भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन की ओर से उम्मीदवार बनाए जाने के पहले कोविंद भारतीय राजनीति की आला कतार में नहीं देखे जाते थे.
सत्ताधारी गठबंधन ने उनके नाम का एलान किया तो ये राजनीति के जानकारों के लिए एक ‘सरप्राइज’ था.
कोविंद की तमाम विशेषताओं के जिक्र के साथ भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने बार-बार बताया कि वो दलित समुदाय से आते हैं.
विपक्ष की ओर से भी उनके मुक़ाबले दलित समुदाय से आने वाली पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया गया.
संख्याबल सत्तापक्ष के साथ था और उम्मीद के मुताबिक कोविंद बड़े अंतर से भारत के 14वें राष्ट्रपति चुन लिए गए.
दलितों के लिए कितना फ़ायदेमंद?
लेकिन, क्या कोविंद का राष्ट्रपति बनना दलित समुदाय के लिए फायदेमंद होगा, इस सवाल पर समाजशास्त्री बद्री नारायण कहते हैं कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने से दलित समुदाय का स्वाभिमान बढ़ेगा.
बद्री नारायण कहते हैं, “आत्म स्वाभिमान बढ़ाने के लिए तो अच्छा ही है. दलितों में भी स्वाभिमान की भावना तो आएगी.”
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन भी मानते हैं कि राष्ट्रपति भवन में कोविंद की मौजूदगी से दलितों का आत्मसम्मान बढ़ेगा, लेकिन वो इसे प्रतीक की राजनीति मानते हैं.
सुमन का कहना है कि दलित समुदाय की ओर से जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं, चाहे वो रोहित वेमुला का मामला हो या फिर फेलोशिप का मामला, उसमें कुछ नहीं हो रहा है. लेकिन इस कदम से वो खुश ज़रूर होंगे.
सुमन कहते हैं, “हमारे देश में बहुत सी ऐसी जातियां हैं जिनमें मुश्किल से कोई आइकन मिलेगा. बहुत सी जातियों में कोई करोड़पति भी नहीं मिलेगा. अगर उस समुदाय से कोई राष्ट्रपति बनता है तो बहुत बड़ी बात है. ”
रामनाथ कोविंद के दोस्त क्या कहते हैं?
लेकिन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक असमर बेग़ की राय अलग है.
वो कहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में इरादा दलितों का फ़ायदा करना नहीं था.
सांकेतिक राजनीति
प्रोफ़ेसर बेग़ के मुताबिक, “ये एक समुदाय को साथ जोड़ने के लिए उठाया गया राजनीतिक कदम था. इससे उस समुदाय को कोई फ़ायदा नहीं होगा. अगर आपका इरादा किसी सेक्शन का फ़ायदा करना है तो फिर आप उसके लिए आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नीतियां लाएंगे.”
प्रोफ़ेसर बेग़ ये भी कहते हैं कि जिन देशों में मतदाता लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर परिपक्व हैं, वहां भी राजनीतिक दल ऐसी सांकेतिक राजनीति करना चाहते हैं. लेकिन मतदाता उन्हें उस रास्ते पर जाने नहीं देते. वो कहते हैं कि आप रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार जैसे वास्तविक मुद्दों की बात कीजिए.
प्रोफ़ेसर बेग़ कहते हैं, “कंपनियां जब मार्केट में सामान बेचती हैं, तो विज्ञापन देकर माहौल बनाती हैं कि सामान बहुत अच्छा है. ऐसा ही माहौल राजनीतिक दल भी बनाते हैं.”
सुमन कहते हैं कि भारत में हर दल प्रतीकों की राजनीति करता है. कभी महिलाओं के नाम पर और कभी दलित और मुस्लिमों को लेकर, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को इसमें महारथ हासिल है.
सुमन कहते हैं, ” इसके पहले भी भारतीय जनता पार्टी ने संगठित रूप से अंबेडकर जयंती मनाई. उत्तर प्रदेश में बुद्ध सर्किट यात्रा की. सुलेह देव की जयंती मनाई. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक बयान आया है कि दलितों में राम टाइटिल बहुत हैं. मतलब काफी राम भक्त हैं. इसका आशय क्या है. वो अयोध्या में जो मंदिर बनाना चाहते हैं, उसके लिए रामभक्तों को गोलबंद करेंगे.”
लेकिन बद्री नारायण कोविंद के राष्ट्रपति बनने को सिर्फ प्रतीक की राजनीति नहीं मानते हैं. वो कहते हैं कि इससे दलितों के बीच संदेश जाएगा कि भारतीय जनता पार्टी उन्हें प्रतिनिधित्व दे रही है.
हालांकि, प्रोफ़ेसर बेग़ इस आकलन पर सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं कि अगर बात वंचित समुदाय को अधिकार संपन्न बनाने की है तो उन्हें वास्तविक अधिकार वाले पद क्यों नहीं दिए जाते हैं?
प्रोफ़ेसर बेग़ कहते हैं, “अगर ऐसे समुदायों का हकीकत में अधिकार संपन्न बनाना है तो उन्हें वास्तविक शक्तियां रखने वाले पद दिए जाएं. जैसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के पद हैं. लेकिन उन्हें अधिकार नहीं देने हैं. उनका सिर्फ इस्तेमाल किया जाना है. ऐसे में उन्हें ऐसे प्रतीकात्मक पद दिए जाते हैं.”
उधर, बद्रीनारायण मानते हैं कि लोकतंत्र में धीरे-धीरे चीजें बदलती हैं. आगे उन्हें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बनाया जा सकता है.
सियासी मजबूरी
राजनीतिक विश्लेषक सुमन कोविंद के राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने को भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक मजबूरी से जोड़कर देखते हैं.
वो कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की जो विचारधारा है, उसमें सैद्धांतिक तौर पर आरक्षण का विरोध किया जाता है और हिंदुत्व सवर्ण समूह को ज्यादा तुष्ट करती है लेकिन राजनीति में आप बहुजन के बिना आगे बढ़ नहीं सकते.
सुमन ये भी कहते हैं कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने के बाद दलितों की उम्मीदें भी बढ़ेंगी.
वो कहते हैं, “दलितों में बहुत आकांक्षा होगी. वो चाहेंगे कि गौरक्षा के नाम पर या अन्य वजहों से दलितों पर जो जुल्म बढ़े हैं, वो न हों. छुआछूत का भी मामला है. संविधान के ज़रिए जो उन्हें आरक्षण मिला है, वहां कोई अतिक्रमण न हो.”
राष्ट्रपति के तौर पर इन उम्मीदों पर ख़रा उतरना ही कोविंद की सबसे बड़ी चुनौती होगी.
वात्सल्य राय का यह लेख बीबीसी हिंदी से साभार लिया गया है. लेख में कोई बदलाव नहीं किया गया है.

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