भारत एक विशेष दौर से गुज़र रहा है और जब तक ऐसा है, पक्ष या विपक्ष दोनों में से एक को चुनना होगा। कुछ समय के लिए विविधता, मतभेद, व्यक्तिगत आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, व्यक्तिगत मत आदि को एक तरफ रखते हुए जो तानाशाही, सांप्रदायिकता और पूंजीवाद का विकल्प है उसके साथ खड़ा होना चाहिए। झूठ के साथ संसाधन, सत्ता, मीडिया और सरकारी तंत्र खड़े हो गए हैं। मीडिया में वह ताक़त है कि संत को अपराधी और अपराधी को संत साबित कर दे। इन हालातों में क्या दलित सक्रियता को परिभाषित करना होगा। एनजीओ सेक्टर की हालात और ख़राब हो गई है। किसान संघर्ष करते-करते थक गए हैं। युवा एक बड़ी शक्ति बन सकता था लेकिन उसे हिंदू-मुस्लिम में उलझा दिया गया है। सस्ता मोबाइल डाटा उसकी दयनीय स्थिति को महसूस नहीं होने दे रहा है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम दम तोड़ रहे हैं। रास्ता तो निकालना होगा और कुछ सुझाव इस दिशा में समझ आते हैं।
दलित सक्रियता के अतिवाद के कारण सबसे अधिक क्षति उसी की हुई है। भड़काऊ और भावनात्मक विमर्श में फंस गया है। भारत एक भावुक समाज है और यह सभी पर लागू होता है। वे ज़्यादा प्रभावित हैं जो अधिक वंचित और अभाव में हैं। वह फ़िल्म ज़्यादा चलती है जिसका हीरो सड़क से ज़िंदगी शुरू करता है और अमीर और प्रभावशाली व शक्तिशाली को मारते हुए टॉप पर पहुंचता है लेकिन यह व्याहारिकता में नहीं होता। डॉ. अंबेडकर के कथन की आड़ में लोगों को भावना के पेड़ पर चढ़ा दिया गया। शोषक को सामने खड़ा कर वंचित को संगठित करना आसान है न कि समस्या निवारण से। 16% दलित आबादी के बल पर कैसे सत्ता पर कब्जा किया जा सकता? जागृति और संगठन के लिए ऐसे नारे जरूरी है परंतु मुद्दों और अधिकार की लड़ाई की क़ीमत पर नहीं। कोटा, परमिट, वज़ीफ़ा नौकरी, जमीन, निजीकरण, उद्योग, उपजातिवाद, संस्थाओं में हिस्सेदारी आदि के सवालों को निरर्थक बता देना और कहना कि सत्ता आने दो ये सब अपने आप प्राप्त होंगे। खूनी क्रांति से कुछ सीमा तक ये सपना हक़ीक़त में बदल सकता है लेकिन संवैधानिक रास्ते पर चलकर ऐसा कोई जादू नहीं होने वाला है। इस सब्ज-बाग के कारण व्यक्तिवाद इतना उभरा कि उतना सवर्ण भी नहीं कर सकते। एक कुर्सी, एक नेता, आंतरिक जनवाद का न होना और कार्यकर्ता के प्रति जवाबदेही का अभाव आदि से भला होने के बजाय जो हासिल था वह भी छिनता गया। जवाबदेही या नतीजा की आवाज उठे उसके पहले सवर्ण के शोषण की याद ताज़ा कराते रहना।
उपरोक्त तथ्यों से कई लोग सहमत होंगे और कुछ असहमत। 1990 में मंडल आयोग की शिफ़ारिशें लागू करने की घोषणा हुई। पिछड़ा कितना जागरूक था जानने की कोशिश करते हैं? जो पहला छात्र मंडल के विरोध में आत्मदाह किया वह ख़ुद ओबीसी का था। ऐसे में नारा 85 का देने का क्या मतलब रह जाता है? बीजेपी दो सांसदों की पार्टी हुआ करती थी। मंडल के विरोध में कमंडल यात्रा निकाली, जिसको अपार समर्थन मिला। चेतना के अभाव में एक बड़ा ओबीसी का समाज कमंडल के साथ खड़ा हो गया। मुस्लिम बीजेपी हराने से बाहर नहीं निकल पाता। आदिवासी राजनीतिक तौर पर अधिक जागृत नहीं हैं। इन हालातों में कोई दलित नेता या पार्टी हुकुमराम बनने की बात करे तो कितना व्यावहारिक है? दलितों में हज़ारों जातियां हैं और उनको इकट्ठा करना असंभव है। ऊपर से वर्गीकरण के कारण और मतभेद बढ़ गया है।
किस गणित के आधार पर पूरी ताक़त सत्ता हासिल करने के लिए झोंक देना अक़्लमंदी थी और सारे भौतिक मुद्दे दर किनारा कर दिया। जिससे कल्याण होता था, उसको वोट देना बंद कर दिया और उसे सत्ता से बाहर करने में योगदान दिया। जिसने लोक तंत्र की जड़े मजबूत किया और कल्याणकारी योजनाएं लागू किया उसी का जब साथ छोड़ दिया तो मिलती हिस्सेदारी खत्म होती गई। एक महापुरुष बहुत सारी बातें कहता है लेकिन व्यवहारिकता कुछ और होती है। गांधी जी बड़े उद्योग लगाने के पक्ष में नहीं थे और गाँव आधारित अर्थव्यवस्था चाहते थे तो क्या कांग्रेस लकीर की फ़क़ीर हुई। नेहरू जी बड़े उद्योग न लगाते तो भारत वहीं खड़ा होता। डॉ. अंबेडकर ने सबसे अधिक जातिविहीन समाज बनाने पर जोर दिया लेकिन उनके मानने वाले 1% लोग भी जाति न तोड़ सके। दार्शनिक, महापुरुष और विद्वान बहुत सारे उपदेश या विचार देते हैं लेकिन सब साकार नहीं किए जा सकते या समय लगता है।
जो विचारधारा हज़ारों वर्ष से भेदभाव और छुआछूत को मानने वाली थी, उसे फिर से सम्पूर्ण सत्ता हासिल हो गई। दलित आधारित राजनीति ने वोट तो काट लिया जिसके कारण सत्ता में दलित-पिछड़े विरोधी की जड़े मजबूत हो गई। जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, नारा अच्छा है लेकिन आज एक पूंजीपति पूरी मीडिया और प्रचार तंत्र पर नियंत्रण करने की क्षमता रखता है। जागृत दलित, पिछड़े और आदिवासियों की संख्या कितनी होगी, मुश्किल से 5% और बाकी को पैसे और प्रचार से बहकाया जा सकता है। अब सारा वोट और समर्थन उसी के साथ खड़ा करना होगा जो विकल्प है और मनुवादी ताक़त को हरा सकता हो। राष्ट्रीय स्तर पर जो नेता या पार्टी विकल्प में है, वही इनको हटा सकती है तो उसके साथ खड़ा होना होगा। एक-दो सांसद या क्षेत्रीय पार्टी बनाना भस्मासुर जैसी बात होगी। जाति का नेता बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा। संवैधानिक संस्थाएं कमजोर हुई हैं और संविधान के पन्ने अंदर से फाड़े जा रहे हैं है। भारी आर्थिक असमानता पैदा हो गई है। ऐसा अंग्रेजों के समय में भी न था। अल्पसंख्यक दूसरे दर्जे का नागरिक हो गया है। एनजीओ को मिलने वाली विदेशी फंडिंग बंद हो गई है। मीडिया नाम-मात्र की रह गई है। व्यापारी परेशान हैं। किसान के हालात खराब हैं। इन सभी को कुछ समय के लिए अपने कार्यक्रमों को शिथिल करते हुए, विकल्प के साथ खड़ा हो जाना चाहिए वरना सभी को क़ीमत चुकानी पड़ेगी और हालात बदतर होते जा रहे हैं।
सामाजिक न्याय के साथ खड़ा होना होगा। सामाजिक न्याय की व्याकता को समझने की जरूरत है। इसमें धर्म निरपेक्षता, समानता, हिस्सेदारी, जनवाद, उदारता आदि निहित हैं। कुछ महीने या साल तक के लिए ख़ुद की अत्मुग्धता, अहंकार, पहचान, निजी लाभ आदि का त्याग करना होगा तभी अधिनायकवादी ताकतों को हटाया जा सकता। जिधर सिर ज़्यादा होंगे, विजय उसी की होगी।
डॉ. उदित राज (पूर्व सांसद)

डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद (लोकसभा) के साथ कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) एवं अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं।