दलित समाज के प्रोफेसर विवेक कुमार को मिली दुनिया में ख्याति

नई दिल्ली। भारत के श्रेष्ठ संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सोशल साइंस विभाग में प्रोफेसर, डॉ. विवेक कुमार ने देश का नाम विश्व पटल पर रौशन कर दिया है। समाज विज्ञानियों और वैज्ञानिकों की AD वर्ल्ड रैंकिंग द्वारा वर्तमान वर्ष 2025 की वर्ल्ड रैंकिंग में प्रोफेसर विवेक कुमार को जेएनयू में नंबर वन समाज विज्ञानी माना गया है। जबकि इस रैंकिंग में प्रोफेसर विवेक भारत में 11वें और एशिया में 134वें स्थान पर हैं। उनकी इस उपलब्धि को लेकर देश के तमाम विश्वविद्यालयों में मौजूद उनके विद्यार्थियों ने उन्हें बधाई दी है।

दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले प्रोफेसर विवेक कुमार की इस उपलब्धि पर दलित समाज के भीतर भी काफी गर्व और खुशी की लहर है। प्रो. विवेक कुमार एक विश्व विख्यात प्रोफेसर हैं और अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय सहित जर्मनी, कनाडा, श्रीलंका के विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रह चुके हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ के लालबाग निवासी प्रोफेसर कुमार जेएनयू में सोशल साइंस विभाग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

 

प्रो. कुमार की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने जिस जेएनयू से सोशल साइंस विभाग में पढ़ाई की, उसके प्रोफेसर और विभाग के अध्यक्ष भी बने। अपनी इस उपलब्धि पर उनका कहना है कि मेरी यह उपलब्धि यह प्रमाणित करती है कि रिज़र्वेशन वालों के पास भी देश का नाम रौशन करने हेतु मेरिट होती है।

फ्रैंक हुजुर का दुनिया से जाना

नई सदी में हाशिये के समाज में जन्मे किसी लेखक के आकस्मिक तौर पर निधन से बहुसंख्य वंचित वर्गों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्टों को 6 मार्च, 2025 जैसा आघात कब लगा था, मुझे याद नहीं! उस दिन सुबह अपार प्रतिभा और अतुलनीय मेधा के स्वामी फ्रैंक हुजूर के निधन की अविश्वसनीय व हतप्रभ कर देने वाली खबर सुनकर लोगों में जो शोक की लहर दौड़ी, वह शायद इससे पहले नहीं देखी गई, कम से कम हिंदी पट्टी में तो नहीं ही। शोक की ऐसी लहर 2014 में विश्व कवि नामदेव ढसाल के निधनोपरांत महाराष्ट्र में देखी गई थी, तब उनकी शव- यात्रा में शोक व्हिवल 60 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। 6 मार्च की सुबह 9 बजे से सोशल मीडिया पर फ्रैंक हुजूर की हृदयाघात से निधन की खबर वायरल होने के साथ उनके लिए फेसबुक और ट्विटर पर श्रद्धांजलि का सैलाब उमड़ पड़ा। सामाजिक न्याय और समाजवादी विचारधारा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले फ्रैंक हुजुर के निधन से भारत में विविधता और समावेशन मिशन के लिए अपूरणीय क्षति हुई है, ऐसा अधिकांश लोगों ने लिखा।

ब्रिटिश शैली का सूट, बाएं हाथ में सिगार और दाहिने हाथ में कलम लिए उनकी जो एक युगांतकारी विचारक की छवि निर्मित हुई थी, लोग उसे याद कर रहे थे। उनके चाहने वाले याद कर रहे थे उनकी अद्वितीय लाइफ स्टाइल, मैनरिज्म , सलीके से उठने- बैठने, चलने और मेहमाननवाजी के लखनवी अंदाज के साथ सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन के जरिये बेशुमार युवाओं को समाजवादी पार्टी से जोड़ने और आगे बढ़ाने के अवदानों को। हर कोई यह बताने में होड़ लगा रहा था कि जोश, गतिशीलता और जिन्दादिली से लबरेज अद्वितीय पत्रकार, लेखक, नाटककार और पॉलिटिकल एक्टिविस्ट फ्रैंक का जीवन सोशल जस्टिस और सेकुलरिज्म के लिए समर्पित था। ह्रदय की अतल गहराइयों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके चाहने वाले उनकी अभिनेत्री पत्नी फर्मिना मुक्ता सिंह और बेटे मार्कोस के भविष्य को लेकर भी चिंता जाहिर कर रहे थे। उनमें हेमिंग्वे, रुश्दी, नायपॉल बनने की संभावना देखने वाले इस बात से नाराज दिखे कि क्यों वह लन्दन छोड़कर इंडिया आ गए और समाजवादी पार्टी पर निर्भर हो गए। उन्हें लन्दन या न्यूयार्क में ही बैठकर लेखन करते रहना चाहिए था।

फ्रैंक हुजूर की प्रोफाइल बायोग्राफी फ्रैंक हुजूर का जन्म 21 सितंबर 1977 को बिहार के बक्सर में हुआ था, जो लेखकों और विचारकों की भूमि के रूप में जाना जाता है। 1980 के दशक की शुरुआत में, जब वह केवल छह महीने के थे, उनकी माँ का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके पिता बब्बन सिंह ने किया, जो एक सिविल सर्वेंट (डीएसपी) थे। 1990 के दशक में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज से पूरी की और फिर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने भारत के प्रतिष्ठित हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया। पढ़ाई के दौरान उन्होंने 1990 के दशक के मध्य में ‘हिटलर इन लव विद मैडोना’ नामक एक नाटक लिखा, जो जल्द ही भारत में एक विवादास्पद विषय बन गया। इस नाटक में कट्टर हिंदुत्व की आलोचना और भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न उठाए गए थे, जिसके कारण गृह मंत्रालय ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया! यही उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस नाटक के कारण उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें गुमनामी में जाना पड़ा। उनकी पत्रिका ‘यूटोपिया’ भी केवल 13 अंकों के बाद बंद हो गई। इस विवाद के बाद, मई 2002 में उन्होंने ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नामक एक और प्रगतिशील नाटक लिखा, जो 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित था, लेकिन इसे प्रकाशित नहीं किया गया। कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी के साथ फ्रैंक हुजूरफ्रैंक हुज़ूर ने 2 जुलाई 2002 को आधिकारिक रूप से अपना कलमी नाम ‘फ्रैंक हुज़ूर’ अपना लिया। उन्होंने कहा था, ‘लोग कहते हैं कि मेरी माँ, जिनका निधन तब हो गया था जब मैं छह महीने का था, मुझे हुज़ूर कहकर पुकारती थीं।’ ‘ब्लड इज़ बर्निंग’ नाटक उनके व्यक्तिगत जीवन में भी महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस नाटक के निर्माण के दौरान उन्होंने निर्देशक मुक्ता सिंह के साथ काम किया। उनका पेशेवर सहयोग धीरे-धीरे व्यक्तिगत संबंध में बदल गया, लेकिन उनकी शादी जातिगत भेदभाव के कारण विवादों में आ गई। अंततः 9 जुलाई 2002 को उन्होंने सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए मुक्ता सिंह से प्रेम विवाह किया। विवाह के बाद वे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार राजेंद्र यादव के पास गए, जिन्होंने उन्हें समर्थन दिया। इस कारण वे हर साल 9 जुलाई को अपनी शादी की वर्षगांठ मनाते थे।

2004-08: इस दौरान उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य में सक्रियता से काम किया। उन्होंने ‘इमरान वर्सेज इमरान: द अनटोल्ड स्टोरी’ नामक एक जीवनी लिखी, जो पाकिस्तानी क्रिकेटर से राजनेता बने इमरान खान के जीवन पर आधारित थी’।

2008-12: इस दौरान वे लंदन चले गए और वहाँ के साहित्यिक और कलात्मक परिवेश से जुड़े। लंदन में उन्होंने अपने संस्मरण ‘सोहो’ पर काम किया, जिसमें उनकी वहां की जीवनशैली और अनुभव शामिल हैं। इसी दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव से मुलाकात की, जिनके साथ उनकी मित्रता हो गई। अखिलेश यादव ने उनकी राजनीतिक क्षमता को पहचानते हुए उन्हें भारत वापस बुलाया।

2014-19: भारत लौटने के बाद, उन्होंने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक एक मासिक पत्रिका शुरू की, जो समाजवादी विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए समर्पित थी। उन्होंने मुलायम सिंह यादव की जीवनी ‘द सोशलिस्ट: मुलायम सिंह यादव’ और अखिलेश यादव की जीवनी ‘टीपू स्टोरी’ लिखी। अखिलेश यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें लखनऊ में एक बंगला आवंटित किया गया, जिसे उन्होंने सोशलिस्ट फैक्टर का कार्यालय बना दिया। वहाँ उन्होंने 50 से अधिक बिल्लियों को आश्रय दिया और उन्हें समाजवादी दर्शन का प्रतीक माना। उनकी सबसे प्रिय बिल्ली बोका (अर्जेंटीना के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब बोका जूनियर्स के नाम पर) थी, जिसे वह ‘दिव्य समाजवादी बिल्ली’ कहते थे। बोका की मृत्यु के बाद, उन्होंने उसके लिए एक स्मारक भी बनवाया। 2019 में, जब अखिलेश यादव की सरकार खत्म हुई, तो उन्हें लखनऊ का बंगला खाली करने के लिए मजबूर किया गया। इसके लम्बे अंतराल बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और राहुल गांधी के साथ सामाजिक न्याय और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर काम करने लगे. उन्होंने हमेशा सत्ता को चुनौती दी, समाज में बदलाव लाने का प्रयास किया, और अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। फ्रैंक हुज़ूर केवल एक लेखक या राजनीतिक विचारक नहीं थे, वे एक साहसी व्यक्ति थे, जिन्होंने हमेशा सवाल उठाए, सत्ता को चुनौती दी और सच्चाई की खोज में लगे रहे!’

फ्रैंक की मौत : राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा बहरहाल फ्रैंक हुजूर के निधन की खबर वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर कलेजे को चीर कर रख देने वाली श्रद्धांजलियों का सैलाब ही नहीं आया। सैलाब उनकी असामयिक मौत को लेकर उठे सवालों का भी आया। उनके चाहने वाले हैरान और परेशान थे कि कैसे 48 साल का एक गबरू जवान मौत के आगोश में चला गया? जवाब जो सामने आया, वह था राजनीतिक नेतृत्व द्वारा घोरतर उपेक्षा! इसे देखते हुए ढेरों लोगों ने लिखा कि फ्रैंक की मौत उन युवाओं के लिए सबक है, जो किसी दल के पीछे अपना भविष्य दांव पर लगा देते हैं। उनके बहुत करीबी रहे मयंक यादव ने लिखा,’ फ्रैंक भाई चल बसे। साथ ही जिनके लिए जीवन खपा दिए, उनकी मानवता भी चल बसी। जाना तो दूर दो शब्द नहीं बयां हो सके। इसलिए जो नए – नए लड़के नेताओं के आगे पीछे की दुनिया को ही अंतिम मानते हैं, उन्हें बता सकूं कि सही में आपका अंत वहीं हो जाता है।’ उनके एक और करीबी अरुण नारायण ने लिखा, ‘समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ फ्रैंक ने जिस मिशन के साथ काम किया, इन पार्टियों के दोनों क्षत्रप- उनकी मौत पर जिस तरह की चुप्पी साधे नजर आये, यह फ्रैंक की मौत से भी ज्यादा भयावह है। (हालांकि राहुल गांधी ने देर से ही सही फ्रैंक की पत्नी को पत्र लिखा और फ्रैंक हुजूर को श्रद्धांजलि दी) फ्रैंक की मौत हर उन पूरावक्ती सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वे किसी भी धारा के लिए काम करें, उसके पहले अपनी आर्थिक, वैचारिक जमीन पुख्ता कर लें, क्योंकि जिन पार्टियों के लिए वे ईंट – गारा बनने जा रहे हैं वह वर्षों ऐतिहासिक अयोग्ताओं का शिकार रही है। संभव है वहां सैकड़ों फ्रैंक कुर्बान हो जाएं। इतिहास आने वाले समय का जब भी मूल्यांकन करेगा तो वह इस बात को बहुत शिद्दत से रेखांकित करेगा कि जब हिंदी बहुजन बौद्धिकता का एक बड़ा हिस्सा लगातार फासीवाद की शरण में जा रहा था, बिहार का एक स्वप्नदर्शी श्रमण अपनी ही धारा में उपेक्षित किये जाने के बावजूद समाजवाद की आवाज मुखर करता हुआ रूख्सत हुआ!’

फ्रैंक हुजूर के एक और प्रिय साथी जेनुआइट एक्टिविस्ट विनय भूषण ने इस त्रासदी को खुलकर शब्द देते हुए लिखा, ’उनकी मौत राजनीतिक आइसोलेशन से उपजी एंजाइटी का नतीजा है। ज्ञात हो कि वह समाजवादी पार्टी की माउथ पिस ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ नामक पत्रिका के संस्थापक संपादक थे। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाजवादी पार्टी ही नहीं, इससे जुड़ी शख्सियतों पर धारदार कलम चलाई। उन्होंने नेताजी की जीवनी लिखी, अखिलेश यादव जी पर केंद्रित अपनी पत्रिका का विशेषांक निकाला। कई और भी नामी – गिरामी हस्तियों की जीवनी लिखी। सरकार की योजना चाहे कोई भी हो, उसका महिमामंडन किया। पर, फिर भी समर्पित भाव से इतना सब करने के पश्चात् फ्रैंक भाई को दूध से मक्खी की तरह निकाल कर बाहर फेंक दिया गया। किसी पार्टी के लिए समर्पित भाव से काम करने वाला बुद्धिजीवी तबका ही इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकता है कि ऐसी स्थिति में उस लेखक या विचारक के पास अवसाद में जाने और दर्द में तड़पने के सिवा दूसरा बचता ही क्या है। देश और राज्य स्तर की नामचीन संपन्न समाजवादी घरानों में शुमार एक परिवार द्वारा अपने विद्वान कार्यकर्ता को उसके सुर में सुर नहीं मिला पाने के कारण हाशिए पर ढकेल दिया गया। अंत के दिनों में उन्हें अपना घर चलाने के लिए फ्रीलांसिंग करनी पड़ी। उससे ज्यादा पीड़ादायक स्थिति किसी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े शख्सियत के लिए और क्या हो सकती है?

तो क्या फ्रैंक की मौत के पीछे इलाज में नेग्लिजेंसी रही!

लेकिन पॉलिटिकल आइसोलेशन से उपजी एंजाईटी से 48 साल का कोई गबरू जवान तन और मन से तिल – तिल करके टूट तो सकता है, लेकिन उससे उपजे हालात से वह आकस्मिक मौत का शिकार नहीं हो सकता। ऐसे में राजनीतिक उपेक्षा से आगे बढ़कर जब लोग फ्रैंक हुजूर की अविश्वसनीय मौत के कारणों की तह में गए तो उन्हें नजर आई: ‘इलाज में ‘नेग्लिजेंसी!’ इसे लेकर सबसे पहले सवाल उठाये प्रखर बहुजन चिन्तक चंद्रभूषण सिंह यादव, जो कभी फ्रैंक हुजूर की पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर रहे। उनकी मौत पर पूरे देश में सर्वाधिक, संभवतः दर्जन भर से अधिक आलेख लिखने वाले चन्द्रभूषण सिंह यादव ने इलाज में लापरवाही पर गंभीर सवाल उठाते हुए अपने एक पोस्ट में लिखा, ’इस पूरे प्रकरण में जो महत्त्वपूर्ण बात है वह यह कि अस्वस्थ अवस्था में फ्रैंक हुजूर जी को दिल्ली बुलाया क्यों गया? यदि वे दिल्ली पहुँच ही गए तो उन्हें राहुल गांधी से मिलने के बाद प्रॉपर इलाज का इंतजाम क्यों नहीं किया गया? बीमार फ्रैंक हुजूर को देश की सबसे प्राचीन पार्टी कांग्रेस ने मेट्रो के भरोसे क्यों छोड़ दिया? क्या कांग्रेस पार्टी के पास इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि वह बहुजन समाज के इतने बड़े थिंक टैंक को किसी ढंग के होटल, गेस्ट हाउस, वेस्टर्न कोर्ट, यूपी भवन आदि जगह पर ठहरा सके? वह बीमार अवस्था में दिल्ली आये तो राहुल गांधी जी का फर्ज नहीं बनता था कि इस अवस्था में उनका ध्यान रखा जाए? उनका इलाज कराया जाय? उन्हें टैक्सी मुहैया कराई जाय? बीमार अवस्था में उनको सुविधा मुहैया कराये? मगर नहीं, उनको तो इस अवस्था में संविधान बचाव कमेटी ने उन्हें अकेला छोड़ दिया, फिर राहुल जी आमजन का क्या ख्याल करेंगे?

दूसरा, जब वह मेट्रो में बेहोश हुए तब एच. एल. दुसाध सर, जो अपने को विद्वान् मानते व कहते हैं , उनसे यह जहमत नहीं हुई कि उन सिम्पटम को सीरियस लेकर रतनलाल जी के यहाँ न जाकर डॉक्टर या हास्पिटल जाते, मगर नहीं पहले उन्हें राहुल जी को जननेता बनाना है, फिर फ्रैंक जैसे लोग बेशक मौत की आगोश में जाते रहें! तीसरा, रतनलाल जी के घर में काफी देर तक दुसाध सर और फ्रैंक हुजूर रहे और वह सब बातों से अवगत होते हुए, सिर्फ डॉक्टर से बात करके अपना फर्ज पूरा कर लिए। मतलब खानापूर्ति कर ली क्योंकि उन्हें बहन जी के खिलाफ अनापशनाप बोलने से फुर्सत मिले तो वह दूसरों को सीरियसली लें!’ फ्रैंक हुजूर के इलाज में बरती गई लापरवाही को उजागर करता चन्द्रभूषण यादव का यह पोस्ट जहाँ कई लोगों ने शेयर किया, वहीं संभवतः उससे प्रेरित होकर कुछ लोगों ने खुली घोषणा कर दिया,‘ फ्रैंक हुजूर की मौत के लिए जिम्मेवार हैं: एच एल दुसाध, प्रो रतनलाल और अनिल जयहिंद!’

लेकिन किसी को निशाने पर न लेने के बावजूद प्रायः अधिकांश का मानना रहा कि यदि फ्रैंक राहुल गांधी से मिलने लखनऊ से दिल्ली नहीं जाते तो यह हादसा नहीं होता। खुद इस घटना से सदमे में आई मेरी पत्नी मेवाती दुसाध कई बार मेरे मुंह पर कह चुकी हैं कि फ्रैंक अगर राहुल गांधी से मिलने नहीं जाते तो यह घटना नहीं होती। बहरहाल राहुल गांधी से जुड़ना और ख़राब तबियत लेकर उनसे मिलने दिल्ली जाना ही अगर फ्रैंक के दुखद अंत का कारण है तो इसके लिए एकल रूप से कोई सर्वाधिक जिम्मेवार है तो सिर्फ और सिर्फ एच एल दुसाध यानी मैं! इसे समझने के लिए थोड़े अतीत में जाना होगा जब मैं फ्रैंक हुजूर के निकट आया।

फ्रैंक हुजूर के सीने में ताउम्र धधकती रही : सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग

लेखन की दुनिया से जुड़े होने के बावजूद लेखकों की सभा- संगोष्ठियों में जाने से आज भी परहेज करता हूँ इसलिए बहुत ही कम लेखकों से मेरा परिचय है। संभवतः अपनी इस कमी के कारण फ्रैंक हुजूर का पहली बार नाम 2014 में उनके साहित्यिक आइकॉन राजेन्द्र यादव के निधन के बाद सुना। फेसबुक से चला कि फ्रैंक हुजूर ने ही सबसे पहले राजेन्द्र यादव के निधन की जानकारी दी। उनका यूनिक नाम भी मुझे अलग से आकर्षित किया। उसके बाद उनमें रूचि लेने लगा और ज्यों – ज्यों उनके विषय में जानकारी मिलती गयी त्यों – त्यों उनके प्रति आकर्षण भी बढ़ते गया। अंततः 2015 के जाते- जाते मैने समाजवादी पार्टी से जुड़े भाई चन्द्रभूषण सिंह यादव से निवेदन कर डाला कि वह स्टाइलिश फ्रैंक हुजूर से मिलवा दें और उन्होंने मेरे अनुरोध की रक्षा भी किया! एक दो मुलाकातों के बाद ही हम न सिर्फ एक दूसरे के बहुत निकट आ गए, बल्कि एक दूसरे के मुरीद भी बन गए। कारण दो रहे। एक तो सोच से हम दोनों हिन्दू – धर्म- संस्कृति से पूरी तरह मोहमुक्त: काफी हद तक वेस्टर्नाइज्ड रहे। दूसरे, हम दोनों के दिलों में सामाजिक अन्याय के खिलाफ समान रूप से आग धधकती रही। हमदोनों ही सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के आकांक्षी रहे। रुचियों और वैचारिक साम्यता के कारण हममें जो निकटता हुई, वह दिन ब दिन प्रगाढ़ होती गई। कभी एक पल के लिए भी उसमें शिथिलता नहीं आई. हम एक दूसरे से इतना प्रभावित रहे कि 2017 के जुलाई में फ्रैंक हुजूर ने ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ मैगजीन में भारत के सर्वकालिक 100 ग्रेटेस्ट इंडियंस की जो तालिका जारी किया, उसमें मुझे भी जगह देकर आभारी बना दिए। बाद में जीवन के शेष दिनों तक जगह – जगह उल्लेख करने के साथ लोगों से मेरा परिचय कराते हुए कहते रहे,’ दुसाध को मैं दिलीप मंडल के साथ भारत का चोम्स्की या फिर कहें तो कैटलीन जोंस्टन मानता हूँ।‘ मैंने भी उन्हें ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’, जिसका संस्थापक अध्यक्ष मैं खुद हूँ, की ओर से उन्हें 2017 के दिसंबर में चन्द्रभूषण सिंह यादव और डॉ कौलेश्वर प्रियदर्शी के साथ ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द ईयर’ खिताब से नवाजा। यही नहीं बाद में वह जीवन के शेष दिनों तक ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेवारी निभाते रहे। बाद में सामाजिक अन्याय के खिलाफ धधकती आग ही उनके राहुल गांधी के अभियान से जुड़ने का सबब बनी।

राहुल गांधी से जुड़ने का सबब बनी: फ्रैंक हुजूर में सीने में धधकती सामाजिक अन्याय के खिलाफ आग लोकसभा चुनाव की पृष्ठभूमि में 2023 के 24 – 26 फरवरी तक रायपुर में आयोजित कांग्रेस के 85वें अधिवेशन में सामाजिक न्याय से जुड़े जो कई प्रस्ताव पास हुए, वह औरों की भांति मुझे भी आकर्षित किये। बाद में जब मई, 2023 में कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेत्तृत्व में कर्णाटक चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करते हुए भाजपा को गहरी शिकस्त दिया, मुझमें यह विश्वास पनपा कि कांग्रेस अगले लोकसभा को सामजिक न्याय पर केन्द्रित कर सकती है और अगर ऐसा करती है तो मोदी की सत्ता में वापसी मुश्किल हो जायेगी। यह सोच कर ही मैं राहुल गांधी के पक्ष में, जो सामाजिक न्याय को नित नई उंचाई दिए जा रहे थे, धुआंधार कलम चलाना शुरू किया। लोकसभा चुनाव करीब आते-आते मुझे राहुल गांधी में समतामूलक भारत निर्माण की आखिरी उम्मीद नजर आने लगी। ऐसे में उनका हाथ मजबूत करने के लिए सक्रिय रूप से कांग्रेस से जुड़ने का मन बनाने लगा। मैंने अपनी यह ख्वाइश और किसी के सामने नहीं, सिर्फ फ्रैंक हुजूर के समक्ष रखी। उन्होंने मेरी इच्छा का सम्मान करते हुए ऐसे किसी व्यक्ति से मिलवाने का आश्वासन दिया, जिसके जरिये मैं यूपी कांग्रेस नेतृत्व से मिल सकूं। उनका प्रयास रंग लाया और उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के एक बेहद करीबी से उनके ही आवास पर एक बैठक हुई। अजय राय के उस करीबी ने कुछ दिन बाद उनसे मुलाकात का समय स्थिर किया। नियत समय पर मैं फ्रैंक हुजूर के साथ ही अजय राय से मिलने कांग्रेस मुख्यालय गया। उसके बाद दो- तीन बार और कांग्रेस मुख्यालय गया। हर बार फ्रैंक मेरे साथ रहे। किन्तु एकाधिक कारणों से मैं कांग्रेस ज्वाइन करने से पीछे हट गया। इस दरम्यान धीरे – धीरे मेरे अनुरोध पर फ्रैंक भी राहुल गांधी का हाथ मजबूत करने का मन बनाने लगे।

उस समय तक संविधान बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक डॉ. अनिल जयहिंद राहुल गांधी के करीब आ चुके थे, जिनके साथ मिलकर मैं डाइवर्सिटी केन्द्रित कई आयोजन कर चुका था। मैंने उन्हें राहुल गांधी के प्रति फ्रैंक हुजूर के आकर्षण से अवगत कराया। इसके बाद उन्होंने 13 जनवरी, 2024 को राहुल गांधी से बहुजन बुद्धिजीवियों को मिलवाने का जो कार्यक्रम तय किया, उसमें फ्रैंक को भी लाने का निर्देश दिया और 13 जनवरी को 10 जनपथ में मेरे साथ फ्रैंक हुजूर भी पहली बार राहुल गांधी से मिले। उसी दिन शायद पहली बार प्रो रतनलाल और प्रो.सूरज मंडल भी साथ राहुल गांधी से मिले। उस मुलाकात में मैंने कांग्रेस से जुड़ी अपनी पांच किताबें राहुल गांधी को भेंट की थी, जो 2023 में तैयार की गई थीं। भारत जोड़ों न्याय यात्रा के शुरू होने के एक दिन पहले हुई उस मुलाकात के बाद फ्रैंक हुजूर और डॉ. अनिल जयहिंद एक दूसरे के निकट आ गए। उनकी यह निकटता प्रगाढ़ता में तब बदल गई, जब 10 मई, 2024 को लखनऊ में संविधान सम्मेलन आयोजित हुआ। 13 जनवरी, 2024 के बाद 10 मई, 2024 को फिर हम दोनों एक साथ राहुल गांधी के प्रोग्राम में शिरकत किये। लखनऊ के संविधान सम्मलेन के बाद तो फ्रैंक हुजूर डॉ. अनिल जयहिंद के संविधान बचाओ सम्मेलनों की टीम के अभिन्न अंग बन गए। फिर तो वह कई सम्मेलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी किये और बाद में 28 जनवरी को डॉ जगदीश प्रसाद, अली अनवर, भगीरथ मांझी इत्यादि के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए।

उक्त अवसर पर उनका संबोधन ऐतिहासिक रहा। जिस किसी ने उनका वह संबोधन देखा, वह उनके बात रखने के अंदाज़ और कंटेंट से विस्मित हुए बिना रह सका। उन्होंने अपने छोटे, मगर यादगार संबोधन में कहा था,’ हम यहाँ भारत की सबसे पुरानी पार्टी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की छत्रछाया में आशा की एक किरण प्रदान करने के लिए हैं। पार्टी का लगभग 140 वर्षों का समृद्ध इतिहास है। यह मेरे साथ – साथ संविधान और सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों में विश्वास करने वाले सभी लोगों के लिए एक बड़ा सम्मान है। मैं न्याय योद्धा राहुल गांधी जी के कारण आज यहाँ कांग्रेस पार्टी के साथ हूँ। बीजेपी आरएसएस ने उन्हें नीचे गिराने के लिए अरबों रूपये इन्वेस्ट किया है। पर, राहुल गांधी ने हिम्मत नहीं हारी। एक स्थापित मशीनरी के खिलाफ लड़ाई की है और उसे हरा दिया है। मोदी जी और उनकी टीम बुरी तरह असफल रहे और राहुल गांधी जी से हार गए हैं। न्याय योद्धा राहुल गांधी आज नब्बे फ़ीसदी इंडियंस की असली आवाज और उम्मीद बन गए हैं।‘ लखनऊ वाले संविधान सम्मलेन के बाद मैं न तो संविधान श्रृंखला के अन्य किसी आयोजन में शामिल हुआ और न ही पार्टी ज्वाइन किया। पर, मन में यह हसरत जरुर रही कि राहुल गांधी से एक बार फिर मिलकर कांग्रेस के लिए जो योजना मेरे पास है, वह उनके समक्ष रखूं। इसलिए कुछ माह पूर्व मैंने जयहिंद साहब से अनुरोध किया था कि एक बार फिर राहुल जी से मिलवा दें। यह बात उनके जेहन में थी, इसलिए जब 4 मार्च को राहुल गांधी से कुछ लोगों को मिलवाने का प्रोग्राम स्थिर किये तो मुझे भी शामिल होने न्योता दे डाले, क्योंकि उन्हें पता था इस समय मैं दिल्ली में हूँ।

फ्रैंक के साथ मेरे आखिरी साढ़े 6 घंटे 4 मार्च को राहुल गांधी से मिलने का समय 4 बजे निर्दिष्ट हुआ था। इस क्रम में डॉ जयहिंद का निर्देश था कि राहुल जी से मिलने जाने वाले 3 बजे तक प्रेस क्लब आ जाएं। मैं ठीक 3 बजे पटना से आए अमर आजाद के साथ प्रेस क्लब में प्रवेश किया तो फ्रैंक हुजूर पहले से बैठे दिखे। मैं उनके पास पहुँच कर हैण्ड शेक किया। हमलोग शायद कुछेक माह के अंतराल पर पहली बार मिलले थे। किराये के नए मकान में शिफ्ट करने के बाद एक डेढ़ माह पहले वह मुझे अपने घर आने का अनुरोध किये थे पर, समयाभाव के कारण जा न सका था। उस दिन उनके चेहरे पर पहले वाला ग्लेज नहीं दिख रहा था। कारण पूछने पर बताये कि कल कोल्ड लग गई थी। थोड़ी देर बाद भारत विख्यात ह्रदय रोग विशेषज्ञ डॉ. जगदीश प्रसाद भी आ गए और फ्रैंक के बगल में बैठ गए। उन्होंने कहा लगता है आपकी तबियत ठीक नहीं है? फ्रैंक उनको भी जवाब दिए कि कल कोल्ड लग गई थी। तबियत के बारे में पूछने पर और भी कुछ लोगों को यही बताये। बहरहाल पौने चार बजे के करीब हम सब 10 जनपथ के लिए रवाना हुए, जहां 4. 30 बजे राहुल गांधी हम लोगों के बीच आए। 13 जनवरी, 2024 के बाद यह दूसरा अवसर था, जब हम दोनों एक साथ राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे।

मीटिंग हॉल में हम दोनों सबसे अंत में एक दूसरे के आमने सामने बैठे हुए थे। सबकी भांति फ्रैंक भी अपना परिचय देने के बाद डेढ़ दो मिनट अपनी बात रखे और राहुल गांधी सहित सभी मुग्ध भाव से सुनते रहे। उनके बाद आखिर में मुझे अपना परिचय देने का अवसर मिला। साढ़े पांच बजे के बाद मीटिंग ख़त्म हुई। उसके बाद फोटो सेशन शुरू हुआ। फ्रैंक के जीवन की जो आखिरी तस्वीर ली गई, उसमें उनके बाएं राहुल गांधी और दाहिने मैं रहा। उनके साथ फोटी लेते हुए राहुल गांधी के चेहरे से अलग ख़ुशी झलक रही थी। शायद वह उनके व्यक्तित्व से अतिरिक्त रूप से इम्प्रेस हुए थे, जिसकी झलक उनके उस पत्र में भी दिखी, जो उन्होंने उनके निधन के बाद कुछ देर से उनकी जीवन संगिनी मुक्ता जी के नाम लिखा गया था। राहुल गांधी से मुलाकात के बाद जब सभी अपने-अपने ठिकाने के लिए रवाना होने लगे, उन्होंने मुझसे पूछा,’ आप किधर जायेंगे? जब उन्हें पता चला कि मैं प्रो रतनलाल से मिलने हिन्दू कॉलेज जा रहा हूँ, तब उन्होंने कहा, ’हम साथ–साथ चलेंगे। मुझे मॉडल टाउन अपने मित्र के घर जाना है।’ फिर हम दोनों डॉ. जगदीश प्रसाद की गाड़ी में बैठ कर केन्द्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन पहुंचे। प्लेटफार्म पर पहुँचने के साथ ही ट्रेन आ गई। पर, वह विश्वविद्यालय तक के लिए थी। इसे देखकर उन्होंने कहा आप निकल लीजिये, मैं अगली ट्रेन से जाऊंगा। फिर मैंने कहा साथ में चलते हैं, आगे चलकर ट्रेन बदल लीजियेगा और वह मान गए। सीट नहीं मिली थी और हम खड़े होकर यात्रा कर रहे थे। कश्मीरी गेट पहुँचते ही अचानक वह बेहोश होकर पीछे की और गिरने लगे। मैंने उन्हें थाम लिया और बगल वाली सीट पर बिठा दिया। संग- संग एक महिला ने पानी की बोतल बढ़ा दिया। कुल मिलाकर बमुश्किल 45 सेकेण्ड में वह सामान्य हो गए। सामान्य होने के बाद झेंप मिटाने के लिए वह मुस्कुराने लगे। कुछ ही मिनटों में ट्रेन विश्वविद्यालय पहुँच गई। ट्रेन से उतरने के बाद वह कहे,’ आप प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर निकलिये, मैं मॉडल टाउन के लिए आगे बढ़ता हूँ।’ मैंने मना करते हुए कहा कि आप मॉडल टाउन न जाकर पहले हिन्दू कॉलेज चलें और प्रोफ़ेसर रतनलाल के घर पर रेस्ट लें। वह मान गए।

मेट्रो से बाहर निकलते समय वह सामान्य तरीके से चल रहे थे, फिर भी मैं उनका हाथ थामे हुए था। ऊपर आकर मैंने ई– रिक्शा बुलाया, पर, उन्होंने पैडल रिक्शा से चलने की इच्छा जताई। रास्ते में एक जगह रिक्शा रोक कर वह एक मेडिकल स्टोर में गए और क्रोसिन के कुछ टेबलेट लिए। उन्हें साँस लेने में कुछ दिक्कत हो रही थी। इसलिए मैंने स्टोर वाले से पूछ कर उनके लिए रोटा हेलर और फोराकोर्ट – 400 कैप्सूल ले लिया। श्वांस कष्ट से बचने के लिए मैं खुद हर समय यह साथ रखता हूँ। बहरहाल 7 बजे के करीब हमदोनो प्रो. रतन के आवास पर पहुंचे। उस समय उन्हें ठण्ड लग रही थी। मैंने उन्हें जब फ्रैंक का हाल बताया, वह संग – संग अपने स्टूडियो वाले कमरे में पड़े मिनी दीवान पर आराम करने के लिए कहे। फ्रैंक कम्बल ओढ़कर रेस्ट लेने लगे। उसके बाद एक डॉक्टर को फोन कर उनकी तबियत का ब्यौरा देकर दवा लिखवाने लगे, पर वह दवा लेने से मना कर दिए। फिर वह उनके लिए काढ़ा बनवाए। कुछ देर रेस्ट लेने के बाद उन्होंने उनसे हॉस्पिटल चलने को कहा, पर उन्होंने इनकार करते हुए मॉडल टाउन जाने की इच्छा जताई। कुछ देर बाद रतनलाल भाप लेने की व्यवस्था कर दिए। यह सब करने के बाद उन्होंने जैसे एक शिक्षक छात्र को आदेश करता है, उसी तरह आदेश देते हुए कहे,’ तुम आज न तो ड्रिंक लोगे और न ही सिगरेट पियोगे!’ इसके बाद उन्हें रेस्ट लेने के लिए छोड़कर हम दोनों कमरे से बाहर आ गए और बीच- बीच में कमरे जा कर उनकी तबियत का जायजा लेते रहे।

इस दरम्यान वह अपने तबियत के बजाय ज्यादा बेचैन मॉडल टाउन अवस्थित अपने मित्र के घर जाने के लिए दिखे। अंततः मॉडल टाउन वाले उनके मित्र 9.30 के करीब अपनी गाड़ी लेकर प्रो. रतनलाल के दरवाजे पर हाजिर हो गए और पांच मिनट के अन्दर उन्हें लेकर चल दिए। जब वे दोनों जाने लगे प्रो. लाल दोनों की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाल लिए। इससे पहले मना करने के बावजूद फ्रैंक एक सिगरेट पी चुके थे। इस तरह 3 से लेकर 9.30 बजे तक कुल साढ़े छ: घंटे साथ गुजारने के बाद फ्रैंक हमसे विदा लिए।

पांच मार्च : अपने मित्र के घर पर फ्रैंक अगले दिन 5 मार्च की सुबह 9 बजे के करीब मैंने फ्रैंक का हाल चाल जानने के लिए फोन लगाया तो कहे तबियत तो ठीक है, पर बदन में दर्द है। यह जानकार मुझे अच्छा नहीं लगा कि 3 मार्च को उन्हें ठण्ड लगी और अब तक उनके बदन में दर्द है। कुछ चिंतित होकर मैंने डॉ. अनिल जयहिंद को फ़ोन लगाया और बताया कि फ्रैंक के बदन में अब भी दर्द है। उनका इलाज होना चाहिए। 20 – 25 मिनट बाद ही उनके सहयोगी वेद प्रकाश तंवर का फ़ोन आया। उन्होंने बताया कि बाड़ा हिंदूराव अस्पताल के तीन डॉक्टरों से बात हो चुकी है। उन्हें कहिये जाकर उनसे मिल लें। वे वहां उनका इंतजार करते मिलेंगे। फिर तंवर जी तीनों डॉक्टरों का संपर्क नंबर मुझे सुलभ करा दिए। मैंने वह नंबर जल्द ही 9.57 पर व्हाट्सप कर दिया और अनुरोध किया कि बिना आलस्य किये अस्पताल पहुँच जाएं और उन्होंने जाने के लिए आश्वस्त भी किया। उसके बाद मैं प्रो. रतनलाल से विदा लेकर नवीन शाहदरा पहुँच गया, जहाँ मेरी आने वाली तीन किताबों पर काम चल रहा था। दोपहर डेढ़ दो बजे के आसपास फोन लगाया तो पता चला वह अभी तक अस्पताल नहीं पहुंचे हैं। मैंने पुनः हिंदूराव अस्पताल जाने के लिए अनुरोध किया। जवाब मिला कि देखते हैं। प्रेस से काम निपटाकर मैं शाम 8 बजे किशनगढ़ पहुंचा, जहां ठहरा हुआ था। वहां से 8.15 के करीब उनको फ़ोन लगाया तो पता वह अस्पताल नहीं गए हैं और लखनऊ जाकर इलाज करवाएंगे। अस्पताल न जाने के लिए मैंने उन्हें हलकी सी झिड़की लगायी और पूछा इस स्थिति में लखनऊ कैसे जायेंगे। उन्होंने बताया कि किसी से बात हो चुकी है, बाई रोड उसकी गाड़ी से लखनऊ जायेंगे। मैंने कहा लखनऊ पहुँच कर बिना देर किये डॉक्टर से जरुर मिलिएगा। उन्होंने कहा,’ श्योर’! यही मेरा उनसे आखिरी वार्तालाप रहा।

6 मार्च : और फ्रैंक नहीं रहे 6 मार्च की सुबह पहला फोन डॉ. अनिल जयहिंद का आया। उन्होंने कहा कि 4 मार्च को राहुल गांधी से हमलोगों की जो मीटिंग हुई, उस पर 100 शब्दों में सबसे सुझाव माँगा गया है, जिसे बारह बजे तक लिखकर देना है। आप भी लिख डालिए। उनकी बात सुनने के बाद मैंने फ्रैंक हुजुर की तबियत के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि दो बार उन्हें फोन लगाया, पर, दोनों बार ही उनका फोन स्विच ऑफ़ मिला। उनसे बात पूरी होने के बाद देखा कि प्रो रतनलाल का मिस कॉल पड़ा है। मैंने कॉल बैक किया तो उन्होंने कहा, ’फ्रैंक के विषय में कुछ पता है?’ मैंने कहा, ’नहीं!’ उन्होंने कहा, ’फ्रैंक नहीं रहे!’ सुनकर मैं सन्न रह गया। फिर वह बताये कि 4 मार्च की शाम हिन्दू कॉलेज से जाने के बाद उनके मॉडल टाउन वाले मित्र डॉक्टर के पास चलने का आग्रह करते रहे, पर वह तैयार नहीं हुए। अगले दिन आपने डॉक्टरों का नंबर भेजा, पर, वह हिंदूराव अस्पताल नहीं गए। कल शाम उनसे मिलने उनके दो मित्र आए और देर तक रहे। रात साढ़े बारह बजे के आसपास जब वे दोनों मित्र जाने लगे, उन्हें छोड़ने के लिए उनके मॉडल टाउन वाले मित्र गेट तक गए। उन्हें छोड़कर जब वापस कमरे में आए तो देखे कि फ्रैंक अचेत पड़े हैं। उसके बाद उन्हें किसी तरह लेकर फोर्टिस हॉस्पिटल गए, जहाँ डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उन्होंने आगे बताया, ’आज सुबह जगने के बाद जब फ़ोन खोला तो देखा उनके मित्र का रात दो बजे का मिस्कॉल पड़ा हुआ है। अभी थोड़ी देर पहले जब कॉल बैक किया, तब सारी घटना की जानकारी मिली।

’प्रो. रतनलाल से बात करने के कुछ देर मैं जब थोडा सामान्य हुआ, मैंने फेसबुक खोला तो पाया कि फ्रैंक को श्रद्धांजलि देने का सैलाब आना शुरू हो चुका है। थोड़ी देर उनके विषय में जानने के लिए फोन आने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह शाम तक लगातार जारी रहा। मैं तन और मन से टूट चुका था, इसलिए घर से बाहर नहीं निकला और प्रो. लाल और डॉ जयहिंद से फोन पर संपर्क कर आगे का हालचाल जानता रहा। पता चला उनके पिता बब्बन सिंह आ चुके हैं और बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम का अनुरोध किए हैं। पोस्टमार्टम अगले दिन होगा। बोर्ड ऑफ़ डॉक्टर्स से पोस्टमार्टम के निर्णय का प्रो लाल और डॉ. जयहिंद ने स्वागत किया। मैं अगले दिन 7 मार्च को भी जगजीवन राम अस्पताल नहीं गया, जहाँ पोस्टमार्टम के लिए फ्रैंक का शव पड़ा हुआ था। न जाने का कारण यह था कि शोक से जर्जरित उनके पिता और पत्नी का सामना करने की मुझमे हिम्मत नहीं थी। बहरहाल 6 मार्च की सुबह प्रो रतनलाल से फ्रैंक हुजूर के निधन खबर पाने के बाद से एक पल के लिए भी मेरी आँखे नम नहीं हुईं। नम हुईं तब जब 8 मार्च को वह सुशांत गोल्फ सिटी अवस्थित अपने घर से अनंत यात्रा पर निकले। अपने दामाद राजीव रंजन के विडिओ कॉल के जरिये जब उनकी शव – यात्रा का दृश्य देखा तब दो दिनों से थमे आंसू सैलाब बनकर बह चले। वह सैलाब आज भी पूरी तरह से नहीं थमा है। ये पंक्तियाँ लिखते हुए, कई बार आंसूओं की धारा बही। मैं कुछ अत्याज्य कारण वश उनकी शेष यात्रा में भी शिरकत न कर सका। लखनऊ पहुंचा 11 मार्च को। लखनऊ पहुँचने के बाद उनके पिता; बब्बन सिंह से विडियो कॉल पर लगभग 40 मिनट बात हुई। बातों के दौरान मैंने फ्रैंक से पहली मुलाकात के बाद विकसित हुए संबंधों से लेकर बीते 4 मार्च को गुजारे गए छः घंटों के विषय में विस्तार से जानकारी दिया। मैं भले ही उनसे अनजान था पर, वह नहीं! फ्रैंक के जरिये वह बहुत पहले से मेरे विषय में वाकिफ थे. शायद इसीलिए वह बार – बार दोहराते रहे: फ्रैंक के सपनों को पूरा करना है. अगले दिन अपनी मिसेज के साथ फ्रैंक के आवास पर गया। उनकी तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर नम आँखों से उन्हें नमन किया। करीब डेढ़ घंटे रहा,लेकिन मुक्ता जी से मिलने साहस नहीं जुटा पा रहा था पर, चलने के पहले उनके कमरे में गया। वह पत्थर बनी चुपचाप मुझे देख रही थीं। किसी तरह आधे मिनट उनके सामने रहा पर, मुंह से एक शब्द भी नहीं निकले। विदा लेते वक्त फ्रैंक के पिता फिर एक एक बार कहे, ’फ्रैंक का सपना पूरा करना है!’ मैंने उन्हें आश्वस्त किया। कोई और करे या न करे, मैं अपनी और से कोई कसर नहीं छोडूंगा।

फ्रैंक के सपनों को पूरा करने के क्रम में पहला निर्णय लिया हूँ उन पर एक स्मृति ग्रन्थ लाने का जिसका लोकार्पण उनके अगले जन्मदिन: 17 सितम्बर, 2025 को होगा। कोटि – कोटि नमन फ्रैंक। मैं आपके सपनों के सामाजिक अन्याय-मुक्त भारत निर्माण के काम में और शिद्दत के साथ लगूंगा।

विवादों में जगनमोहन रेड्डी, 500 करोड़ के भव्य महल पर उठे सवाल

वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी (फाइल फोटो)

जगन मोहन रेड्डी का भव्य महल, जिसे एक पूरे पहाड़ को समतल कर बनाया गया, राजनीतिक विलासिता और सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग का एक स्पष्ट उदाहरण है। 61 एकड़ में फैला यह आधुनिक किला सात आलीशान इमारतों से बना है, जिसमें ऐसी भव्य सुविधाएँ शामिल हैं जिनके बारे में आम नागरिक केवल सपना ही देख सकते हैं। ₹500 करोड़ से अधिक की अनुमानित लागत और ₹15,293 प्रति वर्ग फुट के अत्यधिक निर्माण व्यय के साथ, इस निवास में इटालियन मार्बल फ्लोरिंग, 200 झूमर, 12 समुद्र-दृश्य शयनकक्ष और ₹25 लाख का बाथटब, ₹5 लाख के कमोड जैसे आयातित आइटम शामिल हैं। सेंट्रल एयर कंडीशनिंग से लेकर हाई-एंड फर्निशिंग तक, इस महल का हर कोना असीमित भव्यता की कहानी कहता है, जो एक ऐसे देश में बन रहा है जहाँ लाखों लोग बुनियादी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

जगन मोहन रेड्डी का आलीशान महल, जिसे पहाड़ काट कर बनाया गया हैइतनी खुली फिजूलखर्ची के बावजूद, इसके निर्माण पर बनी चुप्पी इस बात को दर्शाती है कि राजनीतिक अभिजात्य वर्ग और सत्ता संरचनाओं के बीच कितना गहरा गठजोड़ है। जगन मोहन रेड्डी और नरेंद्र मोदी-अमित शाह के बीच करीबी संबंधों ने यह सुनिश्चित कर दिया कि इस पर कोई मुख्यधारा की बहस न हो और सभी पर्यावरणीय मंजूरियाँ बिना किसी आपत्ति के दे दी गईं। यह पाखंड तब और उजागर होता है जब मोदी स्वयं एक नया प्रधानमंत्री निवास बनवा रहे हैं, जिसकी लागत विपक्ष के अनुसार तीन गुना अधिक बताई जा रही है।

केंद्र में मोदी के साथ गठबंधन करके गोदी में बैठकर यह सब किया जाता रहा है। यही सुख भोगने के लिए अब चंद्रबाबू नायडू भी गठबंधन में शामिल हो गए हैं। इन नेताओं को विचारधारा और जनता की भावना से कोई सरोकार नहीं है। उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता में बने रहकर अपने लिए ऐशो-आराम और धन-संपत्ति जुटाना है, जबकि आम जनता महँगाई, बेरोजगारी और बुनियादी जरूरतों की कमी से जूझ रही है। यह बढ़ती हुई खाई शासकों और शासितों के बीच के अंतर को दर्शाती है, और जब तक जनता चुप रहती है, तब तक यह राजनीतिक वर्ग अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता रहेगा, खुद को समृद्ध बनाता रहेगा, जबकि आम नागरिक अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष करते रहेंगे।

दलित युवक ने कबड्डी में हरा दिया तो जातिवादी गुंडों ने काट डाली उंगली

सांकेतिक तस्वीर तमिलनाडु में जातिवादी गुंडों ने दलित समाज के एक युवक की उंगली काट दी। जातिवादियों ने यह तब किया जब वह युवक बस से 11वीं की परीक्षा देने जा रहा था। इस दौरान जातिवादी गुंडों ने युवक को बस से खींच लिया और उसकी उंगली काट दी। जागरण में प्रकाशित इस घटना के पीछे की वजह यह रही कि गांव में कबड्डी का मैच था, जिसमें दलित समाज के युवक ने शानदार खेल खेलते हुए हिन्दू समाज के लोगों को हरा दिया था। इसी बात को लेकर हिन्दू समाज के जातिवादी लोगों में खुन्नस थी। घटना तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले की है। पीड़ित युवक देवेन्द्र एक शानदार कबड्डी खिलाड़ी है और इलाके में उसका नाम है। उसके पिता थंगा गणेश दिहाड़ी मजदूर हैं। घटना 10 दिसंबर की है, जब युवक 11वीं की परीक्षा देने के लिए अपने घर से पलायमकोट्टई स्थित अपने स्कूल जा रहा था। रास्ते में तीन लोगों ने बस को रोक लिया और उसे बस से बाहर खिंचकर उसके साथ मारपीट करने लगे। इससे भी उनका मन नहीं भरा तो युवक के बाएं हाथ की उंगलियां काट दी। इस दौरान जातिवादी गुंडों ने युवक के पिता थंगा गणेश के साथ भी मारपीट की। इस घटना में दोनों को गंभीर चोट आई है। इस घटना के बाद पुलिस ने हालांकि तीन नाबालिगों को गिरफ्तार कर लिया है। देवेंद्रन के परिवार का कहना है कि कबड्डी मैच में हार का बदला लेने के लिए हिन्दुओं ने यह किया है। हालांकि इस घटना के दौरान अन्य यात्रियों ने बीच-बचाव किया तो हमलावर भाग निकले। कटी हुई उंगली को लेकर पिता-पुत्र अस्पताल पहुंचे, जहां सर्जरी कर उंगली को वापस जोड़े जाने की सूचना है। लेकिन यह घटना सवाल उठाती है कि क्या हिन्दू समाज के जातिवादी युवकों को दलित समाज के युवक से खेल में हार भी बर्दाश्त नहीं है? इसलिए सालों से दलितों और आदिवासियों को तमाम संसाधनों से दूर रखने का षड्यंत्र मनुवादी व्यवस्था द्वारा किया जाता रहा है।

बिहार विधानसभा में गूंजा बोध गया महाविहार का मामला

पटना। बोध गया महाविहार को ब्राह्मणों से मुक्त कराने का आंदोलन जोर पकड़ता जा रहा है। 7 मार्च को यह मामला बिहार विधानसभा में उठा। बिहार विधानसभा में राष्ट्रीय जनता दल के विधायक सतीश कुमार दास ने BP Act को निरस्त करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने पुरजोर तरीके से न सिर्फ इस मुद्दे को उठाया, बल्कि कई चुभते सवाल भी छोड़ दिये, जिससे हिन्दू धर्म के ठेकेदारों को मिर्ची लग गई है।

मकदूमपुर विधानसभा से विधायक सतीश कुमार ने बौद्ध समाज की मांग को बिहार विधानसभा में उठाते हुए बीटी एक्ट को खत्म करने की वकालत की और आर्टिकल 26 के तहत बौद्धों को धार्मिक स्वतंत्रता देने की वकालत की। इस बीच सतीश कुमार के उस बयान के बाद बिहार विधानसभा में हंगामा मच गया, जब उन्होंने राम मंदिर में भी बौद्धों, मुस्लिमों और जैनों को अधिकार देने की बात कर दी।

बिहार विधानसभा में इस मु्द्दे के उठने के बाद अब बिहार की राजनीति में हलचल मच गई है। राजद विधायक इस मुद्दे पर भाजपा और जदयू को घेरने में जुट गए हैं। आलम यह है कि दुनिया भर से बोधगया महाविहार को पूरी तरह से बौद्धों को सौंपने की उठती मांग का मुद्दा अब नीतीश कुमार और भाजपा के गले की फांस बन गया है। उम्मीद है कि 10 मार्च को दिल्ली में बजट का दूसरा सत्र शुरू होने के बाद यह मुद्दा संसद में भी गूंजेगा।

चमार स्टूडियो पहुंचे राहुल गांधी

मुंबई के धारावी स्थित चमार स्टूडियो में सुधीर राजभर से बात करते लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधीकांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने छह मार्चा को मुंबई के धारावी में चमार स्टूडियो के सुधीर राजभर से मुलाकात की है। इस मुलाकात पर राहुल गांधी ने लिखा-

चमार स्टूडियो के संस्थापक सुधीर राजभर लाखों दलित युवाओं की कहानी को समेटे हुए हैं। वह अत्यंत प्रतिभाशाली हैं, नए विचारों से भरपूर हैं और सफलता के लिए आतुर हैं, लेकिन अपने क्षेत्र के शीर्ष लोगों तक पहुंच की कमी और सीमित अवसरों की चुनौती से जूझते रहे। मगर, अपने समुदाय के कई अन्य लोगों से अलग, सुधीर ने अपना नेटवर्क बनाया। उन्होंने धारावी के कारीगरों की छिपी प्रतिभा को पहचाना और एक ऐसा ब्रांड खड़ा किया, जिसे आज विश्व के सम्मानित फैशन जगत में अपनी पहचान मिली है।

चमार स्टूडियो की सफलता यह साबित करती है कि कैसे पारंपरिक हस्तकला और आधुनिक व्यापार एक साथ आ सकते हैं, जिससे कुशल कारीगरों को भी उस सफलता में भागीदारी मिल सके जिसे वे अपने हाथों से गढ़ते हैं। आज, धारावी में सुधीर और उनकी टीम के साथ काम करते हुए, मैंने समावेशी उत्पादन नेटवर्क की अहमियत को महसूस किया – ऐसे नेटवर्क जो विभिन्न क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों को आगे बढ़ाते हैं।मुंबई के धारावी में सुधीर राजभर के चमार स्टूडियो में राहुल गांधी

साथ ही, मुझे यह भी उतना ही महत्वपूर्ण लगा कि सुधीर को अपना ज्ञान और अनुभव दूसरों के साथ भी बांटना चाहिए। इसलिए हमने अपने मित्र रामचेत मोची को सुल्तानपुर से बुलाया ताकि वे सुधीर से मिल सकें और समझ सकें कि डिज़ाइन और इनोवेशन उनके व्यवसाय को कैसे नया रूप दे सकते हैं। मैंने लोकसभा में कहा था कि खुशहाल भारत का निर्माण “समृद्धि और हिस्सेदारी” के मॉडल से ही संभव है। चमार स्टूडियो की सफलता दिखाती है कि यह मॉडल काम करता है – और मैं चाहता हूं कि ऐसा मॉडल पूरे भारत में लागू हो।


कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के एक्स वॉल से

सोशलिस्ट फैक्टर के एडिटर फ्रैंक हुजूर का दिल्ली में निधन

नई दिल्ली। सोशलिस्ट फैक्टर के एडिटर फ्रैंक हुज़ूर हमारे बीच नहीं रहे। कल 5 मार्च की रात दिल्ली में हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया। वह मॉडल टाउन में अपने मित्र के यहाँ रुके थे। अपनी पत्रिका सोशलिस्ट फैक्टर के जरिये उन्होंने अपनी एक अलग पहचाई बनाई थी। फैंक हुजूर समाजवाद के पक्षधर थे। एक लेखक, पत्रकार और सामाजवादी विचारधारा के प्रवक्ता के तौर पर उनको जाना जाता था। उन्होंने लखनऊ में अनेक युवाओ को समाजवाद की तरफ मोड़ा उन्हें आगे बढ़ाने मे मदद की। उनका पहले का नाम सोमेश यादव है।

फ्रैंक हुजूर के अचानक चले जाने से उनके जानने और चाहने वाले हतप्रभ हैं। उनके पार्थिव शरीर को जहांगीरपुरी स्थित बाबू जगजीवन राम अस्पताल की मोर्चरी में रखा गया है। उनके परिजन दिल्ली के लिए चल पड़े हैं।

इमरान खान, मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव पर जीवनियों के अलावा उन्होंने कई किताबें लिखी। सोशलिस्ट फैक्टर मैगजीन भी निकालते थे। सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की विचारधारा से उनका गहरा रिश्ता था और बिना रुके इन पर काम करते थे। बिहार के बक्सर में जन्मे फ्रैंक हुजूर मूलतः अंग्रेजी के लेखक और जर्नलिस्ट थे। राँची के सेंट जेवियर्स और दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई पूरी कर फ्रैंक अपनी इंगलिश पोएट्री और ड्रामा (हिटलर इन लव विथ मैडोना) से चर्चित हुए। इसके बाद इन्होंने नाटक ‘ब्लड इज बर्निंग’ और‘ स्टाइल है लालू की जिंदगी’ लिखा। मात्र बीस वर्ष की उम्र में अंग्रेजी मैगजीन ‘यूटोपिया’ के संपादक बनने वाले फ्रैंक ने प्रख्यात क्रिकेटर और पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की राजनीतिक जीवनी ‘इमरान वर्सेस इमरान: दी अनटोल्ड स्टोरी’ भी लिखी है।

उनके जाने के बाद उन्हें याद करने वालों का तांता लग गया है। सुरेन्द्र सिंह चौधरी ने लिखा है- ये अविश्वसनीय है लेकिन सच होते हुए भी नाकाबिले बर्दाश्त है। आप की तो बहुत जरुरत थी अभी देश और समाज को। अत्यंत शालीन, विनम्र और अंग्रेजी साहित्य के विद्वान लेखक एवं पत्रकार के रुप में ख्याति अर्जित कर चुके आपकी जीवन यात्रा इतनी छोटी क्यों? मैं और साथी Badr E Alam तो बहुत बार लखनऊ आपके आवास पर घंटों आपके साथ बैठते रहे, देश,काल, राजनीति और दर्शन पर चर्चाएं अब सब खत्म?

ओडिशा में चंद्रशेखर पर जानलेवा हमला, ABVP पर लगाया आरोप, समर्थकों का बवाल

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में चंद्रशेखर के काफिले पर हमले में टूटी गाड़ियांआज ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में मेरे जनसभा कार्यक्रम के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के गुंडों ने संगठित तरीके से जानलेवा हमला किया। लगभग 250 के झुंड में आए इन असामाजिक तत्वों ने कार्यक्रम स्थल पर पथराव किया, हिंसा फैलाई, हमारे कार्यकर्ताओं पर हमला किया और दर्जनों वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया। यह हमला सिर्फ मुझ पर नहीं, बल्कि लोकतंत्र, संविधान और सामाजिक न्याय की आवाज को कुचलने का एक षड्यंत्र है। यह घटना साफ दर्शाती है कि संघ परिवार के संगठनों को सत्ता का खुला संरक्षण प्राप्त है।

यह वही ताकतें हैं जो बहुजन आंदोलन, दलित-पिछड़े समाज और संवैधानिक अधिकारों के लिए उठने वाली हर आवाज को हिंसा और गुंडागर्दी से दबाने की कोशिश करती हैं। लेकिन हम साफ कर देना चाहते हैं – हम डरने वाले नहीं हैं, हम झुकने वाले नहीं हैं! मैं @CMO_Odisha @DGPOdisha से मांग करता हूँ कि इस हमले के सभी दोषियों को अविलंब गिरफ्तार किया जाए और उनके खिलाफ कठोरतम कानूनी कार्रवाई हो। हमारा संघर्ष संविधान और लोकतंत्र की रक्षा का है, और यह किसी भी कीमत पर जारी रहेगा। जो सोचते हैं कि हम पर हमले कर हमारी आवाज दबा देंगे, वे यह जान लें—हमारे कदम रुके नहीं हैं, रुकेंगे नहीं!


आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद का एक्स पोस्ट

महाबोधि मुक्ति आंदोलन पर चुप्पी से घिरे अठावले, किरेन रिजिजू और दिलीप मंडल

महाबोधि बौद्ध विहार की मुक्ति के लिए अनशन पर बैठे बौद्ध भिक्खुमहाबोधि मुक्ति आंदोलन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर चुप्पी साधे रखना उन लोगों की दोहरी मानसिकता को उजागर करता है, जो केवल अवसरवादिता के आधार पर बौद्ध धर्म का नाम लेते हैं। नरेंद्र मोदी, जो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को बुद्ध की भूमि कहकर गौरव महसूस करते हैं, लेकिन जब बोधगया के मूल अधिकारों की बात आती है, तो मौन साध लेते हैं। रामदास अठावले, जो दलित-बौद्ध राजनीति के नाम पर सत्ता का सुख भोगते हैं, लेकिन इस आंदोलन पर उनकी आवाज सुनाई नहीं देती।

किरेन रिजिजू, जो पूर्वोत्तर के बौद्ध समुदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस विषय पर पूरी तरह उदासीन बने हुए हैं। दिलीप मंडल, जो सोशल मीडिया पर बौद्ध विमर्श के बड़े पैरोकार बने फिरते हैं, इस वास्तविक मुद्दे पर कहीं नजर नहीं आते।

दरअसल, ये सभी लोग आरएसएस की मनुवादी मानसिकता से ग्रसित हैं, जिनका बौद्ध धर्म और उसके मूल सिद्धांतों से कोई सरोकार नहीं है। इनका असली उद्देश्य बहुजनों और बौद्ध समाज को छलना और अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है। संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े ये लोग बुद्ध के विचारों के खिलाफ खड़े हैं और बोधगया जैसे पवित्र स्थल को संरक्षित करने की जिम्मेदारी से पीछे हट रहे हैं। इनकी चुप्पी इस बात का प्रमाण है कि ये केवल अपने निजी स्वार्थों और राजनीतिक एजेंडे के लिए बुद्ध का नाम लेते हैं, न कि बौद्ध धर्म और उसके पवित्र स्थलों की रक्षा के लिए।


सोशल एक्टिविस्ट हंसराज मीणा के एक्स पोस्ट से साभार प्रकाशित

“मैं जब अपनी जमीन पर घर बनाने लगा, तो उन्होंने कहा कि चमार-बंसोड़ हमारे बीच नहीं रह सकते”

सीहोर, मध्य प्रदेश। जातिवादी गुंडे अपनी जातीय श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए अक्सर दलितों को निशाना बनाते हैं। मध्य प्रदेश के सीहोर में ऐसा ही मामला सामने आया है, जहां जातिवादी समाज ने एक दलित परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया है। परिवार ने न्याय के लिए जिला कलेक्टर से गुहार लगाई है। मामला सीहोर जिले के बकतरा गांव की है। घटना एक मार्च 2025 की बताई जा रही है।

खबर के मुताबिक दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले राधेश्याम वंशकार अपने मकान का निर्माण करवा रहे थे। इस दौरान उनका गांव के जातिवादी गुंडों से विवाद हो गया। इस विवाद को लेकर राधेश्याम वंशकार पुलिस के पास पहुंच गए। गांव के जातिवादियों को यह बाद अखर गई कि एक दलित आखिर उनके खिलाफ पुलिस में कैसे जा सकता है। बस, उन्होंने अपने ही जैसे जातिवाद में धंसे हुए समाज की बैठक बुलाई और इस परिवार के सामाजिक बहिष्कार का फरमान सुना दिया। गांव के चबूतरे पर बैठकर जाति व्यवस्था को सींचने वाले इन लोगों ने इस परिवार की मदद करने और उससे संबंध रखने पर एक लाख रुपये जुर्माना लगाने का फरमान भी सुना दिया।

पीड़ित राधेश्याम वंशकार का कहना है कि गांव में मेरी एक जमीन है। जब मैं इस पर मकान बनवाने लगा तो वो उखड़ गए। उनका कहना था कि बंसोड़-चमार हमारे बीच नहीं रह सकते। उन्होंने मुझे वहां से दूर जाकर घर बनवाने को कहा। मेरे मना करने पर गोविन्द सेठ और अन्य लोगों ने पहले मेरे साथ मार-पीट की। फिर हमारा हुक्का पानी बंद कर दिया।

इस बहिष्कार के बाद यह परिवार खासा परेशान है। दुकानदारों ने इस परिवार को राशन तक देने से इंकार कर दिया है। इससे यह परिवार बाहर से खाने का जुगाड़ कर किसी तरह अपना गुजारा कर रहा है। बताया जा रहा है कि आरोपी खुद पिछड़े समाज के हैं। बहुजन समाज पार्टी ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सीहोर के कलेक्टर बाला गुरु से न्याय की गुहार लगाई है। फिलहाल प्रशासन मामले की जांच कर दोषियों पर कार्रवाई करने की बात कह रहा है लेकिन पीड़ित परिवार को अब भी राहत के इंतजार में है।

हरियाणा में दलित पर कहर, वाल्मीकि समाज का पुलिस को अल्टीमेटम

सोनीपत। हरियाणा के सोनीपत में दलित युवक पर जातिवादी गुंडों का आतंक देखने को मिला है। जिले के धनाना गांव में युवक के साथ बेरहमी से मारपीट की गई। उसके बाद उसे जबरन चोरी का आरोप कबूल करवाने को दबाव बनाया गया। इस घटना के बाद सोनीपत के इलाके में माहौल गरमा गया है। स्थानीय वाल्मीकि समाज ने 3 मार्च को गोहाना में पंचायत बुलाकर पुलिस को दो दिनों के भीतर दोषियों को गिरफ्तार करने का अल्टीमेटम दिया। और ऐसा नहीं होने पर बड़े आंदोलन की धमकी दी। घटना को दो हफ्ते से ज्यादा समय हो चुका है लेकिन पुलिस दोषियों को गिरफ्तार नहीं कर रही है।

दो हफ्ते पहले घटी इस घटना के मुताबिक पीड़ित युवक मोनू हथवाला रोड पर गया था। वहां कुछ बदमाशों ने उसे पकड़ लिया और चोरी का आरोप लगाकर उसे बुरी तरह पीटा। जातिवादी गुंडों ने इससे जुड़ा हुआ एक वीडियो भी वायरल कर दिया, जिसमें सोनू पर हुआ अत्याचार साफ दिखा। वीडियो में साफ दिखा कि गुंडों ने न सिर्फ सोनू के साथ मारपीट की, बल्कि उसे जातिवादी गालियां भी दी। घटना के बाद सोनू ने एफआईआर दर्ज कराई थी, लेकिन पुलिस ने चुप्पी साध रखी है, जिसके कारण वह सवालों के घेरे में है। पुलिस यह दावा तो कर रही है कि वह जल्दी ही आरोपियों को गिरफ्तार कर लेगी लेकिन कब करेगी, यह नहीं बता रही है।

मायावती ने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से निकाला

नई दिल्ली। मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बसपा से निष्कासित कर दिया है। बहनजी ने कल दो मार्च को लखनऊ में आकाश आनंद को पार्टी के सभी पदों से अलग कर दिया था। इसके बाद 3 मार्च को आकाश आनंद ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए सोशल मीडिया एक्स पर एक लंबा पोस्ट लिखा था। आकाश आनंद का यही पोस्ट पार्टी से उनके निष्कासन का कारण बन गया।

आकाश आनंद के पोस्ट के कुछ ही घंटे बाद बहनजी ने इसका संज्ञान लेते हुए आकाश आनंद को लताड़ा और उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया। बहनजी ने सोशल मीडिया पर इस संबंध में पोस्ट करते हुए लिखा-

बीएसपी की आल-इण्डिया की बैठक में कल श्री आकाश आनन्द को पार्टी हित से अधिक पार्टी से निष्कासित अपने ससुर श्री अशोक सिद्धार्थ के प्रभाव में लगातार बने रहने के कारण नेशनल कोआर्डिनेटर सहित सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया था, जिसका उसे पश्चताप करके अपनी परिपक्वता दिखानी थी। लेकिन इसके विपरीत श्री आकाश ने जो अपनी लम्बी-चौड़ी प्रतिक्रिया दी है वह उसके पछतावे व राजनीतिक मैच्युरिटी का नहीं बल्कि उसके ससुर के ही प्रभाव वाला ज्यादातर स्वार्थी, अहंकारी व गैर-मिशनरी है, जिससे बचने की सलाह मैं पार्टी के ऐसे सभी लोगों को देने के साथ दण्डित भी करती रही हूँ।

अतः परमपूज्य बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान मूवमेन्ट के हित में तथा मान्यवर श्री कांशीराम जी की अनुशासन की परम्परा को निभाते हुए श्री आकाश आनन्द को, उनके ससुर की तरह, पार्टी व मूवमेन्ट के हित, में पार्टी से निष्कासित किया जाता है।

बहनजी ने फैसले पर आकाश आनंद ने दी पहली प्रतिक्रिया

नई दिल्ली। 2 मार्च को बहुजन समाज पार्टी में हलचल भरा दिन रहा। बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने आकाश आनंद को पार्टी के सभी पदों से अलग कर दिया। साथ ही यह भी घोषणा कर दिया कि उनकी (बहन मायावती) आखिरी सांस तक अब कोई भी उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं रहेगा। बहनजी के इस फैसले के बाद बसपा में खासी हलचल मच गई। कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गई। बहनजी के इस फैसले के दूसरे दिन आकाश आनंद ने बहनजी के फैसले को लेकर पहली प्रतिक्रिया दी है। आकाश आनंद ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा-

मैं परमपूज्य आदरणीय बहन कु. मायावती जी का कैडर हूं, और उनके नेतृत्व में मैने त्याग, निष्ठा और समर्पण के कभी ना भूलने वाले सबक सीखे हैं, ये सब मेरे लिए केवल एक विचार नहीं, बल्कि जीवन का उद्देश्य हैं। आदरणीय बहन जी का हर फैसला मेरे लिए पत्थर की लकीर के समान है, मैं उनके हर फैसले का सम्मान करता हूं उस फैसले के साथ खड़ा हूं। आदरणीय बहन कु. मायावती जी द्वारा मुझे पार्टी के सभी पदों से मुक्त करने का निर्णय मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से भावनात्मक है, लेकिन साथ ही अब एक बड़ी चुनौती भी है, परीक्षा कठिन है और लड़ाई लंबी है।

ऐसे कठिन समय में धैर्य और संकल्प ही सच्चे साथी होते हैं। बहुजन मिशन और मूवमेंट के एक सच्चे कार्यकर्ता की तरह, मैं पार्टी और मिशन के लिए पूरी निष्ठा से काम करता रहूंगा और अपनी आखिरी सांस तक अपने समाज के हक की लड़ाई लड़ता रहूंगा। कुछ विरोधी दल के लोग ये सोच रहे हैं कि पार्टी के इस फैसले से मेरा राजनीतिक करियर समाप्त हो गया, उन्हें समझना चाहिए कि बहुजन मूवमेंट कोई करियर नहीं, बल्कि करोड़ों दलित, शोषित, वंचित और गरीबों के आत्म-सम्मान व स्वाभिमान की लड़ाई है। यह एक विचार है, एक आंदोलन है, जिसे दबाया नहीं जा सकता। इस मशाल को जलाए रखने और इसके लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने के लिए लाखों आकाश आनंद हमेशा तैयार हैं।

प्रखर दलित-बहुजन बुद्धिजीवी डॉ. ए.के बिस्वास का निधन

 दलित समाज के प्रखर बुद्धिजीवि और बिहार कैडर में 1973 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ. ए. के. बिस्वास का 28 फरवरी को निधन हो गया। डॉ. बिस्वास लंबे समय से बीमार थे। उन्होंने कोलकाता में अपनी अंतिम सांस ली। उनके जीवन की कहानी संघर्ष भरी रही। उनका जन्म जैसोर जिले (अब बांग्लादेश) में हुआ था। देश विभाजन के फलस्वरूप वो अकेले नंगे पैर पैदल चलकर सीमा पार कर अपनी बहन के घर बोगांव पहुँचा। छोटे बालक ने अपने बहन के परिवार के बच्चों के बीच उन्हें भी शिक्षा देते हुए अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्होंने अपनी स्नातक की डिग्री और अर्थशास्त्र में एम.ए. की डिग्री कोलकाता विश्वविद्यालय से प्राप्त की। फिर पश्चिम बंगाल प्रांतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में उत्तर बंगाल में डिप्टी कलेक्टर के रूप में कार्य किया। इसके बाद उन्होंने यू.पी.एस.सी. पास किया और बिहार कैडर में 1973 बैच के आई.ए.एस. में शामिल हुए। जब वे मुजफ्फरपुर के आयुक्त के रूप में कार्यरत थे, तब उन्होंने अर्थशास्त्र में पी.एच.डी. की। वह बिहार के डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के पहले कुलपति नियुक्त किये गए। वो इस पद पर लंबे समय तक रहें। एक ईमानदार, प्रभावशाली और सक्षम नौकरशाह के रूप में कई चुनौतीपूर्ण विभागों में सेवा देने के बाद वे 2007 में विद्युत और ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

 

अपने चुनौतीपूर्ण नौकरशाही जीवन के बावजूद वे हमेशा बहुजन समाज की सेवा के लिए आगे बढ़ते रहे। एक बार उनके रिपोर्टिंग अधिकारी ने उनकी एसीआर में नकारात्मक टिप्पणी की थी कि वे केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारियों की मदद करने के लिए आगे बढ़ते हैं, जिसे संप्रेषित किया गया था, और उन्हें इसका बचाव करना पड़ा था। वह लेखन के जरिये भी सक्रिय थे। उन्होंने ईपीडब्ल्यू, अदल बदल, मेनस्ट्रीम, दलित वॉयस आदि सहित विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में दलित मुद्दों पर कई बौद्धिक लेख लिखे थे। वह ‘अन्नेसन’; “अंडरस्टैंडिंग बिहार” जैसी किताबों के लेखक भी थे। डॉ. बिस्वास अंबेडकरी विचारधारा से ओत प्रोत थे। खबर है कि अपने जीवन के अंतिम दिन 28 फरवरी, 2025 की दोपहर को जब उन्हें घर ले जाने के लिए कोलकाता के अपोलो अस्पताल से छुट्टी दी गई, तो नर्सिंग अर्दली ने उन्हें अस्पताल के बाहर स्थित मंदिर में हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का अनुरोध किया। डॉ. बिस्वास ने ऐसा करने से सख्त लहजे में मना कर दिया। इससे उनके वैचारिकी प्रतिबद्धता को समझा जा सकता है। उनके परिवार में दो बेटे हैं, जिनमें से एक अमेरिका में बसा हुआ है और दूसरा दिल्ली में भारत सरकार की सेवा में है, साथ ही उनकी बहुएँ और उनकी पत्नी हैं।

बिहार सरकार की तानाशाही, बौद्ध महाविहार मुक्ति के लिए धरने पर बैठे भिक्खुओं को आधी रात जबरन हटाया

बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों के कब्जे से मुक्त कराने के लिए धरने पर बैठे बौद्ध और अंबेडकरी समाज के लोगबोधगया महाविहार को ब्राह्मणों से मुक्त कराने को लेकर चल रहे आंदोलन को बिहार सरकार कुचलने का काम कर रही है। बीते 15 दिनों से धरने पर बैठे बौद्ध भिक्खुओं को जबरन 27 फरवरी को देर रात करीब एक बजे धरना स्थल से उठा दिया गया। उन्हें स्वास्थ्य का हवाला देकर जबरन हटाया गया। इस दौरान बौद्ध भिक्खुओं ने उन्हें हटाए जाने का विरोध किया, लेकिन पुलिस ने उनकी एक न सुनी।

बता दें कि बिहार का बोधगया, जहां तथागत बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसकी मुक्ति के लिए आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन इस महाविहार को ब्राह्मण पंडों से मुक्त कराने के लिए है। आंदोलन करने वाले बौद्ध समाज BT ACT 1949 को रद्द कर महाविहार का पूरा प्रबंधन बौद्ध समाज को सौंपने की मांग कर रहा है। इस मांग को लेकर बीते दो हफ्ते से देश के तमाम हिस्सों से बोध गया पहुंच कर बौद्ध भिक्खु आंदोलन कर रहे थे। इस आंदोलन को देश और दुनिया भर के बौद्ध समाज का समर्थन मिल रहा है। इससे बिहार में जदयू और भाजपा की सरकार में हलचल मची है। साथ ही केंद्र की मोदी सरकार में भी इस मुद्दे को लेकर दबाव बढ़ता जा रहा है।

बिहार में विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह आंदोलन और तेज होता जा रहा है। ऐसे में धरना करने वाले बौद्ध भिक्खुओं को रातों रात इलाज के नाम पर हटा दिया गया है। हालांकि इसके बाद आंदोलन और भड़क गया है। और देश भर के बौद्ध और अंबेडकरी समाज ने बिहार की भाजपा और नीतीश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। मिशन जय भीम के संयोजक और बौद्ध धर्म के लिए लगातार काम करने वाले राजेन्द्र पाल गौतम ने इस घटना का वीडियो पोस्ट करते हुए बिहार सरकार को चेतावनी दी है।

उन्होंने कहा कि, बिहार की सरकार अगर यह सोचती है कि इस प्रकार आधी रात को अनशन पर बैठे भिक्खुओं को इलाज के बहाने उठा ले जाने से महाबोधि महाविहार को ब्राह्मणों से पूर्णतया मुक्त कराकर बौद्धों को संचालन सौंपने के आन्दोलन को वह बलपूर्वक दफ़न कर देगी तो यह आपकी गलत फ़हमी है इससे यह आन्दोलन ओर तेज होगा! आप हमारी आस्था की कद्र कीजिए वर्ना आपकी आस्था भी खतरे में पड़ जाएगी।

रातों रात धरना करने वाले बौद्ध भिक्खुओं को हटाने से साफ है कि बिहार सरकार इस मामले में बौद्धों के खिलाफ खड़ी है। अब देखना होगा कि देश भर का बौद्ध और अंबेडकरी समाज इस आंदोलन को लेकर क्या रुख अपनाता है।

दलित साहित्य महोत्सव 28 फरवरी और 1 मार्च को दिल्ली में

दलित साहित्य सम्मेलन का पोस्टर जारी करते अंबेडकरवादी लेखक संघ के पदाधिकारीबीते कुछ सालों में दलित साहित्य महोत्सव ने दलित साहित्य को आगे बढ़ाने की दिशा में गंभीर काम किया है। इस वर्ष का दलित साहित्य महोत्सव दो दिनों तक चलेगा। यह 28 फरवरी और एक मार्च को दिल्ली में आर्यभट्ट कॉलेज में आयोजित होगा। अंबेडकरवादी लेखक संघ (अलेस) की ओर से आयोजित होने वाला यह चौथा दलित साहित्य सम्मेलन है। इस दौरान अलेस की ओर से सभी साहित्यकारों, कलाकारों, रंगकर्मियों, विद्वानों, शोधकर्ताओं, को चतुर्थ दलित साहित्य महोत्सव में आमंत्रित किया गया है।

अंबेडकरवादी लेखक संघ की ज्वाइंट सेक्रेट्री डॉ. सीमा माथुर ने बताया कि इस बार की थीम, ‘दलित साहित्य से विश्व शांति संभव है’ रखा गया है। इस कार्यक्रम के जरिये दलितों, आदिवासियों और बंजारा समाज को साथ जोड़ने की कवायद की जा रही है। दो दिनों की कार्यक्रम में पहले दिन 28 फरवरी को कार्यक्रम शुरू होंगे। इस दौरान देश के दिग्गज दलित साहित्यकार मौजूद रहेंगे। साथ ही सामाजिक रूप से पिछड़े सीवर वर्कर को भी उद्घाटन सत्र में मंच दिया जाएगा ताकि समाज के बीच एक मैसेज जा सके।चौथा दलित साहित्य सम्मेलन का पोस्टर

दो दिनों में तमाम विषयों पर चर्चा होनी है, इसमें स्त्री मुद्दों को भी जगह दी गई है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और घुमंतू स्त्री का देश और समाज में योगदान जैसे विषयों पर चर्चा होगी। इसके साथ ही भारतीयता के आईने में हाशिये के समुदाय की साहित्यिक अभिव्यक्ति और चुनौतियां जैसे गंभीर विषय भी शामिल किये गए हैं। इस बार एलजीबीटी समाज के मुद्दों को भी शामिल किया गया है। दो दिनों के कार्यक्रम में भारतीय मीडिया और दलित प्रश्न पर भी चर्चा होगी। इस मौके पर सांस्कृति कार्यक्रम भी होंगे। इसके लिए लखनऊ और राजस्थान के कलाकार अपनी प्रस्तुति देंगे। सांस्कृतिक कार्यक्रम दोनों दिन होंगे जो शाम को होगा। एक मार्च को कार्यक्रम के दूसरे दिन कवि सम्मेलन का आयोजन होगा।

अंबेडकरवादी लेखक संघ के पदाधिकारी और चर्चित कवि सुदेश तंवर ने बताया कि इस आयोजन में देश के दिग्गज साहित्यकार मौजूद रहेंगे। हमारी कोशिश है कि इस आयोजन के जरिये दलित समाज के दिग्गज साहित्यकारों के मार्गदर्शन में हम दलित साहित्य को नई ऊंचाई तक ले जाएं।

 

बहुत प्राचीन है विद्रोही साहित्य : चुप्पी तोड़िए, बोलना ज़रूरी है

इस उदघाटन सत्र में मंच पर आसीन सम्मानित विद्वान साथियों, और उपस्थिति श्रोताओं, आप सभी को सप्रेम जय भीम, जय भारत!! सत्यशोधक समाज की 151वीं वर्षगाँठ पर विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन के अंतर्गत औरंगाबाद में आयोजित इस 19वें अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का उदघाटन करते हुए, मुझे आज विशेष ख़ुशी हो रही है। यह जानकार अच्छा लगा कि विद्रोही सांस्कृतिक आन्दोलन 1999 से महाराष्ट्र भर में समतावादी मूल्यों का जागरण करने का काम कर रहा है। इसके तहत आप 2007 से अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन का आयोजन कर रहे हैं, जिसकी कड़ी में इस19वें सम्मेलन में मुझे भाग लेने का गौरव प्राप्त हुआ है। मैं इसके लिए आयोजन के पदाधिकारियों को, ख़ास तौर से किशोर धमाले जी को, धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिनके प्रेमपूर्ण आग्रह पर मैं यहाँ उपस्थित हुआ। मैं सचमुच आप लोगों के एक बड़े योगदान से अनभिज्ञ रहता, अगर मैं यहाँ न आता। आज मुझे इस मंच से महान साहित्यकारों को सुनने का अवसर मिलेगा। हालाँकि भाषाई समस्या मेरे साथ रहेगी, पर मन की भाषा सब साध लेती है। साथियों, हिंदी क्षेत्र में, बल्कि कहना चाहिए कि हिंदी साहित्य में विद्रोह का स्वर बहुत ही आधुनिक घटना है। हिंदी में यह क्रान्ति मार्क्सवाद के कारण आई। अगर मार्क्सवाद न आता, तो हिंदी के लेखक अभी भी गगन-विहारी लेखन करते होते। मार्क्सवाद ने प्रगतिशील चेतना का निर्माण किया। किन्तु इसने हिंदी से ज्यादा उर्दू वालों को बहुत प्रभावित किया। हिंदी में प्रेमचन्द इसी प्रगतिशील चेतना का परिणाम हैं। इसीलिए मैं प्रेमचंद से पहले के हिन्दी साहित्य को ख़ारिज करता हूँ। लेकिन दलित क्रान्ति की साहित्यिक चेतना उसके परिवेश से जन्मी है। दलितों ने अपने जन्म से ही अपने इर्दगिर्द अस्पृश्यता, भूख, गरीबी, अपमान, जलालत और तिरस्कार का वातावरण ही देखा। दलित जब अपनी बस्ती से निकलता था, तो सड़क पार करते ही उसके लिये संस्कृति बदल जाती थी। दलितों में विद्रोह की चेतना इसी परिवेश ने पैदा की। दलितों का विद्रोह मौलिक है। उन्नीसवीं सदी में डा. आंबेडकर की क्रान्ति ने दस्तक दी, तो उसे एक नई धार मिली। इसलिए हिंदी में दलित-विद्रोह वास्तव में विद्रोह की पहली और मौलिक धारा है। यह याद रखियेगा।

अब मैं कुछ संक्षिप्त चर्चा इतिहास पर करूँगा। साथियों ! इस देश में दो विचारधाराएँ रही हैं: एक श्रमण विचारधारा और दूसरी वैदिक विचारधारा। इसमें पहली समतावादी विचारधारा है, और दूसरी विषमतावादी। बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने इसे क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति की विचारधारा कहा है। क्रान्ति की धारा का नेतृत्व किसी एक जाति और वर्ग के हाथ में नहीं है, किन्तु प्रतिक्रान्ति की धारा, यानी विषमतावादी विचारधारा का नेतृत्व हमेशा एक ख़ास जाति और वर्ण, ब्राह्मण के हाथ में रहा है। वह आज भी उसके हाथ से किसी अन्य वर्ग या जाति के हाथ में नहीं गया है, और आगे भी इसकी सम्भावना नहीं है। इसलिए विषमतावादी विचारधारा को ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी विचारधारा भी कहा जाता है। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को सामाजिक भेदभाव पसंद है, ऊंच-नीच का भाव पसंद है, बहुत सारे देवी-देवता पसंद हैं। वैदिक विचारधारा को एक ईश्वर पसंद नहीं है, क्योंकि एक ईश्वर के नाम पर अलग-अलग मंदिर और आडम्बर खड़े नहीं किये जा सकते, एक ईश्वर के नाम से भोग और दंड की संस्कृति खड़ी नहीं की जा सकती, और सबसे बड़ी बात, एक ईश्वर के नाम पर लोगों को डराने-धमकाने का उन्माद पैदा नहीं किया जा सकता। इस ब्राह्मणवादी विचारधारा को स्त्रियों और निम्न वर्गों की शिक्षा पसंद नहीं है, क्योंकि निम्न वर्गों का शिक्षित होना ब्राह्मण के प्रभुत्व के लिए खतरा पैदा करती है। उसे देश में भौतिक आविष्कार और नई तकनीक पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसके गढ़े हुए ज्ञान पर सवाल खड़े होते हैं। उसे विज्ञान पसंद नहीं है, क्योंकि इससे उसकी धर्म-सत्ता पर आंच आती है। वह शास्त्रों में विश्वास करता है, और लोक-यथार्थ की उपेक्षा करता है। असल में यह श्रमण विचारधारा के विरुद्ध ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति थी। दूसरे शब्दों में यह आजीवकों, लोकायतों और बुद्ध की क्रान्ति के विरुद्ध प्रतिक्रान्ति थी। प्रतिक्रान्ति का एक दौर होता है, एक कालखंड होता है, पर वह हमेशा नहीं रहता। भारत में ब्राह्मणों की प्रतिक्रान्ति का कालखंड पुष्यमित्र शुंग का समय है। इसी काल में ब्राह्मण ग्रन्थ लिखे गए, मनुस्मृति लिखी गई, बौद्धों के खिलाफ जनता में नफरत फैलाई गई, बौद्ध मंदिर ध्वस्त किए गए और एक बड़े पैमाने पर बौद्धों का कत्लेआम हुआ। इसी काल में स्त्री-शूद्रों के खिलाफ कठोर कानून बनाए गए, उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया, और स्त्रियों को घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया गया। अंतरजातीय विवाह सख्ती से रोक दिए गए। ये सारी कठोरताएं इससे पहले के समय में नहीं थीं। ब्राह्मणवाद की यह प्रतिक्रान्ति लगभग दो सौ साल रही। उसके बाद हर्षवर्धन का समय आया, और ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक बहुत बड़ा विद्रोह हुआ। इस विद्रोह का समय चौथी-पांचवी शताब्दी का है। यही समय भक्ति आन्दोलन के आरम्भिक चरण का भी है।

यह आन्दोलन एक बहुत बड़ा विद्रोह था। विद्रोह नहीं, विद्रोह का सैलाब था। इस काल में ज्ञान के क्षेत्र में शूद्रों और स्त्री-संतों ने तूफ़ान की तरह प्रवेश किया। जिस स्त्री को ब्राह्मण-धर्म ने घर की चौखट तक सीमित कर दिया था, जिसके लिए मनु ने सिर्फ पति-सेवा ही एकमात्र धर्म बना दिया था, और जिसे शिक्षा तक से वंचित कर दिया था, उस स्त्री ने इस काल-खंड में संत बनकर ब्राह्मण-धर्म के विरुद्ध ऐसा विद्रोह किया, जिसे रोकने का साहस आज भी ब्राह्मण-नेतृत्व में नहीं है। इसी सदी में आजीवक दर्शन ने ब्राह्मणधर्म के खिलाफ ऐसा विद्रोह किया कि शंकर भी तिलमिला गए। उसने ‘ब्रह्मसूत्र’ के अपने भाष्य में आजीवकों को ‘प्राकृत जन’ यानी असभ्य, यानी गंवार कहा। इसके बाद आठवीं सदी में विद्रोह का एक दूसरा सैलाव सिद्धों के रूप में आया, जिनका बारहवीं सदी तक समाज में अमिट प्रभाव बना रहा। इन सिद्धों में सभी वर्णों के स्त्री-पुरुष थे, जिनमें 28 शूद्र और 4 स्त्रियाँ भी सिद्ध थीं। इसके बाद, दसवीं सदी में गोरखनाथ हुए, जिन्होंने नाथ-संप्रदाय की नींव डाली। नाथ शिव-भक्त थे। पर वे ब्राह्मणवादी विचारधारा के विद्रोही और समतावादी विचारधारा के प्रचारक थे। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नाथों के ज्ञान-दर्शन ने सम्पूर्ण भारत को अपने प्रभाव में ले लिया था। पूरा उत्तर भारत ही नहीं, बल्कि कश्मीर से लेकर नेपाल तक में नाथ-दर्शन का प्रभाव था। कल्पना कीजिए, जिन शूद्रों के द्वारा धर्म का उपदेश देने पर उनकी जीभ काटने का विधान मनु ने बनाया था, वे शूद्र भक्ति-काल में बड़ी संख्या में संत बनकर धर्मगुरु बन गए। यह ब्राह्मण और ब्राह्मण-धर्म दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी, क्योंकि मनु के विधान के अनुसार ब्राह्मण ही धर्मगुरु बन सकता है। किन्तु इन शूद्र संतों का विद्रोह इतना जबरदस्त था कि उन्होंने किसी भी ब्राह्मण को अपना गुरु स्वीकार नहीं किया। यही नहीं, उन्होंने बड़े-से बड़े पुनीत और ऊंचे कुल के ब्राह्मण संतों तक को महत्व नहीं दिया। कबीर ने ऐसे ब्राह्मण संतों का मज़ाक बनाते हुए कहा— ‘अति पुनीत ऊंचे कुल कहिए, सभा माहिं अधिकाई/ इनसे दिच्छा सब कोई मांगे, हंसी आवै मोहि भाई।’

ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों और कर्मकांडों को इन शूद्र संतों ने न सिर्फ नकारा, बल्कि उनके खिलाफ जनता में अलख भी जगाई। उन्होंने सिर्फ समानता और मानव-प्रेम को स्थापित करने पर जोर दिया, जिसका ब्राह्मण-धर्म में अस्तित्व न कल था और न आज है। इस सन्दर्भ में कन्नप्पार नामक नयनार संत सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। वह निषाद जाति के थे। उन्होंने ब्राह्मण को गुरु नहीं माना, बल्कि एक शूद्र को अपना गुरु स्वीकार किया। मीराबाई ने किसी ब्राह्मण को नहीं, चमार जाति के महान संत रैदास साहेब को अपना गुरु बनाया था। पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते तो इन स्त्री-शूद्र संतों ने वर्णव्यस्था का ऐसा क़िला ध्वस्त किया कि भारत की ब्राह्मण सत्ता ने तिलमिलाकर उनको ठिकाने लगाने के लिए ब्राह्मण विद्वानों की पूरी फौज उतार दी। स्त्री-शूद्रों के इस विद्रोह का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उस विद्रोह में गैर-ब्राह्मण जातियों का भी प्रवेश हो गया था। कई क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के स्त्री-पुरुष भी संत हो गए थे, जो जनता को धर्म का उपदेश देकर ब्राह्मण को खुली चुनौती दे रहे थे।

पन्द्रहवीं शताब्दी में कबीर और रैदास ने जो क्रान्ति की, उसने ब्राह्मणवाद और वैदिक संस्कृति के विरुद्ध समाज में ज्ञान और सामाजिक संघर्ष की नई चेतना ही विकसित नहीं की, बल्कि कई नई धार्मिक क्रांतियों को भी जन्म दिया। इनमें दो क्रांतियाँ बहुत प्रमुख हैं : गुरु नानक की धार्मिक क्रान्ति और गुरु घासीदास की सतनामी क्रान्ति। कबीर ने खुल्लमखुल्ला कहा कि ब्राह्मण उनका गुरु हो ही नहीं सकता, क्योंकि ब्राह्मण के पास सिर्फ पोथियों का ज्ञान है, उसके पास समाज का वास्तविक ज्ञान नहीं है। उन्होंने कहा—‘ब्राह्मण गुरू जगत का, साध का गुरू नाहीं/ उरझ-पुरझ कर मर रह्या, चारों वेदा माहिं।’ रैदास साहेब ने कहा, ‘ब्राह्मण को मत पूजिए जो हो गुण से हीन / पूजिए चरण चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन।’ यह एक नया सौन्दर्य शास्त्र था, जो गुण और योग्यता को महत्व देता था। सौ साल बाद तुलसीदास ने इसी की प्रतिक्रान्ति में कहा, ‘पूजिए विप्र सील गुण हीना/ नाहिं न शूद्र गुण ज्ञान प्रवीना।’ यानी अयोग्य और अज्ञानी ब्राह्मण भी पूजनीय है, जबकि योग्य और ज्ञानी शूद्र भी सम्मान का पात्र नहीं है। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि विषमतावाद के विरुद्ध समतावाद की लड़ाई कभी भी ब्राह्मणवादियों के नेतृत्व में नहीं लड़ी जा सकती। कबीर और रैदास इसीलिए सफल हुए, क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण रामानन्द के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया था। जिसने भी समाज को बदलने की लड़ाई ब्राह्मणवादी नायक के नेतृत्व में लड़ी, उसे कभी सफलता नहीं मिली। ब्राह्मणवाद की धारा के विरुद्ध लड़ाई की पूरी परम्परा के इतिहास में अगर आप देखेंगे तो यह लड़ाई वहीं कमजोर हुई है, जहाँ उसका नेतृत्व किसी ब्राह्मण ने किया है। इसीलिए ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवादी तिलक का और डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि वे अपनी क्रान्ति में सफल हुए।

पंद्रहवीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो विद्रोह हुआ, वह फिर रुका नहीं, अनवरत जारी रहा। यह सोलहवीं शताब्दी में भी नहीं रुका, जब तुलसीदास ने वर्णव्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की भरसक कोशिश की। तुलसी के समय में ब्राह्मण को धर्म का उपदेश देने वाले शूद्र जातियों के लोग इतनी बड़ी संख्या में थे कि उससे तिलमिलाए हुए तुलसी को मानस में लिखना पड़ा—‘बादहिं सूद्र द्विजन्ह सम, हम तुम्ह तें कछु घाटि/ जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर आँखि देखाबहिं डाटि।’ शूद्र द्विजों से कहते थे, हम तुमसे कम नहीं हैं, तुमसे हीन भी नहीं हैं, क्योंकि हम भी ब्रह्म को उतना ही जानते हैं, जितना तुम जानते हो। किन्तु, दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद भारत की शासन-सत्ता ब्राह्मणवादी नेताओं के हाथों में आई। उनका उद्देश्य समतावादी समाज का निर्माण करना बिलकुल नहीं था। इस सच्चाई को डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने आजादी मिलने से पहले ही महसूस कर लिया था। उन्होंने राष्ट्रवादी नेताओं के स्वतंत्रता-संग्राम पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि आज़ादी की लड़ाई सिर्फ दलित और आदिवासी वर्गों के लोग लड़ रहे हैं, शेष सारे राष्ट्रवादी नेता आजादी के लिए नहीं, बस, देश के संसाधनों पर अपना कब्जा करने के लिए लड़ रहे हैं। यही हुआ भी। जैसे ही भारत से अंग्रेज गए, और ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता आई, देश के सारे संसाधन उन्होंने अपने नियंत्रण में ले लिए। उन लोगों ने लोकतंत्र के नाम पर ब्राह्मणवादी राज्य कायम किया, और सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए जो आन्दोलन चल रहे थे, वे उनके दमन से प्रभावहीन होते चले गए। न दलित-आदिवासियों पर जुल्म कम हुए, और न गरीबी का खात्मा हुआ। समाज में यथास्थिति बनाए रखने के लिए हिन्दू धर्म तंत्र को तेज कर दिया गया, जिसके कारण सत्ता के संरक्षण में ब्राह्मणवादियों की प्रतिक्रान्ति दिन-पर-दिन तीव्र से तीव्र होती चली गई। आज वह चरम सीमा पर है।

यह इसी प्रतिक्रान्ति का परिणाम है कि फासीवादी ताकतों को सत्ता में आने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। उसकी ज़मीन आजादी के बाद से ही तैयार की जा रही थी। इन ताकतों ने राजसत्ता के साथ-साथ धर्म और विचार की स्वतन्त्रता पर भी नियंत्रण कर लिया। आज स्थिति यह है कि अन्याय के खिलाफ जो आवाज़ उठाता है, उसे देशद्रोही बता दिया जाता है और पुलिस और न्यायपालिका द्वारा उसे सालों तक जेल में सड़ाया जाता है। कोई-कोई जज न्यायप्रिय हुआ, तो उसे जमानत मिल जाती है, वरना वह जेल में ही पड़ा रहता है। कईयों ने तो जेल की कोठरी में ही दम तोड़ दिया। इसके विपरीत, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर खुली हिंसा करने वाले हिन्दुत्ववादी सत्ता के संरक्षण में आज़ादी से घूमते हैं। उन्हें कुछ भी उपद्रव करने, कुछ भी बोलने का परमिट मिला हुआ है। फासीवाद के इस घोर मनुष्य-विरोधी वातावरण में, विद्रोह का साहित्य लिखना अब पहले से ज्यादा जरूरी हो गया है। यह दौर इतना पेचीदा है कि हमारा बहुजन समाज भी आरएसएस और हिन्दू संगठनों की पालकी ढो रहा है। हमारे आज के शम्बूक और एकलव्य ब्राह्मणवादी रंग में रंग गए हैं। वे गले में भगवा गमछा डाले, हाथों में त्रिशूल लिए सड़कों पर घूम रहे हैं। यह हमारे विद्रोह के लिए का एक नया मोर्चा है, जो इस फासीवाद ने पैदा किया है। इसलिए हमें अपने समाज के इन भटके हुए लोगों के विरुद्ध भी अपने विद्रोह को तेज करना होगा।।

विडंबना देखिए, दुनिया भर में पिछड़े वर्गों के संघर्ष खत्म हो गए, लेकिन भारत में न दलितों के संघर्ष खत्म हुए, न पिछड़ों के संघर्ष खत्म हुए, न आदिवासी समुदायों के संघर्ष खत्म हुए और न अल्पसंख्यकों के संघर्ष खत्म हुए। हमारे पुरखों ने संघर्ष किए, हमारी पिछली पीढ़ियों ने संघर्ष किए, और हमारी वर्तमान पीढ़ी के लोग भी संघर्ष कर रहे हैं। आगे भी कुछ पता नहीं, यह संघर्ष कभी खत्म होगा। हिंदी के विद्रोही दलित कवि मोहन मुक्त वसुधैव कुटुम्बकम, यत्र नार्यस्तु पूजन्ते और सत्यमेव जयते को संस्कृति के चुटकुले कहते हैं। क्या हम कह सकते हैं ‘वसुधैव कुटुम्बकम?’ क्या हम कह सकते हैं ‘यत्र नार्यस्तु पूजन्ते?’ क्या हम कह सकते हैं ‘सत्यमेव जयते?’ नहीं कह सकते। क्योंकि, इस वसुधा पर हमारे लिए प्यार का एक टुकड़ा तक नहीं है। हमारी स्त्रियाँ उनके लिए सम्मान की पात्र नहीं हैं। और हमारे लिए सत्य आज भी न्याय की अभिलाषा में दम तोड़ देता है। इसलिए चुप्पी तोड़ना जरूरी है, बोलना जरूरी है और लिखना जरूरी है। मोहन मुक्त की ही एक कविता की इन पंक्तियों से मैं अपने व्याख्यान का अंत करता हूँ—

कहो कि चुप्पी नाज़ी चिमनियों से धुआं बन कर उड़ती है और पूरी दुनिया में बेआवाज़ पसर जाती है कहो कि चुप्पी भाषाओं में बदल गई है कहो कि चुप्पी हमारे कानों में पिघल गई है कहो कि चुप्पी हमारे शरीरों पर हर समय जकड़ी हुई ज़ंजीरों में ढल गई है कहो कि हमारी चुप्पी इतिहास में हुए पहले क़त्ल की चश्मदीद है कहो कि चुप्पी ने अपनी जान बचाकर हत्याओं को ही बना दिया है विधि-संहिता कहो कि लाशों की बातें भी कही जा सकती हैं कहो कि लाशों के कहने का अधिकार ही ज़िन्दा लोगों का असली कर्तव्य होता है कहो कि अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता की तरह औपचारिक नहीं, सांस की तरह आदिम है।


औरंगाबाद में 22 फरवरी को अ. भा. विद्रोही मराठी साहित्य सम्मेलन में वरिष्ठ साहित्यकार कँवल भारती द्वारा दिया गया उदघाटन व्याख्यान

डॉ. आंबेडकर और भारत-पाकिस्तान विभाजन की पहेली

डॉ. आंबेडकर ने एक बार कांग्रेस पार्टी की तुलना धर्मशाला से की थी, जहां विभिन्न विचारों और विचारधाराओं के लोगों ने शरण ली थी। उन्होंने कहा कि पार्टी के भीतर सनातनवादी, पूंजीवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, रूढ़िवादी और रूढ़िवादी विरोधी व्यक्ति और विरोधाभासी मान्यताओं वाले कई अन्य लोग थे। उन्होंने एक ही राजनीतिक इकाई के भीतर ऐसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं के सह-अस्तित्व के सामान्य उद्देश्य पर सवाल उठाया। उस समय डॉ. आंबेडकर ने यह टिप्पणी कांग्रेस पार्टी की आलोचना के रूप में की थी। आज, भाजपा के बारे में भी ऐसा ही अवलोकन किया जा सकता है। 1947 में भारत का विभाजन कई कारकों से प्रेरित था। यह केवल ब्रिटिश कूटनीति का परिणाम नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने मुसलमानों में अलगाववादी भावनाओं को बढ़ावा दिया, लेकिन यह अकेले विभाजन का कारण बनने के लिए पर्याप्त नहीं था। विभाजन की जड़ें इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष में खोजी जा सकती हैं जो एक हज़ार वर्षों तक जारी रहा, साथ ही गहरे सामाजिक विघटन और कमजोरियों ने सदियों से हिंदू समाज को विभाजित कर दिया था। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस पार्टी के भीतर वैचारिक मतभेदों ने पाकिस्तान के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि कई नेताओं ने ऐसी नीतियों का अनुसरण किया जो भेदभाव को कायम रखती थीं। हालाँकि महात्मा गांधी विभाजन के विरोधी थे, लेकिन कांग्रेस नेताओं द्वारा इस बिंदु पर उनके बातों की अक्सर अवहेलना की जाती थी।

अपनी पुस्तक पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में डॉ. आंबेडकर हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के भीतर चरमपंथियों का एक सम्मोहक विश्लेषण करते हैं, जो उनके स्थायी संघर्षों और भावनाओं को उजागर करते हैं। इस पुस्तक के महत्व को एक दिलचस्प ऐतिहासिक घटना से आंका जा सकता है। जब मुहम्मद अली जिन्ना 1945 में महात्मा गांधी से मिले, तो उनके हाथ में इस पुस्तक की एक प्रति थी। उल्लेखनीय रूप से, वही पुस्तक गांधी की मेज पर भी थी। उनकी बातचीत के दौरान, गांधी ने जिन्ना की ओर इशारा करते हुए पूछा, “क्या आपने पढ़ा है कि डॉ आंबेडकर ने आपके बारे में क्या लिखा है?” अपनी विशिष्ट कानूनी शैली में, जिन्ना ने जवाब दिया, “हाँ, लेकिन क्या आपने पढ़ा है कि आंबेडकर ने आपके बारे में क्या लिखा है?” डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमानों की एक बड़ी संख्या हिंदुओं की ही जाति से संबंधित है। यह भी निर्विवाद है कि सभी मुसलमान एक समान भाषा नहीं बोलते हैं, और कई लोग हिंदुओं की ही भाषा बोलते हैं। दोनों समुदायों में कुछ सामाजिक रीति-रिवाज़ समान हैं, और कुछ धार्मिक संस्कार और प्रथाएँ एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं। हालाँकि, महत्वपूर्ण प्रश्न बना हुआ है: क्या ये समानताएँ इस निष्कर्ष का समर्थन करती हैं कि हिंदू और मुसलमान एक राष्ट्र हैं? क्या इन साझा तत्वों ने उनके बीच एकता और अपनेपन की भावना को बढ़ावा दिया है?”

डॉ. आंबेडकर ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मुस्लिम लीग ने शुरू में भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतीय स्वायत्तता को लागू करने में भागीदारी हासिल करने की उम्मीद की थी। हालाँकि, यह उम्मीद पूरी नहीं हुई। प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत के दो साल बाद, 1937 तक, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच तनाव बढ़ गया था। कांग्रेस द्वारा की गई किन कार्रवाइयों ने मुस्लिम लीग को और भड़का दिया? एक प्रमुख कारक मुस्लिम लीग को मुसलमानों के एकमात्र प्रतिनिधि निकाय के रूप में मान्यता देने से कांग्रेस का इनकार था। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस ने उन प्रांतों में संयुक्त मंत्रिमंडल बनाने से इनकार कर दिया जहाँ उसका बहुमत था। मुस्लिम लीग की आपत्ति गठबंधन सरकारों के प्रति कांग्रेस के असंगत दृष्टिकोण पर आधारित थी। जिन प्रांतों में कांग्रेस अल्पमत में थी, वहां उसने कांग्रेस के प्रति निष्ठा की शपथ लिए बिना अन्य दलों के साथ गठबंधन सरकारें बनाई थीं। हालांकि, जिन प्रांतों में कांग्रेस के पास बहुमत था, वहां उसने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन बनाने से इनकार कर दिया। इस विरोधाभासी रुख ने मुसलमानों को यह सवाल उठाने पर मजबूर कर दिया कि एक गठबंधन सरकार एक प्रांत में स्वीकार्य और दूसरे में अस्वीकार्य कैसे हो सकती है। कांग्रेस की असंगत नीतियों ने नाराजगी पैदा की, जिससे अंततः उसे मुस्लिम समर्थन हासिल नहीं हुआ और मुस्लिम लीग को अपनी मांगों को मजबूत करने का अवसर मिला। कांग्रेस मुस्लिम लीग की मांगों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी और इसके बजाय अन्य मुस्लिम संगठनों के साथ बातचीत करना पसंद करती थी। हालांकि, डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने इस दृष्टिकोण को दोषपूर्ण माना। उनका मानना था कि कांग्रेस का रुख बाल की खाल निकालने वाला और अव्यवहारिक था, क्योंकि अन्य मुस्लिम संगठनों को मुस्लिम समुदाय से महत्वपूर्ण समर्थन नहीं मिला था।

इस बहिष्कार की नीति ने जिन्ना की मुस्लिम लीग को परेशान कर दिया, जिससे कांग्रेस और मुस्लिम नेतृत्व के बीच दरार और गहरी हो गई। मुस्लिम नेताओं ने अपनी राजनीतिक स्थिति पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। उन्होंने खुद को शासित वर्ग का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया, उनका तर्क था कि शासकों और शासितों के बीच बुनियादी अंतर सत्ता में साझेदारी की कमी है। कांग्रेस का सिद्धांत कि सभी समुदायों को इसके प्रति अटूट निष्ठा दिखानी चाहिए, मुसलमानों को हाशिए पर महसूस कराता है, जिससे उन्हें शासित लोगों तक सीमित होने की धारणा मजबूत होती है। ऐतिहासिक रूप से, मुसलमानों ने सदियों तक भारत में एक प्रमुख स्थान रखा था, लेकिन ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही उनका पतन शुरू हो गया। शासकों से शासितों का दर्जा पाना पहले से ही अपमानजनक था, लेकिन हिंदुओं के अधीन होने की संभावना ने स्थिति को और भी अस्वीकार्य बना दिया। डॉ. आंबेडकर ने मुस्लिम कट्टरता और उच्च जाति के हिंदुओं के जाति-आधारित अहंकार दोनों की कटु आलोचना की, दृढ़ता से दोनों को अस्वीकार्य कहा । एक विस्तृत अध्याय में, उन्होंने 1930 के दशक के सांप्रदायिक दंगों की जांच की, मुस्लिम लीग की जबरदस्ती और हिंसा की राजनीति की निंदा करते हुए इसे खतरनाक बताया। उन्होंने चेतावनी दी कि हिंदू और मुसलमान दोनों ही विनाशकारी सत्ता संघर्ष में शामिल हो सकते हैं। रक्तपात की बयानबाजी को खारिज करते हुए, उन्होंने शांतिपूर्ण समाधानों की वकालत की, और जोर देकर कहा कि केवल नैतिक मूल्य ही क्रूर बल को सत्य में बदल सकते हैं।

डॉ. आंबेडकर ने मुसलमानों की वैध चिंताओं के प्रति सहानुभूति तो जताई, लेकिन उन्होंने मुस्लिम लीग की आक्रामक रणनीति का समर्थन नहीं किया। उन्होंने शुरू में जिन्ना को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में सराहा था, लेकिन जिन्ना के तर्कवाद से उग्रवाद की ओर जाने से निराश थे। विभाजन पर आंबेडकर का रुख पूरी तरह से व्यावहारिक और भावनात्मक पूर्वाग्रह से रहित था। उन्होंने विभाजन की तुलना सर्जरी से की – कभी-कभी रोगग्रस्त अंग को निकालने के लिए यह सर्जरी जरूरी होती है। उन्होंने तर्क दिया कि अगर मुसलमानों के लिए एक अलग पाकिस्तान जरूरी है, तो पंजाब और बंगाल में गैर-मुसलमानों को भी उनके लिए अलग क्षेत्र बनाकर सुरक्षित किया जाना चाहिए। उनके तार्किक और रणनीतिक दृष्टिकोण ने अंततः विभाजन पर ब्रिटिश नीति को प्रभावित किया। डॉ. आंबेडकर ने कहा कि “मैं श्री गांधी और कांग्रेस से सहमत नहीं हूं जब वे कहते हैं कि भारत एक राष्ट्र है। मैं मुस्लिम लीग से सहमत नहीं हूं जब वे कहते हैं कि हिंदू और मुस्लिम को एक साथ मिलाकर एक राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता। मेरा मानना है कि हम एक राष्ट्र नहीं हैं। लेकिन मेरी पूरी उम्मीद है कि हम एक राष्ट्र हो सकते हैं बशर्ते सामाजिक एकीकरण की उचित प्रक्रिया अपनाई जाए।” जैसा कि कुछ लोग कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर पाकिस्तान के समर्थक थे, वास्तव में आंबेडकर ने पाकिस्तान न बनने देने का उपाय भी दिया था। लेकिन मंच पर उस पर चर्चा नहीं होती। मुख्य प्रश्न यह है कि हिंदू और मुसलमानों के बीच सत्ता का बंटवारा और वितरण कैसे हो। इस बिंदु पर न केवल एक दूसरे के प्रति विवाद और अविश्वास जारी रहा बल्कि यह बढ़ता ही गया। ऐसी स्थिति में अंततः देश का विभाजन होना ही था।

Seminar on Dr Ambedkar and the Partition Conundrum, Lessons for Contemporary Indiaहिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र पर आंबेडकर आंबेडकर ने कहा कि हिंदू समाज सीढ़ीनुमा ऊंचाई नीचाई वाली अनेक पदानुक्रमिक परतों में विभाजित है। इन परतों को अलग-अलग सील कर दिया गया है, जिन्हें जाति कहा जाता है। जाति के पदानुक्रम के शीर्ष पर ब्राह्मण हैं जिन्हें शुद्ध माना जाता है जबकि सबसे नीचे अछूत मानी जाने वाली जाति है। उनका स्पर्श या छाया भी उच्च जातियों को अपवित्र करने वाली मानी जाती है। हिंदू समाज में जाति केवल एक प्रथा नहीं है बल्कि इसने एक विशाल संस्था का रूप ले लिया है। पूरा संस्थागत परिवार जातिवाद से भरा हुआ है। जाति को धर्म, दर्शन और संस्कृति की मान्यता है, जो समाज में प्रचलन में आ गई है और स्टेटस-सिंबल में बदल गई है। उच्च और निम्न की अवधारणा भारतीय लोगों के जीवन में समाहित हो गई है। जाति जानने के बाद लोगों का आचरण और व्यवहार जाति पदानुक्रम के अनुसार बदल जाता है। भारत के संविधान ने जाति और धर्म के नाम पर प्रचलित किसी भी गतिविधि को दंडनीय अपराध घोषित किया है जो किसी व्यक्ति की समानता और स्वतंत्रता के खिलाफ है। इसके बावजूद दलितों और कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। अधिकांश संवैधानिक संस्थाएँ इस खाई को पाटने में सफल नहीं हुई हैं, यहाँ तक कि संतोषजनक स्तर तक भी नहीं।

डॉ. आंबेडकर जातियों के उच्च और निम्न दृष्टिकोण की श्रेणीबद्धता की भावना को हिंदुत्व कहते थे। जाति और वर्ण हिंदुत्व का महत्वपूर्ण सार हैं। डॉ. अंबेडकर ‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धांत की बहुत रोचक व्याख्या करते थे। वे कहते थे कि जाति और वर्ण व्यवस्था फूट डालो और राज करो का सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसके निर्माता सनातनी हिंदू हैं, अंग्रेज नहीं। इससे ऊंची जातियों को बिना किसी रोक-टोक के राज करने का मौका मिलता है। इससे उनका वर्चस्व बरकरार रहता है। डॉ. आंबेडकर ने “पाकिस्तान या भारत के विभाजन” के पृष्ठ संख्या 358 में लिखा है कि “यदि हिंदू राज एक तथ्य बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी। हिंदू चाहे कुछ भी कहें, यह हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक बड़ा खतरा है। इस कारण यह लोकतंत्र के साथ असंगत है। हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” डॉ. आंबेडकर ने अपने भाषणों और लेखों खंड 17 भाग II, पृष्ठ संख्या 321 में फिर लिखा है कि “कांग्रेस यह भूल जाती है कि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका चरित्र फासीवादी या नाजी विचारधारा के समान है, जो अपने स्वभाव में पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है। यदि हिंदुत्व को ढीला छोड़ दिया जाता है तो यह हिंदू बहुमत दूसरे के लिए महाविपत्ति साबित होगा, जो हिंदू धर्म के बाहर हैं अथवा हिंदू धर्म का विरोध करते हैं। “ जाति एक सामाजिक बुराई है। जातिविहीन समाज हमारा संवैधानिक लक्ष्य है। संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी समाज के जातिरूपी इस अवांछित बोझ को हम नहीं हटा पाए हैं। संवैधानिक योजना का संचालन ही विफल हो गया है और जाति व्यवस्था समाज के लक्ष्य और मूल्यों को विकृत कर रही है। हमारे राष्ट्र के संस्थापकों ने संविधान सभा में एक स्वर से घोषणा की थी कि हमारा संवैधानिक लक्ष्य जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना करना है। अभी भी जाति आधारित भेदभाव बना हुआ है। जातियों के बीच हिंसा होती है। डॉ. आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में कहा था कि “भारत में जातियाँ हैं। ये जातियाँ राष्ट्र-विरोधी हैं। इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं। वे इसलिए भी राष्ट्र-विरोधी हैं क्योंकि वे जाति और जाति के बीच ईर्ष्या और द्वेष पैदा करती हैं। लेकिन अगर हम वास्तव में एक राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सभी कठिनाइयों को दूर करना होगा। भाईचारा तभी एक तथ्य हो सकता है जब एक राष्ट्र हो। भाईचारे के बिना समानता और स्वतंत्रता सिर्फ़ रंग-रोगन से ज़्यादा गहरी नहीं होगी।”

हिंदू राष्ट्र और राष्ट्रवाद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने में हिंदू राष्ट्रवादियों की राह में सबसे बड़ी बाधा बनने वाले तीन व्यक्तित्व गांधी, नेहरू और आंबेडकर हैं। अगर गांधी हिंदू राष्ट्रवादियों के दिल में चुभने वाले कांटे की तरह हैं, तो नेहरू खंजर की तरह हैं, लेकिन डॉ. आंबेडकर हिंदू राष्ट्रवादियों की छाती में एक सिरे से दूसरे सिरे तक चुभने वाली तलवार की तरह हैं। वर्तमान में हिंदू राष्ट्र की परियोजना को साकार करने में लगे संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति डॉ. आंबेडकर के समर्थकों की बड़ी संख्या के कारण उन पर सीधे हमले से बच रहे थे, लेकिन हिंदू राष्ट्र के अपने सपने को पूरी तरह साकार करने के लिए उन्हें आंबेडकर को अपने रास्ते से हटाना होगा, जो हिंदुत्व के विरोधी और संविधान के पर्याय बनकर चीन की महान दीवार की तरह हिंदू राष्ट्र के रास्ते में खड़े हैं। वे केवल गांधी और नेहरू पर हमला करते हैं क्योंकि उनके समर्थक अब बहुत कम रह गए हैं और जो बचे हैं वे हिंदुत्ववादियों के पाले में चले गए हैं। हिंदू राष्ट्रवादी इस सच्चाई से अच्छी तरह वाकिफ हैं। गांधी-नेहरू अलग-अलग मात्रा में और अलग-अलग रूपों में हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए चुनौतियां हैं, लेकिन जिस व्यक्ति ने हिंदू राष्ट्र की नींव पर सबसे घातक हमला किया है, इसकी रीढ़ को निशाना बनाया है और अपना पूरा जीवन उस हिंदू धर्म को नष्ट करने में लगा दिया है, जिस पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा आधारित है, उस व्यक्ति का नाम है डॉ. आंबेडकर। उन्होंने ब्राह्मण धर्म, सनातन धर्म और हिंदू धर्म को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखा। नेहरू यह समझने में पूरी तरह विफल रहे कि हिंदू धर्म का मूल तत्व जाति व्यवस्था है, गांधी ने यह समझा। लेकिन उन्होंने दोनों तरफ संतुलन बनाए रखने की कोशिश की। गांधी और नेहरू दोनों यह नहीं समझ पाए कि हिंदू धर्म एक धर्म नहीं बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका मुख्य उद्देश्य पिछड़े-दलितों और महिलाओं पर उच्च जाति के हिंदू पुरुषों (द्विज पुरुषों) का राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व बनाए रखना है। इसे समझने वाले व्यक्ति का नाम डॉ. आंबेडकर है।

हिंदू राष्ट्रवाद का एक महत्वपूर्ण तत्व मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति नफरत है। लेकिन यह नफरत हिंदू राष्ट्रवाद की विचारधारा का केवल सतही हिस्सा है। सच तो यह है कि हिंदू राष्ट्र मुस्लिमों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों से कहीं ज़्यादा महिलाओं, पिछड़ों और दलितों के लिए ख़तरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म का हिस्सा कहा जाता है। हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए संविधान को पूरी तरह से बदलना जोखिम भरा काम है। क्योंकि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों का एक बड़ा वर्ग संविधान और डॉ. आंबेडकर को एक दूसरे का पर्याय मानता है। वे सड़कों पर उतरकर इसके लिए संघर्ष कर सकते हैं। इसलिए अब वे संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करके इसे विकृत करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बाद वे अंततः संविधान और डॉ. आंबेडकर पर हमला करेंगे।

सामाजिक न्याय के चैंपियन अंबेडकर डॉ. आंबेडकर की क्रांतिकारी दृष्टि और जाति-आधारित उत्पीड़न के खिलाफ़ उनकी अटूट लड़ाई ने स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की नींव रखी, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि दलितों और अन्य हाशिए के समुदायों के पास समाज में अपना सही स्थान पाने के लिए एक संवैधानिक ढांचा है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर कभी भी स्वराज्य आंदोलन के विरोधी नहीं थे। उन्हें भारत की स्वतंत्रता की गहरी चिंता थी, लेकिन उन्होंने कानूनी गारंटी के साथ हाशिए के समुदायों के लिए समान राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व की भी मांग की। उनका प्राथमिक उद्देश्य हिंदू सामाजिक व्यवस्था द्वारा जारी सभी प्रकार की गुलामी और अमानवीय प्रथाओं को मिटाना था। वे राजनीतिक स्वतंत्रता के विरोधी नहीं थे, लेकिन वे ब्रिटिश समर्थक भी नहीं थे। वास्तव में, वे भारत में अछूतों की दयनीय स्थिति के लिए अंग्रेजों को जिम्मेदार मानते थे, क्योंकि वे दमनकारी जाति व्यवस्था को खत्म करने में विफल रहे थे। उस समय, अछूतों द्वारा सामना की जाने वाली आंतरिक गुलामी पर बहुत कम ध्यान दिया गया था। डॉ. अंबेडकर ने बताया कि वे एक क्रूर दुविधा में फंसे हुए थे – या तो सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ़ लड़ें या औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ़। दोनों से लड़ने के लिए संसाधनों की कमी के कारण, उन्होंने सबसे पहले सवर्ण हिंदुओं को चुनौती देने का फैसला किया, जिन्होंने लंबे समय से दलितों को उनके बुनियादी मानवाधिकारों से भी वंचित रखा था। उनके विचार में, सबसे बड़ी बुराई उच्च जातियों का शासन, ब्राह्मणवाद का दर्शन और उसकी दमनकारी जाति व्यवस्था थी। उनका संघर्ष केवल राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए नहीं था, बल्कि “दोहरे गुलामों” को आज़ाद करने के लिए था – जो औपनिवेशिक शासन और जातिगत भेदभाव दोनों के तहत उत्पीड़ित थे। वे सामाजिक क्रांति की आवाज़ बन गए, दलित मुक्ति और न्याय के लिए लगातार लड़ते रहे। डॉ. आंबेडकर को जब कभी दो हिन्दू राजाओं महाराजा बड़ौदा और महाराजा कोल्हापुर के छात्रवृत्ति और आर्थिक सहायता से अध्ययन करने के बावजूद उनके द्वारा हिन्दू धर्म के विरुद्ध बोलने और अछूतों की आजादी की माँग के लिए नाशुक्रगुजार कहा गया, कृतघ्न होने का आरोप लगाया गया, तो उनकी तत्क्षण प्रतिक्रिया होती थी कि अंग्रेजों ने विश्वविद्यालय खोलकर ब्रिटिश- भारत के सवर्ण हिन्दुओें को अंग्रेजी शिक्षा दी तथा इंग्लैण्ड में उच्च शिक्षा दिलाई किन्तु अब वही शिक्षित हिन्दू अपने अंग्रेज शासकों से मुक्ति पाने के लिए पूर्ण स्वराज्य की माँग कर रहे हैं। यदि ऐसे कृतघ्न हिन्दू महान देशभक्त कहला सकते हैं तो लाखों अछूत जाति को हजारों सालों की अमानवीय दासता और गुलामी से छुटकारा दिलाने की कोशिश देशभक्ति का श्रेष्ठ कर्म क्यों नहीं हो सकता है ?

डॉ. बी.आर. आंबेडकर भारत के इतिहास में एक महान व्यक्ति बन गए – सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता के चैंपियन। यदि वे चाहते तो अंग्रेजों के समर्थन से तीसरे राष्ट्र की मांग कर सकते थे, लेकिन इसके बजाय उन्होंने भारत की एकता को प्राथमिकता दी। उनके कार्यों ने न केवल राष्ट्र को मजबूत किया बल्कि सांप्रदायिक तनाव के महत्वपूर्ण क्षणों के दौरान महात्मा गांधी के जीवन को बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आधुनिक भारत के संस्थापक वास्तुकारों में से एक के रूप में, डॉ. आंबेडकर एक न्यायविद, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिक विचारक और लोकतंत्र के एक अटूट समर्थक थे। उनका योगदान बहुआयामी था, जो कानून बनाने से लेकर सामाजिक सशक्तिकरण तक फैला हुआ था। उन्होंने शोषितों को जागृत किया, उन्हें अपने मानवाधिकारों, आत्म-सम्मान और आत्मनिर्भरता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने यथास्थितिवादी दृष्टिकोण का दृढ़ता से विरोध किया और हिंदू समाज की गहरी जड़ें जमाए हुए रूढ़िवादी जड़ता को तोड़ने का प्रयास किया। अपने अथक सक्रियता के माध्यम से, उन्होंने भारत के अछूतों की दुर्दशा पर वैश्विक ध्यान आकर्षित किया। डॉ. आंबेडकर का मानना था कि दलितों और पिछड़ों का उत्पीड़न मुख्य रूप से जाति व्यवस्था के कारण था, न कि औपनिवेशिक शासन के कारण। उन्होंने एक बार टिप्पणी की थी कि अंग्रेजों ने नहीं, बल्कि हिंदुओं ने दलितों को गुलाम बनाया, उनसे उनके अधिकार छीने और उन्हें सम्मान से वंचित किया। उन्होंने तर्क दिया कि ब्रिटिश शासकों ने कभी भी अछूत प्रथा का पालन नहीं किया या दलितों पर अमानवीय क्रूरता नहीं की – असली उत्पीड़क तो सवर्ण हिंदू थे, जिन्होंने उन्हें जबरन श्रम, दासता और सामाजिक बहिष्कार के अधीन किया। आंबेडकर के लिए, अछूतों के लिए पहली और सबसे बड़ी लड़ाई सिर्फ ब्रिटिश शासन से आजादी नहीं थी, बल्कि सवर्ण हिंदू वर्चस्व से आजादी थी। डॉ. आंबेडकर एक महान लोकतंत्रवादी और राष्ट्रवादी थे।

स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर की कानूनी और बौद्धिक विशेषज्ञता को मान्यता दी और उन्हें संविधान मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया। व्यापक विचार-विमर्श के बाद, उन्होंने भारत के संविधान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह सुनिश्चित करते हुए कि सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता और मौलिक अधिकार सुनिश्चित किए गए। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक रिडल्स इन हिंदूइज्म भाग 4 के अध्याय 22, पृष्ठ संख्या 282 में लोकतंत्र को परिभाषित किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ”जहां समाज दो वर्गों में विभाजित है, शासक और शासित, सरकार शासक वर्ग की सरकार होने के लिए बाध्य है। वे यह भूल जाते हैं कि सरकार अच्छी होगी या बुरी, लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक, यह काफी हद तक साधनों पर निर्भर करता है, विशेष रूप से सिविल सेवा, जिस पर हर जगह सरकार को कानून लागू करने के लिए निर्भर रहना पड़ता है। यह सब उस सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है जिसमें सिविल सेवकों का पालन-पोषण होता है

उन्होंने 25.11.1949 को संविधान सभा में अपने समापन भाषण में कहा कि- “…कोई संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसको लागू करने वाले लोग बुरे हो। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हो। संविधान पर अमल करना पूर्ण रूप से संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती है। संविधान केवल राज्य के अंगों जैसे विधायिका ,कार्यपालिका और न्यायपालिका का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर करता है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने वाले राजनीतिक दल।”

डॉ. आंबेडकर अंततः इस बात पर जोर देते हैं कि लोगों को केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए, बल्कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के अंतर्निहित सिद्धांतों के साथ सामाजिक लोकतंत्र के लिए प्रयास करना चाहिए। “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है एक ऐसी जीवन शैली जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है… डॉ. आंबेडकर ने 25.11.1949 को संविधान सभा में आगे कहा कि ”26 जनवरी 1950 को हम अंतर विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हम समान होंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता का बोलबाला होगा। राजनीति में ‘एक व्यक्ति: एक वोट और एक वोट: एक मूल्य का सिद्धांत होगा लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति एक मूल्य को हम नकारते रहेंगे । हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को कब तक नकारते रहेंगे ? हम कब तक विरोधाभासों का यह जीवन जीते रहेंगे? यदि हम इसे लंबे समय तक इसे नकारते रहे तो हमारा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।“

डॉ. आंबेडकर ने प्रांतीयता और क्षेत्रवाद की संकीर्ण धारणाओं की भी कड़ी निंदा की। वे एक कट्टर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने लोगों से भारतीयता की भावना को विकसित करने का आह्वान किया और कहा कि- “मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं। धर्म, जाति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा पनप नहीं सकती है। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें , भारतीय के अलावा कुछ नहीं। ” आंबेडकर के यह उदगार उनके राष्ट्रीयता और निष्ठा की अभिव्यक्ति है जो बड़े-बड़े राष्ट्रवादियों में भी मिलना कठिन है।

अब मैं निम्नलिखित शब्दों और सुझावों के साथ अपने विचार समाप्त करना चाहूंगा: 1. भारत का संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है, जो “एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य” के मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार को सुनिश्चित करता है। ये सिद्धांत लोकतंत्र की नींव हैं, जो सभी नागरिकों के लिए राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी देते हैं।

2. व्यक्ति की गरिमा लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है। उस सिद्धांत का उल्लंघन हर प्रकार के सामाजिक-आर्थिक भेदभाव से होता है। लोकतंत्र और जाति एक साथ नहीं चल सकते। या तो लोकतंत्र जारी रहेगा या जातिवाद खत्म हो जाएगा। अगर जातिवाद रहेगा तो लोकतंत्र पंगु हो जाएगा। यह अभी भी चल रहा है, क्योंकि सत्ता अभी भी प्रमुख जातियों के हाथों में है। ब्रिटिश उपनिवेशवाद हानिकारक था। हमने 150 वर्षों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त कर दिया। लेकिन जातिगत भेदभाव और जाति के बड़े साम्राज्य की खाई को हज़ारों सालों में भी नहीं पाटा जा सका। जाति पदानुक्रम सदियों से कायम है, जो जाति उन्मूलन का विरोध कर रहा है। जातिगत उपनिवेशवाद कहीं ज़्यादा भयावह और ख़तरनाक है। जाति-आधारित उत्पीड़न विदेशी शासन की तुलना में कहीं अधिक कपटी और खतरनाक है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि स्वराज (स्व-शासन) का कोई वास्तविक अर्थ नहीं है जब तक कि जाति का विनाश न हो जाए। धार्मिक अतिवाद के साथ जाति व्यवस्था सामाजिक न्याय के लिए एक बड़ी बाधा बनी हुई है, जो राष्ट्र को अपनी पूर्ण लोकतांत्रिक क्षमता प्राप्त करने से रोकती है।

3. सामाजिक समानता और न्याय के आदर्शों को साकार करने के लिए, भारत के संविधान ने जाति और पंथ-आधारित भेदभाव के शिकार लोगों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय, गारंटी और सुरक्षा उपाय स्थापित किए हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हम राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए सामाजिक न्याय की दिशा में प्रयास करते हैं। हालांकि, समान अधिकार सुनिश्चित करने वाले कानूनी प्रावधानों के बावजूद, उनका व्यावहारिक कार्यान्वयन एक चुनौती बना हुआ है। जबकि कानून में समानता मौजूद है, इसे अक्सर वास्तविकता में नकार दिया जाता है, और वास्तविक समानता प्राप्त करने का लक्ष्य अधूरा रह जाता है। हालाँकि जाति की व्यापक रूप से आलोचना की जाती है और सिद्धांत रूप में इसकी निंदा की जाती है, लेकिन यह आज भी समाज में गहराई से समाई हुई है, जो सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं को प्रभावित करती है।

4. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, सभी क्षेत्रों के लोग – चाहे वे जमींदार हों, किसान हों, मजदूर हों या उच्च और निम्न दोनों जातियों के व्यक्ति हों – एक साझा लक्ष्य के लिए एकजुट हुए: स्वतंत्रता। प्रत्येक व्यक्ति ने समर्पण और दृढ़ संकल्प के साथ इस उद्देश्य में योगदान दिया। हालाँकि, जातिवाद को मिटाने के लिए समान सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। ऐसे प्रयास के बिना जातिगत विभाजन कैसे समाप्त हो सकता है? जाति भावनात्मक एकता और राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा बनी हुई है। राष्ट्रीय एकता के केवल नारे पर्याप्त नहीं होंगे; सच्चे सामाजिक न्याय और बंधुत्व के लिए जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने के लिए ठोस प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है।

5. जाति-आधारित भेदभाव को खत्म करने और सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए, समान-जाति विवाह को हतोत्साहित करने वाले कानूनी उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। अंतर-जातीय विवाह को बढ़ावा देने से कठोर जाति की सीमाओं को खत्म करने में मदद मिल सकती है, जिससे धीरे-धीरे समाज एक एकल, एकीकृत पहचान में बदल सकता है। यदि अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को आधिकारिक तौर पर एक एकल, एकीकृत श्रेणी से संबंधित माना जाता है, तो समय के साथ जातिगत विभाजन कम हो जाएगा। अंततः, इससे एक ऐसे समाज का निर्माण हो सकता है जहाँ जाति का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा, जिससे वास्तविक समानता और सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त होगा।

6. डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन सामाजिक क्रांति के लिए समर्पित कर दिया, जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न को खत्म करने का प्रयास किया। हालाँकि, इन सामाजिक बुराइयों का बने रहना न केवल आंबेडकर बल्कि संविधान के संस्थापकों के लिए भी सबसे बड़ा अपमान है। जाति-आधारित भेदभाव राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ी बाधा बना हुआ है, जो हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में निहित समानता और न्याय के सिद्धांतों को कमजोर करता है। जब तक जातिगत पदानुक्रम को खत्म नहीं किया जाता और हर व्यक्ति के साथ सम्मान और गरिमा के साथ व्यवहार नहीं किया जाता, तब तक सच्चा राष्ट्रीय एकीकरण हासिल नहीं किया जा सकता। मैं इस कार्यक्रम में अपने विचार साझा करने का अवसर देने के लिए आयोजकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।


आई0सी0एस0एस0आर0, नई दिल्ली, मौलाना ए.के. आजाद इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज कोलकाता और असम विश्वविद्यालय, सिलचर, अंग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित ‘डॉ. आंबेडकर ऑन पार्टिशन कॉनड्रम’ विषय पर 13-14 फरवरी 2025 को आयोजित सेमिनार में  पटना में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी ईं. राजेंद्र प्रसाद द्वारा 14 फरवरी 2025 को “पाकिस्तान, सामाजिक न्याय और लोकतंत्र पर आंबेडकर” विषय पर राजेन्द्र प्रसाद द्वारा अंग्रेजी में दिए गए भाषण का हिंदी अनुवाद।