दलितों का आक्रोश जायज है

ग्यारह जुलाई, 2016 को एक वीडियो सामने आया, जिसने यह दर्शाया कि गुजरात के उना में कुछ लोगों ने एक मृत गाय का चमड़ा उतारने के आरोप में सात दलितों की बड़ी बेरहमी से पिटाई की. इस घटना के विरोध में बहुत-से दलितों ने गाय के शव को हाथ लगाने से मना कर दिया है. ‘गऊ रक्षकों’ को इस पर खुश होना चाहिए, पर वे नाखुश हैं. ‘गऊ रक्षकों’ समेत कई गैर-दलितों ने, बदले में और भी हिंसा की है- इस बार गाय का शव न उठाने के कारण- सामतेर (16 अगस्त), भावरा (20 अगस्त) और राजकोट (24 अगस्त). ये सभी वाकये गुजरात के हैं. दलित के सामने इधर कुआं उधर खाई जैसी स्थिति है- वह काम करे तो भी मुसीबत, न करे तो भी. कहा जाता है कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को धर्मग्रथों ने पवित्र बताया है, पर यह हिंदू समाज का अभिशाप है. इस व्यवस्था ने अधिकांश हिंदू समाज को समाहित और वर्गीकृत किया, पर इसने एक बड़ी संख्या को बाहर रखा. बाहर रखे गए लोग जाति-बहिष्कृत या अछूत थे. जन्मना गैर-बराबरी इस व्यवस्था की बुनियाद थी. यह गैर-बराबरी आपके साथ जीवन भर बनी रहती थी. दलित के खिलाफ हिंसा, इस व्यवस्था के नियमों का पालन न करने की सजा है. रोहित वेमुला ने इसी को सार-रूप में कहा: ‘मेरा जन्म मेरे साथ घटी भयानक दुर्घटना है.’

दलित एकजुटता

दलित इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि बस, अब बहुत हो चुका. उन्होंने एकजुट होने का फैसला किया है. दलितों की जैसी सामाजिक एकजुटता गुजरात और महाराष्ट्र में, और कुछ हद तक देश के अन्य हिस्सों में भी हुई है, वैसी हाल के वर्षों में पहले कभी नहीं दिखी थी. हालांकि अधिकांश मीडिया उन्हें नहीं दिखा रहा है, पर बड़ी-बड़ी रैलियां और जुलूस आयोजित हो रहे हैं. दलित समुदाय का आक्रोश प्रत्यक्ष है, क्योंकि देश के कुछ हिस्सों में वे ऐसी हिंसा के शिकार हैं जिसके लिए किसी को दंडित नहीं किया जा रहा है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के मुताबिक, वर्ष 2015 में दलितों के खिलाफ अपराध की दर सबसे ज्यादा गुजरात में रही, फिर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में।मौजूदा अति-राष्ट्रवाद के खोखलेपन को लेकर दलित गुस्से में हैं, जहां भारत से जुड़ी हर चीज महान बताई जाती है और हरेक आलोचना पर राष्ट्र-विरोधी होने का ठप्पा लगा दिया जाता है. जिस तरह उना कांड और ऐसी अन्य घटनाओं को अलग-थलग घटना या षड्यंत्र कह कर झुठलाया जा रहा है उससे भी वे गुस्से में हैं. यह गौरतलब है कि गाय के शव का बहिष्कार, रैलियां और जुलूस राजनीति के स्तर पर नहीं, बल्कि सामाजिक एकजुटता के तौर पर आयोजित किए गए.

लंबी चुप्पी के बाद प्रधानमंत्री छह अगस्त को बोले. उन्होंने कहा, ‘मैं उन लोगों पर बहुत कुपित हूं जो गऊ रक्षा के धंधे में लगे हैं… मैंने देखा है कि कुछ लोग रात भर जुर्म में लगे रहते हैं और दिन में गऊ रक्षक का चोला धारण कर लेते हैं.’ इसके दूसरे रोज एक रैली में उन्होंने कहा, ‘दलितों को निशाना बनाने के बजाय आप मुझे गोली मार सकते हैं.’ एक प्रधानमंत्री का ऐसा कहना विचित्र है: उन्हें तमाम अधिकार हासिल हैं, हिंसा करने वालों को दंडित करने के लिए उन अधिकारों का इस्तेमाल उन्हें करना चाहिए.

बदलाव की पीड़ादायी सुस्ती

बदलाव हो रहा है, पर इसकी गति पीड़ादायी होने की हद तक धीमी है. शहरी इलाकों में, जहां आर्थिक और पेशेवर पहचान को तवज्जो मिलती है, और देश के कुछ ऐसे हिस्सों में, जहां सामाजिक आंदोलनों की वजह से बदलाव आया, अधिकांश हिंदू जाति-व्यवस्था को लेकर उत्साही नहीं हैं. बहुतेरे हिंदू अब भी जाति के भीतर विवाह को वरीयता देते हैं, पर उनके दोस्त दलितों में भी हैं. कई लोग आरक्षण को लेकर नाराजगी जताते हैं, पर दलितों को शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में जो एक सीमित तवज्जो मिली हुई है उससे डाह नहीं करते. अलबत्ता हिंदू समाज का एक हिस्सा ऐसा है जो जाति के दबदबे के दिनों को बड़े मोह-भाव से याद करता है. उनमें से बहुतों को 2014 में भारतीय जनता पार्टी की जीत में अपने दिन फिरने के संकेत दिखे. गोरक्षा की ठेकेदारी सदियों के वचर्स्ववाद का नया इजहार है. गोवध और बीफ की खपत पर पाबंदी के सिलसिले और आक्रामक बहुसंख्यकवादी धारणाओं ने उनमें नया जोश पैदा किया है.

ऐसे कितने लोग होंगे जिन्होंने जातिवादी एजेंडे को डॉ आंबेडकर और ‘पेरियार’ ईवी रामास्वामी से ज्यादा साफ ढंग से समझा होगा? दोनों हिंदू समाज के सुधार की बाबत निराश थे. आंबेडकर का खयाल था कि हिंदू धर्म के ढांचे में दलित गरिमापूर्ण ढंग से नहीं रह सकते, और उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए दलितों का आह्वान किया. पेरियार का रास्ता निरीश्वरवाद और बुद्धिवाद का था. तीसरा रास्ता हिंदू सामाजिक व्यवस्था के सुधार का तथा उन रुझानों को तेज करने का था जो एक नई सामाजिक व्यवस्था की ओर ले जाएं- शिक्षा, उद्योगीकरण, शहरीकरण, संचार और तकनीकी प्रगति.

संवैधानिक लक्ष्य

हिंदू अति-राष्ट्रवादियों के लिए, हिंदू राष्ट्र का विचार, संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य से अधिक वरेण्य है. वे जाति के दंश के इतिहास को दबा-छिपा देना चाहते हैं. वे सोचते हैं कि हिंदू राष्ट्र के विचार को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि इसके दोषों को नगण्य करके देखा जाए और करोड़ों दलितों तथा अल्पसंख्यकों ने जो कीमत चुकाई है उसे अनदेखा कर दिया जाए. दूसरी तरफ, संविधान निर्माताओं ने कभी इन समस्याओं के वजूद से इनकार नहीं किया: उन्होंने जातिगत विषमता और जातिगत भेदभाव की हकीकत को माना, और अपने हिसाब से बीच के समाधान तलाशे, जैसे अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण और अल्पसंख्यकों के अधिकार.

संविधान का असल फोकस हरेक भारतीय के लिए कुछ नैसर्गिक अधिकारों को सुनिश्चित करना और इन अधिकारों को ऐतिहासिक अन्यायों से अप्रभावित रखना है. संविधान की यह बुनियाद जाति, धर्म, लिंग को नागरिकता और नागरिक अधिकारों के आड़े नहीं आने देती. इस विशाल और जटिलता भरे देश में समान नागरिकता के बोध का विकास अब भी ठीक से नहीं हो पाया है. हिंदू अति-राष्ट्रवाद, जो प्रकारांतर से बहुसंख्यकवाद है, संवैधानिक संकल्पना से मेल नहीं खाता. हमारी आंखों के सामने यह टकराव जारी है, दिनोंदिन अधिक उग्र रूप में. लंबे टकराव के नतीजे हमारे देश तथा एक शांतिमय व खुशहाल राष्ट्र के लक्ष्य की दिशा में इसकी प्रगति के लिए भयावह साबित होंगे.

साभारः जनसत्ता.  लेखक पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.