दलित-मुसलमानों को अखबार पढ़ना छोड़ देना चाहिए!

उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधान सभा चुनाव तक क्या दलित-मुसलमानों को अख़बार पढ़ना छोड़ देना चाहिए? क्या उन्हें सवर्ण नेताओं और मीडिया से दुरी बना लेनी चाहिए? क्या दलितों और मुसलमानों को ऐसी किसी रैली या जनसभा में नहीं जाना चाहिए, जहां की अगुआई सवर्ण या मनुवादी विचारधारा को पोषित करने वाला प्रवचन सुना रहा हो? इस तरह के कई सवाल दलित-मुस्लिम बुद्धिजीवियों के मन में उठ रहे हैं और इन सबका एक ही समाधान है कि दलित-मुस्लिमों को उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव तक अखबार नहीं पढ़ना चाहिए. खासकर दलितों को तो बिल्कुल नहीं पढना चाहिए.

एक फ़िल्म का गाना है, जिसमे एक प्रेमी अपनी प्रेमिका से जुदा होने के बाद गाता है कि ये दुनिया, ये महफ़िल मेरे काम की नहीं. इस गाने को मिशाल के तौर पर मानें तो बहुजन समाज (दलित, पिछड़ा और मुस्लिम) को 6 महीने के लिये अपने घर में अख़बार मांगना बंद कर देना चाहिए. अपने घर में रखे टेलीविजन को रिचार्ज नहीं करवाना चाहिए और रिचार्ज भी कराएं तो कॉमेडी सीरियल, फ़िल्म या कोई रियलिटी प्रोग्राम या फिर डिस्कवरी चैनल देंखने चाहिए. क्योंकि ख़बरें उनके काम की नहीं रहीं.

दलित-मुसलमानों को टीवी या अख़बार देखना-पढ़ना इसलिए बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि दोनों में ही काम करने वाले मीडियाकर्मी बहुतायत में सवर्ण हैं, जो मनुवादी सोच से ग्रसित हैं. यह विधानसभा चुनाव तक वही दिखाना और पढ़ाना चाहते हैं, जिससे हिंदुत्व को मजबूती मिले, मनुवाद को बढ़ावा मिले और इन दोनों का ठेका बीजेपी ने ले रखा है. बीजेपी हर हाल में उत्तर प्रदेश में अगली सरकार बनाने का सपना देख रही है. बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश में सरकार बनाना जरुरी इसलिए भी है, क्योंकि तेजी से ढह रही हिंदुत्व की दीवार को लोकसभा चुनाव (2019) में बचा पाना मुश्किल होगा और बीजेपी केंद्र की सत्ता से बेदखल हो जायेगी. क्योंकि उत्तर प्रदेश में दलित-मुस्लिम मतदाताओं की खिचड़ी स्वादिष्ट बन गई तो यह खिचड़ी लोकसभा चुनाव में भी पकेगी और सारे ओपिनियन पोल धराशायी हो जाएंगे.

टीवी-अख़बार से दुरी बनानी इसलिए जरुरी है कि मनुवादी मीडिया यह जान चुका है कि यूपी में दलित-मुस्लिम गठजोड़ तेजी से बन रहा है और यही वजह है कि विधानसभा चुनाव से एक साल पहले से ही उत्तर प्रदेश में ओपिनियन पोल टीवी में दिखाए जा रहे और अख़बार में पढ़ाये जा रहे हैं. इस ओपिनियन पोल में समाजवादी पार्टी को सबसे आगे और बीजेपी को दूसरे नम्बर पर दिखाया जा रहा है. 3 सितम्बर को सी-वोटर ने अपना सर्वे जारी किया. इसमें समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच काटें की टक्कर होने का दावा किया गया है.

सिर्फ इतना ही नहीं, सर्वे में दावा किया गया है कि 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सबसे ज्यादा 27.79 प्रतिशत वोट मिलेंगे, जबकि सपा को 27.51 प्रतिशत वोट मिलेंगे, लेकिन सीटें सपा ज्यादा जीतेगी. इस सर्वे में बीएसपी यानी सुश्री मायावती को तीसरे नम्बर पर रहने का दावा किया गया है और उसे 25.44 प्रतिशत वोट मिलने की संभावना जताई गई है. सी-वोटर ने यूपी के लोगों से पसंदीदा मुख्यमंत्री पर भी वोट कराया है. इसमें अखिलेश यादव 32.8 प्रतिशत वोट पाकर सबसे ज्यादा पसंदीदा मुख्यमंत्री बने हुए हैं, जबकि मायावती 28.2 प्रतिशत वोट के साथ दूसरे स्थान पर हैं. लेकिन सर्वे में यह भी कहा गया है कि मायावती दूसरे स्थान पर इसलिए बनीं हुई हैं, क्योंकि बीजेपी ने अभी तक मुख्यमंत्री फेस (चेहरे) की घोषणा नहीं की है. यदि बीजेपी कोई स्थानीय दमदार चेहरे को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करती है, तो मायावती को और नुकसान हो सकता है.

सी-वोटर ने सर्वे में दिखाने की कोशिश कि है कि यूपी में बीजेपी की पकड़ लगातार मजबूत होती जा रही है और यूपी के 70 प्रतिशत लोग प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के कामकाज से खुश हैं. मतलब कि मनुवादी मीडिया ने यूपी चुनाव में बीजेपी को मोदी चेहरे का लाभ मिलने का दावा किया है. अगर सर्वे के दावों को स्वीकार किया जाये तो यूपी में अगली सरकार त्रिशंकु बनेगी और सरकार सपा और भाजपा के गठबंधन से बनेगी.

दलित-मुस्लिम समुदाय के लोगों को यही गंभीरता से सोचने की जरुरत है कि आखिर क्यों यूपी में ही यह सर्वे दिखाए जा रहे हैं. दूसरे प्रदेशों में भी चुनाव होने हैं और वहां भी दिखाने चाहिए. इसका सीधा सा मतलब यह है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. बीजेपी को यूपी के लोगों की चिंता नहीं है, बल्कि उसे दिल्ली की चिंता है, क्योंकि केंद्र की सत्ता हाथ में रहती है, तो हिंदुत्व के मनुवाद को बढ़ाने में आसानी रहेगी. दलितों-मुसलामानों को दबाने, पीछे धकेलने में आसानी रहेगी, जैसा कि देश भर में दलितों और मुसलामानों के साथ हो रहा है.

इसमें बीजेपी को सपा की या फिर सपा को बीजेपी की जरुरत क्यों पड़ रही है. आखिर दोनों परदे के पीछे एक साथ क्यों खड़े हैं? क्यों मोदी सरकार और अखिलेश सरकार एक दूसरे की गुपचुप तरीके से मदद कर रही है? क्यों दोनों ही बीएसपी को तीसरे नम्बर पर बता रही हैं, तो इसका एकमात्र जवाब है कि दोनों को पता है कि अगले साल यूपी में बीएसपी की सरकार और मायावती मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं. अब से कुछ माह पहले भी टीवी चैनलों पर सर्वे चला था जिसमे बीएसपी की सरकार बनने का दावा किया गया था, लेकिन उस सर्वे के बाद आये दो-तीन सर्वे में बीएसपी को तीसरे नम्बर पर दिखाया जा रहा है.

जहां तक राजनीतिक समझ कहती है जो सत्ता में रहता है, वोटर की नजर में चुनाव के दौरान सबसे कमजोर होता है. सपा यूपी में सत्ता में है और साढ़े 4 साल की सरकार में 200 से ज्यादा सामुदायिक दंगे, हर रोज दलित महिलाओं से रेप, छेड़छाड़ और पिटाई की घटनाएं हो रही हैं. हर तरफ गुंडाराज है. मुलायम सिंह खुद कबूल करते हैं कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता गुंडई कर रहे हैं, जमीनों पर कब्ज़ा सहित माफियाओं का बोलबाला है. मुलायम सिंह आगाह कर चुके हैं कि सम्भले नहीं तो सत्ता में लौटना नामुमकिन है. इतनी चेतावनी के बाद भी प्रदेश में गुंडाराज कायम है, जबकि केंद्र की सत्ता में बैठी बीजेपी को यूपी में 2012 के मोदी लहर का लाभ मिलने की उम्मीद धूमिल पड़ गई है. हम यूं कह सकते हैं कि दलित और मुस्लिम वर्ग बीजेपी के हिंदुत्ववादी मनुवादी विचारधारा से पिछले 2 साल से इस कदर दुखी है कि वह मायावती और बसपा से उम्मीदें लगा चुका है. यही कारण है कि बार बार मोदी जी को दलित और आम्बेडकर प्रेम का दिखावा करना पड़ता है. कहना पड़ता है कि उनके दलित प्रेम को देखकर कुछ सवर्णों को जलन होती है. इन दो सालों के मोदी युग को भी दलित-मुसलमान देख चुके हैं और जान चुके हैं कि आगे क्या होगा?

सर्वे में बीएसपी को क्यों तीसरे स्थान पर दिखाया जा रहा है, यह बात गले से नहीं उतर रही है, क्योंकि मायावती एक ऐसी शासक हैं जिनके मुख्यमंत्री रहने के दौरान गुंडे प्रदेश छोड़कर भाग जाते हैं. पुलिस प्रशासन को ईमानदारी से काम करने की छूट होती है और किसी सरकारी ऑफिस में बीएसपी कार्यकर्ता को जाने या सिफारिश करने पर पाबन्दी होती है. मतलब यह कि बीएसपी की सरकार वही करती है, जो संविधान कहता है. हो सकता है कि अगले एक दो महीने में और भी सर्वे आएंगे और उसमे बीएसपी को और कमजोर दिखाया जायेगा. आखिर क्यों? क्या यही सच्चाई है या फिर कोई साजिश है. अगर बुद्धिजीवी वर्ग दिमाग पर जोर दें, तो साफ पता चलता है कि यह मात्र साजिश है.

मनुवादियों को पता है कि दलित और मुस्लिम समुदाय अभी पूरी तरह से जागरूक नहीं हुआ है. दोनों समुदयों में जो पढ़े लिखे लोग हैं, उनमें 50 प्रतिशत लोगों के पास राजनीतिक ज्ञान ही नहीं है. वे गलत और सही के बीच फंसे हुए हैं. अब जरुरी यह है कि दलित मुस्लिम वर्ग को इन दोनों की चाल को समझना होगा. बीजेपी और सपा सर्वे के जरिये दलित और मुस्लिम वर्ग को फर्जी सर्वे दिखाकर भ्रमित करना चाहते हैं, ताकि दलित मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो और सीधा लाभ बीजेपी और सपा को मिले. चूंकि ऐसा होता है तो किसी को इतनी सीट नहीं मिलेगी कि वह पूर्ण बहुमत की सरकार बना सकेगा. ऐसे में पूर्व प्लान के तहत बीजेपी और एसपी मिलकर प्रदेश में गठबंधन की सरकार बना सकेंगे. अगर बीजेपी और सपा की सरकार बनती है तो इससे मुस्लिम वर्ग का सबसे ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि सपा सत्ता के लालच में बीजेपी के खिलाफ कुछ बोलेगी नहीं और बीजेपी मुस्लिम मुक्त भारत का अभियान आगे बढ़ाएगी, जबकि दलित वर्ग के लोग उसी हालत में अगले 5 साल तक और जीएंगे, जिस हालत में वर्षों से जीते आ रहे हैं.

लेखक नवभारत टाइम्स, ग्रेटर नोएडा में पत्रकार हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.