चांद पर भारतीय चंद्रयान और सीवर में मरते दलित

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बीते कुछ दिनों से जिस खबर की धूम है, वह खबर है चंद्रयान-3 का चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना। देश भर में इसको लेकर खुशी की लहर है। इस पर चर्चा करते टीवी वाले पत्रकार लोग स्क्रीन से बाहर आने को बेताब हैं। मैंने भी फेसबुक और ट्विटर पर अपना प्रोफाइल फोटो बदल दिया है। लेकिन इसी बीच मुझे मेरे मित्र और गुरु भाई गौरव पठानिया, जो कि अभी अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में रहते हैं और वहीं इस्टर्न मेनोनाइट युनिवर्सिटी में सोसियोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, उनकी एक कविता ‘चांद मेनहोल सा लगता है’ याद आ गई और इस हर्ष की बेला में मेरा मन थोड़ा उदास हो गया।

पहले उस कविता की कुछ लाइनों का जिक्र, फिर खबर पर, क्योंकि दोनों जुड़े हुए हैं। अपनी कविता में हमारे कवि मित्र एक गंभीर सवाल उठाते हैं। कहते हैं-

ब्लैक होल…  एक ऐसी जगह
जहां गुरुत्वाकर्षण इतना खौफनाक
कि वो विशालकाय सितारों और ग्रहों को भी निगल जाए।

हर सुबह, हजारों लोग, कांधे पर एक रस्सी लटकाए
और हाथ में एक डंडी लिए, निकल पड़ते हैं
अंतरिक्ष यात्री की तरह उतर जाते हैं, इस ब्लैक होल से भी ज्यादा खतरनाक
उस मैन होल में…

और बाहर निकलते ही, या तो एक खबर बन कर
या एक रिपोर्ट बनकर
कि मैन होल में सफाई करते हुए हर साल
दो हजार से भी ज्यादा लोग दम तोड़ देते हैं

सदियों से जाति के इस गुरुत्वाकर्षण ने
ज्ञान रूपी प्रकाश की गति इतनी धीमी कर दी है
कि हम अपने ही घर और मुहल्लों के नीचे का
खगोल शास्त्र नहीं पढ़ पा रहे हैं

ब्लैक होल में अपना भविष्य खुरच रहे एक चचा से मैंने पूछा,
कि चचा सुने हो
दुनिया चंद्रयान से चांद पर जा चुकी है
पर आप अभी तक यहां हो
चचा बोले, बेटा- इस नर्क में रहते-रहते
जीवन एक अमावस सा लगता है
मैं यहां से ऊपर देखता हूं, तो चांद मैन होल सा लगता है

मेनहोल के भीतर से आसमान की ओर देखते ये लोग
वर्षों से इंतजार कर रहे हैं कि कोई मसीहा आएगा
उन्हें खिंच निकालेगा, इस नर्क से बाहर… लेकिन… लेकिन… (कविता समाप्त)

कविता की लाइने समाप्त, लेकिन चंद्रयान के बाद ब्लैक होल और मैन होल की बात सुनकर, उस खूबसूरत चांद पर चहल कदमी करते चंद्रयान के बाद बदबूदार गटर में गले तक डूबे लोगों की तस्वीरें याद कर के अगर आपका मन बजबजा गया होगा, तो उसके लिए माफी। लेकिन सवाल तो बनता है न। भारत चांद पर चला गया, लेकिन अपने लोगों को गटर से नहीं निकाल पाया।

मित्र गौरव पठानिया ने इस कविता को अपने मेंटर और गुरु जेएनयू में प्रोफेसर विवेक कुमार और सफाई कर्मचारी आंदोलन के अगुवा और मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित बेजवाड़ा विल्सन को समर्पित किया है।

जब चंद्रयान चांद पर उतरा और देश का संभ्रांत तबका अपनी छाती ठोक रहा था, बेजवाड़ा विल्सन अपनी छाती पीट रहे थे। जब सारा देश वैज्ञानिकों को और इसरो को बधाईयां दे रहा था, तब सीवर में हो रही मौतों के खिलाफ स्टॉप किलिंग अस के बैनर तले देश भर की यात्रा पर निकले बेजवाड़ा विल्सन तेलंगाना के वरंगल से सवाल उठा रहे थे। उनका कहना था कि, आज हम चाँद तक तो अपनी पहुँच बना चुके हैं, लेकिन धरती पर हमें अब भी उस तकनीक के अमल का इंतज़ार है जिससे गटर की ज़हरीली गैस से जाती जानों को बचाया जा सके।

आप फिर कह सकते हैं कि चांद की बाते करो, क्या गंदगी लेकर बैठ गए। लेकिन जरा ठहरिये, सोचिए कि क्या बेजवाड़ा विल्सन के सवाल पर बात नहीं होनी चाहिए। वो भी तब जब हर साल हजारों लोग सिर्फ इसलिए मौत का शिकार हो जाते हैं, क्योंकि सरकारें उन्हें सुविधाएं नहीं दे रही है।

सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण राज्यमंत्री रामदास अठावले ने 5 अप्रैल 2023 को भारत की संसद में बताया था कि पांच सालों में सीवर साफ करते हुए 308 सफाई कर्मचारियों की मौत हुई है। यानी हर सप्ताह एक सफाई कर्मचारी की मौत। लेकिन सरकार झूठ बोल रही है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन पिछले एक साल से ज्यादा समय से सीवर में मौतों के खिलाफ एक अभियान चला रहा है। अभियान का नाम है Stop Killing Us. इसके अगुवा बेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि मई 2022 में इस अभियान के शुरू होने से लेकर मई 2023 तक, एक साल में सीवर में 100 से ज्यादा मौतें हुई हैं। यानी सरकार पांच साल में 308 मौत बता रही है जबकि विल्सन का दावा है कि उन्होंने पिछले एक ही साल में 100 से ज्यादा मौत दर्ज की हैं। उनका कहना है कि 1993 से लेकर अब तक सीवर में 2000 से ज्यादा मौते हो चुकी है। सवाल यह है कि उसका जिम्मेदार कौन है?

ब्लैक होल में अपना भविष्य खुरच चुके चचा के बच्चों का भविष्य कब सुरक्षित होगा? क्योंकि जिस दिन चचा और उन जैसों के बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा और बेजवाड़ा विल्सन को Stop Killing Us की यात्रा निकालने की जरूरत नहीं होगी, उसी दिन चंद्रयान जैसे मिशन सार्थक होंगे।

 हमेशा आसमान की ओर देखना जरूरी नहीं होता, कभी-कभी जमीन पर भी देख लेना चाहिए। सच्चाई का अहसास होता है।

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