अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और घुमंतू जातियां ज्ञान और शिक्षा से बहिष्कृत हैं

भारत के भाषा संसार में गणेश नारायण देवी की उपस्थिति मानीखेज़ है. गणेश देवी ने आरंभिक शिक्षा भारत में पायी. यहीं से बीए और एमए किया और पीएचडी करने के लिए लीड्स विश्वविद्यालय चले गए. वे आगे चलकर गुजरात के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हुए.

वहां रहते हुए उन्होंने भारत के साहित्यिक इतिहास, भाषा और समाज एवं सत्ता में व्याप्त हिंसा की अंदरूनी तहों पर लिखा. उन्होंने इस बात पर लिखा कि भारत क्या-क्या और किस प्रकार भूलता है. उन्होंने भारतीय साहित्यिक चिंतन में विस्मृति के उन स्थलों की ओर सबका ध्यान दिलाया जहां पर औपनिवेशिक चिंतन जड़ जमाकर बैठ गया है.

अंग्रेजी साहित्य और व्याकरण की सुविधा और सुरुचिपूर्ण दुनिया से निकलकर गणेश देवी, महाश्वेता देवी और लक्ष्मण गायकवाड़ के साथ मिलकर पुरुलिया जिले के शबर आदिवासी बूधन की फरवरी 1998 में हिरासत में की गई हत्या के खिलाफ़ देशव्यापी अभियान चलाने निकल पड़े.

बूधन गरीब था और उसे चोर कहकर पुलिस थाने में पीटा गया था. पिटाई से उसकी मौत हो गयी. उन्होंने गुजरात के छहरा समुदाय के बच्चों के लिए उनके हिसाब से किताब और पाठ्यक्रम डिज़ाइन करने की पहलकदमी की और तेजगढ़ में आदिवासी अकादमी की स्थापना की.

उन्होंने अंडमान से लेकर लक्षद्वीप, कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक के क्षेत्रों का कई-कई बार दौरा किया. गणेश देवी ने अपने सहयोगियों के साथ भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण (पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ़ इण्डिया) को अंजाम दिया.

आयरिश विद्वान जार्ज ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के बाद आज़ाद भारत का यह पहला सर्वेक्षण है. इस भाषा सर्वेक्षण में बताया गया कि भारत 780 तरीके से बोलता है.

इस लेख का उद्देश्य उनके इसी सार्वजानिक जीवन से निकली एक किताब के बारे में बात करना है. इस किताब का नाम ‘द क्राइसिस विदिन : ऑन नॉलेज ऐंड एजुकेशन इन इण्डिया’ है. किताब में चार छोटे-छोटे अध्याय हैं जो ज्ञान के संकट, स्मृति और ज्ञान, स्मृति और विस्मृति, और स्मृतियोत्तर(पोस्ट मेमोरी)शिक्षा के बारे में बात करते हैं.

गणेश देवी का जीवन एक शिक्षा शास्त्री और कम्युनिकेटर का जीवन रहा है, इसलिए वे भाषा की भूमिका से अच्छी तरह से वाकिफ़ हैं. सरल अंग्रेज़ी भाषा में लिखी इस किताब के माध्यम से वे गैर अंग्रेज़ी भाषी समूहों तक पहुंचने में कामयाब रहते हैं.

द क्राइसिस विदइन: ऑन नॉलेज ऐंड एजुकेशन इन इंडिया, अलेफ़ बुक कंपनी, 2017, मूल्य 399 रुपये
इस किताब में वे बताते हैं कि भारत में ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में संकट कहां पर है और उससे कैसे निपटा जा सकता है. यह पतली सी किताब वास्तव में गणेश देवी की उस चिंतन को विस्तार देती है जिसमें भाषा, संस्कृति, रोजी-रोजगार के सवाल और बहिष्करण आपस में रस्सी की लट की तरह गुंथे हुए हैं.

यह किताब उपनिषदों से लेकर अभिनवगुप्त, मम्मट और धनञ्जय की सौन्दर्य दृष्टि पर बात करते हुए आगे बढ़ती है. तमिल, पालि और संस्कृत जैसी भारतीय भाषाओं ने अन्य नई उभरती भारतीय भाषाओं से अंतरक्रिया की और उसमें बहुत कुछ नया जोड़ा. ज्ञान की पहले से चली आ रही मौखिक विधियां लिखित विधियों में तब्दील होने लगीं.

कागज के प्रचलन से इसे बल मिला. इससे गणना, तर्क, दर्शन को लिखकर उस पर बात करना आसान हो गया. लेकिन यह ज्ञान केवल उन समुदायों का ही ज्ञान बन पाया जो पाठशालाओं में थे. पाठशालाओं के बाहर के लोग इन ज्ञान परंपराओं से बहिष्कृत हो गए. वे शिक्षा और ज्ञान के परिसरों से बाहर कर दिए गए.

धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, घुमंतुओं के बारे में बताते हुए गणेश देवी इस बात की चर्चा करते हैं कि किस प्रकार ज्ञान और शिक्षा की दुनिया से बहिष्कृत कर दिए गए हैं और केवल पांच प्रतिशत भारतीय ‘वर्चस्वी मुख्यधारा’ का निर्माण करते हैं. यदि भारत को ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में आगे जाना है तो वह इन समूहों को पीछे छोड़कर आगे नहीं जा सकता है.

इसे हम घुमंतू और विमुक्त समुदायों के मामले से समझ सकते हैं. गणेश देवी ने यह बात अपनी कई किताबों और सार्वजानिक व्याख्यानों में लगातार कही है कि भारत में लगभग सात करोड़ घुमंतू और विमुक्त समुदायों के लोगों की दशा चिंताजनक है.

ऐसे लगभग 190 समुदाय हैं जिन्हें 1871 में ब्रिटिश शासन ने क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के तहत अपराधी जनजाति घोषित कर दिया था. वास्तव में पूर्व आधुनिक भारत में प्रभुत्वशाली तबकों और राज्य ने आपस में एक गठजोड़ कर लिया था. इस गठजोड़ में पुलिस और इलाके के जमींदारों ने घुमंतू और विमुक्त समुदायों को चोर और अविश्सनीय कहकर प्रताड़ित किया.

इन समुदायों पर बहुत हिंसा ढाई गयी और उनका सम्मान छीन लिया गया. उन्हें इतिहास से बेदखल कर दिया गया. इन समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था. वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे. उनके लिए स्पेशल रिफार्म कैंप की भी व्यवस्था की गयी जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था.

इसका एक प्रभाव यह पड़ा कि घुमंतू लोग गांवों के बाहर की ऊसर-बंजर जमीनों, सड़क के किनारे, श्मशानों के किनारे या परित्यक्त बागों में बसने लगे. वे जहां बसे भी उस बस्ती को पुलिस की सीधी नजर में लाया गया. इस प्रकार 1871 के एक्ट से एक हीनतर सामाजिक सांस्कृतिक स्पेस की रचना की गयी.

एक समय के बाद इन समुदायों के सदस्य खुद को चोर और अपराधी मानने लगे और उन्होंने औपनिवेशिक कानूनों एवं वर्चस्वी ताकतों के अपने प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण का आत्मसातीकरण कर लिया.

भारत में शैक्षिक और सामाजिक स्पेस से दलितों और आदिवासियों की अनुपस्थिति ने देश को आगे बढ़ने से रोका है. दलित समूहों के पास डॉक्टर भीमराव आंबेडकर जैसे लीडर होने के कारण वे अपनी आवाज़ को कुछ दूर तक ले जाने में सफल हो पाए हैं.

आंबेडकर के बारे में बात करते हुए यह किताब बताती है कि आंबेडकर ने इस बात पर जोर दिया कि ज्ञान के द्वारा ही एक आधुनिक और मानवीय गुणों से पूर्ण समाज बनाया जा सकता है. लेकिन इस ज्ञान परंपरा तब तक अधूरी है जब तक उन समुदायों की याददाश्त की परंपराओं को महत्व न दिया जाए जिन्हें जिसे भारतीय ज्ञान परंपरा ने अब तक उपेक्षित कर रखा है.

गणेश देवी इस किताब में पड़ताल करते हैं कि औपनिवेशिक ज्ञानकाण्ड ने भारत की ज्ञान परंपराओं को उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय वातावरण से काट दिया और एक ऐसे समाज की रचना की जिसकी याददाश्त ही छीन ली गयी हो. वे यहीं नही रुकते. स्वयं भारत के अंदर मुद्रण तकनीक ने उन ज्ञान परंपराओं को हेय नज़रिये से देखा जो दलितों, आदिवासियों और घुमंतू समुदायों के बीच सांस ले रही थीं.

दुनिया गोल है: यह लगभग सबको पता चल गया है लेकिन इस दुनिया पर क़ब्ज़ा ज़माने के लिए सबसे पहले ज्ञान पर क़ब्ज़ा जमाना जरूरी हो जाता है. इसके लिए पहले से मौजूद ज्ञान परंपरा और उसके केंद्रों को नष्ट करना आवश्यक हो जाता है.

अफ्रीका और एशिया में इसे बड़े पैमाने पर किया गया. बेबिलोन और सुमेर के लोगों ने जिस ज्ञान की संरचना की, उसे हीन और कलंकित किया गया. पूरी दुनिया में ज्ञान के क्षितिज का विस्तार हुआ. भारत में भी ऐसा हुआ.

यहां पर तो उपनिषद, बौद्ध और जैन स्रोत, दर्शन के विभिन्न स्कूल और संस्कृत भाषा के सौन्दर्यशास्त्री ज्ञान के बारे में उत्कृष्ट चिंतन करते रहे हैं. इन पर विचार करने के साथ गणेश देवी ज्ञान की साभ्यातिक आलोचना विकसित करते हैं.

अमूमन देखा जाता है कि इस प्रक्रिया में भारतीय विद्वान अपना संतुलन खो देते हैं. वे घबराकर और कभी-कभार शिकायती स्वर में इसका दोष वैश्वीकरण को देने लगते हैं. मनुस्मृति और डाक्टर आंबेडकर के लेखन को पाठक के सामने रखकर यह किताब बताती है कि जाति के विभेदकारी भौतिक तत्वों को दार्शनिकता की आड़ में कितने लंबे समय से बनाए रखा गया है. लगभग दो हजार सालों का संतप्त इतिहास इस किताब में बहुत शिद्दत से मौजूद है.

महात्मा गांधी को इस बात का श्रेय जाता है कि शक्तिशाली अंग्रेज़ी साम्राज्य से घबराये नहीं. उन्होंने बहुत ही शाइश्तगी से इसकी बनावट को देखा और पाया कि यदि उन आधारों को ख़त्म कर दिया जाय जिससे अंग्रेज़ी साम्राज्य बना है तो वह भरभरा कर गिर जाएगा. हुआ भी ऐसा.

उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा में गुलामी के बीज देखे जिससे भारत अगली कई सदियों तक मुक्त नहीं होने वाला था. उन्होंने साबरमती आश्रम और गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की. 1920 में गुजरात विद्यापीठ ने अस्पृश्यता के खिलाफ़ प्रस्ताव पास किया.

इस विद्यापीठ का उद्देश्य सत्य और अहिंसा, श्रम की गरिमा, सभी पंथों की बराबरी और भाषाओं को सम्मान देना था. इसी तरह इस दौर के सम्मानित कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की. इन संस्थानों ने सवाल पूछने का ज़बरदस्त वातावरण उपलब्ध कराया.

यह सब आज़ादी की लड़ाई के वर्षों में हो रहा था. अगर भारत ज्ञान के क्षेत्र में कुछ बनना चाहता है अब ऐसा क्यों नहीं हो सकता है? यह किताब अपने पाठकों के समक्ष इस सवाल को भी रखती है.

यह किताब एक अपील के साथ ख़त्म होती है कि अब समय आ गया है कि भारत में उन घावों को भरा जाय जो वर्ण व्यवस्था और औपनिवेशिक शासन ने दिए हैं. वास्तव में भारत की दुर्दशा के लिए विभिन्न राजनीतिक दल और विद्वत्जगत अपनी सुविधानुसार दुश्मन का चुनाव करते हैं.

कुछ का कहना होता है कि प्राचीनकाल में सब कुछ सही था, भारत की यह दशा मुगलों ने की तो कुछ इसका सारा दोष भारत में ब्रिटिश शासन को देते हैं कि जिसने भारत की पूर्व आधुनिक ज्ञान परंपरा, समाज और संस्कृति को नष्ट कर दिया.

हालांकि दलित विद्वानों का एक बड़ा हिस्सा भारत में अंग्रेजों की भूमिका को मुक्तिकारी मनाता रहा है लेकिन यह किताब हमें यह भूलने से रोक देती है कि क्रिमिनल ट्राइब एक्ट के तहत कई दलित जातियों को औपनिवेशिक अपराधशास्त्र का पहला निशाना बनाया गया.

साभार- द वायर, रमाशंकर सिंह की रिपोर्ट

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