24 अगस्त 2016 को मोदी जी ने बयान दिया कि दलित-पिछड़े राष्ट्रवादी नहीं और राष्ट्रवादियों के अलावा कोई भाजपा के साथ नहीं. मोदी जी के इस बयान पर अनुसूचित जातियों की तीखी प्रतिक्रिया लाजिमी है. तीखी प्रतिक्रिया हुई भी. लेकिन प्रतिक्रिया उनके बयान के इस हिस्से को लेकर ज्यादा हुई कि दलित-पिछड़े राष्ट्रवादी नहीं. अनुसूचित जातियों ने इसे अपना अपमान माना. यहां मोदी जी पर पलटवार किया जा सकता है कि क्या मोदी जी भाजपा की पैतृक संस्था आरएसएस के उन राष्ट्रवादियों की सूची मुहैया करा पाएंगे जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया था? लेकिन नहीं…मोदी जी के पास ऐसी कोई सूची होगी ही नहीं क्योंकि आरएसएस के ज्यादातर झंडाबरदारों ने न तो स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया और न ही शांत ही बैठे, बल्कि आन्दोलनकारियों के विरोध में अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार ही की. आन्दोलनकारियों का केवल विरोध ही करते तो गनीमत होती, उन्होंने तो अंग्रेजी-जेलों में बंद आन्दोलनकारियों के विरोध में अंग्रेजों के हक गवाहियां भी दीं.
आरएसएस के जितने भी बड़े नाम हैं, उन सबका देश विरोधी चेहरा किसी से छिपा हुआ नहीं है, यहां उनका नाम लेना जैसे देश और समाज के हक में नहीं. मोदी जी को याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने वाले आन्दोलनकारियों में सबसे ज्यादा उन्ही जातियों के लोग थे जिन्हें आज अनुसूचित जातियों और पिछड़ा वर्ग के नाम से जाना जाता है. लेकिन उस लड़ाई के इतिहास में उनका नाम कहीं भी नहीं मिलता. कारण कि इतिहासकार भी तो ब्राह्मणवादी शक्तियां ही रही हैं. इतिहास में केवल और केवल ब्राह्मणवादियों के नाम का ही चर्चा किया गया जो समाज की सबसे डरपोक और चालबाज कौम है. जो मिथ्या है. अफसोस तो ये है कि इन ब्राह्मणवादी शक्तियों ने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नाम को भी नदारत करने की साजिश रच डाली. सरदार भगत सिंह और उधम सिंह जैसे आन्दोलनकारियों की बात की भी गई तो आतंकवादियों के रूप में.
मोदी जी का ये कहना कि राष्ट्रवादी तो भाजपा के साथ पहले से ही हैं, लेकिन दलितों और पिछड़ों को बीजेपी के साथ लाने की जरूरत है, बड़ा ही हास्यास्पद है. उनके बयान से तो यही लगता है कि मोदी जी की नजर में केवल 15 प्रतिशत सवर्ण ही राष्ट्रवादी हैं. ऐसा कहते समय मोदी जी भूल गए कि 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता में तमाम कारण गिनाने वाले अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने जिस बात को खुलकर नकारा है, वह है जाति फैक्टर. उनका मानना है कि मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व और विकास के नारे ने जाति की दीवारों को ध्वस्त कर दिया था. किन्तु राजनीतिक विश्लेषक चाहे जो भी कहें, सच्चाई यह है कि जाति तत्व इस चुनाव में सबसे ज्यादा प्रभावी रहा और मोदी ने बड़ी सूझ-बूझ और चालबाजी से अनुसूचित जातियों को अपने साथ जोड़कर सफलता का स्वाद चखा.
16वीं लोकसभा चुनाव के आकड़ें बताते हैं कि देश भर में 54 प्रतिशत अनुसूचित जातियां और ओबीसी वोट मोदी के खाते में चले गए. ऐसा इसलिए हुआ कि उन्होंने बड़ी सफाई से खुद की अपनी छवि एक ऐसे नीची जाति के नेता के रूप में प्रोजेक्ट की कि जो मोदी जी को जीत ओर ले जा सकता थी. इस क्रम में उनका खुद को नीची जाति का बताना एक असरदार और मारक हथियार साबित हुआ. उन्होंने राम विलास पासवान, डॉ. उदितराज, छेदी पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, राम कृपाल यादव इत्यादि को जोड़कर जो नई सोशल इंजीनियरिंग रची, उससे केंद्र की सत्ता दिलाने में सबसे प्रभावी रोल अदा करने वाले यूपी-बिहार में 120 में से 104 सीटें भाजपा की झोली में जा गिरीं. जो अनुसूचित जातियों के समर्थन के बिना संभव ही नहीं था. और आज मोदी जी कहते है कि अनुसूचित जातियां और समाज का पिछड़ा वर्ग राष्ट्रवादी नहीं हैं. यह शर्म की बात है किंतु प्रधानमंत्री बनने के बाद अब मोदी जी नीची जाति के थोड़ी ही रह गए हैं, वो इस बात को आज नहीं मानने वाले..
यहां एक सवाल और बराबर बना हुआ है कि समाज की दलित और दमित जातियों को मोदी की सफलता का कितना लाभ मिलेगा. मुझे नहीं लगता कि मोदी समाज की अनुसूचित और दमित जातियों को लाभ पहुंचाने की हालत में आ पाएंगे क्योंकि उनके सिर पर समाज की वर्चस्वशाली जातियों ने न केवल बराबर दबाव बना रखा है जोकि आगे तक रहेगा. मोदी में शायद उन्हें नकारने की ताकत भी कभी पैदा नहीं हो पाएगी क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की पीड़ा ऐसा कुछ करने नहीं देगी. मोदी ही क्यों… तमाम नेता कुर्सी के ही तो भूखे हैं. दलित राजनेता राम विलास पासवान, डॉ उदितराज, छेदी पासवान, उपेन्द्र कुशवाहा, अनुप्रिया पटेल, राम कृपाल यादव इत्यादि भी उसी श्रेणी के नेता हैं जो अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के मतदाताओं की छाती पर पैर रखकर सरकार के किसी न किसी अंग के रूप में सत्ता में बने रहने का उपक्रम हैं. इन तथाकथित दलित नेताओं की जुबान को तो जैसे लकवा मार गया है. आरपीआई से आए एक और अठावले जी बीजेपी की सरकार में मंत्री बना दिए गए हैं, उनका विभाग तो कुछ और है किंतु उनको मोदी जी ने जो दायित्व सौंपा है, वो है बसपा के हाथी को छिनने का. अब कोई भाजपा को बताए कि जो अठावले आरपीआई में रहकर हाथी को नहीं बचा पाए, अब उनकी क्या ताकत कि उत्तर प्रदेश में हाथी की सूंड पकड़ पाएंगे.
मोदी जी के इस बयान पर न केवल सामाजिक और लेखकीय स्तर पर अपितु राजनीतिक स्तर पर भी बहुत किरकिरी हो रही है. कांग्रेस के राहुल गांधी ने मोदी से पूछा कि क्या दलित और पिछड़े राष्ट्रवादी नहीं हैं? फेसबुक और वाटस-एप पर तो प्रधानमंत्री के इस बयान की लगातार जमकर खिंचाई हो रही है. तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं… तंज कसे जा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक चिंतक दिलीप मंडल ने लिखा है,” कार के नीचे कुत्ते का बच्चा वाला बयान छोड़ दें तो नरेंद्र मोदी जी ने इतना अपमान तो मुसलमानों का भी नहीं किया था. शुक्रिया नरेंद्र मोदी, यह बताने के लिए कि एससी और ओबीसी की आपकी नजर में क्या औकात है.” अरविंद शेष ने लिखा है कि अब इससे ज्यादा साफ-साफ मोदी जी और क्या कहेंगे कि ””सवर्ण”” उनके साथ हैं और बाकी बचे पिछड़े और दलित, तो उन्हें वे अपने साथ लाने की कोशिश करेंगे. यानी वे यह मानते हैं कि राष्ट्रवादी का मतलब सवर्ण.
राजेश यादव ने चुटकी लेते हुए लिखा है, “भारत के 69 प्रतिशत लोग राष्ट्रद्रोही होते हैं, ये 2014 के पहले के आंकड़े हैं. अभी हाल ही में इस संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है.” जितेंद्र नारायण ने लिखा है- अब तो प्रधानमंत्री ने ही स्पष्ट कर दिया कि पिछड़े और दलित अलग जातियां हैं और राष्ट्रवादियों की अलग जाति है. बेचारे पिछड़े-दलित भाजपाई न घर के हैं न घाट के. कमलेश कुमार ने लिखा है-इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या होगी कि देश का प्रधानमंत्री सरेआम देश के 85 प्रतिशत दलित पिछड़े और मुस्लिमो को देशद्रोही बोल रहा है. प्रभाकर भारतीय ने पूछा है – मोदी के अनुसार राष्ट्रवादी की परिभाषा क्या है? क्या केवल संघी और मनुवादी ही राष्ट्रवादी हैं?
इतनी सारी प्रतिक्रियाओं के बाद भी मोदी जी की चुप्पी के मायने कोई भी समझ सकता है कि मोदी जी केवल और केवल तथाकथित सवर्ण वर्ग के लिए ही काम कर रहे हैं. मोदी जी के इस प्रकार के बयानों के बाद क्या यह जरूरी नहीं कि अनुसूचित जातियां और पिछड़े वर्ग के लोगों को तथाकथित राष्ट्रवादियों के साथ दूरी बनाकर चलना ही उनके हित में होगा. और यह भी समाज की अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के राजनेताओं को निजी हितों को भूलकर एकजुट होने की आवश्यकता है. यदि ऐसा हो जाता है तो राज्यों की सरकारों पर ही नहीं, राष्ट्र की केन्दीय सरकार पर भी उनका एक छत्र राज होगा, इसमें किसी भी प्रकार की शंका हो ही नहीं सकती. एक और विकल्प भी है भारतीय समाज की अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के साथ यदि मुसलमान और आ जाते है तो राजनीतिक तस्वीर कुछ और ही होगी. इस प्रकार के गठजोड़ में कुछ न कुछ तो बाधाएं आएंगी जरूर, फिर भी सुफल की आशा की जा सकती है.
मोदी जी के इस बयान को उत्तर प्रदेश के आगामी चुनावों से जोड़कर देखे जाने की जरूरत है. अब अनुसूचित जातियों और समाज के पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को यह सोचना ही होगा कि अपने समाज के हितों की रक्षार्थ किसको वोट देना सार्थक रहेगा. मोदी जी चाय बेचने वाले के बेटे हैं और समाज की नीची जाति में पैदा हुए हैं, इस बात के भुलावे में नहीं आना है. वैसे भी प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी नीची जाति के थोड़े ही रह गए हैं?
लेखक तेजपाल सिंह तेज एक लेखक हैं. तेजपाल सिंह तेज को हिन्दी अकादमी (दिल्ली) द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार और साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इनका संपर्क सूत्र tejpaltej@gmail.com है.
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