बसपा सुप्रीमो, उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा की सदस्या एडवोकेट मायावती ने अपने समर्थकों को समाचार पत्रों एवं निजी टीवी चैनलों द्वारा चुनाव से पहले सर्वेक्षणों से सावधान रहने की चेतावनी दी है. उनका मानना है कि ये समाचार पत्र एवं टीवी चैनलों का स्वामित्य पूंजीपतियों के पास है और वे बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में होने वाले 2017 के चुनाव के संदर्भ में नकारात्मक वातावरण पैदा कर रहे हैं. उन्होंने अपने समर्थकों को जोर देकर यह समझाया है कि चुनाव के पहले ये सर्वेक्षण बहुजन समाज का मनोबल तोड़ने की पूंजीपतियों की साजिश का नतीजा है.
बसपा सुप्रीमो के उपरोक्त संदेह पर एक समाजशास्त्री के रूप में मेरा यह मानना है कि पद्धति शास्त्र, ज्ञान मिमांसा एवं सत्ता मिमांसा के आधार पर भारत में चुनाव सर्वेक्षणों ने अभी वह वैज्ञानिक तटस्थता नहीं प्राप्त की है, जैसा कि अमेरिकी और यूरोपिय देशों ने. इसका सबसे बड़ा कारण है, भारतीय सामाजिक संरचना में जाति के आधार पर भेदभाव. यही भेदभाव चुनाव सर्वेक्षण की वैज्ञानिक तटस्थता को प्रमाणित करता है. सर्वेक्षण में पूछे जाने वाले प्रश्नों को बनाने वाले तथा सर्वेक्षण के दौरान जमीनी स्तर पर किस समाज से कैसे प्रश्न पूछे जाए और जिनसे प्रश्न पूछे गए हैं वो कैसे उत्तर देंगे, यह सब का सब तथ्य जाति अस्मिता द्वारा ही निर्धारित होते हैं. उदाहरण के लिए ज्यादातर सर्वेक्षण करने वाले सवर्ण समाज के शहरी क्षेत्र के रहने वाले युवा और युवती होते हैं, जिनकी चेतना में दलित, पिछड़े एवं मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज के लोगों की बस्ती में जाकर कैसे प्रश्नों का उत्तर लिया जाए, इसका नितांत अभाव होता है. बहुत से प्रश्नकर्ता दलितों एवं मलिन बस्ती में जाने से ही घिन्न महसूस करते हैं. और इसलिए वे उधर का रुख ही नहीं करते.
दूसरी ओर ग्रामीण अंचल में दलित एवं अल्पसंख्यक समाज का व्यक्ति सामंतों एवं उच्च जातियों से भयभीत रहता है. इसलिए वह सर्वेक्षण में पूछे गए प्रश्नों का जानबूझ कर सही-सही उत्तर नहीं देता. ऐसी स्थिति में प्रश्नकर्ता एवं चुनाव अनुसंधानकर्ता के पास ऐसी कोई पद्धति नहीं होती; जिससे वह इस भोली-भाली सहमी एवं डरी जनता के अंदर की सत्यता को निकाल कर अपने परिणाम में शामिल कर सके. ऐसी स्थिति में सर्वेक्षण की वैद्यता अपने आप ही संदिग्ध हो जाती है.
वैज्ञानिक पद्धति शास्त्र के आधार पर चुनाव सर्वेक्षणों की दूसरी बड़ी संदिग्धता; एक अन्य तथ्य के आधार पर प्रमाणित की जा सकती है. वह तथ्य है, सर्वेक्षण के दौरान किसी भी दल को मिले मत प्रतिशतों को उस दल को मिलने वाली सीटों में तब्दील करना. यह स्थापित सत्य है कि किसी राजनैतिक दल द्वारा सर्वेक्षण के दौरान प्राप्त मत प्रतिशत को सीट में बदलने का कोई भी वैज्ञानिक फार्मूला अभी तक सामने नहीं आया है. विशेष कर विविधता भरे इस भारतीय समाज में कोई भी यह सही-सही नहीं बता सकता कि अगर एक राजनैतिक दल को इतने मत मिलेंगे तो उसको इतनी सीट मिल जाएगी, क्योंकि अक्सर यह देखने में आया है कि कम प्रतिशत वोट पाने वाले दलों को ज्यादा सीट मिल जाती है और ज्यादा मत पाने वाले को कम.
उदाहरण के लिए 2009 में लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में बसपा को यद्यति 27.5 प्रतिशत वोट मिले थे, परंतु उसको सीट मिली थी बीस. इसके समानान्तर कांग्रेस को 2009 में 18.3 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन उसने 21 सीटों पर चुनाव जीता था. इसी कड़ी में अगर हम 2014 के लोकसभा चुनाव को देखें तो उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.8 प्रतिशत वोट मिले, परंतु उसको कोई भी सीट नहीं मिली. दूसरी ओर कांग्रेस को सिर्फ 7.5 प्रतिशत वोट मिलने के बावजूद उसने दो सीटों पर चुनाव जीत लिया. अतः उपरोक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि किसी भी दल को सर्वेक्षण में मिले मतों के आधार पर उसको कितनी सीटें मिलेंगी, यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. शायद इसीलिए बसपा को अक्सर सर्वेक्षणों में पीछे दिखाया जाता है और उसको सर्वेक्षणों में कम मत प्रतिशत और सीटें मिलती दिखायी जाती हैं. यद्यपि वास्तविकता में परिणाम इससे बिल्कुल अलग और बेहतर होते हैं. 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम इसकी पुष्टि करते हैं.
सर्वेक्षणों में मिले मत प्रतिशत के आधार पर उसे सीटों में कैसे बदला जाता है, और उसका क्या वैज्ञानिक फार्मूला है इसका खबरिया चैनल आज भी रहस्योदघाटन नहीं करते. वे किस पद्धति शास्त्र से यह गणना करते हैं कि कितने प्रतिशत वोट पर व्यक्ति एक सीट जीत जाएगा, वे इसका कोई भी आंकलन अपने दर्शकों को नहीं बतातें. शायद इसके पास कोई फार्मूला है ही नहीं. और इसीलिए सर्वेक्षण संदेह के घेरे में आ जाता है. चुनाव सर्वेक्षण केवल व्यापारिक प्रक्रिया बन जाती है जिसमें राजनीति के गरीब राजनैतिक दल पिछड़ जाते हैं और धनाढ्य राजनैतिक दल अपने पक्ष में निर्णय लाकर जनता के निर्णय को प्रभावित करते हैं. शायद इसीलिए पाश्चात्य देशों में मत प्रतिशत को सीटों में परिवर्तित करने की परंपरा नहीं है. जो कि एक साधारण अनुसंधानिक प्रक्रिया लगती है. और यही प्रक्रिया भारत में भी अपनायी जानी चाहिए. तब कहीं जाकर के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण संदेह के घेरे से कुछ बाहर निकल पाएंगे.

प्रो. (डॉ.) विवेक कुमार प्रख्यात समाजशास्त्री हैं। वर्तमान में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ सोशल साइंस (CSSS) विभाग के चेयरमैन हैं। विश्वविख्यात कोलंबिया युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। ‘दलित दस्तक’ के फाउंडर मेंबर हैं।
