प्रत्येक महापुरुष के पीछे उसकी जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है. जीवन साथी का त्याग और सहयोग अगर न हो तो व्यक्ति का महापुरुष बनना आसान नहीं है. रमाताई अम्बेडकर इसी त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थीं. आज ही के दिन यानि 4 अप्रैल सन् 1906 में रामी का विवाह भीमराव अम्बेडकर से हुआ. डॉ. अम्बेडकर रमा को ””रामू”” कह कर पुकारा करते थे जबकि रमा ताई बाबा साहब को ”साहब” कहती थी. बाबासाहेब से रमाई की जब शादी हुई थी, तो वे महज नौ साल की थीं. एक समर्पित पत्नी की जिम्मेदारी उन्होंने भलीभांति निभाई.
शादी के पहले रमा बिलकुल अनपढ़ थी, लेकिन अम्बेडकर ने उन्हें साधारण लिखना-पढ़ना सिखा दिया था. वह अपने हस्ताक्षर कर लेती थी. बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये. पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिति में कठिनाईयां पेश आनी एक साधारण सी बात थी. रमाबाई ने यह कठिन समय भी बिना किसी शिकवा-शिकायत के बड़ी वीरता से हंसते हंसते काट लिया.
एक समय जब बाबासाहेब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे तो धनाभाव के कारण रमाबाई को उपले बेचकर गुजारा करना पड़ा था. लेकिन यह बात लोगों को शायद ही मालूम हो कि उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए अपना पेट काटकर, गोबर के उपले बनाकर और घर-घर बेचकर मनीआर्डर विदेश भेजा करती थीं.
वंचित समाज के उद्धार के लिए डॉ. अम्बेकर हमेशा ज्ञानार्जन में रत रहते थे. ज्ञानार्जन की तड़प उन में इतनी थी कि उन्हें घर और परिवार का जरा भी ध्यान नहीं रहता था. रमाबाई इस बात का ध्यान रखती थीं कि पति के काम में कोई बाधा न हो. वह संतोष, सहयोग और सहनशीलता की मूर्ति थीं. डॉ. अम्बेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे. वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे पत्नी रमा को सौंप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे. रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी. त्यागमूर्ति रमाबाई ने संघर्ष का ऐसा दौर भी देखा, जब उचित पालन-पोषण और चिकित्सा के अभाव में पांच में से चार बच्चों की मौत हो गई. महज 38 साल की उम्र में ही उनती मृत्यु हो गई.
दिसंबर 1940 में बाबासाहेब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की पुस्तक को अपनी पत्नी रमाबाई को ही भेंट किया. भेंट के शब्द इस प्रकार थे.. “रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…” इन शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों के दिनों में साथ दिया और बाबासाहेब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था.

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