बुद्ध की शिक्षाओं से एशिया का अगुवा बन सकता है भारत

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बोधिसत्व भारत रत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने सन् 1956 में विजयदशमी के दिन नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा ली थी. यह वह तारीख थी, जब भारत में धम्म कारवां को नयी गति और दिशा मिली थी. असल में डॉ. आंबेडकर ने अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई के दौरान यह निष्कर्ष निकाल लिया था कि भारत में प्रचलित जातिगत असमानता दलितों के पिछड़े होने का मुख्य कारण है. 9 मई, 1916 को कोलम्बिया विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में अपने रिसर्च पेपर ‘भारत में जातियाः उनकी संरचना, उद्भव एवं विकास’ के जरिए डॉ. आंबेडकर ने यह साबित कर दिया था कि कुछ स्वार्थी लोगों ने जातिगत असमानता की व्यवस्था को शास्त्र सम्मत दिखाने की कोशिश की है और ये धारणा फैलाई है कि शास्त्र गलत नहीं हो सकते. भारत लौटने के बाद उन्होंने दलितों के मानवाधिकारों के लिए अलग-अलग मोर्चे पर प्रयास करना शुरू कर दिया. महाड सत्याग्रह द्वारा सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के अधिकार, कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश का अधिकार, अंग्रेजी सरकार के सामने दलितों के लिए वयस्क मताधिकार का अधिकार, गोलमेज सम्मेलन में पृथक निर्वाचन के अधिकार की लड़ाई ऐसी ही कोशिश थी. इस संघर्ष के दौरान डॉ. आंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि हिन्दू धर्म में रहकर दलितों को राजनैतिक आजादी का अधिकार भले ही मिल जाए लेकिन उनको आर्थिक और सामाजिक बराबरी का हक नहीं मिल सकता. इसलिए 1935 में येवला (नाशिक) में डॉ. आंबेडकर ने घोषणा की थी कि वह हिन्दू धर्म में पैदा हुए थे यह उनके वश की बात नहीं थी लेकिन हिन्दू रहकर वह मरेंगे नहीं, यह उनके वश में है.

धर्म परिवर्तन पर विचार करने के लिए 30 एवं 31 मई 1936 को बंबई में आयोजित महार परिषद को संबोधित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा थाः -‘धर्म परिवर्तन कोई बच्चों का खेल नहीं है. यह ‘मनुष्य के जीवन को सफल कैसे बनाया जाय’ इस सरोकार से जुड़ा प्रश्न है… इसको समझे बिना आप धर्म परिवर्तन के संबंध में मेरी घोषणा के वास्तविक निहितार्थ का अहसास कर पाने में समर्थ नहीं होंगे. छुआछूत की स्पष्ट समझ और वास्तविक जीवन में इसके अमल का अहसास कराने के लिए मैं आप लोगों के खिलाफ किये जाने वाले अन्याय और अत्याचारों की दास्तान का स्मरण कराना चाहता हूं. सरकारी स्कूलों में बच्चों का दाखिला कराने का हक जताने पर या सार्वजनिक कुंओं से पानी भरने का अधिकार जताने पर या घोड़ी पर दूल्हे को बैठाकर बारात को जुलूस की शक्ल में सार्वजनिक रास्तों से घुमाने के अधिकार आदि का इस्तेमाल करने पर आप लोगों को सवर्ण हिन्दुओं द्वारा मारे-पीटे जाने के उदाहरण तो बहुत आम हैं. लेकिन ऐसी और भी अनेक वजहें हैं जिनके कारण दलितों पर सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अत्याचार और उत्पीड़न का कहर ढाया जाता है… खरी बात पूछूं तो बताइये कि इस समय हिन्दुओं और आप लोगों के बीच क्या किसी प्रकार के समाजिक संबंध हैं?’

बाबासाहेब ने आगे कहा, ‘जिस तरह मुसलमान हिन्दुओं से भिन्न हैं; उसी तरह दलित लोग भी हिन्दुओं से नितान्त भिन्न हैं. जिस तरह मुसलमानों और ईसाइयों के साथ हिन्दुओं का रोटी-बेटी का कोई सम्बन्ध नहीं होता है उसी तरह आप लोगों के साथ भी हिन्दुओं का किसी भी प्रकार का रोटी-बेटी का कोई संबंध नहीं है… आपका समाज और उनका समाज दो बिल्कुल अलग-अलग समूह हैं… एक अनजान आदमी तो दलित और सवर्ण के बीच कोई अन्तर कर ही नहीं सकता. सवर्ण हिन्दुओं को जब तक साथ यात्रा कर रहे दलितों की जातियों की जानकारी नहीं होती है तब तक तो यात्रा के दौरान वे बड़े दोस्ताना अंदाज में व्यवहार करते हैं, लेकिन जैसे ही किसी हिन्दू को यह पता चलता है कि वह जिस व्यक्ति से बातचीत कर रहा है वह दलित है; तो उसका मुंह और मन तुरंत कसैला हो जाता है.’ बाबासाहेब ने सवाल उठाते हुए कहा कि आखिर ऐसा क्यों होता है?

बाबासाहेब ने कहा, ‘अपने को एक मुसलमान, एक ईसाई, एक बौद्ध या एक सिक्ख कहना एक धर्म का परिवर्तन मात्र नहीं है बल्कि एक नाम का भी परिवर्तन है. यही सच्चा नाम परिवर्तन है… जब तक आप हिन्दू धर्म में बने रहेंगे तब तक आपको अपने जाति नाम को छिपा कर नाम-परिवर्तन करते रहने पर निरन्तर मजबूर होना पड़ेगा… इसलिए मैं आप लोगों से यह पूछता हूं कि बजाय इसके कि आप आज एक नाम बदलें, कल दूसरा नाम बदलें और पेंडुलम की तरह लगातार ढुलमुल हालत में बने रहें, आप लोगों को धर्म परिवर्तन करके अपना नाम स्थाई रूप से क्यों नहीं बदल लेना चाहिये?’ डॉ. आंबेडकर द्वारा कही गई उपरोक्त बातें कमोबेश आज भी उतनी ही सत्य हैं जितनी कि सन् 1935 में थी.

एक सवाल यह भी उठता है कि बाबा साहेब ने बौद्ध धर्म ही क्यों अपनाया? असल में 20 वर्षों तक सभी धर्मों का गहन अध्ययन करने के बाद डॉ. आंबेडकर इस निश्चय पर पहुंचे कि बौद्ध धर्म सबसे उपयुक्त है, क्योंकि बौद्ध धर्म का जन्म भारत में ही हुआ है और बौद्ध धर्म समानता, करूणा, मैत्री, अहिंसा और भाई-चारे और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का संदेश देता है. इसमें ऊंच-नीच और छुआछूत के लिए कोई जगह नहीं है. जीवन के सभी पहलुओं पर विचार करने के पश्चात डॉ. आंबेडकर ने 5 लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर बौद्धधम्म के प्रचार-प्रसार को नई गति प्रदान की. उन्होंने 22 प्रतिज्ञाओं का एक नया फार्मूला दिया. भगवान बुद्ध ने ढाई हजार साल पहले अषाढ़ पूर्णिमा के दिन धम्म चक्र प्रवर्तन करके धम्म कारवां की शुरूआत की थी. डॉ. आंबेडकर ने सन 1956 में विजयदशमी के दिन अपने लाखों अनुयायियों के साथ धम्म दीक्षा लेकर धम्म चक्र का अनुपर्वतन किया था. धम्म कारवां आज काफी फल-फूल चुका है. 1956 में पांच लाख लोगों की संख्या आज करोड़ों में पहुंच गई है. अंग्रेजी अखबार द टाईम्स ऑफ इंडिया (नई दिल्ली संस्करण,10 नवंबर 2006) में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत वर्ष में सन 2006 में 30 लाख लोगों ने बौद्ध धम्म की दीक्षा ली. 2001 की जनगणना के वक्त बढ़कर यह लगभग 81 लाख हो चुकी थी. जो कि 2011 की आखिरी जनगणना के प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार 97 लाख पहुंच गई हैं. हालांकि कुछ विशेषज्ञ भारत में बौद्धों की संख्या 3 करोड़ 50 लाख से भी अधिक मानते हैं. उनका मानना है कि जनगणना में वास्तविक संख्या इसलिए सामने नहीं आ पाती हैं क्योंकि काफी लोग बौद्ध होते हुए भी अपने को आधिकारिक दस्तावेजों में बौद्ध नहीं घोषित करते. अमेरिका और यूरोप में भी बौद्ध धम्म बहुत तेजी से बढ़ती हुई जीवनशैली बनता जा रहा है. जिनेवा आधारित ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक व आध्यात्मिक संगठन’ ने 2009 का ‘विश्व के सर्वश्रेष्ठ धर्म का सम्मान’ बौद्ध धम्म को प्रदान किया.

बौद्ध धम्म को गतिमान रखने की सीख भगवान बुद्ध से ली जा सकती है. गौतम बुद्ध ने छः वर्षों तक ध्यान साधना किया और विपस्सना का आविष्कार किया. विपस्सना करते-करते 35 वर्ष की उम्र में बुद्धत्व को प्राप्त किया. बुद्धत्व प्राप्त करने के पश्चात 45 वर्षो तक शहरों, गांवों, कस्बों में जा-जाकर धम्म का प्रसार किया. भगवान बुद्ध बोधगया से चलकर सारनाथ आए थे और धम्मचक्र प्रवर्तन किया था. वह इस भरोसे में नहीं बैठे रहे कि लोग बोधगया आए और तब वो उनको धम्म सिखाएं. इसीलिए डॉं. आंबेडकर ने ‘इंगेज्ड बुद्धिज्म’ की परिकल्पना की थी. इस परिकल्पना को पूरी दुनिया में मान्यता मिली है. वियतनाम में भिक्खु संघ ने अमेरिका के आक्रमण के खिलाफ पूरी ताकत से विरोध किया और लोगों के बीच जाकर धर्म का प्रचार-प्रसार किया. ताईवान में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में वहां के भिक्खुनी संघ ने अहम भूमिका अदा की है. ताईवान में भिक्खुनी संघ स्कूल भी चलाता है, अस्पताल भी चलाता है और लोगों के घरों में जाकर उनकी समस्याओं का निदान भी करता है. ताईवान के उदाहरण को भारत वर्ष में भी दोहराने की आवश्यकता है. यहां भी भिक्खुओं को लोगों से संपर्क करना होगा. लोगों के बीच जाना होगा. उन्हें यह विचार त्यागना होगा कि लोग उनके पास आएंगे तब वो उन्हें धम्म की शिक्षा और दीक्षा देंगे.

इस कड़ी में बौद्ध संस्कृति विकसित करना भी जरूरी है. हर सिक्ख रविवार को अनिवार्य रूप से गुरूद्वारा जाता है, ईसाई चर्च जाते है. हर मुसलमान शुक्रवार की नमाज मस्जिद जाकर अता करता है. बौद्ध समाज के लोगों को भी ऐसी परंपरा डालनी होगी. डॉ. आंबेडकर ने स्वयं बुद्ध पूर्णिमा के दिन अपने आवास को सजाना आरंभ किया और उत्सव मनाने की परंपरा आरंभ की. डॉ. आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1956 को सारनाथ के मृगदाय वन में 150 भिक्खुओं के समक्ष भाषण दिया था कि प्रत्येक बौद्ध के लिए अनिवार्य है कि वह हर रविवार को बौद्ध विहार में जाए और वहां उपदेश सुने. यदि ऐसा नहीं होगा तो नव दीक्षित बौद्ध को धम्म की जानकारी नहीं हो सकेगी. प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे बौद्ध विहारों का निर्माण किया जाए जिसमें सभा करने के लिए काफी स्थान रहे. बौद्ध विहारों को सभामंदिर होना चाहिए.

बौद्ध धम्म के अनुयायियों को उपजातिवाद से भी बचने की जरूरत है. डॉ. आंबेडकर का निष्कर्ष था कि जाति की प्रकृति ही विखण्डन और विभाजन करना है. जातीय भावनाओं से आर्थिक विकास रूकता है. इसलिए डॉ. अंबेडकर का लगातार यह प्रयत्न रहा कि भारत में एक ऐसी सांझी संस्कृति का निर्माण हो जिसमें जात-पात के आधार पर लोगों के साथ अन्याय और शोषण न हो और हर नागरिक अपनी क्षमताओं के अनुसार राष्ट्र निर्माण में योगदान दे सके. आपस में उपजातिवाद छोड़कर एक साझा पहचान जो बौद्ध पहचान है उसको अपनाना चाहिए और आपस में रोटी-बेटी का संबंध कायम करना चाहिए, जिससे कि राष्ट्रीय एकता के विकास में सहायता मिले. डॉ. आंबेडकर चाहते थे कि समाज के सभी वर्गों में खान-पान का संबंध विकसित हो. जो लोग धम्म दीक्षा लेने के बाद भी जाति और उप-जाति बनाए रखना चाहते हैं या जात-पात में विश्वास करते हैं वो बौद्ध धर्म का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं क्योंकि इससे बौद्ध धर्म में भी जाति का जहर फैल जाएगा.

धम्म कारवां की लोकप्रियता से डरे कुछ लोगों और संगठनों द्वारा अनेकों दुष्प्रचार करने की घटना भी सामने आई हैं. इसमें एक दुष्प्रचार यह किया जा रहा है कि बौद्धधर्म केवल दलित अपना रहे हैं. जबकि हकीकत इससे अलग है. भगवान बुद्ध दलित नहीं थे. उनके प्रथम पांचों शिष्य ब्राह्मण थे. उसके बाद यश और उसके 54 साथी व्यापारी वर्ग से थे. उसके बाद धम्मदीक्षा लेने वाले उरूवेला कश्यप, नदी कश्यप, गया कश्यप और उनके 1000 शिष्य सभी ब्राह्मण थे. राजा बिबिंसार और राजा प्रसेनजित तथा शाक्य संघ के लोग सभी के सभी क्षत्रिय थे. वर्तमान समय में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, धर्मानंद कौशाम्बी, डी डी कौशाम्बी पूर्व में ब्राह्मण थे. इसी तरह भदन्त आनंद कौशलायन, आचार्य सत्यनारायण गोयनका (परिनिर्वाण प्राप्त), भन्तेसुरई सशई, अमेरिका के मशहूर फिल्म अभिनेता रिचर्ड गेरे, फिल्म प्रोड्यूसर टीना टर्नर कोई भी दलित वर्ग से नहीं है. इसलिए बौद्ध धर्म के विरोधियों के इस मिथ्या प्रचार को कि बौद्ध धर्म दलितों का धर्म होता जा रहा रोका जाना चाहिए.

इसी तरह एक प्रचार और किया जा रहा है कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे. ऐसा प्रचार पहले भी होता रहा है. बुद्ध को अवतार मानने की बात सबसे पहले संभवतः छठी सदी के दौरान मत्स्यपुराण में की गई, मत्स्य पुराण का एक चरण 700 ईसवीं में महाबलीपुरम में, जहां मध्यकालीन ब्राह्मण पुस्तकों में 10 अवतारों की संकल्पना की गई है, पल्लव स्मारकों में उत्कीर्ण हैं. इस बिषय में नॉरमन कौसिन्स लिखते हैं कि बौद्ध धर्म का निर्माण होने पर हिन्दू धर्म ने उसके साथ होड़ नहीं लगाई, बल्कि उसे सोख लिया. बुद्ध को अवतार के रूप में शामिल करने का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धम्म को अवशोषित (सोख) कर उसका ब्राह्मणीकरण करना था, जिसे ब्राह्मण विरोध करके भी दबा नहीं पाए. इस प्रक्रिया में उन्होंने पशु-हिंसा छोड़कर, शाकाहार के आदर्श को अपना लिया. इस प्रक्रिया की अत्यंत चतुर चाल यह थी कि भगवान बुद्ध को वैदिक साहित्य में विष्णु के नवें अवतार के रूप में जबरन शामिल करना. हालांकि कई विद्वानों ने इस दुष्प्रचार का खंडन किया है.

डॉ. एम. एल. जोशी के मुताबिक ‘बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में प्रचारित करने का सटीक कारण यह है कि बुद्ध का व्यक्तित्व इतना महान था कि उसे नजरअंदाज करना किसी भी सूरत में संभव नहीं था. बुद्ध की भारतीय जनमानस में इतनी गहरी पैठ है कि पूरे देश में असंख्य विहारों के हजारों स्तंभों, दीवारों और दरवाजों पर उत्कीर्ण की गई. उनकी शिक्षाएं लगभग न समाप्त होने वाले पालि और संस्कृत साहित्य के अकूत खजाने के माध्यम से फैलाकर लोकप्रिय की गईं. अनेकों राजाओं और महान चिंतकों ने उनके युक्तिवादी व मानवतावादी मिशन को अत्यधिक ससम्मान से अपनाया. असंख्य भारतीय सदियों से उनकी प्रशंसा का गुणगान करते आ रहे हैं.’ सवाल यह भी उठता है कि अगर बुद्ध को श्रद्धावश विष्णु का अवतार माना गया होता तो यह कैसे संभव है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और बंगाल से लेकर गुजरात तक हजारों हिन्दू मंदिरों में किसी में भी भगवान बुद्ध की मूर्ति नहीं होती? एक और तथ्य जानने योग्य है. बुद्ध का अर्थ ही होता है कि जन्म-मरण के संसार चक्र से पूरी तरह मुक्त हो जाना. अगर कोई दुबारा जन्म लेता है, तो फिर बुद्ध कैसे हुआ? इसलिए बुद्ध को अवतार बताना उनके बुद्धत्व को नकारना है. 19 नबवंर, 1999 को सारनाथ में विपस्सना के प्रधानाचार्य सत्यनारायण गोयन्का और कांचीकामकोटि पीठम के तत्कालीन शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती ने संयुक्त रूप से प्रेस विज्ञप्ति जारी करके घोषणा की थी कि बुद्ध विष्णु के अवतार नहीं थे. भगवान बुद्ध ने स्वयं ही अवतार के सिद्धांत को नकारा था. बुद्धत्व प्राप्ति के बाद उन्होंने यह उल्हास भरी घोषणा की थी-

‘अयं अन्तिमा जाति’   (अर्थातः यह मेरा अंतिम जन्म है),

‘नत्थिदानि पुनब्भवोति’ (अर्थात अब मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा)

धम्म के आम आदमी के जीवन में पड़ते प्रभाव और इसकी वैज्ञानिक जीवन पद्धति को देखकर यह कहा जा सकता है कि धम्म कारवां का भविष्य अत्यंत उज्जवल है. धम्म दीक्षा लेने वालों के जीवन में बहुत परिवर्तन आया है और उनका चहुमुंखी विकास हुआ है.मशहूर समाजशास्त्री डी.एस. जनबन्धू और गौतम गवली द्वारा महाराष्ट्र में किए गए समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण के अनुसार जिन लोगों ने धम्म दीक्षा ली उनमें एक नई पहचान और आत्मसम्मान की भावना विकसित हुई, जिससे उनके सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्तर में काफी सुधार आया. एक सर्वे के अनुसार ताईवान में बौद्ध अनुयायियों की संख्या सन् 1980 में 8 लाख थी जो 2001 में बढ़कर 55 लाख और 2006 में बढ़कर 80 लाख हो गई. इस तरह 26 सालों में ताईवान में बौद्ध अनुयायियों की संख्या दस गुणा बढ़ी है. इसी अवधि में ताईवान में बुद्ध विहारों की संख्या 1157 से बढ़कर 4500 और बौद्ध भिक्षुओं की संख्या 3470 से बढ़कर 10 हजार पहुंच गई. ताईवान में भिक्षु और भिक्षुनियां अनेक प्रकार के समाजिक कार्य, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा जैसे व्यक्ति विकास के काम कर रहे हैं. इसी तरह चीन में बौद्ध धर्म मानने वालों की संख्या 10 करोड़ से भी अधिक हो गई है. थाईलैंड में 90 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या बौद्ध धर्म मानने वालों की है. यही स्थिति श्रीलंका, म्यामांर और भूटान जैसे देशों की है. भगवान बुद्ध के कारण एशिया के अधिकतर देश भारत को बहुत पवित्र मानते हैं और भारत की यात्रा करना अपना धर्म समझते हैं. जापान, कोरिया, थाईलैंड, चीन, म्यांमार, श्रीलंका, ताईवान सहित अनेकों देशों के करोड़ों लोगों के मन में एक लालसा रहती है कि जीवन में कम से कम एक बार बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकिशा और सांची के दर्शन कर पाएं. इसलिए भारतवर्ष के लिए बुद्ध और उनकी शिक्षाओं द्वारा पूरे एशिया का अगुवा बनने का सुनहरा अवसर है. बौद्ध धम्म के अनुयायियों को चाहिए कि जहां-जहां भी संभव हो, बौद्ध विहारों का निर्माण कराया जाए और उसमें गांव और कस्बों के सभी लोगों को शामिल किया जाए क्योंकि बुद्ध की शिक्षाओं की जरूरत सिर्फ दलितों को ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर उस व्यक्ति को है, जो अपना कल्याण चाहते हैं और जो दुखों से मुक्त होना चाहते हैं.

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