ब्रिटिश शासन के समय क्रिकेट के इतिहास में भारतीयों की हिस्सेदारी जितनी अजीबोगरीब तरीके से हुई, उतने ही अजीबोगरीब तरीके से क्रिकेट में राजनीति की घुसपैठ से परिस्थितियों का निर्माण होने लगा था. माना जा सकता है कि क्रिकेट खिलाड़ियों में भयंकर प्रतिस्पर्धा होने पर प्रतिभा का हनन हुआ, लेकिन उस प्रतिस्पर्धा की आग में राजनीति ने जो घी का काम किया वह क्रिकेट के इतिहास का दुखद पहलू था. क्रिकेट के खेल में विश्व में भारतीयों द्वारा अर्जित ख्याति के बावजूद इस सांप-सीढ़ी के खेल में जहां कुछ को ख्याति के साथ अकूत धन-दौलत मिली, वहीं कुछ के हिस्से में विफलता के साथ गुमनामी आई. पर राजनीति के साथ जब जाति का तड़का भी लगना शुरू हुआ तो उन नायकों को अंधेरे में धकेल दिया गया, जिन्हें आज सुनील गावसकर और तथाकथित भगवान सचिन तेंदुलकर भी न जानते होंगे. क्रिकेट के द्विज समीक्षाकार और इतिहासकारों को तो इस बारे में कुछ मालूम ही न होगा. इसलिए क्रिकेट के ऐसे सवर्ण जानकारों में अधिकतर ने सोचा ही न होगा कि केंद्र से हाशिये पर गया क्या कभी कोई दलित क्रिकेटर इतना प्रतिभाशाली हो सकता है, जिसके बारे में 1913 में हिंदू टीम का कप्तान बनाए जाने के विशेष सम्मान से जुड़े अभिनंदन समारोह में खुद एमडी पै ने कहा था, ‘कप्तानशिप का यह सम्मान तो टीम में वरिष्ठ और अनुभवी खिलाड़ी मेरे मित्र पी बालू को दिया जाना चाहिए.’
इसे उदारता कहें या कुटिलता, हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे. पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि 1913 से पूर्व और बाद में भी क्रिकेटर एमडी पै की इस भावना को ईमानदारी से हिंदुओं ने नहीं लिया. हिंदू जिमखाना, बंबई के वकील और व्यापारियों ने तो इस उदारता में बिल्कुल हिस्सेदारी नहीं निभाई. एक ब्राह्मण ‘पै’ के स्थान पर दलित जाति का कोई व्यक्ति यानी पालवंकर बालू हिंदू टीम का नेतृत्व करे, यह बात किसी को सहन नहीं थी. ऐसे समय पालवंकर बालू को एक अनिच्छुक विद्रोही भी कहा जा सकता है. इसलिए कि उन्होंने खुले रूप में अपने दावे का इजहार नहीं किया था. लेकिन बरस-दर-बरस प्रतीक्षा के बाद 1920 में पी बालू ने शालीनतापूर्वक एक पत्रकार से बातचीत के दौरान कहा था कि एक वर्ष के लिए ही सही, टीम का नेतृत्व उन्हें दे दिया जाए. हिंदू टीम को दी गई उनकी सेवाओं के बदले यह एक पुरस्कार ही होगा.
आइए देखते हैं कि जिस हिंदू टीम को यश और सम्मान दिलाने में एक दलित क्रिकेटर पी बालू ने अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, उसके साथ हिंदू टीम और उनके खैरख्वाहों का कैसा व्यवहार रहा. गांधीजी इस घटनाचक्र में कैसे आए!
भारत में आरंभिक दौर में अंग्रेज ही क्रिकेट खेलते थे. उस समय हिंदू खिलाड़ियों को किक्रेट खेलने की मनाही थी. बाद के दस वर्षों तक भारतीयों ने क्रिकेट खेलने के लिए आंदोलन भी चलाया, जिसमें वे सफल हुए. क्रिकेट के इतिहास में इसे नस्लीय आधार पर सफलता भी कहा जा सकता है. बालू चमार जाति से थे. उनका जन्म 1875 में धारवाड़ में हुआ था. वहां से उनका परिवार पुणे आ गया और उनके पिता को बंदूकों और कारतूसों की सफाई करने का काम मिल गया.
बालू की योग्यता को सबसे पहले पुणे जिमखाना के ब्रिटिश सदस्य ने खोज निकाला, जहां वे नौकर के रूप में कार्यरत थे. यही वह समय था जब बालू और उनके भाई शिवराम को क्रिकेट सीखने का अवसर मिला. बालू को क्रिकेट क्लब में नौकरी भी मिल गई. पगार थी तीन रुपए माहवार. एक बार ऐसा हुआ कि जब अंग्रेज क्रिकेट मैदान में अभ्यास कर रहे थे तो ऐसे ही बालू ने बॉलिंग की, जो अपने आप में जबर्दस्त थी. वही घटना बालू के जीवन में ऐतिहासिक घटना बन गई.
प्रतिस्पर्धी दक्खन जिमखाना को क्रिकेट के इतिहास में इस महत्त्वपूर्ण घटना का पता लगने में देर नहीं हुई. तथाकथित उच्च समाज के लोग बालू के पास दौड़े-दौड़े आए. उस समय दक्खन जिमखाना के ब्राह्मण पुणे जिमखाना में ब्रिटिश क्रिकेट टीम को हराना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पी. बालू को अपनी टीम में शामिल करने का प्रस्ताव रखा. बालू ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया. हालांकि ब्रिटिश टीम के साथ उस समय पारसी टीम भी थी. इसे दलित क्रिकेट खिलाड़ी की देशभक्ति की भावना भी कहा जा सकता है.
बालू के भीतर सृजन था और संघर्ष भी. एक दलित को अवसर मिला तो वह प्रगति के मार्ग पर बढ़ता गया. सवर्ण जाति के अन्य खिलाड़ी भी उसकी ‘बॉलिंग प्रतिभा’ के कायल हो गए. बालू की प्रतिभा की चर्चा दूर-दूर तक हो गई. हिंदू जिमखाना, बंबई के प्रत्येक सदस्य उस ‘दलित बॉलर’ के बारे में जानने-पहचानने लगे थे. उनके भीतर जिज्ञासा थी और ईर्ष्या भी. जल्दी ही कुछ गुजराती सदस्यों ने उसे अपनी टीम में भर्ती कर लिया. इस समय बालू के साथ उनके छोटे भाइयों शिवराम, गणपत और विट्ठल भी थे. क्रिकेट उस परिवार को जैसे सुखद उपहार में मिला था.
फरवरी 1906 में पी बालू और शिवराम ने यूरोपीय क्रिकेट खिलाड़ियों पर अपनी जीत लेते हुए एक कीर्तिमान स्थापित किया. एक भारतीय समाज सुधारक ने इसे निम्न जाति के क्रिकेटर के प्रति हिंदू उदारवाद की संज्ञा देते हुए कहा था, ‘प्राचीन अलगाव और जातिसत्व से अलग करने वाले रिवाजों से मुक्तिदाता के रूप में राष्ट्र के लिए यह महत्त्व की बात है. विशेष रूप में नैतिक व्यवस्थित स्वतंत्रता की दिशा में यह स्वैच्छिक परिवर्तन की भावना है.’
तब के सभी राष्ट्रीय अखबारों की रिपोर्टिंग देखें तो पी बालू को प्रसिद्ध हिंदू क्रिकेटर के रूप में प्रतिभावान शख्सियत लिखा गया है, जिसे खुद एक दलित ने स्वीकार भी किया, लेकिन क्या हिंदू उसे ऐसा सम्मान दे पाए, जैसा बालू और उनके भाई ने क्रिकेट को दिलाया. 1910 से 1920 के बीच वार्षिक टूर्नामेंट के अवसर पर हर वर्ष पी बालू को क्रिकेट टीम का कप्तान बनाए जाने का अभियान कुछ प्रगतिशील हिंदुओं द्वारा छेड़ा जाता था, लेकिन रूढ़िवादी हिंदू कतई यह बर्दाश्त नहीं करते थे कि हिंदू टीम एक दलित के नेतृत्व में चले.
यहां यह बताना जरूरी है कि उसी दौरान गांधी राष्ट्रीय फलक पर ‘छुआछूत’ विषय को लेकर लगभग छा चुके थे. समाज परिवर्तन को लेकर हिंदू समाज पर पूरे देश में प्रगतिशील लोगों का दबाव बढ़ रहा था. वहीं अमेरिका, लंदन और जर्मनी से उच्च डिग्रियों और उपाधियों के साथ लौट कर डॉ आंबेडकर ने 25 जून, 1923 में बंबई उच्च न्यायालय में वकालत की अनुमति पाने के संदर्भ में आवेदन किया था. बालू इस समय शीर्ष पर थे. उनकी प्रतिभा और ख्याति के किस्से दलितों के साथ गैर-दलितों के बीच में कहे-सुने जाते थे. आंबेडकर अपनी सभाओं में बालू के बारे में बताते थे.
इतिहास के कड़वे सच के साथ एक अच्छी बात यह भी हुई कि बालू को कप्तान बनाने के दबाववश हिंदू जिमखाना के प्रगतिशील लोगों ने समझदारी से काम लिया और पालवंकर बालू को क्रिकेट टीम का उप-कप्तान बना दिया. हिंदू टीम में सद्भावना का विकास हुआ. तीन वर्षों बाद बालू के छोटे भाई विट्ठल को कप्तान बनाया गया. यह ऐतिहासिक वर्ष था, जब हिंदू टीम में किसी दलित को कप्तान बनाया गया. जोश और उत्साह के साथ बालू बंधुओं ने यूरोपियंस टीम के साथ मैच खेला और वे जीते. अंग्रेजों की टीम के खिलाफ हिंदू टीम विजयी हुई.
इन्हीं दिनों गांधीजी ने नारा दिया- छुआछूत का उन्मूलन स्वराज के पथ पर प्रशस्त होगा. यह उनकी राष्ट्रीय घोषणा भी थी. हिंदू क्रिकेट टीम की उपलब्धियों का सेहरा बालू के भाई विट्ठल के सिर पर बांध दिया गया था. जोश और उत्साह में क्रिकेट प्रेमी उन्हें कंधों पर उठाए हुए थे. चारों तरफ परिवेश में हुर्रा कप्तान विट्ठल के नारे गूंज रहे थे. जैसे सभी जाति-द्वेष भूल गए हों.
1929 में जब विट्ठल का कैरिअर समाप्त होने को था तब बंबई के एक लेखक ने लिखा था, ‘तीस वर्षों में बालू और उनके भाइयों ने जो कर दिखाया, वह आश्चर्यजनक था. हिंदू क्रिकेट के इतिहास में उनका योगदान सुनहरे पृष्ठों पर अंकित होगा. तीस वर्षों में एक ही परिवार की इतनी सारी उपलब्धियां! अब तक भारत के भीतर और बाहर क्रिकेट के इतिहास में ऐसा कीर्तिमान स्थापित नहीं हुआ था.’ बंगलुरु के समाजशास्त्री रामचंद्र गुहा ने पी बालू को डब्ल्यूजी ग्रेस के समांतर बताया है, जिन्होंने भारत में क्रिकेट का विकास किया था. सामाजिक संदर्भों में पी बालू की उपलब्धियों को अमेरिका के बेसबाल के प्रथम अश्वेत खिलाड़ी जेकी रॉबिनसन के समकक्ष रखा जा सकता है, जिन्होंने पहले की अभेद्य सामाजिक बाधाओं को खेल के माध्यम से तोड़ा था.
इतनी सब उपलब्धियां किसी देश और समाज को देने के बावजूद पी बालू के हिस्से में क्या आया? हश्र लगभग वैसा ही हुआ. शोधार्थियों की जानकारी के लिए हम बता दें कि पी बालू की मृत्यु 1955 में हुई थी. वे डॉ. आंबेडकर से पहले पैदा हुए थे और मृत्यु भी उनकी उनसे पूर्व ही हो गई. महत्त्वपूर्ण बात है कि पी बालू गांधीवादी थे. दूसरे, वे डॉ. आंबेडकर के विरोध में ही चुनाव में खड़े हुए थे. तीसरे 1932 में आंबेडकर-गांधी के बीच जो पूना समझौता हुआ, उस पर हस्ताक्षर करने वालों में वे भी एक थे.
इतना तो कहना होगा कि इतिहास अपने आप में दोहराया जाता है. उदाहरण के लिए, सचिन तेंदुलकर के बचपन के दोस्त, 19 फरवरी, 1993 को इंग्लैंड के खिलाफ वानखेड़े स्टेडियम, मुंबई में दोहरा शतक बनाने वाले, फिर 13 मार्च, 1993 को जिंबाब्वे के खिलाफ, फिरोज शाह कोटला, दिल्ली में एक हजार टेस्ट रन पूरा करने वाले विनोद कांबली आज क्रिकेट के इतिहास में कहां हैं! हालांकि सचिन के साथ ही कांबली ने कभी सेंट जेवियर स्कूल, फोर्ट मुंबई के खिलाफ 664 रन बनाए थे. लेकिन आज उनके हिस्से में क्या है?
अठारह जनवरी, 1972 को कांजूर मार्ग, मुंबई में पैदा हुए विनोद कांबली के बारे में कहा जाता है कि ऊंची इमारतों से घिरे संकरे स्थान पर वे क्रिकेट खेला करते थे. फिर भी उनकी गेंद ऊंची जाती थी, लेकिन वे उतना ऊंचा नहीं उठ सके, जितना उनके दोस्त सचिन तेंदुलकर. बात कुछ भी हो, कारण कुछ भी हो, पर उनके जीवन में भी लगभग पी बालू जैसा ही हुआ. सितंबर 2010 में वे ईसाई बन गए. क्रिकेट से फिल्म, फिल्म से राजनीति, राजनीति से टीवी कमेंट्रेटर, दुखद परिस्थितिवश वे बदलते गए, पर क्या क्रिकेट के रहनुमा बदले?
साभारः जनसत्ता

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