Tuesday, February 11, 2025
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तिलका मांझी के शहादत दिवस की कहानी

उन्होंने मात्र 29 वर्ष की आयु में 1779 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की 10 वर्षीय कृषि ठेकेदारी की आर्थिक लूट की व्यवस्था लागू करने, फूट डालो- राज करो की नीतियों, आदिवासियों एवं किसानों का किए जा रहे सूदखोरी-महाजनी शोषण और पहाड़िया एवं संथाल जनजातियों के विद्रोहों- आन्दोलनों को कुचलने की दमनकारी नीतियों और कार्यों के खिलाफ मूलनिवासी किसानों को संगठित कर हुल विद्रोह का बिगुल बजा दिया था।

बिहार के भागलपुर स्थित इसी चौराहे पर तिलका मांझी को फांसी दी गई थी

जनवरी की 13 तारीख भारत के इतिहास में एक क्रांतिकारी वीर सपूत के शहादत दिवस के रूप में दर्ज है। साल 2025 में भारत और भागलपुर- संथाल परगना क्षेत्र  के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी, महान् क्रान्तिकारी किसान नेता एवं महान मूलनिवासी बहुजन नायक, अमर शहीद तिलकामांझी का 240वां शहादत दिवस है। इस पुनीत अवसर पर हम अपने 35 वर्षीय अमर युवा शहीद के प्रति भारत के सभी नागरिकों एवं विशेष कर मूलनिवासी बहुजन समाज के लोगों की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि और शत-शत नमन अर्पित करते हैं।

 यह सर्वविदित है कि तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 ई. में मूलनिवासी संथाल जनजाति में राजमहल के एक गांव में हुआ था। उनके पिता सुन्दर मांझी एवं माता सोमी थे। उन्होंने मात्र 29 वर्ष की आयु में 1779 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की 10 वर्षीय कृषि ठेकेदारी की आर्थिक लूट की व्यवस्था लागू करने, फूट डालो- राज करो की नीतियों, आदिवासियों एवं किसानों का किए जा रहे सूदखोरी-महाजनी शोषण और पहाड़िया एवं संथाल जनजातियों के विद्रोहों- आन्दोलनों को कुचलने की दमनकारी नीतियों और कार्यों के खिलाफ मूलनिवासी किसानों को संगठित कर हुल विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। उनके द्वारा शाल पेड़ के छाल में गांठ बांध कर सभी संथाल एवं पहाड़िया के गांवों में भेजा गया था और विद्रोह करने का निमंत्रण दिया गया था। उनके नेतृत्व में आदिवासियों और किसानों में एकता बनीं और संघर्षों का दौर शुरू हुआ था। 1779 ई. से 1784 ई. तक रुक-रुक कर जगह-जगह राजमहल से लेकर खड़गपुर- मुंगेर तक अंग्रेजों की सेना के साथ गुरिल्ला युद्ध का कुशल नेतृत्व तिलका मांझी ने किया था।

बिहार के भागलपुर स्थित इसी चौराहे पर तिलका मांझी को फांसी दी गई थी   1779 ई. में ही भागलपुर के प्रथम कलक्टर क्लीबलैंड नियुक्त हुए थे। उनके द्वारा जनजातियों में फूट डालने की नीति के तहत पैसे, अनाज और कपड़े बांटने के कार्य किए जा रहे थे। पहाड़िया जनजाति के लोगों की 1300 सैनिकों की भर्ती 1781ई में की गई थी। उस सैनिक बल का सेनापति जबरा या जोराह (Jowrah) नामक कुख्यात पहाड़िया लूटेरे को बनाया गया था, जो जीवन भर अंग्रेज़ों के वफादार सेनापति बना रहा। ये सैनिक बल तिलका मांझी के जनजाति एवं किसान विद्रोह को कुचलने और दमन करने के लिए लगातार लड़ाई कर रहे थे। तीतापानी के समीप 1782 और 1783 में हुए दो युद्धों में अंग्रेजी सेना की बुरी तरह हार हुईं।

 उस पराजय के बाद कलक्टर आगस्ट्स क्लीवलैंड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना के साथ 30 नवम्बर 1783 को पुनः उसी स्थान पर तिलका मांझी के साथ भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में क्लीवलैंड विषाक्त तीर और गुलेल के पत्थर से बुरी तरह घायल हो गया और उसे भागलपुर लाया गया। उसने अपना प्रभार अपने सहायक कलेक्टर चार्ल्स कॉकरेल को सौंप दिया और वे अपनी इलाज के लिए इंग्लैंड वापस लौट गया। किन्तु रास्ते में ही समुद्री जहाज पर 13 जनवरी, 1784 ई. को उसकी मौत हो गई।

उसके बाद सी कैपमैन भागलपुर के कलक्टर नियुक्त हुए, जिन्होंने तिलका मांझी की सेना और जनजाति समाज के विरुद्ध भागलपुर राजमहल के पूरे क्षेत्र में पुलिस आतंक का राज बना दिया। दर्जनों गांवों में आग लगा दी गई। सैकड़ों निर्दोष आदिवासी मौत के घाट उतार दिए गए और पागलों की तरह अंग्रेजी सेना तिलकामांझी की तलाश करने लगीं। तिलका मांझी राजमहल क्षेत्र से निकल कर भागलपुर क्षेत्र में आ गये और अब छापा मारकर युद्ध करने लगे। सुल्तानगंज के समीप  के जंगल में 13 जनवरी, 1785 ई में हुए युद्ध में तिलका मांझी घायल हो गए और उन्हें पकड़ कर भागलपुर लाया गया। यहां कानून और न्याय के तथाकथित सभ्य अंग्रेजी अफसरों ने घोड़े के पैरों में लम्बी रस्सी से बांध कर सड़कों पर घसीटते हुए अधमरा कर तिलका मांझी चौंक पर स्थित बरगद पेड़ पर टांग दिया और मौत की सज़ा दी।

अंग्रेजों ने उन्हें आतंकवादी और राजद्रोही माना, किन्तु भागलपुर-राजमहल क्षेत्र सहित बिहार के लोगों ने उन्हें अपना महान नेता, महान् क्रान्तिकारी योद्धा और शहीद मानकर श्रद्धांजलि अर्पित की। उनके सम्मान में शहादत स्थान का नाम तिलका मांझी चौंक रखा गया। उनके नाम पर तिलका मांझी हाट लगाया गया और जहां से वे पकड़े गए थे उस स्थान पर तिलकपुर गांव (सुल्तानगंज प्रखंड) बसा हुआ है।

उसके लगभग 195 वर्षों के बाद तिलका मांझी चौक पर उनकी मूर्ति 1980 ई. में लगाई गई। फिर उसके बाद भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम तिलका मांझी विश्वविद्यालय रखा गया। उसके बाद 14 अप्रैल, 2002 ई. में तिलका मांझी  विश्वविद्यालय के प्रशासनिक भवन के सामने उनकी मूर्ति लगाई गई। किन्तु यह काफी दुखद है कि बिहार और भारत के कुछ इतिहासकारों ने उन्हें ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हुए इतिहास के पन्नों में ही जगह देने से इंकार कर दिया। भागलपुर में भी एक तीसमार खां इतिहासकार इस पर विवाद पैदा करते रहते हैं। संभवतः इतिहास दृष्टि के अभाव में या जातिगत विद्वेष के कारण वे ऐसा करते हैं।

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