छत्रपति शाहूजी महाराज विशेषः बहुजन समाज के महानायक का संदेश

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 “डिप्रेस्ड और सप्रेस्ड वर्ग के लोगों को उच्च जाति के हिन्दु नेताओं के नेतृत्व पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और ना ही ऐसे किसी व्यक्ति को अपना नेता बनाना चाहिए, जिसके पास लोकतान्त्रिक उद्देश्य ना हो. इन समुदायों के लोगों को अपने समुदाय में से ही नेतृत्व का चुनाव करना चाहिए.”

छत्रपति शाहूजी महाराज ने इस बात का जिक्र अपने समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक जी ए गवई से 01 फरवरी 1920 को लिखे अपने एक पत्र में किया था. आज जब देश में आगामी लोकसभा चुनाव की हलचल तेज हो चुकी है, बहुजन समाज के इस महानायक का यह संदेश बहुत कुछ कहता है, जिससे बहुजन समाज को सीख लेने की जरूरत है। 26 जून को इसी महानायक की जयंती है।

अगर हम शाहूजी महाराज को उनके समय काल में देखें तो भारतीय राजनीति में उनका उदय ऐसे समय हुआ, जब महात्मा ज्योतिराव फुले का नेतृत्व नहीं रहा. शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर राज्य की बागडोर 1894 में संभाली थी, जिसके चार वर्ष पूर्व 28 नवंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले का परिनिर्वाण हो चुका था. महात्मा ज्योतिबा फुले के बाद उनके मनवातावादी विचारों को जनमानस में पहुंचाने की ज़िम्मेदारी छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपने मजबूत कंधों पर तब तक उठाए रखा, जब तक कि बाबासाहब आम्बेडकर का भारतीय राजनीति में पर्दापण नहीं हो गया.

शाहूजी महाराज ने ना केवल महात्मा ज्योतिराव फुले के आंदोलन को आगे बढ़ाया बल्कि डॉ. आम्बेडकर समेत हर उस राजनेता और समाज सुधारक की नैतिक और आर्थिक दोनों ही तरह से मदद भी की जोकि उस आंदोलन को आगे ले जाने का प्रयास कर रहे थे. इससे पता चलता है कि छत्रपति शाहूजी महाराज भारत में मनवातावादी आंदोलन की ‘नीव के वह ईंट’ हैं, जिनके बिना इस आंदोलन की परिकल्पना भी करना असंभव है.

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही यह कोशिश हो रही थी कि सभी तरह के आंदोलनों की कमान गांधीजी के हाथों में दे जी जाए और ऐसा उनको पूरे देश का भ्रमण कराके किया भी जा रहा था. लेकिन उस दौरान छत्रपति शाहूजी महाराज पूरे तन-मन-धन से इस कोशिश में लगे रहे कि सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व किसी ऐसे कुशल व्यक्ति के नेतृत्व में दिया जाये, जोकि ‘उच्च

जाति का ना हो एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला हो.’ शाहूजी महाराज का मानना था कि ‘नेता को दूरदृष्टा होना चाहिए, उसके पास भविष्य हेतु विजन होना चाहिए.

अपने इसी सोच के कारण उन्होंने 1920 में मानगांव में हुई अखिल भारतीय अस्पृश्य सभा में यह घोषणा की कि आगे से डॉ. आम्बेडकर आप लोगों के नेता होंगे? नेतृत्व की जरूरत पर महाराज ने उस सभा में यह तक कहा था कि …. जानवरों के पास भी अपना नेतृत्व है, लेकिन अछूतों के पास नहीं हैं. ऐसे में डॉ. आम्बेडकर उनके बेहतरीन नेता हो सकते हैं.

शाहूजी महाराज और डॉ. अम्बेडकर के संबंध काफी आत्मीय थे। बाबासाहब आम्बेडकर जब लंदन में अपनी पढ़ाई कर रहे थे, तो उन्होंने शाहूजी महाराज को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि वहां उनकी माली हालत काफी खराब है. यहां तक कि इंडिया वापस आने तक के लिए पैसे नहीं हैं,इसका जिक्र 04 सितंबर 1921 को बाबासाहब द्वारा शाहूजी महाराज को लिखे पत्र में मिलता है. इस पत्र के जरिए डॉ. आम्बेडकर ने शाहूजी से लोन के रूप में 200 पाउंड मांगे. तब शाहूजी महाराज ने डॉ. आम्बेडकर को ना केवल लंदन में वित्तीय मदद भिजवाई, बल्कि उनकी पत्नी रमाबाई आम्बेडकर को भी वित्तीय मदद भिजवाई. इसके अलावा बाबासाहब आम्बेडकर ने अपने पहले अखबार ‘मूकनायक’ को चलाने के लिए भी शाहूजी महाराज से समय-समय पर दरख्वास्त की और महाराज ने हमेशा दिल खोलकर अखबार के प्रकाशन को सुचारु रूप से जारी रखने में वित्तीय मदद दी.

आज जिस आरक्षण पर हमला कर के इसे समाप्त किया जा रहा है, उस आरक्षण की अवधारणा छत्रपति शाहूजी महाराज के राज्य कोल्हापुर से ही आई, जब उन्होंने 26 जुलाई 1902 को अपने एक आदेश से कोल्हापुर रियासत की पचास प्रतिशत सीटों को पिछड़ी जाति के लोगों के लिए आरक्षित कर दिया था. उनका कहना था कि इससे इन जातियों में संवृद्धि आएगी और इनका आत्मबल भी बढ़ेगा, जिसके फलस्वरूप कोल्हापुर राज्य सुखी और सम्पन्न होगा.

पिछड़ी जातियों एवं अछूतो में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में भी उनका विशेष योगदान रहा. उन्होंने फरवरी 1908 में अछूतों में शिक्षा के विस्तार के लिए एक सोसाइटी का गठन करवाया. महाराज ने अछूतों एवं पिछड़ी जातियों के लिए तमाम शहरों में हॉस्टल खुलवाएं एवं बच्चों में जाति आधारित सामाजिक विद्वेष ना फैले, इसके लिए अछूतों के लिए अलग स्कूल के प्रावधान को समाप्त करके एक सार्वजनिक स्कूल शुरू किया गया.

इसी तरह छुआछूत से भी उनको खासी चिढ़ थी। अपने राजतिलक के समय वो खुद ब्राह्मणों के छुआछूत का शिकार हो चुके थे। इस दर्द को महसूस करते हुए 15 जनवरी 1919 के अपने एक आदेश में शाहूजी महाराज ने रियासत के सभी अधिकारियों को यह आदेश जारी किया कि कोई भी अधिकारी अगर छुआछूत करते हुए मिला तो उसे राज्य की सेवा से मुक्त कर दिया जाएगा. इसी क्रम में उन्होंने राज्य के डाक्टरों के लिए 18 जनवरी 1919 को अलग से एक आदेश निकाल कर ना केवल उनको व्यावसायिक कर्तव्यों की याद दिलाई बल्कि यह भी बताया कि अगर उन्होंने अछूतों का इलाज करने से मना किया तो कठोरतम सजा होगी.

उनकी दूरदर्शिता और न्यायप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि शाहूजी महाराज ने 03 मई 1920 को ही अपने एक आदेश से कोल्हापुर राज्य में बंधुआ और बेगार मजदूरी पर प्रतिबंध लगा दिया था।

अपने जीवन का सिद्धान्त बताते हुए शाहूजी महाराज ने कहा था- ‘जो व्यक्ति अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं, वो कभी भी अपने प्रयास में सफलता प्राप्त नहीं करते और जो लोग अपने आप पर विश्वास करते हैं वो जरूर सफल होते हैं.’ वर्तमान वक्त में देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हालात को देखते हुए शाहूजी महाराज का यह सिद्धांत महत्वपूर्ण हो जाता है.

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