अम्बेडकर सदभावना अवार्ड और 2011 में भीम रत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया. इसके अतिरिक्त भी रवि कुमार को कई सम्मान और अवार्ड मिल चुकें हैं. अब इनका लक्ष्य माउंट एवरेस्ट फतेह करना है. रवि कुमार का जन्म मुरादाबाद के एक छोटे से गांव के सामान्य परिवार में हुआ. दुनिया की सबसे ऊंची माउंट एवरेस्ट जिसकी ऊंचाई 8,848 मीटर है, फतह करने का सपना देख रहा है. रवि कुमार इस सपने को पूरा करने के लिए पिछले कई वर्षो से प्रयासरत है. एवरेस्ट को फतह करने के क्रम में उसके  द्वारा अनेक देशों की विभिन्न चोटियों को फतेह किया जा चुका है. रवि कुमार की प्रारंभिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से ही शुरू हुई. फिर पिता हरकेश सिंह जी का ट्रांसफर बिजनौर जनपद के नगीना में हो गया. माध्यमिक शिक्षा नगीना के सरस्वती शिशु मंदिर से प्राप्त की, उसके बाद आगे की शिक्षा मुरादाबाद के प्रतिष्ठित चित्रगुप्त इण्टर कॉलेज से प्राप्त की. रवि कुमार पढ़ाई के साथ-साथ कॉलेज में होने वाले अन्य कार्यक्रम और आयोजन में भी भाग लेता रहा जैसे स्काउटिंग, राष्ट्रीय सेवा योजना, निबंध प्रतियोगिता, भाषण प्रतियोगिता आदि. स्काउटिंग प्रतियोगिता में वर्ष 2006 में उसकी मेहनत पर राज्यापाल पुरस्कार प्राप्त हुआ. गोरेगांव न्यूजीलैंड हॉस्टल, मुंबई में आयोजित कार्यक्रम के दौरान स्काई डायवर अप्पासाहब दत्त जी से हुई. जिनके विचारो से प्रेरणा लेकर उसके दिल में एवरेस्ट फतेह करना का जज्बा पैदा हुआ. और इसी लक्ष्य के को पाने के लिए उसने पर्वतारोहण के क्षेत्र में कदम बढ़ाना शुरू कर दिया और भारत के जाने-माने 4 पर्वतारोहण केंद्रों से प्रशिक्षण प्राप्त किया.

ओमप्रकाश वाल्मीकि और स्कूल में जातिगत पीड़ा के वो दिन

एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, क्या नाम है बे तेरा ? ओमप्रकाश, मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में अपना नाम बताया। हेडमास्टर को देखते ही बच्चे सहम जाते थे। पूरे स्कूल में उनकी दहशत थी। चूहड़े का है ? हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला। जी । ठीक है…वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियाँ तोड़के झाड़ू बणा ले। पत्तों वाली झाड़ू बणाना। और पूरे स्कूल कू ऐसा चमका दे जैसे सीसा। तेरा तो यो खानदानी काम है। जा…फटाफट लग जा काम पे। हेडमास्टर के आदेश पर मैंने स्कूल के कमरे, बरामदे साफ कर दिए। तभी वे खुद चलकर आए और बोले, इसके बाद मैदान भी साफ कर दे। लंबा-चौड़ा मैदान मेरे वजूद से कई गुना बड़ा था, जिसे साफ करने से मेरी कमर दर्द करने लगी थी। धूल से चेहरा, सिर अँट गया था। मुँह के भीतर धूल घुस गई थी। मेरी कक्षा में बाकी बच्चे पढ़ रहे थे और मैं झाड़ू लगा रहा था। हेडमास्टर अपने कमरे में बैठे थे लेकिन निगाह मुझ पर टिकी थी। पानी पीने तक की इजाजत नहीं थी। पूरा दिन मैं झाड़ू लगाता रहा। तमाम अनुभवों के बीच कभी इतना काम नहीं किया था। वैसे भी घर में भाइयों का मैं लाड़ला था। दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाड़ू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊँगा। तीसरे दिन कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी,  अबे, ओ चूहड़े के, मादरचोद कहाँ घुस गया…अपनी माँ… उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी लड़के ने चिल्लाकर कहा,  मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में। हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उँगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींचकर उसने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू…नहीं तो गांड में मिर्ची डालके स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा। भयभीत होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली। मेरी तरह ही उसके पत्ते सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियाँ। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिपकर तमाशा देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था। मेरे पिताजी अचानक स्कूल के पास से गुजरे। मुझे स्कूल के मैदान में झाड़ू लगाता देखकर ठिठक गए। बाहर से ही आवाज देकर बोले,  मुंशी जी, यो क्या कर रा है ? वे प्यार से मुझे मुंशी जी ही कहा करते थे। उन्हें देखकर मैं फफक पड़ा। वे स्कूल के मैदान में मेरे पास आ गए। मुझे रोता देखकर बोले,  मुंशी जी..रोते क्यों हो ? ठीक से बोल, क्या हुआ है ? मेरी हिचकियाँ बँध गई थीं। हिचक-हिचककर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाड़ू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते। पिताजी ने मेरे हाथ से झाड़ू छीनकर दूर फेंक दी। उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आई थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहनेवाले पिताजी की लंबी-लंबी घनी मूछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे, कौण-सा मास्टर है वो द्रोणाचार्य की औलाद, जो मेरे लड़के से झाड़ू लगवावे है… पिताजी की आवाज पूरे स्कूल में गूँज गई थी, जिसे सुनकर हेडमास्टर के साथ सभी मास्टर बाहर आ गए थे। कलीराम हेडमास्टर ने गाली देकर मेरे पिताजी को धमकाया। लेकिन पिताजी पर धमकी का कोई असर नहीं हुआ। उस रोज जिस साहस और हौसले से पिताजी ने हेडमास्टर का सामना किया, मैं उसे कभी भूल नहीं पाया। कई तरह की कमजोरियाँ थीं पिताजी में लेकिन मेरे भविष्य को जो मोड़ उस रोज उन्होंने दिया, उसका प्रभाव मेरी शख्सियत पर पड़ा। हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा था, ले जा इसे यहाँ से..चूहड़ा होके पढ़ने चला है…जा चला जा…नहीं तो हाड़-गोड़ तुड़वा दूँगा। पिताजी ने मेरा हाथ पकड़ा और लेकर घर की तरफ चल दिए। जाते-जाते हेडमास्टर को सुनाकर बोले,  मास्टर हो…इसलिए जा रहा हूँ…पर इतना याद रखिए मास्टर…यो चूहड़े का यहीं पढ़ेगा…इसी मदरसे में। और यो ही नहीं, इसके बाद और भी आवेंगे पढ़ने कू।

पुलिस देखती रही, दलित पिटते रहें

उना दलित उत्पीड़न में पुलिस अगर चाहती तो घटना को इतना बढ़ने नहीं देती. पुलिस की सवर्णवादी सोच ने दलितों पर अत्याचार होने दिया और कानून को अंधा साबित कर दिया. पुलिस के सामने ही अत्याचार होता रहा लेकिन कानून के रखवालों ने अपनी आंखे बंद कर रखी थी. मनुवादी गुंडे चारों दलित युवक को गौरक्षक गिर-सोमनाथ जिला शिव सेना- प्रमुख लिखी हुई कार से बांधकर उना शहर में ले गए और पुलिस थाने के सामने पुलिस के सामने ही उनको लगभग 30 लोगों ने मारना शुरू कर दिया. दलित युवक रोते रहे और हाथ-पैर जोड़ते रहे लेकिन फिर भी बारी-बारी से लोग उनको पीट रहे थे. वहां पुलिस थाना था, पुलिस थी लेकिन कोई बाहर नहीं आया और किसी ने युवकों को नही बचाया. ये घटना मोबाईल के कैमरे में रिकार्ड हुई और वायरल हुई. घटना जैसे ही मीडिया तक पहुंची तब जाकर लोग इन युवकों को बचाने के लिए दौड़े. इस दलित दमन के विरोध में उना और गुजरात के कई क्षेत्रों में रैलिया और प्रदर्शन हुए तब जाकर पुलिस ने 6 लोगों को गिरफ्तार किया. अनुसूचित जाति आयोग को फैक्स के बाद सरकार ने पीड़ितों को मुआवजे का चेक दिया और राज्य सभा के दलित सांसद ने पीड़ितों से मुलाकात की. अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य राजू परमार का कहना है कि राज्य सरकार दलितों पर हो रहे अत्याचार को लेकर गंभीर नहीं है, इसी कारण राज्य में आए दिन दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं. दलित युवकों ने बताया की जब हमें गाड़ी से बांधकर ले जा रहे थे तब पुलिस की एक गाड़ी रास्ते में मिली और पूछने के बाद भी उन्होंने आरोपियों को कुछ नहीं बोला औऱ न ही हमारी मदद की. जब इन्हें आरोपी पुलिस थाने के बाहर डंडों और पट्टे से पीट रहे थे, तब भी पुलिस खामोश रही. पीड़ित युवक के चाचा ने जब 100 नंबर पर पुलिस को फोन किया तब भी पुलिस घटना स्थल पर समय से नहीं पहुंची और इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई. इस दुर्घटना की जिम्मेदार पुलिस प्रशासन और राज्य सरकार भी है.

गुजरात के दलितों का अकेलापन और समाज की चुप्पी भरी शांति !!

गुजरात के उना शहर में चार दलित युवकों को अर्धनग्न कर जिस स्पोट्स यूटिलिटि व्हीकल से बाँधा गया है वह हमारी अर्थव्यवस्था की रफ़्तार का प्रतीक है. महिंद्रा के ज़ाइलो की कीमत साढ़े आठ लाख से साढ़े दस लाख के बीच है. इसी ज़ाइलो से बाँध कर दलित युवकों को शहर में अर्धनग्न कर घुमाया गया और उन्हें लाठी से मारा गया. बार बार मारा गया. गाँव में मारा गया. फिर शहर में लाकर मारा गया ताकि शहर भी देखे. आप अगर सुन सकते हैं तो लाठी की फटाक फ़टाक आवाज़ को सुनिये. आप अगर बार बार सुन सकते हैं तो दिन रात सुनिये. पूरा हफ्ता सुनिये. पूरा महीना सुनिये और हो सके तो यही करते करते पूरा साल निकाल दीजिये. दलित युवकों की पीठ पर बरसती लाठियों की आवाज़ बता रही है कि वे तमाम सदियाँ और दस्तूर अभी ज़िंदा है जिनमें दलित कभी ज़िंदा नहीं था. फ़टाक फ़टाक की हर आवाज़ दलित स्वाभिमान को कुचल रही है. दलित की पीठ की कोई कीमत नहीं. उसके स्वाभिमान सम्मान की कोई कीमत नहीं. उसकी नागरिकता की कोई कीमत नहीं। कीमत उस ज़ाइलो एस यू वी की है जिस पर एक भी लाठी नहीं लगती है. चार दिनों से उनकी पीठ पर बरसती लाठियों की आवाज़ गूँज रही है मगर हमारा समाज उसे संगीत समझकर झूम रहा है. क्या ये लड़ाई अकेले दलीत की है? क्या उन युवाओं की पीठ पंचायत का चबूतरा है जहाँ कोई भी दबंग बैठकी लगाकर जम गया? वो लाठी बता रही है कि हमारे बीच क्रूरता मौजूद है. हमारी चुप्पी बता रही है कि हम उस क्रूरता से सहमत हैं और दलित की पीठ लात और लाठी के लिए बनी है. क्या ये तस्वीर काफी नहीं है कि ग़ैर दलित समाज अपने भीतर की इस धार्मिक और सांस्कृतिक क्रूरता के ख़िलाफ़ चित्कार उठे. चिल्ला उठे कि अब हमसे भी नहीं देखी जाती हमारी क्रूरता. क्या उसे दलितों से पहले सड़कों पर नहीं उतर आना चाहिए था? भारत आज़ादी का सत्तर साला जश्न मनाने जा रहा है. प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी से कहा है कि वे तिरंगा सप्ताह मनायें. गली गली में तिरंगा रैली निकालें. किसके लिए तिरंगा की रैली निकलेगी? कब तक हम ऐसे राष्ट्रवादी आयोजनों की आड़ लेकर इन सवालों से बचेंगे. कब तक हम आँख में आँख मिलाकर बात नहीं करेंगे कि आज भी दलित को वो जगह नहीं मिली. संविधान से उसे अधिकार और संरक्षण नहीं मिला होता तो आज़ाद भारत का समाज उनके साथ क्या करता, गुजरात की घटना प्रमाण है कि उसके बाद भी जो हो रहा है उससे ज़्यादा क्रूर होता. उन्हीं सूमो और ज़ाइलो में तिरंगा लगाकर लोग घूमेंगे और अचानक ऐसे किसी लम्हों में उसकी लाठी दलित की पीठ में घुसेड़ भी देते हैं. जब तक ये अंतर नहीं मिटेगा हम तिरंगा हाथ में लेकर उसका सम्मान नहीं कर पायेंगे. आप लोकतंत्र के नौटंकीबाज़ सोशल मीडिया को खंगाल कर देखिये. वहाँ जातिवाद और संप्रदायवाद किस कदर ज़िंदा है. सब अपने जातिवाद को बचाने के लिए तिरंगे और राष्ट्रवाद का सहारा ले रहे हैं. हम अपने पूर्वाग्रहों के गुलाम लोग हैं. हम अपने भीतर की नफ़रतों के ग़ुलाम लोग हैं. हम आज़ाद नहीं है. क्या किसी को इस शहर में शर्म आती है? आती है तो आज़ाद भारत का आज़ाद समाज बताये कि वो क्यों नहीं निकला सड़कों पर इस हिंसा के ख़िलाफ़. सिर्फ दलित ही क्यों निकलते हैं दलित हिंसा के ख़िलाफ़. मीडिया भले गुजरात में प्रदर्शनों को जितना व्यापक बता ले मगर हकीकत यही है कि इस व्यापकता में भी दलितों का अकेलापन झलक रहा है. लोकसभा में 131 अनुसूचित जाति और जनजाति के सांसद हैं. इन सांसदों ने भी दलितों को अकेला छोड़ दिया है. ये सभी नाम तो बाबा साहब का लेते हैं मगर बाबा साहब जिनका नाम लेते थे, बस उनका ही नाम नहीं लेते. ये अपनी पार्टी और नेता का नाम लेते हैं मगर उस समाज का नाम नहीं लेते जिनके लिए बाबा साहब संसद में इन्हें बिठा गए हैं. नाम लेते तो इन सौ से अधिक दलित आदिवासी सांसदों के कलेजे पर भी हर लाठी के निशान मिलते. ये भी संसद की सीढ़ियों पर चीख़ते चिल्लाते. बोलते देश को कि देखो हमको ठीक से, हम तुम्हीं हैं, तुम्हीं हम हो. हमारी पीठ, तुम्हारी पीठ है. हमें अपना समझो. संविधान और सरकारों से इंसाफ़ माँगते मगर ये सांसद भी चुप रहे. सब चुप रहे. गुजरात के दलितों ने गाय का अंतिम संस्कार मना कर वो काम किया है जिसे बहुत पहले करना चाहिए था. बाबा साहब ने बहुत पहले कह दिया था कि अगर इस काम से अछूत समझे जाते हैं तो हम ये काम नहीं करेंगे. किसी भी कीमत पर इन्हें ये काम बंद कर देना चाहिए था. इन गौ रक्षकों से कहना चाहिए कि तुम संभालो अपनी लाठी और अपनी गाय. क्रूरता और उस पर चुप्पी की भी हद होती है. शहर शहर हमारी गायें प्लास्टिक खा रही हैं. गौ चर यानी गायों के चरने की ज़मीन पर किनका क़ब्ज़ा है. ये अभी साफ हो जाए इस देश के सामने. आपको पता चलेगा कि इन्हीं गौ रक्षकों की राजनीतिक जमात के लोगों का क़ब्ज़ा है. गाय की ज़मीन खा गए. अब गाय के नाम पर दलितों को मार रहे हैं. दलितों की पीठ पर आज़ाद भारत की मानसिक ग़ुलामी की लाठी बरस रही है. गुजरात के कुछ दलित युवकों ने ज़हर पी कर आत्मविलोपन करने का प्रयास किया है. उन्हें खुदकुशी का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए. उन्हें समाज, संसद और सरकार से सवाल करना चाहिए. गुजरात ही नहीं बिहार से लेकर यूपी तक क्यों है हमारे ख़िलाफ़ इतनी नफ़रत. क्यों हैं हमारी पीठ से इतनी चिढ़ कि दस लाख की कार वाले अपनी कार की पीठ बचाते रहे, हमारी पीठ पर लाठियाँ बरसाते रहें. (साभार एनडीटीवी)

गुजरात के भाईयों के नाम ‘दलित दस्तक’ का खत

वाह, क्या शानदार काम किया है आपलोगों ने. अब ‘भद्र समाज’ के लोगों को अपनी ‘औकात’ का पता चल जाएगा. मार-पीट तो आपके साथ काफी पहले से होती रही है. थानगढ़ और मेहसाना जैसी जगहों से तो आपकी पीड़ा हर रोज सामने आती है. पिछले साल की ही तो बात है, थानगढ़ में हमारे कितने नौजवान भाईयों को पुलिस ने गोली से भून दिया था. मेहसाना में तो आपके साथ अत्याचार की इंतहा हो गई. हाल ही की रिपोर्ट है कि आपके राज्य गुजरात में 108 गांवों में दलित समाज के हमारे भाई लोग पुलिस के पहरे में जी रहे हैं. आपलोग अक्सर फोन पर उद्वेलित होकर हमें अपना दुखड़ा सुनाते हैं. हमलोग दिल्ली में बैठकर सुनते रहते हैं. सच कहूं तो आप लोगों की पीड़ा सुनकर एक बार मन करता है कि बस अभी गुजरात पहुंच कर आपलोगों की सारी समस्याओं को खत्म कर दें. लेकिन खुद को रोक लेना पड़ता है, क्योंकि मुझे पता है कि मैं आपकी मदद दिल्ली से ही कर सकता हूं. शायद थोड़ा लिखकर, थोड़ा आपकी आवाज में अपनी कलम की आवाज को मिलाकर. हां, जब इस तरह की खबरों को लिखने बैठता हूं तो की-बोर्ड पर हाथ तेज चलने लगता है. शायद उसी पर गुस्सा उतारता हूं, या फिर शायद यह सोचकर हर शब्द को पूरी ताकत के साथ लिखता हूं कि यह आवाज उन अत्याचारियों के कानों तक तो पहुंचे. सत्ता के गलियारों तक तो पहुंचे और हमारे भाईयों को इंसाफ मिले. मुझे नहीं पता मैं कितना सफल हो पाता हूं. मुझे यह भी नहीं पता कि मेरे लिखने से आपलोगों को कुछ लाभ हो पाता है या नहीं. लेकिन फिलहाल हमारी सीमा यही है. जब आपलोगों को गाड़ी के साथ बांध कर पीटे जाने की विडियो आई थी तो मैं उसे पूरा नहीं देख पाया था. मैं सिहर गया था. लग रहा था जैसे हर चोट मेरे शरीर को जख्मी कर रहा है और वो गालियां मेरे कानों में उतर रही है. आपलोगों ने व्हास्टएप और फेसबुक पर हमारे उन चारों भाईयों की फोटो भेजी थी. मैंने उनकी आंखों में दर्द और दहशत को महसूस किया था. उनकी लाचारगी पर रुलाई फूट गई थी. और विडियो ने तो जैसे सब्र का इम्तहान ले लिया. कलेजा चीर दिया इसने. उतना दर्द कैसे सह लिया आपने. सच कहूं तो बहुत कम मौकों पर मैंने खुद को इतना बेबस पाया था. लेकिन सोमवार को जब यह खबर आई कि आपलोगों ने ट्रकों में मरी हुई गायों को लादकर जिला कलेक्ट्रेट पर रखना शुरू कर दिया है तो जैसे हौंसला आ गया. छुपाऊंगा नहीं. बस मन से एक ही शब्द निकला था….. शाबास। क्या पता यह आईडिया किसका है, लेकिन जिसका भी है; उसे मैं दिल्ली से दलित दस्तक का सलाम भेजता हूं. एक बात पूछूं आपलोगों से? क्यों सहते हो इतना अपमान? एक बार हो गया चलता है, लेकिन यहां तो यह हर दिन की बात हो गई है. एक बात गांठ बांध लो. अगर आपके अपमान सह लेने से, मार खाकर चुप रह जाने से और गालियों को अनसुना कर देने से वो दरिंदे सुधरने वाले होते तो सुधर गए होते. असल में वो इंसान नहीं हैं, वो हैवान हैं. और ये हैवान आप पर तब तक जुल्म करते रहेंगे, जब तक आप सहते रहेंगे. इसलिए आपलोगों ने जो आर-पार की लड़ाई छेड़ दी है, उसे जारी रखना. पीछे मत हटना. सारे समाज की निगाह आपकी तरफ है. अगर इंसाफ चाहते हो तो कोई भी उन गायों को नहीं छुवेगा, जिसे आपलोगों ने जिला मुख्यालयों पर डाला है. तब तक नहीं छुवेगा, जब तक इंसाफ नहीं मिल जाता. और ख्याल रहे कि किसी को उठाने भी नहीं देना है. लेकिन  विरोधाभास स्वरूप जहर पी लेना बुजदिली और बेवकूफी का काम है, ऐसा मत करिए प्लीज. अगर अपमान से छुटकारा चाहते हो तो कसम खा लो कि आज के बाद किसी भी मरे हुए जानवर को हाथ नहीं लगाओगे. अबकी आर-पार की लड़ाई है. किसी से भी डरना नहीं है, लड़ना है, क्योंकि बिना लड़े आजादी संभव नहीं है. स्वतंत्रता दिवस आने को है, हे गुजरात के भाईयों….. अबकी आजाद हो जाओ.

बहन जी ने दलितों को राजनीतिक अनाथ होने से बचा लिया- प्रो. विवेक कुमार

गुजरात के उना जिले में जिस तरह से गाय के नाम पर दलितों को अनादरित किया गया, खुलेआम नंगा कर के उनको मारा गया, उस पर सभी दलित नेता मौन रहें. इसी प्रकार बंबई में जिस तरह से बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा निर्मित प्रेस को ढाया गया, और देश के सभी दलित हितैषी नेता मौन रहे. इससे पहले रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल एवं उत्तर प्रदेश में पदावनति कर दलितों को बेइज्जत किए जाने पर जिस तरह सभी नेता मौन रहे; उससे यह लग रहा था कि भारत के दलित भारतीय राजनीति में अनाथ हो गए हैं. देश की दोनों ही राष्ट्रीय पार्टी- यथा कांग्रेस और भाजपा और राज्य स्तर पर बड़ी-बड़ी पार्टियों में एक भी दलित लिडर ऐसा नहीं था जो दलित पर हो रहे अत्याचारों के इन मुद्दों को राष्ट्रीय राजनीति में उठा कर इसे राष्ट्र का मुद्दा बना सके. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के शासनकाल में लाखों कर्मचारियों के साथ अन्याय होता रहा और समाजवादी पार्टी के 58 विधायक जो आरक्षित सीटों से चुनकर आए हैं तथा भाजपा से आरक्षित सीटों पर चुनकर आए 17 सांसदों ने चूं तक भी नहीं किया और मौन बने रहें. इस सबसे एक बार फिर यही आभाष होता रहा कि भारत के दलित राजनैतिक रूप से अनाथ हो गए हैं. परंतु ऐसे अंधेरे में आशा की किरण बनकर मायावती जी ने गुजरात एवं मुंबई के मुद्दे को राज्यसभा में पूरे दम-खम से उठा कर दलितों को भारत की राजनीति में अनाथ होने से बचा लिया. और आज गुजरात में दलितों पर अत्याचार का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है. इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में बहस हुई तथा राजनेताओं को इसकी निंदा करने के लिए मजबूर होना पड़ा. भारत के गृहमंत्री को भी इस घटना की घोर निंदा करनी पड़ी. गुजरात की मुख्यमंत्री को भी घटना के नौ दिन बाद संज्ञान लेने पर मजबूर होना पड़ा और पीड़ित परिवारों को चार लाख का मुआवजा घोषित करना पड़ा. वास्तविकता में बहन जी ने यह मुद्दा राष्ट्र मुद्दा बना दिया है.

आर-पार की लड़ाई में गुजरात के दलित, आधे दर्जन युवकों ने जहर पिया

गुजरात। गुजरात के उना में दलितों पर जुल्म के बाद आंदोलन तेज हो गया है. ताजा घटनाक्रम में सोमवार को विरोध प्रदर्शन के दौरान इस मामले में सरकार की उदासीनता के खिलाफ आधे दर्जन से ज्यादा युवकों ने जहर पी लिया. इसके बाद उनको जिला अस्पताल रेफर किया गया है, जहां उनकी हालत गंभीर बनी हुई है. ऊना में 12 जुलाई को मरे हुए जानवर का चमड़ा उतारने गए चार दलित युवाओं के साथ निर्ममता के साथ मार-पीट की गई थी. इस घटना के बाद ही पूरे प्रदेश में दलित समाज आंदोलित है. इसी क्रम में पिछले तीन दिनों से चल रहा आंदोलन सोमवार को उग्र रूप में आ गया. इस दिन प्रदेश के अहमदाबाद, राजकोट, गांधी नगर, जूनागढ़, बड़ौदा, पाटण, मेहसाना आदि प्रमुख जिलों में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुआ. दलित दस्तक के गुजरात प्रतिनिधि के मुताबिक राजकोट जिले के गोंडल तहसील में विरोध प्रदर्शन के दौरान पांच युवकों ने जहर खा लिया. उनको सिविल हॉस्पीटल में रेफर किया गया है. दूसरी जगह झामनगर का झाम कंडोड़ना में भी दो लोगों ने आत्महत्या की कोशिश की, उनको राजकोट जिला अस्पताल में भर्ती किया गया है. इन युवाओं का कहना है कि दलितों के साथ हुई इस अमानवीयता पर राज्य सरकार चुप है. वो इंसाफ की मांग कर रहे थे. राजकोट में भी बड़ी संख्या में लोगों ने रैली की है. सुरेन्द्र नगर में दलित समाज के लोगों ने मरे हुए जानवरों को कलेक्टर ऑफिस के पास रख दिया. साथ ही दलितों ने अब मरे हुए को नहीं उठाने की कसम खाई है और धर्म परिवर्तन की भी धमकी दी है. दलित समाज के लोगों का कहना है कि इंसाफ मिलने तक आंदोलन जारी रहेगा. स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि दलित युवाओं के साथ मारपीट करने वाले चार या छह नहीं बल्कि चालिस लोग थे.
गौरतलब है कि इस मुद्दे पर राज्यसभा में बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने भी गुजरात सरकार पर जमकर निशाना साधा. उन्होंने केंद्र सरकार पर भी हमला किया और मांग की कि केंद्र सरकार गुजरात सरकार को जल्द से जल्द दोषियों पर कार्रवाई करने का आदेश दें. इस मामले में वह रोक-टोक करने पर भाजपा नेता वैंकैया नायडू पर भी खूब बरसीं.

कश्मीर को ऐसे भी देखिए

खबर के साथ लगी तस्वीर देखिए. यह तस्वीर अगर आपकी बेटी की होती तो शायद आपको दर्द समझ में आता. खैर. श्रीनगर में एक ईदगाह है. वहां 2 साल की बच्ची की कब्र है. सीआरपीएफ की गोली उस बच्ची के माथे में आकर लगी थी. तुफैल की भी एक कब्र है. किशोर तुफैल स्कूल जा रहा था. सेना ने आंसू गैस का गोला उसके माथे पर ही मार दिया. तुफैल का भेजा उसके शरीर से अलग हो गया. उसके बाप को उसका शरीर और भेजा, दोनों उठाना पड़ा. तुफैल भी कहीं ईदगाह की कब्र में दफन है. इस बच्ची के भी मां-बाप, भाई होंगे ही. पता नहीं क्या सोच रहे होंगे. आप कोशिश कीजिए महसूस करने की क्या सोच रहे होंगे. हर शुक्रवार को ईदगाह में जुमे की नमाज अदा होती है. उसके बाद पथराव किया जाता है. आपके अपनों की कब्र होती तो आप क्या करते? मुझसे एक अलगाववादी ने कहा था, भारत की आजादी की लड़ाई 200 साल से अधिक चली. कश्मीर में तो अभी लड़ते हुए 100 साल भी नहीं हुए. हाल-फिलहाल दिल्ली में एक नया तर्क गढ़ा गया. अलगाववादी नेताओं के बच्चे विदेश में पढ़ रहे हैं. आपको लगता है कि आपने रॉकेट साइंस खोजा है, तो नहीं. वहां के लोगों को भी यह बात पता है. फिर भी वे लड़ रहे हैं. आपको उनकी लड़ाई के पीछे का तर्क ढूंढना है तो वहां जाना होगा. न्यूज एजेंसी से आ रही खबरें और प्रॉपेगैंडा देखकर आपको घंटा समझ में आएगा. – यह  पोस्ट टीवी पत्रकार अमीश राय के फेसबुक वॉल से लिया गया है.

यादव प्रधान के खिलाफ एससी/एसटी आयोग जाएंगे पीड़ित दलित अधिकारी

ग्राम प्रधान सुमन यादव द्वारा ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग को लेकर लिखी गई चिट्ठी का खुलासा होने पर मामले ने तूल पकड़ लिया है. खबर सामने आने के बाद पंचायत सचिव आलोक चौधरी सामने आए हैं. आलोक ने जो बयान दिया है वह प्रधान को झूठा ठहराता है. ‘दलित दस्तक’ से बातचीत में उन्होंने अपनी पीड़ा बताते हुए इस बात की पुष्टि की कि दलित होने के नाते मेरे साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है. उन्होंने आरोप लगाया कि प्रधान की तरफ से लिखे गए पत्र में उन्हें जाति सूचक शब्दों के साथ संबोधित किया गया है. प्रधान मुझे दलित जाति का बताकर ग्राम पंचायत में कार्य करने के लिए तैयार नहीं है. आलोक ने कहा कि अगर वो अपने काम में लापरवाही बरत रहे होते या फिर स्थानीय लोगों में उनके काम को लेकर नाराजगी होती तो उन्हें हटाया जा सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. मुझे सिर्फ इसलिए हटाने को कहा जा रहा है क्योंकि मैं दलित जाति से हूं. इसी वजह से मेरे साथ लगातार बुरा बर्ताव किया जा रहा है. आलोक चौधरी ने बताया कि वो इससे आहत हैं और न्याय पाने के लिए मुख्यमंत्री से लेकर एससी/एसटी आयोग और कोर्ट जाएंगे. उन्होंने कहा कि वो प्रधान के खिलाफ मानहानि का दावा भी करेंगे. चौधरी ने रोष जताते हुए कहा कि ऐसे लोगों को प्रधान पद पर रहने का कोई अधिकार नहीं है. मामला सामने आने के बाद अब प्रशासन भी चौकन्ना हो गया है. जो प्रशासन पहले प्रधान के साथ खड़ा दिख रहा था, वो अब संविधान और संवैधानिक दायरे की बात करने लगा है. स्थानीय सीडीओ प्रशांत शर्मा ने इस संबंध में प्रधान को चेतावनी दी है. उन्होंने प्रधान को पत्र लिखकर कहा है कि संवैधानिक पद पर रहते हुए ऐसी भाषा का प्रयोग अशोभनीय है. अगर सेक्रेटरी चाहे तो एफआईआर दर्ज करा सकता है. सेक्रेटरी की पूरी मदद की जाएगी. गौरतलब है कि लखनऊ के सरोजनी नगर के भटगांव की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने मुख्य विकास अधिकारी को चिट्ठी लिखकर भटगांव ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग की थी. प्रधान ने चिट्ठी में लिखा था कि हमारी ग्राम सभा भटगांव में ग्राम पंचायत सचिव अनुसूचित जाति दलित च..र जाति तैनात है, जिससे हमें कार्य करने में बाधा उत्पन्न हो रही है इसलिए हमारी ग्राम पंचायत भटगांव में कोई सवर्ण या पिछड़ी जाति का सचिव तैनात करने का कष्ट करें.

देविंदर वाल्मीकि ने तय किया रियो का सफर

अलीगढ़ में ब्लॉक धनीपुर के गांव अलहादपुर के देविंदर वाल्मीकि का चयन रियो ओलंपिक में खेलने वाली भारतीय हॉकी टीम में हो गया है. टीम में मिड फिल्डर के तौर पर वे देश के लिए पसीना बहांएगें. ड्राइवर के बेटे ने आर्थिक तंगी समेत कई समस्यओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है. देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी. मुंबई के चर्च गेट में प्रैक्टिस करते हुए 24 साल की उम्र में ओलंपिक में स्थान पक्का कर अपना लोहा मनवाया है. देविंदर ने 2014, 2015 व 2016 में हुए हॉकी इंडिया लीग में मिड फिल्डर के तौर पर हिस्सा लिया. 2015 में बेल्जियम में हुई हॉकी वर्ल्ड लीग राउंड थ्री में दो गोल दागे. इसमें टीम इंडिया टॉप-4 में रही. 2016 में चैंपियन ट्रॉफी में एक गोल दागकर रजत पदक जीता, फिर 2016 छठी नेशनल हॉकी प्रतियोगिता में एक गोल किया. देविंदर के पिता सुनील वाल्मीकि काम की खोज में 50 साल पहले मुंबई गए थे. वहां उन्होंने ड्राइविंग कर परिवार का पालन-पोषण किया. मां मीना ने मुंबई में ही 28 मई 1992 में देविंदर का जन्म दिया. खिलाड़ी के तीन भाई राकेश, रवि व युवराज यहां गांव अलहादपुर में ही पैदा हुए. देविंदर ने आर्थिक तंगी समेत तमाम समस्याओं से जूझते हुए रियो ओलंपिक तक का सफर तय किया है, देविंदर ने नौ साल की उम्र में हॉकी के राष्ट्रीय खिलाड़ी अपने बड़े भाई युवराज वाल्मीकि से प्रेरित होकर स्टिक थामी थी.

दलित अधिकारी के साथ काम करने में दिक्कत होती है, तबादला किया जाए

दलितों के प्रति भेदभाव की खबरें आम है. लेकिन जब यह भेदभाव घृणा में बदल जाए तो आप क्या कहेंगे. और जब घृणा करने वाला कोई सवर्ण नहीं बल्कि पिछड़ी जाति का कोई व्यक्ति हो तब तो समाज के सामाजिक ढांचे के लिए खतरनाक संदेश है. जातिवाद के जहर का ऐसा ही एक मामला सामने आया है, जिसमें पिछड़ी कहे जाने वाली यादव जाति की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने ग्राम पंचायत सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग की है. सचिव के तबादला करने का जो तर्क दिया गया है, वह समाज में नासूर बनते जा रहे जातिवाद की सच्चाई और अपराध की श्रेणी में आता है. चिट्ठी में लिखा गया है कि, ‘हमारी ग्राम सभा भटगांव में ग्राम पंचायत सचिव अनुसूचित जाति दलित च..र जाति तैनात है, जिससे हमें कार्य करने में बाधा उत्पन्न हो रही है इसलिए हमारी ग्राम पंचायत भटगांव में कोई सवर्ण या पिछड़ी जाति का सचिव तैनात करने का कष्ट करें.’ मामला है लखनऊ के सरोजनी नगर का जहां भटगांव की ग्राम प्रधान सुमन यादव ने मुख्य विकास अधिकारी को चिट्ठी लिखकर भटगांव ग्राम पंचायत सचिव को हटाने की मांग की हैं. हैरान करने वाली बात यह है कि ग्राम प्रधान की इस मांग की अनुशंसा स्थानीय विधायक ने भी की है. ग्राम प्रधान सुमन यादव ने इससे पहले भी इसी वर्ष फरवरी में आलोक चौधरी से पहले रहे ग्राम पंचायत सचिव अरविंद चौधरी (अनुसूचित जाति) को भी जातिगत आधार पर हटाने की मांग की थी, जिसके बाद मार्च में आलोक चौधरी ने ग्राम पंचायत सचिव का पद संभाला. जातिवाद की मिली भगत का आलम यह था कि प्रशासन ने भी ग्राम प्रधान की मांग पर आपत्ति दर्ज कराने और इसे असंवैधानिक बताने की बजाय पूर्व सचिव अरविंद चौधरी का तबादला कर दिया था. लेकिन ग्राम प्रधान एक बार फिर जातिगत आधार पर सचिव आलोक चौधरी को हटाने की मांग कर रही है और इनके स्थान पर सवर्ण या फिर पिछड़ी जाति के सचिव की तैनाती की मांग कर रही है. ग्राम प्रधान ने अपनी चिट्ठी में पूर्व सचिव रहे नरेंद्र कुमार श्रीवास्तव का नाम भी सुझा दिया है और उनको ग्राम पंचायत सचिव बनाने की मांग कर रही हैं. सुमन यादव ने पूर्व ग्राम पंचायत सचिव अरविंद चौधरी को हटाने के लिए 16 फरवरी 2016 को लखनऊ विकास अधिकारी के नाम चिट्ठी लिखी थी. इस चिट्ठी में उन्होंने क्षेत्रीय विधायक की सहमति का भी जिक्र किया है. 18 मार्च 2016 को ग्राम प्रधान सुमन यादव ने अपने आप को समाजवादी पार्टी की कार्यकर्ता बताते हुए मुख्यमंत्री को भी दलित सचिव अरविंद चौधरी को हटाने की मांग की. उन्होंने जो चिट्ठी लिखी है, वह समाजवादी पार्टी के लेटर पैड पर लिखी गई है. लखनऊ विकास अधिकारी ने उनकी मांग से लखनऊ जिलाधिकारी से अवगत करवाया, जिसके बाद जिलाधिकारी ने अरविंद चौधरी का तबादला करवा कर अलोक चौधरी को भटगांव ग्राम सभा सचिव का पद सौंप दिया लेकिन ग्राम प्रधान अलोक चौधरी को भी हटवाना चाहती है. इस बारे में जब सुमन चौधरी से बात करने की कोशिश की गई तो वह फोन पर नहीं आई. उनके पति जीत बहादुर यादव ने दलित दस्तक से बातचीत में किसी चिट्ठी को लिखने से इंकार किया और इसे फर्जी बताया. जब दलित दस्तक ने यह पूछा कि फर्जी चिट्ठी लिखने वाले पर क्या उन्होंने कोई एफआईआर दर्ज करवाया है तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और फोन काट दिया. नोट- दलित दस्तक के पास सारे कागजात मौजूद हैं

इश्क में काफिर होना

कहानी की पहली किस्त सुमित ने लिखी थी, दूसरी किस्त अजरा के अपने अनुभवों को लेकर है. अजरा ने हरियाणा और इस्लाम के मिले जुुले अनुभव को कलमबद्ध किया है. आरे सुमित यो के करा तनैं? ना लाड्डू खुआए अर ना नाचण का मौका दिया. बता बहू ले आया अपणे आप. पर कोए ना ईब ले आया तो ठीक सै… बहू तो चोखी सै तेरी. इन लाइनों के साथ पड़ोस की एक आंटी ने मुझे मुंह दिखाई दी थी. 6 साल में सुमित से इतनी हरियाणवी तो मैं भी सीख ही चुकी हूं. वो बात और है कि बोल नहीं पाती लेकिन जोड़-तोड़ कर मतलब तो समझ ही लेती हूं. चलिए कहानी में आगे बढ़ते हैं. मेरा नाम अज़रा प्रवीन है और मैं मुसलमान हूं. उर्दू ज़बान में स्कूल की पढ़ाई करने वाली मैं बहुत ही आम लड़की थी और पूरे इस्लामिक तौर तरीकों से दिल्ली 6 की गलियों में पली थी. कॉलेज में सुमित से प्यार हुआ और अब मैं हरियाणा के एक गांव में हूं सुमित के घर पर. मैंने हरियाणा का नाम अक्सर टीवी और अखबारों में ही पढ़ा था. अफसोस किसी अच्छे काम के लिए नहीं. झूठी शान के लिए बेटे-बेटी की हत्या, खाप पंचायत के एक गोत्र में शादी करने वाले जोड़े को जान से मारने के फैसले, कन्या भ्रुण हत्या और औरतों के खिलाफ जुल्मों के बारे में. कुछ इसी तरह के हरियाणा की एक इमेज बनीं हुई थी दिमाग में, कॉलेज में तो कई बार इन मसलों पर बहस हुई थी. अब शादी के बाद जब हरियाणा जाने की मेरी बारी आई तो दिल में कई सवाल मुंह उठाए खड़े थे… क्या होगा वहां पर? कैसे लोग होंगे? कहीं मैं और सुमित भी ऑनर किलिंग का शिकार तो नहीं हो जाएंगे? खैर सुमित साथ था तो निकल गए हम भी मिशन फैमिली पर. सुमित के घर जाकर मेरे सारे पूर्वाग्रह बिना पंख के ही छू मंतर हो गए. मेरी सास एक दम सरल व्यक्तित्व वाली लेकिन खुद्दार महिला हैं. अब मुझे यहां दूसरी अम्मी मिल गई हैं. यहां किसी को मेरे धर्म से कोई दिक्कत नहीं है. ना ही सुमित के घर वालों को और ना ही किसी गांव वाले को. अभी तक जितने लोगों से मिली हूं किसी ने धर्म को लेकर ज्यादा सवाल-जवाब नहीं किए और ना ही हमारी शादी को लेकर कुछ गलत कहा. हिंदी सीरियलों की जली भूनी औरतों के जैसे यहां किसी ने मुझे नीचा दिखाने की भी कोशिश नहीं की. यहां मेरे जेठ-जेठानी से लेकर मेरी ननंद तक सभी ने मेरे डर को भगाकर मेरी हिम्मत बांधी. हरियाणा की स्टीरियोटाइप इमेज अब दूर हो रही है. दिल्ली वालों के दिमागी फितूर के मुकाबले यहां लोग सरल और स्पष्ट हैं. मेरे लिए ये किसी सपने से कम नहीं. हां मैंने अपनी सास के दिए सारे गहनों और चुड़ियों को पहन लिया है, क्योंकि मुझे इसमें धार्मिक प्रतीकों से ज्यादा अपनी बहू के लिए प्यार दिखाई देता है. मैं मुसलमान हूं और अपने मजहब को शिद्दत से मानती हूं लेकिन सुमित नास्तिक है. सुमित जैसे लोगों को हमारे यहां काफिर कहा जाता है. गैर-मुस्लिम से शादी करना किसी गुनाह से कम नहीं. अब मैंने सुमित से शादी की है तो कई लोगों की परिभाषा में मैं भी काफिर ही कहलाऊंगी. चाहे भले ही मेरे और मेरे खुदा का रिश्ता कितना ही मजबूत क्यों ना हो. हां अगर सुमित इस्लाम कुबूल कर लेता तो शायद मुझे शाबाशी मिलती कि अल्लाह का नाम लेने वालों की गिनती में एक शख्स और बढ़ गया. शायद यही फॉर्मूला मेरे हिंदू बनने पर भी लागू होता. लेकिन हमारा इश्क किसी स्पोंसर्ड लव जेहाद जैसी साजिश का हिस्सा थोड़े ना है. धर्म को लेकर हम दोनों की राय अलग है लेकिन हम एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं. मैंने अपना धर्म और नाम नहीं बदला है और ना ही किसी ने मुझे बदलने के लिए कहा. मैं जैसी हूं वैसी सबको मंजूर हूं. आप कहते रहिए मुझे काफिर… सच्चा इश्क भी किसी इबादत से कम नहीं होता.

विदेशों में फ्री पढ़ सकते हैं दलित छात्र

नई दिल्ली। भारत सरकार दलितों के लिए इतनी स्कीम व योजना लेकर आती है, पर कोई इसका लाभ नहीं ले पाता है क्योंकि वह इन योजना से अनभिज्ञ होते हैं. क्या आप जानते है,  दलित छात्रों के लिए एक ऐसी स्कोलरशिप भी है जिसके तहत वह विदेशों में शिक्षा ले सकता है, इसके लिए उन्हें एक रूपया तक खर्च करने की जरूरत नहीं है. पर अफसोस इस बात का है कि दलित छात्र इस योजना के बारे में जानते ही नहीं है. इस योजना में 60 छात्रों को लाभ मिलता है लेकिन इस वर्ष अभी तक मात्र तीस छात्र ही चयनित हो पाएं हैं, जानकारी के अभाव में  अभी भी सीटें खाली रह गई हैं. अगले वर्ष से यह स्कीम 100 छात्रों को छात्रवृति देने की है परन्तु यदि इस वर्ष छात्रवृति लेने के लिए एवं विदेशों में पढ़ाई करने के इच्छुक छात्र व छात्राएं उपलब्ध नहीं होते हैं तो भविष्य के लिए पढ़ाई की यह स्कीम बन्द भी की जा सकती है. भारत सरकार का सामाजिक, न्याय मंत्रालय द्वारा दलित छात्रों को स्कोलरशिप दी जाती है. नेशनल ओवरसिज स्कोलरशिप स्कीम दलित छात्रों को विदेशों में पढ़ने के लिए छात्रवृति देता है. यह छात्रवृति पोस्ट ग्रेजुएट या पी. एच. डी. करने वाले उन छात्रों को दी जाती है जिनके ग्रेजुएशन में 55 प्रतिशत मार्क्स या उससे अधिक हों. छात्रों का पूरा खर्चा जिनमें आना-जाना, रहना-खाना और फीस मंत्रालय वहन करता है. राष्ट्रीय शोषित परिषद इस मुद्दे को विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में उठा रहा है, जिससे की दलित छात्र व शोधार्थी इस स्कोलरशिप का लाभ ले सकें. इसके अतिरिक्त ये संस्था दलित बच्चों को पायलट (सीपीएल) का कोर्स फ्री में करवाने का काम करवाती है. यह संस्था पिछले 30 वर्षों से दलित छात्रों व समुदाय के हित में काम कर रही हैं.

धर्म हमारे ठेंगे पर

वह एक पत्रकार है. वो जिससे प्यार करता था हाल ही में उसने उससे शादी कर ली है. लेकिन दिक्कत यह थी कि लड़के का नाम सुमित था और लड़की का अजरा. लड़का अम्बेडकरवादी नास्तिक और लड़की पांच वक्त की नमाजी. जब इस जोड़े ने फेसबुक पर अपनी शादी की खबर और तस्वीर साझा कि तो लोग उन्हें ईश्वर और अल्लाह के नाम पर बधाई देने लगे. बस्स… फिर क्या था, सुमित भड़क गए और उन्होंने कह दिया …धर्म हमारे ठेंगे पर. सुमित ने अपने सफरनामे को दलित दस्तकसे साझा किया है. पढ़िए, सुमित के प्यार और समाज द्वारा खड़ी की गई दीवार की कहानी सुमित की जुबानी…। जिन प्रेम कहानियों पर आधारित फिल्मों को देखकर मैं बड़ा हुआ उन्हीं को जीने का मौका भी मिला. कॉलेज के फर्स्ट ईयर में अजरा से दोस्ती हुई और सेकेंड ईयर तक ये दोस्ती प्यार में तब्दील हो गई. 2010 में शुरू हुआ ये सफर आज शादी के मुकाम पर आ पहुंचा है. 6 साल का सफर किसी सुहाने सपने से कम नहीं. हम दोनों राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं तो वाद-विवाद अमूमन हर विषय पर होता है. धर्म को लेकर भी खूब संवाद हुआ है. मैं हिंदू परिवार में पैदा हुआ नास्तिक और अंबेडकरवादी व्यक्ति और मेरी लाइफ पार्टनर पांच वक्त की नमाज़ी. धर्म को लेकर स्पष्ट मत विभाजन लेकिन ये धर्म कभी प्यार में रुकावट नहीं बना. लेकिन कुछ लोगों के लिए हमारा मजहब ज्यादा मायने रखता है. ऐसे धर्मांधकारी किसी के रिश्ते की खूबसूरती नहीं देख सकते. खैर किसी और के कुछ भी सोचने से फर्क नहीं पड़ता. फर्क पड़ता है तो अपने परिवार के सोचने और बोलने से. परिवार को मनाना लोहे के चने चबाने जैसा ही है. हां मेरे हिस्से के चने कुछ नर्म थे जिन्हें मैं जल्दी हजम कर पाया लेकिन अजरा के हिस्से असली लोहे के चने ही आए. पिछले साल दिसंबर में जब मैंने अजरा की अम्मी से बात कि तो उनका कहना यही था कि हम दोनों के मजहब अलग हैं और इस रिश्ते की कोई गुंजाइश नहीं. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं तो नास्तिक आदमी हूं और मैं ना इस्लाम को मानता हूं और ना ही हिंदू धर्म को, तब उनका जवाब था… ये तो और भी बड़ा गुनाह है. बताइए, जिस धर्म से मुझे कुछ लेना देना नहीं वो मेरे जीवन में सबसे बड़ी मुश्किल बन कर खड़ा हो गया. आप धर्म को छोड़ सकते हैं लेकिन धर्म आपको छोड़ने के लिए तैयार नहीं क्योंकि शायद हम पर सबसे ज्यादा कब्जा धर्म ने किया हुआ है. जीवन के हर पहलू में धर्म सीधा दखल देता है. मार्क्स बाबा ने धर्म को अफीम यूं ही थोड़े ना कहा है. खैर हम भी कहां मानने वाले थे, इश्क तो वैसे भी हठी होता है. धर्म को हमने घी से मक्खी के जैसे निकाल कर अलग कर लिया और इसे बेहद निजी मामला मानते हुए अपने रोमांस में इसे कहीं भी जगह नहीं दी. हां हम दोनों ने हिंदू धर्म में फैली देवदासी, दहेज, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा और इस्लाम में व्याप्त बुर्का, कई शादियां करना, संपत्ति के अधिकार और तीन बार तलाक प्रथा पर घंटों बहस की है. लेकिन कभी मनभेद नहीं हुआ. दो दिन पहले फेसबुक पर मैंने अपनी शादी की जानकारी साझा की. सैकड़ों लोगों ने शुभकामनाएं दी. ज्यादातर बधाई संदेशों में ईश्वर आपको खुश रखे, अल्लाह आपको सलामत रखे जैसी दुआएं दी गई हैं. मैं अपने तमाम दोस्तों की इन शुभकामनाओं को दिल से स्वीकार करता हूं. लेकिन दोस्तों एक बात बताऊं, हमारी पूरी प्रेम कहानी में सबसे ज्यादा दिक्कत इन ईश्वर और अल्लाह नाम के शब्दों ने ही खड़ी की है. धर्म नाम की दीवार शायद सबसे ज्यादा मजबूत होती है जो अपने साथ कई रिश्तों को लेकर ही जमींदौज होती है. कई लोगों के लिए हमारा धर्म ज्यादा मायने रखता है…. रखता होगा. आपका ये ढकोसले वाला धर्म हमारे ठेंगे पर.

लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स के कॉलेज में भाषण देने जाएंगी कौशल पंवार

नई दिल्ली। कौशल पंवार एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने लंदन जा रही हैं. वहां वह इंपेरिकल कॉलेज में डॉ. भीम राव अम्बेडकर के परिप्रेक्ष्य से महिलाओं का उद्धार विषय पर संबोधित करेंगी. यह कॉलेज लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स का हिस्सा है जहां से बाबासाहेब ने अपनी पी.एचडी की थी.  पंवार 31 जुलाई को लंदन जाएंगी और 7 अगस्त को वापसी आएंगी. कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और संस्कृत पढ़ाती हैं. पंवार बहुजन समाज और स्त्रियों से जुड़े मुद्दों पर भी सक्रिय हैं. अभी तक इनकी पांच किताबें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. कौशल पंवार का कहना है कि हमारे समाज के लोगों में मेरिट और प्रतिभा कूट-कूट कर भरी है पर ये मनुवादी मानसिकता के लोग हमें आगे नहीं आने देते. कौशल पंवार अम्बेडकरवादी विषयों पर व्याख्यान देने के लिए पहले भी देश के बाहर जा चुकी हैं. वह अम्बेडकारीवादी विषयों, सम्मेलनों व चर्चा में भाग लेने के लिए 2012 में अमेरिका, 2013 में जिनेवा (स्विटजरलैंड), 2015 में अमेरिका और कनाडा जा चुकी हैं. दलित वर्ग से आने के बाद भी संस्कृत का प्राध्यापक बनने की पीछे उनकी मंशा धार्मिक ग्रंथों का बारीकी से अध्ययन करना था, जिसमें शूद्रों और महिलाओं के बारे में कई आपत्तिजनक बातें लिखी है. गौरतलब है कि प्रोफेसर कौशल पंवार को पिछले साल विश्वविद्यालय में जातिवाद का सामना करना पड़ा था और उन पर अशिष्ट टिप्पणियां भी की गई थी. उन्होंने कॉलेज प्रशासन को इसकी शिकायत की लेकिन प्रशासन ने कोई सकारात्मक कार्रवाई नहीं की. इसके बाद उन्होंने इस मुद्दे पर विरोध की आवाज बुलंद की थी.

अनशन पर बैठे डॉ. सुनील कुमार सुमन

वर्धा। डॉ. सुनील कुमार सुमन अन्यायपूर्ण तरीके से किए गए अपने ट्रांसफर के खिलाफ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा प्रशासन के खिलाफ अनशन पर बैठ गए हैं. वर्धा विश्वविद्यालय जातिवाद का गढ़ बनता जा रहा है. खासकर नए कुलपति प्रो गिरीश्वर मिश्रा के आने के बाद तो जैसे ब्राह्मणवाद ही इस विश्वविद्यालय की पहचान बनती जा रही है. यहां भाई-भतीजावाद और परिवारवाद का खेल खुलेआम होता है. डॉ. सुनील कुमार के समर्थन में वहां का छात्र समुदाय भी खुलकर सामने आ गया है. छात्र संगठन अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम डॉ. सुनील कुमार सुमन को अपना समर्थन दे रहा है. संगठन की तरफ से कुलपति के नाम एक ज्ञापन भी दिया गया है. ज्ञापन में कहा गया है कि सहायक प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार वर्धा विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय अध्यापक हैं. वे ऐसे अध्यापक हैं, जो अपने विभाग से इतर दूसरे विभागों-केंद्रों के विद्यार्थियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं. इसका कारण उनका मृदुभाषी-सहयोगी स्वभाव और छात्रों को हमेशा बेहतर बनने-करने के लिए प्रेरित करने वाली उनकी प्रकृति है. वे इस विश्वविद्यालय के एकमात्र आदिवासी वर्ग के प्राध्यापक हैं. डॉ. सुनील कुमार की पहचान राष्ट्रीय स्तर के आदिवासी लेखक-विचारक और एक्टिविस्ट के रूप में प्रतिष्ठित है. विदर्भ के तमाम ज़िलों तथा देश के कई विश्वविद्यालयों-शहरों के दलित-आदिवासी कार्यक्रमों में डॉ. सुनील कुमार को अतिथि वक्ता के रूप में हमेशा बुलाया जाता है. डॉ. सुनील कुमार को क्षेत्र की जनता द्वारा कई बार गोंडवाना भूषण पुरस्कार, शिक्षण मैत्री सम्मान और समाज भूषण सम्मान जैसे पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका है. गौरतबल है कि डॉ. सुनील कुमार को विश्वविद्यालय में शुरू से ही उनको जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है. पिछले कुलपति के कार्यकाल में भी ऐसा हुआ और अब भी ऐसा ही हो रहा है. उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों ने जातिगत भावना से निर्णय लेते हुए डॉ. सुनील कुमार का स्थानांतरण कोलकाता केंद्र पर किया गया है. वे दो साल तक नौकरी से बाहर रहे, केस-मुक़दमा झेला, आर्थिक दिक्कतें सहीं और मानसिक पीड़ा भी झेली है. फिर साहित्य विभाग में इतने अध्यापकों के रहते हुए डा. सुनील कुमार को ही क्यों कोलकाता भेजा रहा है ? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ऐसे ही दलित-आदिवासी छात्रों-शिक्षकों को यहाँ परेशान करता रहेगा ?