नई दिल्ली। जब देश में 76वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा था, बसपा सुप्रीमों मायवती ने ऐसा मुद्दा उठाया, जिसका जिक्र अब नहीं होता। देश-विदेश में रहने वाले भारतीयों का गणतंत्र दिवस की शुभकामना देते हुए बहनजी ने कहा कि- भारत के विकास में हर भारतीय का हक है। अतः बड़े-बड़े पूंजीपतियों व धन्नासेठों की संख्या में हो रही वृद्धि से अधिक बहुजन व अन्ततः देशहित में देश की पूंजी में विकास जरूरी। सरकार की नीति आमजनहित को बढ़ावा देने वाली हो तो उचित ताकि अपार गरीबी, बेरोजगारी आदि की समस्याएं दूर हों। देखिए दलित दस्तक की वीडियो रिपोर्ट-
गणतंत्र दिवस पर बसपा सुप्रीमो मायावती ने उठाया बहुजनों का मुद्दा
कर्पूरी ठाकुर के 10 फैसले, जिसने बिहार में बदल दी दलितों-पिछड़ों की जिंदगी
24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से हुई थी।
कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया, बल्कि ईमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की। काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे; जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा। बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक वह विधायक, एक बार सांसद, एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने।
कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया। 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उन्हें अंजाम पता था, बावजूद इसके उन्होंने वंचितों के हित में जोखिम लिया।
मंडल पूर्व युग के महानायक थे कर्पूरी ठाकुर
24 जनवरी, 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिले के पितौझिया को अपने जन्म से धन्य करने वाले कर्पूरी ठाकुर वंचित बहुजन समाज में जन्मे उन दुर्लभ नेताओं में एक रहे, जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम में प्रभावी योगदान के साथ स्वाधीन भारत की राजनीति में भी अमिट छाप छोड़ी। उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से हुई थी। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए जब अंग्रेजों ने दमनात्मक कार्यवाई की तब युवा कर्पूरी ने गोरिल्ला संघर्ष की नीति का अवलंबन किया। इस क्रम में उन्हें अपनी उच्च शिक्षा बी.ए तृतीय वर्ष में ही समाप्त कर देनी पड़ी। गोरिल्ला संघर्ष के दौरान उन्होंने नेपाल की सरहद से आन्दोलन चलाया। आन्दोलन शांत होने पर वो वापस पितौझिया लौटे और शिक्षक की नौकरी करने लगे।
उनके शिक्षण कार्य के दौरान ही जब जय प्रकाश नारायण ने हजारीबाग जेल से छूटने के बाद ‘आज़ाद दस्ता ‘गठित किया, विप्लवी कर्पूरी उसके सदस्य बन गए। इस दस्ते से जुड़कर अंग्रेजी शासन के खिलाफ अभियान चलाने के जुर्म में उन्हें 23 अक्तूबर, 1943 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने अपनी मांगे मनवाने के लिए भूख हड़ताल कर दी, जो 27 दिनों तक चली। इससे जेल में बंद राजनीतिक बंदियों के बीच उन्होंने भारी सम्मान अर्जित कर लिया। तेरह माह बाद जब कर्पूरी ठाकुर जेल से रिहा हुए, तभी कई लोगों ने उनके भविष्य का नेता होने की घोषणा कर दी। मार्च 1946 में उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण की और 1947 तक वे इस पार्टी के जिला मंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने यासनगर और विक्रम पट्टी के जमींदारों के खिलाफ बकारत आन्दोलन चलाकर वंचितों में 60 बीघे जमीन वितरित करवा दिया। बाद में पार्टी में उनका प्रमोशन हो गया और वे 1948 से 1953 तक सोशलिस्ट पार्टी के प्रांतीय सचिव रहकर पार्टी की विचारधारा जन-जन तक पहुंचाते रहे।
स्वाधीन भारत की राजनीति में सही मायने में उन्होंने अपनी उपस्थिति 1952 के पहले विधानसभा चुनाव में दर्ज कराया, जब वे ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के प्रार्थी के रूप में चुनाव जीतने में सफल रहे। उसके बाद तो उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कर्पूरी जी 1952 के बाद 1957 और 1962 में भी चुनाव जीतने में सफल रहे। बाद में जब लोहिया ने ‘कांग्रेस हराओ, देश बचाओं’ का नारा उछाला, तब कर्पूरी ठाकुर न सिर्फ एक बार फिर से चुनाव जीते, बल्कि बिहार के महामाया सरकार में उप मुख्यमंत्री भी बने। 1970 का मध्यावधि चुनाव जीतने बाद वह 22 दिसंबर, 1970 को बिहार के मुख्यमंत्री बनें। उनकी जाति को देखते हुए तब यह असंभव माना जाता था, लेकिन उन्होंने यह कारनामा कर दिखाया। खास बात यह रही कि वो कभी रबर स्टाम्प सीएम नहीं रहें, बल्कि जनता के लिए जो बेहतर फैसला था, खुल कर लिया।
1972 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस सत्ता पर पुनः कब्ज़ा जमाने में सफल रही। किन्तु उस प्रतिकूल राजनीतिक हालात के बावजूद कर्पूरी ठाकुर बिहार विधान सभा में पहुचने में सफल रहे। उसके बाद आया 1974 का घटना बहुल दौर। जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 18 मार्च, 1974 को बिहार में छात्र आन्दोलन की शुरुआत की। उनके आह्वान पर जिस शख्स ने सबसे पहले विधान सभा की सदस्यता का परित्याग कर उनके साथ चलने का मन बनाया; वह कर्पूरी ठाकुर रहे।
जेपी का आन्दोलन बड़ी तेजी से विस्तार लाभ करते जा रहा था, जो देश में इमरजेंसी का कारण बना। इस दौरान 26 जून को अधिकांश नेता मीसा में गिरफ्तार कर लिए गए। इस स्थिति में गोरिल्ला संघर्ष के माहिर कर्पूरी फिर नेपाल चले गए और वहां के जंगलों में रहकर आन्दोलनकारी छात्रों और आन्दोलन समर्थक दलों के कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करने लगे। जल्द ही नेपाल की पुलिस को कर्पूरी ठाकुर की भूमिगत गतिविधियों की जानकारी मिल गयी। इसकी भनक लगते ही वे 5 सितम्बर, 1975 को चेन्नई के लिए निकल गए। इस नाजुक दौर में वे तरह-तरह का वेश बदलकर मुंबई, दिल्ली, गोरखपुर, लखनऊ, बनारस इत्यादि जगहों से जेपी आन्दोलन को बल प्रदान करते रहे। आखिरकार आपातकाल का दौर ख़त्म हुआ और जेपी आन्दोलन से जुड़े बहुतों की तरह कर्पूरी ठाकुर को योग्य पुरस्कार मिला।
आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ जिसमें कई गैर-कांग्रेसी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने चुनावी सफलता के नए प्रतिमान स्थापित किये। जून 1977 में ही बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ जिसमें जनता पार्टी लोकसभा चुनाव की भांति ही विजयी रही। मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सत्येन्द्र बाबू और कर्पूरी ठाकुर के बीच थी, जिसमें कर्पूरी सफल रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे फुलपरास उप चुनाव में विजयी होकर एकबार फिर विधायक बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद यूँ तो उन्होंने कई बड़े काम किये, किन्तु जिस तरह उन्होंने 1978 में पिछड़ी जातियों और कमजोर वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 26 प्रतिशत आरक्षण लागू किया, वह सामाजिक न्याय के इतिहास में मील का पत्थर बन गया। उस जमाने में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू कर कितने साहस का काम किया इसका अनुमान वे ही लगा सकते हैं, जिन्होंने मंडल उत्तर काल के इतिहास को चाक्षुष (आंखों से देखा) किया है।
स्मरण रहे 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद जहां सदियों के परम्परागत रूप से सुविधा संपन्न व विशेषाधिकार युक्त तबके की काबिल संतानों ने आत्म-दाह से लेकर राष्ट्र के संपदा दाह का अभियान छेड़ा, वहीं वर्तमान में देश की सबसे बड़ी पार्टी की ओर से रामजन्म भूमि मुक्ति आन्दोलन छेड़ दिया गया, जिसके फलस्वरूप असंख्य लोगों की प्राण हानि और राष्ट्र की कई हजार करोड़ की संपदा की हानि हुई। बाद में जब 2006 में पिछड़ों के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ। सवर्णों की काबिल संताने सरफरोशी की तमन्ना लिए मंडल-2 के खिलाफ फिर सडकों पर उतर आयीं। उसके बाद 2013 में जब उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में त्रि-स्तरीय आरक्षण लागू हुआ, जिसे यह लेखक मंडल-3 कहता है, सवर्णों का शिक्षित युवा वर्ग फिर सड़कों पर उतर आया।
साफ है कि सत्तर के दशक में प्रतिकूल स्थिति में कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण लागू करने का साहस दिखाया, उससे समाज को बहुत लाभ मिला लेकिन इस दुस्साहस की उन्हें कीमत भी अदा करनी पड़ी। उनके निर्णय के विरुद्ध सवर्ण सडकों पर उतर आए और कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ जमकर जातिवादी नारे लगाएं। यहां सुनने में वो भले असभ्य लगें लेकिन उसे बताना इसलिए जरूरी है कि आरक्षण के खिलाफ सवर्ण किस तरह वंचित समाज के एक मुख्यमंत्री को खुलेआम भद्दे नारे गढ़ ललकार रहे थे। तब सवर्णों ने नारा लगाया- ‘आरक्षण कहाँ से आई – कर्पूरी की माँ बियाई’, ‘कर्पूरी कर्पूरा-छोड़ गद्दी पकड़ उस्तुरा’। हमेशा की तरह मीडिया भी आरक्षण विरोधी माहौल बनने में जुट गयी। फलस्वरूप 18 महीने बाद ही उन्हें आरक्षण लागू करने के कारण मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। ऐसा नहीं कि कर्पूरी ठाकुर इस अंजाम से नावाकिफ थे। उन्हें अंजाम पता था, बावजूद इसके उन्होंने वंचितों के हित में उस ज़माने में आरक्षण लागू करने का जोखिम लिया। यह बात उन्हें महान और जन नायक बनाती है।
कर्पूरी ठाकुर ने न सिर्फ सामाजिक न्याय के मोर्चे पर अद्भुत दृष्टान्त स्थापित किया, बल्कि ईमानदारी की भी दुर्लभ मिसाल कायम की। काबिले गौर है कि कर्पूरी उस नाई जाति से थे; जिस जाति का संख्या बल मतदान को प्रभावित करने की स्थिति में कभी नहीं रहा। बावजूद इसके 1952 से लेकर अपने जीवन की शेष घड़ी तक वह विधायक, एक बार सांसद, एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने। राजनीति की इतनी बुलन्दियाँ छूने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर का न तो कोई अपना बंगला-गाड़ी और टेलीफोन रहा और न ही बैंक बैलेंस। रहा तो बस पितौझिया (वर्तमान में कर्पूरी ग्राम) का अपना खपरैल का पुश्तैनी मकान।
कर्पूरी ठाकुर का बेदाग़ जीवन आज के सामाजिक न्याय के नायक/नायिकाओं के लिए प्रेरणा का एक विराट विषय होना चाहिए। फुले, शाहूजी, पेरियार, बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, कांशीराम, जगदेव प्रसाद, कर्पूरी ठाकुर जैसों के प्रयास से आज बहुजन समाज में इतनी राजनीतिक चेतना आ गयी है कि उसका उपयोग कर सामाजिक न्याय के नायक/नायिका बड़ी आसानी से केंद्र की सत्ता दखल कर सामाजिक बदलाव का सपना पूरा कर सकते हैं। किन्तु वंचित जातियों के विपुल समर्थन से पुष्ट सामाजिक न्याय के नायक/नायिका घपला-घोटालों में फंसकर अपना तेज खोकर खुद करुणा के पत्र बन चुके हैं। इससे भारत में सामाजिक न्याय का संघर्ष दम तोड़ता नजर आ रहा है। काश! बहुजन समाज के नेता सामाजिक न्याय की राजनीति के पुरोधा व ईमानदारी के एवरेस्ट कर्पूरी ठाकुर का अनुसरण किये होते तो बहुजन आंदोलन आज एक अलग मुकाम पर होता।
गणतंत्र दिवस परेड के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने आदिवासी परिवार को भेजा न्योता
दिल्ली। भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए आदिवासी परिवार को न्यौता भेजा है। जिसके बाद 22 जनवरी को यह परिवार दिल्ली पहुंच चुका है। 26 जनवरी की परेड में शामिल होने के लिए छत्तीसगढ़ के कवर्धा के बैगा आदिवासी परिवारों को राष्ट्रपति भवन की ओर से न्यौता भेजा गया था। बैगा आदिवासी सबसे पिछड़ी हुई आदिवासी जनजाति में से एक हैं। राष्ट्रपति मुर्मू की ओर से जिन तीन परिवारों को निमंत्रण भेजा गया है, इसमें से कई ऐसे हैं जो पहली बार दिल्ली आए हैं।
इस दौरान राष्ट्रपति इनसे मुलाकात करेंगी, साथ ही वो इन मेहमानों के साथ डिनर भी करेंगी। दिल्ली में इन परिवारों को चुनिंदा जगहों को दिखाने का भी प्लॉन है।
राष्ट्रपति द्वारा निमंत्रण मिलने से ये सभी काफी खुश हैं। गणतंत्र और लोकतंत्र की ताकत भी यही है कि जिन जगहों पर दलित औऱ वंचित समाज की इंट्री बैन थी, अब वहां उन्हें आमंत्रित किया जा रहा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू खुद आदिवासी समाज से आती हैं, ऐसे में निश्चित तौर पर उन्होंने एक उदाहरण पेश किया है।
हालांकि राष्ट्रपति ने जिन आदिवासी परिवारों को दिल्ली बुलाया है, उनसे जुड़ा एक वीडियो सामने आया है, जिसमें न उनके पास ढंग का घर दिख रहा है और न ही घरों तक सड़क ही पहुंच पाई है। ऐसे में क्या राष्ट्रपति के इस निमंत्रण का फायदा इस समाज को मिलेगा, और उनको बुनियादी सुविधाएं मिल पाएंगी? अगर ऐसा होता है तो इस निमंत्रण की सार्थकता है, वरना यह निमंत्रण एक राजनीतिक स्टंट बन कर रह जाएगा और चार दिन की दिल्ली की चांदनी से वापस लौटकर यह परिवार फिर उसी गरीबी और बदहाली में पहुंच जाएगा।
दिल्ली चुनाव में दलितों को रिझाने की भाजपा-कांग्रेस की नई रणनीति

पानी का मटका छूने पर दलित को पीटा, किडनैप कर फिरौती के डेढ़ लाख भी वसूले
झुंझुनू, राजस्थान। दलित समाज के एक व्यक्ति के पानी का मटका छूने पर उसकी बेहरमी से पिटाई की गई। और जब पिटाई से भी मन नहीं भरा तो उसे अगवा कर छोड़ने के लिए डेढ़ लाख रुपये मांगे गए। मामला राजस्थान के झूंझुनू जिले की है। यहां के पचेरी कलां थाना क्षेत्र में 18 जनवरी को घटी।
ट्रैक्टर चालक चिमनलाल मेघवाल एक ईंट भट्ठा पर ईंट लेने गया था। उस दौरान प्यास लगने पर चिमनलाल घड़े से पानी पीने लगा। यह देखकर ईंट भट्ठा मालिक विनोद यादव भड़क उठा और जातिवादी गाली देते हुए उसे लात मार दी। इसके बाद विनोद और दो अन्य लोग उसे कार से हरियाणा के रेवाड़ी ले गए, जहां उसकी जमकर पिटाई की गई। जब घर वालों को पता लगा और उन्होंने चिमनलाल मेघवाल को छोड़ने की गुहार लगाई तो विनोद यादव और उसके साथियों ने चिमनलाल को छोड़ने के लिए परिवार से डेढ़ लाख रुपये मांगे। जब पीड़ित के भाई ने पैसे दिए, तब उसे छोड़ा गया। कैद से छूटने के बाद पीड़ित और परिवार ने रविवार 19 जनवरी को मामला दर्ज कराया। पुलिस ने मामला दर्ज कर कार्रवाई शुरू कर दी है।
बता दें कि यहां ईट भट्ठा मालिक यादव समाज यानी पिछड़े समाज से है। यानी साफ है कि दलित समाज सिर्फ सवर्णों के अत्याचार का शिकार ही नहीं है, बल्कि पिछड़े समाज के कई तबके दलित उत्पीड़न के मामले में ज्यादा उग्र दिखाई देते हैं। अगर चिमनलाल मेघवाल दलित जाति का न होता तो क्या उसे पानी का मटका छूने के लिए इतना प्रताड़ित किया जाता ? जवाब है बिल्कुल नहीं। अगर चिमनलाल ‘मेघवाल’ न होकर ऊंची या पिछड़ी जाति का होता और उसे प्यास लगती और मटका छू जाता तो भी क्या ईंट भट्ठा चालक विनोद यादव उसके साथ इतनी क्रूरता करता? जवाब है बिल्कुल नहीं। इसलिए हम कहते हैं… कास्ट मैटर्स
संविधान सुरक्षा सम्मेलन में पटना पहुंचे राहुल गांधी, भाजपा-आरएसएस पर किया जोरदार हमला


दलित सरपंच को मंदिर में जाने से रोका, भाजपा नेता पर आरोप
मध्य प्रदेश। आरएसएस दलित और आदिवासी समाज के बच्चों को महाकुंभ ले जाने की कवायद में जुटी है। इसी बीच मध्य प्रदेश के देवास जिले में एक दलित महिला सरपंच को मंदिर जाने से रोकने का मामला सामने आया है। जिले के हाथलोई पंचायत की एक दलित महिला सरपंच ने आरोप लगाया है कि भाजपा के नेताओं ने उन्हें मंदिर जाने से रोका। घटना की सूचना मिलते ही कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी ने महिला को मंदिर ले जाकर दर्शन करवाया। पटवारी ने इसका एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है।
दलित सरपंच रामदीन का आरोप है कि उन्हें कहा जाता है कि तुम हिन्दू नहीं हो इसलिए मंदिर में मत आओ। इस मामले में जिस तरह भाजपा नेताओं का नाम सामने आ रहा है, वह भी कई सवाल उठाता है। जिस तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री लगातार महाकुंभ को लेकर सक्रिय हैं और देश-दुनिया में इसको लेकर प्रचार कर रहे हैं। जबकि भाजपा की ही दूसरे राज्यों के सरकारों में पार्टी के नेता ही दलितों को मंदिरों में जाने से रोक रहे हैं। यह भाजपा नेताओं का दोहरा चेहरा नहीं तो फिर क्या है?
दलित-आदिवासी समुदाय के हजारों छात्रों को महाकुंभ में ले जाएगा आरएसएस
दलित और आदिवासी समाज के हिन्दु धर्म में बनाए रखना हिन्दू धर्म को बढ़ाने में लगे संगठनों के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। ऐसे में प्रयागराज मे चल रहे महाकुंभ से दलितों को जोड़ने के लिए आरएसएस ने कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस) आठ हजार दलित, आदिवासी छात्रों को कुंभ दर्शन कराएगा। यह काम संघ की शिक्षा शाखा, विद्या भारती करेगी। यहां 10 वर्ष से अधिक उम्र के छात्रों को उनके माता-पिता के साथ कुंभ मेले का दौरा कराया जाएगा। विद्या भारती के अनुसार, इस यात्रा का उद्देश्य इन बच्चों को हिंदू परंपराओं, भारतीय संस्कृति और महाकुंभ के आध्यात्मिक महत्व से परिचित कराना है, ताकि वे धर्मांतरण के प्रयासों से प्रभावित न हों।
मीडिया रिपोर्टस में प्रकाशित खबरों के मुताबिक अवध क्षेत्र के सेवा भारती स्कूलों के प्रशिक्षक रामजी सिंह ने बताया कि इन छात्रों को संतों के आश्रम, अखाड़ों और संगम घाट पर ले जाया जाएगा। उन्होंने कहा, “इस यात्रा से बच्चे भारतीय परंपराओं और महाकुंभ के आध्यात्मिक पहलुओं को समझ सकेंगे। यह उन्हें धर्मांतरण के दुष्प्रभावों से बचाने में मदद करेगा। विद्या भारती का संस्कार केंद्र, मुख्य रूप से गरीब और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों को शिक्षा प्रदान करता हैं। वह इस कार्यक्रम के केंद्र में हैं। इन केंद्रों में बच्चों को न केवल नियमित स्कूली शिक्षा दी जाती है, बल्कि उन्हें भारत माता की पूजा, राष्ट्रभक्ति के गीत, और बड़ों का सम्मान करना भी सिखाया जाता है। महाकुंभ यात्रा में अवध क्षेत्र के 14 जिलों से करीब 2100 छात्र 16 से 18 जनवरी के बीच शामिल होंगे।
खास बात यह है कि कुंभ यात्रा के दौरान छात्रों को माता-पिता के साथ लेकर जाया जाएगा। उनके माता-पिता के ठहरने के लिए मेला क्षेत्र के सेक्टर 9 में एक विशेष शिविर स्थापित किया गया है। यात्रा के बाद, छात्रों के अनुभवों को साझा करने के लिए एक सत्र का आयोजन भी होगा। इसके बाद, गोरखपुर, काशी, और कानपुर क्षेत्रों से छात्रों के समूह क्रमशः 24 से 26 जनवरी और अन्य दिनों में यात्रा करेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के छात्रों के लिए भी इसी तरह की योजना पर काम हो रहा है।
दरअसल जाति के आधार पर दलितों पर हर दिन होने वाले हमले और बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के प्रसार के कारण दलित और आदिवासी समाज के लोग लगातार हिन्दू धर्म से विमुख हो रहे हैं। लगातार जातीय हिंसा को झेल रहे इस समाज को हिन्दू धर्म के तमाम लोग और संगठन अपनी संख्या बढ़ाने के लिए हिन्दू धर्म का हिस्सा तो मानते हैं, लेकिन उन पर होने वाले जातीय अत्याचार के खिलाफ आवाज नहीं उठाते हैं। ऐसे में आर.एस.एस जैसे संगठन लगातार उन्हें हिन्दू धर्म के जोड़ने की कवायद करते रहते हैं।
यहां सवाल यह भी है कि जितनी गर्मजोशी से इन्हें महाकुंभ में ले जाने का प्लॉन बनाया जा रहा है, आरएसएस और उस जैसी संस्थाएं जातिवाद के खिलाफ लड़ाई क्यों नहीं लड़ती? Pजन्मदिन पर बसपा सुप्रीमो मायावती का ऐलान- बसपा का समय फिर से आएगा
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बहन मायावती का 15 जनवरी को जन्मदिन होता है। बसपा कार्यकर्ता इस दिन को जनकल्याणकारी दिवस के रूप में मना रहे हैं। इस दौरान बहनजी ने लखनऊ में हर साल की तरह मीडिया को संबोधित किया। अपने संबोधन में बहनजी ने जहां बहुजन महापुरुषों को नमन किया तो वहीं वर्तमान राजनीति पर भी खुल कर बोलीं। उन्होंने कहा कि पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों को आगाह करते हुए कहा कि कुछ वर्षों से बी.एस.पी के दलित वोट बैंक को कमजोर करने व उसे तोड़ने के लिए कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी अनेक हथकंडे अपना रही हैं। इससे सावधान रहना होगा।
दलित समाज के चुनावी सोच पर दुख जताते हुए बहनजी ने कहा कि बसपा सरकार में हमने गरीब और बेरोजगार लोगों से लुभावने वादे करने की बजाय उन्हें रोजी-रोटी का साधन उपलब्ध कराया। लेकिन दुख इस बात का है कि चुनाव के दौरान भोली-भाली जनता अपनी पार्टी के इन सब कार्यों को भुलाकर विरोधी पार्टियों की गारंटी व लुभावने वायदों के बहकावे में आ जाती है। जबकि इनकी कथनी और करनी में अंतर है। इससे दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी में आरक्षण का भी पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है।
हालांकि बहनजी ने साफ कर दिया कि बसपा इन सब से उबरेगी और एक बार फिर बसपा का समय जरूर आएगा।
बहनजी ने इस दौरान बीते एक वर्ष के संघर्ष पर हर साल की तरह पुस्तक, मेरे संघर्षमय जीवन एवं बी.एस.पी मूवमेन्ट का सफरनामा का विमोचन किया। बता दें कि बसपा सुप्रीमों बहनजी 15 जनवरी को अपना 69वां जन्मदिन मना रही हैं, जिसको लेकर देश भर के बसपा कार्यकर्ताओं में उत्साह है। बहनजी ने भी अपने तेवरों से उन लोगों को करारा जवाब दे दिया है, जो यह मानते हैं कि बसपा का समय अब खत्म हो गया है। बसपा सुप्रीमों का यह कहना की बसपा का समय फिर से आएगा से बसपा समर्थक उत्साह में है।
मध्य प्रदेशः दलितों का प्रसाद खाया तो सवर्ण परिवारों का ही कर दिया सामाजिक बहिष्कार
जातिवाद समाज के भीतर कितनी गहराई से बैठा है, यह मध्यप्रदेश में घटी एक घटना से पता चलता है। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के एक गांव में 20 परिवारों को एक दलित व्यक्ति से प्रसाद लेने के कारण सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। परिवार का आरोप है कि यह फरमान गांव के सरपंच संतोष तिवारी ने जारी किया है। रिपोर्ट के मुताबिक, यह घटना छतरपुर जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर अटरार गांव की है।
गांव के जगत अहिरवार ने मनोकामना पूरी होने पर 20 अगस्त, 2024 को तलैया हनुमान मंदिर में विशेष भोग ‘मगज लड्डू’ चढ़ाया था। प्रसाद मंदिर के पुजारी रामकिशोर अग्निहोत्री ने चढ़ाया और वहां मौजूद लोगों को बांटा। यह प्रसाद विभिन्न जातियों के ग्रामीणों को दिया गया। इसमें ब्राह्मण सहित अन्य कथित ऊंची जातियों के लोग भी शामिल थे। गांव में यह बात फैलने पर कि ‘ऊंची जातियों’ के लोगों ने एक दलित व्यक्ति का प्रसाद लिया है, तो सरपंच ने इन परिवारों के सामाजिक बहिष्कार का आदेश दे दिया। प्रभावित परिवारों का कहना है कि उन्हें तब से सामाजिक आयोजनों, जैसे शादियों और अन्य समारोहों से बाहर कर दिया गया है।
#Casteism | #Untouchables |
— काश/if Kakvi (@KashifKakvi) January 11, 2025
मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के अतटाट गांव से धीटेंद्र शास्री ने "हिन्दू एकता रैली" निकली थी।
आज अतटाट गांव के लोगों ने शिकायत कि है कि दलित के पैसे का प्रसाद खाने कि वजह कर गाँव के सरपंच ने 20 परिवारों का पिछले 6 माह से बहिष्कार किया हुआ है।
दरअसल,… pic.twitter.com/uGkV2iLbPm
अब गांव के कई लोग उन्हें ‘लड्डू वाले’ कहकर चिढ़ाते हैं। उन्होंने जिला अधिकारियों से संपर्क किया और एसपी के पास शिकायत दर्ज कराई। स्थानीय अधिकारियों द्वारा हाल में सुलह कराने की कोशिशों के बावजूद स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है। स्थानीय एसपी का कहन है कि ‘हमें दोनों पक्षों से शिकायतें मिली हैं। मामले की जांच की जा रही है और वरिष्ठ अधिकारियों को तैनात किया गया है।’
इस घटना से साफ है कि अगर समाज के कुछ लोग ऊंच-नीच और जाति प्रथा जैसी बातों से आगे निकलकर दलितों के साथ एकता बनाने की वकालत करते हैं तो जातिवादी उनके खिलाफ भी खड़े हो जाते हैं।
तिलका मांझी के शहादत दिवस की कहानी

जनवरी की 13 तारीख भारत के इतिहास में एक क्रांतिकारी वीर सपूत के शहादत दिवस के रूप में दर्ज है। साल 2025 में भारत और भागलपुर- संथाल परगना क्षेत्र के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी, महान् क्रान्तिकारी किसान नेता एवं महान मूलनिवासी बहुजन नायक, अमर शहीद तिलकामांझी का 240वां शहादत दिवस है। इस पुनीत अवसर पर हम अपने 35 वर्षीय अमर युवा शहीद के प्रति भारत के सभी नागरिकों एवं विशेष कर मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि और शत-शत नमन अर्पित करते हैं।
यह सर्वविदित है कि तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 ई. में मूलनिवासी संथाल जनजाति में राजमहल के एक गांव में हुआ था। उनके पिता सुन्दर मांझी एवं माता सोमी थे। उन्होंने मात्र 29 वर्ष की आयु में 1779 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की 10 वर्षीय कृषि ठेकेदारी की आर्थिक लूट की व्यवस्था लागू करने, फूट डालो- राज करो की नीतियों, आदिवासियों एवं किसानों का किए जा रहे सूदखोरी-महाजनी शोषण और पहाड़िया एवं संथाल जनजातियों के विद्रोहों- आन्दोलनों को कुचलने की दमनकारी नीतियों और कार्यों के खिलाफ मूलनिवासी किसानों को संगठित कर हुल विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। उनके द्वारा शाल पेड़ के छाल में गांठ बांध कर सभी संथाल एवं पहाड़िया के गांवों में भेजा गया था और विद्रोह करने का निमंत्रण दिया गया था। उनके नेतृत्व में आदिवासियों और किसानों में एकता बनीं और संघर्षों का दौर शुरू हुआ था। 1779 ई. से 1784 ई. तक रुक-रुक कर जगह-जगह राजमहल से लेकर खड़गपुर- मुंगेर तक अंग्रेजों की सेना के साथ गुरिल्ला युद्ध का कुशल नेतृत्व तिलका मांझी ने किया था।
1779 ई. में ही भागलपुर के प्रथम कलक्टर क्लीबलैंड नियुक्त हुए थे। उनके द्वारा जनजातियों में फूट डालने की नीति के तहत पैसे, अनाज और कपड़े बांटने के कार्य किए जा रहे थे। पहाड़िया जनजाति के लोगों की 1300 सैनिकों की भर्ती 1781ई में की गई थी। उस सैनिक बल का सेनापति जबरा या जोराह (Jowrah) नामक कुख्यात पहाड़िया लूटेरे को बनाया गया था, जो जीवन भर अंग्रेज़ों के वफादार सेनापति बना रहा। ये सैनिक बल तिलका मांझी के जनजाति एवं किसान विद्रोह को कुचलने और दमन करने के लिए लगातार लड़ाई कर रहे थे। तीतापानी के समीप 1782 और 1783 में हुए दो युद्धों में अंग्रेजी सेना की बुरी तरह हार हुईं।
उस पराजय के बाद कलक्टर आगस्ट्स क्लीवलैंड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के साथ 30 नवम्बर 1783 को पुनः उसी स्थान पर तिलका मांझी के साथ भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में क्लीवलैंड विषाक्त तीर और गुलेल के पत्थर से बुरी तरह घायल हो गया और उसे भागलपुर लाया गया। उसने अपना प्रभार अपने सहायक कलेक्टर चार्ल्स कॉकरेल को सौंप दिया और वे अपनी इलाज के लिए इंग्लैंड वापस लौट गया। किन्तु रास्ते में ही समुद्री जहाज पर 13 जनवरी, 1784 ई. को उसकी मौत हो गई।
उसके बाद सी कैपमैन भागलपुर के कलक्टर नियुक्त हुए, जिन्होंने तिलका मांझी की सेना और जनजाति समाज के विरुद्ध भागलपुर राजमहल के पूरे क्षेत्र में पुलिस आतंक का राज बना दिया। दर्जनों गांवों में आग लगा दी गई। सैकड़ों निर्दोष आदिवासी मौत के घाट उतार दिए गए और पागलों की तरह अंग्रेजी सेना तिलकामांझी की तलाश करने लगीं। तिलका मांझी राजमहल क्षेत्र से निकल कर भागलपुर क्षेत्र में आ गये और अब छापा मारकर युद्ध करने लगे। सुल्तानगंज के समीप के जंगल में 13 जनवरी, 1785 ई में हुए युद्ध में तिलका मांझी घायल हो गए और उन्हें पकड़ कर भागलपुर लाया गया। यहां कानून और न्याय के तथाकथित सभ्य अंग्रेजी अफसरों ने घोड़े के पैरों में लम्बी रस्सी से बांध कर सड़कों पर घसीटते हुए अधमरा कर तिलका मांझी चौंक पर स्थित बरगद पेड़ पर टांग दिया और मौत की सज़ा दी।
अंग्रेजों ने उन्हें आतंकवादी और राजद्रोही माना, किन्तु भागलपुर-राजमहल क्षेत्र सहित बिहार के लोगों ने उन्हें अपना महान नेता, महान् क्रान्तिकारी योद्धा और शहीद मानकर श्रद्धांजलि अर्पित की। उनके सम्मान में शहादत स्थान का नाम तिलका मांझी चौंक रखा गया। उनके नाम पर तिलका मांझी हाट लगाया गया और जहां से वे पकड़े गए थे उस स्थान पर तिलकपुर गांव (सुल्तानगंज प्रखंड) बसा हुआ है।
उसके लगभग 195 वर्षों के बाद तिलका मांझी चौक पर उनकी मूर्ति 1980 ई. में लगाई गई। फिर उसके बाद भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम तिलका मांझी विश्वविद्यालय रखा गया। उसके बाद 14 अप्रैल, 2002 ई. में तिलका मांझी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के सामने उनकी मूर्ति लगाई गई। किन्तु यह काफी दुखद है कि बिहार और भारत के कुछ इतिहासकारों ने उन्हें ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हुए इतिहास के पन्नों में ही जगह देने से इंकार कर दिया। भागलपुर में भी एक तीसमार खां इतिहासकार इस पर विवाद पैदा करते रहते हैं। संभवतः इतिहास दृष्टि के अभाव में या जातिगत विद्वेष के कारण वे ऐसा करते हैं।
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दिल्ली में बनेगा डॉ. आंबेडकर का स्मारक?
हाल ही में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की मृत्यु के बाद उनके स्मारक की मांग उठाई जाने लगी। कांग्रेस पार्टी का कहना था कि केंद्र सरकार को पूर्व प्रधानमंत्री का स्मारक बनाने के लिए जमीन आवंटित करनी चाहिए। इस बीच केंद्र सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी के स्मारक के लिए जगह का आवंटन कर दिया। केंद्र सरकार ने जानकारी दी है कि पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे प्रणब मुखर्जी की याद में राजघाट के पास ही राष्ट्रीय स्मृति स्थल में स्मारक बनेगा।
इस बहस के बीच बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की याद में दिल्ली में स्मारक बनाने की मांग भी उठने लगी है। अंबेडकरवादी समाज का कहना है कि बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को वह सम्मान नहीं दिया गया था जो मिलना चाहिए। डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद अंबेडकरवादी चाहते थे कि उनकी याद में दिल्ली में राजघाट या आस-पास बाबासाहेब का स्मारक बने। लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने बाबासाहेब के पार्थिव शरीर को आनन-फानन में विशेष विमान से मुंबई भिजवा दिया। मुंबई में भी डॉ. आंबेडकर के अनुयायी शिवाजी पार्क में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का अंतिम संस्कार और स्मारक चाहते थे, लेकिन तब भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार ने इसके लिए अनुमति नहीं दी। तब बाबासाहेब के मित्र ने दादर में समुद्र किनारे अपनी निजी जमीन बाबासाहेब के स्मारक के लिए दान दी, जिसमें आज डॉ. आंबेडकर का स्मारक है।
ऐसे में एक बार फिर से यह बहस चल पड़ी है कि क्या नरेन्द्र मोदी की भाजपा सरकार बाबासाहेब को दिल्ली में स्मारक बनाकर सम्मान देगी। इस मुद्दे पर “दलित दस्तक” के संपादक अशोक दास ने दलित एक्टिविस्ट डॉ. सतीश प्रकाश से चर्चा की। आप भी देखिए-
अमेरिका में अमित शाह के खिलाफ सड़क पर उतरे अंबेडकरवादी

डलास, अमेरिका। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के खिलाफ भारत के बाद अब अमेरिका के अंबेडकरवादियों में भी गुस्सा भड़क गया है। पिछले दिनों न्यूयार्क में अंबेडकरवादियों के विरोध प्रदर्शन के बाद अब अमेरिका के डलास स्थित टेक्सास में 4 जनवरी को अंबेडकरवादियों ने अमित शाह पर जमकर हमला बोला। यहां के सिटी हाल में सौ से ज्यादा अंबेडकरवादी एक साथ जुटे और अमित शाह के खिलाफ जमकर नारेबाजी की।
साफ है कि संसद में संविधान पर चर्चा के दौरान जिस तरह से अमित शाह ने बाबासाहेब को लेकर टिप्पणी की, उससे सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में रहने वाले अंबेडकरवादियों ने मोर्चा खोल दिया है। और किसी भी हाल में अमित शाह को माफ करने के मूड में नहीं हैं।
खास बात यह रही कि इस विरोध प्रदर्शन में दलित समाज के अलावा अल्पसंख्यक समाज के लोगों ने भी हिस्सा लिया। उन्होंने साफ कर दिया कि बिना बाबासाहेब आंबेडकर के भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। इस दौरान अंबेडकरवादियों ने यह साफ कर दिया कि जब तक अमित शाह माफी नहीं मांगते, यह विरोध प्रदर्शन रुकने वाला नहीं है।